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समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

प्रश्न 12. सामाजिक परिवर्तन लाने हेतु शिक्षा के महत्व को बताइए।
उत्तर–सामाजिक परिवर्तन लाने हेतु शिक्षा का महत्व― शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन
का एक सशक्त माध्यम (साधन) माना गया हैं समाज ने शिक्षा की व्यवस्था को इसलिए
सुदृढ़ बनाया है ताकि अपेक्षित परिवर्तन लाया जा सके। इन परिवर्तनों हेतु शिक्षा के कई उपाय
निम्नलिखित रूप में प्रयोग किए जाते हैं―
1. शिक्षा मानव के व्यवहार, जीवन-शैली, विचार तथा आदतों से एवं चिन्तन शक्ति
में परिवर्तन लाती है तथा उन्हें वांछित दिशा में मोड़कर सामाजिक परिवर्तन का मार्ग
प्रशस्त करती है।
2. शिक्षा समाज की संस्कृति का हस्तान्तरण परिमार्जन तथा चयन करके सांस्कृतिक
परिवर्तन लाती है। सांस्कृतिक परिवर्तन के फलस्वरूप ही सामाजिक परिवर्तन होता
है।
3. शिक्षा समाज में व्याप्त बुराइयों तथा कुरीतियों के बारे में जनसाधारण को अवगत
कराकर उनके विरुद्ध जनमत का निर्माण करती है। उस जनमत के द्वारा ही व्याप्त
कुरीतियाँ तथा बुराइयाँ दूर होती हैं।
4. शिक्षा व्यक्तियों के दृष्टिकोणों को व्यापक एवं उदार बनाती है ताकि वे नवीनताओं
को निःसंकोच स्वीकार कर सकें।
5. अन्यविश्वासों तथा धार्मिक रूढ़ियों का अन्धानुसरण करने से शिक्षा बचाती है, उसे
सही दिशा में सोचने एवं वैज्ञानिक ढंग से चिन्तन व विश्लेषण करते हेतु प्रेरित
करती है।
6. शिक्षा द्वारा वैज्ञानिक प्रगति होती है, नये आविष्कार होते हैं, फलस्वरूप सामाजिक
परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है।
7. शिक्षा समाज की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती है। इस आर्थिक प्रगति के
फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं।
8. सामाजिक परिवर्तन के मार्ग में जो बाधाएँ हैं, शिक्षा उन बाधाओं को दूर कर परिवर्तन ।
की गति को तीव्रता प्रदान करती है।
9. सामाजिक परिवर्तनों हेतु सामाजिक कार्यकर्ताओं का निर्माण कर सामाजिक नव-चेतना,
समाज-सेवा एवं जन-साधारण का उत्तरदायित्व सौंपती है।
10. शिक्षा द्वारा जनमानस का दृष्टिकोण ज्ञान भण्डार द्वारा विकसित होता है तथा
आचार-विचार बदलते हैं।
11. शिक्षा द्वारा व्यक्तियों की संकीर्ण भावनाएँ दूर होती हैं। वे परस्पर सहयोग की भावना
से रहना सीखते हैं तथा व्यापक राष्ट्रीय व सामाजिक कल्याण की भावना को दृष्टिगत
रखते हुए कार्य करते हैं। उदाहरणार्थ-जातिवाद, प्रांतीयता तथा क्षेत्रीयता या विवाद
के सम्बन्ध में राष्ट्रीय एकता का पाठ पढ़ाया जा सकता है।
12. शिक्षा समाज के शाश्वत मूल्यों की रक्षा कर समाज को अवनति के पथ पर जाने
से रोकती है।
13. शिक्षा समाज में हो रहे परिवर्तनों की समीक्षा, मूल्यांकन तथा समालोचना के परिवव्रनों
की गति को तीव्र करती है तथा उन्हें अपेक्षित दिशा प्रदान करती है।
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प्रश्न 13. विद्यालय में होने वाली औपचारिक और अनौपचारिक गतिविधियाँ किस
तरह बच्चों के समाजीकरण को प्रभावित करती हैं ?
उत्तर― विद्यालयों के विकास के पहले शिक्षा का कार्य परिवार तथा समुदाय द्वारा ही
सम्पन्न होता था लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ संस्कृति का ढाँचा पेचीदा हो गया
और इसकी रेखाएँ टेढ़ी-मेढ़ी हो गई। परिवार तथा समुदाय के लिए संस्कृति का संरक्षण असंभव
हो गया। फलतः विद्यालय का आविर्भाव एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था के रूप में हुआ।
ज्यों-ज्यों संस्कृति सम्पन्न होती जा रही है, ज्यों-ज्यों इसकी पेचीदगी बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों
विद्यालय का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। आज के विद्यालय का कार्य पहले से अधिक बढ़
गया है।
विद्यालय के कार्यों के प्रकार― विद्यालय के कार्यों को आम तौर पर दो भागों में बाँटा
जा सकता है―
(i) औपचारिक कार्य तथा (ii) अनौपचारिक कार्य।
(i) विद्यालय के औपचारिक कार्य―
1. चरित्र-निर्माण तथा आध्यात्मिकता स्वतंत्रता का प्रशिक्षण देना।
2. अतीत की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखना और उसे अधिक मूल्यवान बनाकर
आगे आनेवाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना।
3. .छात्रों में सोचने और निर्णय करने की शक्तियों का विकास करना, जिससे वे अपने
समझने और कार्य करने के लिए प्रयोग कर सकें।
4. छात्रों के नेतृत्व के गुणों का विकास करना, जिससे वे प्रजातंत्र के अच्छे नागरिकों
के रूप में अपने कर्तव्यों को कुशलतापूर्वक कर सकें।
5. छात्रों को ऐसा प्रशिक्षण देना, जिससे वे समाज तथा अन्य व्यक्तियों पर भार बने
बिना सम्मानपूर्ण ढंग से अपनी जीविका की समस्या को हल कर सकें।
6. छात्रों को ऐसा लाभप्रद ज्ञान देना, जिससे वे सन्तुलित मस्तिष्क का विकास कर
सकें ऐसे मस्तिष्क वाला व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों से सूझ-बूझ वाला और साहसी
होता है। साथ ही, वह अज्ञात भविष्य के मूल्यों का निर्माण कर सकता है।
7. विभिन्न प्रकार के विकासात्मक कार्यों द्वारा छात्रों के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना।
8. विद्यालय द्वारा ऐसे क्रियाशीलनों का आयोजन करना जिससे छात्रों में नागरिकता की
भावना, देश-प्रेम, राष्ट्रीयता, एकता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण का
विकास हो सके।
9. अवकाश के समय का सदुपयोग सिखाना।
(ii) विद्यालय के अनौपचारिक कार्य :
1. समाज-सेवा, सामाजिक उत्सवों का आयोजन करके छात्रों को सामाजिक प्रशिक्षण
देना।
2. सक्रिय वातावरण का निर्माण करके छात्रों के रुचिकर और रचनात्मक क्रियाओं के
प्रोत्साहित करना।
3. खेल-कूद, स्काउटिंग, सैनिक शिक्षा, स्वास्थ्य-कार्य आदि की व्यवस्था करके छा।
को शारीरिक प्रशिक्षण देना।
4. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, चित्रकलाओं, प्रदर्शनियों, संगीत-सम्मेलनों और नाटक
का प्रबन्ध करके बालक और बालिकाओं को भावात्मक प्रशिक्षण देना।
5. विद्यालय को सामुदायिक जीवन पर प्रशिक्षण देना।
यहाँ हम विद्यालय के औपचारिक और अनौपचारिक कार्यों का अवलोकन करे तो
देखते हैं कि ये गतिविधियाँ बच्चों के समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इनका
बच्चों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। बच्चों में नेतृत्व क्षमता, सामाजिक कार्यों की क्षमता या
ये कहा जाए कि इनसे उनका समग्र विकास होता है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
दोनों कार्य बच्चों के समाजीकरण में महत्वपूर्ण हैं।
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प्रश्न 14. शिक्षा के अर्थ स्पष्ट कीजिए। इसकी उद्देश्यों एवं मूल्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर― शिक्षा शब्द भावनात्मक है और इस में संचालन-शक्ति अधिक है। इसलिए कई
युगों से इस शब्द के अनेक अर्थ उत्पन्न हो रहे थे और हो रहे हैं। अभी भी शिक्षा के बारे
में दिए गए मत अधूरे हैं तथा उनकी इतिश्री नहीं हुई है। इतना निश्चय के साथ कहा जा
सकता है कि शिक्षा के विषय में परिपूर्ण सर्वांगीण परिभाषा शायद ही कभी दी जा सके
इसके अर्थ तथा उद्देश्य में गति है, सजीवता है, जो सदा विकासशील तथा परिवर्तनशील बनी
रहेगी।
शिक्षा शब्द की व्युत्पत्ति तथा उद्भव–व्युत्पत्ति के आधार पर शिक्षा शब्द के कई
अर्थ हैं। कई लोगों का मत है कि शिक्षा–एजुकेशन शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन के तीन है।
शब्दों-एजुकेयर (Educare), एजुकीयर (Educere) तथा एजुकेटम (Educatum) से हुयी
है। एजुकेयर से लालन पालन, एजुकीयर से ‘प्रेरणा’ तथा एजुकेटम से शिक्षण अथवा
प्रशिक्षण का भाव निकलता है। इनमें से एजुकीयर तथा एजुकेटम बालक के बहिर्मुखी विकास
तथा एजुकीयर अन्तर्मुखी विकास के प्रेरक हैं। इसलिए बालक जब शिक्षा ग्रहण करता है तो
उसे अन्तर्मुखी तथा बहिर्मुखी दोनों क्षेत्रों के विकास की आवश्यकता पड़ती है। अन्तर्मुखी विकास
के बल पर वह अपने ज्ञान को बढ़ाता है तथा बहिर्मुखी धरातल पर वह अपने अनुभव की
वृद्धि करता है। अनुभव के अन्तर्गत स्वभाव, आचार-व्यवहार, योग्यता आदि की बात आती
हैं, जिनमें प्राणी संसार में निपुण बन जाता है। इसी ज्ञान तथा अनुभव के सामंजस्य से ही
जब बालक व्यवहार कुशल बन जाता है तथा संसार में आगे बढ़ता है तो यही शिक्षा का
भी मुख्य उद्देश्य बन जाता है।
        शिक्षा एक ऐसा शब्द है, जिसका हम नित्य जीवन में प्रयोग करते रहते हैं। परन्तु इसे
किसी परिभाषा में बांधना सरल नहीं है। शिक्षा एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। प्रत्येक
युग में जैसे-जैसे मानव की आवश्यकताएँ बदलती रहती है वैसे ही शिक्षा की विभिन्न परिभाषाएँ
भी प्रस्तुत की गयी हैं।
1. शिक्षा क्या नहीं है ?–शिक्षा चाहे कुछ भी हो, परन्तु यह साक्षरता नहीं है। यह
माना कि साक्षरता शिक्षा का साधन तो हो सकता है। परन्तु साधन को साह्य नहीं माना जा
सकता। “शिक्षा वह है जो एक व्यक्ति है और वह नहीं जो एक व्यक्ति जानता है।” इसका
प्रमाण है, आज के डिग्रियाँ प्राप्त पढ़े-लिखे कहलाने वाले युवक जिनका न मानसिक विकास
होता है और न ही नैतिक और सामाजिक। ये विद्यार्थी कुछ ज्ञान को रट कर परीक्षाओं में
उत्तर-पुस्तिकाओं में उगल देते हैं और वह ज्ञान उनका नहीं बनता। ऐसे विद्यार्थियों के बारे
में हम कह सकते हैं कि उन्होंने साक्षरता तो प्राप्त कर ली है परन्तु शिक्षा कदापि नहीं।
2. शिक्षा केवल क्या नहीं है—शिक्षा एक बहुत विस्तृत शब्द है। इसमें मानव जीवन
के सभी पहलू, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक आदि जाते हैं। परनतु कुछ लोग
ऐसे हैं जो शिक्षा के एक भाग को ही शिक्षा समझते हैं। उदाहरणों के तौर पर―
(क) प्राचीन काल से स्पार्टा (Sparta) के लोग शिक्षा को इस प्रकार परिभाषित करते
थे “शिक्षा वह है, जो व्यक्ति को प्राकृतिक प्रकोपों से बचाने की क्षमता प्रदान करती है।”
इस परिभाषा का जन्म इसलिए हुआ कि स्पार्टा प्राचीन समय में एक यूनानी नगर राज्य
(Greek city state) था, जो चारों ओर से शत्रुओं द्वारा घिरा हुआ था। कभी किसी ओर से
कोई शत्रु स्पार्टा पर आक्रमण करके लूट-पाट कर जाता तो कभी किसी दूसरे और से कोई
अन्य शत्रु। अब स्पार्टा के लोगों के सामने दो ही विकल्प रह गए थे कि या तो किसी पड़ोसी
राज्य की अधीनता स्वीकार कर लें या फिर स्पार्टी के लोगों को इतना हष्ट-पुष्ट बनाएँ और
शस्त्रों का प्रयोग सिखाएँ कि वे किसी भी शत्रु से अपनी रक्षा कर सकें तथा ये सब कुछ
लाने के लिए उन्हें शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाना होगा। अपनी शिक्षा प्रणाली में शासकों
ने केवल वही विषय रखे जिन से शारीरिक विकास हो और शस्त्रों का प्रयोग करने में वहाँ
के निवासियों को दक्षता प्राप्त हो।
          (ख) एक और मत शिक्षा की परिभाषा कुछ इस प्रकार देता है-“शिक्षा वह है, जो
एक व्यक्ति को उसकी आजीविका कमाने में समर्थ बनायें।” यह शिक्षा का आर्थिक पहलू
है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह पहलू बहुत महत्त्वपूर्ण है। मानव जीवन के बहुत से पहलू
है जिनमें से आर्थिक पहलू सबसे अधिक तीव्रता से महसूस किया जाता है। आर्थिक
आवश्यकताओं को पूरा करना मानव के लिए सबसे आवश्यक कार्य है। आर्थिक आवश्यकताएँ
आधारभूत आवश्यकताएँ हैं, जिन पर उनकी सभी दूसरी आवश्यकताओं का ढाँचा खड़ा है।
इसलिए शिक्षा में व्यावसायिक उद्देश्य को सबसे प्रथम उद्देश्य माना जाता है। यदि कोई शिक्षा
किसी व्यक्ति को आजीविका कमाने में समर्थ नहीं करती तो ऐसी शिक्षा का क्या लाभ है?
(ग) कुछ लोगों का विश्वास है कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उस देश की संस्कृति का
संरक्षण, संचारण तथा समृद्धि है।
          जब व्यक्ति जाति के उपयोगी अनुभवों को आत्मसात् कर लेता है तो उसके जीवन में
मधुरता आ जाती है। जीवन की समृद्धिशाली बनाने के लिए व्यवहार तथा चरित्र की छोटी-छोटी
बातें भी बहुत महत्त्व रखती हैं, जैसे आप कैसे उठते-बैठते हैं ? आप का दूसरों के साथ कैसा
व्यवहार है ? आप कैसे कपड़े पहनते हैं या किसी प्रकार का भोजन करते हैं ? यह सब संस्कृति
में आता है। जीवन को सुन्दर तथा मधुर बनाने के लिए शिक्षा विद्यार्थियों को विकसित अवश्य
बनाए।
शिक्षा के उद्देश्य एवं मूल्य:
        शिक्षा के उद्देश्यों को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है-व्यक्तिपरक व समाज की सरंचना
के तर पर। अर्थात् लोगों की शिक्षा कही जाने वाली प्रक्रिया से अपेक्षा हो सकती है कि उससे
एक खास प्रकार के व्यक्तित्व का निर्माण होगा। वहीं, यह उम्मीद भी हो सकती है कि एक
प्रकार की शिक्षा व्यवस्था से एक खास तरह के समाज को बनाने सहायता मिलेगी। यहाँ शिक्षा
व्यवस्था से तात्पर्य सिर्फ विद्यालय मात्र नहीं है, बल्कि समाज की सभी संस्थाएँ हैं, जो व्यक्ति
के संपर्क में आती हैं। अक्सर हम स्कूली व्यवस्था को जरूरत से ज्यादा प्रभावशाली मान
लेते हैं। अगर हम यह भी मानें कि स्कूलों में सभी शिक्षक और पूरा माहौल एक विशेष दर्शन
से पूरी तरह संचालित है, तो भी हमें याद रखना चाहिए कि व्यक्तित्व पर असर डालने वाले
और भी कई महत्त्वपूर्ण कारक हैं साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि ‘क्या स्कूल और
शिक्षा पर्यायवाची हैं?’ जब कोई यह कहता है कि आज स्कूलों में वैसा वातावरण नहीं है
या शिक्षक-विद्यार्थी संबंध वैसे नहीं है जैसे पहले थे, तो वह एक स्तर पर यही आलोचना
कर रहा है कि स्कूलों में जो हो रहा है, उसे वह शिक्षा नहीं मानना चाहता। ‘शिक्षा’ शब्द
एक सराहनीय प्रक्रिया के लिए प्रयोग होता है। इसलिए हमारे पास ‘कुशिक्षा’ या ‘खराब
शिक्षा’ जैसे शब्द भी हैं। शिक्षा जैसी प्रक्रिया के बारे में सिर्फ शिक्षा विचारक ही नहीं बल्कि
आम इंसान भी एक साथ रखता है। इसका प्रमुख कारण तो यही है कि वो भी उसमें भागीदार
है. और उससे प्रभावित भी है। शिक्षा कैसे सबकी चिंता का विषय है, यह इससे स्पष्ट होता
है कि अकसर किसी प्रशिक्षित शिक्षक के पढ़ाने को लेकर उसके विद्यार्थियों एवं उनके
अभिभावकों की राय अलग-अलग हो सकती है। एक शिक्षिका रोज अपनी कक्षा को बाहर
खेलने ले जाती हो पर विद्यार्थियों के अभिभावकों की अपेक्षा के हिसाब से यह एक निरर्थक
गतिविधि हो। अतः शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रति भी कोई एक आदर्श समझ
नहीं हो सकती। इनको समझने के भी विभिन्न दार्शनिक आधार हो सकते हैं।
            शिक्षा के उद्देश्यों या मूल्यों को इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं:
• शिक्षा का उद्देश्य प्रेरणा देना और सीखने के अवसरों में वृद्धि करना, जिससे बच्चों
में ज्ञानार्जन की कला का विकास हो सके।
• बच्चों में सतत् नवीन ज्ञान हासिल करने की भावना को प्रश्रय देना, जिससे वे
परिस्थितियों से सामंजस्य बना सकें।
• बच्चों में ज्ञान के अतिरिक्त विभिन्न कुशलताओं एवं वांछित मूल्यों का विकास करना।
• बच्चों में स्व-चिन्तन तथा जिम्मेदारीपूर्ण आचरण का विकास।
उनमें सौन्दर्यबोध विकसित करना, जिससे वे अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक धरोहरों
के प्रति सम्मान का भाव रख सकें।
• सत्यनिष्ठा, ईमानदारी तथा आत्मविश्वास का विकास।
• सामाजिक मूल्यों का संवर्धन।
• लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेशन, जिससे एक समतामूलक समाज की स्थापना हो
सके।
• अपने और दूसरों के धर्म के प्रति समरसता के भाव का विकास।
• अपने राज्य एवं देश के विविधता की समझ और उनके प्रति आदर का भाव।
• परम्पराओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कर आवश्यकतानुसार अपने जीवन शैली में
स्थान देना।
• समाज में व्याप्त समस्याओं का साहस और धैर्य के साथ सामना करना न कि उनसे
हार मार लेना।
स्वयं एवं प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाना एवं पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाना,
जिससे उसके संरक्षण की व्यवस्था की जा सके।
समाज में सामंजस्य बनाना, जिससे एक शांतिपूर्ण एवं अहिंसात्मक समाज का निर्माण
किया जा सके।
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प्रश्न 15. शिक्षा की प्रकृति का वर्णन कीजिए।
उत्तर―शिक्षा की प्रकृति :
1. शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है― शिक्षा जना से आरम्भ होती है तथा मृत्यु
पर्यन्त चलती है।
2.शिक्षा एक विकासात्मक प्रक्रिया है―पेस्टालॉजी का कहना है कि, “शिक्षा मनुष्य
की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, समरूप एवं प्रगतिशील विकास है।”
ऐसा ही विचार रूसो का भी था। उसने कहा कि “शिक्षा अन्दर के विकास को कहते
है न कि बाहर के विकास को ….।”
इसी प्रकार गाँधी जी ने कहा है कि “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य के
शरीर, मन और आत्मा में अन्तर्निहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण विकास (प्राकट्य) से है।”
3. शिक्षा एवं संश्लिष्ट प्रक्रिया है―शिक्षा की प्रक्रिया में जो विकास होता है, वह
संश्लिष्ट होता है, अलग-अलग नहीं। इसमें विकसित होने वाले अंग साथ-साथ कार्य करते
हैं, जैसे मस्तिष्क के साथ पेशियाँ भी कार्यरत रहती हैं। शरीर विकसित होता है, तो साथ
ही साथ मानसिक विकास भी होता है।
4. शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है―एडम्स का मत है कि शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया
है। इसके एक और विद्यार्थी और दूसरी ओर शिक्षक रहता है। रॉस महोदय ने भी एडम्स
के इस मत का समर्थन किया है और कहा है कि ‘चुम्बक की तरह शिक्षा के भी दो ध्रुव
हैं। यह एक द्विमुखी प्रक्रिया है।”
         इस प्रक्रिया में एक सिरे पर अध्यापक रहता है और दूसरे सिर पर छात्र रहता है। एक
कहता है, दूसरा सुनता है तथा एक पढ़ाता है, दूसरा पढ़ता है। अध्यापक अपने व्यक्तित्व एवं
ज्ञान से छात्र को प्रभावित करता है। परन्तु छात्र की महत्ता अध्यापक से कम नहीं है। आज
की शिक्षा तो छात्र को अध्यापक से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानती है।
      द्विमुखी क्रिया एक-दूसरे रूप में भी मानी जा सकती है। शिक्षा में व्यक्तिगत एवं सामाजिक
दोनों ही भावनाएँ होती हैं। शिक्षा का उद्देश्य दोनों ही प्रकार के विकास की पूर्ति है। ड्यूबी
ने शिक्षा को इसी कारण समाजीकरण की प्रक्रिया कहा है।
5. शिक्षा एक त्रिमुर्खा प्रक्रिया है―एडम्स की बात को ड्यूवी ने भी माना है, किन्तु
एक और तथ्य जारकर उसनं शिक्षा को द्विमुखी के बदले त्रिमुखी कहा है। इसमें शिक्षक
एवं छात्रा के अला. सामाजिक तत्त्वों का भी भरपूर प्रभाव है, और इसका महत्त्व उन दोनों
से कम नहीं है।
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                             चित्र : शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया
(II) प्रगतिवादी शिक्षा के अनुसार प्राथमिकता के आधार पर शिक्षा के अंग
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                  चित्र : प्राथमिकता के आधार पर शिक्षा की प्रकृति
(III) 20वीं शताब्दी क अंत और 21वीं शताब्दी के आरंभ में प्राथमिकताएँ―
विद्यार्थी, (2) वर्तमान तथा भविष्य की माँगे, (3) विषय तथापाठान्तर क्रियाएँ
(4) जनसंचार के साधन, (5) शिक्षक।
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                    चित्र : वर्तमान के सम्बन्ध में शिक्षा के प्रकृति
7.शिक्षा एक सचेतन एवं प्रयोजनशील प्रक्रिया है―एडम्स ने लिखा है कि “शिक्षा
एक सचेतन एवं विचारपूर्ण प्रक्रिया है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे पर इसलिए प्रभाव डालता
है कि दूसरे का विकास और परिवर्तन हो सके।” इसलिए शिक्षा प्रयोजनहीन नहीं हो सकती।
शिक्षा व्यक्तित्व के निर्माण एवं लाभ के लिए है। इससे व्यक्ति चेतना पाता है और अपना
प्रयोजन सिद्ध करता है। बासिंग ने लिखा है कि “शिक्षा का कार्य व्यक्ति को उसके वातावरण
से समायोजित करना है, जिससे कि व्यक्ति तथा समाज दोनों को अत्यधिक तथा दीर्घकालीन
संतुष्टि हो सके।”
        इसी प्रकार ब्राउन का मत है कि “शिक्षा सचेतन रूप में नियंत्रित प्रक्रिया है, जिससे
व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाये जाते हैं और व्यक्ति के द्वारा समय में परिवर्तन लाये
जाते हैं।”
        इस प्रकार एडम्स की यह उक्ति शत-प्रतिशत सही है कि ‘शिक्षा एक चैतन्यशील एवं
विचारपूर्ण प्रक्रिया है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे पर इसलिए प्रभाव डालता है कि दूसरे का
विकास एवं परिवर्तन हो सके।’
8. शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है―शिक्षा स्थिर नहीं, विकासोन्मुख है। इसमें परिवर्तन
होता है। शिक्षा के गतिशील स्वरूप को सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकार करते हैं। शिक्षा जीवन
के लिए है। शिक्षा स्वयं जीवन है। जीवन विकास है, जीवन का अर्थ गति है। इस प्रकार
शिक्षा गतिशील है। इसीलिए रेमण्ट ने लिखा है कि “शिक्षा विकास का यह क्रम है, जिसमें
व्यक्ति के शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक को वे क्रियाएँ निहित हैं, जिनके द्वारा वह अपने
को धीरे-धीरे विभिन्न विधियों से अपने भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के
अनुकूल बनाता है।”
      ड्यूवी ने भी लिखा है कि “शिक्षा व्यक्ति की उन सभी क्षमताओं का विकास है, जिसमें
व्यक्ति वातावरण पर नियंत्रण करने योग्य बने।”
9. शिक्षा एक परिवर्तन–शिक्षा-शास्त्रियों का विचार है कि शिक्षा एक परिवर्तन है।
यह व्यक्ति के व्यवहार एवं आचार-विचार में परिवर्तन लाती है। जन्म के समय बालक असहाय
अव्यावहारिक एवं अशिक्षित होता है। शिक्षा ही उसे व्यावहारिक, शिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत एवं
परिष्कृत बनाती है। कनिंघम ने लिखा है कि “व्यक्ति एवं समाज दोनों ही दृष्टिकोणों से
शिक्षा परिवर्तन लाती है।”
      शिक्षा क्षमता में परिवर्तन लाती है और बालक को क्षमताशील बनाती है, अज्ञान के बदले
ज्ञान का भंडार भरती है तथा विचारों, आदर्शों एवं अभिप्रेरणाओं में परिवर्तन लाती है। संसार
के सभी परिवर्तन शिक्षा के माध्यम से ही आते हैं।
10. शिक्षा व्यक्ति को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया है―कुछ विचारकों के मतानुसार
शिक्षा व्यक्ति को प्रत्येक क्षेत्र के लिए प्रशिक्षण देती हैं। शिक्षा व्यक्ति को भौतिक एवं मानसिक
क्षेत्रों में प्रशिक्षण प्रदान करती है। भौतिक क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान करके शिक्षा व्यक्ति को
रोजी-रोटी के लिए तैयार करती है तथा आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ करती है।
प्रश्न 16. शिक्षा के सामान्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर―शिक्षा के सामान्य कार्य निम्नलिखित हैं―
1. अनुभवों का पुनर्गठन एवं पुनर्रचना―जॉन ड्यूबी के शब्दों में― “जीवन का प्रमुख
कार्य है, प्रत्येक पग पर अपने अनुभव द्वारा जीवन को समृद्ध बनाना।”
2.आवश्यकता की पूर्ति― शिक्षा के इस.कार्य पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द
ने लिखा है―”शिक्षा का कार्य यह पता लगाता है कि जीवन की समस्याओं को कैसे सुलझाया
जाय, और इसी बात की ओर संसार के आधुनिक सभ्य समाज का गंभीर ध्यान पूर्णतया लगा
हुआ है।”
3.आत्मनिर्भरता की प्राप्ति―स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, “केवल पुस्तकीय ज्ञान
से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे व्यक्ति अपने पैरों पर स्वयं
खड़ा हो जाए।”
4. उत्तम नागरिकता का निर्माण― माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार―”शिक्षा को
ऐसे चारित्रिक गुणों, आदतों तथा दृष्टिकोणों को विकसित करना चाहिए जिससे नागरिक अपनी
प्रजातांत्रिक नागरिकता के उत्तरदायित्वों को पूरा कर सकें तथा उन प्रवृत्तियों को नष्ट कर सकें
जो व्यापक राष्ट्रीय तथा धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण के विकसित होने में बाधक हो।”
5.प्रौढ़ जीवन के लिए तैयारी–शिक्षा के कार्य पर बल देते हुए प्रसिद्ध कवि मिल्टन
ने लिखा है, “मैं उसको पूर्ण शिक्षा कहता हूँ जो मनुष्य को शान्ति तथा युद्ध के समय व्यक्तिगत
तथा सार्वजनिक दोनों प्रकार के सभी कार्यों को उचित रूप से करने के योग्य बनाती है।”
6. भावात्मक एकता―स्वामी दयानन्द का भी यही मत है कि “भाषा-सम्बन्ध
विभिन्नताओं, सांस्कृतिक कठोरताओं और रीति-रिवाजों तथा व्यवहारों के कारण अलगावों को
दूर करना बहुत कठिन है। जब तक शिक्षा के द्वारा यह नहीं किया जायेगा, तब तक पूर्णतम
लाभ और निर्दिष्ट ध्येय को प्राप्त करना कठिन है।”
7. भावी जीवन की तैयारी―शिक्षा के इस कार्य पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द
ने लिखा है-“यदि कोई मनुष्य कुछ परीक्षाएं पास कर सकता है तथा अच्छे व्याख्यान दे
सकता है तो आप उसको शिक्षित समझते हैं। क्या वह शिक्षा, शिक्षा कहलाने योग्य है, जो
सामान्य जनसमूह को जीवन के संघर्ष के लिए अपने आप को तैयार करने में सहायता नहीं
देती और उनमें शेर का सा साहस उत्पन्न नहीं करती है।”
8. भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति― जॉन रस्किन का विचार है कि―”माता-पिता कहते
हैं कि शिक्षा का प्रमुख कार्य उनके बालकों को जीवन में उच्च-स्थान प्राप्त करने, बड़े और
धनी व्यक्तियों के समाज में महत्त्वपूर्ण बनने तथा आराम और ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करने
के लिए तैयार करना है।”
9.मानव प्रकृति एवं चरित्र का प्रशिक्षण― प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री प्लेटो ने भी इसी बात
पर बल देते हुए लिखा है― “शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य तथा कार्य मानव की प्रकृति तथा चरित्र
को प्रशिक्षित करना है।”
10. नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों की भावना का समावेश―भारत के तीस
राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन ने लिखा है― “प्रजातांत्रिक समाज में यह आवश्यक है कि व्यक्ति
समाज के जीवन को उत्तम बनाने के लिए नैतिक और भौतिक दोनों प्रकार के सम्मिलित
उत्तरदायित्व को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें।”
11. नैतिकता का विकास― हरबर्ट का विश्वास है कि शिक्षा बालक क आचरण को
सुधार कर उसका नैतिक विकास कर सकती है। अतः उसके अनुसार शिक्षा के सम्पूर्ण
कार्य को एक ही शब्द में प्रकट किया जा सकता है, और वह शब्द है―नैतिकता।”
12. राष्ट्रीय एकता― शिक्षा के इस कार्य पर बल देते हुए भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ.
राधाकृष्ण ने लिखा है-“भारत में प्रजातंत्र का भविष्य अनुशासन में रहने की इच्छा तथा
व्यक्तिगत बलिदान पर आधारित है। यदि भारत को स्वतंत्र, संयुक्त तथा प्रजातांत्रिक रहना है,
तो शिक्षा को चाहिए कि वह लोगों को एकता के लिए न कि प्रादेशिकता के लिए तथा प्रजातंत्र
के लिए न कि तानाशाही के लिए प्रशिक्षित करे।”
13. राष्ट्रीय सुरक्षा-एच मान के अनुसार “केवल शिक्षा से ही हमारी राजनीतिक सुरक्षा
सम्भव है।”
14. व्यक्तित्व का विकास–प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री फ्रॉबेल के अनुसार, “शिक्षा वह
प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियाँ बाहर की ओर प्रकट होती है।”
15. वातावरण के अनुकूलन–टामसन (Thomson) ने ठीक ही लिखा है-“वातावरण
शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है–बालक को उस वातावरण के लिए अनुकूल बनाना ताकि
वह जीवित रह सके तथा अपनी मूल-प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए अधिक-से-अधिक
सम्भव अवसर प्राप्त कर सके।”
16. वातावरण पर नियंत्रण―जॉन ड्यूबी ने लिखा है, “वातावरण से अनुकूल करने
का अर्थ है–मृत्यु। आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण पर नियंत्रण रखा जाए।”
17. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास–शिक्षा के इस कार्य पर डेनियल वेबस्टर ने
बल देते हुए लिखा है―”शिक्षा के द्वारा भावनाओं को अनुशासित, आवेगों को नियंत्रित और
अच्छी प्रेरणा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।”
18. सामाजिक भावना का विकास—एच. गार्डन के शब्दों में, “शिक्षक के लिए यह
जानना आवश्यक है कि वह सामाजिक प्रक्रिया को उन व्यक्तियों को समझाने की दिशा में
कार्य करे, जो उसे समझने में असमर्थ है।”
19. सामाजिक सुधार—शिक्षा के इस महत्त्वपूर्ण कार्य पर प्रकाश डालते हुए जॉन ड्यूवी
ने लिखा है-“शिक्षा में अति निश्चित और अल्पतम साधनों द्वारा सामाजिक तथा संस्थागत
उद्देश्य के साथ-साथ समाज के कल्याण, प्रगति तथा सुधार में रुचि का पुष्पित होना पाया
जाता है।”
20. संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण―जॉन स्टूअर्ट मिल ने शिक्षा के इस कार्य पर
बल देते हुए लिखा है, “शिक्षा द्वारा एक पीढ़ी के लोग दूसरी पीढ़ी के लोगों में संस्कृति
का संक्रमण करते हैं ताकि वे उसका संरक्षण कर सके तथा यदि सम्भव हो तो उसमें उन्नति
कर सकें।”
21. शिक्षा तथा अनुशासन―शिक्षा के इस महत्त्वपूर्ण कार्य पर बल देते हुए माध्यमिक
शिक्षा आयोग का मत है-“प्रजातंत्र सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता, जब तक सभी व्यक्ति,
केवल एक विशेष वर्ग ही नहीं, अपने-अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए प्रशिक्षित नहीं
किए जाते और इसके लिए अनुशासन के प्रशिक्षण की आवश्यकता है।”
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 17. औपचारिक शिक्षा और अनौपचारिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं ?
औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा में अन्तर कीजिए।
उत्तर― औपचारिक शिक्षा का अर्थ-ऐसी शिक्षा जो एक व्यवस्थित, तर्कपूर्ण तथा
योजनाबद्ध तरीके से दी जाती है, उसे औपचारिक शिक्षा कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि
इस प्रकार की शिक्षा केवल शिक्षा संस्थाओं में ही दी जा सकती है, उनसे बाहर नहीं। हैन्डरसन
के विचार में जब बालक को सचेत करके और विशेष दृष्टिकोण को सम्मुख रखकर पढ़ाया
जाता है, तो वह शिक्षा औपचारिक शिक्षा कहलाती है। ड्यूवी के अनुसार औपचारिक शिक्षा,
वह शिक्षा है जिससे समाज की जटिल धरोधर को हस्तान्तरित किया जाता है।
    अनौपचारिक शिक्षा का अर्थ―प्रायः इस शिक्षा को कक्षा से बाहर मिलने वाली शिक्षा
कहा जाता हैं यह शिक्षा आकस्मिक तथा अनियंत्रित होती है। इसके लिए सचेष्ट प्रयास नहीं
किये जाते। हैण्डरसन का विचार है कि जब बालक व्यक्तियों के कार्यों को देखता है, उनका
अनुकरण करता है और उनमें स्वतः भाग लेता है तो वह अनौपचारिक रूप से शिक्षित होता है।
                 औपचारिक शिक्षा तथा अनौपचारिक शिक्षा की तुलना :
औपचारिक शिक्षा                                     अनौपचारिक शिक्षा
1. औपचारिक शिक्षा का लक्ष्य निश्चित          1. अनौपचारिक शिक्षा का लक्ष्य निश्चित
    रहता है।                                                  नहीं रहता है।
2. औपचारिक शिक्षा नियंत्रित वातावरण में    2. अनौपचारिक शिक्षा का वातावरण
दी जाती है।                                                   नियंत्रित नहीं होता।
3. औपचारिक शिक्षा पूर्व निश्चित कार्यक्रम     3. यह आकस्मिक होती है।
के अनुसार दी जाती है।
4. औपचारिक शिक्षा के प्रमुख साधन           4. अनौपचारिक शिक्षा के साधन
हैं– स्कूल, पुस्तकालय, पुस्तकें,                        हैं―परिवार, धर्म, समुदाय, खेल के
अजायबघर आदि।                                         मैदान आदि।
5. औपचारिक शिक्षा कृत्रिम होती है।            5. यह शिक्षा स्वाभाविक एवं प्राकृतिक
                                                                   होती है।
6. औपचारिक शिक्षा प्रदान करने के लिए       6. अनौपचारिक शिक्षा में जिस किसी भी
अध्यापक निश्चित रहते हैं।                                व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त किया जाता है,
                                                                    वही शिक्षक है।
7. औपचारिक शिक्षा निश्चित समय में            7. अनौपचारिक शिक्षा जीवनपर्यन्त
समाप्त होती है।                                              चलती रहती है।
8. औपचारिक शिक्षा में पाठ्यक्रम, समय,      8. इसमें कुछ भी निश्चित नहीं होता है।
विभागचक्र आदि निश्चित होते हैं।
9. औपचारिक शिक्षा की समाप्ति पर             9. यह शिक्षा अनुभव से प्राप्त होती है,
परीक्षा होती है।                                               प्रायः परीक्षा नहीं होती।
10. परीक्षा की सफलतापूर्वक समाप्ति पर     10. प्राय: कोई उपाधि नहीं दी जाती। दक्षता
उपाधि अथवा प्रमाणपत्र मिलता है।                     प्रमाणपत्र कभी-कभी दिए जाते हैं।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 18. महात्मा गाँधी के अनुसार शिक्षा की परिभाषा का अर्थ एवं इसके मूल्यों
का वर्णन कीजिए।
उत्तर― गाँधी जी के अनुसार, “शिक्षा में मेरा अभिप्रायः बालक तथा मनुष्य के शरीर,
मन और आत्मा के अतनिहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण विकास से है।”
ऊपर दी गई शिक्षा की परिभाषा में निम्नलिखित तत्त्वों पर विशेष ध्यान की आवश्यकता
है―
1. बालक तथा मनुष्य की अन्तनिहित अथवा आन्तरिक शक्तियाँ
2. सर्वांगीण विकास
3. शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक
शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो बालक तथा मनुष्य के अन्दर छिपी हुई शक्तियों का सर्वोमुखी
विकास करती है। यह विकास किस प्रकार का हो, इस की रूपरेखा भी गाँधी जी ने बतलाई
हैं यह विकास शरीर का है, मन का है तथा आत्मा का है। विकास किस प्रकार का हो सकता
है तथा किस प्रकार से किया जा सकता है, इनका उत्तर है-यह विकास एक विशेष प्रकार
के वातावरण में हो सकता है। स्कूल द्वारा यह वातावरण उपलब्ध कराया जाता है। शिक्षक
इस प्रकार से प्रयत्न करता है कि बालक को ऐसा वातावरण प्रदान किया जाए जो उसकी
आन्तरिक शक्तियों का इस प्रकार विकास करने में सहायक हो जिससे बालक समाज का
उपयोगी सदस्य बन सके।
     शिक्षा के अर्थ की व्याख्या करते हुए गाँधी जी ने स्पष्ट किया कि शिक्षा का अर्थ अक्षर-ज्ञान
नहीं है, शिक्षा एक साधन मात्र है। हम मनुष्य बनें। मात्र पुस्तकीय ज्ञान से मनुष्यत्व नहीं आता।
ज्ञान के साथ-साथ शरीर तथा आत्मा का विकास अत्यन्त आवश्यक है।
      बालक के सर्वोमुखी विकास के लिए गाँधी जी ने बुनियादी शिक्षा पद्धति पर बल दिया,
क्योंकि यह पद्धति मस्तिष्क, शरीर और आत्मा तीनों का विकास करती हैं साधारण शिक्षा
पद्धति केवल मस्तिष्क के विकास पर बल देती है। दूसरे शब्दों में यह शिक्षा अधूरी है। इसमें
बालक की सभी आन्तरिक शक्तियों का सामंजस्य एवं विकास नहीं होता है। शिक्षक का कार्य
है कि वह छात्र के भीतर विद्यमान प्रतिभा को विकसित करें और उसे प्रकाश में लाये।
            सर्वांगीण शिक्षा का विकास इस प्रकार से हो कि बालक में विद्यमान शक्तियों को ऐसा
मोड़ दिया जाए कि वह एक आदर्श नागरिक बन सके। आदर्श नागरिक वही होगा जो जीविका
उपार्जन भी कर सके। इसके लिए गाँधी जी ने दस्तकारी पर बल दिया।
             सर्वांगीण विकास में संगीत तथा कला का विकास भी आ जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में
इस प्रकार के गुणों का बीज जन्मजात होता है। उसे बाहर निकालने के अवसर मिलने चाहिए।
शुद्ध आचरण तथा नैतिक शिक्षा आदि सर्वांगीण शिक्षा के अभिन्न अंग है।
गाँधी जी का मत है कि बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर
के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से हो सकती है। दूसरे शब्दों में, इन्द्रियों के बुद्धिपूर्वक
उपयोग से बालक की बुद्धि को विकास का उत्तम और लघुतम मार्ग मिलता हैं परन्तु जब
तक मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जागृति
न होती रहे, तब तक केवल बुद्धि के एकाकी विकास से कुछ विशेष लाभ नहीं होगा। अतः
शरीर, मन और आत्मा की विविध शक्तियों के विकास में उचित तालमेल और एकरसता लाने
की अत्यन्त आवश्यकता है।
                  गाँधी जी के विचारों के संदर्भ में कुछ महान शिक्षाविदों की चर्चा करना
उपयुक्त प्रतीत होता है।
        पेस्टालॉजी ने लिखा है, “शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का प्राकृतिक समन्वित
एवं प्रगतिशील विकास है।”
रूसो का विचार है, “शिक्षा आभ्यान्तर की छिपी हुई शक्तियों का विकास है।”
फ्रोबेल के विचार में, “शिक्षा एक प्रक्रिया है, जिसका कार्य बालक की अर्तनिहित
शक्तियों को बाहर लाना है।”
       यदि ऊपर दी गई शिक्षा की परिभाषाओं को गांधी जी द्वारा दी गई परिभाषा से तुलना
की जाए तो यह ज्ञात हो जाता है कि गाँधी जी की परिभाषा शिक्षा के अर्थ को विस्तृत रूप
से स्पष्ट करती है। यह परिभाषा ‘सर्वांगीण’ तथा ‘सर्वोत्तम’ शब्दों पर उचित बल देती है।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 19. शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करने वाली डॉ. राधाकृष्णन और स्पेंसर की
परिभाषाओं का वर्णन कीजिए। इनकी परिभाषाओं में शिक्षा के क्या मूल्य हैं ?
उत्तर― डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा पर गहन चिन्तन किया और सभी पक्षों को ध्यान में
रखते हुए शिक्षा के प्रति एक संतुलित तथा व्यापक दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने कहा “अब
यह बात अधिकाधिक स्वीकार की जाने लगी है कि शिक्षा के प्रति सन्तुलित दृष्टिकोण का
विकास किया जाना चाहिए। मानसिक प्रशिक्षण के साथ-साथ, कल्पना-शक्ति और मनोभावों
को निर्मल बनाया जाना चाहिए। जिज्ञासु मस्तिष्क, अन्तानी हृदय, चेतनशील आत्मा और
छानबीन करने वाले विवेक का विकास किया जाना चाहिए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस
युग में हमें यह याद रखना चाहिए कि जीवन का वृक्ष लोहे के ढाँचे से बिल्कुल भिन्न है।
यदि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके निर्धनता को दूर करना चाहते हैं तो ललित
कलाओं द्वारा मस्तिष्क की हीनता को भी दूर किया जाना चाहिए। केवल भौतिक दरिद्रता ही
दु:ख का कारण नहीं है। हमें समाज के हितों को नहीं, वरन् मानव-हितों को भी सन्तुष्ट
करना चाहिए। सौन्दर्यात्मक और आध्यात्मिक उत्कर्ष, पूर्ण मानव के निर्माण में योग देता है।
मानव के निर्माणकारी पहलू का विकास कला द्वारा होता है। सारांश में, शिक्षा को मनुष्य और
समाज का निर्माण करना चाहिए।”
              इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए स्पेंसर ने लिखा है, “शिक्षा हमें ज्ञान
कराये कि हम अपने शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के साथ कैसा व्यवहार करें; अपने कार्यों
का प्रबन्ध किस प्रकार करें, अपने परिवार में किस प्रकार व्यवहार करें और प्रकृति द्वारा दिये
जाने वाले सुख के साधनों का किस प्रकार उपयोग करें; अपने और दूसरों के अधिकतम
लाभ के लिए सब शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करें।”
      ‘उपसंहार― शिक्षा की सर्वोत्तम परिभाषा किसे कहा जाए, यह एक विवादास्पद प्रश्न है।
शिक्षा की विभिन्न परिभाषाओं के अध्ययन से पता चलता है कि कहीं न कहीं कोई कमी
रह गई है, फिर भी इन सब परिभाषाओं में ऊपर दी गई दो परिभाषाएँ सबसे उत्तम प्रतीत
होती है, क्योंकि वह शिक्षा के प्रति एक सन्तुलित दृष्टिकोण रखती हैं।
      इन परिभाषाओं में मनुष्य के सर्वांगीण विकास की परिकल्पना की गई है। ये परिभाषाएँ
विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के विकास को आत्मा के विकास के साथ जोड़ती हैं। साथ ही व्यक्ति
तथा समाज दोनों के कल्याण की चिंता करती है। यथार्थवाद, प्रकृतिवाद, आदर्शवाद तथा
प्रयोगात्मकवाद के सिद्धान्तों में सामंजस्य स्थापित करती हैं।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 20. रविन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा दर्शन की चर्चा कीजिए। उनके अनुसार शिक्षा
के क्या उद्देश्य हैं?
उत्तर― टैगोर ने ‘शिक्षा’ का प्रयोग अत्यन्त व्यापक अर्थ में किया है। इन्होंने लिखा है
कि, “सर्वोच्च शिक्षा वही है जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित
करती है।”
        सम्पूर्ण सृष्टि से टैगोर का अभिप्राय यह है कि संसार में चर और अचर, जड़ और चेतन,
सजीव और निर्जीव सभी वस्तुएँ हैं। इन वस्तुओं से हमारे जीवन का सामंजस्य तभी हो सकता
है, जब हमारी सभी शक्तियाँ विकसित होती हैं और पूर्णता के उच्चतम बिन्दु तक पहुँचती
है। इसी को टैगोर ने ‘मनुष्यत्व’ कहा है। शिक्षा मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक, आर्थिक,
आध्यात्मिक विकास करती है।
                 टैगोर ने शिक्षा के व्यापक अर्थ में शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श “सा विद्या या
विमुक्तये” को भी स्थान दिया है। इस आदर्श से अभिप्राय है कि शिक्षा मनुष्य को आध्यात्मिक
ज्ञान देकर उसे जीवन और मरण से मुक्ति देती है। टैगोर ने इसे व्यापक रूप दिया है और
कहा है कि शिक्षा केवल आवागमन से नहीं वरन् सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मानसिक
दासता से मुक्ति प्राप्त करती है। अतएव मनुष्य को शिक्षा द्वारा उस सब ज्ञान का संग्रह
करना चाहिए, जिसे पूर्वजों ने संचित किया है। टैगोर के अनुसार यही सच्ची शिक्षा है। इन्होंने
लिखा है-“सच्ची शिक्षा संग्रह किए गए लाभप्रद ज्ञान के प्रत्येक अंग के प्रयोग करने
में, उस अंग के वास्तविक स्वरूप को जानने में और जीवन के लिए सच्चे आश्रय का
निर्माण करने में है।”
टैगोर के अनुसार शिक्षा कोई कृत्रिम वस्तु नहीं है, अपितु मनुष्य जीवन की एक अनिवार्य
आवश्यकता तथा सामाजिक प्रक्रिया है। जिसके द्वारा वह भौतिक प्रगति करता है और
आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति करता है। उनके अपने कथनानुसार सर्वोच्च शिक्षा वह है,
जो हमारे जीवन और समस्त सृष्टि के साथ सरसता स्थापित करता है। इस प्रकार शिक्षा को
तीन रूपों में निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है―
1. शिक्षा आत्म प्रकाश के रूप में― टैगोर का विश्वास था कि शिक्षा एक सुधारक
एवं व्यापक प्रक्रिया है, जो व्यक्ति में उत्तम गुणों का विकास करती है। सच्चे ज्ञान से
आत्म-प्रकाश तथा आत्मानुभूति होती है। टैगोर के शब्दों में, शिक्षा जीवन के साहसिक कार्यो
का स्थायी अंग है। यह विद्यार्थियों के सुविधानुसार अज्ञान-रोग के अस्पताल में दिए जाने
वाले दुःखमयी उपचार नहीं, बल्कि यह उसकी मानसिक शक्ति क स्वास्थ एवं प्राकृतिक
अभिव्यक्ति है।
2. शिक्षा एवं विकासशील प्रक्रिया― टैगोर के विचारानुसार शिक्षा प्रक्रिया में बच्चे
के व्यक्तित्व का अधिकतर विकास निहित है। उनकी दृष्टि में शिक्षा पूर्ण जीवन की प्राप्ति
के लिए मानव योग्यताओं का सर्वतोन्मुखी विकास है।
3. शिक्षा समन्वय के रूप में― टैगोर के अनुसार उच्चतम शिक्षा वह है, जो हमें केवल
सूचना ही नहीं प्रदान करती, बल्कि समस्त विश्व के साथ हमारा समन्वय स्थापित करती है
शिक्षा के उद्देश्य― शिक्षा के विषय में टैगोर का दृष्टिकोण बड़ा व्यापक था। वह उसके
द्वारा मनुष्य को भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक अनुभूति दोनों के योग्य बनाना चाहते थे। उनके
शिक्षा के उद्देश्यों से सम्बन्धित विचारों को हम निम्नलिखित शीर्षकों में व्यक्त कर सकते हैं―
(i) शारीरिक विकास―टैगोर ने अपने लेखों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से शिक्षा
के उद्देश्यों की चर्चा की है। उन्होंने “शिक्षा में हेरफरे’ नामक बंगला लेख में छात्रों के दुर्बल
शरीर पर तथा उनके दुर्बल स्वास्थ्य पर चिन्ता प्रकट की है। वह स्वस्थ शरीर को बहुत महत्त्व
देते थे। इस दृष्टि से उन्होंने शारीरिक विकास की शिक्षा के उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया।
उनका तो यहाँ तक कहना था कि शारीरिक विकास के लिए अध्ययन कार्य को भी छोड़ना
पड़े तो कोई विशेष बात नहीं है। वह चाहते थे कि बच्चों को प्रकृति के स्वस्थ वातावरण
में रखा जाए, उन्हें पेड़ों पर चढ़ने दिया जाए, तालाबों में डुबकयाँ लाने दिया जाए तथा प्रकृति
के साथ नाना प्रकार की शरारतें करने दी जाएँ। इससे उनका शारीरिक विकास होगा।
(ii) बौद्धिक विकास―टैगोर व्यक्ति के बौद्धिक विकास पर भी बल देते थे, परन्तु
बौद्धिक विकास से उनका अभिप्राय व्यापक था। बौद्धिक विकास से उनका तात्पर्य कुछ विषयों
का ज्ञान मात्र नहीं था, अपितु विभिन्न मानसिक शक्तियों के उस शक्तिशाली संगठन से था,
जिसके द्वारा मनुष्य विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है, उसमें उपयोगी तथा अनुपयोगी
तथ्यों को अलग-अलग करता है, नए-नए उपयोगी तथ्यों की खोज और निर्माण करता है
और अपने भौतिक जीवन को सुखमीय बनाने तथा आध्यात्मिक पूर्णता की भी अनुभूति करने
में सफल होता है। उनके विचार में यह बौद्धिक विकास वास्तविक जीवन की वास्तविक क्रियाओं
में सक्रिय भाग लेने से विकसित होता है।
(iii) नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास―टैगोर के अनुसार, “नैतिक तथा आध्यात्मिक
विकास शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।” उन्होंने नवयुवकों को तप और त्याग की भावना
विकसित करने का उपदेश दिया। उन्होंने नैतिक प्रशिक्षण, आत्म-संकल्प, शक्ति, चरित्र विकास,
आन्तरिक स्वतंत्रता आत्म प्रकाश के विकास पर बल दिया। शिक्षा को चाहिए कि वह मनुष्य
को मानसिक सन्तुष्टि और आत्मिक शक्ति की ओर ले जाए। नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास
से ही मनुष्य अपने सर्वोत्तम तत्व को समझ सकेगा और सच्चे मानव की भाँति सेवा कर
सकेगा।
(iv) समस्त विकास―टैगोर के अनुसार शिक्षा को मनुष्य की सभी शक्तियों-शारीरिक,
बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक के समस्त विकास को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। यह पूर्ण
मानवता की ओर संकेत करता है।
(v) उपयोगितावादी उद्देश्य―टैगोर ने शिक्षा के उपयोगितावादी उद्देश्य की भी अवहेलना
नहीं की। उनके अनुसार शिक्षा को हमें दैनिक समस्याओं का समाधान करने के योग्य बनाना
चाहिए। यह हमारे आर्थिक जीवन तथा आवश्यकताओं के अनुकूल होनी चाहिए।
(vi) वैयक्तिक विकास―टैगोर वैयक्तिकवादी व्यक्ति थे तथा शिक्षा के द्वारा मनुष्य की
समस्त छिपी हुई शक्तियों को विकसित करना चाहते थे। वह व्यक्ति को अपने विकास के
लिए स्वतंत्रता देना चाहते थे। उनके अनुसार अध्यापक का पहला कार्य बच्चे को वैयक्तिक
विशेषताओं तथा क्षमताओं का पता लगाना है और दूसरा कार्य उसे इनके विकास में सहायता
करना है।
(vii) सामाजिक विकास―टैगोर व्यक्ति तथा समाज में भेद नहीं करते थे। वह व्यक्तिगत
स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए समाज को एक अनिवार्य माध्यम मानते थे। उनके विचार में एक
मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ आध्यात्मिक सम्बन्ध होता है जिसके कारण वे एक-दूसरे
को कल्याण कामना से प्रेरित होकर सामाजिक संगठनों का निर्माण करते हैं। अत: आध्यात्मिक
अनुभूति के लिए मनुष्य का आध्यात्मिक विकास आवश्यक है। इसलिए उन्होंने अपनी शिक्षा
योजना में सामूहिक कार्यों और जनसेवा को सबसे अधिक महत्त्व दिया था।
(viii) आर्थिक विकास―टैगोर व्यक्ति को आर्थिक कुशलता प्रदान करने के लिए उद्योग
की शिक्षा पर भी बल देते थे। उन्होंने अपने शान्ति निकेतन में शिल्प कलाओं, हस्तकार्य और
कृषि को इसी दृष्टि से स्थान दिया है।
(ix) राष्ट्रीयता का विकास―टैगोर इस युग में राष्ट्रीय जागृति के प्रणेता थे। भावुक
हृदय टैगोर ने अपनी कविताओं तथा लेखों में देश प्रेम की ही अभिव्यक्ति नहीं की, अपितु
समस्त भारतवासियों को यह अनुभूति कराई कि वे एक हैं। इसलिए उन्होंने शिक्षा को सबसे
बड़ा साधन बनाया।
(x) अन्तर्राष्ट्रीयता का विकास―टैगोर मानवतावादी व्यक्ति थे। उनका कहना था कि
हम सब उस ईश्वर की सान्तान है, इसलिए सब समान हैं। हमारी संस्कृति तथा सभ्यता के
जो भी भेद हैं वे सब भौतिक हैं। इनमें जो भिन्नता है वह हमें एक दूसरे से पृथक नहीं करती,
अपितु हमें संसार की विविधता का ज्ञान कराती है। इस विविधता में ही एकता है। इस उद्देश्य
की प्राप्ति के लिए टैगोर ने शान्ति निकेतन में देश-विदेश की विभिन्नताओं और संस्कृतियों
की शिक्षा का विधान किया था। टैगोर अन्तर्राष्ट्रीय समाज तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण
के प्रणेता थे।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 21. ज्ञान मीमांसा क्या है ? इसमें उठने वाले प्रश्न किस प्रकार हमारे शिक्षण
एवं पठन-पाठन की प्रक्रिया में शामिल हैं सोदाहरण उत्तर दें।
उत्तर–पाश्चात्य दार्शनिक परंपरा में भी ज्ञान संबंधी समस्या दर्शनशास्त्र की एक प्रमुख
समस्या ही नहीं अपितु एक बुनियादी समस्या हैं ज्ञानमीमांसा को दर्शनशास्त्र की प्रमुख शाखा
माना गया है तथा इस संदर्भ में ज्ञान संबंध के अनेक प्रश्न विभिन्न समस्याएँ व शंकाएँ उठायी
जाती रही है तथा इसके परिणामस्वरूप चिंतन की नई धाराओं का प्रस्फुटन होता रहा है। दो
धाराओं-बुद्धिवादी व अनुभववादी की चर्चा करते हुए दयाकृष्ण कहते हैं―
            “पश्चिमी में बुद्धिवादी परम्परा ग्रीक दार्शनिक प्लेटो और उससे पहले पाईथोगोरस से
शुरू होकर जर्मन दार्शनिक हिंगल में अपनी सीमा पर पहुँचती है। इसके विपरीत इन्द्रिय संवेद्य
ज्ञान बुद्धि से स्वतंत्र है और केवल बुद्धि द्वारा अग्राह्य है। इसकी परम्परा साधारण इंग्लैण्ड
के दार्शनिक बेकन तथा लॉक से मानी जाती है। इसका चरम रूप लॉक के उस वाक्य में
समझा जाता है जो सारे ज्ञान का उद्भव इंद्रियानुभव में मानता है। इसकी चरम अवस्था, इस
मत में पहुँचती है कि शुद्ध बुद्धि द्वारा ग्राह्य ज्ञान जैसी कोई चीज नहीं है।”
          मूल समस्या ज्ञान के सत्यापन अथवा प्रामगी करण की है आखिर कैसे निश्चित किया
जाए कि प्राप्त किया गया ज्ञान निश्चित भ्रमरहित व यथार्थ हैं साथ ही प्रमाणित करने वाले
साधनों की प्रमाणिकता का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। पाश्चात्य परम्परा है अनुभववादी
विचारधारा में इन्द्रियों के अनुभवों अर्थात् प्रत्यक्ष पर आधारित ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान के रूप
में माना गया है। अतः इसके सत्यापन का प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जो ऐन्द्रिय अनुभूति
पर ही आश्रित है। इस ज्ञान को सूचनात्मक ज्ञान के रूप में जाना गया है। पाश्चात्य चिंतनधारा
में इस शाखा के प्रमुख प्रतिपादक जॉन लॉक के अनुसार कोई भी काल्पनिक अथवा व्यावहारिक
सिद्धांत पहले से विद्यमान नहीं होता अपितु उन्हें इन्द्रियों द्वारा प्राप्त किया जाता है। विभिन्न
वस्तुओं के प्रत्यय अथवा संकल्पनाएँ जन्मजात न होकर इन्द्रियों द्वारा अर्जित होती हैं। लॉक
का मानना है कि मनुष्य का मन एक कोरी स्लेट होती है। इसमें पहले से कोई विचार विद्यमान
नहीं होता है, बल्कि अनुभव ही सम्पूर्ण ज्ञान का आधार है। जॉन लॉक की ज्ञान-प्राप्ति की
प्रक्रिया के दो मार्ग हैं-1. संवेदना के द्वारा तथा 2. चिन्तन के द्वारा।
            संवेदना प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया है जिसमें हमारी इन्द्रियाँ बाहरी वस्तुओं के सम्पर्क में
आती हैं भारतीय दर्शन में इसे इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष प्रत्यक्षम् कहा गया हैं भौतिक पदार्थ शारीरिक
इन्द्रियों को उद्दीप्त करते हैं। इससे उत्पन्न उत्तेजना मस्तिष्क में पहुंचकर संवेदना उत्पन्न करती
है। यही संवेदनात्मक ज्ञान है। स्पष्ट ही है कि इसके अनुसार वस्तुओं की सत्ता मन से स्वतंत्र
है। संवेदना से बाहरी वस्तुओं का ज्ञान होता है।
     चिंतन द्वारा भीतरी परिस्थितियों का ज्ञान होता है। इसे एक प्रकार से अंतदर्शन की प्रक्रिया
माना गया है। इससे सुख दुःख संशय, निश्चय, विश्वास विचारणा आदि मानसिक परिस्थितियों
का ज्ञान होता है। लॉक के अनुसार संवेदना व चिन्तन द्वारा प्राप्त ये प्रत्यय सरल व बिखरे
हुए होते हैं, असंबंद्ध होते हैं, जिन्हें पुनः संगठित करने की अर्थात् संबद्ध करता हैं पुनसंगठन
का कार्य मन तुलना, पुनरावृत्ति आदि के आधार पर करता है। मन की यह सक्रिय अवस्था
है। इसके द्वारा संगठित प्रत्यय, जटिल प्रत्यय कहलाते हैं।
        इस प्रकार इंद्रियों के अनुभव के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अत: लॉक के
अनुसार ज्ञान असीमित न होकर सीमित है।
            शैक्षिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है, लॉक के अनुसार कि बच्चों में चिन्तन की प्रक्रिया
प्रारम्भ करने से पहले उनकी इन्द्रियों को सूचना प्राप्त करने के रूप में अधिक अनुभव लेने
का अभ्यास कराया जाना चाहिए। शिक्षण की प्रक्रिया में बच्चों के अनुभवों को महत्त्व देना
आवश्यक है। स्पष्ट ही है कि बच्चों की अवस्था आदि को भी ध्यान में रखना अनिवार्य होगा।
वस्तुतः यह प्रक्रिया स्थूल से समूल के प्रति जाने की प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में, जब तक
बच्चे वस्तुओं के यथार्थ, वास्तविक अवलोकनीय, मूर्त स्वरूप से परिचित न होंगे तब तक
वे अमूर्त विचारों की कल्पना न कर पाएंगे।
    इस प्रकार ज्ञान मीमांसा के प्रश्न हमारे पठन-पाठन की प्रक्रिया में शामिल है।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 22. महात्मा गाँधी के दार्शनिक विचारों की विवेचना कीजिए।
अथवा, महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर―गाँधी पर मुख्यतः भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने विचारों को
गीता, उपनिषद् जैसे प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के पढ़ने समझने तथा मनन करने के बाद
प्रकट किया। गाँधी जी के जीवन-दर्शन के निम्नलिखित तत्व हैं―
1. एकेश्वरवादी―महात्मा गाँधी का विश्वास ईश्वर में हैं उनकी दृष्टि में ईश्वर एक
है, उनके अनेक नाम हैं। वे कहते हैं कि “केवल ईश्वर ही स्वाभाविक है, विश्व माया रूप
है। केवल ईश्वर ही परिवर्तन के बीच में स्थिर बना रहता है।”
गाँधी जी की दृष्टि में ईश्वर सृष्टि में अन्तिम सत्य है।
2:आत्मा― इस सम्बन्ध में गाँधी जी कठोपनिषद् की बातों में विश्वास रखते थे, जिसमें
शरीर रूपी रथ से आत्मा योद्धा के सदृश हैं बुद्धि सारथी है, मन लगाम है। इन्द्रियाँ घोड़े
हैं और शब्द रूप, रस गन्ध और स्पर्श-क्षेत्र हैं। इस प्रकार आत्मा इन्द्रिय मन एवं बुद्धि के
साथ कार्य करती है। जीवन जाग्रत, स्वप्न, निद्रा एवं तृतीय अवस्थाओं में होता है। आत्मा
प्रेरक जीवन का आधार है।
3. प्रकृति-जगत्―प्रकृति या जगत् अनित्य है, ऐसा विश्वास गाँधी जी का था। गाँधी
जी के विचार में संसारसत् है, उसकी सत्ता व्यावहारिक है। व्यावहारिक सत्ता उनके विचार
में माया है। माया का अर्थ उन्होंने भ्रम नहीं रूपान्तर आभास माना है।
4. शाश्वत मूल्य―गाँधी जी का विश्वास जीवन के उन शाश्वत मूल्यों में है जिनसे
जीवन को बल मिलता है, सम्बल मिलता है। ये मूल्य मूलतः व्यावहारिक है और जन-जीवन
को प्रतिदिन की समस्याओं से इनका सम्बन्ध है।
5. सत्य―गाँधी जी के लिए “सत्य के अतिरिक्त अन्य कोई भगवान् नहीं है।”
वे सत्य को ईश्वर मानते हैं, न कि ईश्वर को सत्य। इसलिए वे कहते हैं। “सत्य ही
भगवान है।” सत्य अन्तिम साध्य है और अहिंसा, विनय, तप, साधना एवं त्याग इस साध्य
की प्राप्ति के साधन हैं।
6. अहिंसा―गाँधीजी अहिंसा के सच्चे पुजारी थे। “अहिंसा परमो धर्मः” के उपासक
थे। अहिंसा के द्वारा ही वे ईश्वर का दर्शन करना चाहते थे। गाँधी जी की अहिंसा का अर्थ
कायरता नहीं हैं वह एक नैतिक बल है, जिसके समक्ष प्रबलतम शक्ति भी झुक जाती है।
हिंसा पर विजय अहिंसा से ही हो सकती गाँधी जी ने अहिंसा के सिद्धान्त पर राष्ट्रीय
आन्दोलन का संगठन किया था।
      सत्य और अहिंसा एक-दूसरे से पृथक् न होकर अन्तर्सम्बन्धित है। अहिंसा साधन है और
सत्य साध्य है। श्री रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर के अनुसार, “गाँधी जी का सारा दर्शन सत्य
और अहिंसा पर अधिष्ठित है।”
7. प्रेम― गाँधी जी विश्व में प्रेम का अखण्ड साम्राज्य बनाना चाहते थे तथा मानव समाज
में प्रेम की पवित्र धारा बहाना चाहते थे। उन्होंने अपने को प्रेम की प्रतिमूर्ति बना लिया था
और इसलिए समाज के दलित एवं नीच कहलाने वाले ‘हरिजनों’ को वे गले लगाते थे। उन्होंने
प्रेम को अहिंसा का अंग माना है।
8. मानवतावाद-गाँधी जी मानव को सर्वोपरि मानते थे और बहुसंख्यक जनता को वे
‘दरिद्रनारायण’ की संज्ञा से अभिहित करते थे। वे मानव विकास की बाधाओं को मूलतः
नष्ट कर देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मानव सेवा को सबसे महत्त्वपूर्ण बताया उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में कहा, “मेरा धर्म ईश्वर की सेवा करना है और इस प्रकार मानवता की सेवा
करना है।”
9. धर्म और नैतिकता―गाँधी जी का विश्वास हिन्दू धर्म था। सनातनी हिन्दू होते हुए
भी सभी धर्मों के प्रति उनमें समान आदर भाव था। गांधी जी का सब धर्मों में निहित मूल
सत्य की एकता में विश्वास था। इसलिए अपने धर्म से भिन्न अन्य धर्म के सतत् अध्ययन
पर बराबर बल देते थे। वे यह नहीं मानते थे कि अन्य धर्मों के अध्ययन से अपने धर्म के
प्रति आस्था क्षीण होने लगती है। गाँधी जी ने नैतिकता को धर्म का आवश्यक तत्व माना
है। उन्होंने नैतिकता, आचारशास्त्र और धर्म के आंतरिक तथा पारस्परिक सम्बन्धों पर बहुत
बल दिया है। वे कहते हैं कि “नैतिकता बिना धर्म बालू की नींव पर खड़े मकान की भाँति
है और यदि नैतिकता से रहित हुआ तो यह उस टनटनाते हुए पीतल के घण्टे की तरह है,
जो खाली शोर करता है और सिर खाता है।”
10. व्यवस्था―गाँधी जी केन्द्रीयकरण के विरोधी थे। विकेन्द्रीकरण उनके आर्थिक दर्शन
का केन्द्र-बिन्दु हैं। वे चाहते थे कि समाज में धनी ही धन को न समेट लें। उसमें श्रमिकों
और मजदूरों को भी उचित हिस्सा मिलना चाहिए और उनके हितों की रक्षा के लिए धन
व्यय करना चाहिए। वे अपनी आर्थिक व्यवस्था द्वारा धनी गरीब का भेद-भाव मिटा देने के
पक्षपाती थे। महात्मा गाँधी की आर्थिक व्यवस्था की मुख्य बात यह है कि वे उत्पादन को
मानवीय आधार पर संगठन करना चाहते थे।
11. श्रम―महात्मा गाँधी श्रम को अत्यधिक महत्त्व देते थे। उनका कहना था कि प्रत्येक
मनुष्य को अपने परिश्रम की कमाई खानी चाहिए। श्रम को उन्होंने धन से श्रेष्ठ माना है, वे
कहते हैं “श्रम धन से बहुत अधिक श्रेष्ठ है। बिना श्रम के सोना, चाँदी अनुपयोगी भार के
समान है।”
12. सर्वोदय–गाँधी जी के सामाजिक विचार और मनुष्य के प्रत्यय की कुंजी केवल
एक शब्द ‘सर्वोदय’ में निहित है। इसका शाब्दिक अर्थ सभी का उत्थान से है। गाँधी जी
‘रामराज्य’ की स्थापना चाहते थे, जिनमें अन्याय, विद्वेष, घृणा, मत्सर का कहीं कोई चिह्न
नहीं होगा, जाति-पाँति, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब का भेद-भाव नहीं होगा, समता का अखण्ड
साम्राज्य होगा, व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन की नींव सत्य और अहिंसा की सुदृढ़ ईंटों पर
खड़ी होगी और किसी को कष्ट नहीं होगा। वे कहते थे कि मानव ‘अहं’ की भावना को
त्याग दे और ‘विश्वबन्धुत्व’ तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धानत को व्यावहारिक जीवन
में ढाल दें।’
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
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