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संज्ञान तथा संवेग | CTET

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संज्ञान तथा संवेग

संज्ञान (Cognition): संज्ञान से तात्पर्य एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें संवेदन (Sensation), प्रत्यक्षण (Perception), प्रतिमा (Imagery), धारणा, तर्कणा जैसी मानसिक प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।
⇔ संज्ञान से तात्पर्य संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसका रूपांतरण, विस्तरण, संग्रहण, पुनर्लाभ तथा उसका समुचित प्रयोग करने से होता है।
⇔ संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसपर चिंतन करने तथा क्रमिक रूप से उसे इस लायक बना देने से होता है जिसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करके वे तरह-तरह की समस्याओं का समाधान
आसानी से कर लेते हैं।
संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में तीन सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं-
(a) पियाजे का सिद्धांत
(b) वाइगोट्स्की (Vygostsky) का सिद्धांत
(c) ब्रुनर (Bruner) का सिद्धांत
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत (Piaget’s Theory of Cognitive Development) : पियाजे ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या करने के लिए चार अवस्था (Four Stage) सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धांत में पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या निम्नलिखित 4 अवस्थाओं में की है-
1. संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage): यह अवस्था जन्म से दो साल तक की होती है। इस अवस्था में शिशुओं में शारीरिक रूप से चीजों को इधर-उधर करना, वस्तुओं की पहचान करने की कोशिश करना, किसी चीज को पकड़ना और प्रायः उसे मुँह में डालकर उसका अध्ययन करना प्रमुख है। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में शिशुओं का विकास छः उपअवस्थाओं से होकर गुजरता है-
(a) प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था : यह पहली अवस्था है जो जन्म से 30 दिन तक की होती है। इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त क्रियाएँ (Reflex Activities) करता है। इन प्रतिवर्त क्रियाओं में चूसने का प्रतिवर्त (Sucking Reflex)सबसे प्रबल होता है ।
(b) प्रमुख वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Primary Cirular Reactions): दूसरी अवस्था 1 महीने से 4 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशुओं की प्रतिवर्त क्रियाएँ (ReflexActivities)उनकी अनुभूतियों द्वारा कुछ हद तक परिवर्तित होती हैं, दुहराई जाती हैं और एक-दूसरे के साथ अधिक समन्वित हो जाती हैं ।
(c) गौण वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Secondary Circular Reactions): यह तृतीय अवस्था है जो 4 से 8 महीने तक की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशु वस्तुओं को उलटने पुलटने (Manipulation) तथा छूने पर अपना
अधिक ध्यान देता है। बच्चे जान-बूझकर कुछ ऐसी अनुक्रियाओं (Responses) को दुहराता है जो उसे सुनने या करने में रोचक एवं मानेरंजक लगता है।
(d) गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था : यह चौथी प्रमुख अवस्था है जो 8 महीने से 12 महीने की अवधि की होती है। इस अवधि में बालक उद्देश्य तथा उस पर पहुँचने के साधन में अंतर करना प्रारंभ कर देता है। जैसे—यदि खिलौना को छिपा दिया जाता है तो वह वस्तुओं को इधर-उधर हटाते हुए खोज जारी रखता है।
(e) तृतीय वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था : यह 12 महीने से 18 महीने की होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयास एवं त्रुटि (Trial and Error) विधि से सीखने की कोशिश करता है।
(f) मानसिक संयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था (Stage of the Invention of New Means Through Mental Condition): यह अंतिम अवस्था है जो 18 महीने से 24 महीने की अवधि तक की होती है। यह ऐसी अवस्था है जिसमें बालक वस्तुओं के बारे में चिंतन प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारंभ कर देता है, जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती है। इस गुण को वस्तु स्थायित्व (Object Performance) कहा जाता है।
2. प्राक्-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage): यह अवस्था 2 से 7 साल की होती है अर्थात् प्रारंभिक बाल्यावस्था इस अवस्था को पियाजे ने दो भागों में बाँटा है—प्राक्संप्रत्ययात्मक अवधि तथा अंतर्दर्शी अवधि ।
(a) प्रासंप्रत्ययात्मक अवधि (Pre-conceptual Period): यह अवधि 2 से 4 साल की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेता है। सूचकता का तात्पर्य इस बात से है कि बालक यह समझने लगता है कि वस्तु, शब्द प्रतिमा तथा चिंतन किसी चीज के लिए किया जाता है।
⇔ पियाजे ने संकेत (Symbols) तथा चिह्न (Sign) को प्रासंक्रियात्मक चिंतन का महत्वपूर्ण साधन माना है। इस अवस्था में बालकों को इन सूचकता का अर्थ समझना होता है तथा अपने चिंतन एवं कार्य में उसका प्रयोग सीखना पड़ता है। इसे पियाजे
ने लाक्षणिक कार्य की संज्ञा दी है।
⇔ बालकों में लाक्षणिक कार्य मूलतः दो तरह की क्रियाओं-अनुकरण (Imitation) एवं खेल (Play) के द्वारा होता है । अनुकरण (Imitation) की प्रक्रिया द्वारा बालक सूचकता को सीखता है।
उदाहरण के लिए : बालक जब माँ के “फल’ को कहने का अनुकरण करता है तो वह धीरे-धीरे फल एवं उसके अर्थ को समझता है।
(b) अंतर्दर्शी अवधि (Intuitive period): यह अवधि 4 से 7 साल की होती है। इस अवधि में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (Reasoning) पहले से अधिक परिपक्व (Mature) हो जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप बालकों की साधारण मानसिक प्रक्रियाएँ
जोड़, घटाव, गुणा तथा भाग आदि में सम्मिलित होती है, उन्हें वह कर पाता है। परंतु इस मानसिक क्रियाओं के पीछे छिपे नियमों को वह नहीं समझ पाता है। उदाहरण के लिए बालक यह समझता है कि 3×329 हुआ परंतु 9+3=3 कैसे हुआ, यही नहीं समझ पाता है।
3. ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concrete Operation): यह अवस्था 7 साल से प्रारंभ होकर 12 साल तक चलती है। इस अवस्था की विशेषता यह है कि बालक ठोस वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक संक्रियाएँ करके समस्या का समाधान कर लेता है। जैसे—बालक 3×3 = 9 तथा 9+3=3 होगा यह समझ विकसित कर लेता है।
⇔ इस अवस्था में बालकों में तीन महत्वपूर्ण संप्रत्यय विकसित हो जाते हैं। संरक्षण (Conservation), संबंध (Relation) तथा वर्गीकरण (Classification) | इस अवस्था में बालक तरल (Liquid), लंबाई, भार तथा तत्व के संरक्षण से संबंधित समस्याओं का समाधान कर पाता है। वे क्रमिक संबंधों (Ordinal Relations) से संबंधित समस्याओं का भी समाधान करते पाये जाते हैं।
4. औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operation): यह अवस्था 11 साल से प्रारंभ होकर वयस्कावस्था तक चलती है। इस अवस्था में किशोरों का चिंतन अधिक लचीला (Flexible) तथा प्रभावी हो जाता है। उसके चिंतन में पूर्ण
क्रमबद्धता आ जाती है।
⇔ इस अवस्था में बालकों के चिंतन में वस्तुनिष्ठता (Objectivity) तथा वास्तविकता (Reality) की भूमिका अधिक बढ़ जाती है अर्थात् बालकों में विकेंद्रण पूर्णतः विकसित हो जाता है।
⇔ यह अवस्था किशोरों के शिक्षा के स्तर (Level of Education) से सीधे प्रभावित होती है।
ब्रुनर के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
Bruner’s Theory of Cognitive Development
ब्रुनर (Bruner) ने संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन में मुख्य रूप से दो प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास किया-
★ शिशु किस ढंग से अपनी अनुभूतियों (Experiences) को मानसिक रूप से बताते हैं?
★ शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में बालकों का मानसिक चिंतन कैसे होता है?
⇔ बुनर ने शिशु अनुभूतियों के मानसिक रूप को तीन तरीकों द्वारा बताया है-
(a) संक्रियता (Enactive), (b) दृश्य प्रतिमा (Iconic), (c) सांकेतिक (Symbolic)
⇔ संक्रियता (Enactive) एक ऐसा तरीका है जिसमें शिशु अपनी अनुभूतियों को क्रिया द्वारा व्यक्त करता है। उदाहरण के लिए दूध का बोतल देखकर शिशु द्वारा मुँह चलाना, हाथ पैर फेंकना इत्यादि जिसके द्वारा वह दूध पीने की इच्छा की
अभिव्यक्ति कर रहा है।
⇔ दृश्य-प्रतिमा विधि (Iconic Mode) में बालक अपने मन में कुछ दृश्य-प्रतिमाएँ बनाकर अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है।
⇔ सांकेतिक विधि (Symbolic Mode) में बालक भाषा के व्यवहार द्वारा अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है।
⇔ ब्रुनर के अनुसार इन तीनों के संप्रत्यय का विकास एक क्रम में होता है। जन्म से करीब 18 महीनों तक संक्रियता (Enactive) विधि की प्रधानता देखी गयी है। 1 या 2 वर्ष की उम्र में दृश्य-प्रतिमा विधि की प्रधानता होती है और करीब
7 वर्ष की उम्र में सांकेतिक विधि की प्रधानता होती है।
ब्रुनर एवं पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत में अंतर
ब्रुनर ने भी पियाजे के समान ही संज्ञानात्मक विकास को एक क्रमिक प्रक्रिया माना है तथा बालकों के चिंतन में संकेत (Symbol) तथा प्रतिमा (Images) को महत्वपूर्ण माना है।
⇔ ब्रुनर के सिद्धांत की व्याख्या पियाजे के सिद्धांत की प्रथम तीन अवस्थाओं के समानांतर है। परंतु ब्रुनर ने संज्ञानात्मक विकास में भाषा को पियाजे की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण बताया है। उनके अनुसार बालकों के चिंतन में भाषा की अहमियत
अधिक होती है।
⇔ पियाजे के सिद्धांत में बालकों के चिंतन में उनकी परिपक्वता एवं अनुभूतियाँ तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण होती हैं।
वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
Vygostsky Theory of Cognitive Development
⇔ वाइगोट्स्की ने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों (Social Factors) एवं भाषा (Language)को महत्वपूर्ण बतलाया है। इसलिए वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत भी कहा जाता है।
⇔ पियाजे के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में संस्कृति तथा शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं होती है। वाइगोट्स्की ने इसे अस्वीकृत कर दिया और यह बात कही कि बच्चे जिस उम्र में भी किसी संज्ञानात्मक कौशल को सीखते हैं; उनपर इस बात
का अधिक प्रभाव पड़ता है कि क्या संस्कृति से उन्हें संगत सूचना तथा निर्देश प्राप्त हो रहा है या नहीं।
⇔ वाइगोट्स्की के अनुसार संज्ञानात्मक विकास एक अंतवैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति में संपन्न होता है जिसमें बच्चों को अपने वास्तविक विकास के स्तर (Level of Actual Development) तथा उनके संभाव्य विकास के स्तर (Level of Potential Development) के तरफ ले जाने की कोशिश की जाती है।
⇔ इन दोनों स्तरों के बीच के अंतर को वाइगोट्स्की ने समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Provimal Development or ZPD) कहा है।
⇔ समीपस्थ विकास के क्षेत्र (ZPD) का तात्पर्य बच्चों के लिए एक ऐसे कठिन कार्यों के परास (Range) से होता है जिसे वह अकेले नहीं कर सकता है, लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों की मदद से उसे करना संभव है।
संज्ञानात्मक विकास के नवीनतम सिद्धांत
(a) बच्चों के मन का सिद्धांत (Children’s Theory of Mind): बच्चों के मन का सिद्धांत से तात्पर्य उनमें अपनी सामाजिक अवस्थाओं तथा दूसरों की अवस्थाओं के बारे में उत्पन्न समझ से होता है।
(b) सूचना संसाधन उपागम (Information Processing Zone): यह उपागम संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या, बच्चों में संज्ञान के मौलिक पहलू जैसे अवधान (Attention), स्मृति तथा मेटासंज्ञान से संबंधित वर्द्धित क्षमताओं के रूप में करता
है। संज्ञान के इन सभी क्षेत्रों में प्रायः देखा जाता है कि उम्र बीतने से बच्चों में क्षमताएँ विकसित एवं मजबूत होती हैं क्योंकि उनमें सूचनाओं को संसाधित करने की क्षमता तीव्र होती है। यह इस प्रकार है-
★ संसाधन की गति, अवधान तथा अनुक्रिया अवरोध
★ स्मृति (Memory)
★ मेटासंज्ञान (Metacognition)
संवेग
Emotion
⇔ संवेग पद का अंग्रेजी रूपांतर ‘Emotion’जो लैटिन शब्द ‘Emovere’ से बना
है। संवेग व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था का दूसरा नाम है।
⇔ गेलडार्ड (Geldard) के अनुसार, “संवेग क्रियाओं का उत्तेजक है।”
⇔ इंगलिश तथा इंगलिश (English & English) के अनुसार, “संवेग एक जटिल भाव की अवस्था होती है, जिसमें कुछ खास खास शारीरिक एवं ग्रंथीय क्रियाएँ होती हैं।”
⇔ बेरान, बर्न तथा कैंटोविज (Baron, Byrneand Kantowitz) के अनुसार, “संवेग से तात्पर्य एक ऐसी आत्मनिष्ठ भाव की अवस्था से होता है, जिसमें कुछ शारीरिक उत्तेजना पैदा होती है और जिसमें कुछ खास खास व्यवहार होते हैं।”
बालकों के संवेगों का महत्व अग्रलिखित है-
(a) बालकों के प्रत्येक दिन के अनुभवों में संवेगों से आनंद जुड़ जाता है। बालकों को जिज्ञासा, स्नेह, हर्ष इत्यादि से सुखानुभूति प्राप्त होती है तथा क्रोध एवं भय जैसे संवेगों की अभिव्यक्ति कर बालक तनावमुक्त हो जाता है।
(b) जब बालक में संवेगात्मक अनुक्रियाओं की बार बार पुनरावृति होती है तो ये
संवेगात्मक अनुक्रियाएँ बालकों में आदत के रूप में परिवर्तित होती हैं।
(c) बालकों के संवेग और संवेगात्मक अनुक्रियाएँ उसकी सामाजिक अंतःक्रियाओं को प्रभावित करती हैं।
(d) बालक का जीवन के प्रति दृष्टिकोण संवेगों से प्रभावित होता है।
(e) बच्चे संवेगों द्वारा आत्म-मूल्यांकन और सामाजिक मूल्यांकन करते हैं।
(f) संवेग बालक को क्रियाशील बनाते हैं।
(g) बालकों में संवेगों के कारण बढ़ी हुई क्रियाशीलता यदि व्यक्त नहीं हो पाती है, तो उनमें वाणी संबंधी दोष उत्पन्न हो सकते हैं।
(h) संवेगों में शारीरिक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों से बालक के बारे में यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है कि बालक क्या और कैसा अनुभव कर रहा है।
(i) बालकों के संवेग, वह जिस वातावरण में रहता है, इसके मनोवैज्ञानिक वातावरण को प्रभावित करते हैं, जो बदले में बालक के व्यवहार को प्रभावित करता है।
संवेगात्मक विकास की विशेषताएँ
Characteristics of Emotional Development
संवेगात्मक विकास की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
⇒ संवेगात्मक विकास एक क्रम से होता है।
⇒ संवेगात्मक विकास साधारण से जटिल की ओर होता है।
⇒ संवेगात्मक विकास में परिपक्वता का अनुभव वृद्धि से आती है।
⇒ प्रशिक्षण द्वारा संवेगों का परिमार्जन किया जा सकता है।
⇒ संवेगात्मक विकास और मानव व्यवहारों में सह-संबंध पाया जाता है।
बालकों के संवेगों की विशेषताएँ
⇒ बालकों के संवेग तीव्र होते हैं।
⇒ बालकों के संवेग क्षणिक होते हैं।
⇒ बालकों की संवेगात्मक अनुभूतियों बार-बार अभिव्यक्त होती हैं।
⇒ बालकों की संवेगात्मक अभिव्यक्तियों में व्यक्तिगत भिन्नता पायी जाती है।
⇒ बालकों के संवेगों की शक्ति परिवर्तित होती रहती है।
⇒ बालकों के संवेगों को उनके व्यवहार के लक्षणों द्वारा आसानी से पहचाना जा सकता है।
⇒ बालकों के संवेग मूर्त वस्तुओं तथा परिस्थितियों से संबंधित होते हैं।
अति संवेगात्मक के कारण
Causes of Heightened Emotionality
1. शारीरिक कारण (Physical Causes) :शारीरिक कारणों में तीन कारण प्रमुख हैं शरीर में विकासात्मक परिवर्तन, थकान और दुर्बल स्वास्थ्य । इन तीनों ही कारणों के कारण बालक की संवेगात्मकता बढ़ सकती है।
2. मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Causes): मनोवैज्ञानिक कारणों में बुद्धि और आकांक्षा स्तर अधिक महत्वपूर्ण है। समान आयु के बालकों में जिन बालकों की बुद्धि कम होती है, उनमें संवेगात्मक नियंत्रण भी कम मात्रा में होता है। उच्च आकांक्षा स्तर की उपस्थिति में बालकों को कई बार असफलता का सामना करना पड़ता है। इस अवस्था में चिंता के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
3. वातावरण संबंधी कारण (Environmental Causes): बच्चों को उसके परिवार तथा अन्य लोग किस प्रकार संभालते हैं, बच्चों के आपसी लड़ाई-झगड़े, माता-पिता का अधिक लाड़-प्यार, माता-पिता का बच्चों की ओर ध्यान देना इत्यादि कुछ ऐसे वातावरण संबंधी कारक हैं, जो बालकों के मनोवैज्ञानिक वातावरण से संबंधित होते हैं। ये सभी कारक बालक की अति संवेगात्मक को भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।
बालक संवेगात्मक को प्रभावित करने वाले कारक
Factors Affecting Child Emotionality
⇒ शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health)
⇒ सामाजिक वातावरण (Social Environment)
⇒ पारिवारिक वातावरण (Family Environment)
⇒ सामाजिक-आर्थिक स्तर
⇒ परिवार का आकार
⇒ लिंग
⇒ थकान और भूख
⇒ बालक अभिभावक संबंध
⇒ बुद्धि (Intelligence)
⇒ आत्मविश्वास (Self Confidence)
⇒ व्यक्तित्व (Personality)
संवेगों का नियंत्रण
Control of Emotions
संवेगों का नियंत्रण करने का अर्थ है उनका उपयोग ठीक दिशा में होना। संवेगों के नियंत्रण के कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. अध्यवसाय (Industriousness): बालकों में संवेगों के उत्पन्न होने और व्यक्त करने का समय ही नहीं देना चाहिए, क्योंकि जब बच्चे अपनी रुचि के अनुसार कुछ कार्यों को करने में व्यस्त रहते हैं तब उनमें संवेग कम उत्पन्न होता है।
2. शमन (Repression): यह एक प्रकार की मानसिक रचना है जिसके द्वारा व्यक्ति अप्रिय, दुखद और कष्टकारी घटनाओं, विचारों, इच्छाओं और प्रेरणाओं इत्यादि को चेतना से जान बूझकर निकाल देता है।
3. विस्थापन (Displacement): यह एक रचना है जिसमें किसी वस्तु या विचार से सम्बन्धित संवेग किसी अन्य वस्तु या विचार में स्थानांतरित हो जाते हैं।
4. संवेगात्मक शक्ति को समाज द्वारा स्वीकृत ढंग से व्यक्त करना: इसमें चालक को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है कि वह अपने संवेगों का प्रकाशन इस ढंग से करता है कि लोग उसे पसंद करने लगते हैं।
5. प्रतिगमन (Regression): अहम, एकता और संगठन को बनाये रखने के लिए तथा तनाव को दूर करने के लिए, जब व्यक्ति कम परिपक्व जवाब (Reply) का सहारा लेते हैं तो यह रचना प्रतिगमन कहलाता है।
6. संवेगात्मक रेचन (Emotional Catharsis): रेचन का अर्थ है दबाये गये संवेगों को समय-समय पर उभरने का अवसर देना। संवेगात्मक रेचन दो प्रकार के होते हैं।
» शारीरिक रेचन (Physical Catharsis)
» मानसिक रेचन (Mental Catharsis)
7. शोध (Sublimation): शोध वह क्रिया है जिसके द्वारा संवेगों का रूप इतना परिवर्तित हो जाता है कि हम उसे पहचान नहीं पाते।
बालकों तथा प्रौढ़ों के संवेगों में भिन्नता
Difference Between Children’s and Adult’s Emotions
1. बालकों के संवेग क्षणिक और अल्पकालीन होते हैं जबकि प्रौढ़ों के संवेग तीव्र और दीर्घकालीन होते हैं।
2. बालक विभिन्न संवेगों जैसे—क्रोध, घृणा, भय, प्रसन्नता इत्यादि का प्रदर्शन शीघ्रता से कर देते हैं परंतु वयस्क व्यक्ति संवेगों का प्रदर्शन परिस्थिति के अनुसार करते हैं।
3. प्रौढ़ों में संवेगों का प्रकाशन सामान्यतः एक ही रूप में होता है जबकि बालकों में संवेगों का प्रकाशन भिन्न-भिन्न रूपों में होता है।
4. बालकों के संवेग की संख्या प्रौढ़ों से अधिक होती है।
5. बालकों के संवेग स्पष्ट होते हैं लेकिन प्रौढ़ों के संवेग अस्पष्ट होते हैं।
6. बालकों के संवेग प्रौढ़ों की अपेक्षा तीव्र होते हैं।
7. बालकों के संवेग मूर्त वस्तुओं से संबंधित होते है। इसके विपरीत वयस्कों के
संवेग मूर्त तथा अमूर्त दोनों से ही संबंधित होते हैं।

परीक्षोपयोगी तथ्य

» संज्ञान से तात्पर्य संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसका रूपांतरण, विस्तारण, संग्रहण, पुनर्लाभ तथा उसका समुचित प्रयोग करने से होता है।
» संज्ञानात्मक विकास के तीन सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं—पियाजे, वाइगोट्स्की तथा बुनर का सिद्धांत।
» पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार भागों में बाँटा है।
» ब्रुनर ने शिशु अनुभूतियों के मानसिक रूप को तीन तरीकों द्वारा बताया है- संक्रियता, दृश्य प्रतिमा और सांकेतिक ।
» वाइगोट्स्की ने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्वपूर्ण बताया है।
» वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत कहा जाता है।
» जेम्स लैंग (James Lange) का सिद्धांत संवेगात्मक अनुभव तथा व्यवहार पर आधारित है। इनके अनुसार, पहले संवेगात्मक व्यवहार होता है, और तब संवेगात्मक अनुभूति होती है। अर्थात संवेगात्मक अनुभूति का होना संवेगात्मक व्यवहार पर
निर्भर करता है।
» अमेरिकी मनोवैज्ञानिक अल्बर्ट बंडूरा, सामाजिक संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत से संबंधित हैं। बंडूरा का मानना है कि व्यक्ति समाज में रहता है, और समाज में रहकर ही अधिगम प्राप्त करता है।
» पियाजे के सिद्धांत को संज्ञानात्मक विकास तक ले जाने वाले को रचनात्मक मार्ग कहा जाता है। पियाजे मुख्य रूप से संज्ञानात्मक विकास के लिए जाने जाते हैं। पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत मानव बुद्धि की प्रकृति एवं
उसके विकास से संबंधित एक विवाद सिद्धांत है। पियाजे का मानना है कि बच्चे अपनी दुनिया के लगभग सभी ज्ञान को अपनी गतिविधियों के द्वारा खोजते या निर्मित करते हैं।
» संज्ञानात्मक मनोविज्ञानी बंडूरा ने प्रेक्षणात्मक अधिगम संप्रत्यय सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसमें व्यक्ति के व्यवहार को जानना तथा उसका प्रत्यक्षण करना (Attending and Perceiving Behaviour) पर विशेष जोर दिया गया। बंडूरा के नाम पर ही इसके सिद्धांत को बंडूरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत कहा जाता है।
» वुडवर्थ-“संवेग व्यक्ति के गति में अथवा आवेश में आने की स्थिति है।”
» पी. टी. भुंग-“संवेग व्यक्ति का कुल तीव्र उपद्रव है, जो मनोवैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न होता है, तथा इसके अंतर्गत व्यवहार चेतन, अनुभव तथा अंतरंग क्रियाएँ सम्मिलित रहती हैं।”

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