S-2

संज्ञान, सीखना और बाल विकास | D.El.Ed Notes in Hindi

संज्ञान, सीखना और बाल विकास | D.El.Ed Notes in Hindi

S-2                          संज्ञान, सीखना और बाल विकास
                                 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. संज्ञानात्मक विकास और बुद्धि की अवधारणा के ऐतिहासिक संदर्भ
तथा समकालीन संदर्भ में बुद्धि की सैद्धांतिक समझ विकसित करें।
उत्तर― संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा के ऐतिहासिक संदर्भ-संज्ञानात्मक
विकास इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य किस प्रकार तथ्यों को ग्रहण करता है और किस
प्रकार उसका उत्तर देता है। संज्ञान उस मानसिक प्रक्रिया को सम्बोधित करता है जिसमें
चिन्तन, स्मरण, अधिगम और भाषा के प्रयोग का समावेश होता है। जब हम शिक्षण और
सीखने की प्रक्रिया में संज्ञानात्मक पक्ष पर बल देते है तो इसका अर्थ है कि हम तथ्यों और
अवधारणाओं की समझ पर बल देते हैं।
          बच्चों में संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा को समझने के लिए ऐतिहासिक रूप से
बहुत पहले ही शोध होने लगे थे। एक बालक कैसे सीखता है तथा बौद्धिक रूप से किस
तरह विकसित होता है इससे संबंधित हमारी सोच व समझ को नया रूप देने में इस विचारधारा
ने काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसकी अवधारणा के ऐतिहासिक रूप से विकास में
अलग-अलग वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध और प्रतिपादित सिद्धांतों के बारे में उल्लेख
करना आवश्यक है।
        वस्तुतः पियाजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास के संदर्भ में शिक्षा मनोविज्ञान में
क्रांतिकारी संकल्पना को उदघाटित किया है। इन्होंने अल्परेड बिने के साथ (1922-23)
बुद्धि-परीक्षणों पर कार्य करते समय ही उन्होंने बालकों के संज्ञानात्मक विकास पर कार्य
किया । जीन पियाजे के अनुसार मनुष्य आरंभिक बाल्यावस्था से ही क्रियात्मक तथा स्वतंत्र
अर्थ-रचयिता होता है जो स्वयं ज्ञान का निर्माण करता है न कि उसे दूसरों से ग्रहण करता
है। तथा उसका बौद्धिक विकास उसके स्वयं की बौद्धिक क्रियाओं द्वारा प्रभावित होता है।
पियाजे के अनुसार जब बच्चे अपने चारों के ज्ञान को संगठित करने का प्रयास करते है तो
इस दौरान-बच्चे मुख्यतः बाह्य वस्तुओं पर अपने द्वारा की गई क्रिया द्वारा सीखते तथा विचारों
की श्रेणियों का निर्माण करते हैं। बच्चे सतत रूप से नए ज्ञान व कौशलों संबंधी सूचनाओं
को इकट्ठा करते रहते हैं। इन सूचनाओं को अपनी समझ के पूर्ण ढाँचे में समायोजित करने
में लगातार प्रयासरत रहते हैं। पियाजे के अनुसार बच्चा अपने वातावरण के साथ इस
अन्त:क्रिया के परिणामस्वरूप ही सीखता है।
इसके बाद वायगास्की ने सन् 1924-34 में इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलाजी (मास्को) में
अध्ययन के दौरान संज्ञानात्मक विकास पर विशेष कार्य किया, विशेषकर भाषा और चिन्तन
के सम्बन्ध पर। उनके अध्ययन में संज्ञान के विकास के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और
सामाजिक कारकों के प्रभाव का वर्णन किया गया है। इनके सिद्धांत के अनुसार सामाजिक
अन्त:क्रिया (interaction) ही बालक की सोच व व्यवहार में निरंतर बदलाव लाता है जो
एक संस्कृति से दूसरे में भिन्न हो सकता है। उनके अनुसार किसी बालक का संज्ञानात्मक
विकास उसके अन्य व्यक्तियों से अन्तर्सम्बन्धों पर निर्भर करता है। वायगास्की ने शिक्षक
के रूप में अनुभव के दौरान यह जाना है कि बालक अपने वास्तविक विकास स्तर से आगे
जाकर समस्याओं का समाधान कर सकते है यदि उन्हें थोड़ा निर्देश मिल जाए। इस स्तर
को वायगोस्की ने सम्भावित विकास कहा। बालक के वास्तविक विकास स्तर और सम्भावित
विकास स्तर के बीच के अंतर/क्षेत्र को वायगोस्की ने निकटतम विकास का क्षेत्र कहा।
        बुद्धि की अवधारणा का ऐतिहासिक संदर्भ― व्यक्ति की बुद्धि और उसके विकास
को समझने का प्रयास मनोवैज्ञानिक सदियों से करते आ रहे हैं। सभी संस्कृतियाँ इस बात
को स्वीकार करती हैं कि बुद्धि के संदर्भ में व्यक्तिगत अंतर होते हैं । इनको ध्यान में रखते
हुए 19वीं शताब्दी के अंत से बुद्धि परीक्षणों के द्वारा बुद्धि को मापने की शुरूआत हुई।
सबसे पहले बुद्धि परीक्षण पर कार्य यूरोप और अमेरिका में शुरू हुआ क्योंकि वहाँ पर सबके
लिए शिक्षा (सार्वभौमिक शिक्षा) की शुरूआत हो गई थी जिसका अर्थ था वहाँ के हर बच्चे
को अनिवार्य रूप से किसी निश्चित कक्षा तक स्कूल में शिक्षा देना । 1905 ईसवी में फ्रांस
के मनोवैज्ञानिक एडवर्ड बिने और उनके सहयोगी साइमन द्वारा पहला बुद्धि परीक्षण विकसित
किया गया जिसमें कुछ प्रश्नों को पूछा गया अलग-अलग उम्र के बच्चों को ध्यान में रखते
हुए। उन्होंने अपने परीक्षण में पाया कि कम उम्र बच्चों के उत्तर बड़े बच्चों जैसे थे जिसके
आधार पर बच्चों की मानसिक उम्र को जांचना शुरू किया गया ।
        भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी ऐतिहासिक रूप से ऐसी धारणा बना दी गई कि कुछ जातियों
व वर्गों के पास अधिक बुद्धि होती है वहीं कुछ जातियों के पास बहुत कम बुद्धि होती है।
जिस कारण यहाँ जातियों के बीच ऊँच, कुछ का विभेदकारी सामाजिक अंतर बना रहा।
बाद में टामन ने बिने तथा साइमन के बुद्धि परीक्षण में संशोधन किया और उससे बुद्धिलब्धि
(IQ) के संप्रत्यय का जन्म हुआ और बुद्धि के मापने में मानसिक आयु की जगह बुद्धिलब्धि
का प्रयोग होने लगा। बुद्धिलव्यि मानसिक आयु (MA) तथा वास्तविक आयु (CA) का ऐसा
अनुपात है जिसको 100 से गुना कर प्राप्त किया जाता है। इन परीक्षणों में व्यक्ति के प्राप्त
अंकों की गणना विभिन्न आयु समूहों के बच्चों के औसत प्रदर्शन के आधार पर की जाती
है।
TQ. (Intelligence Quotient) =  Mental Age/Chronological Age × 100
      समकालीन संदर्भ में बुद्धि की सैद्धांतिक समझ― ऐतिहासिक संदर्भ में बुद्धि की जो
संकल्पनाएँ थी उससे यह आशय तो निकाला ही जा सकता है कि उन्होंने बुद्धि को सिर्फ
कुछ मान्यताओं के आधार पर अंकों में मापने पर जोर दिया। साथ ही बुद्धि को मापने के
आधार के रूप में प्रयुक्त मान्यताएँ भी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थी । ऐसा नहीं है कि वे मान्यताएँ
पूर्णतः समाप्त हो गई बल्कि आज भी हम जाने-अनजाने उन मान्यताओं का प्रयोग करते
हैं और आज के शिक्षकों में भी उन मान्यताओं की छाप मिलती है। हम अपने शिक्षकों
को यह कहते सुनते है कि “मेरी कक्षा में सिर्फ दो चार बच्चे ही तेज है बाकी सब को पढ़ाने
का कोई फायदा नहीं क्योंकि वे कभी सीख नहीं सकते हैं। “शिक्षक आज भी पुराने
पारंपरिक स्वरूप में बच्चों की बुद्धि का मूल्यांकन कर रहे हैं और बुद्धि को बहुत संकुचित
स्वरूप में देख रहे हैं जिसमें बच्चों की अन्य क्षमताओं को महत्व देने का कोई स्थान नहीं
है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के बाद बुद्धि की इस अवधारण में परिवर्तन आया है।
अपने सिद्धांत में प्याजे ने बुद्धि को मानसिक प्रक्रियाओं के विकास का ही एक स्वरूप माना
है। यदि हम बुद्धि की अवधारणाओं को लेकर विशेष सिद्धांतों की बात करें तो इसमें
गिलफोर्ड और गार्डनर के सिद्धांत प्रमुख है। गार्डनर ने 1983 में बहुबुद्धि सिद्धांत का
प्रतिपादन किया। उन्होंने मूलतः 7 तरह की बुद्धि का वर्णन किया गया है। 1998 में उन्होंने
आठवां प्रकार तथा 2000 में उन्होंने नौवां प्रकार भी जोड़ा जो निम्नांकित है―
(क) भाषाई बुद्धि–वाक्यों, शब्दों के बोध क्षमता, शब्दावली, शब्दों के क्रम के बीच
संबंधों को पहचानने की क्षमता ।
(ख) तार्किक गणितीय बुद्धि―तर्क करने की क्षमता, गणितीय समस्याओं का
समाधान, अंकों के क्रम के पीछे संबंध को जानने की क्षमताएँ इत्यादि ।
(ग) स्थानिक बुद्धि― मानसिक रूप से स्थानिक चित्र परिवर्तन तथा कल्पना करने
की क्षमता।
(घ) शारीरिक गतिक बुद्धि― शरीर की गति पर पर्याप्त नियंत्रण रखना जैसे
खिलाड़ी, नर्तक इत्यादि ।
(ङ) संगीतिक बुद्धि― संगीत संबंधी सामर्थ्य एवं निपुणता विकसित करने की
क्षमता।
(च) अन्य वैयक्तिक बुद्धि― अपने भाव और संवेगों को समझने एवं नियंत्रित करने
की क्षमता, स्वयं के व्यवहार को निर्देशित कर सूचनाओं का उपयोग करने की क्षमता, आदि ।
(छ) व्यक्तिगत अन्य बुद्धि― दूसरों की मनोदशाओं, प्रकृति को समझ कर उनके बारे
में पूर्व कथन करने की क्षमता ।
(ज) प्रकृतिवादी बुद्धि― प्रकृति में मौजूद पैटर्न तथा सममिति को सही-सही पहचान
करने की क्षमता जैसे-वनस्पति वैज्ञानिक, जीव वैज्ञानिक, किसान इत्यादि ।
(झ) अस्तित्ववादी बुद्धि― जिंदगी और मौत तथा मानव अनुभूति की वास्तविकता
के बारे में उपयुक्त प्रश्न पूछ कर जानने क्षमता, जैसे-दार्शनिक चिंतक इत्यादि।
        इसके आधार पर यह समझा जा सकता है कि क्यों किसी एक क्षेत्र में कोई व्यक्ति
बहुत तेज हो जाता है और किसी अन्य क्षेत्र में वह सामान्य रहता है या पिछड़ जाता है।
बहुबुद्धि से संबंधित विचारों की आलोचना भी कई मनोवैज्ञानिकों द्वारा की गई है, पर यह हमें
बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए व्यापक क्षेत्र प्रस्तुत तो करता ही है तथा आज की शिक्षा
पद्धति में सतत एवं व्यापक मूल्यांकन के स्वरूप को समझने में विशेष मदद भी करता है।
प्रश्न 2. संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कौन कौन से कारक हैं।
उत्तर― संज्ञानात्मक विकास मुख्यत: बच्चों के ज्ञानात्मक पहलू/प्रक्रियाओं से संबंधित
होता है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि संज्ञान का अर्थ उन मानसिक प्रक्रियाओं
तथा उन उत्पादों से हैं जिनसे ज्ञान का निर्माण होता है। बच्चों में आयु के साथ-साथ उनकी
मानसिक शक्तियाँ और मानसिक प्रक्रियाएँ भी विकसित होती हैं जो संज्ञानात्मक विकास के
अंतर्गत आती है। संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित
है―
(क) परिवार की पृष्ठभूमि― बच्चे के संज्ञानात्मक विकास पर उसके परिवारिक
पृष्ठभूमि का सीधा प्रभाव पड़ता है। अगर उसके परिवार का माहौल सौहार्दपूर्ण एवं खुशहाल
हो, उसके माता-पिता उसके साथ प्यार से पेश आते हो, तो बच्चे का संज्ञानात्मक विकास
बेहतर होगा। इसके उलट यदि परिवार में हमेशा कलह होता हो तो बच्चे का विकास अवरुद्ध
होगा। अभिभावकों का बच्चे के प्रति कैसा व्यवहार होता है इसका गहरा प्रभाव उनके
संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है।
(ख) बच्चे की मनोदशा― बच्चे की मनोदशा किसी रोग, मानसिक चोट या दुर्घटना
के कारण अगर बेहतर नहीं है तो इससे उसके संज्ञानात्मक विकास पर प्रभाव पड़ेगा।
(ग) समाज की दशा― एक बच्चा जिस समाज में पलता-बढ़ता है, उसका स्पष्ट
प्रभाव उसके संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है। अगर समाज की दशा बेहतर ना हो यानि
समाज के लोग एक दूसरे का सम्मान नहीं करते हो या बच्चा समाज में खुद को उपेक्षित
महसूस करें, तो इन कारणों से उसके संज्ञानात्मक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसके
विपरीत अगर समाज में आपसी मेलजोल से सब मिलकर सांस्कृतिक आयोजन या खेल कूद
में भाग लेते हो, तो बच्चों को इसवसे काफी कुछ जानने समझने का मौका मिलेगा जिससे
उनका संज्ञानात्मक विकास बेहतर होगा।
(घ) बच्चों की शारीरिक स्थिति― बच्चों की मनोदशा के साथ उसकी शारीरिक
दशा भी संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करती है। बच्चा अपनी शारीरिक अक्षमता के
कारण कई गतिविधियों में भाग लेने से वंचित रह जाता है जो कि उसके संज्ञानात्मक विकास
को प्रभावित करता है।
(ङ) मित्र मंडली/समवय समूह― हर बच्चा अपनी मित्र मंडली या समवय समूह
से काफी कुछ समझता और सीखता है। अगर मित्र अच्छे होंगे तो वे अच्छी बातें सीखेंगे
अगर बुरे होंगे तो बुरी बातें सीखेंगे ।
    इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बच्चा जैसा परिवेश पाता है उसका उसी प्रकार
संज्ञानात्मक विकास होता है । जनसंचार माध्यम के बीच में अपनी भूमिका होती है।
प्रश्न 3. बच्चों के संदर्भ में संज्ञानात्मक विकास की समझ विकसित करें। बच्चों
में संज्ञानात्मक विकास किस प्रकार होता है ?
उत्तर― संज्ञानात्मक विकास (Cognitive development) तंत्रिकाविज्ञान तथा मनोविज्ञान
का एक अध्ययन क्षेत्र है जिसमें बालक द्वारा गूचना प्रसंस्करण, भाषा सीखने, तथा मस्तिष्क
के विकास के अन्य पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
    संज्ञान (cognition) से तात्पर्य मन की उन आन्तरिक प्रक्रियाओं और उत्पादों से है,
जो जानने की ओर ले जाती हैं। इसमें सभी मानसिक गतिविधियाँ शामिल रहती हैं– ध्यान
देना, याद करना, सांकेतीकरण, वर्गीकरण, योजना बनाना, विवेचना, समस्या हल करना,
सृजन करना और कल्पना करना । निश्चित ही हम इस सूची को आसानी से बढ़ा सकते हैं
क्योंकि मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले लगभग किसी भी कार्य में मानसिक प्रक्रियाएँ शामिल
हो जाती हैं। जीवन निर्वाह के लिए हमारी संज्ञानात्मक शक्तियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं।
पर्यावरण की बदलती दशाओं के अनुरूप अपने को ढालने में दूसरी प्रजातियों को छद्मावरण,
पंखों, फरों और विलक्षण रफ्तार का लाभ मिलता है । इसके विपरीत, मनुष्य सोचने पर निर्भर
करते हैं जिसके द्वारा वे न सिर्फ अपने पर्यावरण के अनुरूप खुद को ढाल लेते हैं बल्कि
उसे रूपांतरित भी कर देते हैं। बच्चों में संज्ञानात्मक विकास को हम निम्नलिखित अवस्थाओं
में बांट कर समझ सकते हैं―
(क) प्रसवपूर्ण अवस्था—प्रसवपूर्ण काल में तथा जन्म के बाद हमारे विकास को
हमारी आनुवंशिक रूपरेखा (ब्लूप्रिंट) निर्देशित करती है। प्रसवपूर्ण अवस्था की विभिन्न
अवधियों में आनुवंशिक तथा परिवेशीय दोनों ही तरह वेफ कारक हमारे विकास को प्रभावित
करते हैं । प्रसवपूर्ण अवस्था में विकास माता की विशेषताओं से भी प्रभावित होता है । जैसे—
माँ की आयु, उसके द्वारा लिए जाने वाले पोषक आहार तथा सांवेगिक स्थिति ।
(ख) शैशवावस्था― जन्म के ठीक पहले नवजात शिशुओं में सभी तो नहीं परंतु
अधिकांश मस्तिष्कीय कोशिकाएँ रहती हैं । इन कोशिकाओं के मध्य तंत्रिकीय संधि तीव्र गति
से विकसित होती है। जीवन की कार्यप्रणाली को बनाए रखने के लिए आवश्यक क्रियाएँ
नवजात शिशु में उपस्थित रहती हैं—वह साँस लेता है, चूसता है, निगलता है एवं शरीर के
अपशिष्ट पदार्थों (मल, मूत्र आदि) का त्याग का विसजर्न भी करता है। अपने जीवन के
प्रथम सप्ताह में नवजात शिशु यह बताने में सक्षम होते हैं कि ध्वनि किस दिशा से आ रही
है, अन्य स्त्रियों की आवाज तथा अपनी माँ की आवाज में अंतर कर सकते हैं एवं सामान्य
हाव-भाव का अनुकरण कर सकते हैं। जैसे-जीभ बाहर निकालना, मुंह खोलना आदि।
(ग) बाल्यावस्था― शैशवावस्था की तुलना में पूर्व-बाल्यावस्था में बच्चे में संवृद्धि मंद
हो जाती है। बच्चा शारीरिक रूप से विकसित होता है, उसकी ऊँचाई एवं वषन में वृद्धि
होती है, चलना, दौड़ना, कूदना सीखता है तथा गेंद के साथ खेलता है। सामाजिक रूप
से बच्चे का संसार विस्तृत हो जाता है एवं इसमें माता-पिता के अतिरिक्त परिवार तथा
पास-पड़ोस एवं विद्यालय वेफ प्रौढ़ व्यक्ति भी सम्मिलित हो जाते हैं। बच्चा अच्छे एवं बुरे
की अवधारणा भी सीखना प्रारंभ कर देता है, अर्थात नैतिकता का बोध भी विकसित हो जाता
है। बाल्यावस्था के दौरान बालकों की शारीरिक क्षमता बढ़ जाती है, वे कार्यों को स्वतंत्रा
रूप से कर सकते हैं, लक्ष्यों का निर्धारण कर सकते हैं तथा वयस्कों की अपेक्षाओं को पूरा
कर सकते हैं। संसार के बारे में अनुभव प्राप्त करने के अवसरों के साथ-साथ मस्तिष्क की
बढ़ती हुई परिपक्वता बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में योगदान देती है। समाजीकरण के
कारण बच्चा यह बोध विकसित कर लेता है कि वह कौन है और वह अपनी पहचान किसकी
तरह बनाना चाहता है । विकसित हो रहे स्वतंत्रता के बोध के कारण बच्चे कार्यों को अपने
तरीके से करते हैं।
(घ) किशोरावस्था― किशोर के विचार अधिक अमूर्त, तर्कपूर्ण एवं आदर्शवादी होते
हैं। अपने तथा दूसरों के विचारों का एवं दूसरे उनके बारे में क्या सोचते हैं उसका मूल्यांकन
करने में वे अधिक सक्षम हो जाते हैं। किशोरों में तर्क करने की विकसित हो रही योग्यता
उन्हें संज्ञानात्मक एवं सामाजिक सजगता का एक नया स्तर प्रदान करती है। इस अवस्था
के दौरान किशोर का चिंतन वास्तविक मूर्त अनुभवों से आगे तक विस्तृत हो जाता है एवं
वे उन अनुभवों के बारे में अधिक अमूर्त रूप से चिंतन एवं तर्क करना प्रारंभ कर देते हैं।
अमूर्त होने के अतिरिक्त किशोरों के विचार आदर्शवादी भी होते हैं। किशोर स्वयं तथा दूसरों
की आदर्श विशेषताओं के बारे में सोचना प्रारंभ कर देते हैं तथा स्वयं की दूसरों से तुलना
इन आदर्श मानकों के आधार पर करते हैं। उदाहरण के लिए एक आदर्श माता-पिता कैसे
होंगे, वे इसके बारे में सोच सकते हैं एवं अपने माता-पिता की तुलना इन आदर्श मानको
से करते हैं । समस्या समाधान करने में किशोरों का चिंतन अधिक व्यवस्थित होता है । वे
कार्य करने के संभावित तरीकों ‘कुछ चीजें वैसे ही क्यों हो रही है’ के बार में सोचते हैं एवं
क्रमबद्ध तरीके से समाधान को ढूंढते हैं।
प्रश्न 4.संज्ञानात्मक विकास और सीखना क्या है? जीन पियाजे के सिद्धांत के
विशेष संदर्भ में इसकी व्याख्या करें।
उत्तर― संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में संज्ञान का काफी विस्तृत अध्ययन किया
जाता है। संज्ञानात्मक शब्द का अंग्रेजी रूपांतरण है cognitive हमारी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम
से हम वाह्य जगत तो जानने समझने की जो कोशिश करते हैं उसे ही संज्ञान कहते हैं। संज्ञान
का अर्थ है जानना । इसको विशेष महत्व देने वाले मनोवैज्ञानिकों ने संज्ञानावादी समूह का
निर्माण किया।
           इसके अनुसार व्यक्ति अपने वातावरण एवं परिवेश के साथ मानसिक शक्तियों का
प्रयोग करते हुए सीखता है । इसके संस्थापक स्विटजरलैंड के मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे माने
जाते हैं। उन्होंने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन मनोविज्ञान में किया। इसके
अनुसार सीखना उस समय ज्यादा अर्थपूर्ण होता है जब वह विद्यार्थी की रुचि और जिज्ञासा
के अनुरूप हो।
           जीन पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक विकास अनुकरण की बजाय खोज पर
आधारित है। इसमें व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपनी समझ
का निर्माण करता है। उदाहरण के तौर पर कोई छोटा बच्चा जब जलते हुए दीपक को
जिज्ञासावश छूता है तो उसे जलने के बाद अहसास होता है कि यह तो डरावनी चीज है,
इससे दूर रहना चाहिए। उसके पास अपने अनुभव को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त शब्द
नहीं होते पर वह जान लेता है कि इसको दूर से देखना ही ठीक है । वह बाकी लोगों की
तरफ इशारा करता है अपने डर को अभिव्यक्ति देने वाले इशारों में । इस प्रकार का सीखना
सक्रिय रूप से सीखना होता है। इसके व्यक्ति अपने परिवेश और वातावरण के साथ सक्रिय
रूप से अंत:क्रिया करता है। इसमें किसी कार्य को करते हुए व्यक्ति किसी एक विचार में
नए विचारों को शामिल करता है। उससे उसका स्पष्ट जुड़ाव देख और समझ पाता है । इस
प्रक्रिया को सात्मीकरण या फिर assimilation कहते हैं।
        इसके साथ ही दूसरी प्रक्रिया भी साथ-साथ चलती है जिसे व्यवस्थापन व संतुलन कहते
हैं। इसमें नई वस्तु व विचार के समायोजन की प्रक्रिया होती है । इस तरह का समायोजन
आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। इन्होंने कहा, सीखना कोई यांत्रिक क्रिया नहीं है बल्कि
एक बौद्धिक प्रक्रिया है, एक सम्प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया है और यह सम्प्रत्यय निर्माण
बालक की आयु के अनुसार होता रहता है।
      पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार विकास की अवस्थाएँ क्रमिक होती हैं―
(क) संवेदी प्रेरक अवस्था—जन्म से 2 वर्ष तक यह अवस्था चलती है। इसमें बच्चे
का शारीरिक विकास तेजी से होता है। उसके भीतर भावनाओं का विकास भी होता है।
(ख) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था―जन्म से 7 वर्ष तक । इस अवस्था में बच्चा नई
सूचनाओं व अनुभवों का संग्रह करता है। इसी अवस्था में बच्चे में आत्मकेंद्रित होने का
भाव अभिव्यक्ति पाता है। पियाजे कहते हैं कि छह साल के कम उम्र के बच्चे में
संज्ञानात्मक परिपक्वता का अभाव पाया जाता है।
(ग) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था—यह सात से 11 वर्ष तक चलती है। इस उम्र में
बच्चा विभिन्न मानसिक प्रतिभाओं का प्रदर्शन करता है । उदाहरण के तौर पर पहली कक्षा
में पढ़ने वाले बच्चे ने तोते से जुड़ी एक कविता सुनी जिसमें डॉक्टर तोते को सुई लगाता
है और तोता बोलता है “ऊईईई”। यह सुनकर पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे ने कहा,
“यह तो झूठ है। डॉक्टर तोते को सुई थोड़ी ही लगाते हैं। “यहाँ एक छह-सात साल का
बच्चा अपने अनुभवों के आईने में कविता में व्यक्त होने वाले विचार को बहुत ही यथार्थवादी
ढंग से देखने की प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहा है, जिसे गौर से देखने-समझने की जरूरत
है।
(घ) औपचारिक-संक्रियात्मक अवस्था―यह अवस्था 11 साल से शुरू होकर
प्रौढ़ावस्था तक जारी रहती है। इस अवस्था में बालक परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं
के बारे में विचार कर पाता है। उदाहरण के तौर पर सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्र
कहती है कि सर ने हमें पढ़ाया कि गाँधी के तीन बंदर थे। उनसे हमें सीख मिलती है कि
हमें बुरा देखना, सुनना और कहना नहीं चाहिए । इस उम्र के बच्चे भी सुनी हुई बातों पर
सहज यकीन कर लेते हैं। फिर बात हुई कि बगैर देखे हमें कैसे पता चलेगा कि सही और
गलत क्या है, यही बात सुनने के संदर्भ में लागू होती है। बोलने के संदर्भ में हम एक चुनाव
कर सकते हैं मगर वह पहले की दो चीजों के बाद ही आती है। यानि हमें अपने आसपास
के परिवेश को समझने के लिए अपनी ज्ञानेंद्रियों का प्रयोग करना चाहिए ताकि हम समझ
सकें कि वास्तव में क्या हो रहा है और सही व गलत का फैसला हम तभी कर सकते हैं।
प्रश्न 5. सीखना और परिपक्तता में क्या अंतर है ? क्या यह एक दूसरे पर
आधारित है ? स्पष्ट करें।
उत्तर―परिपक्वता और सीखने के बीच मुख्य अंतर यह है कि सीखने, अनुभव, ज्ञान
और अभ्यास के माध्यम से आता है, जबकि परिपक्वता उस व्यक्ति के भीतर से आता है
जिसे वह बढ़ाता और विकसित करता है। मनोवज्ञानिकों के अनुसार, सीखना एक प्रक्रिया
है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में एक व्यवहारिक परिवर्तन होता है। दूसरी तरफ,
परिपक्वता, एक ऐसी प्रक्रिया है जहाँ व्यक्ति उपयुक्त तरीके से स्थितियों पर प्रतिक्रिया करना
सीखता है।
     परिपक्वता प्राकृतिक नियमों के अनुसार स्वयं होने वाला शारीरिक क्षमता का विकास
है। व्यवहार शरीर पर आधारित है। जब तक शरीर के अंग व मांसपेशियों का विकास नहीं
होता व्यवहार नहीं हो सकता । सीखने की क्रिया के लिए उपयुक्त शारीरिक आधार आवश्यक
है। परिपक्वता शारीरिक भी होती है मानसिक भी । परिपक्वता के कारण भी शारीरिक-व्यवहारगत
परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन आयु के साथ स्वयं आते चले जाते हैं, इन्हें सीखना नहीं
पड़ता। सीखने से होने वाले व्यवहारगत परिवर्तन अभ्यास के कारण होते हैं।
        सीखने का आधार परिपक्वता है। शारीरिक परिवक्वता के अभाव में सीखना सम्भव
नहीं है। परिपक्वता व सीखने में निम्नलिखित प्रमुख अंतर हैं―
(क) परिपक्वता प्राकृतिक या स्वाभाविक है। सीखने के लिये प्रयास और कई तरह
की क्रियायें करना पड़ती हैं।
(ख) परिपक्वता के कारण होने वाले व्यवहार के परिवर्तन सम्पूर्ण नस्ल या प्रजाति
में पाये जाते हैं। सीखने से होने वाले परिवर्तन केवल व्यक्ति में आते हैं।
(ग) परिपक्वता के लिए अभ्यास आवश्यक नहीं, सीखने के लिये अभ्यास आवश्यक है।
(घ) परिपक्वता की प्रक्रिया की शारीरिक सीमा होती है, यह 25 वर्ष तक पूर्ण हो जाती
है, फिर परिपक्वन नहीं होता । सीखने की प्रक्रिया की कोई सीमा नहीं होती । व्यक्ति जीवन
भर सीखता रह सकता है।
     (ङ) परिपक्वता के लिये परिस्थितियों का बंधन नहीं है । यह अनुकूल व प्रतिकूल दोनों
प्रकार की परिस्थितियों में चलने वाली प्रक्रिया है, किन्तु सीखने की घटना केवल अनुकूल
परिस्थितियों में हो सकती है प्रतिकूल परिस्थितियों में नहीं।
(च) परिपक्वता प्राकृतिक क्रिया है, प्रेरणा का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । परंतु
सीखने के लिये प्रेरणा एक आवश्यक शर्त है । इस प्रकार सीखने और परिपक्वन में मूलभूत
अंतर है किन्तु दोनों में निकट का सम्बन्ध भी है क्योंकि सीखना परिपक्वता पर आधारित
है। जबकि परिपक्वता सीखने पर आधारित नहीं है। किसी भी प्रकार की क्रिया के लिये
उसके अनुरूप शारीरिक परिपक्वता आवश्यक होती है।
प्रश्न 6. सीखने की प्रमुख विशेषताओं को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर—(क) सीखना लगातार चलने वाली प्रक्रिया है-मनुष्य जीवन भर सीखता
रहता है जब तक कि उसकी मृत्यु नहीं हो जाती । वह कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है।
जैसे कोई व्यक्ति सेवानिवृत्त होने के बाद पेंटिंग सीखता है आदि ।
(ख) सीखना अनुकूलन प्रक्रिया है―एक बच्चा जो घर पर काफी सक्रिय रहता
है अथवा बड़ों की बात को नहीं मानता है । वही बालक विद्यालय में शिक्षक की सारी बातों
को मानता है एवं अनुशासन में रहता है, तो हम कह सकते हैं कि बालक यहाँ वातावरण
के अनुसार अनुकूलन करता है एवं सीखता है।
(ग) सीखना सर्वभौमिक प्रक्रिया है― सीखना किसी एक देश के मनुष्य का
अधिकार नहीं है। यह दुनिया के हर एक कोने में रहने वाले हर एक व्यक्ति के लिए हैं।
(घ) सीखना व्यवहार में परिवर्तन है― हम जानते हैं कि सीखना किसी भी तरह का
हो उससे व्यवहार में अवश्य ही परिवर्तन होगा । बदलती लौ एवं छोटे बच्चे का उदाहरण
यहाँ उपयुक्त है।
(ङ) सीखना पुराने एवं नए अनुभवों का योग है—बच्चा किसी भी प्रकार का ज्ञान
अपने पूर्व अनुभव के आधार पर ही ग्रहण करता है। जैसे अगर साड़ी पहनने वाली औरत
उसकी माँ है तो प्रथम दृष्टया में वह साड़ी पहनी हर एक महिला को अपनी माँ समझता है।
अत: हम कह सकते हैं कि बच्चों के विकास के लिए सीखना एक महत्वपूर्ण क्रिया
है। सीखने के द्वारा हम अपने लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकते हैं। सीखने को परिवर्तन, सुधार
विकास, उन्नति तथा समायोजन के तुल्य माना जाता है। यह केवल स्कूल की शिक्षा तक
सीमित नहीं है, बल्कि यह एक विकसित शब्द है जिसका व्यक्ति पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
प्रश्न 7. सीखने के लिए निर्योग्यता या लर्निंग डिसेबिलिटी के विभिन्न प्रकारों
का वर्णन करें। सीखने की अशक्तता की पहचान कैसे होती है?
उत्तर―सीखने की विकलांगता को कभी-कभी सीखने का विकार लर्निग डिसऑर्डर,
भी कहा जाता है। सीखने की विकलांगता के विभिन्न प्रकार नीचे दिए गए हैं।
(क) एफेसीआ―(वाचाघात) वाचाघात भाषा की हानि है, जिससे भाषा का निर्माण
या माषा की समझ और पढ़ने या लिखने की क्षमता प्रभावित होती है।
(ख) (डिस्लेक्सिया)―पढ़ने में कठिनाई। ये बच्चे अक्षरों को उल्टा देखते हैं या
पीछे की तरफ लिखते हैं। कुछ लोग वाकविकार (डिस्लेक्सिया) को आँखों की समस्या के
तौर पर देखते हैं।
(ग) हाइपरलेक्सिया–हाइपरलेक्सिया एक सिंड्रोम है जिससे एक बच्चे की पढ़ने
की असामयिक क्षमता (उनकी आयु में जो अपेक्षा की जाती है उससे कहीं अधिक), समझने
तथा मौखिक भाषा (या गहन अशाब्दिक सीखने की विकलांगता) के उपयोग करने में
महत्वपूर्ण कठिनाई और सामाजिक संबंधों के दौरान महत्वपूर्ण समस्याएँ इसकी विशेषताएँ
हैं।
(घ) डिस्केल्कुलिया―इसमें गणित सीखने या समझने में कठिनाई होती है, जैसे कि
संख्याओं को समझने में, संख्याओं में बदलाव करने के तरीके सीखने में और गणित में तथ्यों
को सीखने में कठिनाई होती है। इसे आमतौर पर एक विशिष्ट विकासात्मक विकार के रूप
में देखा जाता है।
(ङ) डिसग्राफिया―लिखने में होने वाली समस्या को डिसग्राफिया कहा जाता है।
(च) डिसपराक्सिया―डिसपराक्सिया बच्चे के रोजमर्रा के शारीरिक कार्यों को करने
की व्यापक क्षमता को प्रभावित कर सकती है, जिसमें मोटर कौशल सम्मिलित है । इसमें
कुदने, स्पष्ट रूप से बोलना और एक पेंसिल को पकड़ने जैसी चीजें सम्मिलित हो सकती
हैं।
(छ) शारीरिक डिस्मोर्फिक विकार (बी.डी.डी.)―इसको कभी-कभी
डाइसमोफोफोबिया भी कहा जाता है, यह एक मानसिक विकार है जिसे Obsessive विचार
से देखा जाता है कि किसी की अपनी उपस्थिति के कुछ पहलू गंभीर रूप से दोषपूर्ण होते
हैं और उसे छुपाने या उसे ठीक करने के लिए असाधारण उपायों की आवश्यकता होती है।
(ज) ध्यान की कमी सक्रियता विकार (ए.डी.एच.डी.)―यह न्यूरोडेवलेपमेंट
प्रकार का एक मानसिक विकार है। इसकी मुख्य विशेषता है–ध्यान केन्द्रित करने की
समस्या, अत्यधिक गतिविधि या व्यवहार को नियंत्रित करने में कठिनाई जो कि उस व्यक्ति
की आयु के लिए उपयुक्त नहीं है । एक व्यक्ति में बारह वर्ष का होने से पहले लक्षण दिखाई
देते हैं और यह छह महीने से अधिक समय तक मौजूद होते हैं तथा कम से कम दो सेटिंग्स
(जैसे स्कूल, घर या मनोरंजन गतिविधियाँ) में समस्याएँ पैदा होती हैं। बच्चों में ध्यान देने
की समस्या स्कूल के प्रदर्शन को खराब कर सकती है । यद्यपि, यह विशेष रूप से आधुनिक
समाज में हानिकारक कारण बनता है, ए.डी.एच.डी. वाले कई बच्चे उन कार्यों के लिए बेहतर
ध्यान देते हैं जो उन्हें रुचिकर लगते हैं।
(झ) स्वलीनता―यह एक जटिल न्यूरोबिहेवायरल स्थिति है जिसमें कठोर, पुनरावृत्त
व्यवहार के साथ मिलकर सामाजिक संपर्क और विकासात्मक भाषा और संचार कौशल में
हानि सम्मिलित है।
(ञ) सेरेब्रल पाल्सी—इसको एक न्यूरोलोलॉजिकल डिसऑर्डर माना जाता है जो
एक गैर-प्रगतिशील मस्तिष्क की चोट या खराबी के कारण होता है और यह बच्चे के
मस्तिष्क के विकास के दौरान घटित होती है। सेरेब्रल पाल्सी मुख्य रूप से शरीर की गतिविधि
और मांसपेशी समन्वय को प्रभावित करती है। सेरेब्रल पाल्सी शरीर की गतिविधि, मांसपेशियों
का नियंत्रण, मांसपेशी समन्वय, मांसपेशियों की टोन, रिफ्लेक्स, आसन और संतुलन को
प्रभावित करती है। यह उत्कृष्ट मोटर कौशल, सकल मोटर कौशल और मौखिक मोटर
कामकाज पर भी प्रभाव डाल सकता है।
         सीखने की अक्षमताओं की पहचान एक जटिल प्रक्रिया है। पहला कदम तो ये है कि
देखने, सुनने और विकास संबंधी समस्याओं को छाँट लिया जाए जो अंतर्निहित अक्षमता के
ऊपर नजर आ सकती हैं। इन परीक्षणों को पूरा कर लेने के बाद, सीखने की अशक्तता
की पहचान की जाती है और इसके लिए मनोशैक्षिक आकलनों की मदद ली जाती है। इसमें
अकादमिक उपलब्धि की टेस्टिंग और बौद्धिक क्षमता का आकलन शामिल है।
प्रश्न 8. सीखने के एवं सीखने के लिए आकलन क्या है ?
                               अथवा,
सीखने का तथा सीखने के लिए आकलन में क्या अंतर है ?
उत्तर―सीखने का आकलन संपूर्ण अधिगम की प्रक्रिया के पश्चात पूर्व निर्धारित
अधिगम उद्देश्य और अपेक्षित अधिगम के परिणामों को ध्यान में रखकर विद्यार्थी के सीखने
की निष्पत्ति का परीक्षण करती है। आकलन मुख्यतः लिखित या मौखिक परीक्षा द्वारा
संचालित किया जाता है। परीक्षणों में प्राप्त मात्रा, ग्रेड या अंक विद्यार्थी के सीखने का द्योतक
होती है। परीक्षण में दिए गए प्रश्नों के निश्चित उत्तर होते हैं जो शिक्षकों द्वारा निर्धारित किए
जाते हैं। यदि विद्यार्थी इन प्रश्नों का सही उत्तर देता है या शिक्षकों के व्याख्यान या अनुदेशन
के अनुरूप उत्तर देता है तो यह माना जाता है कि विद्यार्थी ने विषयवस्तु या पाठ संपूर्ण रूप
से अर्जित कर लिया है। सीखने का आकलन विद्यार्थी के किसी विषय संबंधी अधिगम का
संपूर्ण पाठयक्रम के समाप्त हो जाने के बाद सत्र के अंत में परीक्षा या कई इकाइयों के समाप्त
हो जाने के बाद तिमाही या छमाही लिखित या मौखिक परीक्षा के रूप में आकलन करती
है।
    सीखने के लिए आकलन एवं मूल्यांकन के निर्माणवादी, रचनात्मक एवं निदानात्मक
प्रकृति की और संकेत करता है। इसके अंतर्गत विद्यार्थी के अधिगम उपलब्धि के साथ-साथ
उसके सीखने की प्रक्रिया पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यह बताता है कि विद्यार्थी क्या
सौखता है? कितना सीखता है तथा कैसे सीखता है? उसके सीखने का तरीका या शैली
क्या है ? सीखने की प्रक्रिया में वह किन विशिष्ट क्षमताओं तथा ज्ञान के स्रोतों को उपयोग
में लाता है ? उसके विचार तथा स्पष्टीकरण में कितनी नवीनता और मौलिकता है? इससे
यह भी पता चलता है कि विद्यार्थी यदि सीख नहीं पाता है तो क्यों नहीं सीख पाता है, शिक्षण
अधिगम प्रक्रिया में क्या सुधार किया जाए जिससे कक्षा का प्रत्येक विद्यार्थी सीख सके आदि।
सीखने के लिए आकलन कक्षा में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के दौरान, पहले और बाद
में भी संचालित होता है।
प्रश्न 9. सीखने के व्यवहारवाद के दृष्टिकोण का प्रभाव आज के विद्यालयी
शिक्षण में किस प्रकार पड़ा है ? स्पष्ट करें। इसकी आलोचनात्मक समझ विकसित
करें।
                                              अथवा,
सीखने के व्यवहारवाद के सिद्धांत का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख करें?
उत्तर―व्यवहारवाद का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान निम्नलिखित है―
(क) व्यवहारवाद ने जो विधियों व तकनीक प्रदान की उनसे बच्चों के व्यवहार को
समझने में काफी मदद मिली।
(ख) सीखने और प्रेरणा के क्षेत्र में व्यवहारवाद ने जो विचार प्रस्तुत किये वे अत्यन्त
महत्वपूर्ण है।
(ग) बच्चों के संवेगों का प्रयोगात्मक अध्ययन करके व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने
इनके संवेगात्मक व्यवहार को समझने का ज्ञान प्रदान किया ।
(घ) व्यवहारवाद ने मानव व्यवहार पर वातावरणीय कारकों की भूमिका पर विशेष जोर
दिया । वाटसन ने पर्यावरणीय कारकों को बच्चों के व्यक्तित्व विकास में काफी महत्वपूर्ण
बताया। वाटसन का यह कथन कि यदि उन्हें एक दर्जन भी स्वस्थ बच्चे दिये जाते है तो
वे उन्हें चाहे तो डाक्टर, इंजीनियर, कलाकार या भिखारी कुछ भी उचित वातावरण प्रदान
कर बना सकते है, उन्होंने वातावरण को भूमिका पर विशेष प्रकाश डाला।
(ङ) स्किनर द्वारा सीखने के लिये नयी विधि कार्यक्रमित सीखना (प्रोग्राम्ड लर्निंग)
दो गयी । आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है और अनेक
ठर के पाठों को सिखाने में उन्हें सफलता भी मिली।
(च) कुसमायोजित बालकों के समायोजन के लिए व्यवहारवाद द्वारा जो विधियाँ दी गयी
वे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
(छ) व्यवहारवाद ने मानव व्यवहार को समझने के लिये पूर्ववर्ती समस्त वाद जोकि
मानसिक प्रक्रियाओं पर बल देते थे, के विवाद का अंत किया।
प्रश्न 10. सीखने और समाज में अंतर्संबंधों की व्याख्या करें।
                                       अथवा,
बच्चे समाज में रह कर किस प्रकार सीखते हैं ? वर्णन करें।
                                        अथवा,
समाज किस प्रकार बच्चों की सीखने में भूमिका निभाता है ? स्पष्ट करें।
उत्तर―समाज में रहकर सीखने से बच्चों का सामाजिकरण होता है जिसके माध्यम
से मनुष्य समाज के विभिन्न व्यवहार, रीति-रिवाज, गतिविधियाँ इत्यादि सीखता है।
सामाजीकरण के माध्यम से ही वह संस्कृति को आत्मसात् करता है। सीखने की यह प्रक्रिया
समाज के नियमों के अधीन चलती है। सीखने की प्रक्रिया में सामाजिक मानदण्डों व संस्कृति
की सबसे ज्यादा अहमियत होती है। समाज में व्यक्ति की परिस्थिति व सामाजिक भूमिकाएँ
बदलती रहती हैं और उनके अनुरूप व्यवहार के लिए उसे आचरण तथा व्यवहार के नये
प्रतिमान सीखने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए बचपन में जहाँ बच्चा सामाजीकरण के माध्यम
से माता-पिता, संबंधियों व बुजुर्गों से व्यवहार करना सीखता है, वहीं युवावस्था में उसे नये
सिरे से दफ्तर में अपने सहयोगियों, वरिष्ठों, पड़ोसियों आदि से व्यवहार के तौर-तरीकों को
सीखना पड़ता है। यहाँ तक कि वृद्धावस्था में भी व्यक्ति नयी भूमिकागत अपेक्षाओं के
अनुसार संबंधित सामाजिक व्यवहार ग्रहण करता है । इस प्रकार समाज में, समाज के माध्यम
से सीखने की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक लगातार चलती रहती है।
         समाज में रहकर बच्चे सामाजिक जीवन की आवश्यकताओं की दृष्टि से बहुत कुछ
सीखते हैं। जैसे हाव-भाव, रहन-सहन, कार्य करने के तरीके, भाषा, रीति-रिवाज इत्यादि ।
घर-परिवार के सदस्यों के साथ रहते हुए, खेलते हुए, विभिन्न प्रकार की क्रिया करते हुए
भी वे अपने समाज और संस्कृति के मूल्य, नियम, मान्यताएँ, भूमिकाएँ, सोचने-विचारने तथा
व्यवहार करने के तौर-तरीके भी सीखते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सीखने और
समाज में अंतर्संबंधों से व्यक्ति की भागीदारी समाज में संभव हो पाती है।
      समाज में रहकर समाज द्वारा सीखने का उद्देश्य ही सामाजिक प्रक्रियाओं में भाग लेना
एवं सामाजिक नियमों तथा मूल्यों के अनुरूप अनुसरण करना होता है। इसमें समाज के
विभिन्न अभिकरण जैसे—परिवार, पड़ोस, मित्र-मंडली, विद्यालय, सहपाठी आदि महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं।
प्रश्न 11. सीखने के न्यूरो दैहिक संदर्भ में हुए शोध के शैक्षिक निहितार्थ की
चर्चा करें।
उत्तर―तत्रिका शरीर विज्ञान (Neurophysiology) शरीर क्रिया विज्ञान और तंत्रिका
विज्ञान की एक शाखा है जो तत्रिका तंत्र के चलन से सम्बन्धित है। इसके अध्ययन में
शारीरिक विद्युत का मापन विशेष महत्व रखता है। इसके अलावा यह इस बात को समझने
में मदद करती है कि मस्तिष्क की संरचना और कार्य किस प्रकार से विशेष व्यवहारिक और
मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से सम्बंधित हैं। शरीर तंत्रिका विज्ञान या न्यूरो दैहिक विज्ञान में
मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के सभी स्तरों पर शोध करना शामिल है। इनमें शामिल हैं―
कोशिका, अण, विभिन्न तंत्र (जैसे श्रवण तंत्र और चाक्षुष तंत्र), दिमागी गतिविधियाँ और
बीमारियाँ । मनोविज्ञान, कम्प्यूटर विज्ञान, दर्शनशास्त्र, भाषाविज्ञान, मानव विज्ञान एवं
आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे शोधों ने न्यूरो दैहिक विज्ञान के अध्ययन को एक नयी दिशा
प्रदान की है। तंत्रिका तंत्र के शीर्ष पर स्थित मस्तिष्क शरीर की सभी क्रियाओं को प्रत्यक्ष
या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित करता है। इसकी रचना तथा कार्यप्रणाली सीखने की प्रक्रिया
को नियंत्रित तथा प्रभावित करती है।
     शरीर तंत्रिका विज्ञान के संदर्भ में हुए विभिन्न शोधों ने यह सिद्ध किया है कि मस्तिष्क
और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र व्यवहार और अनुभूति के प्रमुख खिलाड़ी हैं। सीखने, स्मृति और
ध्यान में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। हर व्यवहार को तंत्रिका तंत्र (nervous system)
से सर्बोधत मानते हुए, जैविक मनोविज्ञानी महसूस करते हैं कि व्यवहार को समझने के लिए
मस्तिष्क (brain) की कार्य प्रणाली का अध्ययन समझदारी भरा है। तंत्रिका तंत्र किस प्रकार
सूचनाओं का किस प्रकार निरूपण करता है, कैसे उनका प्रसंस्करण करता है और कैसे
उनको रूपान्तरित करता है, इसका अध्ययन बच्चों में भाषा, अवगम (perception), स्मृति,
ध्यान (attention), तर्कणा (reasoning), तथा संवेग के विकास (emotion) को समझने
में मदद करता है।
प्रश्न 12. सीखने में अभिप्रेरणा के विविध स्वरूपों का वर्णन करें तथा बच्चों
को अभिप्रेरित करने की प्रक्रिया की चर्चा करें।
उत्तर―अभिप्रेरणा के निम्नलिखित दो प्रकार हैं―
(अ) प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ (Natural Motivation)―प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ
निम्नलिखित प्रकार की होती हैं―
(1) मनोदैहिक प्रेरणाएँ—यह प्रेरणाएँ मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क से सम्बन्धित हैं।
इस प्रकार की प्रेरणाएँ मनुष्य के जीवित रहने के लिये आवश्यक है, जैसे-खाना, पीना,
काम, चेतना, आदत एवं भाव एवं संवेगात्मक प्रेरणा आदि ।
(2) सामाजिक प्रेरणाएँ―मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह जिस समाज में रहता
है, वही समाज व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करता है। सामाजिक प्रेरणाएँ समाज के
वातावरण में ही सीखी जाती है, जैसे― स्नेह, प्रेम, सम्मान, ज्ञान, पद, नेतृत्व आदि ।
सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु ये प्रेरणाएँ होती हैं।
(3) व्यक्तिगत प्रेरणाएँ–प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ विशेष शक्तियों को लेकर जन्म
लेता है। ये विशेषताएँ उनको माता-पिता के पूर्वजों से हस्तान्तरित की गयी होती है । इसी
के साथ ही पर्यावरण को विशेषताएं छात्रों के विकास पर अपना प्रभाव छोड़ती है। पर्यावरण
बालकों को शारीरिक बनावट को सुडौल और सामान्य बनाने में सहायता देता है। व्यक्तिगत
विभिन्नताओं के आधार पर ही व्यक्तिगत प्रेरणाएँ भिन्न-भिन्न होती है। इसके अन्तर्गत
रुचियाँ, दृष्टिकोण, स्वधर्म तथा नैतिक मूल्य आदि हैं।
(ब) कृत्रिम प्रेरणा (ArtificialMotivation)― कृत्रिम प्रेरणाएँ निम्नलिखित रूपों
में पायी जाती है―
(1) दण्ड एवं पुरस्कार―विद्यालय के कार्यों में विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिये
इसका विशेष महत्व है।
◆ दण्ड एक सकारात्मक प्रेरणा होती है। इससे विद्यार्थियों का हित होता है।
◆ पुरस्कार एक स्वीकारात्मक प्रेरणा है। यह भौतिक, सामाजिक और नैतिक भी हो
सकता है। यह बालकों को बहुत प्रिय होता है, अत: शिक्षकों को सदैव इसका
प्रयोग करना चाहिए।
(2) सहयोग–यह तीव्र अभिप्रेरक है। अत: इसी के माध्यम से शिक्षा देनी चाहिए।
प्रयोजना विधि का प्रयोग विद्यार्थियों में सहयोग की भावना जागृत करता है।
(3) लक्ष्य, आदर्श और सोद्देश्य प्रयत्न–प्रत्येक कार्य में अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के
लिए उसका लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए । यह स्पष्ट, आकर्षक, सजीव, विस्तृत एवं आदर्श
होना चाहिये।
(4) अभिप्रेरणा में परिपक्वता–विद्यार्थियों में प्रेरणा उत्पन्न करने के लिये आवश्यक
है कि उनकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा जाए,
जिससे कि वे शिक्षा ग्रहण कर सके।
(5) अभिप्रेरणा और फल का ज्ञान― अभिप्रेरणा को अधिकाधिक तीव्र बनाने के
लिए आवश्यक है कि समय-समय पर विद्यार्थियों को उनके द्वारा किये गये कार्य में हुई प्रगति
से अवगत कराया जायें जिससे वह अधिक उत्साह से कार्य कर सकें।
(6) पूरे व्यक्तितत्व को लगा देना―अभिप्रेरणा के द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति से किसी
विशेष भावना की सन्तुष्टि न होकर पूरे व्यक्तित्व को सन्तोष प्राप्त होना चाहिए। समग्र
व्यक्तित्व को किसी कार्य में लगाना प्रेरणा उत्पन्न करने का बड़ा अच्छा साधन है।
(7) भाग लेने का अवसर देना–विद्यार्थियों में किसी कार्य में सम्मिलित होने की
स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। अत: उन्हें काम करने का अवसर देना चाहिए ।
(8) व्यक्तिगत कार्य प्रेरणा एवं सामूहिक कार्य प्रेरणा―प्रारम्भिक स्तर पर
व्यक्तिगत और फिर उसे सामूहिक प्रेरणा में परिवर्तित करना चाहिए क्योंकि व्यक्तिगत प्रगति
ही अन्त में सामूहिक प्रगति होती है।
बच्चों को अभिप्रेरित करने की प्रक्रिया (या विधियाँ)―
(क) सबसे पहले छात्रों में सीखने की आवश्यकता उत्पन्न की जानी चाहिए।
(ख) शिक्षकों को छात्रों के आकांक्षा स्तर को उनकी क्षमता एवं पूर्व उपलब्धियों के
आलोक में विकसित करने का सुझाव देना चाहिए।
(ग) पाठ्यवस्तु को मनोरंजक तथा छात्रों की क्षमता, अभिक्षमता एवं मनावृत्ति के
अनुकूल होना चाहिए।
(घ) शिक्षक को इस बात का पूरा-पूरा प्रयास करना चाहिए कि शिक्षार्थी शिक्षा एवं
शिक्षण में अपनी अभिरुचि नहीं खोए । इसके लिए उनकी अभिरुचियों के आलोक में
पठन-पाठन का कार्यक्रम चलाना चाहिए।
(ङ) शिक्षक को समय-समय पर वर्ग में उच्च शैक्षिक उपलब्धियों के लिए पुरस्कार
की घोषणा करनी चाहिए। इससे छात्रों का मनोबल ऊंचा होता है और वे शिक्षण में अधिक
दिलचस्पी दिखाते हैं।
(च) शिक्षक को छात्रों के लिए कुछ पाठ्यसहगामी क्रियाओं की भी यथासंभव व्यवस्था
करनी चाहिए। इससे छात्रों के मानसिक विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है जो उच्च
शैक्षिक उपलब्धि के लिए आवश्यक है।
(छ) शिक्षकों को छात्रों के सांवेगिक स्तर पर भी ध्यान देना चाहिए। उन्हें वर्ग में ऐसा
व्यवहार करना चाहिए जिससे छात्रों में सुरः का भाव उत्पन्न हो तथा वे शिक्षक के साथ
सही ढंग से तादाम्य स्थापित कर सकें।
प्रश्न 13. सीखने का तथा सीखने के लिए आकलन की मुख्य विशेषताओं का
उल्लेख करें।
                                          अथवा,
सीखने का तथा सीखने के लिए आकलन की मुख्य विशेषताओं का विश्लेषण
करके बताएं कि कौन-सी आकलन पद्धति बच्चों के अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति में
अधिक उपयोगी है और क्यों ?
उत्तर―सीखने का आकलन मुख्यतः विद्यार्थी के अधिगम के संज्ञानात्मक तथा
क्रियात्मक पक्षों का आकलन करता है। लेकिन इसमें अधिगम के भावात्मक आयाम के
आकलन की समुचित व्यवस्था नहीं होती। साथ ही साथ इसमें पाठ्य सहगामी क्रियाओं के
आकलन की भी उपेक्षा की जाती है। सीखने का आकलन परंपरागत परीक्षा पद्धति को
बढ़ावा देता है, जिससे विद्यार्थियों में रटने की एवत्ति और आकलन एवं मूल्यांकन के प्रति
भय का अभाव बना रहता है। इसमें शैक्षणिक गतिविधियों में गुणात्मक सुधार
के लिए
आवश्यक प्रतिपुष्टि का समुचित अवसर उपलब्ध नहीं होता।
       सीखने के लिए आकलन में अधिगम तथा आकलन की गतिविधियों के बीच सहसंबंध
होता है यानि आकलन सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा होता है। क्योंकि आकलन द्वारा प्राप्त
तथ्य या आँकड़े विद्यार्थियों के सीखने की युक्तियों और शैक्षणिक गतिविधियों में आवश्यक
सुधार लाते हैं ताकि प्रत्येक विद्यार्थी प्रभावशाली ढंग से सीख सके । सीखने के लिए आकलन
विद्यार्थी के सीखने और विकास का पूर्ण रूप से आकलन करता है जिससे विद्यार्थियों के
सीखने के संवर्धन तथा उनके विकास के लिए आवश्यक प्रतिपुष्टि नियमित रूप से प्राप्त
होते हैं। साथ ही साथ इसमें विद्यार्थी के व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों का आकलन भी
सुनिश्चित होता है । यह विद्यार्थियों में परीक्षा के प्रति भय को कम कर देता है क्योंकि इसमें
उनकी रुचि तथा अभिक्षमता के अनुरूप वैकल्पिक आकलन की व्यवस्था होती है और उनके
विषय संबंधी अधिगम का आकलन पाठ्यक्रम के छोटे-छोटे अंशों में किया जाता है। यह
विद्यार्थियों में रटने की प्रवृत्ति के स्थान पर विचारशील चिंतन क्षमता का विकास करता है।
इस प्रकार सीखने के लिए आकलन सीखने का आकलन की अपेक्षा आकलन व
मूल्यांकन की प्रक्रियाओं को लचीला बनाकर छात्रों की अधिगम क्षमता व स्तर का अधिक
समुचित विकास करता है।
प्रश्न 14. बच्चों के सीखने का आकलन क्यों किया जाना चाहिए?
उत्तर―हम सभी बच्चों के सीखने और अच्छी शिक्षा पाने को लेकर चिंतित है,
प्राथमिक कक्षाओं में आकलन क्यों किया जाना चाहिए इसके बहुत से कारण हैं । हम कुछ
मुख्य कार्यों में नजर डालते हैं। इनमें से कुछ आप पहले से ही जानते होंगे और कुछ तो
सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के दौरान इस्तेमाल भी करते होंगे। कुछ महत्वपूर्ण कार्य हैं―
◆ भिन्न-भिन्न विषयों में समय की एक अवधि विशेष में बच्चे की प्रगति और उसमें
आने वाले परिवर्तनों का पता लगाना ।
◆ बच्चे की व्यक्तिगत और विशेष जरूरतों को पहचानता ।
◆ अधिक उपयुक्त तरीकों के आधार पर अध्यापन और सीखने की स्थितियों की
योजना बनाना।
◆ कोई बच्चा क्या कर सकता है और क्या नहीं, उसकी किन चीजों में विशेष रुचि
है, वह क्या करना चाहता है और क्या नहीं, इन सबके प्रति समझ बनाने और
महसूस करने में बच्चा की मदद करना ।
◆ बच्चे को ‘कुछ प्राप्त कर पाने’/पूर्णता की भावना के विकास के लिए प्रोत्साहित
करना।
◆ कक्षा में चल रही सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को बेहतर बनाना ।
◆ बच्चे की प्रगति के प्रमाण तय कर पाना जिन्हें अभिभावकों और दूसरों तक
संप्रेषित किया जा सके।
◆ बच्चे के आकलन के प्रति व्याप्त भय को दूर करना और उन्हें स्व-आकलन के
लिए प्रोत्साहित करना।
◆ प्रत्येक बच्चे के सीखने और विकास में मदद करना और सुधार की संभावनाएँ
खोजना।
प्रश्न 15. बच्चों के सीखने का एवं सीखने के लिए आकलन किस प्रकार
करेंगे?
उत्तर― सीखने का आकलन-सीखने का आकलन दो प्रकार से किया जा सकता
है―मौखिक, निष्पादन एवं लिखित या इनमें से दो या अधिक विधियों का मिश्रण । इसे सत्र
के अंत में आयोजित किया जाता है। इस प्रकार के निर्धारण का प्रयोग करके हम विद्यार्थियों
की योग्यता की जांच कर सकते हैं अवधारणाओं, उनके अनुभवों का विश्लेषण एवं
निष्पादन करवाकर जो उन्होंने शिक्षण सत्र में हासिल किए हैं। सीखने के निर्धारण के
परिणाम को हर स्थान पर बच्चों सीखने की बढ़त की जांच के लिए महत्वपूर्ण सूचक
माना जाता है। इनका प्रयोग हम तुलना करने के लिए भी कर सकते हैं। जैसे—विभिन्न
विषयों में विद्यार्थियों के कार्यों का निष्पादन, कक्षा में बच्चों के बीच तुलना इत्यादि । परिणामों
को अगले सत्र या शैक्षिक वर्ष हेतु पाठ्यचर्यात्मक क्रियाओं की योजना बनाने के लिए प्रयोग
कर सकते हैं। आगे उनके सीखने के निर्धारण के परिणामों को अंकों या ग्रेडों के माध्यम
से दिखाया जाता है।
      सीखने के निर्धारण के लिए विभिन्न प्रकार के प्रश्नों वाले टेस्ट, बच्चों के शैक्षिक-सहशैक्षिक
रिकॉर्ड, रेटिंग स्केल, चेक लिस्ट जैसे उपकरणों से हम उनके अधिगम का आकलन करते
हैं । इस निर्धारण में विधियाँ हैं—अवलोकन, विद्यार्थियों के मौखिक एवं लिखित उत्तरों का
विश्लेषण, विद्यार्थी के कार्यों का विश्लेषण, विद्यार्थियों के साथ चर्चा इत्यादि ।
सीखने के लिए आकलन–आकलन तभी प्रभावशाली होता है जब उसे विशेष तौर
पर विद्यार्थियों के सीखने में सुधार के लिए रूपांतरित किया जाता है। इसके लिए आकलन
को समय-समय पर अनौपचारिक रूप से भी करना होगा ना सिर्फ सत्र के अंत में बल्कि
सत्र के दौरान भी। सही समय पर उसका पुनःनिवेशन भी करना होगा। इस प्रकार के
आकलन को अधिगम हेतु आकलन या सीखने के लिए आकलन कहा जाता है । इसके दो
चरण होते हैं—निदानात्मक निर्धारण तथा सृजनात्मक निर्धारण ।
निदानात्मक आकलन―इसे किसी इकाई के अधिगम के शुरू होने से पहले यह
जानने के लिए किया जाता है कि विद्यार्थियों को प्रकरण (theme) के बारे में क्या पता है
क्या नहीं। इससे यह निर्धारित होता है कि बच्चे सीखने के किस स्तर पर हैं। उनके अधिगम
स्तर के अनुसार फिर ऐसी विधियाँ अपनाई जाती हैं जिससे अधिगम स्तर में लगातार सुधार हो ।
सृजनात्मक आकलन—वह निर्धारण है जिसके द्वारा जब कक्षा में अधिगम की प्रक्रिया
चल रही है और अध्ययन की एक इकाई पर आगे प्रगति कर रही है तब आँकड़े एकत्र किए
जाते हैं बच्चों के ज्ञान तथा कौशलों को सुनिश्चित करने के लिए जिन्हें सीखने में रह गई
कमियां शामिल होती हैं। सृजनात्मक आकलन के परिणामों को सीखने का मार्गदर्शन करने
के लिए उपयोग किया जाता है ताकि बच्चों की आवश्यकतानुसार शिक्षण विधियों में बदलाव
किया जा सके। सीखने के लिए आकलन की मुख्य विधियाँ या पद्धतियाँ हैं―
◆ लिखित तथा मौखिक परीक्षण, विद्यार्थियों के साथ अत: क्रियाएँ, दिए गए कार्य,
बच्चों की क्रियाओं का अवलोकन आदि ।
◆ बच्चों द्वारा अपने निष्पादन पर स्वयं का पुनर्विचार तथा औरों पर निर्णय ।
◆ सहपाठियों द्वारा आकलन इत्यादि ।
प्रश्न 16. सीखने की योग्यता एवं निर्योग्यता क्या है ? एक शिक्षक के लिए
इसका अध्ययन क्यों आवश्यक है?
उत्तर―सीखने की योग्यता-बकिंघम के अनुसार, सीखने की योग्यता ही बुद्धि है।
किसी व्यक्ति के सीखने की योग्यता उसकी वह योग्यता है जिसके द्वारा वह लगातार प्रयास
एवं अनुभव द्वारा अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस
समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है । जिस
व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास
होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाएँ एवं उपक्रियाएं करता है। सीखने की
योग्यता व्यक्ति को चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन करने के काबिल बनाती है। हम
विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये व्यक्ति में सीखने की योग्यता का होना
आवश्यक है। उदाहरण के लिए साइकिल चलाना, लेखन, कार चलाना, हवाई जहाज
चलाना, समूह का नेतृत्व करना, दूसरों को प्रोत्साहित करना आदि कौशलों को सीखने के
लिए व्यक्ति में विभिन्न प्रकार की सीखने की शारीरिक, संज्ञानात्मक एवं मानसिक योग्यता
का होना आवश्यक है। ये सभी योग्यताएँ संदेश भेजने, ग्रहण करने और उसे प्रोसेस करने
की मस्तिष्क की क्षमता पर निर्भर करती हैं। जैसे यदि किसी व्यक्ति में मानसिक रूप से
योग्यता की कमी है तो उसे पढ़ना-लिखना सीखने में कठिनाई होगी।
सीखने की निर्योग्यता―सीखने की अशक्तता (निर्योग्यता) या अधिगम अक्षमता एक
न्यूरोलॉजिकल यानि तंत्रिका तंत्र से जुड़ी समस्या है जो संदेश भेजने, ग्रहण करने और उसे
प्रोसेस करने की मस्तिष्क की क्षमता या योग्यता को प्रभावित करती है। सीखने की अशक्तता
से जूझ रहे बच्चे को पढ़ने, लिखने, बोलने, सुनने, गणित के सवालों और सूत्रों को समझने,
और सामान्य अवधारणाओं को समझने में कठिनाई आ सकती है। सीखने की अशक्तता में
विकारों का एक समूह आता है जैसे—डिस्लेक्सिया, डिसकैलकुलिया और डिसग्राफिया ।
प्रत्येक किस्म का विकार दूसरे विकार के साथ मौजूद रह सकता है। यहां यह जानना
महत्वपूर्ण है कि सीखने की अशक्तताएँ शारीरिक या मानसिक बीमारी, आर्थिक हालात या
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से नहीं होती है। ये संकेत भी वे नहीं करती हैं कि बच्चा
कमजोर या आलसी है।
       एक शिक्षक को सीखने की योग्यता एवं निर्योग्यता के संदर्भो अध्ययन करना आवश्यक
है जिससे वह बच्चों में सीखने की योग्यता एवं निर्योग्यता की पहचान कर सके। कुछ बच्चे
धीमी गति से सीखना शुरू करते हैं लेकिन आखिरकार अपनी पढ़ाई-लिखाई और दूसरी
गतिविधियों को सीखने और उनसे तालमेल बैठाने में समर्थ हो जाते हैं। कुछ बच्चों की
विशिष्ट किस्म की गतिविधियों को सीखने में दिलचस्पी नहीं हो सकती है। जैसे―नई भाषा
को सीखना, कोई नयी खास गतिविधि या निपुणता को सीखना या कोई अकादमिक विषय
या खेलों में या दूसरी बाहरी गतिविधियों में उनकी रुचि नहीं हो सकती है। ये सब रुझान
बच्चे की रुचियों के बारे में बताते हैं और सीखने की अशक्तता के सूचक नहीं हैं।
       इसके अलावा यदि बच्चे में सीखने निर्योग्यता है तो “लोकलाज का भय या कलंक,
कमतर उपलब्धि और सीखने की अशक्तता के बारे में गलतफहमी अभिभावकों और बच्चों
के लिए इस समस्या से निजात पाने की कोशिश के आगे अभी भी गतिरोध बनी हुई हैं।
अगर सीखने की अशक्तता का ख्याल नहीं किया जाता, तो लाखों व्यक्ति, खासकर बच्चों
का पीछे छूट जाने का खतरा है, उनका आत्मसम्मान कम होता जाता है, इसका बोझ बढ़ता
जाता है, उनसे कमतर उम्मीदें रहती हैं, और अपने सपनों को पूरा करने की उनकी क्षमता
का ह्रास होता जाता है। ऐसे में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। वे बच्चों की
क्षमताओं व अक्षमताओं को पहचानकर उनका उचित उपचार (जहाँ जरूरत हो विशेषज्ञों
की मदद लेना) और मार्गदर्शन कर सकते हैं।
प्रश्न 17. सीखना कितने प्रकार से हो सकता है ? वर्णन करें।
उत्तर―सरलता व जटिलता के आधार पर सीखने की प्रक्रिया को कई प्रकार का कहा
जा सकता है―
(क) गत्यात्मक सीखना—जैसा कि नाम से ही प्रकट है, इसमें शरीर के अवयवों
की गति सीखी जाती है। जैसे टाईप सीखना, साईकिल सीखना आदि । किन्तु इसमें साथ
ही मानसिक क्रियायें भी सीखी जाती है। प्रक्रिया की मात्रा अपेक्षाकृत
अधिक रहती है।
(ख) शाब्दिक सीखना यह सीखना शब्दों के आधार पर होता है। मानव के
अधिकतर सीखने का स्वरूप शाब्दिक होता है। इसमें शब्द, अंक, चिह्न, संकेत, वाच्य आदि
का माध्यम लिया जाता है। यह सीखना स्मृति के निकट है क्योंकि इसमें धारणा का अंश
भी रहता है।
(ग) विभेदात्मक सीखना― यहाँ सीखने वाला उद्दीपक एवं प्रतिक्रिया दोनों में पहचान
करना सीखता है। यह पशुओं में भी हो सकता है और मनुष्यों में भी । गत्यात्मक हो सकता
है या शाब्दिक हो सकता है।
(घ) समस्या समाधान―यह सीखने की जटिलतम अवस्था है जिसमें पहले सीखी
हुई प्रतिक्रियाओं को चुनना व जोड़कर नया समाधान खोजना पड़ता है। कुछ मनोविज्ञानी
इसे चिन्तन का एक रूप मानते हैं। वास्तव में चिन्तन भी सीखने का मानसिक रूपया
अप्रकट रूप ही है, इत्यादि।
प्रश्न 18. सीखने को प्रभावित करने वाले कारक अथवा सीखने की विभिल
परिस्थितियों का वर्णन करें।
उत्तर―सीखने को प्रभावित करने में आंतरिक तथा बाहा कारक होते हैं। आंतरिक
कारकों में विषय सामग्री का स्वरूप, बालकों का शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य, परिपक्वता,
सीखने का समय, सीखने की इच्छा, प्रेरण/अभिप्रेरणा, सीखने की प्रक्रिया, सीखने की विधि
आदि प्रमुख है। बाह्य कारकों में माता-पिता व अभिभावक, परिवार, समाज या समुदाय,
विद्यालय, भौगोलिक वातावरण, समवय समूह, जनसंचार, संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र आदि
प्रमुख है।
(क) परिवार― माता पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अंत: क्रिया करते
हुए समाज की परंपरा, रीति-रिवाज, वेशभूषा, भाषा, संस्कृति आदि को बच्चे सीखते हैं।
जिस परिवार में बच्चों को सतत सहयोग और प्रोत्साहन मिलता है वहाँ बच्चे जल्दी तथा
अच्छे से सीखते हैं। इसके उलट परिवार का माहौल कलहपूर्ण होने पर बच्चा नहीं सीखता
है। वह विद्यालय में भी सहमा रहता है, पीछे बैठता है तथा सीखने में रुचि नहीं लेता है।
(ख) समवय/समकक्षी समूह–अपने समवय समूह के साथ बच्चे खुलकर अपने
आप को अभिव्यक्त करते हैं, क्योंकि वहाँ बातचीत करने की आजादी होती है। कभी-कभी
गलत समूह में पढ़कर अनुचित व्यवहार भी सीख लेते हैं जैसे चोरी करना झूठ बोलना, उग्र
स्वभाव प्रदर्शित करना आदि । समवय समूह एक तरीके से बच्चे का संसार फैलाने में सहायता
करता है और भिन्न भिन्न बच्चों के संपर्क से विभिन्न प्रकार की विचारधारा और संभावनाओं
से उन्हें परिचित कराता है। शिक्षकों को चाहिए कि बच्चों को स्वस्थ एवं सौहार्दपूर्ण माहौल
प्रदान कर भाईचारे की भावना तथा भावात्मक एकता को बढ़ावा दें। इससे उनमें सकारात्मक
सोच को बल मिलता है।
(ग) जनसंचार माध्यम―आज के युग में कई प्रकार के संचार माध्यमों का बोलबाला
है जैसे कि इंटरनेट, मोबाइल फोन इत्यादि । यह संचार माध्यम शिक्षण तथा मनोरंजन दोनों
का कार्य हैं। अगर इसका सही इस्तेमाल हो तो बच्चों में इससे सृजनशीलता आती
है। कहानी कहने की या कहानी गढ़ने अथवा उनमें विषय वस्तु का ज्ञान होता है, परंतु गलत
या जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल उन्हें नकारात्मकता की ओर ले जाता है। यदि इनका
प्रभावशाली तरीके से उपयोग किया जाए तो सृजनशीलता को प्रोत्साहन मिलता है और सीखने
में भी यह बच्चों को सहायता करते हैं। परंतु यह विचारणीय है कि आजकल संचार माध्यमों
में प्रायः लिंग, जाति, धार्मिक रूढिबद्ध धारणाओं, हिंसा और समृद्धि का विकृत दिखावा तथा
उपभोक्तावाद को भी प्रदर्शित किया जाता है । हिंसक चलचित्रों का बच्चों पर प्रतिकूल असर
पड़ता है। अतः यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि बच्चों को जिस सामग्री के प्रति
उन्मुख किया जा रहा है उससे उनके संतुलित विकास में सहायता मिले और किसी प्रकार
का दूषित प्रभाव ना पड़े।
(घ) समुदाय–समुदाय परिवार के बाद बच्चों के लिए सबसे बड़ी संस्था है जहाँ बच्चों
का संज्ञानात्मक विकास होता है तथा भाषा का भी विकास होता है। समुदाय का अर्थ है―
पड़ोस में रहने वाले परिवार का समूह या आसपास की विभिन्न संस्थाएँ।
     सामाजिक या वातावरण के दोषपूर्ण होने पर या समाज में विभिन्न प्रकार की असमानता
जैसे—आर्थिक, लैंगिक, जातीय, धार्मिक आधारित असमानता तथा सामाजिक कुरीतियाँ
आदि होने पर ऐसे माहौल में जीने वाला बच्चा मानसिक तनाव से गुजरता है। इससे सीखने
की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
प्रश्न 19. सीखने के प्रकार तथा बच्चे कैसे सीखते हैं?
उत्तर―हम विभिन्न चीजों को अपने जीवन में सीखते हैं और सीखने की विधियाँ
भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। किसी कार्य को सीखने में पेशियों तथा शरीर के विभिन्न
अंगों का उपयोग होता है और किसी कार्य को सीखने में भाषा तथा प्रतीकों का उपयोग किया
जाता है। साइकिल चलाना भी सीखना है और कविता याद करना भी सीखना है। पहला
गत्यात्मक सीखना कहलाएगा और दूसरा शाब्दिक सीखना । सीखने संबंधी विषय के स्वरूप
और विधि के आधार पर सीखने के निम्नलिखित प्रकार हैं―
(क) कौशल सीखना—इसमें कलात्मक गुणों को सिखाया जाता है।
(ख) प्रेक्षणात्मक सीखना― किसी को देखकर स्वयं उत्तेजित होकर सीखना।
(ग) शाब्दिक सीखना―इसमें शाब्दिक साहचर्य को सीखा जाता है।
(घ) संज्ञानात्मक सीखना― उद्दीपन को देखकर स्वतः अनुक्रिया से सीखना।
(ङ) संप्रत्यय सीखना― तर्क, कल्पना एवं चिंतन से जो सीखा जाए।
बच्चे निम्नलिखित प्रकार से सीखते हैं―
(क) अवलोकन द्वारा
(ख) सक्रिय भागीदारी से
(ग) स्वयं करके प्रयोग करके
(घ) अतः क्रिया/विवेचना करके
(ङ) अनुभवों से
(च) अपने पूर्व ज्ञान के साथ नए ज्ञान को जोड़कर
(छ) बच्चे विशेष रणनीतियों के प्रयोग से भी सीखते हैं― जैसे बच्चे समझने, स्मरण
करने और समस्या को सुलझाने में रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं। पहाड़ों को कैसे याद
करें या अंकों की लंबी श्रृंखला को किस प्रकार याद किया जाए इसकी भी रणनीति वे बना
सकते हैं।
(ज) अनुकरण से― अनुकरण का अर्थ है नकल करना । बच्चे अपने सभी नित्य कमों
को बड़ों के अनुकरण के द्वारा सीखते हैं। जहाँ गाय आदि पशुओं के बछड़े पैदा होते ही
कुलांचे भरने लगते हैं, वहाँ मनुष्य का बच्चा लगभग एक साल का होने पर ही अनुकरण
के द्वारा चलना सीखता है। अगर किसी बच्चे को समाज से अलग करके रख दिया जाए,
तो वह किसी का भी अनुकरण कर सकने में असमर्थ होने के कारण असहाय और अज्ञान
की स्थिति में ही रह जाएगा।
प्रश्न 20. सीखने की विधियाँ लिखें। वर्णन करें।
उत्तर―(क) करके सीखना (Learning by doing)―इस विधि में छात्र के द्वारा
प्रत्येक कार्य में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया जाता है। बच्चे जिस कार्य को स्वयं करते हैं, उसे
वे जल्दी सीखते हैं। जब बच्चे किसी कार्य को स्वयं करते हैं तो वे उसके उद्देश्य का निर्माण
करते हैं, उसको करने की योजना बनाते हैं और उसे पूर्ण करने की कोशिश करते हैं। यदि
उसमें वे असफल रहते हैं तो अपनी गलतियों का पता लगाते हैं तथा उनमें सुधार करने का
प्रयत्न करते हैं। आज की शिक्षा प्रणाली इसी विधि पर आधारित “बाल केन्द्रित” शिक्षा है।
किसी चीनी लेखक का कथन है―
                       जब हम सुनते हैं तो भूल जाते हैं,
                       जब हम देखते हैं, हम याद रखते हैं,
                       जब हम करते हैं, हम समझ जाते हैं।
(ख) अनुकरण द्वारा सीखना (Learning by Imitation)―अनुकरण द्वारा
सीखने की प्रक्रिया शैशवावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है। विद्यालय में बच्चे शिक्षक द्वारा
की जाने वाली क्रियाओं का अनुकरण करके सीखते है । इस विधि में शिक्षक छात्र के लिए
आदर्श स्वरूप होता है। मनोवैज्ञानिक हैगार्ट महोदय की अनुकरण द्वारा सीखने का सिद्धांत
से भी यह स्पष्ट होता है कि अधिगम की प्रक्रिया अनुकरण के माध्यम से सरल होती है।
(ग) निरीक्षण करके सीखना (Learning by Observation)―बच्चे जिस वस्तु
का निरीक्षण करते हैं, उसके बारे में वे जल्दी और स्थायी रूप से सीख जाते हैं। इसका
कारण है कि निरीक्षण करते समय वे उस वस्तु को छूते हैं, या प्रयोग करते हैं, या आपस
में उसके बारे में चर्चा करते हैं, इस प्रकार वे अपने एक से अधिक इन्द्रियों का प्रयोग करते
हैं। फलस्वरूप उनके मन-मस्तिष्क पर उस वस्तु का स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है।
निरीक्षण पद्धति की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक बच्चों को जिस स्थान
पर ले जाये उसे वह पूर्व में ही देख लें तथा उसके बारे में योजना बना ले । इस विधि से
सीखने में छात्र की जिज्ञासा एवं उत्सुकता बनी रहती है। सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत
भूगोल शिक्षण में इस विधि का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए ताकि बच्चे उसे सहजता
से सीख सके।
(घ) परीक्षण करके सीखना (Learning by Testing)―इसके अन्तर्गत छात्र
अपनी आवश्यकता के अनुरूप सामग्री का परीक्षण करते हैं तथा ज्ञान प्राप्त करते हैं जैसे―
बच्चे किताब में गिनती को पढ़ते हैं तो प्रथम दृष्टि में उसका कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं होता,
परंतु व्यवहारिक जगत में जब बच्चे स्वयं इसका प्रयोग करते हैं, देखते हैं, तो उसका अधिगम
स्थायी रूप ले लेता है । इस विधि को विज्ञान, गणित, सामाजिक अध्ययन एवं नैतिक शिक्षा
आदि में प्रयोग किया जा सकता है। इस विधि के माध्यम से बच्चों में आत्मनिर्भरता का
विकास होता है क्योंकि इस परीक्षण में वे स्वयं प्रयास करते हैं।
(ङ) सामूहिक विधियों द्वारा सीखना (Learning by Group Methods)―
सामूहिक विधियों द्वारा सीखना अधिक सहायक एवं उपयोगी होता है। इस सम्बन्ध में
कोल्सनिक (Kolsnik) का मत है कि बालक को प्रेरणा प्रदान करने, उसे शैक्षिक लक्ष्य को
प्राप्त करने में सहायता देने, उनके मानसिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाने, उसके व्यवहार में
सुधार करने और उसमें आत्मनिर्भरता तथा सहयोग की भावनाओं का विकास करने के लिए
सामूहिक विधियाँ अधिक प्रभावशाली होती है। मुख्य सामूहिक विधियाँ निम्नलिखित हैं―
(च) सम्मेलन व विचार गोष्ठी विधि (Conference & Seminar Meth-
ods)―इस विधि में किसी विशेष विषय पर छात्र/छात्राओं द्वारा विचार विमर्श, वाद-विवाद
एक निश्चित समय में करना होता है। इसमें ऐसे प्रकरण पर विचार किया जाता है जिसमें
सभी सदस्यों की रुचि होती है। इसके द्वारा लोगों में सामाजिक एवं भावात्मक गुणों का
विकास होता है । इसके द्वारा दूसरों के विरोधी विचारों का सम्मान एवं सहनशीलता की भावना
विकसित होती है।
(छ) प्रोजेक्ट विधि (योजना विधि) (Project Method)―इसमें प्रत्येक छात्र
अपनी व्यक्तिगत रुचि, ज्ञान और क्षमता के अनुसार स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, जिससे
सीखना सरल हो जाता है। सामूहिक रूप से कार्य करने के कारण उनमें स्पर्धा, सहयोग
और सहानुभूति का भी विकास होता है। इसमें शिक्षक मार्गदर्शक का कार्य करते हैं तथा
वह बच्चों को समूहों में बाँट देते हैं। प्रत्येक समूह अपनी इच्छानुसार कोई भी प्रोजेक्ट लेने
को स्वतंत्र होता है । यहाँ शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्बन्धित कार्य छात्रों के
स्तरानुकूल हो तथा वे स्वयं बच्चों का मार्गदर्शन करता रहें । प्रोजेक्ट से सम्बन्धित आवश्यक
निर्देश भी देना चाहिए ताकि कार्य ठीक प्रकार से सम्पन्न हो सके । इस विधि से अर्जित ज्ञान
स्थायी होता है तथा यह रटने की प्रवृत्ति को भी कम करता है। यह विधि “बाल केन्द्रित”
है। बच्चों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है।
(ज) समूह अधिगम (Group Learning)― इस अधिगम के अन्तर्गत सीखने वालों
को विभिन्न समूह में बाँट दिया जाता है। सीखने वाले को अपने साथियों के साथ खुले मन
से विषय-वस्तु पर आधारित अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता
है। इसका प्रमुख उद्देश्य छात्रों को अपनी समस्याओं को स्वयं निराकरण करने के लिए
प्रोत्साहित करना तथा उन्हें समाधान निकालने के लिए अवसर प्रदान करना होता है।
आवश्यकता पड़ने पर इस शिक्षक से सहायता प्राप्त कर सकते हैं । समूह अधिगम में छात्र
अधिक स्वतंत्र होने के कारण समस्या के समाधान में अपने विचारों को पूर्णरूप से प्रकट
कर सकते हैं।
प्रश्न 21. बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।
उत्तर―(क) वंशानुक्रम―इसमें जीन को आधार मानते हुए गुणों के विकास की
प्रक्रिया का उल्लेख व प्रतिफल माना जाता है। बालक के कद, आकृति, बुद्धि, चरित्र आदि
सम्बन्धी विशेषताएँ वंशानुक्रम से प्रभावित हो जाती है और ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है।
(ख) वातावरण―वातावरण में सामाजिक व भौतिक दोनों घटक ही बालकों के
विकास पर प्रभाव डालते हैं। वातावरण के प्रभाव से व्यक्ति अनेक तरह से प्रभावित होते
हैं तथा उनमें अनेक विशेषताओं का विकास होता है । वातावरण का प्रभाव बालक के ऊपर
उसके शैशवावस्था से ही होने लगता है। बालक के जीवन दर्शन एवं शैली का स्वरूप, स्कूल,
समाज, पड़ोस तथा परिवार के प्रभाव के परिणाम स्वरूप स्पष्ट होता है। आगे चलकर
बालक वातावरण को प्रभावित करने की क्षमता विकसित कर लेता है।
(ग) आहार―गर्भ काल से लेकर मृत्युपर्यंत उचित आहार ही स्वास्थ्य को उचित
पोषण देता है जो विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है । पोषाहार में कमी रह जाने से बच्चे
कुपोषित हो जाते हैं, उनका शारीरिक तथा मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पाता ।
(घ) अंत: स्रावी ग्रंथियाँ―बच्चों के अंदर पाई जाने वाली ग्रंथियाँ भी भिन्न-भिन्न
व्यवहारों का कारक होती है जो बौद्धिक एवं शारीरिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक
होती है। उदाहरण स्वरूप अवटुका ग्रंथि (थाइराइड) के बढ़ जाने से शरीर का रक्तचाप
तथा धड़कन में अनियंत्रण आ जाती है। अगर थाइराइड से निकलने वाले थाइरॉक्सिन हार्मोन
में कमी रह जाती है तो बालक बौना रह जाता है।
(ङ) बुद्धि―बच्चों की बुद्धि का स्तर भी उनके विकास का प्रमुख घटक होता है।
बच्चे यदा कदा अपनी बुद्धि का प्रयोग अपने विकास हेतु अवश्य करते हैं। मनोवैज्ञानिकों
के अनुसार कुशाग्र बुद्धि वाले बालकों का शारीरिक तथा मानसिक विकास मंद बुद्धि वाले
बालकों की अपेक्षा तेजी से होता है। कुशाग्र बुद्धि वाले बालक शीघ्र बोलना और चलना
सीख लेते हैं। हालांकि अपवाद तो हमें हर जगह मिल ही जाता है। जो बच्चे देरी से बोलना
सीखते हैं एक समय के बाद उन्हें भी कुशाग्र बुद्धि के तौर पर विकसित होते हुए देखा गया
है।
(च) यौन एवं लिंग―लैंगिक भिन्नता भी विकास को प्रभावित करती है । बाल्यावस्था
में जहाँ लड़कियों की बुद्धि लड़कों की तुलना में कम होती है। वही किशोरावस्था में
लड़कियाँ लड़कों की तुलना में अपेक्षाकृत जल्दी व्यस्क हो जाती है । बालकों का शरीर जन्म
के समय बालिकाओं से बड़ा होता है लेकिन बाद में बालिकाओं में शारीरिक विकास तेजी
से होता है। बालिकाओं में मानसिक एवं यौन परिपक्वता बालकों से पहले आती है।
(छ) भयंकर रोग एवं चोट–शरीर में ऐसे कई स्थान हैं जहाँ चोट लगने से मनुष्य
बहुत बुरी तरह से प्रभावित होते हैं । मस्तिष्क एक ऐसा ही अंग है जहाँ चोट लगने विकास
में बाधा आ सकती है। कई भयंकर बीमारियाँ भी हैं जो विकास को प्रभावित करते हैं। लम्बे
समय तक रहने वाली बीमारियाँ विकास को प्रभावित करते हैं, आदि ।
प्रश्न 22. बाल विकास और सीखने में अंतर्संबंधों की परिचयात्मक समझ
विकसित करें।
                                       अथवा,
बाल विकास और सीखने में क्या अंतर्संबंध है ?
                                       अथवा,
बाल विकास का सीखने (अधिगम) से क्या संबंध है?
उत्तर―विकास से सम्बन्ध परिवर्तन का होना है। बाल विकास में व्यक्ति में मानासिक,
सामाजिक, संवेगात्मक तथा शारीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता
है तथा व्यावहारिक परिवर्तनों में जैसे—कार्य कुशलता, कार्य क्षमता, व्यक्तिगत स्वभाव में
परिवर्तन या सुधार का होना सम्मिलित है । हरलॉक के अनुसार विकास का अर्थ बढ़ने से
नहीं है। इसका तात्पर्य बालक की परिपक्वता की ओर परिवर्तनों का विकासात्मक क्रम है।
विकास के होने से बालक या व्यक्ति में विशिष्ट योग्यताएँ और विशिष्ट विशेषताएँ देखने को
मिलती है जो परिपक्वता से लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर होता है।
       सीखना विकास की प्रक्रिया है। अधिगम तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि व्यक्ति
शारीरिक तथा मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हो । सीखने के कई प्रकार है—ज्ञानात्मक,
गामक, संवेदनात्मक अधिगम आदि । हम जो भी नया काम करते हैं उसे विकास की विभिन्न
अवस्थाओं में आत्मसात कर लेते हैं। उदाहरण के लिए तीन वर्ष का बालक साइकिल चलाना
नहीं सीख पाता है। इसका प्रमुख कारण होगा आयु एवं परिपक्वता का अभाव । उसी
प्रकार सामान्य बुद्धि बालक प्रायः 11 माह की अवस्था में अनुकरण एवं प्रयास द्वारा बोलना
सीख जाते हैं।
    सीखने के द्वारा हम ज्ञान अर्जित करते हैं तथा अपने व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं।
जन्म के तुरंत बाद व्यक्ति सीखना प्रारंभ कर देता है। अधिगम के द्वारा ही व्यक्ति का
सर्वांगीण विकास होता है और वह इसके माध्यम से जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करता है।
सीखने का विकास से गहरा संबंध है। इसे हम बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं
के द्वारा भी समझ सकते हैं―
(क) शैशवावस्था व अधिगम―इसमें जन्म लेने से 3 वर्ष तक बच्चों का शारीरिक
एवं मानसिक विकास तीव्र गति से होता है। बच्चों में जिज्ञासा की तीव्र प्रवृत्ति होने के कारण
उनका सामाजिकरण प्रारंभ हो जाता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह अवस्था भाषा सीखने की
सर्वोत्तम अवस्था है।
(ख) बाल्यावस्था एवं अधिगम―इसके प्रथम 6 से 9 वर्ष में बालकों की लंबाई एवं
भार दोनों बढ़ते हैं। बच्चों में पढ़ाई के प्रति रूचि तथा शक्तियों का विकास होता है। इस
अवस्था में बच्चों के सीखने की गति मंद एवं सीखने का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है।
(ग) किशोरावस्था एवं अधिगम―इस अवस्था में व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता
की ओर अग्रसर होता है । इस अवस्था में किशोरों की बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है।
उनके ध्यान केंद्रित करने की क्षमता व स्मरण शक्ति बढ़ जाती है, जिससे उनके सीखने का
क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। वे अपने भविष्य को लेकर गंभीर होने लगते हैं।
प्रश्न 23. स्मृति (memory) से क्या समझते हैं ? सीखने-सिखाने में इसकी क्या
भूमिका है एवं इसके शैक्षिक निहितार्थ की चर्चा करें।
उत्तर–प्राय: देखा जाता है कि जब कोई बच्चा किसी बात को आसानी से सीख जाता
है, याद रखता है और पुनःस्मरण कर लेता है, तो अक्सर हम सभी कहते है कि अमुक
बच्चे की स्मरण शक्ति अच्छी है । इस प्रकार अच्छी स्मरण शक्ति से हमारा अर्थ सीखना,
याद करना तथा पुनःस्मरण है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अचेतन मन में संचित अनुभवों
को चेतन मन में लाने की क्रिया को ही स्मृति कहते हैं । जैसे—जब कोई घटना व्यक्ति
देखता है तो यह घटना अपने पूर्ण अथवा अंशरूप में उसके अचेतन मन में संचित हो जाती
है। किसी कारणवश जब व्यक्ति को इस घटना की याद आती है या उसे याद दिलाई जाती
है तो उक्त घटना पुनः उसी रूप में उसके चेतन मन में आ जाती है।
वुडवर्थ के अनुसार―”स्मृति, सीखी हुई वस्तु का सीधा उपयोग है।”
सीखने-सिखाने में स्मृति की भूमिका एवं शैक्षिक निहितार्थ―स्मृति एक मानसिक
प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति सूचनाओं को संरक्षित रखता है। जब हम किसी विषय
को समझ लेते हैं और सीख लेते हैं तब मस्तिष्क इनकी सूचनाओं का भण्डारण कर लेता
है और इन सूचनाओं का पुनरूद्धार सामान्यतरू प्रत्याहवान (Recal) के रूप में होता है।
एक प्रकार से सूचनाओं के द्वारा न सिर्फ हमें ज्ञान होता है बल्कि वह हमारी स्मृति में संरक्षित
भी रहता है। किसी भी प्रकार की कक्षागत सीखी गई बातों को आत्मसात करना आवश्यक
रहता है तथा सीखी गई बातों को छात्र स्मृति के माध्यम से ही मस्तिष्क में उसका भंडारण
करते हैं। अधिगम या सीखने (Learning) प्रक्रिया के समय विशेषकर स्मृति का उपयोग
होता है। छात्र सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में प्रतीकों (symbols), शब्दों एवं उनके अर्थों
तथा उनके पारस्परिक सम्बंधों और सूत्रों का भण्डारण करता है और इसी स्मृति के आधार
पर वह प्रतीकों एवं उनके सम्बंधों का उपयोग करता है। व्यक्ति जो कुछ भी स्मरण करता
है, जैसे परिचित लोगों के चेहरे, वस्तुओं का रंग-रूप या कोई घटना वे उसके स्मृति में ही
भंडारित होते हैं।
    हम एक बार जब विषयवस्तु को अच्छी तरह समझ लेते हैं या किसी घटना की क्रिया
को एक बार ठीक से समझ लेते हैं तो प्रायः उसे भुलते नहीं। फिर भी कई बार हम कुछ
महीनों या वर्षों में भुल भी जाते हैं, उनकी विस्मृति हो जाती है । इस प्रकार सीखने-सिखाने
की प्रक्रिया में स्मृति की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। विभिन्न शैक्षिक सह शैक्षिक
क्रियाकलाप सीखने के बाद हमारे स्मृति पटल पर अंकित हो जाते हैं जिन्हें हम फिर भूलते
नहीं हैं।
प्रश्न 24. अवधान (Attention) से क्या समझते हैं ? सीखने में अवधान की क्या
भूमिका है?
उत्तर―ध्यान के अन्तर्गत मुख्य रूप से मन को नियंत्रित किया जाता है जिससे व्यक्ति
के अध्यात्मिक विकास तथा शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु मन की चंचलता से बाधा उत्पन्न
न हो। डमविल के अनुसार “किसी दूसरी वस्तु के बजाय एक ही वस्तु पर चेतना का
केन्द्रीकरण अवधान (ध्यान) है।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि―
◆ अवधान एक मानसिक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में चेतन मन किसी वस्तु, व्यक्ति
अथवा क्रिया की ओर लगता है। इसमें चेतन मन को सक्रिय होना पड़ता है।
◆ अवधान में चेतन मन का संयोग आवश्यक है। व्यक्ति का चेतन मन जब तक
किसी विषय पर केन्द्रित नहीं होता तब तक उस विषय में उसका ध्यान केन्द्रित
नहीं हो सकता।
◆ अवधान में व्यक्ति का मन एवं शरीर दोनों क्रियाशील होता है।
◆ अवधान अस्थिर एवं गतिशील होता है।
सीखने में अवधान की भूमिका (या महत्व)―
◆ किसी भी वस्तु अथवा विचार आदि पर अवधान होने के लिये मानसिक सक्रियता
आवश्यक है। मानसिक सक्रियता द्वारा ही बच्चे सीखी गई बातों को आत्मसात
कर सकते हैं।
◆ किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए शारीरिक एवं मानसिक तत्परता
आवश्यक है। जिससे बच्चे उस वस्तु या विषय से संबंधित अपनी अवधारणा स्पष्ट
कर पाते हैं।
◆ अवधान में प्रयोजनता रहती है अर्थात जब व्यक्ति किसी वस्तु या विचार पर
अवधान केन्द्रित करता है, उसका कोई न कोई उद्देश्य या प्रयोजन रहता है। जिससे
सीखना सार्थक हो जाता है।
◆ अवधान में सजीवता होती है। व्यक्ति जिस वस्तु पर अवधान केन्द्रित करता है
वह वस्तु व्यक्ति की चेतना में स्पष्ट हो जाती है।
प्रश्न 25. सामाजिक अधिगम से आप क्या समझते हैं ? बंडूरा के सामाजिक
अधिगम सिद्धांत की व्याख्या करें व इसके शैक्षिक निहितार्थ की चर्चा करें।
                                                 अथवा,
सामाजिक अधिगम क्या है ? प्रेक्षण व सामाजिकरण द्वारा सीखना किस प्रकार
होता है ? बंडूरा के सामाजिक अधिगम सिद्धांत के आधार पर व्याख्या करें व शिक्षा
में इसके महत्व की चर्चा करें।
उत्तर―मानव अपने वातावरण के द्वारा स्वयं कुछ न कुछ सीखता है। यह सर्वविदित
है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज के अंदर रहता है, समाज से सीखता है,
समाज को सिखाता है, समाज द्वारा निर्देशित सीखने को बन्डुरा ने सामाजिक अधिगम कहा
है। इसके अनुसार सामाजिक अधिगम के अंतर्गत उस तत्व का अधिगम किया जाता है
जिसमें जो तत्व पुरस्कृत करते हैं, जिनकी प्रतिष्ठा होती है या जो सुयोग्य होते हैं, वे तत्व
अधिगम नहीं किए जाते हैं जो प्रतिष्ठित ना हो या सुयोग्य न हों यानि समाज द्वारा कुछ तत्व
निर्धारित हो जाते हैं जिनका बालक स्वतः अनुसरण करता है और वह उसका अधिगम लक्ष्य
बन जाता है।
                अर्थात दूसरों को देखकर उनके अनुरूप व्यवहार करने के कारण अथवा दूसरों के
व्यवहार को अपने जीवन में उतारने तथा समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहारों को धारण करने और
अमान्य व्यवहारों को त्यागने के कारण ही यह सामाजिक अधिगम कहलाता है ।
         प्रेक्षण व सामाजिकरण द्वारा सीखने के बंडूरा के सामाजिक अधिगम का सिद्धांत―
अल्बर्ट बंडूरा (Albert Bandura) ने अपने प्रयोगों के माध्यम से यह सिद्ध किया कि
सामाजिक जीवन में अनुकरण द्वारा सीखने का प्रचलन अधिक है। किसी प्रतिमान (model)
के व्यवहार को देखकर बालक उसका अनुसरण करके उसके साथ तादात्म्य स्थापित करने
का प्रयास करता है। अर्थात किसी प्रतिमान द्वारा किए गए विशिष्ट व्यवहार के अवलोकन
से अर्जित नवीन प्रतिक्रियाओं को ग्रहण करना ही अनुकरण द्वारा सीखना कहलाता है।
               अधिगम में अधिगमकर्ता (बालक) किसी प्रतिमान को देखता और सुनता है।
अधिगमकर्ता प्रतिमान द्वारा किए गए व्यवहार को ज्ञानात्मक प्रक्रियाओं द्वारा मस्तिष्क में
संग्रहित करता है। बालक प्रतिमान द्वारा किए गए व्यवहार के परिणामों का निरीक्षण करता
है। इसके बाद अधिगमकर्ता स्वयं प्रतिमान के व्यवहार का अनुकरण करके सबलीकरण की
आशा करता है। सबलीकरण धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है। लोगों से घनात्मक
पुष्टिकरण मिलने पर बालक उस व्यवहार को सीख लेता है और यदि किसी व्यवहार के प्रति
लोगों का नकारात्मक पुष्टिकरण हो तो वह उस व्यवहार को त्याग देता है।
              बंडूरा ने अपने सिद्धांत की पुष्टि के लिए अनेक प्रयोग किए। 1963 ई. में बंडूरा ने
अपने अध्ययन में दो स्थितियाँ रखी―
1. पहली स्थिति में बंडूरा ने बालकों को ऐसे मॉडल दिखाएँ जो एक खेल के कमरे
में आक्रामक व्यवहार कर रहे थे। बंडूरा ने पाया कि निरीक्षण करने वाले बालकों ने भी
आक्रामक व्यवहार वैसी ही परिस्थितियों में किया।
2. दूसरी स्थिति में अवरोध के प्रभाव को देखा गया। यह देखा गया कि आक्रामक
व्यवहार करने पर दौडत किया जाता है तो उन बालकों के सीखने में दंड एक अवरोध के
रूप में आ गया। इस कारण उन्होंने आक्रामक व्यवहार बंद कर दिया। यदि निरीक्षण करने
वाले बालक देखते हैं कि आक्रामक व्यवहार वाले बालकों को दंडित नहीं किया गया तो
विशेष स्थिति में वे वैसा ही व्यवहार करते हैं।
        हम लोगों के जीवन में प्रतिदिन अनेक प्रतिमान आते हैं और हम उनके व्यवहारों का
अनुकरण करते हैं। यही स्थिति बालक के सामने पैदा होती है। एक बालक टी.वी. पर
प्रदर्शित चलचित्र में हीरो के कार्यकलापों को देखकर उसके व्यवहार को अपने मस्तिष्क में
संग्रहित कर लेता है। बालक वहाँ अन्य लोगों को भी उसके व्यवहार की प्रशंसा करता देखता
है। वही बालक घर पहुंचने पर अपने माता-पिता के सामने वैसा ही व्यवहार करता है।
इस स्थिति में यदि माता-पिता उसको प्रशंसा करते हैं तो वह उस व्यवहार को करना सीख
लेता है और यदि माता-पिता उस व्यवहार को पसंद नहीं करते हैं तो वह उस व्यवहार को
नहीं सीखेगा।
          संक्षेप में बंड्रा के मॉडल की विशेषताओं को लिखा जा सकता है कि वे मॉडल जो
आदरपूर्ण होते हैं, पुरस्कृत कर सकते हैं, योग्य है या जिसका स्तर उच्च होता है, के व्यवहार
का अनुकरण शीघ्रता से किया जाता है। प्रायः शिक्षक और अभिभावक बालक के
अनुकरणात्मा व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालते हैं।
शैक्षिक निहितार्थ―
◆ बच्चों के व्यक्तित्व विकास में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत सामाजिक अधिगम है।
बच्चे निरीक्षण व प्रेक्षण द्वारा समाज की मान्यताओं को आत्मसात करते हैं।
◆ यदि बच्चों के सामने अच्छे गुणों वाले व्यवहार को प्रदर्शित किया जाता है तो उस
बालक में वांछित गुणों का विकास किया जा सकता है।
सामाजिक अधिगम का आधार अनुकरण है। कक्षा में सीखने की अनुकरणीय
प्रक्रियाओं का समावेश करके बच्चों को सीखने के लिए प्रेरित किया जा सकता
है।
◆ बच्चों के सामने आदर्श मॉडल प्रस्तुत करना चाहिए । शिक्षकों को आदर्श व्यवहार
प्रदर्शित करने चाहिए। वे बच्चों के रोल मॉडल होते हैं।
◆ बच्चों के सामने बुरे व्यवहार, अनैतिक मॉडल से बचना चाहिए।
प्रश्न 26. वाइगोत्सकी का सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत क्या है ? उल्लेख करें।
उत्तर–वायगोत्स्की ने सन् 1924-34 में इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलाजी (मास्को) में
संज्ञानात्मक विकास पर विशेष कार्य किया, विशेषकर भाषा और चिन्तन के सम्बन्ध पर।
उनके अध्ययन में संज्ञान के विकास के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारकों के
प्रभाव का वर्णन किया गया है। वायगास्की के अनुसार भाषा समाज द्वारा दिया गया प्रमुख
सांकेतिक उपकरण है जो कि बालक के विकास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
            जिस प्रकार हम जल के अणु का अध्ययन उसके भागों (H&O) के द्वारा नहीं कर
सकते, उसी प्रकार व्यक्ति का अध्ययन भी उसके वातावरण से पृथक होकर नहीं किया जा
सकता । व्यक्ति का उसके सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक सन्दर्भ में
अध्ययन ही हमें उसकी समग्र जानकारी प्रदान करता है। वायगोत्स्की के अनुसार अधिगम
और विकास की पारस्परिक प्रक्रिया में बालक की सक्रिय भागीदारी होती है जिसमें भाषा का
संज्ञान पर सीधा प्रभाव होता है। अधिगम और विकास अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाएँ है जो छात्र
के जीवन के पहले दिन से प्रारम्भ हो जाती हैं ! वायगोत्स्की के अनुसार विभिन्न बालकों के
अलग-अलग विकास स्तर पर अधिगम की व्यवस्था समरूप तो हो सकती है किन्तु एकरूप
नहीं, क्योंकि सभी बच्चों का सामाजिक अनुभव अलग होता है। उनके अनुसार अधिगम
विकास को प्रेरित करता है। उनका यह दृष्टिकोण प्याजे के सिद्धांत एवं अन्य सिद्धांतों से
भिन्न है।
      वायगोत्स्की के सिद्धांत के अनुसार सामाजिक अन्त:क्रिया (interaction) ही बालक
की सोच व व्यवहार में निरंतर बदलाव लाता है जो एक संस्कृति से दूसरे में भिन्न हो सकता
है। उनके अनुसार किसी बालक का संज्ञानात्मक विकास उसके अन्य व्यक्तियों से
अन्तर्सम्बन्धों पर निर्भर करता है। वायगोत्स्की ने अपने सिद्धांत में संज्ञान और सामाजिक
वातावरण का सम्मिश्रण किया। बालक अपने से बड़े और ज्ञानी व्यक्तियों के सम्पर्क में
आकर चिन्तन और व्यवहार के संस्कृति अनुरूप तरीके सीखते है। सामाजिक-सांस्कृतिक
सिद्धांत के कई प्रमुख तत्व है। प्रथम महत्वपूर्ण तत्व है—व्यक्तिगत भाषा। इसमें बालक
अपने व्यवहार को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए स्वयं से बातचीत करते है।
प्रश्न 27. वाइगोत्सकी के सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत की प्रमुख मान्यता
शैक्षिक निहितार्थ की वर्णन करें एवं समालोचनात्मक विश्लेषण करें।
उत्तर―इस सिद्धांत की प्रमुख मान्यताएँ निम्नवत हैं―
(क) भाषा तथा विचार―वाइगोत्सकी ने संज्ञानात्मक विकास में बच्चों की भाषा
एवं चिंतन को महत्वपूर्ण साधन बताया है । बच्चे भाषा का प्रयोग ना केवल समाज के साथ
विचारों के आदान-प्रदान करने के लिए बल्कि अपनी योजना बनाने में, अपना व्यवहार करने
में भी करते हैं । वाइगोत्सकी के अनुसार भाषा और विचार शुरू में एक-दूसरे से स्वतंत्र होते
हैं। फिर एक दूसरे से मिल जाते हैं । बच्चे समाज में रहकर ही अपने विचारों को शब्द दे
पाते हैं और उनकी भाषा का विकास होता है।
(ख) वास्तविक विकास का स्तर (level of actual development)―यह
सिद्धांत बताता है कि प्रत्येक व्यक्ति के सीखने की संभावनाओं का एक निश्चित क्षेत्र होता
है। संज्ञानात्मक विकास को अंतर वैयक्तिक सामाजिक परिस्थितियाँ भी प्रभावित करती है
जिसमें बच्चे स्वयं बिना किसी मदद के अपने स्तर पर सीखते हैं जैसे कि चूसना खेलना
बोलना चलना दौड़ना आदि इसे वाइगोत्सकी ने वास्तविक विकास के स्तर नाम दिया है जिसमें
बच्चे बिना किसी मदद के अपने आप सीख जाते हैं । उदाहरण के लिए घुटनों के बल चलना,
वॉकर में चलना, चीजों को उठा कर रखना, पलंग के नीचे उतरना इत्यादि ।
(ग) समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development or
ZPD)―समीपस्थ विकास का क्षेत्र वह क्षेत्र है जिसमें बच्चे किसी क न कार्य को अन्य
व्यस्कों या कुशल सहयोगियों की मदद से कर लेते हैं।
(घ) सहारा लगाना (scaffolding)―जब बच्चे कुछ नया सीख रहे होते हैं तो शुरू
में उनसे ज्यादा हुनरमंद व्यक्ति के सहारे या मदद की जरूरत पड़ती है। जैसे-जैसे बच्चे
वह नया काम सीख लेते हैं, मदद की मात्रा को कम करते जाते हैं और अंत में बच्चे उस
काम को बिना किसी की मदद के कर पाते हैं। वायगोत्स्की की इस सहारे को स्कैफोल्डिंग
नाम दिया।
शैक्षिक निहितार्थ―
◆ इस सिद्धांत में विद्यालय और घर के बीच एक सार्थक संबंध बनाने पर जोर दिया
जाता है क्योंकि ऐसा होने से बच्चों का सीखना ज्यादा अर्थपूर्ण व सार्थक होता
है। परिवार में बच्चे स्वाभाविक रूप से बातचीत कर पाते हैं । इसलिए वहाँ सीखने
का एक अच्छा वातावरण बनता है।
◆ इस प्रक्रिया द्वारा शिक्षक विद्यार्थी एक दूसरे के समीपस्थ विकास के क्षेत्र में पहुँचने
में मदद करते हैं। बच्चे ऐसी सहयोगी प्रक्रियाओं में चर्चा, संवाद को आत्मसात
करते हैं और सीखना संभव हो पाता है।
◆ वाइगोत्सकी के सिद्धांत द्वारा हम यह समझ पाते हैं कि संज्ञानात्मक विकास में
सामाजिक अनुभव बच्चों के संज्ञानात्मक कौशल को किस प्रकार प्रभावित करते
हैं और उनमें भिन्नता क्यों पाई जाती है। उदाहरण के लिए साक्षर समाज
पढ़ने-लिखने, गणित की क्षमताओं पर जोर देते हैं इसलिए उनके बच्चे इन
कौशलों में बेहतर होते हैं उन बच्चों के मुकाबले जिन्हें औपचारिक शिक्षा के कम
मौके मिलते हैं।
◆ यदि शिक्षक सामूहिक कार्य की व्यवस्थित योजना बनाते हैं और किसी समस्या को
हल करने या खोज करने के लिए बच्चों को देते हैं तो बच्चों में प्रश्न पूछने और
आलोचना करने की क्षमता बढ़ती है और वे कार्य को कर पाते हैं। ऐसा करते
हुए वे दूसरों को समझने की कोशिश करते हैं, अपना विचार बनाते हैं और बहस
का विश्लेषण करते हैं । वे समझ कर सीखते हैं जिससे उनका संज्ञानात्मक विकास
होता है।
समालोचना–वाइगोत्सकी के विचारों को खूब सराहा गया परंतु उनकी आलोचना भी
हुई। उन्होंने उच्च संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के विकास में चित्रों, नक्शों आदि प्रतीकों को
महत्त्व तो दिया परंतु भाषा की भूमिका को कुछ ज्यादा ही महत्व दिया । जबकि कुछ
संस्कृतियाँ बच्चों के सीखने में भाषा के बजाय अवलोकन और सामाजिक गतिविधियों में भाग
लेने पर ज्यादा जोर देती हैं।
      उसी प्रकार वाइगोत्सकी ने संज्ञान के विकास में समाज और संस्कृति के प्रभाव को तो
खूब महत्व दिया परंतु जैविकता के योगदान को नजरअंदाज कर दिया । उदाहरण के लिए
उन्होंने यह नहीं देखा कि किस तरह बच्चों में गत्यात्मक कौशल, स्मृति, समस्या समाधान
की क्षमताएँ बच्चों के सामाजिक अनुभवों में बदलाव लाती है । ना ही वे यह स्पष्ट कर पाए
कि किस तरह बच्चे अपने सामाजिक अनुभवों को आत्मसात करते हैं जिससे उनकी
मानसिक कार्यकुशलता बढ़ती है।
प्रश्न 28. सूचना प्रसंस्करण मॉडल के अनुसार सीखने की प्रक्रिया क्या है ?
व्याख्या करें तथा उसकी आलोचनात्मक समझ विकसित करें।
                                      अथवा,
सीखने के सूचना प्रसंस्करण मॉडल (सिद्धांत) का विश्लेषण करें तथा उसकी
आलोचनात्मक समझ विकसित करें।
उत्तर―सीखने के मॉडल का यह सेट बताता है कि हमारा दिमाग माध्यम से जानकारी
को कैप्चर, ऑपरेट और प्रोड्यूस करता है, प्रसंस्करण के विभिन्न स्तरों के माध्यम से उसके
साथ काम करता है। यहाँ तक कि विभिन्न स्मृति प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है।
        सूचना प्रसंस्करण मॉडल उन तरीकों का पता लगाता है जिससे कोई व्यक्ति सूचना से
काम लेता है और इसका निरीक्षण करता है तथा सूचना के बारे में रणनीतियों को बनाता
है। यह वर्णन करता है कि बच्चों की चिंतन प्रक्रिया बचपन और किशोरावस्था में कैसे
विकसित होती है। बच्चों से भिन्न किशोर अधिक जटिल ज्ञान अर्जित कर अपने आपको
सूचना प्रसंस्करण के लिए समर्थ कर वृहद् क्षमता विकसित कर लेते हैं। कंप्यूटर के समान
मानवीय संज्ञान भी मानसिक हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर रखता है। मानसिक हार्डवेयर विभिन्न
स्मृतियों के साथ संज्ञानात्मक संरचना रखता है, जहाँ सूचना संरक्षित रहती है। जबकि
मानसिक सॉफ्टवेयर संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का संगठित समुच्चय है जो विशिष्ट कार्य को
पूर्ण करने में व्यक्तियों की सहायता करता है। जानकारी का प्रसंस्करण इंद्रियों के माध्यम
से उत्तेजना (कम्प्यूटेशनल भाषा में इनपुट) की प्राप्ति के साथ शुरू होता है। तो बच्चे इसे
अर्थ देने के लिए सक्रिय रूप से जानकारी को एन्कोड करते हैं और इसे लंबे समय तक
स्मृति में संग्रहित करने के साथ इसे संयोजित करते हैं । अंत में एक प्रतिक्रिया (आउटपुट)
निष्पादित किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि एक बच्चा परीक्षा में बहुत अच्छा करना
चाहता है तो उसे पढ़ने के दौरान स्मृति में संरक्षित सूचना को खोलना ही होगा और फिर
परीक्षा के दौरान आवश्यक सूचना को पुनः प्राप्त करना होगा।
    यह उपागम बचपन और किशोरावस्था के दौरान चिंतन प्रक्रिया का विश्लेषण व्यक्तिगत
कंप्यूटरों में की गई व्यक्तिगत उन्नतियों के समान करता है। जैसे—एक दशक पहले बने
कंप्यूटर की तुलना आधुनिक कंप्यूटरों से करें तो आधुनिक कंप्यूटरों में बेहतर हार्डवेयर और
सॉफ्टवेयर होते हैं। उसी प्रकार बड़े बच्चों और किशोरों में बेहतर हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर
है। जब हम लोग अवलोकन करते हैं तो बड़े बच्चे गणित की समस्याओं को आसानी से
हल कर लेते हैं अपेक्षाकृत छोटे बच्चों के जो अधिकतर केलकुलेटर पर विश्वास करते हैं।
विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है सूचना प्रसंस्करण के लिए अच्छी रणनीतियों को
सीखना।
आलोचनात्मक समझ― सीखने की यह दृष्टि व्यवहारवाद की प्रतिक्रिया के रूप में
उभरी । मानव “प्रोग्राम्ड जानवर” नहीं हैं जो बस पर्यावरणीय उत्तेजनाओं का जवाब देते हैं।
इसके विपरीत, हम तर्कसंगत प्राणी हैं जिन्हें सीखने के लिए सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता
होती है और जिनके कार्य विचार का परिणाम होते हैं।
       व्यवहार में परिवर्तन देखा जा सकता है, लेकिन केवल एक संकेतक के रूप में कि
व्यक्ति के सिर में क्या होता है । संज्ञानात्मकता एवं कंप्यूटर के रूप में मन के रूपक का
उपयोग करता है, सूचना प्रवेश करती है, संसाधित होती है और व्यवहार में कुछ परिणामों
की ओर ले जाती है।
प्रश्न 29. पावलव के अनुक्रिया अनुबंध सिद्धांत के संदर्भ का विश्लेषण करें
और आलोचनात्मक समझ बनाते हुए उसके शैक्षिक निहितार्थ की चर्चा करें ।
उत्तर―इवान पत्रोविच पावलोव (26 सितंबर 1849-27 फरवरी 1936) एक रूसी
फिजियोलाँजिस्ट थे। इस सिद्धांत का प्रतिपादन पावलव ने 1904 ई. में किया। पावलव का
अनुक्रिया अनुबंध सिद्धांत अनुक्रिया एवं अनुबंधन पर आधारित है। अनुबंधन वह प्रक्रिया
है जिसमें एक प्रभावहीन उद्दीपन (वस्तु या परिस्थिति) इतनी प्रभावशाली हो जाती है कि
वह छुपी हुई अनुक्रिया को प्रकट कर देती है। कुछ जन्मजात क्रियाएँ जैसे सांस लेना,
पाचन संस्थान, रुधिर संस्थान, मनोवैज्ञानिक कहते हैं आदि स्वयंचलित क्रियाओं को कहा
जाता है। कुछ मनोवैज्ञानिक क्रियाएँ जैसे—पलक झपकाना, छींकना, लार आना आदि
अनुबंधन क्रियाएँ भी कहलाती हैं
      पावलव के प्रतिपादित सिद्धांत के मूल में यह तथ्य है कि अस्वाभाविक उद्दीपन के प्रति
स्वाभाविक उद्दीपन के समान होने वाली अनुक्रिया शास्त्रीय अनुबंधन है। यानि उद्दीपन
अनुक्रिया के बीच साहचर्य स्थापित होना ही अनुबंधन है । जब मूल, उद्दीपक के साथ दिया
जाए और बार-बार इसकी आवृत्ति की जाए तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि यदि मूल
उद्दीपक को हटाकर उसके स्थान पर नया उद्दीपक प्रस्तुत किया जाए तो भी वही अनुक्रिया
होती है जो मूल उद्दीपक के साथ होती थी। इसका कारण यह है कि अनुक्रिया उद्दीपक से
संबद्ध हो जाती है।
      अपने सिद्धांत की पुष्टि के लिए पावलव ने एक कुत्ते पर प्रयोग किया । उसने कुत्ते की
लार की ग्रंथि का ऑपरेशन किया और उस ग्रंथि का संबंध एक ट्यूब द्वारा एक कांच की
बोतल से स्थापित किया जिसमें लार को एकत्र किया जा सकता था। इस प्रयोग को पावलव
ने इस प्रकार किया कि कुत्ते को खाना दिया जाता था तो खाने को देखते ही कुत्ते के मुंह
में लार आना प्रारंभ हो जाती थी । खाना देने के पूर्व घंटी बजाई जाती थी और घंटी के साथ
ही खाना दिया जाता था। इस प्रक्रिया को कई बार दोहराया गया और उसके बाद घंटी बजाई
गई लेकिन भोजन नहीं दिया गया। इस क्रिया के पश्चात भी कुत्ते के मुंह से घंटी बजाते
ही लार आनी प्रारंभ हो गई।
      यहाँ भोजन स्वाभाविक उद्दीपक है जिसे Un Conditioned Stimulus या UCS कहा
गया है। भोजन को देखते ही कुत्ते के मुंह में लार आना स्वाभाविक अनुक्रिया है जिसे Un
Conditioned Response या UCR कहा गया है जिसका अर्थ है कि अनुक्रिया किसी
विशेष दिशा पर निर्भर नहीं करती बल्कि स्वाभाविक रूप से ही भोजन को देखकर आ जाती
है। इसके पश्चात प्रयोग में भोजन ना देने पर घंटी की आवाज अस्वाभाविक उद्दीपन तथा
लार अस्वाभाविक अनुक्रिया है।
इस सिद्धांत के शैक्षिक निहितार्थ―
◆ विद्यार्थियों में अच्छी आदतों का निर्माण करना-जैसे—माता बच्चों को सुबह
नींद से जगाती है तो बालक उठ जाता है। ये स्वाभाविक उद्दीपक से स्वाभाविक अनुक्रिया
हुई। अब माता बालक को उठाने से पहले बल्ब जलाती है बाद में आवाज लगाती है। ये
क्रिया ज्यादा समय तक होती है तो बालक बल्ब जलते ही उठ जायेगा। इसका आशय है
बालकों में अनेक अच्छी आदतें जैसे—साफ-सफाई, समय पर कार्य करना, आदर करना
आदि इस विधि से सिखाई जा सकती है। अनुशासन की भावना का विकास भी इस प्रकार
किया जा सकता है। इस प्रकार बालकों के व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकता है।
◆ भय दूर करने में― बालक प्रायः पुलिस, डाक्टर, चूहा आदि को देखकर डर जाते
है क्योंकि उनके साथ वहाँ अनुबंध स्थापित कर चुके होते है । यदि इनके इस डर को
करना है तो प्रति अनुबंध के द्वारा किया जा सकता है।
◆ वस्तुओं के नाम सिखाना-बच्चे को पापा, मामा आदि नाम सिखाना । यह पुरातन
अनुभव के जरिये होता है।
◆ बुरी आदतों को छोड़ना—यह सिद्धांत ना केवल अच्छी आदतों को सिखाने में
सहायक है बल्कि खराब आदतों को छोड़ने में भी यह उपयोगी है। जिस प्रकार अनुबंधन
द्वारा अधिगम किया जाता है, उसी प्रकार अनुकूलन विधि द्वारा बुरी आदतों जैसे—गाली देना,
चोरी करना आदि को छोड़ा जा सकता है। कुसमायोजित बालक में व्याप्त संवेगात्मक
अस्थिरता व चिंता आदि का निवारण भी इस विधि द्वारा किया जा सकता है।
◆ आलोचनात्मक समझ–पावलव के सीखने के अनुक्रिया अनुबंधन सिद्धांत की
शिक्षा जगत में अनेक दृष्टि से उपयोगिता है, परंतु कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत की
आलोचना भी की है जो इस प्रकार है―
◆ यह सिद्धांत मनुष्य को एक यंत्रवत मानता है जो सत्य नहीं है। वास्तविकता यह
है कि मनुष्य कोई मशीन नहीं है। उसमें विवेक, बुद्धि, चिंतन एवं तर्क करने की
क्षमता है। अत: वह किसी भी कार्य को तर्क एवं चिंतन के आधार पर करता
◆ इस सिद्धांत के अनुसार प्रयोग करते समय उद्दीपन को बार-बार दोहराया जाता है
जिससे संबद्धता बनी रहे । यदि कुछ समय तक उद्दीपन को प्रस्तुत नहीं किया जाता
है तो उसमें भूल पड़ जाती है, अर्थात वह प्रभावहीन हो जाते हैं । इससे अर्थ यह
निकलता है कि इस सिद्धांत द्वारा अधिगम स्थाई नहीं होता । यह इस सिद्धांत की
कमी है।
प्रश्न 30. स्किनर के सक्रिय अनुबंध सिद्धांत के संदर्भ का विश्लेषण करें।
इसकी आलोचनात्मक समझ बनाते हुए इसके शैक्षिक निहितार्थ की चर्चा करें ।
उत्तर—बुर्ह फ्रेडरिक स्किनर जो आमतौर पर बि एफ स्किनर के नाम से जाने जाते
हैं, एक अमरिकी मनोवैज्ञानी, व्यवहारवादी, लेखक, आविष्कारक और सामाजिक दर्शनिक
थे। इस सिद्धांत का मुख्य आधार थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित प्रभाव का नियम था । स्किनर
के सक्रिय अनुबंधन सिद्धांत (instrumental conditioning theory) के अनुसार यदि
किसी अनुक्रिया या व्यवहार के बाद संतोष या आनंद की अनुभूति होती है तो प्राणी उस
व्यवहार को दोहराना चाहता है। इसको विपरीत पनि किसी अनुक्रिया के पश्चात असंतोष
या दुख का अनुभव होता है तो प्राणी जरा व्यवहार को दोहराना नहीं चाहता। इस प्रकार
ऐसे व्यवहार में उरोजक एवं अनुक्रिया का बंधन (S&R bond) कमजोर हो जाता है । यही
नियम स्किनर के क्रिया प्रसूत अनुसंधन का आधार है।
          स्किनर ने अधिगम के गोत्र में अनेक प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि
अभिप्रेरण से उत्पन्न क्रियाशीलन ही सीखने के लिए उत्तरदायी है। उन्होंने दो प्रकार की
क्रियाओं पर प्रकाश डाला-क्रिया प्रसूत व उद्दीपन प्रसूत । जो क्रियाएँ उद्दीपन के द्वारा होती
है वे उद्दीपन आधारित होती है। क्रिया प्रसूत का सम्बन्ध किसी ज्ञात उद्दीपन से न होकर
उत्तेजना से होता है।
        स्किनर ने अपना प्रयोग चूहों पर किया। उन्होंने लीवर वाला वाक्स (स्किनर बाक्स)
बनवाया । लीवर पर चूहे का पैर पड़ते ही ‘खट’ की आवाज होती थी। इस ध्वनि को सुन
चूहा आगे बढ़ता और उसे प्याले में भोजन मिलता । यह भोजन चूहे के लिए प्रबलन का
कार्य करता । चूहा भूखा होने पर प्रणोदित होता और लीवर को दबाता ।
                  इन प्रयोगों में जब प्राणी स्वयं कोई वांछित व्यवहार करता है, तो व्यवहार के
परिणामस्वरूप उसे पुरस्कार प्राप्त होता है। अन्य व्यवहारों के करने पर उसे सफलता प्राप्त
नहीं होती। वह पुरस्कृत व्यवहार आसानी से सीख लेता है।
       निष्कर्ष यह है, कि यदि क्रिया के बाद कोई बल प्रदान करने वाला उद्दीपन मिलता है,
तो उस क्रिया की शक्ति में वृद्धि होती है। स्किनर के मत में प्रत्येक पुनर्बलन अनुक्रिया को
करने के लिए प्रेरित करता है।
इस सिद्धांत के शैक्षिक निहितार्थ―
◆ इसका प्रयोग बालकों के शब्द भण्डार में वृद्धि के लिए किया जाता है।
◆ शिक्षक इस सिद्धांत के द्वारा सीखे जाने वाले व्यवहार को स्वरूप प्रदान करता है,
वह उद्दीपन पर नियंत्रण करके वांछित व्यवहार का सृजन कर सकते हैं।
◆ इस सिद्धांत में सीखी जाने वाली क्रिया को छोटे-छोटे पदों में विभाजित किया जाता
है। शिक्षा में इस विधि का प्रयोग करके सीखने में गति और सफलता दोनों मिलती
है।
◆ स्किनर का मत है, जब भी कार्य में सफलता मिलती है, तो सन्तोष प्राप्त होता
है। यह संतोष क्रिया को बल प्रदान करता है।
◆ इसमें पुनर्बलन को बल मिलता है। अधिकाधिक अभ्यास द्वारा क्रिया को बल
मिलता है।
◆ यह सिद्धांत जटिल व्यवहार वाले तथा मानसिक रोगियों को वांछित व्यवहार के
सीखने में विशेष रूप से सहायक होता है। दैनिक व्यवहार में हम इस सिद्धांत
का बहुत प्रयोग करते हैं।
◆ स्किनर द्वारा इस सिद्धांत में “पुनर्बलन” से क्रियाओं को जोड़ने पर बल दिया गया,
उनका मानना था कि पुनर्बलन चाहे सकारात्मक दिया जाये या नकारात्मक परंतु
तुरंत देना चाइए क्योंकि विलंब करने से उसका प्रभाव काम हो जाता हैं शिश
प्रक्रिया में “पुरस्कार एवं दण्ड” भी अधिगम के इसी सिद्धांत का अनुसरण करी
है।
अभिप्रेरणा―इस सिद्धांत के अनुप्रयोग से पुनर्बलन का प्रयोग करके छात्रों को
अभिप्रेरित किया जा सकता है, क्योंकि अनुक्रिया की उपयुक्तता और कार्य की सफलता
अभिप्रेरणा के अच्छे स्रोत हैं।
आलोचनात्मक समझ―अपने तमाम खूबियों के बावजूद कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इस
सिद्धांत की आलोचना की है जो इस प्रकार हैं―
◆ इस सिद्धांत का प्रतिपादन पशु एवं पक्षियों पर किए गए प्रयोगों के निष्कर्षों के
आधार पर किया गया है । अत: यह मनुष्यों के सीखने की प्रक्रिया की ठीक प्रकार
से व्याख्या नहीं करता है।
◆ यह सिद्धांत उच्च मानसिक क्षमता वाले व्यक्तियों पर लागू नहीं होता है।
इस सिद्धांत के अनुसार पुनर्बलन सतत् होना आवश्यक है। पुनर्बलन के अभाव
में सीखने की प्रक्रिया मंद हो जाती है।
◆ इस सिद्धांत द्वारा सीखना यंत्रवत् होता है। इसमें बुद्धि का महत्व नहीं है।
प्रश्न 31. बच्चों के सीखने में न्यूरो दैहिक (nuro physiological) आधार के
प्रभाव की चर्चा करें। बच्चों के सीखने की गतिकी को समझने के लिए मस्तिष्क
की संरचना एवं सीखने में इसकी भूमिका की व्याख्या करें।
उत्तर―न्यूरोदैहिक क्षेत्र में हुए शोध निष्कर्षों ने सीखने की प्रक्रिया को नए तरीके से
समझने में मदद की है। पिछले दशकों में, हमारे मस्तिष्क तंत्रिका नेटवर्क में जानकारी
संग्रहित करने वाली परिकल्पना ने बड़ी लोकप्रियता और मजबूत वैज्ञानिक समर्थन प्राप्त किया
है। मस्तिष्क व तंत्रिका तंत्र की संरचना और इसके तत्वों के बीच संबंध हम सूचना को
संसाधित करते हैं उसका गठन करते हैं, दूसरी तरफ स्मृति, इन नेटवर्कों के सक्रियण में
शामिल है। मस्तिष्क प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अपने को निरंतर पुनसंगठित करता रहता
है। यह प्रक्रिया जीवनपर्यंत चलती है, परंतु मानव जीवन के प्रारंभिक वर्षों में अति तीव्र होती
है। शिशु को घर-परिवार में प्राप्त अनुभव उनके स्नायु परिपथ को प्रभावित करते हैं जो
यह निश्चित करता है कि विद्यालय में तथा बाद के जीवन में मस्तिष्क कैसे और क्या सीखता
है।
मस्तिष्क की संरचना एवं सीखने में इसकी भूमिका―
ph
                                  मानव मस्तिष्क
मस्तिष्क को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है: पश्च मस्तिष्क, मध्य मस्तिष्क एवं
अन मस्तिष्क । सीखने में इनकी भूमिका को इनके विभिन्न कार्यों से समझ सकते हैं।
(क) पश्च मस्तिष्क―मस्तिष्क के इस हिस्से में निम्न संरचनाएँ होती हैं:
◆ मेडुला ऑबलांगाटा-यह मस्तिष्क का सबसे निचला हिस्सा है जो मेरुरज्जु से
सटा रहता है। इसमें तंत्रिकीय केंद्र होते हैं जो मूलभूत जीवन सहायक गतिविधियों जैसे-
‘वास लेना, हृदयगति और रक्तचाप को नियमित करते हैं।
◆ सेतु-एक ओर यह मेडुला से और दूसरी ओर मध्य मस्तिष्क से जुड़ा होता है।
सेतु का एक केंद्रक (तत्रिकीय केंद्र) हमारे कानों द्वारा संचारित श्रवणात्मक संकेतों को ग्रहण
करता है। इसमें ऐसे केंद्रक होते हैं जो चेहरे की अभिव्यक्ति और वास-प्रश्वास संचालन
को भी प्रभावित करते हैं।
◆ अनुमस्तिष्क―पश्च मस्तिष्क का यह सबसे विकसित हिस्सा अपनी झुर्सदार सतह
से आसानी से पहचाना जा सकता है। इसका मुख्य कार्य मांसपेशीय क्रियाकलापों में समन्वय
करना है। यह क्रियाकलापों की विधियों की स्मृति भी सोचत करता है जिससे हम कैसे चलें,
साइकिल पर चढ़े या नाचे इत्यादि मुद्राओं पर ध्यान केंद्रित नहीं करना पड़ता है।
(ख) मध्य मस्तिष्क―मध्य मस्तिष्क अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है तथा यह
पश्च मस्तिष्क और अग्र मस्तिष्क को जोड़ता है। यह हमारी संवेदनाओं के लिए उत्तरदायी
होता है। संवेदों को नियमित करके यह हमें सजग और सक्रिय बनाता है। पर्यावरण से आगत
सूचनाओं के चयन में भी यह हमारी सहायता करता है।
(ग) अग्र मस्तिष्क―अग्र मस्तिष्क को सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है
क्योंकि यह सभी प्रकार की संज्ञानात्मक, संवेगात्मक और प्रेरक क्रियाकलापों को संपादित
करता है। इसके चार प्रमुख भाग हैं―
◆ अघश्चेतक―सांवेगिक एवं अभिप्रेरणात्मक व्यवहारों में शामिल शारीरिक प्रक्रियाओं
को यह नियमित करता है। जैसे-भोजन करना, पानी पीना, सोना, तापमान नियमन, और
कामोत्तेजना। यह शरीर के आंतरिक वातावरण (यथा, हृदयगति, रक्तचाप, तापमान) को
नियंत्रित एवं नियमित करता है।
◆ चेतक—यह एक प्रसारण स्टेशन की तरह है जो ज्ञानेन्द्रियों से आने वाले सभी सबै
संकेतों को ग्रहण करते वल्कुट के उपयुक्त हिस्सों में प्रक्रमण के लिए भेजता है। वल्कुट
से निकलने वाले सभी बर्हिगत प्रेरक संकेतों को भी ग्रहण कर शरीर के उपयुक्त भागों में
भेजता है।
◆ उपवल्वुफटीय तंत्र―शरीर में शारीरिक तापमान, रक्तचाप और रक्तशर्करा स्तर
का नियमन करके यह आंतरिक समस्थिति को कायम रखने में मदद करता है।
◆ प्रमस्तिष्क― यह भाग सभी उच्चस्तरीय संज्ञानात्मक प्रकार्यों जैसे—अवधान,
प्रत्यक्षण, अधिगम, स्मृति, भाषा-व्यवहार, तर्कना और समस्या समाधान को नियमित करता
है। मानव मस्तिष्क के कुल परिमाण का दो तिहाई भाग प्रमस्तिष्क होता है । प्रमस्तिष्क की
सभी तांत्रिका कोशिकाएँ हमारे लिए संगठित कार्य करना और प्रतिमाएँ, प्रतीक, साहचर्य तथा
स्मृति सर्जन करना संभव बनाते हैं।
प्रश्न 32. विशेष आवश्यकता वाले बच्चे अथवा अधिगम अक्षमता से ग्रसित
बच्चों की शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक की क्या भूमिका है ? स्पष्ट करें।
उत्तर–शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक वह केंद्र है जिसके चारों तरफ सारी शिक्षण प्रक्रिया
घूमती है। खासकर जब विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए शैक्षणिक रणनीति तय
करनी हो तो उनकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के
शिक्षण में शिक्षक की निम्न भूमिका है―
(क) बच्चों में सकारात्मक सोच का विकास करना।
(ख) कक्षा कक्ष गतिविधियों में प्रत्येक बच्चे को भाग लेने के अवसर प्रदान करना ।
(ग) बच्चों को मानवीय विभिन्नताओं को समझना एवं स्वीकार करना सिखाना।
(घ) सामान्य एवं बाधित बच्चों के बीच मधुर संबंध बनाना ।
(ङ) सभी बच्चों में आत्मविश्वास जगाना एवं उन्हें जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार
करना।
(च) बच्चों को उचित परामर्श देना।
(छ) बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयोगात्मक सोपानों की समझ
रखना।
(ज) बाधित बच्चों के प्रभावशाली अधिगम हेतु पाठ्यक्रम का निर्माण करना ।
(झ) शून्य स्वीकृति नीति के तहत प्रत्येक बच्चे का कक्षा कक्ष में स्वागत करना ।
(ट) शारीरिक रूप से बाधित बच्चों के लिए कक्षा में बैठने की उपयुक्त व्यवस्था
करना।
(ठ) बाधित बच्चों को उनके सहपाठियों से मधुर संबंध स्थापित करने में सहायता
करना।
प्रश्न 33. बच्चों के संप्रत्यय विकास में उनमें कार्य-कारण की समझ का विकास
कैसे होता है ? एक शिक्षक के रूप में आप इसमें क्या भूमिका निभा सकते हैं और
उनके संज्ञानात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में कैसे मदद कर सकते हैं ?
उत्तर–सम्प्रत्यय निर्माण के साथ ही बच्चों में वैज्ञानिक चेतना को बढ़ाने में
कार्य-कारण की समझ का होना जरूरी है। पियाजे के अनुसार हर बच्चे छोटे वैज्ञानिक होते
हैं। वो वस्तुओं और घटनाओं पर क्रिया करके अपनी अवधारणाओं का निर्माण करता रहता
है और इसी से अपने आस-पास की दुनिया की समझ बनाती है। बस फर्क सिर्फ इतना होता
है कि छोटा बच्चा बड़े से अलग सोचता है, अलग तरीके से तर्क लगाता है और अलग
निष्कर्ष पर पहुँचता है। पियाजे का अवस्था सिद्धांत भी बच्चों के कार्य कारण कि समझ
के विकास के विषय में कहता है कि छोटे बच्चे (पूर्व सक्रियात्मक अवस्था) मात्रा के संरक्षण
(conservation of values and quantities) को समझने में चूक करते हैं और उम्र के
साथ वे इस समझ में अपने आप परिपक्व होते जाते हैं। उदाहरण के लिए क्या दुनिया गोल
है, यह समझना बहुत सारे बच्चों के लिए मुश्किल है। क्योंकि वे उसके तर्क को समझने
के लिए अलग-अलग सम्प्रत्ययों या इस्तेमाल करते हैं। यदि पियाजे के सिद्धांत को ले जो
बच्चों में यह समझ तभी विकसित हो सकती है जब उनमें इससे सम्बंधित स्कीमा विकसित
हो जाए। उसी तरह बारिश क्यों और कैसे होती है, यह समझना भी संज्ञान और कार्यकारण
की समझ पर निर्भर करता है। शिक्षकों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे अपने शिक्षण में
किसी भी अवधारणा को कार्य-कारण सम्बंधों के माध्यम से समझने-समझाने का भरसक
प्रयास करें।
        पियाजे कहते हैं कि बच्चा खुद से ही अकेले ही वस्तुओं पर प्रयोग करके उनके बारे
में अपनी अवधारणाएँ (concepts) बनाता है । इस प्रक्रिया में अभिभावक, शिक्षक, साथी
समूह, आदि केवल वातावरण उपलब्ध कराते हैं (facilitators) इससे ज्यादा कुछ नहीं।
इसके अलावा शिक्षक Zone ofProximal Development (ZPD) और सहायक ढांचा
(scaffolding) प्रक्रिया द्वारा बच्चों में कार्य कारण को समझने में मदद कर सकते हैं
ZPD एक अंत:क्रिया आधारित सीखने की प्रक्रिया को नाम दिया गया है। इसमें कोई व्यक्ति
किसी समस्या से जूझ रहा होता है। उसके काम में असफल होने पर कोई अन्य व्यक्ति
या उपकरण सहायता करते हैं (scaffold यानि सहायक ढाँचा बनाकर) ऐसी बातचीत
सवाल-जवाब, तर्क-वितर्क के माध्यम से जो व्यक्ति को समाधान के करीब ले जाए। इसमें
शिक्षक, साथी, अभिभावक आदि की भूमिका प्रमुख हो जाती है, इनके अलावा भाषा भी
इसी प्रकार का एक माध्यम है। पाठ्यचर्या, कैलकुलेटर भी इसी श्रेणी में आते हैं। शिक्षक
इस प्रक्रिया में केवल माध्यम नहीं रहते, बल्कि बच्चों के सीखने में बेहद सक्रिय भूमिका
निभाते हैं। बच्चों में कार्य कारण के विकास के बेहतरीन उदाहरण हमें प्रचलित लोक
कथाओं व बाल साहित्य में भी देखने को मिलते हैं। बाल साहित्य में दिखता है कि
अलग-अलग उम्र के बच्चे अपने अनुभव के अनुसार केसे तर्क-वितर्क करके कार्य-कारण
की समझ विकसित करते हैं।
प्रश्न 34. बच्चों में संप्रत्यय विकास की अवधारणा स्पष्ट करें। संप्रत्यय विकार
से संबंधित मानसिक प्रक्रियाएँ में कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर–बच्चों में संप्रत्यय विकास—संप्रत्यय वास्तव में एक चयनात्मक तंत्र है जिसमें
कोई व्यक्ति उपस्थित उत्तेजना तथा अपने पूर्व अनुभव के बीच संबंध स्थापित करता है।
उदाहरण के लिए कोई बच्चा जब पहली बार कौए को देखता है तो वह देखता है कि कौए
का रंग, काला है उसके दो पंखे, उसकी दो आँखें हैं, एक चोंच है और वह उड़ सकता
है। बच्चा अपने परिवार के लोगों को उसे कौआ कहते बार-बार सुनता है और वह भी उस
पक्षी के समान विशेषता वाले पक्षी को कौआ कहने लगता है। इस तरह बच्चा कौआ
संप्रत्यय को सीखा जाता है और उसके मस्तिष्क में कौवे से संबंधित एक विचार, एक प्रतिमा
या प्रतिमान (pattern) का निर्माण हो जाता है। इसी प्रकार दोबारा किसी कौए को देखने
पर वह अपने पूर्व अनुभव के आधार पर कहता है कि यह कौआ है। यदि वह मैना को
देखता है तो अपने पूर्व अनुभव के आधार पर वह इसका संबंध नहीं जोड़ पाता अर्थात वह
समझने लगता है कि यह कौआ नहीं है। इससे हम समझते हैं कि बच्चों में संप्रत्ययों के
आधार पर उनके पूर्व अनुभव पूर्व, संवेदनाएँ और पूर्व प्रत्यक्षीकरण होते हैं। धीरे-धीरे बच्चा
बिल्ली, मेज, कुर्सी, वृक्ष आदि कई संप्रत्ययों का निर्माण कर लेता है। दूसरे शब्दों में हम
कह सकते हैं कि वस्तुओं के सामान्य गुणों के आधार पर बनने वाले मानसिक प्रारूप को
संप्रत्यय कहते हैं।
        बच्चों में संप्रत्यय विकास के संदर्भ में माना जाता है कि इनमें पहले मूर्त संप्रत्यय जैसे
माता, पिता आदि विकसित होते हैं और उसके बाद में अमूर्त संप्रत्यय जैसे खुशी, दुख आदि
विकसित होते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि बच्चों में संप्रत्यय विकास सरल एवं
मूर्त से जटिल एवं अमूर्त की ओर होता है । जैसे-जैसे बच्चों की उम्र बढ़ती है वे बहुत सारे
जटिल संप्रत्ययों को सीख लेते हैं और उन्हें आपस में भिन्न एवं स्पष्ट रखने के लिए एक
श्रेणी में सुव्यवस्थित कर लेते हैं। हर बच्चे के संप्रत्यय विकास और उस पर आधारित चिंतन
में आधारभूत समानताओं के साथ कई विविधताएँ भी हो सकती है। तभी एक चीज के बारे
में ही यदि अलग-अलग बच्चों से पूछे तो हो सकता है कि वे अलग-अलग जवाब दें।
उदाहरण के लिए यदि बच्चों को कुछ फलों और सब्जियों को देखकर उन्हें वर्गीकृत करने
के लिए कहे तो हो सकता है कि सामान्यत: उन्हें वे फल और सब्जी की दो कोटि में वर्गीकृत
कर दे या वे उन्हें कुछ उपकोटियों में वर्गीकृत कर दें। यह भी हो सकता है कि बच्चे
वर्गीकरण की कोई दूसरी कसौटी अपनाएँ।
      संप्रत्यय विकास से संबंधित मानसिक प्रक्रियाएँ-संप्रत्यय निर्माण करने में बच्चों
को विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जिनका वर्णन निम्नलिखित है―
(क) निरीक्षण―बच्चे अवलोकन के माध्यम से विभिन्न संप्रत्ययों या मानसिक
प्रक्रियाओं का निर्माण करते हैं । जैसे जन्मजात शिशु कई चेहरों को देखता है, आवाजें सुनता
है और कई तरह के स्वाद से परिचित होकर उसके आधार पर संप्रत्यय बनाता है । उसी तरीके
से विद्यालय में बच्चों को विभिनन शिक्षण उपयोगी वस्तुओं को दिखाकर, प्रयोग कर संप्रत्यय
निर्माण किया जा सकता है।
(ख) तुलना–अवलोकन के द्वारा बच्चे चीजों से परिचित होने के साथ-साथ उनमें
तुलना करना भी सीखते हैं। जैसे अपने और दूसरों के कपड़े पहनने में तुलना करना, अपने
और दूसरों के खिलौने में तुलना करना । तुलना करने की कई कसोटियाँ हो सकती है।
जैसे—आकार, रंग, बनावट, उपयोगिता आदि ।
(ग) पृथक्करण―वुडवर्थ के अनुसार भिन्न-भिन्न वस्तुओं में समान तत्वों को अलग
कर लेना ही प्रत्यय रचना है जिसका आधार पृथक्करण है । बच्चे समान तत्व वाली वस्तुओं
को अन्य वस्तुओं से अलग करना सीख लेते हैं । जैसे यदि हम बच्चों को भिन्न-भिन्न रंगों
के कलम और किताब दें तो वे अलग-अलग होने के बावजूद सभी कलमों को एक कोटि
में और किताबों को अलग कोटि में रखेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि उनमें से वैसे गुणों को पृथक
करके अपने वर्गीकरण करने की कसौटी बना ली।
(घ) सामान्यीकरण–सक्रिय खोज सिद्धांत के अनुसार सामान्यीकरण को प्रत्यय
विकास का आधार माना जाता है । इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्यय के विकास में व्यक्ति का
सक्रिय सहयोग रहता है । इस सिद्धांत के अनुसार पहले व्यक्ति एक परिकल्पना का निर्माण
करता है, फिर अपने अनुभव के आधार पर उसकी जांच करता है और आवश्यकतानुसार
उसमें परिवर्तन लाता है जिससे एक खास प्रत्यय का निर्माण होता है । जैसे जब कोई बच्चा
देखता है कि एक खास तरह के पक्षी को लोग तोता कहते हैं तो वह इस प्रकार के पक्षी
के समरूप तत्वों वाले के समान विशेषताओं वाले पक्षी को तोता समझ लेता है। अतः उनका
संप्रत्यय स्पष्ट रूप धारण कर लेता है। समान गुणों के संग्रह के कारण बच्चों के लिए
अलग-अलग रंग के कॉपी या कलम में कोई अंतर नहीं रह जाता। उन्हें किसी भी रंग,
आकार, स्वरूप की कॉपी दी जाए वे उसे कॉपी ही कहेंगे।
(ङ) परिभाषा निर्माण―बच्चे उपर्युक्त चारों स्तरों के माध्यम से संप्रत्यय का
निर्माण व ते हैं और उन सबके आधार पर उन में विभिन्न वस्तुओं के बारे में वैसी परिभाषाएँ
अर्थात उनकी विशेषताओं का विवरण देने की क्षमता भी उनमें विकसित हो जाती है।
उदाहरण के तौर पर जैसे ही हम खाना कहते हैं तो उससे संबंधित बुनियादी परिभाषा को
के तुरंत गड़ लेते हैं।
प्रश्न 35, बच्चों में संप्रत्यय विकास को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन
से हैं? वर्णन करें।
उत्तर―बच्चों में संप्रत्यय विकास कई कारकों जैसे—उनकी बुद्धि, शिक्षण के अवसर,
उनके अनुभव, उनका सामाजिक-आर्थिक स्तर, ज्ञानेंद्रियों की अवस्था आदि द्वारा प्रभावित
होता है जिनका वर्णन निम्नलिखित है―
(क) बौद्धिक परिपक्वता―मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चों के बौद्धिक स्तर का
प्रभाव उनके संप्रत्यय विकास पर पड़ता है। बौद्धिक परिपक्वता बढ़ने से बच्चों में समझने,
चिंतन करने और तर्क करने की क्षमता का विकास होता है। जिससे संप्रत्यय विकास में मदद
मिलती है।
(ख) ज्ञानेंद्रियों की अवस्था―बच्चे अनुभव अपने ज्ञानेंद्रियों द्वारा करते हैं। ये
अनुभूतियाँ मस्तिष्क तक पहुंचती है और संप्रत्यय का निर्माण होता है। इससे यह स्पष्ट हो
जाता है कि ज्ञानेंद्रियों की अवस्था का प्रभाव बच्चे के संप्रत्यय विकास पर पड़ता है। उदाहरण
के लिए अगर कोई बच्चा देख नहीं सकता तो उसमें उन सभी अनुभवों की कमी आ जाएगी
जिन्हें हम देखकर महसूस करते हैं और उन सभी संप्रत्ययों के विकास में भी कमी रह जाएगी
जिनमें आँखों से देखने के अनुभव शामिल हैं।
(ग) शिक्षण के अवसर–बच्चों में संप्रत्यय विकास इस बात पर भी आधारित होता
है कि उन्हें घर के तथा विद्यालय के वातावरण में सीखने के कितने अवसर मिलते हैं । घर
और विद्यालय का वातावरण जितना सौहार्दपूर्ण तथा शिक्षाप्रद होगा, बच्चे में समझ शक्ति
उतनी ज्यादा बढ़ेगी और संप्रत्यय का विकास तेजी से होगा।
(घ) अनुभव―बच्चे अपने अनुभवों से सीखते हैं। उनका प्रत्येक नया अनुभव उनके
पहले से बने हुए संप्रत्ययों को प्रभावित करता है । दोनों तरह के अनुभव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
अनुभव, दोनों का ही प्रभाव बच्चों के संप्रत्यय विकास पर पड़ता है। पियाजे के अनुसार
6 से 12 वर्ष तक के बच्चे मूर्त अनुभव या प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर संप्रत्यय निर्माण
करते हैं, परंतु जैसे-जैसे बड़े होते हैं वे मूर्त या अप्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर संप्रत्ययों
का निर्माण करते हैं।
(ङ) सामाजिक आर्थिक स्तर―संप्रत्यय विकास में बालकों के परिवार के सामाजिक
आर्थिक स्तर काफी प्रभाव पड़ता है। जैसे—मोटरगाड़ी, टेलीफोन, बंगला, झोपड़ी, फ्रीज,
मटका आदि का संप्रत्यय अलग-अलग समाज में रहने वाले बच्चों के लिए अलग-अलग
होगा, इत्यादि।
प्रश्न 36. बच्चों के प्रेक्षण व सामाजिकरण द्वारा सीखने के बंडूरा के बोबो डॉल
प्रयोग का वर्णन करें।
उत्तर―प्रेक्षणात्मक अधिगम दूसरों का प्रेक्षण करने से घटित होता है अधिगम के इस
रूप को पहले अनुकरण कहा जाता था। बन्दूरा और उनके सहयोगियों ने कई प्रायोगिक
अध्ययनों में प्रेक्षणात्मक अधिगम की विस्तृत खोजबीन की। इस प्रकार के अधिगम में
व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को सीखता है।
      बोबो डॉल प्रयोग― इस प्रसिद्ध प्रयोग में बच्चों को पाँच मिनट की अवधि की एक
फिल्म दिखाई । फिल्म में एक बड़े कमरे में बहुत से खिलौने रखे थे और उनमें एक खिलौना
एक बड़ा सा गुड्डा (बोबो डॉल) था। अब कमरे मे एक बड़ा लड़का प्रवेश करता है और
चारों और देखता है। लड़का सभी खिलौनों के प्रति क्रोध प्रदर्शित करता है और बड़े खिलौने
के प्रति विशेष रूप से आक्रामक हो उठता है। वह गुड्डे को मारता है, उसे फर्श पर फेंक
देता है, पैर से ठोकर मारकर गिरा देता है और फिर उसी पर बैठ जाता है। इसके बाद का
घटनाक्रम तीन अलग रूपों में तीन फिल्मों में तैयार किया गया। एक फिल्म में बच्चों के
एक समूह ने देखा कि आक्रामक व्यवहार करने वाले लड़के (मॉडल) को पुरस्कृत किया
गया और एक व्यक्ति ने उसके आक्रामक व्यवहार की प्रशंसा की । दूसरी फिल्म में बच्चों
के दूसरे समूह ने देखा कि उस लड़के को उसका आक्रामक व्यवहार के लिए दंडित किया
गया। तीसरी फिल्म में बच्चों के तीसरे समूह ने देखा कि लड़के को न तो पुरस्कृत किया
गया है और न ही दंडित इस प्रकार बच्चों के तीन समूहों को तीन अलग-अलग फिल्में
दिखाई गई। फिल्में देखने के बाद सभी बच्चों को एक अलग प्रायोगिक कक्ष में बिठाकर
उन्हें विभिन्न प्रकार के खिलौनों से खेलने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया और उन समूहों
को छिपकर देखा गया और उनके व्यवहारों को नोट किया गया। उन लोगों ने पाया कि जिन
बच्चों ने फिल्म में खिलौने के प्रति किए जाने वाले आक्रामक व्यवहार को पुरस्कृत होते
हुए देखा था, वे खिलौनों के प्रति सबसे अधिक आक्रामक थे। सबसे कम आक्रामकता उन
बच्चों ने दिखाई जिन्होंने फिल्म में आक्रामक व्यवहार को दंडित होते हुए देखा था। इस
प्रयोग से यह स्पष्ट होता है कि सभी बच्चों ने फिल्म में दिखाए गए घटनाक्रम से आक्रामकता.
सीखा और मॉडल का अनुकरण भी किया। प्रेक्षण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया में प्रेक्षक मॉडल
के व्यवहार का प्रेक्षण करके ज्ञान प्राप्त करता हैं परंतु वह किस प्रकार से आचरण करेगा
यह इस पर निर्भर करता है कि मॉडल को पुरस्कृत किया गया या दंडित किया गया।
प्रश्न 37. व्यवहारवाद के दृष्टिकोण से सीखने का क्या आशय है ? इसकी
अवधारणा तथा आधारभूत मान्यताएं क्या हैं ? इसकी आलोचनात्मक समझ विकसित
करें।
                                       अथवा,
सीखने के व्यवहारवादी दृष्टिकोण की अवधारणा तथा आधारभूत मान्यता
का वर्णन करें। इसकी आलोचनात्मक समझ विकसित करें।
उत्तर―व्यवहारवाद शब्द की उत्पत्ति देखें तो यह व्यवहार शब्द से निर्मित है। अतः
स्पष्ट कहा जा सकता है कि यह मानव के व्यावहारिक पहलू से जुड़ा होता है । मानव अपने
व्यवहारों के माध्यम से जो संज्ञानात्मक विकास करता है वही अधिगम अर्थात सीखना
कहलाता है। मनोविज्ञान में व्यवहारवाद (behaviourism) की शुरुआत बीसवीं सदी के
पहले दशक में जे.बी. वाटसन द्वारा 1913 में जॉन हॉपीकन्स विश्वविद्यालय में की गयी।
वाटसन का कहना था कि किसी व्यक्ति का व्यवहार उसकी भीतरी और निजी अनुभूतियों
पर आधारित नहीं होता । वह अपने माहौल से निर्देशित होता है । मानसिक स्थिति का पता
लगाने के लिए किसी बाह्य उत्प्रेरक के प्रति व्यक्ति की अनुक्रिया का प्रेक्षण करना ही काफी है।
उदाहरणस्वरूप यदि घर में किसी बड़े बुजुर्ग का आगमन हो तो अवश्य ही बच्चे अपने
माता-पिता के व्यवहारों का अनुकरण करते हुए चरण स्पर्श करते हैं। प्रारंभ में भले यह
अनुकरण तक ही सीमित हो, किंतु बाद में बच्चों को स्वत: संज्ञान होने पर वे यह जान लेते
है कि बड़ों को चरण स्पर्श करना चाहिए। यही ज्ञान अधिगम या सीखने का व्यवहारवाद
है। व्यवहारवाद एक आवृत्ति या दृष्टिकोण है। यह मनोविज्ञान का ऐसा उपागम है जो
निरीक्षण योग्य तथा मापन योग्य व्यवहार को बल देता है। इसके द्वारा मनोविज्ञान में सत्य
आँकड़े प्राप्त किए जा सकते हैं । इसके प्रमुख घटकों में क्रियाएँ, चिंतन एवं भावनाएँ आदि
भी आती है। व्यवहारवाद के तीन प्रकार माने गए हैं—विधि व्यवहारवाद, मनोवैज्ञानिक
व्यवहारवाद, दर्शन शास्त्रीय व्यवहारवाद ।
        उदाहरण के लिए यदि बच्चा सीखता है कि विद्यालय में एक विशेष घंटी बजने का अर्थ
है विद्यालय में लंच ब्रेक यानि खाने का समय । वह विभिन्न काल खंडों को पहचान लेता
है और उन्हें संबद्ध भी कर लेता है। फिर किस कालखंड में, किस अध्यापक द्वारा, किस
प्रकार के क्रियाकलाप या एक ही अध्यापक द्वारा विभिन्न काल खंडों में कौन से क्रियाकलाप
कराए जाने है यह जान लेता है। इस पहचान या साहचर्य का आधार घंटी या अध्यापक
और उस कालखंड में किए जाने वाले क्रियाकलाप है, जैसे—गणित अंग्रेजी या लंच आदि ।
ये सभी दृष्टांत अधिगम के व्यवहारवादी दृष्टिकोण के उदाहरण है।
आधारभूत मान्यताएं―
◆ ये व्यवहार के वस्तुनिष्ठ अध्ययन में विश्वास रखते हैं।
◆ मानव एवं पशु दोनों के वस्तुनिष्ठ अवलोकन योग्य व्यवहार इनके अध्ययन के
विषयवस्तु हैं।
◆ इसका मुख्य बल वातावरण पर होता है तथा यह उपागम व्यवहार के निर्धारण
में आनुवांशिकता की तुलना में वातावरण को अधिक महत्वपूर्ण मानता है।
◆ अनुबंधन जो कि उदीपक और अनुक्रिया के बीच संबंध से बनता है तथा वस्तुनिष्ठ
वैज्ञानिक विधि द्वारा सफलतापूर्वक विश्लेषित किया जा सकता है, व्यवहार के
समझ के लिए महत्वपूर्ण तथ्य है
◆ अधिगम के मुख्य विधि अनुबंधन है।
◆ व्यवहारवादी विश्वास करते हैं कि ज्ञान की एक इकाई ज्ञान की नई इकाई से
समानता, विरोधाभास या सामीप्य के कारण साहचर्य स्थापित करती है।
आलोचनात्मक समझ―जब एक व्यवहार वांछनीय परिणाम की ओर जाता है, तो
भविष्य में फिर से पुनरावृत्ति होने की संभावना है। यदि क्रियाएँ नकारात्मक परिणाम की ओर
ले जाती है, तो व्यवहार शायद दोहराया नहीं जाएगा।
      जैसा कि शोधकर्ताओं ने व्यवहार संबंधी अवधारणाओं में समस्याओं की खोज की, कुछ
सिद्धांतों को बनाए रखने, लेकिन दूसरों को खत्म करने के लिए नए सिद्धांत उभरने लगे।
प्रश्न 38. अभिप्रेरणा से क्या समझते हैं ? सीखने में अभिप्रेरणा की क्या भूमिका
उत्तर―अभिप्रेरणा व्यक्ति के अंदर एक ऐसी उर्जा उत्पन्न करती है जिसके परिणाम
स्वरूप व्यक्ति किसी कार्य विशेष को करने के लिए प्रेरित हो जाता है। अत: इस रूप में
अभिप्रेरणा एक प्रक्रिया के रूप में कार्य करती है जो पहले भावनात्मक रूप में जन्म लेती
है फिर वही ऊर्जा का रूप धारण कर लेती है। अभिप्रेरणा अंग्रेजी के “motivation” शब्द
का हिंदी रूपांतरण है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा “motum” से हुई है जिसका अर्थ है
move, motor, motion अर्थात गति या क्रिया है। इस प्रकार अभिप्रेरणा का शाब्दिक अर्थ
किसी कार्य में प्रवृत्त अथवा गतिशील होने से है। अभिप्रेरणा एक आंतरिक शक्ति है जो
व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। जिसकी अभिप्रेरणा जितनी प्रबल होगी उसके
सीखने की क्षमता भी उतनी ही तीव्र होगी । कहा भी गया है “The motivation is better
than learning” अभिप्रेरणा की परिभाषाएँ―
   फ्रेडरिक जे मैकडोनाल्ड― “अभिप्रेरणा का तात्पर्य व्यक्ति के भीतर उस ऊर्जा
परिवर्तन से है जिसमें भावात्मक प्रबोधन तथा अप्रत्याशित लक्ष्य प्रतिक्रिया निहित हो ।
ब्लेयर जॉन्स एंड सिंमसन―”अभिप्रेरणा एक प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाले की
आंतरिक शक्तियाँ या आवश्यकताएँ उसके वातावरण में विभिन्न लक्षणों की ओर निर्देशित
होती हैं।”
     उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा एक आन्तरिक
कारक या स्थिति है, जो किसी क्रिया या व्यवहार को आरम्भ करने की प्रवृत्ति जागृत करती
है। यह व्यवहार की दिशा तथा मात्रा भी निश्चित करती है।
       अभिप्रेरणा को मुख्यतः दो भागों में बाँटा गया—आंतरिक अभिप्रेरणा एवं बाह्य
अभिप्रेरणा।
(क) आंतरिक अभिप्रेरणा से तात्पर्य स्वत: अभिरुचि से होता है । जब शिक्षार्थी किसी
पाठ को इसलिए सीखता है क्योंकि उसमें उसकी अभिरुचि होती है तो इसे आंतरिक
अभिप्रेरणा कहा जाता है। किसी विषय वस्तु के संदर्भ में आनंदित होकर सीखना आंतरिक
अभिप्रेरणा का स्पष्ट उदाहरण है।
(ख) बाह्य अभिप्रेरणा से तात्पर्य वैसे प्रोत्साहन से होता है जो परीक्षार्थी को बाहरी
वातावरण से दिया जाता है। शिक्षार्थी के व्यवहार को एक निश्चित दिशा में प्रेरित कर
मोड़ना ही बाह्य अभिप्रेरणा है । इसमें मानसिक प्रसन्नता के लिए नहीं बल्कि कोई लक्ष्य प्राप्त
करने के लिए, पुरस्कार आदि प्राप्त करने के लिए या भविष्य में लक्ष्य के रूप में प्रसन्नता
प्राप्ति के लिए ही कार्य किया जाता है।
          सीखने में अभिप्रेरणा का महत्व या भूमिका–बालकों के सीखने की प्रक्रिया
अभिप्रेरणा द्वारा ही आगे बढ़ती है। प्रेरणा द्वारा ही बालकों में शिक्षा के कार्य में रुचि उत्पन्न
की जा सकती है और वह संघर्षशील बनता है। शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा का महत्व
अथवा आवश्यकता को निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जाता है―
(1) सीखना―सीखने का प्रमुख आधार ‘प्रेरणा’ है। सीखने की क्रिया में परिणाम
का नियम’ एक प्रेरक का कार्य करता है । जिस कार्य को करने से सुख मिलता है। उसे
वह पुनः करता है एवं दु:ख होने पर छोड़ देता है। यही परिणाम का नियम है। अतः
माता-पिता व अन्य के द्वारा बालक की प्रशंसा करना, प्रेरणा का संचार करता है।
(2) लक्ष्य की प्राप्ति—प्रत्येक विद्यालय का एक लक्ष्य होता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति
में प्रेरणा की मुख्य भूमिका होती है। ये सभी लक्ष्य प्राकृतिक प्रेरकों के द्वारा प्राप्त होते है।
(3) चरित्र निर्माण–चरित्र-निर्माण शिक्षा का श्रेष्ठ गुण है। इससे नैतिकता का संचार
होता है। अच्छे विचार व संस्कार जन्म लेते हैं और उनका निर्माण होता है। अच्छे संस्कार
निर्माण में प्रेरणा का प्रमुख स्थान है।
(4) अवधान―सफल अध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि छात्रों का अवधान पाठ
की ओर बना रहे । यह प्रेरणा पर ही निर्भर करता है । प्रेरणा के अभाव में पाठ की ओर
अवधान नहीं रह पाता है।
(5) अध्यापन विधियाँ–शिक्षण में परिस्थिति के अनुरूप अनेक शिक्षण विधियों का
प्रयोग करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधि में भी प्रेरणा का प्रमुख
स्थान होता है।
(6) पाठ्यक्रम―बालकों के पाठ्यक्रम निर्माण में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है।
अतः पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को स्थान देना चाहिए जो उसमें प्रेरणा एवं रुचि उत्पन्न कर
सकें तभी सीखने का वातावरण बन पायेगा।
(7) अनुशासन―यदि उचित प्रेरकों का प्रयोग विद्यालय में किया जाय तो अनुशासन
की समस्या पर्याप्त सीमा तक हल हो सकती है।
सीखने की प्रक्रिया में आंतरिक एवं बाह्य दोनों अभिप्रेरणाओं का होना अत्यंत आवश्यक
है। शिक्षक के द्वारा दोनों अभिप्रेरणाओं को संतुलन में होना या रखना अत्यंत आवश्यक है।
एक शिक्षक की भूमिका बाह्य अभिप्रेरक के रूप में हो तथा बच्चों के लिए उसे आंतरिक
अभिप्रेरणा की तरह समायोजित कर सीखने की प्रक्रिया को आनंददायी बनाना चाहिए ।
प्रश्न 39. अवधान के विविध स्वरूपों का वर्णन करें तथा बच्चों में अवधान
विकसित करने की प्रक्रिया की चर्चा करें।
उत्तर―ध्यान तीन प्रकार के होते हैं― ऐच्छिक ध्यान, अनैच्छिक ध्यान और आभ्यासिक
अवधान।
(क) ऐच्छिक ध्यान (voluntarily attention)―इसमें व्यक्ति की इच्छा की
प्रधानता होती है। वह अपनी इच्छा से, जानबूझकर किसी वस्तु पर चेतना को केन्द्रित करता
है जैसे—पढ़ना।
(ख) अनैच्छिक ध्यान (involuntarily attention)―बगैर इच्छा पर जब व्यक्ति
किसी चीज पर ध्यान देता है तो वह अनैच्छिक ध्यान होता है। जैसे मन लगाकर पढ़ते समय
यदि तेज पटाखे की आवाज हो तो न चाहते हुए भी हमारा ध्यान उधर चला जाएगा।
(ग) आभ्यासिक अवधान (habitual attention)―इस तरह के अवधान में
व्यक्ति का ध्यान किसी वस्तु की ओर जाना उसकी आदत, शिक्षा, पेशा, प्रशिक्षण आदि के
कारण बिना किसी प्रयास के ही अपने आप चला जाता है। जैसे—शिक्षक का ध्यान किसी
विद्यालय/कॉलेज के नाम के साइन बोर्ड पर चला जाना, मनोविज्ञान के छात्र का ध्यान
मनोविज्ञान की पुस्तक की ओर जाना, पान खाने वाले व्यक्तियों का ध्यान पान की दुकान
की ओर जाना आभ्यासिक अवधान के कुछ उदाहरण है।
        बच्चों में अवधान विकसित करने की प्रक्रिया अथवा बच्चों का ध्यान केन्द्रित करने के
उपाय―
(क) प्रायः हम सभी देखते हैं कि जिन तथ्यों, विषयों एवं क्रियाओं में शिक्षार्थियों की
रुचि होती है, उनके सीखने में उनका ध्यान भी केन्द्रित होता है अतः हमें सर्वप्रथम पढ़ाए
जाने वाले विषयों एवं सिखाए जाने वाली क्रियाओं के प्रति रुचि विकसित करनी चाहिए।
(ख) शिक्षा में ध्यान को उपयोगी बनाने के लिए शिक्षक को चाहिए कि वह सरल
शब्दों का प्रयोग करें। कठिन शब्दों से बच्चे का ध्यान बंटता है।
(ग) बच्चों को समझकर उसके अनुरूप शिक्षा देनी चाहिए।
(घ) शिक्षक/प्रशिक्षु को अपने विषय का पर्याप्त ज्ञान हो ।
(ङ) शिक्षण के समय प्रशिक्षु बच्चों का मनोरंजन अवश्य करें। इससे बच्चे ध्यान
केन्द्रित करने लगते हैं और थकते नहीं है।
(च) पाठ पढ़ाते समय उसके महत्वपूर्ण अंशों को लिखाते रहना चाहिए। इससे बच्चे
उच्चारण एवं वर्तनी का ध्यान रखते हैं। इससे शुद्ध लेखन की आदत बन जाती है।
(छ) विषय वस्तु से सम्बन्धित वस्तुओं जैसे-मॉडल, चार्ट, मानचित्र आदि को
सम्मिलित करें, इससे बच्चे का ध्यान उस विषय पर केन्द्रित होने लगता है।
(ज) बच्चों की व्यक्तिगत कठिनाइयों को जानकर उन्हें दूर करना।
(झ) पाठ को छोटे-छोटे भागों में विभक्त कर पढ़ाने से बच्चों का ध्यान शीघ्र केन्द्रित
होता है।
(ज) समय-समय पर चिकित्सक से बच्चों का निरीक्षण करवाते रहना चाहिए।
अस्वस्थ ज्ञानेन्द्रियों से ध्यान भंग होता है।
(ट) शारीरिक शिक्षा एवं शिक्षा में विभिन्न खेलों द्वारा ध्यान का उपयोग किया जा
सकता है।
(ठ) विभिन्न वस्तुओं का चयन बच्चे की रुचि के अनुसार करना चाहिए, जिससे वह
इन वस्तुओं की ओर ध्यान केन्द्रित करता है।
(ङ) बच्चों को थकान का अनुभव नहीं होने देना चाहिए, इससे बच्चों में अरुचि
उत्पन्न होती है।
(ढ) समय-समय पर बच्चों को पुरस्कार देकर या प्रशंसा कर उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए।
प्रश्न 40. बच्चों में संप्रत्यय विकास के कनर मॉडल के सैद्धांतिक आधार का
वर्णन करें।
उत्तर―जे.एस. ब्रुनर (J.S. Bruner 1964,66) ने संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन
किया । इनका मानना है कि बच्चों में अनुभूतियों की मदद से संप्रत्ययों का विकास होता है।
उन्होंने मूलत: दो प्रश्नों के उत्तर दूंढने में रूचि दिखाई। पहला यह कि बच्चे किस ढंग से
अपनी अनुभूतियों (experience) को मानसिक रूप से बताते हैं और दूसरा यह कि
शैशवावस्था व बाल्यावस्था में बच्चों का मानसिक चिंतन कैसे होता है ? उक्त दोनों प्रश्नों
का उत्तर ब्रुनर ने अपने सिद्धांत में देने की कोशिश की है। ब्रुनर के अनुसार शिशु अपनी
अनुभूतियों को मानसिक रूप से तीन तरीकों द्वारा बताता है―
(क) सक्रियता विधि (Enactive Mode)― सक्रियता एक ऐसा तरीका है जिसमें
बच्चे अपनी अनुभूतियों को क्रिया द्वारा व्यक्त करते हैं। जैसे दूध की बोतल देखकर शिशु
द्वारा मुंह चलाना, हाथ पैर फेंकना, एक सक्रियता विधि का उदाहरण है जिसके द्वारा वह
दूध पीने की इच्छा की अभिव्यक्ति करता है।
(ख) दृश्य प्रतिमा विधि (Iconic Mode)― इस विधि में बच्चा अपने मन में कुछ
दृश्य प्रतिमायें (Visual Images) बनाकर अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करना है।
(ग) सांकेतिक विधि (Symbolic Mode)-इस विधि में बच्चा भाषा (Lan-
guage) द्वारा अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है।
      ब्रुनर (1966) ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि इन तीनों (सक्रियता, दृश्य
प्रतिमा तथा सांकेतिक) विधियों के प्रत्यय (Concept) का विकास एक क्रम में होता है।
जन्म से करीब 18 महीनों तक सक्रियता विधि की प्रधानता होती है । 1.5 वर्ष या 2 वर्ष की
उम्र में दृश्य प्रतिमा विधि की प्रधानता होती है और करीब 7 वर्ष की आयु से सांकेतिक विधि
की प्रधानता होती है।
       ब्रुनर ने भी पियाजे के समान की संज्ञानात्मक विकास को एक क्रमिक प्रक्रिया माना
है तथा बच्चों के चिंतन में संकेत तथा प्रतिमा को महत्वपूर्ण माना है। संप्रत्यय प्राप्ति एक
अनुदेशात्मक रणनीति है जिसे ब्रुनर तथा उनके साथियों के द्वारा किए गए शोध पर प्रयोग
करके किसी संप्रत्यय में शिक्षक बच्चों के पूर्व अनुभवों का प्रयोग करके किसी संप्रत्यय की
रचना करने की कोशिश करते हैं। इसमें पहले बच्चों को कुछ चित्र दिखा, जाते हैं या शब्द
दिए जाते हैं। बच्चों से उन चित्रों में समानतायें ढूंढकर दो श्रेणियों में बाँटने के लिए कहा
जाता है। एक जिनमें संप्रत्यय की विशेषताएँ हैं और दूसरी जिनमें संप्रत्यय की विशेषताएँ
नहीं है। फिर इस परिकल्पना का अन्य उदाहरणों द्वारा परीक्षण किया जाता है।
प्रश्न 41. वृद्धि और विकास में क्या संबंध है ?
उत्तर–वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परिवर्तन । इन परिवर्तनों के कारण व्यवहार में
परिवर्तन होने लगता है और विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनों से किया जाता है । शरीर
के विभिन्न अंगों के आकार में परिवर्तन होने को वृद्धि कहा जाता है । जैसे शरीर की लंबाई
का बढ़ना चौड़ाई और वजन का बढ़ना, बालक की कार्यकुशलता का विकास, उसकी
कार्यक्षमता में विकास और व्यवहार में सुधार आदि है। इन सभी परिवर्तन का होना (या
सम्बन्ध) वहाँ की जलवायु परिवेश, वातावरण, भोजन पर निर्भर है, अर्थात कहा जा सकता
है, कि व्यक्ति के शरीर का बढ़ने और परिवर्तन होने का सर्वप्रमुख करना बाह्य वातावरण
से अन्तःक्रिया करना कहा जा सकता है। सोरेनसन (sorenson) के शब्दों में कहा जा
सकता है “अभिवृद्धि से आशय शरीर तथा शारीरिक अंगों में भार तथा आकार की दृष्टि से
वृद्धि होना है, ऐसी वृद्धि जिसको मापा जा सकता हो । वृद्धि की अवधारणा विकास की
अवधारणा का ही एक भाग है।
       विकास का सम्बन्ध अभिवृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले
परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है। विकास में व्यक्ति के मानासिक, सामाजिक,
संवेगात्मक तथा शारीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनों को सम्मिलित किया जाता है तथा
व्यावहारिक परिवर्तनों जैसे― कार्य कुशलता, कार्य क्षमता, व्यक्तिगत स्वभाव में परिवर्तन या
सुधार का होना सम्मिलित है। उदाहरणस्वरूप बालक की हड्डियां आकार में बढ़ती हैं, यह
बालक की अभिवृद्धि है, किन्तु हड्डियां कड़ी हो जाने के कारण उनके स्वरूप में जो
परिवर्तन आ जाता है, यह विकास को दर्शाता है । इस प्रकार विकास में अभिवृद्धि का भाव
निहित रहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वृद्धि एवं विकास में अन्योन्याश्रय संबंध
है।
प्रश्न 42.अधिगम का आकलन, अधिगम के लिए आकलन, अधिगम के रूप
में आकलन का विवेचन कीजिए।
उत्तर―अधिगम का आकलन :
1. अधिगम के आकलन में संख्या या अक्षर ग्रेड जैसे A,B,C के द्वारा परिणाम
निरूपण किया जाता है, गोगात्मक मूल्यांकन में।
2. अधिगम के आकलन में मानकों के साथ एक छात्र की उपलब्धि की तुलना की
जाती है।
3.अधिगम के आकलन का परिणाम माता-पिता अथवा अभिभावक, छात्र आदि की
सूचित किया जा सकता है।
4. अधिगम का आकलन इकाई समाप्ति के अंत में होता है।
अधिगम के लिए आकलन :
1. अधिगम के लिए आकलन में दो चरण सम्मिलित होते हैं―
(क) निदानात्मक आकलन
(ख) रचनात्मक आकलन
2. अधिगम हेतु आकलन विभिन्न प्रकार के स्रोतों जैसे—पोर्टफोलियों कार्य प्रगति
पत्रक, शिक्षक अवलोकन तथा बातचीत पर आधारित हो सकता है।
3. अधिगम के लिए आकलन अगले चरणों के लिए अंक चुनौतियों की पहचान, समता
पर जोर देने तथा छात्र के लिखित या मौखिक रूप में दिए गए उत्तरों के पृष्ठ पोषण आदि
पर जोर देता है।
4. ये छात्रों को सही दिशा में आगे बढ़ने तथा उनके लिए उचित निर्देशन, समायोजन
हेतु शिक्षकों का मार्ग प्रशस्त करता हैं।
5. इसमें कोई ग्रेड या अंक प्रदान नहीं किए जाते हैं। इसमें रिकार्ड व्याख्यात्मक या
वर्णानात्मक तथा एनॉक्डोटल के रूप में रखा जाता है।
6. अधिगम अध्ययन की प्रक्रिया के दौरान पाठ्यक्रम के प्रारंभ से लेकर योगायक
आकलन के समय तक होता है।
अधिगम के रूप में आकलन :
1.अधिगम के रूप में आकलन छात्रों के द्वारा सीखने की प्रक्रिया के दौरान किया जाता है।
2.अधिगम के रूप में आकलन में छात्र स्वामित्व तथा छात्र-छात्राओं की सोच को
आगे बढ़ाने के लिए जिम्मेदारी का निर्वहन करना आदि सम्मिलित हैं।
3.अधिगम के रूप में आकलन में छात्र अधिगम प्रक्रिया के लिए लक्ष्य निर्धारण, प्रगति
की मॉनीटरिंग तथा परिणामों पर प्रतिबिंबित करना शामिल है।
4. अधिगम प्रक्रिया में छात्रों के लिए शिक्षा के लक्ष्यों एवं प्रदर्शन के लिए मानदण्डों
के बारे में पता आकलन के माध्यम से लगाया जा सकता है।
प्रश्न 43. “उत्प्रेरणा अधिगम का सर्वोत्तम राजमार्ग है।” कैसे ? इस कथन के
संदर्भ में स्पष्ट कीजिए कि विभिन्न शैक्षिक स्तरों के विद्यार्थियों को किसी प्रकार
उत्प्रेरित किया जा सकता है?
                                            अथवा,
अभिप्रेरणा से आप क्या समझते है ? अधिगम अभिप्रेरणा की भूमिका को
समझाइए।
                                            अथवा,
अधिगम में अभिप्रेरणा की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए । जो आप पढ़ना चाहते
हूँ उसे अपने विद्यार्थियों को सिखाने के लिए उन्हें किस प्रकार अभिप्रेरित करेंगे?
                                              अथवा,
अभिप्रेरणा क्या है ? छात्रों को अधिगम के लिए कैसे अभिप्रेरित कर सकते हैं ?
उत्तर―अभिप्रेरण और अधिगम―जीवन में सफलता अभिप्रेरणा पर निर्भर करती
है। स्मिथ (1950) के अनुसार, “प्रत्येक कार्य में अभिप्रेरणा किसी न किसी रूप में विद्यमान
होती है।” अभिप्रेरणा को ‘सीखने का हृदय’, ‘सीखने की सुनहरी सड़क’ तथा ‘सीखने की
प्रमुख कारक’ भी कहा जाता है। सभी प्राणी अभिप्रेरणा के वंशीभूत होकर ही कार्य करते
हैं। अभिप्रेरणा के बिना प्राणी किसी भी प्रकार का व्यवहार नहीं करता।
(a) परीक्षा के दिनों में विद्यार्थी दिन-रात पढ़ते रहते हैं, उन्हें खाने-पीने की सुध नहीं
रहती है, वे खेलते नहीं, सोते नहीं। प्रश्न उठता है कि वह कौन-सी चीज है, जिसके लिए
विद्यार्थी इतनी ज्यादा मेहनत करते हैं।
(b) एक पक्षी ड्राइंगरूम के ऊपरी कोने में अपना घोंसला बनाने के लिए तिनके इकट्ठ
करता है। कुछ समय बाद हम उसके द्वारा तैयार किए हुए घोंसले को उठाकर घर से बाहर
फेंक देते हैं। पक्षी फिर एक-एक तिनका जमा करने लगता है और अपना घोंसला बनाने
में लग जाता है।
(e) एक किसान निरंतर अपने खेतों में काम करता है। सर्दी की ठिठुरती रातों में वह
अपने खेतों में पानी पहुंचाता है। वह ऐसा क्यों करता है ?
(d) एक लड़का साइकिल चलाना सीखता है। वह गिरता, पड़ता है, चोट खाता है,
खून आता है, परंतु इन सबके बावजूद भी वह साइकिल चलाना सीखता है।
           इन सभी प्रश्नों के उत्तर एक शब्द ‘अभिप्रेरणा’ में निहित है। विद्यार्थी जो दिन-रात
पड़ता है, पक्षी जो अपना घोंसला बनाता है, किसान जो निरंतर बिना थके अपने खेतों में
काम करता है, लड़का जो चोट खाने के बावजूद भी साइकिल चलाना सीखता है, आदि
सभी कार्यों में अभिप्रेरणा का योगदान है।
       सभी प्राणी इसलिए अपने कार्यों में लगे हुए है क्योंकि वे अपनी आवश्यकताओं की
पूर्ति करना चाहते हैं और जो लक्ष्य निर्धारित किए हैं उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। व्यवहार
लक्ष्य से प्रेरित होता है और सभी किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्यरत है। अत: सभी
प्राणी अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील है।
      अभिप्रेरणा और अधिगम (सीखना) आपस में यनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। बिना लक्ष्य
(उद्देश्य) के कुछ भी सीखना सम्भव नहीं। इसलिए सीखने के लिए अभिप्रेरणा का होना
नितान्त आवश्यक है। इस संदर्भ में कैली (1956) के अनुसार, “सीखने की प्रभावशाली
प्रक्रिया में अभिप्रेरणा एक मूल तत्त्व है।” अत: कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा के बिना
सीखने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
         शिक्षा का अर्थ शिक्षण करना नहीं बल्कि विद्यार्थियों को स्वयं सीखने के योग्य बनाना
है। यह तभी सम्भव है जब विद्यार्थी सीखने के लिए स्वयं अभिप्रेरित हो । क्लासमियम एवं
गुडविन के अनुसार, “सीखने के लिए अभिप्रेरणा का महत्त्व निःसन्देह रूप से स्वीकार किया
जाता है।”
अभिप्रेरणा की विधियाँ―एक अध्यापक विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करने के लिए
निम्नलिखित विधियों का प्रयोग कर सकता है―
1. नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करना–व्यक्ति पूर्व ज्ञान के आधार पर
नवीन ज्ञान को सरलता व शीघ्रता से सीखता है। इस प्रकार विद्यार्थियों के नवीन ज्ञान को
पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करना चाहिए। यह ज्ञान क्रमिक अवस्था में होता है। विद्यार्थियों को
यह ज्ञान प्राप्त करने व सीखने में सुविधा होती है तथा वे सहजता से सीखत हैं । ऐसा ज्ञान
सीखने में आसान व रुचिकर होता है। इससे विद्यार्थी निश्चित तौर पर सीखने के लिए
अभिप्रेरित होते हैं। जैसे-सांख्यिकी सीखने के लिए अंकगणित का ज्ञान होना आवश्यक
है। अत: अध्यापक को चाहिए कि विद्यार्थियों को सीखने में अभिप्रेरित करने के लिए नवीन
ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करें। इस प्रकार विद्यार्थी सीखने के लिए अभिप्रेरित होते
है।
2. लक्ष्यों का निर्धारण―अधिगम के लिए लक्ष्यों के निर्धारण का विशेष महत्त्व है।
अधिगम लक्ष्यों पर आधारित होता है। जब तक विद्यार्थियों के लक्ष्य निश्चित नहीं होंगे, तब
तक वे अधिगम (सीखने) की दिशा में अग्रसर नहीं होंगे। अध्यापक को विद्यार्थियों के लक्ष्य
निर्धारित करने चाहिए । लक्ष्य निर्धारित होने के पश्चात् ही विद्यार्थी वांछित दिशा में सीखने
व कार्य करने के लिए अभिप्रेरित होते हैं। अध्यापक को विद्यार्थियों के लिए व्यक्तिगत व
सामूहिक तौर पर इस प्रकार लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए जिससे कि उन्हें प्राप्त किया जा
सके। अत: अध्यापक विद्यार्थियों को सीखने के लिए लक्ष्यों के निर्धारण के आधार पर
अभिप्रेरित कर सकता है। इसलिए विद्यार्थियों के लिए लक्ष्यों का निर्धारण करना चाहिए।
3. सीखने का उचित वातावरण-अच्छे व उचित वातावरण में विद्यार्थी सौखा के
लिए स्वाभाविक रूप से अभिप्रेरित होते हैं। इसलिए विद्यार्थियों के लिए उचित वातावरण होगा
चाहिए। विद्यालय का वातावरण शैक्षिक होना चाहिए, अच्छे व अनुभवी अध्यापक होने
चाहिए, कक्षा-कक्षा में बैठने की व्यवस्था ठीक होनी चाहिए, दीवारों पर चार्ट, मानचित्र लगे
होने चाहिए तथा विद्यालय की इमारत आकर्षक होनी चाहिए । कुल मिलाकर विद्यार्थियों के
लिए विद्यालय में सभी प्रकार की सुविधाएँ होनी चाहिए । इससे वे सीखने के लिए अभिप्रेरित
होते हैं । फ्रेंडसन के अनुसार, “अभिप्रेरणा, शिक्षण-सामग्री से सम्पन्न, अर्थपूर्ण कक्षा-कक्ष
के वातावरण पर निर्भर है।” अतः विद्यार्थियों को सीखने में अभिप्रेरित करने के लिए उचित
वातावरण प्रदान करना चाहिए।
        4. आकांक्षा स्तर―इस पद का प्रतिपादन लेविन ने किया । आकांक्षा स्तर वह सीमा
है जहाँ तक व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहते हैं । अध्यापक को कक्षा
में कार्य विद्यार्थियों के आकांक्षा स्तर के अनुसार करने चाहिए । उसे कक्षा में कार्य या क्रियाओं
को उस प्रकार संगठित करना चाहिए जिससे कि विद्यार्थी अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त
कर सकें। बैरो के अनुसार, “आकांक्षा स्तर कुछ कारकों, जैसे—बुद्धि, सामाजिक-आर्थिक
स्थिति तथा विद्यार्थी के माता-पिता के साथ सम्बन्ध आदि पर निर्भर करता है।” अध्यापक
विद्यार्थियों को क्रियाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है तथा उन्हें सीखने के
लिए अभिप्रेरित कर सकता है। इससे विद्यार्थी निश्चित रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित
होते हैं।
     5. पाठ्यक्रम को जीवन से सम्बन्धित—विद्यालय के पाठ्यक्रम को जीवन के साथ
सम्बन्धित करना चाहिए । पाठ्यक्रम का जीवन के साथ सम्बन्ध होने से विद्यार्थी सीखने के
लिए अभिप्रेरित होते है। विद्यार्थियों को यह अनुभूति होनी चाहिए कि विद्यालय के विषय,
कार्य एवं अभ्यास उनके लिए आवश्यक व लाभप्रद हैं। विद्यार्थियों को जब यह एहसास होता
है कि कक्षा में सीखा गया कार्य भविष्य में उपयोगी हो सकता है तो वे निश्चित रूप से सीखने
के लिए अभिप्रेरित होते हैं । अत: अध्यापक को विद्यार्थियों को अधिगम में अभिप्रेरित करने
के लिए पाठ्यक्रम को जीवन के साथ सम्बन्धित करना चाहिए।
         6. काम करके सीखना― विद्यार्थियों को हाथ से काम करके सीखने के लिए
अभिप्रेरित करना चाहिए। उन्हें हाथ से काम करके सीखने के अवसर देने चाहिए। हाथ
से काम करने से विद्यार्थियों को सन्तुष्टि होती है तथा वे सीखने के लिए अभिप्रेरित होते हैं।
यह विधि विद्यार्थियों पर बहुत सफलतापूर्वक प्रयोग की जा सकती है। अतः इस विधि द्वारा
विद्यार्थियों को सीखने के लिए अभिप्रेरित किया जा सकता है।
         7. सीखने की इच्छा सीखने की इच्छा, सीखने में सहायता करती है। विद्यार्थियों को
जब यह पता लगता है कि उनसे सीखने की आशा की जाती है तो वे सीखने के लिए चेष्टा
करते है। बहुत बार विद्यार्थी उस समय भी सीखते है जब उनकी सीखने की कोई इच्छा नहीं
होती। बहुत कुछ सीखना उस समय हो जाता है जब विद्यार्थी किसी वस्तु या कार्य पर ध्यान
केन्द्रित करते हैं, किन्तु उनसे सीखने के लिए नहीं कहा जाता । इसमें कोई सन्देह नहीं है
कि विद्यार्थी बिना इच्छा के कुछ भी नहीं सीख पाते । सीखने के इच्छा वास्तविक रूप से
सीखने में सहायता करती है। अत: अध्यापक सीखने की इच्छा द्वारा विद्यार्थियों को सीन
के लिए अभिप्रेरित कर सकता है।
        8. परिणामों का ज्ञान एवं उन्नति―परिणामों का ज्ञान विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करते
में सहायक है। प्रत्येक विद्यार्थी अपने कार्यों के परिणाम जानना चाहता है। विद्यार्थियों को
जब यह पता लगता है कि उन्होंने उन्नति की है तो वे अधिक प्रयत्न करने के लिए अभिप्रेरित
होते हैं। अभिप्रेरणा को अधिक सशक्त बनाने के लिए विद्यार्थियों को समय-समय पर
पाठ्य-विषय के परिणामों में अवगत कराना चाहिए । इस माध्यम से उनके मन में रुचि
जिज्ञासा एवं उत्साह पैदा होता है और उनका विकास होता है। वुडवर्ष के अनुसार,
“अभिप्रेरणा, परिणामों के तात्कालिक ज्ञान से प्राप्त होती है।” अतः अध्यापक को चाहिए
कि विद्यार्थियों को परिणामों की जानकारी देकर विद्यार्थियों को सीखने के लिए अभिप्रेरित
किया जा सकता है।
          9. पुरस्कार एवं दण्ड–पुरस्कार एवं दण्ड अभिप्रेरणा के सशक्त साधन हैं। पुरस्कार
धनात्मक अभिप्रेरणा है। पुरस्कार के कारण विद्यार्थी उत्साहित होते हैं, उनकी अहं-भावना
सन्तुष्ट होती है तथा वे वांछित दिशा में सीखने के लिए अभिप्रेरित होते हैं। पुस्तकें,
पढ़ाई-लिखाई की सामग्री, अभिनन्दन पत्र, सर्टिफिकेट, मैडल, अध्यापक की मुस्कुराहट
आदि पुरस्कार के रूप हो सकते हैं । अध्यापक को चाहिए कि वह उचित पुरस्कार का उचित
समय पर उचित ढंग से प्रयोग करके अच्छे और प्रभावशाली परिणाम प्राप्त करें।
         दण्ड एक निषेधात्मक अभिप्रेरणा है । दण्ड भय पर आधारित है। यह भय शारीरिक
पीड़ा तथा डर पर आधारित होता है। भय के कारण विद्यार्थी वांछित दिशा में कार्य करते
हैं। वे अवांछित कार्यों से अपने आपको बचाते हैं तथा सीखने के लिए विद्यार्थी अभिप्रेरित
होते हैं । दण्ड प्रभावकारी तभी होता है जब दण्ड देने में दण्ड के नियमों का पालन किया
जाता है। दण्ड का अधिक प्रयोग करने से लाभ के स्थान पर हानियाँ अधिक हो सकती
हैं । अत्यधिक दण्ड के कारण विद्यार्थियों में नेतृत्व तथा स्तवंत्र चिन्तन की योग्यता समाप्त
हो सकती है। शारीरिक दण्ड का प्रयोग तो शिक्षा मनोविज्ञान के अनुसार नितान्त वर्जित है ।
अतः अध्यापक को पुरस्कार एवं दण्ड का न्यायपूर्वक प्रयोग करना चाहिए। पुरस्कार
एवं दण्ड का समुचित प्रयोग करने से विद्यार्थियों को विद्यालय के कार्य करने में निःसन्देह
अभिप्रेरणा प्राप्त होती है।
10. शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन―विद्यार्थियों को सीखने में अभिप्रेरित करने
के लिए शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन का विशेष योगदान है। शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध
विद्यार्थियों की शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं से है। इसके द्वारा विद्यार्थियों की शैक्षिक समस्याओं,
जैसे-पाठ्य-वस्तु, पाठ्यक्रम तथा विद्यालय सम्बन्धी समस्याओं को दूर किया जाता है और
उनमें समायोजन की योग्यता उत्पन्न की जाती है। जबकि व्यावसायिक निर्देशन विद्यार्थी की
सहायता करने वाली वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा वह अपने लिए उपर्युक्त व्यवसाय को सुनता
है तथा उनके लिए अपने आप को तैयार करता है।
        प्रत्येक विद्यार्थी की अपनी-अपनी विभिन्नताओं व सीमाएँ होती हैं। शैक्षिक एवं
व्यावसायिक निर्देशन देते समय वैयक्तिक विभिन्नताओं को ध्यान में रखना चाहिए । उपर्युक्त
विषयों के चयन से विद्यार्थियों को पढ़ने में रुचि होती है तथा उन्हें सफलता प्राप्त होती है।
व्यावसायिक निर्देशन से विद्यार्थियों के जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है तथा वे उसी दिशा
में आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन अभिप्रेरणा
प्रदान की सर्वोत्तम तकनीक है। अतः अध्यापक शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन की
सहायता से विद्यार्थियों को सीखने (अधिगम) के लिए अभिप्रेरित कर सकता है।
       11. अध्यापक-विद्यार्थी सम्बन्ध― अध्यापक और विद्यार्थियों के अच्छे सम्बन्धों को
प्रभाव भी सीखने (अधिगम) पर पड़ता है। अध्यापक का व्यवहार विद्यार्थियों के साथ यदि
स्नहेपूर्ण है तो विद्यार्थियों की कमियों के प्रति वह सहानुभूति दृष्टिकोण रखता है । यदि
विद्यार्थियों को अध्यापक से किसी प्रकार का भय नहीं है तो इससे उन्हें सीखने और कार्य
करने में अभिप्रेरणा प्राप्त होती है। अध्यापक और विद्यार्थियों के बीच सदैव स्नेह का
वातावरण होना चाहिए । अच्छी प्रगति के लिए विद्यार्थियों की प्रशंसा करनी चाहिए तथा उन्हें
उनके गुणों, क्षमताओं और सीमाओं से अवगत कराना चाहिए । इस प्रकार अध्यापक और
विद्यार्थियों के बीच अच्छे सम्बन्धों के कारण विद्यार्थियों को सीखने लिए अभिप्रेरित किया
जा सकता है।
          12. प्रशंसा एवं आलोचना-प्रशंसा एवं आलोचना विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करने
में महत्त्वपूर्ण अभिप्रेरक है। अध्यापक इन दोनों अभिप्रेरकों की सहायता से विद्यार्थियों को
अधिगम में अभिप्रेरणा प्रदान कर सकता है। प्रशंसा, आलोचना से अधिक प्रभावशाली
अभिप्रेरक है। अच्छे कार्यों के लिए विद्यार्थियों की प्रशंसा करनी चाहिए। फ्रेंडसन के
अनुसार, “उचित समय और स्थान पर प्रयोग किया जाने पर प्रशंसा, अभिप्रेरणा का एक
महत्त्वपूर्ण कारक है।” परंतु आलोचना भी किसी भी प्रकार के अभिप्रेरक के न देने से
अधिक प्रभावशाली है। यह एक अध्यापक पर निर्भर करता है कि वह प्रशंसा और आलोचना
को कहाँ पर प्रयोग करता है। एक कुशल अध्यापक दोनों को उपयुक्त अवसर पर ठीक
ढंग से प्रयोग करता है। हरलॉक (1920) ने अपने अध्ययनों में देखा कि प्रशंसा का
लड़कियों पर लड़कों की अपेक्षा अधिक प्रभाव पड़ता है। अत: अध्यापक प्रशंसा एवं
आलोचना की सहायता से विद्यार्थियों को सीखने के लिए अभिप्रेरित कर सकता है।
13. सह-शिक्षा―सह शिक्षा विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करने की एक महत्त्वपूर्ण शक्ति
है। विदेशों में लड़के व लड़कियों की शिक्षा का एक साथ, एक ही कक्षा और एक ही संस्था
में होती है। सह-शिक्षा से विद्यार्थियों का सामाजिक विकास होता है तथा वे सीखने के लिए
अभिप्रेरित होते हैं। भारत में सह-शिक्षा का तेजी से विकास किया जाना चाहिए। इससे
विद्यार्थियों को सीखने के लिए अभिप्रेरित किया जा सकता है।
14. दृश्य-काव्य सामग्री का प्रयोग― स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व शिक्षा में रखने पर बल
दिया जाता था। आधुनिक समय म दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग विद्यार्थियों को अभिप्रेरित
करने के लिए किया जाता है। चार्ट, ग्लोब, मानचित्र, मॉडल, चलचित्र, रेडियो, टेलिविजन,
पाण्यूटर आदि मुख्य दृश्य-श्रव्य सामग्री है जिसका प्रयोग शिक्षण में किया जाता है । ये सब
प्रेरणा देने की महान सामग्री है। इनके प्रयोग से कठिन प्रत्ययों को सरलता से समझा जा
सकता है तथा विद्यार्थियों की सचिव ध्यान को विकसित किया जा सकता है। एक सफल
अध्यापक शिक्षण में दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग करता है तथा विद्यार्थियों को सीखने के
लिए अभिप्रेरित करने के लिए दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग आवश्यक है। अत: विद्यार्थियों
को अभिप्रेरित करने के लिए दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग करना चाहिए।
15. मूल्यांकन―विद्यालय के कार्यों का उचित मूल्यांकन एक प्रभावशाली अभिप्रेरणा
है। अपनी प्रगति के शुद्ध ज्ञान से विद्यार्थियों को अधिक कार्य करने की अभिप्रेरणा प्राप्त
होती है। जिन विद्यार्थियों को प्रगति अच्छी होती है अथवा जिन्हें परीक्षाओं में अच्छे अंक
प्राप्त होते हैं, वे प्रभाव के नियम तथा पुनर्बलन के फलस्वरूप अधिक प्रगति करने के लिए
अभिप्रेरित होते हैं। जिन विद्यार्थियों की प्रगति संतोषजनक नहीं होती, वे उसे पूरी करने के
लिए अभिप्रेरित होते हैं।
        बालकों को अरुचिकर कार्य करने के लिए प्रेरित करना―रुचि एवं अधिगम
निकट का सम्बन्ध होता है । अरुचि बालक को निश्चित रूप से अधिगम से दूर ले जाती
है। इसी कारण अरुचिकर कार्यों को करने हेतु प्रेरित करने में पुरस्कार के साथ-साथ
अध्यापक का व्यक्तित्व एवं छात्र-अध्यापक सम्बन्धों का बहुत महत्त्व होता है। अध्यापक
का व्यवहार छात्रों के प्रति जितना अधिक प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण होगा, वह अध्यापक उतना
ही अधिक छात्रों को अभिप्रेरित करने में सफल हो सका। प्रायः देखने में आता है कि जो
अध्यापक छात्रों के प्रति पुत्रवत् व्यवहार करता है तथा उन्हें उचित मार्गदर्शन प्रदान करता
है तो छात्र उस अध्यापक के कहने मात्र से ही कैसा भी कार्य करने को तत्पर हो जाते हैं।
अतः छात्रों को वांछित एवं समुचित प्रेरणा प्रदान करते हुए अध्यापक को उनसे मधुर सम्बन्ध
रखने चाहिए।
                साथ ही, अध्यापक को चाहिए कि वह प्रत्येक अरुचिकर कार्य की महत्ता एवं
उपयोगिता को छात्रों के समक्ष रखें । एक अध्यापक को छात्रों से कोई भी ऐसा कार्य नहीं
करवाना चाहिए जो कि उनकी शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं के अनुकूल न हो।
अरुचिकर कार्य करवाते समय अध्यापक को चाहिए कि वह समय-समय पर उनकी प्रगति
के अवगत कराए तथा साथ ही उत्साहवर्द्धन हेतु उचित अवसरों पर उन बालकों की क्षमताओं
की प्रशंसा करते हुए पुरस्कार प्रदान करें। इस प्रकार के अरुचिपूर्ण कार्यों को सुरूचिपूर्ण
बनाने के लिए अधिकाधिक दृश्य-श्रव्य सामग्री का उपयोग अध्यापक द्वारा किया जाना
चाहिए।

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