F-1

समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

 

समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

प्रश्न 23. शिक्षा में गांधी जी के योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर―डॉ. के. जी. सैयदेन के अनुसार-“सौ-दो सौ या पाँच सौ वर्ष बाद जब इस
युग के महान् लोगों की सूची बनायी जायगी, तो जिन आधे दर्जन के लगभग लोगों को उसमें
स्थान मिल सकेगा, उनमें से एक गाँधी जी भी होंगे। वे विशालकाय नैतिक ढाँचे में ढले हुए
थे। सत्य और अहिंसा ही उनके महान् अस्त्र थे। मानव इतिहास में गाँधी जैसे ऐसे लोग अधिक
नहीं होंगे, जिन्होंने विविध क्षेत्रों में इतना अधिक काम किया हो। रवीन्द्रनाथ टैगोर की तरह
उन्होंने अपूर्व व्यक्तित्व की छाप भारतीय जीवन के अधिकतर पक्षों पर छोड़ी है और उनके
विचारों का प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर पड़ा।’
     शिक्षा में गाँधीजी के योगदान निम्न है―
1. सम्पूर्ण मानव को शिक्षित करने की महान् योजना का प्रतिपादन―गाँधी जी ने
एक ऐसी महान् योजना का प्रतिपादन किया जो सम्पूर्ण मानव को शिक्षित करने पर बल देती
है। उन्होंने इस योजना का सूत्रपात अपने दक्षिण अफ्रीका एवं भारत में शिक्षा के प्रयोग के
फलस्वरूप प्राप्त लम्बे अनुभवों के आधार पर किया। गाँधी जी ने टाल्सटाय फार्म, फोनिक्स
स्टेट, चम्पारन, साबरमती, गुजरात एवं वर्षा में नये प्रयोग किये और इन स्थानों पर चरित्र, ज्ञान एवं
क्रिया के विकास के लिए नये साधन खोजे। इन प्रयोगों के द्वारा उन्होंने हाथ, हृदय एवं मस्तिष्क
को प्रशिक्षित करने की योजना प्रस्तुत की ताकि सम्पूर्ण मानव को शिक्षित किया जा सके।
2. राष्ट्रीय शिक्षा की रूपरेखा प्रस्तुत करना―गाँधी जी ने भारत की सामाजिक एवं
राजनैतिक परिस्थितियों के अनुरूप राष्ट्रीय शिक्षा की योजना प्रस्तुत की जो भारत को न केवल
स्वतंत्र बनाने के लिए बल्कि सम्पूर्ण आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन को पुनर्जीवित
करने वाली थी। यह एक ऐसी शिक्षा प्रणाली थी जो देश की शिक्षा में एकरूपता उत्पन्न
करने वाली थी, जो भारतवासियों को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए आवश्यक थी।
3. बालक केन्द्रित शिक्षा―गाँधी जी का महत्त्वपूर्ण योगदान पहले से व्याप्त शिक्षा के
स्वरूप व्यवस्था और विधियों के विपरीत क्रान्तिकारी विचार प्रकट करना है। तत्कालीन शिक्षा
ने वालक के महत्त्व को समाप्त कर दिया था और वह केवल सूचनाओं का संग्रहकर्ता बनकर
रह गयी थी। उन्होंने बालक को शिक्षा में उपयुक्त स्थान दिया और शिक्षा को ‘बालक-केन्द्रित’
बनाया। रूसो भी बालक-केन्द्रित शिक्षा का पोषक था, परन्तु गाँधी और रूसो के विचारों
में अन्तर है। रूसो ने बालक की शिक्षा में सामाजिक और आर्थिक लाभों पर बल दिया, जबकि
गाँधी जी ने इनके साथ मनोवैज्ञानिक लाभों को भी महत्त्वपूर्ण बताया।
4. शिल्प केन्द्रित शिक्षा―शैक्षिक सिद्धान्त और व्यवहार के क्षेत्र में गाँधी जी की
महत्त्वपूर्ण वेन बेसिक शिक्षा अर्थात् मानव-हाथ को उचित स्थान प्रदान करना है। जे. बी.
कृपलानी के अनुसार, “जहाँ तक गाँधी जी द्वारा हस्त कौशल या शिल्प द्वारा शिक्षा देने का
सम्बन्ध है, वह एक मौखिक विचार है।” हस्त कौशल का विचार गाँधी जी ने प्राचीन भारतीय
शिक्षा से ग्रहण कर जिस उल्लेखनीय ढंग से आधुनिक शिक्षा में प्रतिपादित किया है, उससे
उनकी भी मौलिकता का ज्ञान होता है। उनका स्वयं कथन है कि “हस्तशिल्प को केवल
उत्पादन कार्य के रूप में नहीं पढत्रना है, बल्कि बालक के बौद्धिक विकास के लिए पढ़ाना
है।” वे पूर्ण ‘मनुष्य’ का विकास हस्तकौशल के द्वारा ही करना चाहते हैं। इस प्रकार वे प्रथम
कोटि के शिक्षाशास्त्री हैं।
    हस्तशिल्प में क्रिया की प्रधानता होती है, इसीलिए बालक क्रिया द्वारा सीखता है। रूसो
पश्चिम में ‘क्रिया द्वारा शिक्षा’ का अग्रदूत था, तो गाँधी जी पूर्व में हस्तशिल्प, श्रम का
महत्व और क्रियात्मक के कारण गाँधी जी की बुनियादी शिक्षा भारत के लिए सबसे बड़ी
देन है। उन्होंने स्वयं कहा है-“मैंने भारत को कई चीजें प्रदान की हैं लेकिन अपनी प्रविधियों
के साथ शिक्षा की यह योजना जैसा कि अनुभव करता हूँ. उनमें श्रेष्ठ है। मैं नहीं समझता
कि इससे अच्छी और कोई चीज मेरे पास देश को देने के लिए है।
5. शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान करना―गाँधी जी का एक महत्त्वपूर्ण योगदान
यह है कि उन्होंने शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान किया। इसके लिए उन्होंने हस्तकौशल
पर आधारित पाठ्यक्रम का निर्माण किया। उनसे प्रोत्साहन पा कर आज ग्रामीण देश भारत
में कुटीर उद्योग धन्धे की तरफ विशेष ध्यान दिया जा रहा है। विद्यालयों में व्यावसायिक शिक्षा
की ओर ध्यान देकर प्रतिदिन शिक्षा को व्यावहारिक बनाने का प्रयास किया जा रहा है, जो
कि भारत जैसे विकसित देश के लिए आवश्यक है।
6. शिक्षा के विभिन्न अंगों के सम्बन्ध में संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण―गाँधी जी ने
एकांकी दृष्टिकोण से बचकर शिक्षा के विभिन्न अंगों तथा शिक्षा की अवधारणा, शिक्षण के
उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण-पद्धति, शिक्षक, विद्यार्थी, अनुशासन आदि के सम्बन्ध में
संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाया। उनका विचार था कि आदर्शवादी, प्रकृतिवादी, प्रयोजनवादी
एवं यथार्थवादी ये भी विचारधाराएँ व्यावहारिक दृष्टिकोण से एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं,
बल्कि वे शिक्षा के विभिन्न अंगों को अधिकाधिक स्पष्ट एवं व्यावहारिक बनाने में होती है।
डॉ पटेल के अनुसार-“गाँधी जी के दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद एवं प्रयोजनवाद
एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं।”
7. सर्वोदय―गाँधी जी की महत्त्वपूर्ण देन उनका ‘सर्वोदय’ अर्थात् ‘सभी के उत्थान’
का विचार है। वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें अन्याय, घृणा, जाति-भाँति
और अमीर-गरीब का कोई चिह्न नहीं होगा।
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प्रश्न 24. रवीन्द्रनाथ टैगोर के बताये गये शिक्षा के उद्देश्यों को बताते हुए उनकी
शैक्षिक विचारधारा पर प्रकाश डालें।
उत्तर―टैगोर ने अपने लेखों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा
की हैं उन्होंने ‘शिक्षा में हेरफेर’ नामक बंगला लेख में छात्रों के दुर्बल शरीर पर तथा उनके
दुर्वल स्वास्थ्य पर चिन्ता प्रकट की हैं वह स्वस्थ शरीर को बहुत महत्त्व देते थे। इस दृष्टि
से उन्होंने शारीरिक विकास की शिक्षा को उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया है।
उनके अनुसार शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बौद्धिक विकास होना चाहिए। पुस्तकीय शिक्षा
का वे विरोध करते दिखाई पड़ते हैं तथा स्वतंत्र चिन्तन का समर्थन करते हैं। स्मृति पर अधिक
भार न डालकर चिन्तन एवं कल्पना की शक्तियों का विकास आवश्यक है।
            ‘शिक्षा-समस्या’ में वे सच्चे अनुशासन का विश्लेषण करते हुए व्यक्ति के नैतिक एवं
आध्यात्मिक विकास पर बल देते हैं। वे युवकों को तपस्या एवं दृढ़ भक्ति की भावना का
विकास करने का परामर्श देते हैं। इस प्रकार की भावना तभी सम्भव है, जबकि व्यक्ति
आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास करे और अपनी आत्मा को सभी प्रकार की दासता से मुक्त
करे। इस प्रकार टैगोर गुलामी को समाप्त करना आध्यात्मिक विकास के लिए बहुत आवश्यक
समझते थे।
        टैगोर एक उच्च कोटि के अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थे। उन्होंने पूरब और पश्चिम का अभूतपूर्व
समन्वय स्थापित करने का प्रयल किया। उनके द्वारा स्थापित ‘विश्व-भारती’ सच्चे अर्थ में
विश्व-भारती है। इस दृष्टि से वे शिक्षा द्वारा बालकों में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास
करने में रुचि लेते हुए दिखाई पड़ते हैं।
        पाठ्यक्रम : टैगोर ने पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने का परामर्श दिया है। उनके अनुसार
पाठ्यक्रम को इतना व्यापक होना चाहिए कि बालक के जीवन के सभी पक्षों का विकास
हो सके। टैगोर ने किसी निश्चित पाठ्यक्रम की योजना नहीं बनायी। उन्होंने पाठ्यक्रम के
सम्बन्ध में सामान्य विचार यत्र-तत्र प्रस्तुत किये हैं और उन्हीं के आधार पर यह कहा जा
सकता है कि वे सांस्कृतिक विषयों को बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान देते थे। विश्व-भारतीय में इतिहास,
भूगोल, विज्ञान, साहित्य, प्रकृति अध्ययन आदि की शिक्षा तो दी ही जाती है, साथ में अभिनय,
क्षेत्रीय अध्ययन, भ्रमण, ड्राइंग, मोलिक रचना, संगीत, नृत्य आदि की शिक्षा का भी विशेष
प्रबन्ध है।
           यदि किसी को यह अवसर मिले कि वह शान्ति-निकेतन जाये और विश्व-भारतीय के
पाठ्यक्रम के व्यावहारिक रूप को देखे तो उसे यह विश्वास हो जायेगा कि शान्ति-निकेतन
शिक्षा-प्रणाली में पाठ्यक्रम विषय-केन्द्रित नहीं है। विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ वहाँ देखने को
मिलेगी। ड्राइंग, परिभ्रमण, प्रयोगशाला के कार्य, गायन, नृत्य, प्रात:कालीन प्रार्थना,
सरस्वती-यात्राएँ, छात्रों का स्वशासन, खेल-कूद, समाज-सेवा आदि क्रियाएँ पाठ्यक्रम के अंग
की भाँति ही हैं। इसीलिए विश्व-भारतीय के पाठ्यक्रम को अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम ही माना
जायेगा। इसका श्रेय टैगोर को ही है।
        शिक्षण-विधि―टैगोर बालक की असीम शक्ति एवं जिज्ञासा के प्रति आस्था प्रकट करते
हैं। वे बालक की अनन्यता में विश्वास करते हैं और कहते हैं कि प्रत्येक बालक की व्यक्तिगत
भिन्नता को ध्यान में रखकर उसकी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये।
        वे बालक को पूर्ण स्वतंत्रता देने को समर्थन करते हैं। उनका विचार है कि बालकों में
विशेष प्रकार की आदतें डालकर उन आदतों का उन्हें दास न बनाया जाये।
      उनका कथन है कि शिक्षण सजीव होना चाहिए। शिक्षण में सजीवता लाने के लिए बालक
रुचियों एवं संवेगों पर ही विधि आधारित हो। यहाँ पर संवेगों पर ध्यान देना चाहिए।
        शिक्षण जीवन की यथार्थ परिस्थितियों द्वारा दिया जाना चाहिए। जहां तक सम्भव हो
इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि का शिक्षण प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ही प्रदान किया जाये। भ्रमण,
दृश्य-दर्शन आदि प्रविधियों द्वारा शिक्षा में यथार्थ दृष्टिकोण का विकास किया जा सकता है।
शिक्षण-विधि का अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्रिया-सिद्धान्त है। टैगोर शरीर और मस्तिष्क
की शिक्षा के लिए क्रिया को आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार बालक को किसी हस्तकला
में अवश्य प्रशिक्षित किया जाये। वे पेड़ पर चढ़ने, कूदने, बिल्ली या कुत्ते के पीछे दौड़ने,
फल तोड़ने, हँसने, चिल्लाने, ताली बजाने या अभिनय करने को शिक्षण की आवश्यक प्रविधिया
युक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
      टैगोर की शैक्षिक विचारधारा की कुछ विशेषताएँ―टैगोर ने अपने लेखों में तत्कालीन
शिक्षण-प्रणाली की कटु आलोचना की और इसको काल्पनिक, विदेशी, पुस्तकीय एवं अनुपयुक्त
कहा। वे शिक्षा को भारतीय संस्कृति पर आधारित करना चाहते थे और शिक्षा के माध्यम
के रूप में उन्होंने मातृभाषा का समर्थन किया है। संगीत, अभिनय, कला, आदि पर विशेष
बल दिया। शिक्षा के क्षेत्र में वे भारतीय विचारधारा का समर्थन करते हुए भी मानवतावादी
दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर अन्तर्राष्ट्रीयता का विकास करना चाहते थे। उन्होंने प्रेम एवं
सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया और इन्हें उच्च शैक्षिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया।
टैगोर का सम्मान एक महाकवि के रूप में है। वे गीतांजलि-रचयिता एवं नोबेल पुरस्कार
विजेता के रूप में भुलाए नहीं जा सकते। वे एक दार्शनिक थे। सत्यम्, शिवम् एवं अद्वैतम्
के व्याख्याकार के रूप में भी वे हमारे सामने आते हैं। किन्तु इन महान् योगदानों के अतिरिक्त
भारत के लिए इनका एक और योगदान है, जिसे भूलना भारतीय इतिहास के सत्य को ही
भुला देना होगा। टैगोर एक शिक्षक के रूप में भी हमारे समक्ष आते हैं। वे ‘गुरुदेव’ थे।
गुरुदेव के रूप में उनका महान् योगदान शान्ति-निकेतन प्रणाली के रूप में है। भारतीय शिक्षा
में यह एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। गुरुदेव के रूप में टैगोर तत्कालीन शिक्षा प्रणाली से अत्यन्त
असन्तुष्ट थे। उन्होंने शिक्षा के कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया और बाद में उन्हें अपने
शान्ति-निकेतन प्रयोग में व्यवहृत किया। विश्वभारती उनकी शैक्षिक विचारधारा का व्यावहारिक
रूप है। यह टैगोर के गुरुदेवत्व का प्रतीक है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता
है कि टैगोर शिक्षा के क्षेत्र में भी कोरे सिद्धान्तवादी न होकर व्यावहारिक शिक्षाशास्त्री थे।
मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की बात करके, अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध की शिक्षा पर बल देकर
वैदिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए शिक्षा की बात करके तथा अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम
पर बल देकर वे अपने समय की शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करना चाहते थे।
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प्रश्न 25. गिजुभाई बधेका के जीवन एवं कार्यों की समीक्षा कीजिए।
अथवा, गिजुभाई बालकों के गाँधी कहलाते थे। स्पष्ट कीजिए।
अथवा, गिजुभाई ने तत्कालीन शैक्षिक दशा पर जो प्रकाश डाला है। उसका संक्षेप
में वर्णन कीजिए।
उत्तर–जीवन तथा कार्य―गिजुभाई का जन्म 15 नवम्बर, सन् 1885 ई. को हुआ था।
गुजरात में इस बालक के जन्म के सोलह वर्ष पूर्व महात्मा गाँधी ने भी जन्म लिया था, जिन्होंने
बाद में देश-विदेश में अत्यधिक ख्याति प्राप्त की और राष्ट्रपिता कहलाये। गिजुभाई का जन्म
सौराष्ट्र के चितलगाँव में हुआ था। उनका पूरा नाम था गिरजाशंकर भगवान जी बधेका। इस
पूरे नाम की अपेक्षा लोग उन्हें गिजुभाई कहकर ही पुकारते थे।
      गिजुभाई ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वकालत का पेशा प्रारम्भ किया। वकालत
में वे खूब मन लगाकर केस की बारीकी से अध्ययन करके मुदमे में बहस करते थे। किन्तु
वकालत में उनका मन अधिक दिन तक नहीं लग सका। उन्होंने वकालत छोड़ दी और शिक्षक
बन गये। शिक्षा के क्षेत्र में पदार्पण करने के बाद उनकी अदालत अब माता-पिता, परिवार
व विद्यालय बन गया और उन्होंने उन सुकूमारमति बालकों की वकालत करने का बीड़ा उठाया
जो अपने परिवार में कुछ कह नहीं पाते थे और बहुत से बच्चों को अपने माता-पिता के
अत्याचारों को सहन करना पड़ता था। बच्चों के दुःख का यहीं अन्त नहीं था। उन्हें विद्यालय
में पढ़ाई के नाम पर डाँट-फटकार तथा हिंसा का शिकार होना पड़ता था। इन सबके विरुद्ध
माता-पिता व शिक्षकों की अदालत में उन्होंने बालकों के पक्ष में वकालत की और बच्चों
की शिक्षा पर गम्भीर चिन्तन किया, प्रचुर साहित्य का निर्माण किया और बालकों के जीवन
को सुखमय बनाने का भरसक प्रयास किया।
शिक्षा के क्षेत्र के इस कर्मठ कार्यकर्ता व नायक का 54 वर्ष की आयु में 23 जून,
1939 ई. को निधन हो गया। बालकों के एक प्रबल समर्थक, साथी एवं उन्नायक के निधन
से बालकों की शिक्षा की अपूरणीय क्षति हो गई।
तत्कालीन शैक्षिक दशा
          सन् 1835 ई. में मैकाले का वितरण-पत्र प्रस्तुत हो चुका था। 1854 के वुड घोषणा
पत्र ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति का ढाँचा स्वीकृत कर दिया था। इन लोगों को व ब्रिटिश
शासकों को विश्वास था कि वे करोड़ों भारतीयों के दिल-दिमाग को अंग्रेजी शिक्षा द्वारा पूरी
तरह बदल देंगे। मैकाले ने गर्वपूर्वक अपने पिता को लिखे पत्र में घोषणा की थी―
                “मुझे पक्का विश्वास है कि यदि शिक्षा की हमारी योजना को आगे बढ़ाया गया तो
तीस वर्ष बाद बंगाल के सम्भ्रान्त वर्गों में एक भी मूर्तिपूजक शेष नहीं रहेगा और यह परिणाम
बिना किसी धर्मातरण के, बिना उसकी धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किये ही निकल सकेगा।”
            अलेक्जेंडर व डफ ने 1835 में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा था―
“जब रोमन लोग किसी नये प्रदेश को जीतते थे तो वे तुरन्त उसका रोमनीकरण करने
में जुट जाते थे। अर्थात् वे अपनी अधिक विकसित भाषा और साहित्य के प्रति रुचि जगाकर
विजेता लोगों के संगीत, रोमांस, इतिहास, चिन्तन और भावनाओं, यहाँ तक कल्पनाओं को
भी रोमन शैली में प्रवाहित होने की स्थिति उत्पन्न कर देते थे, जिससे रोमन हितों का पोषण
व सुरक्षा होती थी। क्या रोम इसमें सफल नहीं हुआ ?
        अंग्रेजों की सांस्कृतिक विजय की यह तमन्ना आंशिक रूप से ही पूरी हो रही थी। भारत
में भारतीयों के मन में इस शिक्षा के प्रति आक्रांश था। श्रीमती ऐनी बेसेन्ट ने राष्ट्रीय शिक्षा
आन्दोलन को गति प्रदान की। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, श्री अरविन्द, लाला लाजपत
राय, विपिनचन्द्र पाल, लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी आदि ने राष्ट्रीय शिक्षा की वकालत
की। राष्ट्रीय जागरण की लहर चल पड़ी।
            राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए गुरुकुल संस्थाएँ, डी ए जी. कॉलेज, विद्यापीठ
निरन्तर प्रयास करने लगे। राष्ट्रीय शिक्षा परिषद्, रामकृष्ण मिशन, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज
जैसी अनेक संस्थाएँ भारतीय शिक्षा में राष्ट्रीय प्रयोग करने लगीं।
       दक्षिणामूर्ति विद्यार्थी भवन―उपर्युक्त राष्ट्रीय शिक्षा और राष्ट्रीय आन्दोलन को गति प्रदान
करने के लिए देशभर में अनेक संस्थाओं ने जन्म लिया। भावनगर, गुजरात में भी एक ऐसी
संस्था थी जिसका नाम था-दक्षिणामूर्ति विद्यार्थी भवन। यह संस्था राष्ट्रीय शिक्षा देने के लिए
संगठित हुई थी। इस संस्था में गिजुभाई के मामा श्री हरगोविन्द पण्ड्या भी कार्य करते थे।
उन्होंने गिजुभाई को प्रेरित किया कि वे इस संस्था के सदस्य बन जायें। फलतः सन् 1936
में गिजुभाई इस संस्था के आजीवन सदस्य बन गये। उस समय वे केवल 31 वर्ष के थे।
इस संस्था द्वारा एक बाल भवन चलाया जाता था जिसका नाम था विनय भवन। इसी विनय
भवन के आचार्य के रूप में गिजुभाई ने कार्य प्रारम्भ किया।
          बालकों के गाँधी―दक्षिणामूर्ति विद्यार्थी भवन में विनय-भवन के आचार्य के रूप में
चार वर्ष तक कार्य करने के बाद सन् 1920 में गिजुभाई ने दक्षिणामूर्ति विद्यार्थी भवन में
एक बाल-मन्दिर की स्थापना की और इस बाल-मन्दिर 21 वर्ष की आयु से लेकर 6 वर्ष
की आयु वाले बच्चों को रखा। उनके बीच उन्होंने शिक्षा प्रदान की।
        उस समय देश में गाँधी जी की आँधी प्रारम्भ हो गई थी। स्वराज्य आन्दोलन को गाँधी
जी का नेतृत्व मिल गया था। गाँधी जी की प्रेरणा से देश में राष्ट्रीयकता को लहर चल पड़ी
थी। महात्मा गाँधी ने स्पष्ट कहा था कि उनके राष्ट्रीय आन्दोलन का एक प्रमुख अंग शिक्षा सुधार
है। गाँधी जी के इस शैक्षिक प्रयोग पर सन् 1985 ई. में लेखक ने एक लम्बा लेख लिखा
था जो ‘मंथन’ के राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। उसके प्रारम्भिक
अंश को यहाँ पर देना प्रासंगिक होगा।
भारतीय शैक्षिक क्षितिज पर गाँधी जी के अवतरण के पूर्व ही अनेक शिक्षा-चिन्तकों ने
आंग्ल शिक्षा प्रणाली की व्यर्थता का अनुभव करते हुए तत्कालीन शिक्षा प्रणाली को कटु
आलोचना की थी। भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करने, युवकों में स्वदेश-प्रेम का स्फेरण करने
एवं शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के लिए उस समय यह अनुभव किया जा रहा था कि सात
समुद्र पार से लाई गई शिक्षा प्रणाली के विकल्प के रूप में कोई राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली विकसित
की जाये। कुछ प्रयोग इस दिशा में किये जा रहे थे। ऐसे ही समय में सन् 1914 में गाँधी जी
जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो कुछ समय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शैक्षिक प्रयोग शान्ति
निकेतन के सान्निध्य में रहे। वहाँ पर गाँधी जी के विचारों के अनुसार कुछ दिनों के कार्य
को देखकर गुरुदेव ने कहा था “गाँधी जी के इस प्रयोग में स्वराज्य की कुंजी है।”
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 26. रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों में तथा गाँधी के विचारों में क्या अन्तर
है, जबकि दोनों लगभग समकालीन थे। तर्कपूर्ण उत्तर दें।
उत्तर―गाँधीजी पर मुख्यतः भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने विचारों
को गीता, उपनिषद् जैसे प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के पढ़ने समझने तथा मनन करने के
बाद प्रकट किया। गाँधी जी के जीवन-दर्शन के निम्नलिखित तत्व हैं―
1. एकेश्वरवादी–महात्मा गाँधी का विश्वास ईश्वर में है। उनकी दृष्टि में ईश्वर एक
है, उनके अनेक नाम हैं। वे कहते हैं कि “केवल ईश्वर ही स्वाभाविक है, विश्व माया रूप
है। केवल ईश्वर ही परिवर्तन के बीच में स्थिर बना रहता है।”
          गाँधी जी की दृष्टि में ईश्वर सृष्टि में अन्तिम सत्य है।
2. आत्मा―इस सम्बन्ध में गाँधी जी कठोपनिषद् की बातों में विश्वास रखते थे, जिसमें
शरीर रूपी रथ व आत्मा योद्धा के सदृश है। बुद्धि सारथी है, मन लगाम है। इन्द्रियाँ घोड़े
हैं और सब्र रूप, रस गन्ध और स्पर्श-क्षेत्र हैं। इस प्रकार आत्मा इन्द्रिय मन एवं बुद्धि के
साथ कार्य करती है। जीवन जाग्रत, स्वप्न, निद्रा एवं तृतीय अवस्थाओं में होता है। आत्मा
प्रेरक जीव का आधार है।
3. प्रकृति-जगत्―प्रकृति या जगत् अनित्य है, ऐसा विश्वास गाँधी जी का था। गाँधी
जी के विचार में संसार सत् है, उसकी सत्ता व्यावहारिक है। व्यावहारिक सत्ता उनके विचार
में माया है। माया का अर्थ उन्होंने भ्रम नहीं रूपान्तर आभास माना है।
4. शाश्वत मूल्य―गाँधी जी का विश्वास जीवन के उन शाश्वत मूल्यों में है जिनसे
जीवन को बल मिलता है, सम्बल मिलता है। ये मूल्य मूलतः व्यावहारिक है और जन-जीवन
को प्रतिदिन की समस्याओं से इनका सम्बन्ध है।
5. सत्य-गाँधी जी के लिए “सत्य के अतिरिक्त अन्य कोई भगवान् नहीं है।”
वे सत्य को ईश्वर मानते हैं, न कि ईश्वर को सत्य। इसलिए वे कहते हैं। “सत्य ही
भगवान है।” सत्य अन्तिम साध्य है और अहिंसा, विनय, तप, साधना एवं त्याग इस साध्य
की प्राप्ति के साधन हैं।
6. अहिंसा―गाँधीजी अहिंसा के सच्चे पुजारी थे। “अहिंसा परमो धर्मः’ के उपासक
थे। अहिंसा के द्वारा ही वे ईश्वर का दर्शन करना चाहते थे। गाँधी जी की अहिंसा का अर्थ
कायरता नहीं हैं वह एक नैतिक बल है, जिसके समक्ष प्रबलतम शक्ति भी झुक जाती है।
हिंसा पर विजय अहिंसा से ही हो सकती है। गाँधी जी ने अहिंसा के सिद्धान्त पर ही राष्ट्रीय
आन्दोलन का संगठन किया था।
    सत्य और अहिंसा एक-दूसरे से पृथक् न होकर अन्तर्सम्बन्धित है। अहिंसा साधन है और
सत्य साध्य है। श्री रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर के अनुसार, “गाँधी जी का सारा दर्शन सत्य
और अहिंसा पर अधिष्ठित है।”
7.प्रेम― गाँधी जी विश्व में प्रेम का अखण्ड साम्राज्य बनाना चाहते थे तथा मानव समाज
में प्रेम की पवित्र धारा बहाना चाहते थे। उन्होंने अपने को प्रेम की प्रतिमूर्ति बना लिया था
और इसलिए समाज के दलित एवं नीच कहलाने वाले ‘हरिजनों’ को वे गले लगाते थे। उन्होंने
प्रेम को अहिंसा का अंग माना है।
8. मानवतावाद―गाँधी जी मानव को सर्वोपरि मानते थे और बहुसंख्यक जनता को वे
‘दरिद्रनारायण’ की संज्ञा से अभिहित करते थे। वे मानव विकास की बाधाओं को मूलतः
नष्ट कर देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मानव सेवा को सबसे महत्त्वपूर्ण बताया उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में कहा, “मेरा धर्म ईश्वर की सेवा करना है और इस प्रकार मानवता की सेवा
करना है।”
9. धर्म और नैतिकता—गाँधी जी का विश्वास हिन्दू-धर्म था। सनातनी हिन्दू होते हुए
भी सभी धर्मों के प्रति उनमें समान आदर भाव था। गाँधी जी का सब धर्मों में निहित मूल
सत्य की एकता में विश्वास था। इसलिए अपने धर्म से भिन्न अन्य धर्म के सतत् अध्ययन
पर बराबर बल देते थे। वे यह नहीं मानते थे कि अन्य धर्मों के अध्ययन से अपने धर्म के
प्रति आस्था क्षीण होने लगती है। गाँधी जी ने नैतिकता को धर्म का आवश्यक तत्व माना
है। उन्होंने नैतिकता, आचारशास्त्र और धर्म के आंतरिक तथा पारस्परिक सम्बन्धों पर बहुत
बल दिया है। वे कहते हैं कि “नैतिकता बिना धर्म बालू की नींव पर खड़े मकान की भाँति
है और यदि नैतिकता से रहित हुआ तो यह उस टनटनाते हुए पीतल के घण्टे की तरह है,
जो खाली शोर करता है और सिर खाता है।”
10. व्यवस्था―गाँधी जी केन्द्रीयकरण के विरोधी थे। विकेन्द्रीकरण उनके आर्थिक दर्शन
का केन्द्र-बिन्दु हैं। वे चाहते थे कि समाज में धनी ही धन को न समेट लें। उसमें श्रमिकों
और मजदूरों को भी उचित हिस्सा मिलना चाहिए और उनके हितों की रक्षा के लिए धन
व्यय करना चाहिए। वे अपनी आर्थिक व्यवस्था द्वारा धनी गरीब का भेद-भाव मिटा देने के
पक्षपाती थे। महात्मा गाँधी की आर्थिक व्यवस्था की मुख्य बात यह है कि वे उत्पादन को
मानवीय आधार पर संगठन करना चाहते थे।
11. श्रम―महात्मा गाँधी श्रम को अत्यधिक महत्व देते थे। उनका कहना था कि प्रत्येक
मनुष्य को अपने परिश्रम की कमाई खानी चाहिए। श्रम को उन्होंने धन से श्रेष्ठ माना है, वे
कहते हैं “श्रम धन से बहुत अधिक श्रेष्ठ है। बिना श्रम के सोना, चाँदी अनुपयोगी भार के
समान है।”
12. सर्वोदय—गाँधी जी के सामाजिक विचार और मनुष्य के प्रत्यय की कुंजी केवल
एक शब्द ‘सर्वोदय’ में निहित है। इसका शाब्दिक अर्थ सभी का उत्थान से है। गाँधी जी
‘रामराज्य’ की स्थापना चाहते थे, जिनमें अन्याय, विद्वेष, घृणा, मत्सर का कहीं कोई चिह्न
नहीं होगा, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब का भेद-भाव नहीं होगा, समता का अखण्ड
साम्राज्य होगा, व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन की नींव सत्य और अहिंसा की सुदृढ़ ईंटों पर
खड़ी होगी और किसी को कष्ट नहीं होगा। वे कहते थे कि मानव ‘अहं’ की भावना को
त्याग दे और ‘विश्वबन्धुत्व’ तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्त को व्यावहारिक जीवन
में ढाल दें।’
          टैगोर का जीवन-दर्शन―टैगोर परमपुरुष में आस्था रखते थे और विश्व की सर्वोच्च
शक्ति के रूप में उस महापुरुष को स्वीकार करते थे। उनके लिए परमपुरुष सत्यम्, शिवम्
एवं अद्वैतम्. का प्रतीक है। अद्वैतवादी तथा ब्रह्मवादी होते हुए भी वे सर्वोच्च सत्ता को व्यक्तित्व
प्रदान करते हैं। एक समय वे परम-सत्य को सूक्ष्म मानते हैं तो दूसरे समय वे उसे उपास्य
एवं प्रिय स्थूल मानते हैं। वे प्रेम के रहस्य को समझकर उसी सर्वोच्चता को स्वीकार करते
हैं। सृष्टि में सामंजस्य है तो व्यक्तित्व में भी सामंजस्य होना चाहिए।
      टैगोर मानव में आस्था रखते थे और उन्हें उच्च कोटि का मानवतावादी कहा जा सकता
है। एक महाकवि होने के नाते उन्होंने संवेगों एवं भावों के दमन का परामर्श नहीं दिया है
वरन् व्यक्ति की सभी शक्तियों के सामंजस्यपूर्ण विकास का समर्थन किया है।
      राष्ट्रीय सृजन एवं सामाजिक सुधार में वे गाँवों को प्रमुखतम स्थान देते थे। देश-सेवा
का महत्वपूर्ण कार्य ग्राम सेवा है, किन्तु यह ग्राम-सेवा ग्रामीणों पर कृपा के रूप में नहीं होनी
चाहिए। सेवा में भी ग्रामीणों को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए। ग्रामों तथा शहरों के बीच
की खाई को पाटना चाहिए। जाति-पाँति एवं अस्पृश्यता का भी वे विरोध करते थे। बड़े-बड़े
शहरों की अपेक्षा कस्बों के रहन-सहन का वे समर्थन करते थे।
          टैगोर व्यक्ति के सम्मान एवं उसकी स्वतंत्रता में आस्था रखते थे। वे धर्म, भाषा तथा
लिंग के आधार पर कोई भेदभाव स्वीकार नहीं करते थे। उनका कथन था कि सहयोग से
व्यक्ति एवं राष्ट्र की निर्धनता समाप्त हो सकती हैं पराधीनता की बेड़ी को वे काटना चाहते
थे, किन्तु उनका कथन था कि यदि देश आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से स्वावलम्बी एवं
स्वतंत्र हो जायेगा तो राजनैतिक स्वतंत्रता अपने आप प्राप्त हो जायेगी।
          टैगोर का शिक्षा-दर्शन―टैगोर ने शिक्षा के सिद्धान्तों की खोज अपने अनुभव से की
है। “विश्वभारती’ के संस्थापक के रूप में वे एक व्यावहारिक शिक्षाशास्त्री होने का परिचय
देते हैं। शिक्षाशास्त्र में उनकी देनों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे एक उच्च
काटि के शिक्षाशास्त्री थे, यद्यपि उन्होंने अध्यापन का पेशा कभी नहीं ग्रहण किया।
   टैगोर ने भारतीय शिक्षा में एक नये प्रयोग का सूत्रपात किया। वे भारतीय आदर्शों से प्रभावित
तो थे ही, पाश्चात्य विचारों के प्रति भी वे जाग्रत थे। उन्होंने अपने शैक्षिक प्रयोग को प्रारम्भ
करने से पहले रूसी के विचारों से, फ्रोबेल के किण्डरगार्टन स्कूल से तथा डीवी की शैक्षिक
विचारधारा से अवश्य परिचय प्राप्त किया होगा, कन्तु इनके सिद्धान्तों को वे सर्वत्र सत्य मानने
को तत्पर न हुए होंगे। इस प्राक्कल्पना का आधार यह है कि उन्होंने अपने शान्ति-निकेतन
में किसी पाश्चात्य शैक्षिक विचारधारा का अन्धानुकरण नहीं किया और न ही अपने विद्यालय
को किसी पश्चिमी शिक्षा-प्रणाली पर आधारित किया। उन्होंने अपने शिक्षा-सिद्धान्तों की स्वयं
खोज की थी। उनके शैक्षिक विचार उनके स्वानुभव पर आधारित थे।
        टैगोर प्रकृतिवादी थे। किन्तु उनका प्रकृतिवाद रूसों के प्रकृतिवाद से भिन्न था। रूसो
ने समाज को सभी बुराइयों की जड़ मानकर समाज और सामाजिक जीवन का घोर विरोध
किया था, किन्तु टैगोर के हृदय में समाज के प्रति प्रेम व दया का भाव था। वे समाज का
उन्नयन करना चाहते थे और अतीत भारत की आत्मा को आधुनिक भारत की आत्मा में देखना
चाहते थे। वे समाज को प्राकृतिक नियमों पर आधारित तो करना चाहते थे किन्तु आधुनिक
वैज्ञानिकता एवं अतीत की धार्मिक एवं नैतिकता से विहीन समाज को अच्छा नहीं समझते
थे।
    टैगोर के शिक्षा-दर्शन में रहस्यवाद भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है किन्तु उनका यह रहस्यवाद
स्वस्थ एवं सबल तथा विस्तृत था। जबकि फ्रोबेल का रहस्यवाद केवल शैशव तक सीमित
था। टैगोर ने रहस्यवाद को जीवन की यथार्थ भूमि पर आधारित किया और इसका विस्तार
करके शिक्षा के सभी स्तरों पर इसे लागू किया।
          टैगोर शिक्षा के क्षेत्र अध्यात्मवादी थे। प्रायः प्रकृतिवाद अध्यात्मवाद का विरोध करता
है, किन्तु टैगोर का प्रकृतिवाद एकांगी नहीं था, इसीलिए उनके प्रकृतिवाद की अनिवार्य परिणति
आदर्शवाद में हुई और वे बालकों में उदात्त भावनाओं को जाग्रत करके उन्हें आध्यात्मिक भूमि
पर लाना चाहते थे। आध्यात्मिकता की बात करके टैगोर ने भारत के अतीत का सम्मान किया
है और उसी पर वर्तमान को आधारित करना चाहता है।
            टैगोर उच्च कोटि के मानवतावादी थे और मानव-व्यक्तित्व की गरिमा में उनका विश्वास
था। वे मानव-जाति का उद्धार करना चाहते थे और मनुष्य के मूल्य को गिराने का घोर विरोध
करते थे। उन्हें बहुत दुःख था कि मानवीय मूल्यों का तिरस्कार हो रहा है और वर्तमान युग
में मनुष्य का जीवन सस्ता होता जा रहा है। उनका विश्वास था कि यह दुनिया मूल रूप
से मानवीय दुनिया है। वे मानते थे कि ईश्वर की भी वही पर खोजना चाहिए, जहाँ पर किसान
हल जोत रहा है।
    टैगोर अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध के बहुत बड़े समर्थक थे और वे बालकों में अन्तर्राष्ट्रीय भावना
को जाग्रत करना चाहते थे। वे अपने राष्ट्र से बहुत प्रेम करते थे और भारतीय राष्ट्र की
परिस्थितियों
को सुधारना | चाहते थे, किन्तु उनका राष्ट्र-प्रेम संकीर्ण नहीं था। उनकी देश-भक्ति और उनका
राष्ट्र-प्रेम अन्तर्राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधक नहीं थे। वे समस्त विश्व को एक समझते थे और
हमें इस योग्य बनाना चाहते थे कि हम विश्व-नागरिकता के प्रति सम्मान का भाव रख सके।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 27. मॉन्टेसरी शिक्षा पद्धति के बारे में विस्तृत वर्णन करें।
उत्तर―मॉन्टसरी शिक्षा-पद्धति (Montessori Method of Teaching)―मॉन्टेसरी
शिक्षा-पद्धति को हम निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं―
1. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा, 2. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा, और 3. भाषा की शिक्षा।
इन्हें इसी क्रम में लें―
1. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा―बाल-गृह में सर्वप्रथम बालक की कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित
किया जाता है। तीन से सात वर्ष की आयु के बालकों को अपना कार्य अपने आप करने
के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। बाल-गृह का वातावरण ऐसा बना दिया जाता है कि बालक
सभी काम अपने आप करता है। चलना-फिरना, उठना, हाथ-मुँह धोना, कपड़े पहनना व उतारना,
मेज-कुर्सी ठीक स्थान पर रखना, कमरा साफ करना व सजाना, वस्तुओं को संभाल कर ठीक
से रखना, भोजन बनाना, भोजन परोसना, बर्तन माँजना आदि कार्य छात्र स्वयं करते हैं। इन
कार्यों में बालक आनन्द लेता है और इस प्रकार उसकी कर्मेन्द्रियों का विकास हो जाता है।
इस सम्य बनता चलता है और बातचीत करना सीख जाता है। बालकों के स्वास्थ्य एवं आयु
के अनुसार व्यायाम भी कराया जाता है।
2. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा—यह पहले ही कहा जा चुका है कि डॉ. मांटेसरी ज्ञानेन्द्रियों
की शिक्षा पर बड़ा बल देती थीं। उन्होंने ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा के लिए शैक्षिक उपकरणों का
सहारा लिया है। बालक की चक्षु-इन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए उसे भिन्न-भिन्न रंगों
की टिकियाँ दी जाती हैं और उससे एक बार में एक रंग की टिकियों को निकालने के लिए
कहा जाता है। इस प्रकार उसको रंगों की पहचान हो जाती है। इसी प्रकार श्रवण-इन्द्रिय को
प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार की घंटियाँ बजाई जाती हैं। स्पर्शेन्द्रिय के विकास के
लिए रूमालों से भरा एक डिब्बा दिया जाता है। रूमाल चिकने, खुरदरे, मखमली, ऊनी होते
हैं। इस प्रकार घ्राणेन्द्रिय के विकास के लिए बोतलें दी जाती हैं, जिनमें गन्धयुक्त द्रव होता
हैं स्वादेन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए नमक, चीनी, चाय आदि की शीशियाँ दी जाती
हैं। ज्ञानेन्द्रियों के विकास के लिए मांटेसरी ने अनेक प्रकार के उपकरणों का प्रयोग किया
है, उदाहरणार्थ कुछ को नाम नीचे दिया जा रहा है―
1.छेदों वाला तख्ता―एक बक्स में भीतर के तख्ते पर भिन्न-भिन्न माप के छेद बने
होते हैं। इसी बक्स में भिन्न नाप के गुटके भी होते हैं। बालक गुटके को छेदों में बैठाने की
कोशिश करता है।
2. बेलनाकार—छोटे-बड़े कई बेलन (सिलेण्डर) हैं और बालक इन्हें क्रम से लगाता है।
3. घन (Cubes)―छोटे-बड़े घन होते हैं और बालक इनसे खेलता है तथा इन्हें सजाता है।
4. आयताकार टुकड़े―बालक इनसे सीढ़ी बनाता है।
5. भिन्न रंगों की टिकियाँ―बालक इनसे रंगों की पहचान करता है।
6. लकड़ी की अक्षर―इन पर हाथ फेरकर बालक लिखना सीखता है।
7. लकड़ियाँ तथा टिकियाँ― चिकनी, खुरदरी, भारी, हल्की लकड़ियाँ व टिकियाँ होती
हैं, जिनके सहारे बालक स्पर्शन्द्रिय का विकास करता है।
      इसी प्रकार अनेक उपकरण हैं जिनसे बालक की ज्ञानेन्द्रियों का विकास किया जाता है।
मांटेसरी एक समय में एक ही ज्ञानेन्द्रिय के विकास पर ध्यान केन्द्रित करने को अच्छा बताती है।
          3. भाषा की शिक्षा―इस संदर्भ में मॉन्टेसरी के सिद्धान्त का निष्कर्ष यह है कि बालक
को पहले सीखना चाहिए, उसके बाद पढ़ना। लिखते-लिखते बालक पढ़ना तो अपने आप
सीख जाता है। लिखना सिखाने के पहले बालक की मांसपेशियों का साधना आवश्यक है।
अतः शैक्षिक उपकरणों की सहायता के पहले बालक हाथ और आँख में समन्वय करना और
अंगों का उचित संचालन करना सीखता है। इस प्रकार वह कलम या पेंसिल पकड़ना सीख
जाता है। लिखना सीखने के लिए बालक लकड़ी अथवा गत्ते पर बने हुए अक्षरों पर उँगली
फेरता है। उँगली फेरने के समय अध्यापिका अक्षर का उच्चारण करती रहती है। इस प्रकार
बालक उस अक्षर का उच्चारण करना भी सीख जाता है।
          मॉन्टेसरी प्रणाली में उपयोग होने वाले उपकरण―मॉन्टेसरी प्रणाली में निम्नलिखित
तीन प्रकार के उपकरण प्रयोग किए जाते हैं।
1. घरेलू उपकरण―घरेलू उपकरणों में झाड़न, मंजन, तेल, साबुन, तौलिया, कंघा, शीश,
जूते की पॉलिश, सुई-धागा व कैंची, खाना बनाने की सामग्री, खाना खाने के बर्तन और बर्तन
साफ करने का पाउडर आदि आते हैं।
2.शैक्षिक उपकरण― शैक्षिक उपकरणों में श्यामपट, चॉक, डस्टर एवं अन्य शैक्षिक
उपकरण आते हैं।
3. शैक्षिक यन्त्र―शैक्षिक यन्त्रों में मॉन्टेसरी द्वारा तैयार किए गए उपदेशात्मक उपकरण
(Didactic Apparatus) आते हैं। मॉन्टेसरी इस बात पर बहुत बल देती थीं कि शैक्षिक यन्त्र
ऐसे ही हो कि बच्चे उनमें रुचि लें, उनसे उनकी कर्मेन्द्रियाँ मजबूत हों और उनसे उनकी
ज्ञानेन्द्रियाँ प्रशिक्षित हों। यहाँ ऐसे कुछ शैक्षिक यन्त्रों की सूची प्रस्तुत है―1. छोटे-बड़े आकार
के बेलन, 2. छोटे-बड़े आकार के घन, 3. छोटे-बड़े आयताकार ठोस, 4. भिन्न-भिन्न आकार
के ठोस, 5. एक लकड़ी का तख्ता जिस पर भिन्न-भिन्न आकार और माप के छेद होते हैं
और एक लकड़ी के बॉक्स जिसमें इन छेदों में फिट होनेवाले गुटके रखे होते हैं, 6. चिकनी
और खुरदरी सतह वाले ठोस, 7. विभिन्न रंगों से रंगी लकड़ी की टिकियाएँ, 8. भिन्न-भिन्न
वजन के ठोस, 9. भिन्न-भिन्न ध्वनि उत्पन्न करने वाली घंटियाँ, 10. भिन्न स्वाद वाला भोज्य
पदार्थ नमक, मिर्च, खटाई, मिठाई आदि 11. भिन्न-भिन्न सुगन्ध वाले पदार्थों से भरी बोतलें,
12. लकड़ी तथा गत्ते के बने अक्षर, 13. अक्षरों की कटी हुई आकृतियाँ, 14. फ्लैश कार्ड,
15. विभिन्न प्रकार के चित्र, 16. अंकों के कार्ड, 17. गिनती के लिए छोटे-छोटे लकड़ियों
के गुटके, 18. चिकने कागज पर बने अंक, 19. फीते एवं बटन के फ्रेम और 20. ड्राइंग
पोथी एवं रंगीन पेन्सिलें।
    मॉन्टेसरी प्रणाली में शिक्षण क्रम―मॉन्टेसरी शिक्षण प्रणाली को तीन भागों में विभाजित
किया जा सकता है—कर्मेन्द्रियों की शिक्षा, ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा और भाषा एवं गणित की
शिक्षा।
        मॉन्टेसरी विद्यालय (Montessori School)―मॉन्टेसरी विद्यालय में 3 वर्ष से 7 वर्ष
तक के बालक शिक्षा ग्रहण करते हैं इसमें बालकों को खेल द्वारा शिक्षा दी जाती है। इसलिए
खेल के लिए विद्यालय में काफी बड़ा मैदान होता है जिसमें बालक खुले वातावरण में खेल
सकते हैं। बच्चों के बैठने के लिए छोटी-छोटी कुर्सियाँ तथा मेजें होती हैं जिन पर बालक
बैठकर कभी-कभी खेल भी खेलते हैं। मैदान में कुछ कम्बल बिछा दिये जाते हैं। जिन पर
बैठकर बालक खेलते हैं चाय पीने के लिए छोटे-छोटे कप तथा प्लेटें होती हैं। ‘टी पॉट’
से बच्चे चाय परोसते हैं और इतनी सावधानी बरतते हैं कि जरा भी चाय नहीं गिरती है। कोई
खाद्य या पेय पदार्थ मेजापोश पर भी नहीं गिरता है। विद्यालय में एक बड़ा कमरा और कोई
छोटे-छोटे कमरे होते हैं। बड़े कमरे में पढ़ाई होती है और छोटे कमरों में खाना बनाना, व्यायाम
आदि होते हैं। विद्यालय में सभी समान बच्चों की सुविधा के अनुसार एकत्र किया जाता है।
सभी चीजें छोटी-छोटी रहती हैं ताकि बच्चे इधर-उधर समान को उठाकर ले जा सकें। बड़े
कमरे में कई छोटे सन्दूक होते हैं जिनमें शिक्षा के उपकरण रखे होते हैं। श्यामपट पर छात्र
चित्र भी बनाया करते हैं। इस विद्यालय की कुछ अन्य प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं―
1. शिक्षक एक योग्य निर्देशन होता है। शिक्षक को यह जानकारी होती है या होनी चाहिए
कि उसे कब हस्तक्षेप करना है और कब नहीं करना है।
2. बालक को किसी समय किसी आवश्यकता की चेतना तीव्र रूप में होती है। ऐसे
क्षण को मॉन्टेसरी ने ‘मनोवैज्ञानिक क्षण’ (Psychological Moment) कहा है। इस क्षण का
उपयोग करना बहुत आवश्यक है। मॉन्टेसरी विद्यालय में इस मनोवैज्ञानिक क्षण का उपयोग
किया जाता है।
3. मॉन्टेसरी विद्यालय में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है।
4. बुद्धि से अधिक इन्द्रियों पर ध्यान दिया जाता है।
5. बच्चों को व्यक्तिगत रूप से प्रशिक्षित किया जाता है।
6. स्पर्श की संवेदना मौलिक संवेदना है अत: इसका सर्वाधिक ध्यान रखा जाता है।
7. कोई कठोर समय विभाग-चक्र (Time-Table) नहीं होता।
8. कोई पुरस्कार नहीं दिया जाता। विकास ही पुरस्कार है।
9. शैक्षिक उपकरणों के सहारे शिक्षा दी जाती है।
10. रूसो और स्पेन्सर की आत्म-शिक्षा पर अनुगमन होता है।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 28. डॉ. मेरिया मान्टेसरी के शैक्षिक विचारों का वर्णन करें।
उत्तर―मॉन्टेसरी पद्धति मॉन्टेसरी द्वारा प्रतिपादित एक विशिष्ट पद्धति है, जो पिछड़े हुए
बालकों को शिक्षा के लिए उपयुक्त है। मॉन्टेसरी ने देखा कि नई पद्धति से पिछड़े हुए बालको
का आश्चर्यजनक विकास होता है। उनकी इस सफलता से प्रभावित होकर इटली की सरकार
ने उन्हें बाल-गृह का अध्यक्ष बना दिया। मॉन्टेसरी ने साधारण बुद्धि के बालकों पर जब अपनी
पद्धति का प्रयोग किया तो उन्हें इसमें भी सफलता मिली। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि
जो पद्धति 6 वर्ष के मन्द बुद्धि बालकों के लिए उपयुक्त है, वही पद्धति 3 वर्ष के सामान्य
बुद्धि के बालकों के लिए उपयोगी है। इस प्रकार उन्होंने सामान्य एवं मन्द दोनों प्रकार की
बुद्धि के बालकों को शिक्षित करने में अपना सम्पूर्ण जीवन बिता दिया। 3 से 6 वर्ष के बच्चों
की शिक्षा की ओर उनका सबसे अधिक ध्यान था। उन्होंने ‘मॉन्टेसरी पद्धति’ नाम से एक
पुस्तक भी प्रकाशित करायी। इस पद्धति का प्रचार करने के लिए मैडम मेरिया मॉन्टेसरी ने
यूरोप के कई देशों का भ्रमण किया। मॉन्टेसरी पद्धति धीरे-धीरे लोकप्रिय होती गयी और यूरोप
के अनेक देशों ने इस पद्धति को अपना लिया। भारत की थियोसोफिकल सोसाइटी के आमंत्रण
पर वह 1939 ई. में और 1948 ई. में पुनः स्वेच्छा से भारत आई। दोनों अवसरों पर उन्होंने
पूना, मद्रास, अहमदाबाद और अन्य अनेक स्थानों पर मॉन्टेसरी स्कूलों का शिलान्यास किया।
सन् 1952 ई. में इस महान शिक्षा विशारद ने अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया।
          मेरिया मॉन्टेसरी के शैक्षिक विचार (Educational thought of Maries
Montessori)―मॉन्टेसरी ने शिक्षा को ऐसी प्रक्रिया माना है, जो बालक को अपना स्वाभाविक
विकास करने में सहायता देती है। उनके अनुसार बालक के स्वाभाविक विकास के लिए उपयुक्त
वातावरण का होना अनिवार्य है। यदि उसे इस वातावरण में किसी प्रकार के हस्तक्षेप के बिना,
स्वेच्छा से कार्य करने की अप्रतिबन्धित स्वतंत्रता प्रदान कर दी जाये, तो वह अपनी
आवश्यकताओं को स्वयं पूर्ण करने में सफल होगा और आत्मनिर्भर बनकर सकुशल हो जायेगा।
मॉन्टेसरी का शिक्षा सिद्धान्त नीचे संक्षिप्त रूप से वर्णित है―
              शिक्षा-सिद्धान्त (Education Theory):
1. स्वतंत्रता (Liberty)―मॉन्टेसरी इस बात के पक्षधर थे कि बालक को अपनी रुचि
के अनुसार विकास करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। मॉन्टेसरी का विचार रूसो के विचार
से काफी मेल खाता है। इन दोनों का मत है कि बालक के व्यक्तित्व का विकास करने के
लिए उसे अत्यधिक नियंत्रण में नहीं रखा जा सकता। वास्तविक शिक्षा प्राकृतिक एवं स्वतंत्र
वातावरण में होती है। बालक में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, स्वावलम्बन आदि गुणों का विकास
करने हेतु उन्हें स्वतंत्र वातावरण में शिक्षा देना, वे आवश्यक मानते हैं। बालक के रुचि में
बाधा डालने से उसके सर्वांगीण विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
2. वैयक्तिकता का विकास (Development of Individuality)―मॉन्टेसरी की शिक्षा
का मुख्य उद्देश्य बालक की वैयक्तिकता का विकास’ करना है। बालक का भविष्य-निर्माण
उसमें जन्म के समय से ही बीज रूप में निहित है। अत: बालक में विद्यमान आन्तरिक शक्तियों
का विकास करने हेतु शिक्षक उचित वातावरण की व्यवस्था करे, यही उसका परम
कर्त्तव्य माना जाता है।
3. आत्मशिक्षा (Self Education)―डॉ. मॉन्टेसरी के मतानुसार सच्ची शिक्षा वह है,
जिसमें बालक अपनी आवश्यकता के अनुसार स्वयं सीखता है। शिक्षक को अपनी ओर से
कोई आज्ञा या निर्देश नहीं देना चाहिए। इस सिद्धान्त द्वारा स्वानुभव के सिद्धान्त के महत्त्व
को स्वीकार किया गया है, क्योंकि बालक जब अपने आप कुछ सीखता है और अपनी उन्नति
देखता है तो वह बहुत प्रसन्न होता है। मॉन्टेसरी ने आत्मशिक्षा के लिए कुछ शैक्षिक
यन्त्रों का निर्माण किया है। बालक को ये शैक्षिक यन्त्र उपलब्ध करा दिये जाते हैं और वह
उनसे खेलने लगता है। एक प्रकार के यन्त्र से खेलते-खेलते जब बालक थक जाता है तो
वह उसे छोड़कर दूसरे यन्त्र की ओर प्रेरित होता है। यह प्रेरणा उसकी आत्मा से ही निकलती
है।
4. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा (Education of work of organs)―बाल्यावस्था में ही
बालकों को अपना कार्य स्वयं करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। बालगृहों में ऐसा वातावरण
बना दिया जाता है कि बालक सभी काम यथा—चलना, फिरना, उठना, बैठना, हाथ-मुँह धोना,
कपड़े पहनना व उतारना, भोजन परोसना, बर्तन मांजना आदि कार्य स्वयं करते हैं। इन कार्यों
में बालक रुचि लेता है तथा उसकी कर्मेन्द्रियों का विकास भी हो जाता है। इसके अतिरिक्त
उन्हें आयु के अनुसार व्यायाम भी कराया जाता है।
5.ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा (Education of sense organs)―डॉ. मॉन्टेसरी ज्ञानेन्द्रियों
की शिक्षा पर काफी बल देती हैं। ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा के लिए बालक को शैक्षिक उपकरणों
का सहारा दिया जाता था। मॉन्टेसरी के अनुसार ज्ञान वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियों पर ही आधारित होता
है। यदि ज्ञानेन्द्रियाँ निर्बल हुई तो उस इन्द्रिय से प्राप्त ज्ञान भी दोषपूर्ण होगा। उन्होंने बाल्यावस्था
में ज्ञानेन्द्रियों के विकास पर विशेष बल दिया है, क्योकि ज्ञानेन्द्रियाँ इस अवस्था में विशेष
रूप से क्रियाशील रहती है।
6. भाषा व गणित शिक्षा (Education of Language and Mathematics)―
मॉन्टेसरी बालक को पहले सीखने तदुपरान्त पढ़ने पर बल देते हैं उनके अनुसार,
“लिखते-लिखते” बालक पढ़ना तो अपने आप सीख जाता है। शैक्षिक उपकरणों की सहायता
से पहले बालक हाथ और आँख में समन्वय कर अंगों का उचित संचालन करना सीखता
है। इस प्रकार वह पेन्सिल या कलम पकड़ना सीख जाता है। लिखना सीखने के लिए बालक
पहले अक्षरों पर अंगुली घूमता है। अध्यापिका उच्चारण करती है, पीछे-पीछे बालक भी उच्चारण
करना सीख जाता है। गिनती सिखाने के लिए विभिन्न लम्बाइयों के कुछ गोलियों आदि का
प्रयोग किया जाता है तथा इनकी सहायता से जोड़, घटाव, गुणा और भाग सिखाया जाता है।
7. खेल द्वारा शिक्षा (Education by playing)―बालक की सबसे प्रिय वस्तु खेल
है, इसलिए उन्हें खेल द्वारा शिक्षा देना अत्यधिक ठोक है। उनके प्रकृति के अनुकूल खेल
में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करना ठीक नहीं है। उन्हें शैक्षिक यन्त्र दे दिये जाते हैं तथा वे
इन यन्त्रों से खेलते रहते हैं। खेल में ही वर्णमाला, गिनती आदि का ज्ञान हासिल कर लेते
हैं। शैक्षिक उपकरण उनके ज्ञानेन्द्रियों के विकास में काफी सहायक होते हैं।
8. उपयुक्त वातावरण (Suitable Atmosphere)―डॉ॰ मॉन्टेसरी ने बाल-गृहों की
स्थापना पर विशेष बल दिया है। उन्होंने बाल-गृहों को वास्तविक विद्यालय बताया है, क्योंकि
वहाँ पर बालक रचनात्मक कार्यों में जुटे रहते हैं। अतः मॉन्टेसरी विद्यालयों में बालकों के
अभिष्ट विकास हेतु उपयुक्त शिक्षाप्रद वातावरण को बहुत ही आवश्यक माना गया है।
9. अनुशासन की भावना का विकास (Development of Emotion of
Discipline)―अनुशासन अन्तःप्रेरणा की वस्तु है। इसे बाहर से नहीं लादा जा सकता है।
बालों में उत्तरदायित्व निर्वहन की भावना भर देनी चाहए जिससे वे अनुशासन के प्रति
सजग हो जायें। बालक को स्वतंत्रता देने के साथ-साथ उन्हें आत्म शिक्षा के लिए प्रेरित करना
आवश्यक है, ताकि उनमें अनुशासनहीनता का प्रश्न ही न खड़ा हो सके।
      शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Education)―मॉन्टेसरी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक
में निहित शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं भावनात्मक क्षमताओं का पूर्ण विकास करना है।
शिक्षा के इस उद्देश्य को मॉन्टेसरी ने अपनी पुस्तक ‘A Discovery of child’ की भूमिका में
अंकित किया है। इन शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मॉन्टेसरी विद्यालय सर्वोत्तम साबित हुए हैं।
      मॉन्टेसरी विद्यालय (Montessori School)― डॉ. मेरिया मॉन्टेसरी ने कहा है कि यह
विद्यालय अबोध बालकों के मस्तिष्क में ज्ञान ठूसनेवाला कारखाना न होकर घर के समान
प्रिय एवं सुखद स्थान होना चाहिए। अर्थात् विद्यालय का वातावरण घर के वातावरण के समान
होना चाहिए। इस वातावरण में बालक अध्यापिका के स्नेह एवं सहानुभूति में स्वतंत्र रूप से
-ज्ञान प्राप्त करते हैं। मॉन्टेसरी स्कूलों में 3 वर्ष से 7 वर्ष तक के बालक शिक्षा ग्रहण करते
हैं खेल द्वारा बालकों को शिक्षित करने हेतु विद्यालय में काफी बड़ा मैदान होता है। खुले
वातावरण में बालक खेल सकते हैं तथा आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं। इन विद्यालयों में
छोटी-छोटी सुन्दर मेजें, कुर्सियाँ और स्टूल होते हैं। स्कूल की दीवारें बच्चों के मनपसन्द चित्रों
से अलंकृत होती हैं। विद्यालय में एक बड़ा कमरा और कई छोटे-छोटे कमरे होते हैं। बड़े
कमरों में पढ़ाई होती है और छोटे कमरों में खाना बनाना, व्यायाम आदि होते हैं।
 इस विद्यालय की कुछ अन्य विशेषताएँ भी हैं जो निम्नलिखित हैं―
1. शिक्षक एक योग्य निर्देशक होता है।
2. बालक पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहता है।
3. बुद्धि से अधिक इन्द्रियों पर ध्यान दिया जाता है।
4. व्यक्तिगत आधार द्वारा शिक्षा-व्यवस्था की जाती है।
5. पुरस्कार की कोई व्यवस्था नहीं। विकास ही पुरस्कार है।
6. शैक्षिक उपकरणों के सहारे शिक्षा दी जाती है।
7. रूसो और स्पेन्सर की आत्मशिक्षा पर अनुगमन होता है।
पाठ्यक्रम (Curriculum)― डॉ. मॉन्टेसरी ने बालकों के पाठ्यक्रम की दो प्रधान
विशेषताएँ बतायी हैं―
1. बालकों की रुचियों, क्षमताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल पाठ्यक्रम का निर्माण
होना चाहिए।
2. पाठ्यक्रम ज्ञान-प्रधान न होकर क्रिया-प्रधान होना चाहिए, क्योंकि ऐसा पाठ्यक्रम ही
बालकों के कर्मेन्द्रिय को प्रशिक्षित करके उनको व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करता है तथा उन्हें
वास्तविक जीवन के लिए तैयार करता है।
        मॉन्टेसरी ने पहली से पाँचवीं कक्षा तक के लिए पाठ्यक्रम की निम्नलिखित रूपरेखा
कित की है―
1. पहली कक्षा―बटन लगाना, जूते के तसमें बाँधना, छोटी-छोटी मेजों, कुर्सियों आदि
को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना, बड़ी और छोटी, ठंडी और गरम, लाल और हरा
रंग, ऊँची और नीची, कड़ा और मुलायम वस्तुओं में अन्तर करना आदि।
2. दूसरी कक्षा―सफाई पर ध्यान देना, ठीक ढंग से बैठकर भोजन करना, अपने आप
नहाना, हाथ-मुँह धोना, कपड़े पहनना और उतारना, विभिन्न रंगों की वस्तुओं में अन्तर करना
आदि।
3. तीसरी कक्षा–अक्षर ज्ञान प्राप्त करना, गति, दृष्टि और स्पर्श सम्बन्धी अभ्यास करना,
सीधी रेखा पर चलकर शरीर पर नियंत्रण करना, ड्राइंग का अभ्यास करना आदि।
4. चौथी कक्षा–भोजन परोसना और बर्तन धोना, कमरे की वस्तुओं को उचित क्रम
में रखना, विभिन्न वस्तुओं की सहायता से गिनती का ज्ञान प्राप्त करना, लिखने-पढ़ने, गणित
और ड्राइंग का ज्ञान प्राप्त करना।
5. पाँचवीं कक्षा–उपर्युक्त सभी बातों का अभ्यास करना, शारीरिक स्वच्छता पर विशेष
ध्यान देना, भौगोलिक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक शब्दों का ज्ञान प्राप्त करना, खेल द्वारा शिक्षा
प्राप्त करना आदि।
शिक्षण विधि (Teaching Method)― उपर्युक्त शिक्षा सिद्धान्तों के गहन अध्ययन के
उपरान्त हम मॉन्टेसरी के शिक्षा पद्धति को निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं―
1. कर्मेन्द्रिय की शिक्षा, 2. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा, 3. भाषा की शिक्षा।
इन तीनों प्रकार की शिक्षा का वर्णन ऊपर किया जा चुका है।
अनुशासन (Disciplie)―मॉन्टेसरी स्कूलों में अनुशासनहीनता की समस्या का आशा
करना ही बिल्कुल निरर्थक है। इनके तीन प्रमुख कारण हैं-
1. बालक अपनी रुचियों में निर्देशित होकर कार्य करते हैं।
2. बालक को उनके अपने कार्य का न तो पुरस्कार मिलता है और न दण्ड। सफलता
या असफलता ही. उनका पुरस्कार या दण्ड है।
3. बालक विभिन्न शैक्षिक उपकरणों के माध्यम से किये जाने वाले कार्यों में इतने तल्लीन
रहते हैं कि उनमें व्यर्थ कार्यों को करने की रुचि ही जागृत नहीं होती है।
         टोजियर ने मॉन्टेसरी स्कूलों के अनुशासन की प्रशंसा करते हुए लिखा है―”जो कोई
भी सुसंगठित स्कूल में जाता है, वहाँ बच्चों के अनुशासन से आश्चर्यचकित हो जाता है।’
“Whoever visits a well kept Montessori School is struck by the discipline of
the children.”
    अध्यापिका का स्थान (Place of Teacher)―मॉन्टेसरी ने अपने विद्यालयों में अध्यापकों
के स्थान पर अध्यापिकाओं को वरीयता दी हैं स्त्री के कोमल स्वभाव में स्नेह एवं सहानुभूति
के गुण प्रकृति समाविष्ट कर दिया है। पुरुषों में इन गुणों का साधारणतः अभाव पाया जाता
है। इसलिए पुरुषों की अपेक्षा स्त्री ही बालकों की सच्ची शिक्षिका के पद पर आसीन की
जाती है। यह अध्यापिकाएं जोर-जोर से चिल्लाकर बालकों को डरा-धमकाकर अपनी बातों
को सुनने के लिए विवश नहीं करती, बल्कि विद्यालयों में स्नेह एवं सहानुभूति के वातावरण
का सृजन कर बालकों को स्वयं ज्ञन-प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती
हैं। वे उनके कार्यों का अवलोकन करती रहती हैं तथा समय-समय पर उनको निर्देशन भी
करती हैं। इसलिए मॉन्टेसरी ने विद्यालयों में अध्यापिका शब्द के स्थान पर निर्देशिका शब्द
को प्रयुक्त करना अधिक उपयुक्त समझा है। इन निर्देशिकाओं में कुछ अन्य गुणों की अपेक्षा
करते हुए रस्क ने लिखा है, “मॉन्टेसरी पद्धति उन अध्यापिकाओं की नियुक्ति को आवश्यक
बना देती है, जिन्हें बाल मनोवैज्ञानिक का विस्तृत ज्ञान हो और जिन्होंने छोटे बच्चों के लिए
उनके प्रयोग की विधि को भली-भांति समझ लिया हो।”
          मॉन्टेसरी एवं किण्डरगार्टन (फ्रॉबेल) पद्धतियों की तुलना (Comparison ot
methods between Montessori and Kindergarton)― किण्डरगार्टन पद्धति के जन्मदाता
फ्रॉबेल एवं मॉन्टेसरी पद्धति के जन्मदाता मेरिया मॉन्टेसरी दोनों की पद्धतियाँ छोटे बच्चों के
लिए ही है। अतः दोनों पद्धतियों की तुलना की जिज्ञासा स्वाभाविक ही है। अतः, हम दोनों
पद्धतियों को समानता एवं असमानता पर प्रकाश डालेंगे―
समानताएँ (Equalities)
1. तीन से सात वर्ष आयु वाले बालक ही दोनों पद्धतियों में शिशु ग्रहण करते हैं।
2 दोनों पद्धतियों में बालक के इन्द्रियों के विकास को प्रधानता दी गयी है।
3. दोनों पद्धतियों में बालक को आन्तरिक शक्तियों के विकास का ध्यान रखा जाता है।
4. दोनों पद्धतियों में अव्य-दृश्य साधनों का प्रयोग किया जाता है। एक में शैक्षिक उपकरण
है तो दूसरे में उपहार।
5. दोनों पद्धतियों में शिक्षक का स्थान निर्देशक का होता है।
6. दोनों पद्धतियों में बालकों को स्वतंत्र वातावरण प्रदान किया जाता है।
भिन्नताएँ (Differences):
1. मॉन्टेसरी पद्धति वैयक्तिक है, जबकि किण्डरगार्टन पद्धति सामाजिक है।
2. मॉन्टेसरी पद्धति शैक्षिक उपकरणों के बिना कार्य नहीं चल सकता, जबकि
किण्डरनगार्टन में कभी-कभी उपहार के बिना भी शिक्षा हो सकती है।
3. मॉन्टेसरी के यन्त्रों को कठिनाई से प्राप्त किया जाता है, जबकि फ्रॉबेल के उपहार
सरलता से मिल जाते हैं।
4. मॉन्टेसरी पद्धति में पहले लिखना सिखाया जाता है, जबकि किण्डरगार्टन पद्धति में
पहले पढ़ना सिखाया जाता है।
5. किण्डरगार्टन पद्धति में खेल, गीत तथा संगीत के विकास के अधिक अवसर हैं, किन्तु
मॉन्टेसरी पद्धति में नहीं।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 29. पाठ्यक्रम से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख उद्देश्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–पाठ्यक्रम अंग्रेजी के केरोकुल (Curriculum) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है।
Curriculum’ शब्द को व्युत्पत्ति लैटिन के क्यूरेर (Currere) शब्द से मानी जाती है, जिसका
अर्थ रेसकोर्स (Race-cource) या दौड़ का मैदान है। अतः केरीकुलम का अर्थ किसी उद्देश्य
तक पहुंचने के लिए लगाई गई दौड़ है। यह वस्तुतः दौड़ का मैदान है जिस पर व्यक्ति लक्ष्य
को प्राप्त करने के लिए दौड़ता है।
        हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रॉबर्ट यूलिब ने पाठ्यक्रम के इस अर्थ को मान्यता
दी है। कारण यह है कि छात्र दौड़ते रहते हैं; अर्थात् पाठ्यक्रम का अनुसरण करते हैं, पर
वे अपने लक्ष्य को शायद ही प्राप्त कर पाते हैं।
         पाठ्यक्रम का अर्थ-पाठ्यक्रम के अर्थ के बारे में दो विचारधाराएँ हैं―प्राचीन धारण
के अनुसार-पाट्यक्रम में विभिन्न प्रकार के ज्ञानों और कुशलताओं का संगत होता है, जो
बालक के दृष्टिकोण से नहीं वरन् किसी शिक्षा-विशेषज्ञ के दृष्टिकोण से होता है। आधुनिक
धारणा के अनुसार, पाठ्यक्रम अनुभवों, क्रियाओं का जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का
संचय है, जिनमें बालक भाग लेता है और जिनका वह सामना करता है। इस धारणा के अनुसार
हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम, पाठ्य-पुस्तकों, विषय-वस्तु और अध्ययन के कोर्स से अधिक
व्यापक होता है। पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विद्यार्थी के समस्त अनुभव आते हैं, जिन्हें वह स्कूल
के अन्दर तथा बाहर प्राप्त करता है और जिनके द्वारा उसका मानसिक, शारीरिक, भावात्मक,
सामाजिक, आध्यात्मिक और नैतिक विकास होता है। शिक्षा-क्रम शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति
का साधन है। शिक्षा के उद्देश्य अथवा स्कूल के प्रयोजन समाज के प्रयोजन के अनुसार निर्धारित
होते हैं। समाज के जो आदर्श होते हैं, जो मान्यताएँ होती हैं, जो प्रयोजन होते हैं, उनकी प्राप्ति
के निमित्त स्कूल स्थापित होता है। समाज का आदर्शलोकतांत्रिक जीवन हो तो स्कूल का मुख्य
प्रयोजन लोकतांत्रिक नागरिकता (Democratic Citizenship) की प्राप्ति होगी और इस उद्देश्य
के दृष्टिकोण से शिक्षा-क्रम की सामग्रियाँ आयोजित करनी होगी। इस तरह समाज और स्कूल
तथा स्कूल के प्रयोजन और शिक्षा-क्रम में कार्य और कल्याण का सम्बन्ध (Functional
relationship) है। शिक्षा-क्रम विषयों का नहीं, बल्कि क्रियाओं का समूह है, जो छात्रों के
विकास अथवा उनके सीखने के लिए आयोजित किया जाता है। कभी-कभी लोग पाठ्यक्रम
को ‘कोर्स ऑफ स्टडी’ अथवा सिलेबस मान लेते हैं। किन्तु यह अनुचित है। कोर्स का तात्पर्य
प्रायः उन क्रियाओं से होता है, जो कक्षा के अन्दर ही पूर्ण की जाती है, जबकि पाठ्यक्रम
के अन्तर्गत विद्यार्थी के समस्त अनुभव या क्रियाएँ आती हैं।
        पाठ्यक्रम के उद्देश्य―पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय पाठ्यक्रम के निम्नांकित उद्देश्यों
पर ध्यान देना चाहिए।
1. इसे बालकों को लोकतांत्रिक बनाने के लिए तैयार करना चाहिए।
2. इसे सब छात्रों के पूर्ण विकास को व्यक्त, उत्साहित, विकसित और प्रेरित करना
चाहिए।
3. इसे विद्यालय के विषयों और जीवन की विभिन्न क्रियाओं के बीच के अन्तर को
समाप्त करना चाहिए।
4. इसे ऐसे व्यक्तियों को निर्माण करना चाहिए, जो खोज और ज्ञान की सीमाओं का
विस्तार कर सकें।
5. इसे विभिन्न अभिरुचियों, योग्यताओं और समताओं वाले छात्रों की आवश्यकताओं
को पूर्ण करना चाहिए।
6. इन छात्रों में ईमानदारी, निष्कपटता, मित्रता, सम इच्छा, निर्णय और सहयोग के गुणों
का विकास करके उनके चरित्र को उन्नत बनाना चाहिए।
7. इसे ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहिए, जहाँ बालक विचार करना सीख सके
और अपनी विचार, तर्क तथा निरीक्षण की शक्तियों का विकास कर सके।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 30. पाठ्यचर्या रूपरेखा, पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम का संक्षिप्त परिचय
दीजिए।
उत्तर–पाठ्यचर्या रूपरेखा, पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम – संक्षिप्त व्याख्या―
अध्यापकों और शिक्षाविदों ने पाठ्यचर्या शब्द की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ दी हैं, जो उसके प्रयोग
के खास संदर्भो और व्याख्याकार की अपनी पृष्ठभूमि पर निर्भर करती हैं। कुछ लोग इसकी
परिभाषा सीखने की विषयवस्तु के संकीर्ण अर्थ में करते हैं, जबकि अनेक रोग इसका बहुत
व्यापक अर्थ लगाते हैं। कुगेलमास कहते हैं कि :
          “पाठ्यचर्या के दायरे में हर वह चीज आती है, जिसे बच्चा स्कूल के अंदर सीखता है;
इसमें पाठ्यचार्यत्तर क्रियाकलाप तथा सामाजिक और वैयक्तिक रिश्ते भी शामिल हैं। (पाठ्यचर्या
की) परिभाषा को विस्तारित कर इसमें कथित ‘प्रच्छन्न पाठ्यचर्या’ अथवा विद्यार्थियों को मानकों,
मूल्यों और प्रवृत्तियों …. का अव्यक्त शिक्षण भी समाविष्ट कर लिया गया है..”
              राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2005 के संदर्भ में गठित ‘पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम तथा
पाठ्यपुस्तकों के लिए राष्ट्रीय फोकस ग्रुप’ ने अपनी स्थितिपत्र में पाठ्यचर्या की निम्नलिखित
परिभाशा दी है :
         पाठ्यचर्या का सर्वोत्तम अर्थ शायद योजनाबद्ध गतिविधियों का ऐसा समुच्चय है जिसे
पाट्य को विषयवस्तु तथा सुविचारित ढंग से घोषित किए जाने वाले ज्ञान, कौशल व अभिवृत्तियों
के साथ-साथ विषयवस्तु के चयन के लिए सिद्धान्त वक्तव्य और पद्धतियों, सामग्री तथा
मूल्यांकन के चयन के अर्थों में एक खास शैक्षिक लक्ष्य – लक्ष्यों के समुच्चय को क्रियान्वित
करने के लिए बनाया जाता है।
      राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा या राज्य पाठ्यचर्या रूपरेखा के संदर्भ में एक और पाठ्यचर्या
रूपरेखा और पाठ्यचर्या के बीच तथा दूसरी ओर पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम के बीच स्पष्ट
फर्क करना जरूरी है। वस्तुतः राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर सिर्फ रूपरेखा भर बनाना ही संभव
है, जबकि वास्तविक पाठ्यचर्या सचेतन या अचेतन रूप से, खास विद्यालय के विशिष्ट संदर्भ
में ही आकार ग्रहण करती है। पाठ्यचर्या रूपरेखा में पाठ्यचर्या बीजक की परिभाषा के
साथ-साथ उसकी बुनियादी अवधारणाएँ, दर्शन और मूलं मान्यताएँ शामिल रह सकती हैं।
पाठ्यचर्या बोजक शिक्षा के लक्ष्यों और उद्देश्यों से शुरू करते हुए शिक्षण-अधिगम को विषयवस्तु
और पद्धति तक पहुँचता है और अंततः मूल्यांकन सिद्धान्त या तकनीकों तक विस्तारित हो
जाता है। हालांकि शैक्षिक गतिविधियों की योजना, जो वास्तव में पाठ्यचर्या ही होती है, विद्यालय
की अपनी अवस्थिति में ही ठोस शक्ल अख्तियार कर सकती है। राज्य पाठ्यचर्या रूपरेखा
विद्यालयों में वास्तविक पाठ्यचर्या निर्माण के लिए पाठ्यपुस्तकें और सार्वजनिक परीक्षा प्रणाली
जैसे शिक्षा के कतिपय अवयत्री जिन्हें केन्द्रीय रूप से निर्मित भी करना पड़ सकता है, पर
ध्यान देने के अलावा व्यापक दिशा-निर्देश और संभव हुआ तो उसके लिए उपकरण भी मुहैया
कर सकती है। तथापि जब कोई रूपरेखा बनाई जाए तो उसे सुस्पष्ट, पूर्ण और सांगोपांग होना
हिए। न तो उसे आदेशात्मक होना चाहिए न व्याख्या तथा क्रियान्वयन के लिहाज
से अस्पष्ट और कठिन। इसमें विद्यालय स्तर की विविधताओं से जुड़ने लायक लचीलापन रहना
चाहिए और इसे अध्यापकों व अन्य संबंधित समूहों अभिकर्ताओं को तैयार के लिए रणनीतियाँ
भी मुहैया करानी चाहिए। समूहों अभिकर्ताओं में पाठ्यपुस्तक की तैयारी या सार्वजनिक परीक्षाओं
के संचालन के कार्यभार में संलग्न लोगों को शामिल होना चाहिए।
        कभी-कभी ‘पाठ्यक्रम’ शब्द का प्रयोग, सीमित ढंग से, ‘पाठ्यचर्या’ के अर्थ में कर
दिया जाता है। वास्तव में यह अपेक्षाकृत संकीर्ण शब्द है, जिसका आशय है शिक्षण की विषयवस्तु
का विशिष्ट आलेखन जो पाठ्यक्रम या परीक्षा की अवधि जैसे सावधिक मूल्यांकन तंत्र से
जुड़ा होता है। पाठ्यचर्या अधिक अमूर्त श्रेणी है, जबकि पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तकों के रूप में
ठोस आकार ग्रहण कर लेता है।
      वर्ष 2004 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद ने पर्यावरण शिक्षा के लिए
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या तैयार की थी। इसके निम्नांकित पाँच अवयव थे:
* अपेक्षित अधिगम परिणाम
* विषयवस्तु
* उदाहरणीय गतिविधियाँ
* शिक्षण-अधिगम रणनीतियाँ
* मूल्यांकन
सामान्यतः पाठ्यचर्या का अर्थ होता है, सीखने-सिखाने के तमाम अवसरों एवं अनुभवों
का क्रमबद्ध संयोजना पाठ्यचर्या शिक्षा के उद्देश्य को सीखने-सिखाने की सारी बातों पर तरीकों
से जोड़ती है। पाठ्यचर्या में विभिन्न प्रकार के ज्ञानों और कुशलताओं का समागम होता है, जो
बालक के दृष्टिकोण के साथ-साथ दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्रीय दृष्टिकोण से आवश्यक होता है।
इसलिए पाठ्यचर्या की व्यापक रूपरेखा में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद
के उपरिलिखित पाँच के साथ निम्न अवयवों का होना भी अपेक्षित है :
1. संरचना एवं सहयोगी संस्थाएँ
2. प्रशासनिक ढाँचा
3. पाठ्यपुस्तक एवं अन्य शिक्षण अधिगम सामग्री
अन्ततः पाठ्यचर्या एक व्यापक अवधारणा है, जिसके अन्तर्गत बालक के उन समस्त
अनुभवों का उपयोग आता है, जिन्हें वह स्कूल के अन्दर या बाहर प्राप्त करता है और जिसके
द्वारा उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास होता है।
          विषयवस्तु अथवा पाठ्यक्रम पाठ्यचर्या में शामिल अनेक चीजों में से एक है, जो है
तो निस्संदेह काफी महत्त्वपूर्ण लेकिन सिर्फ पाठ्यक्रम के लिए चिंता शिक्षा के संपूर्ण उद्देश्य
या शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के महत्त्व को नजरों से ओझल कर देती है।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 31. NCF-2005 एवं BCF-2008 के पाठ्यक्रम निर्माण के शिक्षा शास्त्रीय
मान्यताओं की व्याख्या करें।
उत्तर―राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 (एन सी एफ 2005) तथा बिहार
पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2008 ने विद्यालय भवन के शैक्षिक उपयोगिता को रेखांकित करते
हुए इसमें परिवर्तन पर जोर दिया। एन सी०एफ० 2005 ने विद्यालय भवन को लेकर कई महत्त्वपूर्ण
और आवश्यक दिशा निर्देश तय किये।
     विद्यालय का भवन उसकी सबसे महँगी संपत्ति होती है। उससे सर्वाधिक शैक्षिक मूल्य
निकालना चाहिए। भवन के नवीनीकरण या निर्माण के समय सृजनात्मक एवं व्यावहारिक
समाधानों का प्रयोग करके भवन के शैक्षिक मूल्यों को अधिकतम तक बढ़ाया जा सकता
है। इस प्रकार भौतिक वातावरण में बदलाव न केवल सौंदर्य परिवर्तन है, बल्कि एक स्वाभाविक
रूपांतरण है, जिसमें भौतिक स्थान शिक्षाशास्त्र और बच्चे से जुड़ जाता है। देश के विभिन्न
भागों में विद्यालय एवं कक्षाओं में बड़े-बड़े चित्र स्थायी रूप से लगे रहते हैं या पुते रहते
हैं। इस प्रकार के दृश्य होते तो अधिक आकर्षक है, परन्तु कुछ समय बाद नीरस लगने लगते
हैं और उस स्थान के आकर्षण को कम कर देते हैं। उसकी जगह छोटे आकार के ध्यान
से चुने गए भित्ति-चित्र स्कूल को आकर्षक बनाने के लिए बेहतर हो सकते हैं। विद्यालयों
की दीवार का प्रयोग बच्चों द्वारा बनाई गई कलाकृतियों या शिक्षकों द्वारा बनाई गई कृतियों
के लिए होना चाहिए जो हर महीने बदल जाए। इस प्रकार दीवारों को सजाना और कलाकृतियों
को लगने में सहयोग करना भी बच्चों के लिए एक मूल्यवान शैक्षिक प्रक्रिया है।
     एन०सी०एफ० 2005 दस्तावेज ने स्वच्छता और सुरक्षा मानकों को लेकर विद्यालय भवन
के साथ समझौता नहीं करने की बात कही। एन सी०एफ० में कहा गया कि ढाँचागत सुविधा
में खेल मैदान से समझौता नहीं होना चाहिए। कक्षाकक्षों में पर्याप्त प्राकृतिक रोशनी हो। बच्चों
द्वारा की गई चित्रकारी, हस्तकर्म के लिए स्कूल की दीवारें सुरक्षित रखी जा सके ताकि उनके
सृजनशीलता को सराहा जा सके। स्कूल की दीवारों पर छोटे आकार के भित्तीचित्र हों, जिनपर
बच्चों और शिक्षकों द्वारा निर्मित कलाकृति लगे हों।
              सच तो यह है कि ढाँचागत सुविधाएँ शिक्षार्थियों के लिए अनुकूल स्थितियाँ बनाने व
गतिविधि केन्द्रित संदर्भ उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी है। स्थान, भवन तथा फर्नीचर संबंधी
नियम व मानक तय करने से गुणवत्ता की समझ भी पुष्ट होगी।
* स्थान–इन मानकों का संबंध आयु समूह के आकार, शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात और
   जिस प्रकार की गतिविधियाँ चलानी है, उनसे है।
* भवन–भवन-निर्माण सामग्री, वास्तुशैली और कारीगरी, स्थानीय जलवायु भूगोल
   उपलब्धता के आधार पर स्थल विशिष्ट और संस्कृति-विशिष्ट होते हैं, जबकि जिससे
सुरक्षा और स्वच्छता पर किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता। शौचघर
के कई प्रकार के कम-खर्चीले डिजाइन उपलब्ध हैं और यह आवश्यक नहीं कि
समूचे भारत में एक ही प्रकार के मानकीकृत स्कूल भवन हों।
* कुर्सी―मेज―इसके मानक आयु और गतिविधियों की प्रकृति के आधार पर तय
किए जाएँ, जिसमें प्रयोगशालाओं तथा अन्य विशिष्ट गतिविधियों को छोड़कर ऐसे
फर्नीचर को प्राथमिकता दी जाए जिन्हें आवश्यकतानुसार अलग-अलग जगहों पर
अलग तरह से उपयोग में लिया जा सके।
* उपकरण―आवश्यक और वांछनीय उपकरण (पुस्तकों सहि) की सूची बनाई जानी
चाहिए, जिसमें ऐसी स्थानीय सामग्रियों और उत्पादों के प्रयोग पर जोर हो जो संस्कृति
विशिष्ट कम खर्चीली और आसानी से उपलब्ध हो।
* समय―स्थान और आयु विशिष्ट मानकों और मौसम के अनुसार समय-सारणी बनाए
जाने की आवश्यकता है।
एन. सी. एफ. 2005 ने कक्षा के भौतिक स्थान को सीखने के माध्यम के रूप में परिवर्तित
करने पर बल दिया। विद्यालय भवन का कितना सृजनात्मक उपयोग हो सकता है, इसको बढ़ावा
देने के लिए विद्यालय भवन के पारस्परिक ढाँचे में बदलाव लाने की अपेक्षा की गई।
              भौतिक स्थान से सीखना―बच्चे अपने संसार को बहुत इंद्रियों से महसूस करते हैं।
विशेषकर दृष्टि और स्पर्श इंद्रियों से एक त्रिआयामी स्थान बच्चों को सीखने के लिए एक विशेष
व्यवस्था दे सकता है, क्योंकि यह पाठ्यपुस्तकों तथा ब्लैकबोर्ड का साथ देते हुए बच्चों के
लिए बहु-इंद्रिय अनुभव प्रस्तुत कर सकता है। स्थानिक आयामों संरचनाओं आकाश कोणों गति
तथा स्थानिक विशेषताओं जैसे अंदर-बाहर सममिति, ऊपर-नीचे का उपयोग भाषा, विज्ञान,
गणित तथा पर्यावरण की मूल अवधारणाओं को संप्रेषित करने के लिए किया जा सकता है।
इन अवधारणाओं को उपलब्य तथा नए बनाए जाने वाले स्थानों पर लागू किया जा सकता है।
कक्षागत स्थान-खिड़की सुरक्षा जाती को इस प्रकार बनाया जा सकता है, जिस पर
बच्चे लेखन-पूर्व कौशल तथा भिन्नों को समझने का अभ्यास कर सकें। कोणों के प्रसार को
दरवाजों के नीचे चिह्नित किया जा सकता है, जिससे बच्चों की कोण की अवधारणा समझने
में मदद मिले या कक्षा की अलमारी को पुस्तकालय का रूप दिया जा सकता है या ऊपर
लगे पंखों को विभिन्न रंगों में रंगा जा सकता है ताकि बच्चे विभिन्न रंगों के बदलते चक्रों
का आनंद ले सके।
             अर्द्ध खुल्ला या बाहर का स्थान–खंभे की घटती-बढ़ती परछाइयाँ जो धूप घड़ी की
तरह समय मापने के विभिन्न तरीके समझा सकती है। शीत के मौसम के लिए उपयुक्त पर्णपाती
पौधों को लगाना, जो शीतऋतु से पत्तियाँ गिराते हैं और ग्रीष्म में हरे-भरे रहते हैं ताकि बाहर
भी सोखने के लिए आरामदायक जगह हो पुराने टायरों के उपयोग करते हुए एक रोमांचक
खेल का मैदान बनाने एक ऐसा स्थान जहाँ बस/ट्रेन/पोस्ट ऑफिस दुकान का अभास दिया
जा सकता है। जहाँ बच्चे मिट्टी और बालू के साथ खेलते हुए भारत के रेखांकित नक्शे
में अपने पहाड़, नदियों तथा घाटो बनाएँ। की छानबीन एवं खोज तथा तीनों आयामों के छानबीन
का स्थान या बाहर प्राकृतिक वातावरण पेड़-पौधों के साथ जो बच्चों को छानबीन करने का
तथा स्वयं को अधिगम सामग्री खुद बनाने को मौका दें। जहाँ बच्चे जड़ी-बूटी का बगीचा
लगा सकें और बरसाती पानी का एकत्रीकरण देख और उसे व्यवहार में भी लाएँ।
         पाठ्यचर्या द्वारा सुझाए गए कुछ परिवर्तनों को कई विद्यालयों में शामिल भी किया गया,
जिसके कारण उनके विद्यालय भवन निरस न रहकर आकर्षक हो गये और उनसे बच्चों के
सीखने के अवसरों में भी बढ़ोतरी हुई। इसको कुछ-कुछ छाप आप अपने विद्यालय में भी
देख सकते हैं समावेशी शिक्षा और आपदा प्रबंधन के दृष्टिकोण से भी विद्यालय भवन में
अपेक्षित बदलाव लाने पर जोर दिया गया।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 32. NCF-2005 के सिद्धान्तों के आधार पर BCF-2008 का निर्माण करने
के पीछे क्या तर्क है। इन दोनों के कारण पाठ्यक्रम पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर―NCF-2005 के सिद्धान्तों के आधार पर BCF-2008 को निर्माण किया गया
है। इसके अनुसार, शिक्षा का मतलब बिहार के स्कूली विद्यार्थियों को इतना समझ बना देना
है कि वे अपने जीवन का जिन्दा होने का सही-सही अर्थ समझ सकें। अपनी समस्त योग्यताओं
का समुचित विकास कर सकें। अपने जीवन का मकसद तय कर सकें और उसे प्राप्त करने
हेतु यथासंभव सार्थक एवं प्रभावी प्रयास कर सकें। साथ ही इस बात को भी समझ सकें
कि समाज के दूसरे व्यक्ति को भी ऐसा ही करने का पूर्ण अधिकार है।
      राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 जिसने बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2008 के
लिए एक आधारभूत दस्तावेज का काम किया राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 से कुछ
अंशों को दिया जा रहा है जो पाठ्चर्या और पाठ्यक्रम के संदर्भ में कुछ मूलभूत बातों की
चर्चा करते हैं। बीच-बीच में कुछ प्रश्नों को भी उठाया गया है ताकि आप इस दस्तावेज के
नीतिगत पहलूओं को अपने विद्यालय के संदर्भ में समझ सके।
         1. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा―राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की इन सिफारिशों के
बावजूद कि विभिन्न अवस्थाओं में पोषित व विकसित की जाने वाली दक्षताओं व मूल्यों की
पहचान की जाए, स्कूली शिक्षा उन परीक्षाओं द्वारा और अधिक परिचालित होती चली गई,
जो महज जानकारी से भरी पाठ्यपुस्तकों पर आधारित होती है। वर्ष 2000 में पाठ्यचर्या की
रूपरेखा की समीक्षा के बाद भी पाठ्यचर्या के और परीक्षाओं की तानाशाही के विवादास्पद
मुद्दे हल न हुए। वर्तमान समीक्षा इस क्षेत्र में हुए सकारात्मक व नकारात्मक दोनों प्रकार के
परिवर्तनों पर ध्यान देती है और नयी सदी के मोड़ पर स्कूली शिक्षा की भावी आवश्यकताओं
को संबोधित करने का प्रयास करती है। इस प्रयास में अनेक परस्पर संबंधित आयामों को
ध्यान में रखा गया है, जैसे—शिक्षा के लक्ष्य, बच्चों का सामाजिक परिप्रेक्ष्य, ज्ञान की प्रकृति
मानव विकास की प्रकृति और मनुष्य की सीखने की प्रक्रिया।
       राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा को प्रायः गलत समझा गया है, मानो यह एकरूपता लाने
के लिए प्रस्तावित दस्तावेज हो। जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ (एन.पी.ई.) 1986 और प्रोग्रामक
ऑफ एक्शन (पी.ओ.ए.), 1992 में स्पष्ट किया गया उद्देश्य इसके ठीक विपरीत था। एन.
पी.ई. ने नवीन पाठ्यचर्या की रूपरेखा प्रस्तावित की ताकि वह ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था
के विकास का जरिया बना, जिसमें यह सामर्थ्य हो कि वह भारत के भौगोलिक एवं सांस्कृतिक
वातावरण को दृष्टि में रखते हुए अकादमिक घटकों के साथ सामान्य आधारभूत मूल्य भी
सुनिश्चित करे। एन.पी.ई.-पी.ई.ओ. ने 14 वर्ष की आयु तक सभी बच्चों का सार्वभौमिक
नामांकन तथा सार्वभौमिक रूप से उन्हें स्कूलों में टिकाए रखने और स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता
में ठोस सुधार के लिए बाल केन्द्रित उपागम का विचार प्रस्तुत किया था। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या
की रूपरेखा की खासियत के रूप में प्रासंगिकता लचीलापन तथा गुणवत्ता पर बल देते हुए
पी.ओ.ए. ने ए.पी.ई. की इसी दृष्टि को विस्तारित किया है। इस प्रकार इन दोनों दस्तावेजों
ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा की परिकल्पना शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक बनाने के साधन
के रूप में की।
2. मार्गदर्शक सिद्धांत― हमें व्यवस्थागत मुद्दों पर ध्यान देने व उन्हें नियोजित करने की
आवश्यकता है, जिससे हम उन अनेक अच्छे विचारों को कार्यान्वित कर सकें। इनमें सबसे
अहम निम्न है:
(i) ज्ञान का स्कूल के बाहर के जीवन से जोड़ना।
(ii) पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो, यह सुनिश्चित करना।
(iii) पाठ्यचर्या का उस संवर्धन करना कि वह बच्चों को चहुंमुखी विकास के अवसर
          मुहैया करवाए बजाए इससे कि वह पाठ्यपुस्तक केन्द्रित बन कर रह जाए।
(iv) परीक्षा को अपेक्षाकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना और
(v) एक ऐसी अधिभाषी पहचान का विकास जिसमें प्रजातांत्रिक राज्य-व्यवस्था के
अंतर्गत राष्ट्रीय चिंताएं समाहित हो।
वर्तमान संदर्भ में कुछ नए बदलाव नए सरोकार पैदा हुए हैं, जिन्हें पाठ्यचर्या को संबोधित
करना ही चाहिए। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है, सभी बच्चों को एक ऐसे कार्यक्रम के जरिए
स्कूलों से जोड़ना तथा उन्हें वहाँ टिकाए रखना जो हर बच्चों की महत्ता को फिर से दृढ़
करने को महत्त्वपूर्ण समझे और सभी बच्चों को उनकी गरिमा का एहसास कराए तथा उनमें
सीखने का विश्वास जगाए। पाठ्यचर्या की रूपरेखा में सार्वभौमिक प्रारंभिक शिक्षा (यू.ई.ई.)
के लिए प्रतिबद्धता भी दिखनी चाहिए, केवल सांस्कृतिक विविधता के प्रतिनिधित्व के रूप
में ही नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करके भी कि विभिन्न सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमियों
से आए विभिन्न शारीरिक मनोवैज्ञानिक व बौद्धिक विशेषताओं वाले बच्चे स्कूल में सीखने
व सफलता प्राप्त करने में समर्थ हों। इस संदर्भ में लिंग, जाति, भाषा, संस्कृति, धर्म या असमर्थता
से जनित असमानताओं के परिणामस्वरूप शिक्षा में आई प्रतिकूलताओं को सीधे संबोधित करने
की आवश्यकता है, नीतियों व योजनाओं के माध्यम से ही नहीं बल्कि आरंभिक बाल्यावस्था
से ही अधिगम कार्य की रूपरेखा बनाने एवं चुनने तथा शिक्षाशास्त्रीय अभ्यास के जरिए भी।
सार्वभौमिक प्रारंभिक शिक्षा (यू.ई.ई.) हमें इस बात से अवगत कराती है कि पाठ्यचर्या
में विस्तार करके उसमें ज्ञान, कार्य एवं शिल्प की विभिन्न परंपराओं की समृद्ध विरासत को
शामिल करना भी आवश्यक है। इनमें से कुछ परंपराएँ आज अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण
के संदर्भ में बाजार के दबाव और ज्ञान के वस्तु बन जाने से प्रस्तुत गंभीर संकट से जूझ रही
है। आत्म-सम्मान व नैतिकता का विकास और बच्चों में रचनात्मकता के पोषण की आवश्यकता
प्राथमिकता मिलनी चाहिए। तेजी से बदलती और प्रतिस्पर्धी वैश्विक अर्थव्यवस्था के संदर्भ
में यह आवश्यक है कि हम बच्चों को जन्मजात बुद्धि व कला का आदर करें।
           विकेन्द्रीकरण और पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका पर बल देना हाल ही में शिक्षा
में हुए व्यवस्थागत सुधारों के कुछ प्रमुख कदम हैं पंचायती राज संस्थाएँ व्यवस्था में दफ्तरशाही
का दबाव कम करती हैं, शिक्षकों को अधिक उत्तरदायी विद्यालयों को अधिक स्वायत्त एवं
बच्ची की आवश्यकताओं के प्रति सजग बनाती हैं। इन कदमों के साथ स्थानीय पर्यावरण
और जीवन के बीच संगति बिठाने की भी आवश्यकता है। बच्चे काफी कुछ सहजता से अपने
परिवेश में बड़े होते हुए सीख लेते हैं। वे अपने आस-पास के जीवन व दुनिया पर भी नजर
रखते हैं। जब उनके अनुभवों को कक्षा में लाया जाएगा तो उनके प्रश्नों, उनकी जिज्ञासाओं
से पाठ्यचर्या अधिक समृद्ध और रचनात्मक बनेगी। इन सुधारों से स्वीकृत पाठ्यचर्या के सिद्धांतों
के ज्ञात से अज्ञात की ओर, मूर्त से अमूर्त की ओर और स्थानीय से वैश्विक की ओर को
बल मिलेगा। इस उद्देश्य के लिए स्कूली शिक्षण के सभी आयामों में विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र
को अपनाने की आवश्यकता है, जिनमें शिक्षक शिक्षा भी शामिल है। उदाहरण के लिए उत्पादक
कार्य प्रभावी शिक्षण का माध्यम बन सकते हैं।
          अगर (क) कक्षा के ज्ञान को बच्चों के जीवन-अनुभव से जोड़ा जाए (ख) हशिए के
समाजों के बच्चों को जिस काम से जुड़े कौशल का ज्ञान होता है। अपने सम्पन्न साथियों को
मान-सम्मान पाने का अवसर मिल सकेगा और (ग) संचित मानवीय अनुभव ज्ञान और सिद्धांतों
को इस प्रकार संदर्भित किया जा सकेगा। बच्चों को पर्यावरण व पर्यावरण संरक्षण के प्रति
संवेदनशील बनाना भी पाठ्यचर्या का एक महत्त्वपूर्ण सरोकार है। पिछली सदी में उभरे नए
तकनीको विकल्प व जीवनशैली से पर्यावरण को नुकसान पहुंचा है और परिणामस्वरूप सुविधा
सम्पन व सुविधारिहत वर्गों के बीच गहरा असंतुलन आ गया है। अब यह पहले से कहीं अधिक
अनिवार्य हो गया है कि पर्यावरण का पोषण व संरक्षण किया जाए। शिक्षा इसके लिए आवश्यक
परिप्रेक्ष्य दे सकती है कि मानव जीवन का पर्यावरण संकट के साथ सामंजस्य कैसे बैठाया जा
सकता है ताकि जीवन विकास व संवर्धन संभव हो सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इस
आवश्यकता पर जोर दिया कि पर्यावरण को शिक्षा के सभी स्तरों पर व समाज के सभी वर्गों
के लिए समाहित कर पर्यावरण संबंधी सरोकार के प्रति जागरूकता पैदा की जाए।
      अपने भीतर व अपने प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करते
रहना एक मूल मानवीय आवश्यकता है। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का भलीभांति विकास एक
ऐसे माहौल में ही संभव हो सकता है, जो शांतिपूर्ण हो। एक अशांत प्राकृतिक व सामाजिक
वातावरण अक्सर मानव संबंधों में तनाव लाता है, जिससे असहिष्णुता व संघर्ष पैदा होता है।
हम अभूतपूर्व हिंसा के युग में जी रहे हैं जो स्थानीय क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व वैश्विक है। ऐसे में
शिक्षा प्रायः एक अकर्मक भूमिका या यहाँ तक कि युवा मस्तिष्क को असहिष्णुता की संस्कृति
का पाठ पढ़ कर घातक भूमिका निभाती है, जिससे मानवीय भावनाओं व विभिन्न सभ्यताओं
द्वारा खोजे गए उदात्त सत्य नकारे जाते हैं। शांति की संस्कृति का निर्माण करना शिक्षा का निर्विवाद
उद्देश्य है। शिक्षा सार्थक तभी हो सकती है जब वह व्यक्ति को इतना समर्थ बनाए ताकि वह
शांति को जीवन शैली के रूप में चुन सके और संघर्ष को सुलझाने की क्षमता रखे, न कि
केवल संघर्ष का एक निष्क्रिय दर्शक बने। स्कूली पाठ्यचर्या के एक एकीकृत परिप्रेक्ष्य के
रूप में शांति की अवधारणा को रखने पर इसमें राष्ट्र को स्वस्थ रखने व ऊर्जा प्रदान करने
की क्षमता है। भारत विविध संस्कृतियों वाला समाज है, जो अनेक प्रादेशिक व स्थानीय संस्कृतियों
से मिल कर बना है। लोगों के धार्मिक विश्वास, जीवन शैली व सामाजिक संबंधों की समझ
एक-दूसरे से बहुत अलग है। सभी समुदायों को सह-अस्तित्व व समान रूप से समृद्ध होने
का अधिकार है और शिक्षा व्यवस्था को भी हमारे समाज में निहित इस सांस्कृतिक विविधता
के अनुरूप होना चाहिए। अपनी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय अस्मिता को सुदृढ़ करने के
लिए पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए कि वह युवा पीढ़ी को इसके लिए सक्षम बना सके कि वह
नयी प्राथमिकताओं व बदलते सामाजिक संदर्भ में उभरते दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में अतीत का
पुनर्मूल्यांकन व पुनर्व्याख्या कर पाए। मानव-विकास की समझ के आधार पर यह स्पष्ट किया
जाना चाहिए कि हमारे देश में विविधता का अस्तित्व दरअसल हमारे यहाँ की उस विशिष्ट
चेतना की सफलता है, जिसने उसे फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर दिया। इस भूमि की सांस्कृतिक
विविधता को हमारी विशिष्टता की तरह संजोए रखना चाहिए। इसे केवल सहिष्णुता का परिणाम
नहीं समझा जाना चाहिए। इस संदर्भ में युवा पीढ़ी में अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति
एक नागरिक चेतना व संविधान में निहित सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता की रचना पूर्वापेक्षित है।
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 33. पाठ्यक्रम के राजनैतिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों का
वर्णन कीजिए।
उत्तर–पाठ्यक्रम के राजनैतिक उद्देश्य : पाठ्यक्रम के राजनैतिक उद्देश्य निम्न हैं―
1. शिक्षा व्यवस्था पूर्ण रूप से शिक्षाकारों के हाथ में होनी चाहिए।
2. राजनीतिज्ञों की शिक्षा प्रणाली. एवं पाठ्यक्रम को अव्यावहारिक कहने की आलोचना
नहीं करनी चाहिए।
3. राजनीतिज्ञों को पाठ्यक्रम विकास प्रक्रिया से सम्बद्ध होना चाहिए ताकि वह उसमें
अपेक्षित सुधार हेतु सक्रिय सहयोग प्रदान कर सकें।
4. पाठ्यक्रम संशोधन में राजनीतिज्ञों को दबाव नहीं डालना चाहिए।
5. समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिज्ञों की पाठ्यक्रम विकास में भागीदारी होनी
चाहिए।
6. पाठ्यक्रम में अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की भाषाओं को स्थान देना चाहिए।
7. अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की संस्थाओं और संगठनों के बारे में जानकारी को पाठ्यक्रम
में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
8. इसमें राजनैतिक स्थिरता, शान्ति एवं सुरक्षा आदि उद्देश्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
पाठ्यक्रम के शैक्षिक उद्देश्य― पाठ्यक्रम के शैक्षिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं―
1. छात्रों को मानव भूगोल का ज्ञान कराना चाहिए, जिसमें बालकों में दूसरों के प्रति
सद्भावना पैदा हो।
2. देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं पर विचार-विमर्श
किया जाना चाहिए।
3. समय-समय पर विचार गोष्ठियों एवं अध्ययन गाष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए।
4. पाठ्य-पुस्तकों की गुणवत्ता में सुधार करना चाहिए।
5. पाठ्यक्रम में शैक्षिक उद्देश्यों का पुनः निर्धारण करना चाहिए।
6. पाठ्यक्रम में नवीन शैक्षिक तकनीकी का अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए।
7. पाठ्यक्रम में विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा पर अधिक बल देना चाहिए।
8. पाठ्यक्रम में नैतिक मूल्यों के विकास पर बल देना चाहिए।
पाठ्यक्रम के सामाजिक उद्देश्य―ये उद्देश्य निम्नलिखित बिन्दुओं पर होने चाहिए―
1. पाठ्यक्रम बहुमुखी होना चाहिए अर्थात् इसमें उन सभी विषयों, क्रियाओं एवं प्रवृत्तियों
का समावेश होना चाहिए, जो बालक को कुशल नागरिक बनाने एवं सफल जीवन
बिताने की योग्यता प्रदान कर सके।
2. पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए अर्थात कुछ विषय अनिवार्य तथा शेष ऐच्छिक होने
चाहिए जिससे प्रत्येक बालक अपनी रुचि, बुद्धि, योग्यता एवं आवश्यकता के अनुसार
उनका चयन कर सके।
3. पाठ्यक्रम स्थानीय संसाधनों एवं आवश्यकताओं के आधार पर निर्मित किया जाना
चाहिए।
4. पाठ्यक्रम स्थानीय संसाधनों एवं आवश्यकताओं के आधार पर निर्मित किया जाना
चाहिए।
5. पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो बालकों को स्वस्थ
एवं उत्तम रूप से अवकाश बिताने की शिक्षा दे सकें।
6. पाठ्यक्रम समाज की व्यावसायिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला होना चाहिए
अर्थात् इसमें विज्ञान, तकनीकी एवं विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित विषयों का समावेश
होना चाहिए।
7. राष्ट्रभाषा की शिक्षा पर विशेष बल दिया जाना चाहिए, किन्तु भावात्मक एकता के
लिए क्षेत्रीय भाषाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के समुचित विकास के लिए विश्व
स्तरीय सम्पर्क भाषाओं के अध्ययन को भी स्थान दिया जाना चाहिए।
8. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं तथा उनके समाधान की शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम में
व्यवस्था होनी चाहिए।
     पाठ्यक्रम के आर्थिक उद्देश्य–पाठ्यक्रम के आर्थिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं―
1. पाठ्यक्रम को इस प्रकार नियोजित करना चाहिए जिससे पूँजी का निवेश हो जो आगे
चलकर राष्ट्र के आर्थिक विकास को प्रभावित करें।
2. पाठ्यक्रम को नई तकनीकी के द्वारा तैयार करना चाहिए जिससे तकनीकी क्षेत्र में
क्रान्ति लायो जा सके और उत्पादन क्षमता में वृद्धि हो।
3. शिक्षा पर जो कुछ व्यय होता है, उससे बालकों की तत्कालीन आवश्यकताओं की
पूर्ति होनी चाहिए।
4. शिक्षा पर व्यय करने पर राष्ट्रीय आय में वृद्धि होनी चाहिए।
5. आर्थिक प्रगति के लिए व्यावसायिक एवं औद्योगिक शिक्षा पर बल देना चाहिए।
6. केन्द्र व राज्य स्तर पर प्राथमिकताओं एवं उत्तरदायित्वों का निर्धारण करना चाहिए।
                                                         □□□
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
समाज, शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

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