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संज्ञान, सीखना और बाल विकास | D.El.Ed Notes in Hindi

संज्ञान, सीखना और बाल विकास | D.El.Ed Notes in Hindi

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. संज्ञानात्मक सिद्धांत को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर―संज्ञानात्मक सिद्धांत—यह सिद्धांत नये उत्तेजक (अभूतपूर्व घटना या अपरिचित
व्यक्ति से साक्षात्कार) से होने वाली तनावपूर्ण प्रतिक्रियाओं को समझाती हैं । इस सिद्धांत
के अनुसार यदि नये अनुभव और मौजूदा स्कीमा में सामान्य सा अंतर है तो उससे बच्ची
रुचि तथा आनन्द आदि जैसे सकारात्मक भाव प्रदर्शित करेगी। अगर यह अंतर ज्यादा हो
तो वे तनाव या भय जैसे नकारात्मक भाव प्रदर्शित करेंगे । इससे हमें समझ आता है कि क्यों
बच्चे नया खिलौना देखते ही पुराना खिलौना छोड़ देते हैं और यह भी कि क्यों वे हमेशा
अपने आसपास ‘नई’ खोज करने में रुचि दिखाते हैं।
प्रश्न 2. संज्ञानात्मक विकास का क्या अर्थ है?
उत्तर―संज्ञानात्मक विकास का अर्थ―संज्ञानात्मक विकास का तात्पर्य संज्ञानात्मक
योग्यताओं के विकास से है। संज्ञानात्मक योग्यता का अर्थ बुद्धि, चिंतन, कल्पना आदि से
सम्बन्धित योग्यताएँ हैं । रेबर ने कहा है कि, “अधिकांश मनोवैज्ञानिकों के अनुसार संज्ञान
का तात्पर्य ऐसे मानसिक व्यवहारों से है, जिसका स्वरूप अमूर्त होता है और जिनमें
प्रतीकीकरण, सूझ, प्रत्याशा, जटिल नियम उपयोग, प्रतिम, विश्वास, अभिप्राय, समस्या
समाधान तथा अन्य शामिल होते हैं।”
प्रश्न 3. बुद्धि के विभिन्न प्रकार का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर―(i) सामाजिक बुद्धि―सामाजिक बुद्धि से तात्पर्य वैसी सामान्य मानसिक
क्षमता से होता है, जिसके सहारे व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को ठीक ढंग से समझता है तथा
व्यवहार कुशलता से दिखलाता है। ऐसे लोगों का सामाजिक संबंध काफी अच्छा होता है
तथा समाज में इनकी प्रतिष्ठा काफी होती है। इनमें सामाजिक कुशलता काफी होता है
यही कारण है कि ऐसे व्यक्ति एक अच्छे नेता बन जाते हैं।
(ii) अमूर्त बुद्धि―अमूर्त चिन्तन से तात्पर्य वैसी मानसिक क्षमता से होता है, जिसके
सहारे व्यक्ति शाब्दिक तथा गणितीय संकेतों एवं चिह्नों के संबंधों को आसानी से समझ जाता
है तथा उसकी उचित व्याख्या कर पाता है। ऐसा व्यक्ति जिसमें अमूर्त बुद्धि अधिक होती
है, अर्थात् एक सफल कलाकार, पेन्टर तथा गणितज्ञ आदि होता है।
(iii) मूर्त बुद्धि―मूर्त बुद्धि से तात्पर्य वैसी मानसिक क्षमता से होता है, जिसके सहारे
व्यक्ति ठोस वस्तुओं के महत्व को समझता है तथा उसका ठीक ढंग से भिन्न-भिन्न
परिस्थितियों में परिचालन करना सीखता है। इस तरह की बुद्धि की जरूरत व्यापार एवं
भिन्न भिन्न तरह के व्यवसायों में अधिकतर पड़ती है। ऐसे बुद्धि वाले व्यक्ति एक सफल
व्यापारी बन सकते हैं।
प्रश्न 4. गार्डनर ने बुद्धि को किस प्रकार व्यवस्थित किया है ?
उत्तर―गार्डनर द्वारा अभिनिर्धारित सात प्रकार की बुद्धि होती है, जो प्रत्येक व्यक्ति
के बुद्धि पार्श्व चित्र के आधार पर अलग-अलग मात्रा में कार्य करती है।
बुद्धि का विभक्तिकरण निम्न प्रकार से किया गया है―
1. भाषायी बुद्धि―अपने विचारों की अभिव्यक्ति तथा उन विचारों को आगे बढ़ाने
के रूप में भाषा का प्रभावी प्रयोग करने की क्षमता ही व्यक्ति की भाषायी बुद्धि कहा
है। उदाहरण-कवि एवं लेखक आदि ।
2. तार्किक गणितीय बुद्धि―इसके माध्यम से छात्रों की तर्क सम्बन्धी योग्यता का
परीक्षण होता है। तर्कसंगत रूप से विचार करने, संख्याओं का प्रभावी ढंग से प्रयोग करने,
समस्याओं को वैज्ञानिक रूप से सुलझाने और संकल्पनाओं एवं वस्तुओं के बीच सम्बन्य और
संरूप को देखने की क्षमता ही तार्किक गणितीय बुद्धि होती है। यह योग्यता गणित सम्बन्धी
समस्याओं को हल करने में सहायक होती है। उदाहरण–गणितज्ञ व वैज्ञानिक आदि ।
3. स्थानीय बुद्धि―किसी वस्तु को देखकर उसे समझने में शीघ्रता, समस्या समानता
तथा असमानता का अभिज्ञान आदि में कितनी तीव्रता होती है? आशय यह है कि धारणाओं
को आलेखीय रूप में निरूपित करने की योग्यता का होना । उदाहरणार्थ-कलाकार,
सर्वेक्षक, वास्तुविद् आदि।
4. सांगीतिक बुद्धि―इसके अंतर्गत संगीत को एक अभिव्यक्ति के माध्यम से स्वरूप
प्रयोग करने की क्षमता के अतिरिक्त विविध प्रकार के संगीत के रूपों को प्रोत्साहित करने
की क्षमता आती है। सांगीतिक बुद्धि के व्यक्ति लय, ताल और धुन के प्रति संवेदनात्मक
होते हैं। उदाहरणार्थ-रचनाकार, गायक आदि ।
5. शारीरिक गतिसंवेदी बुद्धि―इसमें व्यक्ति अपने शरीर को अभिव्यक्ति करने के
साधन के रूप में कौशलपूर्ण उपयोग करने की कुशलता का विकास करता है अथवा वस्तुओं
के निर्माण या संचालन के लिए अपनी प्रतिभा के आधार पर कौशलपूर्ण कार्य करने की
क्षमता रखता है। वह शारीरिक गतिसंवेदी बुद्धि होती है। उदाहरणार्थ―नर्तक, अभिनेता,
खिलाड़ी, शल्य चिकित्सक आदि ।
6. अंत:वैयक्तिक बुद्धि―दूसरे व्यक्तियों के प्रति उपयुक्त तथा प्रभावी ढंग से
अनुक्रिया करने तथा उनकी भावनाओं को समझने की क्षमता अंत: वैयक्तिक बुद्धि कहलाती
है। उदाहरणार्थ-सामाजिक निर्देशक, यात्रा एजेंट आदि ।
7. अंतर्वैयक्तिक बुद्धि―व्यक्ति की उत्सकुता सदैव स्वयं को जानने की होती है।
इसके अंतर्गत निजी शक्तियाँ, अभिप्रेरण, भावनाएँ एवं लक्ष्य आदि सम्मिलित होतें हैं।
उदहारणार्थ― उद्यमकर्ता और चिकित्सक आदि ।
प्रश्न 5. बच्चों के संज्ञानात्मक या ज्ञानात्मक विकास में परिवार (माँ-बाप) की
क्या भूमिका है?
उत्तर―बच्चों के ज्ञानात्मक विकास में माँ बाप तथा समुदाय की भूमिका―
बच्चे के ज्ञानात्मक विकास में घर, माँ-बाप, जाति बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
बच्चे के घर का वातावरण, माँ-बाप, भाई-बहिनों का मानसिक स्तर, माँ-बाप का मनोवैज्ञानिक
ज्ञान प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से उसके ज्ञानात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं―
1. घर का वातावरण प्रेमभरा, सौहार्दभरा व मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। बच्चे के मन में
किसी प्रकार का डर, दबाव या आशंका नहीं होनी चाहिए। उसे हर प्रकार के प्रश्नों को
पूछने की आजादी होनी चाहिए । कई बार माँ-बाप का व्यवहार इतना शुष्क व कठोर होता
है कि वे बच्चों के असाधारण प्रश्नों को सुनते ही उसे डाँट देते हैं । इससे बच्चे की मानसिक
जिज्ञासा जागृत होने की बजाए कुंठित हो जाती है, जिसका उसके ज्ञानात्मक विकास पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
2. यथासम्भव बच्चे को प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करते रहना चाहिए । उदाहरणत:
जब एक बच्चा चिड़िया के बारे में पूछता है, तो इस ढंग से उत्तर देना चाहिए कि वह और
प्रश्न पूछे जैसे यह चिड़िया है, यह ऊपर उड़ती है, आसमान में उड़ने वाले और पक्षियों के
नाम बताओ आदि । विभिन्न वस्तुओं के चित्र दिखा कर उसकी मानसिक उत्सुकता को बढ़ाना
व शांत करना चाहिए।
3. माँ-बाप को दैनिक क्रियाकलापों के द्वारा ही बच्चे में विभिन्न संकल्पनाओ का
विकास करने को प्रयास करना चाहिए । उदाहरणत: रसोई घर के बर्तनों व घर की अन्य
वस्तुओं के द्वारा आकृति व आकार के बारे में बताया जा सकता है। बच्चे के पहनने के कपड़ों
व प्रयोग में आने वाली सब्जियों व फलों से रंग तथा सुगंध के बारे में ज्ञान दिया जा सकता है।
प्रश्न 6. अभिप्रेरणा की अवधारणा से क्या तात्पर्य है?
उत्तर―अभिप्रेरणा से अभिप्राय-एक छोटा सा पक्षी हमारी बैठक की छत के एक
कोने में अपना घोंसला बनाने के लिए कुछ सामान इकट्ठा करता है। हम उसके सामान
को बिखेरे देते हैं, परंतु वह (पक्षी) फिर से पत्तों, तिनकों आदि को इकट्ठा करने लगता
है और घोंसला बनाने में लग जाता है । कौन-सी चीज उसे इतना कठिन कार्य करने के लिए
प्रेरित करती है ? इसी प्रकार हम विद्यार्थियों को परीक्षा के दिनों में आधी-आधी रात तक
परिश्रम करते हुए देखते हैं। हम देखते हैं कि एक लड़का चोट खाने के बाद भी लगातार
साइकिल सीखता रहता है, क्यों ? इतनी कठिनाइयाँ उठाने के बावजूद कोई कुछ-न-कुछ
सीखने के लिए इतना प्रयास क्यों करता है ?
      इस ‘क्यों’ का उत्तर केवल एक शब्द ‘अभिप्रेरणा’ में निहित है । पक्षी जो अपना घोंसला
बनाने में लगा हुआ है, विद्यार्थी जो आधी-आधी रात तक परिश्रम करते हैं, लड़का जो
साइकिल सीखने में लगा हुआ है—सभी अभिप्रेरणा के कारण ही अपने-अपने कामों में लगे
हुए हैं। इसलिए काम कर रहे हैं क्योंकि उनको ऐसा करने के लिए अभिप्रेरित किया जा
रहा है। उन्हें इस ढंग से काम करने के लिए कोई-न-कोई चीज मजबूत कर रही है, उकसा
रही है, बढ़ावा दे रही है और वे उसी के वशीभूत एक विशेष तरह का व्यवहार किए जा
रहे हैं।
        जो शक्ति तत्व तथा मूलभूत आधार उनके इस प्रकार के व्यवहार का संचालन करते
हैं, उन्हें मनोवैज्ञानिक भाषा में अभिप्रेरक की संज्ञा दी जाती है। जैसे – मोटरगाड़ी को चलाने
में पेट्रोल की भूमिका रहती है, वैसा ही अभिप्रेरणात्मक व्यवहार को एक विशेष दिशा प्रदान
करने में संबंधित अभिप्रेरकों का योगदान रहता है । व्यवहार को अभिप्रेरित करने वाले इन
मूलभूत अभिप्रेरकों को सामान्य रूप से दो व्यापक वर्ग में बाँटा जा सकता है―
1. प्राथमिक अभिप्रेरक और 2. द्वितीयक अभिप्रेरक ।
प्रश्न 7. अभिप्रेरणा कितने प्रकार की होती है?
                                        अथवा,
आन्तरिक एवं बाहा अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर―अभिप्रेरणा निम्नलिखित प्रकार की होती है:
1. प्राकृतिक या आन्तरिक अभिप्रेरणा―यह अभिप्रेरणा प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की
प्राकृतिक इच्छाओं, आवश्यकताओं और प्रवृत्तियों के साथ संबंधित होती है। आंतरिक रूप
से अभिप्रेरित व्यक्ति किसी काम को इसलिए करता है क्योंकि उस काम को करने में उसे
हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। जब कोई विद्यार्थी गणित की किसी समस्या को हल करने
में आनन्द प्राप्त करता है या किसी कविता के पाठ द्वारा प्रसन्नता प्राप्त करता है, तब वह
आन्तरिक रूप से अभिप्रेरित होता है । विद्यार्थी ‘स्वान्तः सुखाय’ की भावना से गणित की
समस्या हल करता है या कविता का अध्ययन करता है। सीखने में इस प्रकार की अभिप्रेरणा
का वास्तविक महत्व होता है, क्योंकि इससे स्वाभाविक रुचि उत्पन्न होती है और अन्त तक
बनी रहती है।
2. अप्राकृतिक व बाह्य अभिप्रेरणा-इस अभिप्रेरणा में आनन्द का स्रोत कार्य में
निहित नहीं होता। इसमें व्यक्ति मानसिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए काम नहीं करता,
बल्कि कोई लक्ष्य प्राप्त करने के लिए या कोई पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कार्य करता
है। अच्छे ग्रेड या मान के लिए काम करना, रोजी कमाने के लिए कोई शिल्प सीखना,
प्रशंसा प्राप्ति के लिए काम करना, पुरस्कार एवं दण्ड आदि-सभी इस वर्ग की अभिप्रेरणा
के अन्तर्गत आते हैं।
     बाह्य अभिप्रेरणा की तुलना में आन्तरिक अभिप्रेरणा स्वाभाविक उत्साह और प्रेरणा का
साधन है। इसलिए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में इसके अच्छे परिणाम निकलते हैं। अतः
जहाँ तक संभव हो सके आन्तरिक अभिप्रेरणा का ही प्रयोग करना चाहिए। परंतु जहाँ
आन्तरिक-अभिप्रेरणा संभव न हो, बाहा-अभिप्रेरणा का प्रयोग किया जाना चाहिए। अत:
सीखने की स्थिति तथा कार्य की प्रकृति के अनुसार अध्यापक को उचित प्रकार की
अभिप्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए ताकि विद्यार्थी सीखने की क्रियाओं में पर्याप्त रुचि ले सकें।
प्रश्न 8. वाइगोत्सकी के सिद्धांत के अन्तर्गत सूक्ष्मवृत्तीय विकास (Microgenetic
Development) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर―संज्ञानात्मक विकास की अवधि में यह एक लघु कालिक अवधि है जिसमें बच्चे
किसी समस्या के समाधान में अपने विचार, उपागम या तकनीक को बदलते रहते हैं । अर्थात्
अपेक्षाकृत लघु अवधि में बालकों के चिन्तन, समस्या समाधान या विचार में जो परिवर्तन
प्रदर्शित होता है उसे सूक्ष्मवृत्तीय विकास कहा जाता है। उदाहरणार्थ, मान लें कि किसी बच्चे
को जोड़ने या घटाने का कार्य कुछ सप्ताह तक दिया जाता है। इस अवधि में उसके समाधान
व्यवहार में जो परिवर्तन प्रदर्शित होगा, उसका प्रेक्षण करके संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया
का विश्लेषण कर सकते हैं। इसी प्रकार मान लें कि किसी बच्चे को सीखी गई सामग्री के
पुनर्स्मरण के लिए कहा जाता है। यह कार्य उसे 20 मिनट के समय में पाँच विभिन्न प्रयासों
में करना है। इसमें यह देखने का प्रयास किया जायेगा कि सम्बन्धित बालक स्मरण करने
में किस-किस स्मृति रणनीति का प्रयोग करता है । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि सूक्ष्मवृत्तीय
दशा में संज्ञानात्मक व्यवहारों का भी अति गहन विश्लेषण किया जाता है। इसके विपरीत
प्रारम्भिक व्यक्ति-वृत्तीय उपागम में ऐसा नहीं किया जाता है।
प्रश्न 9. सीखने की स्थिति में बालक की भूमिका स्पष्ट करें।
उत्तर―सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है। छात्र सक्रिय रूप से अपने
क्रियाकलापों/प्रदान की गई सामग्री के आधार पर नये विचारों से जोड़कर अपने ज्ञान की
रचना करते हैं। उदाहरण के लिए किसी घटना अथवा वस्तु के लिए पाठ, चित्र अथवा दृश्य
सामग्री का उपयोग करने के साथ सामूहिक चर्चा अथवा अन्त:क्रिया करना/उपयुक्त
गतिविधियाँ छात्रों में विचार की रचना एवं पुनर्रचना में मदद करती है। सहयोगी अधिगम
अर्थ सम्बन्धी विभिन्न विचारों के आदान-प्रदान व बातचीत के अवसर प्रदान करता है । अर्थ
निर्माण ही सीखना है। शिक्षकों द्वारा ऐसे अवसर प्रदान किए जाने चाहिए ताकि बच्चे प्रश्न
पूछकर, पर्यवेक्षण करके, वाद-विवाद खोज एवं चिन्तन कर अवधारणा को आत्मज्ञात करें
या नये विचारों का सृजन करें । बच्चे विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा सीखते हैं । ये निम्न प्रकार
से हैं।
1. बच्चे विभिन्न तरीके से सीखते हैं― अनुभव के माध्यम से चीजें स्वयं करने व स्वयं
बनाने से प्रयोग करने में पढ़ने, विचार-विमर्श करने पूछने, सुनने, सोचने व मनन करने से इत्यादि।
2. सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता
होती है।
3. स्कूल के भीतर व बाहर, दोनों जगह पर सीखने की प्रक्रिया चलती है। इन दोनों
जगहों में यदि सम्बन्ध रहें तो सीखने की प्रक्रिया मजबूत होगी।
4. अर्थ निकालना, अमूर्त सोच की क्षमता विकसित करना, विवंचना व कार्य, अधिक
की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
5. बच्चे मानसिक रूप से तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना सीखने को कमी
करना है।
6. सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रटकर और
परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जायें बल्कि उसे समझ सके और आत्मसात् कर सकें।
प्रश्न 10. बालकेन्द्रित शिक्षा से क्या तात्पर्य है?
उत्तर―बालकेन्द्रित शिक्षा से हमारा तात्पर्य यह है कि सीखने की वैसी प्रक्रिया जो बाल
सहज स्वभाव से सहमत होते हुए आगे सीखने के लिए प्रेरित करे चाहे वह खेल के माध्यम
से हो या किसी क्रियाकलाप के माध्यम से करके सिखाने की प्रक्रिया हो।
        परम्परागत शिक्षण में अध्यापक पूरी कक्षा को एक साथ निर्देशित करता है तथा किसी
भी विद्यार्थी/छात्र को स्वतंत्र रूप से कार्य करने सीखने का अवसर नहीं रहता है। उसमें याद
रखने व रट लेने की प्रवृत्ति को ही श्रेष्ठ माना जाता है और इसके आधार पर विषय के निर्देशों
को पढ़कर सवाल हल करने की आधारभूत दक्षता विकसित करने को छात्र के भविष्य के
लिए उपयोगी माना जाता है।
           बालकेन्द्रित शिक्षा ठीक इसके विपरीत है, इसमें छात्रों को आपस में विचार-विमर्श के
लिए प्रोत्साहित किया जाता है । इसके परिणामस्वरूप छात्र किसी भी समस्या के बारे में सहज
होकर बताकर पाते हैं तथा समस्याओं को हल करने के लिए वे अपनी जिम्मेदारी से पहल
करते हैं। अगर बालकेन्द्रित शिक्षा में छात्रों को मात्र सामग्री तथा अवसर उपलब्य करवाया
जाये और प्रोत्साहित किया जाए तब आप पाएंगे की छात्र के अंदर एक उत्सुकता व
सृजनात्मकता छुपी रहती है, जो उभरकर सामने आ पाता है। बालकों में वैक्तिक विभिन्नता
के कारण प्रत्येक बालक की सृजनशीलता के अनुरूप अधिगम की प्रक्रिया गतिशील रहती है।
प्रश्न 11. बालकेन्द्रित उपागम की कुछ मान्यताएँ बताएँ ।
उत्तर—बालकेन्द्रित उपागम की कुछ मान्यताएँ निम्नलिखित है :
(i) विमर्श/खेल के माध्यम से भी अधिगम संभव है।
(ii) शिक्षक अधिगम का ही एकमात्र स्रोत नहीं है बल्कि छात्र दूसरे छात्रों से अंतःक्रिया
करके भी सीखते हैं।
(iii) अवधारणाओं का पूर्ण अधिगम तभी संभव है, जब हम स्वयं से करके सीखते हैं।
(iv) कर के सीखने की प्रक्रिया में उत्पन्न कौतुहल छात्र को चिंतन के लिए अभिप्रेरित
करता है।
(v) किसी के अनुभव को सुनकर देखकर भी छात्र पुनरावृति कर सीखते हैं।
      अत: हम यह कह सकते हैं कि बालकेन्द्रित उपागम में विद्यार्थियों में करके सीखने के
विभिन्न अनुभव प्राप्त होते हैं और यह सफलता उन्हें आनन्द प्रदान करती है तथा उनसे
आत्मविश्वास का विकास होता है।
प्रश्न 12. शैशवावस्था में संज्ञानात्मक विकास किस प्रकार होता है ?
उत्तर―शैशवावस्था में संज्ञानात्मक विकास―शैशवावस्था में संज्ञानात्मक विकास
जानेन्द्रियों के माध्यम से होता है । शिशु अपने आसपास के वातावरण में जिन वस्तुओं को
देखता है और जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है, उन्हें जानने का प्रयास करता है।
धीरे-धीरे वह अपने आस-पास के वातावरण, व्यक्तियों तथा खिलौनों से परिचित हो जाता
है। इस अवस्था में मानसिक विकास की गति तीव्र होती है।
      शैशवावस्था में संज्ञानात्मक विकास पर कई बातों का प्रभाव पड़ता है―(i) बच्चे के
पालन-पोषण का तरीका, (ii) आसपास का पर्यावरण, (iii) परिवेश की सामाजिक व
मनोवैज्ञानिक स्थितियाँ आदि ।
प्रश्न 13. बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास किस प्रकार होता है?
उत्तर―बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास–बाल्यावस्था के प्रारम्भ काल तक
बच्चों में प्राय: सभी संवेगों का जन्म हो चुका होता है। अत: बाल्यावस्था में कोई नवीन
संवेगों की उत्पत्ति न होकर संवेग जागृत करने वाली परिस्थितियों और उद्दीपकों की प्रकृति
और संवेगों को अभिव्यक्ति करने के ढंग में परिवर्तन होते रहते हैं। इस दृष्टिकोण से
बाल्यावस्था में बच्चे में निम्न परिवर्तन दिखाई देते हैं―
1. शैशवावस्था में बच्चा बहुत स्वार्थी होता है । वह अपनी ही हित साधना में लीन रहता
है। अत: इस अवस्था में बच्चे के संवेग प्रायः भूख, प्यास, नींद, माँ-बाप का स्नेह, खिलौनों
की इच्छा आदि तत्काल आवश्यकताओं द्वारा ही संचालित होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे वह
बड़ा होता चला जाता है, उसकी दुनिया भी बड़ी होती जाती है और अब उसके संवेग अनेक
प्रकार के उद्दीपकों और परिस्थितियों द्वारा जागृत होना प्रारम्भ कर देते हैं। बालक के
संवेगात्मक व्यवहार को स्कूल का वातावरण, हमजोलियों के साथ उनका सम्बन्ध और अन्य
वातावरण सम्बन्धी कारक प्रभावित करते हैं। उसकी रुचियों और अनुभवों से उसके
संवेगात्मक व्यवहार को एक नई दिशा मिलती है। एक ओर जहाँ उसके संवेग नवीन उद्दीपकों
से जुड़ जाते हैं वहीं दूसरी ओर कुछ पुराने उद्दीपकों द्वारा संवेगों को जागृत करने की क्षमता
प्रायः समाप्त हो जाती । अब वह कपड़े पहनने अथवा स्नान करने में, हाथ-पैर पटकने
आदि जैसी चेष्टाएँ नहीं करता और न अब उसे अपरिचितों से भय ही लगता है।
2. इस अवस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति के ढंग में भी पर्याप्त परिवर्तन दिखाई देता
है। शैशवावस्था में संवेगात्मक व्यवहार में आंधी और तूफान-सी गति होती है और यह प्रायः
चीखने-चिल्लाने, हाथ-पैर पटकने आदि गत्यात्मक क्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। लेकिन
बाल्यावस्था और विशेष रूप से उसके आखिरी वर्षों में बालक अपने संवेगों की अभिव्यक्ति
उचित माध्यम से करने का प्रयास करता है। संवेगात्मक रूप से अब उसमें कुछ स्थिरता
एवं गंभीरता आने लगती है। परिवर्तनों के मूल में कई कारण हैं, प्रथम तो बाल्यावस्था में
बालक को अपनी भावनाओं के प्रकाशन के लिए भाषा का माध्यम मिल जाता है, दूसरे अब
वह अधिक सामाजिक हो जाता है और यह अनुभव करने लगता है कि अब उसे डरना या
बातचीत में रोना अथवा गुस्सा होना शोभा नहीं देता, तीसरे, उसमें बुद्धि का पर्याप्त विकास
हो जाने के कारण अब वह अपने संवेगात्मक उफान पर नियंत्रण स्थापित करने में समर्थ
हो जाता है।
प्रश्न 14. बच्चों में उत्तर बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास को संक्षेप
में समझाइए।
उत्तर–बच्चों में उत्तर बाल्यावस्था में सामाजिक विकास-पूर्व बाल्यावस्था में
बालक के भीतर जिन सामाजिक गुणों का आविर्भाव होता है, उन्हीं का विकास उत्तर
बाल्यावस्था में होता है । उत्तर बाल्यावस्था में विकसित होने वाली प्रमुख सामाजिक विकास
निम्नलिखित हैं―
(i) सामुदायिकता—इस अवस्था में बालक स्कूल जाने लगता है। अतः उसका
सामाजिक दायरा बढ़ जाता है। समूह के बीच रहने और सामाजिक समायोजन स्थापित करने
के कारण उसमें सामुदायिकता की भावना का विकास होता है―इसी कारण इस अवस्था को
सामुदायिकता की अवस्था (gang age) भी कहा जाता है।
(ii) समूह भक्ति― समूह में मित्रों के साथ समायोजन स्थापित करने के कारण वह
धीरे-धीरे समूह प्रेमी बन जाता है। अब वह अपनी सभी बातें अपने मित्रों के साथ बाँटता
है। अपनी योजनाओं में मित्रों को शामिल करता है और कभी-कभी तो कुछ बातों में परिवार
के सदस्यों को शामिल नहीं नहीं करता है, क्योंकि समूह के विचपर उसे अधिक महत्त्वपूर्ण
दिखायी पड़ते हैं।
(iii) मित्रता―इस समय मित्रता की भावना अधिक होती है और उनके बीच द्वेष कम
सहयोग अधिक होता है। वह अपनी मित्र मण्डली पर इतना अधिक निर्भर हो जाता है कि
कभी-कभी मित्रों के कारण अनुचित कार्य भी करता है।
(iv) यौन विरोध―इस अवस्था में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण कम होता है।
बालक-बालकों के साथ बालिकायें-बालिकाओं के साथ ही खेलना पसन्द करती हैं । इस
अवस्था में यौन विरोध पाया जाता है। बालक अपने क्रियाकलापों में बालिकाओं का तथा
बालिकायें बालकों का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करती हैं।
(v) नेतृत्व—पूर्व बाल्यावस्था में बालक के स्वप्रेमी और आक्रामक प्रवृत्ति के कारण वह
अपना प्रभुत्व दूसरों पर नहीं दिखा पाता है, किन्तु उत्तर बाल्यावस्था में जो बालक बहिर्मखी होता
है, वह अपनी बुद्धि, त्याग, आत्म-संयम आदि के कारण समूह में नेतृत्व प्राप्त कर लेता है।
(vi) सहयोग― सामूहिक खेलों के कारण इस आयु में सहयोग की भावना का विकास
होता है। सहयोग की भावना से लक्ष्यों की प्राप्ति में आसानी होती है तथा बालकों के भीतर
सुरक्षा का भाव आ जाता है।
(vii) सहानुभूति―सामूहिकता के कारण बालकों में प्रेम, दया, त्याग और सहानुभूति
की भावना विकसित होती है।

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