सामाजिक आत्मन् पर आधारित सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए । Explain the theories based on the Social Spirit.
- दुर्खीम का सामूहिक प्रतिनिधान का सिद्धान्त-दुर्खीम महोदय ने समाजीकरण की प्रक्रिया प्रतिनिधित्व के आधार पर बताया है। इनका सिद्धान्त पूर्णतया समाजीकरण पर आधारित है तथा यह सिद्धान्त व्यक्ति तथा समाज के परस्पर सम्बन्धों को अधिक महत्त्व देता है।दुर्खीम महोदय ने कहा कि सामाजिक मान्यताओं को आत्मसात् करना ही समाजीकरण है समाज में व्यवहार सम्बन्धी जो मान्यताएँ, विश्वास तथा मूल्य होते हैं उन्हीं को सामूहिक प्रतिनिधान कहा जाता है तथा ये मूल्य ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढी मे हस्तान्तरित होते जाते हैं तथा इन मूल्यो तथा आदर्शों के अनुरूप व्यवहार प्रक्रिया समाजीकरण कहलाता है। ये सामूहिक प्रतिनिधान चूंकि समाज द्वारा बनाए जाते हैं इसलिए ये समाज स्वीकृत होते हैं तथा इन मूल्यों में बाध्यता का गुण पाया जाता है। सामूहिक प्रतिनिधान के आन्तरीकरण को दुर्खीम ने सामाजिक अन्तःकरण से जोड़ा है। सामूहिक चेतनाओं का विकास चूंकि व्यक्तिगत चेतनाओं से होता है। फिर भी यह न तो व्यक्तिगत चेतना है न ही व्यक्तिगत चेतनाओ का संकलन मात्र । बल्कि यह अनेक चेतनाओं का सम्मिश्रण है जिसके द्वारा विकसित तथा श्रेष्ठ स्तर की चेतना उत्पन्न होती है।
ये प्रतिनिधान प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में विलीन हो जाते हैं। इसलिए समाज का प्रत्येक व्यक्ति इन्हें प्रश्न चिह्न या चुनौती दिए बिना स्वीकार कर लेते हैं। दुर्खीम के अनुसार ये सामाजिक एकता बनाए रखने में भी सहायता पहुँचाते हैं।
- कूले का सामाजिक आत्मदर्शन का समाजशास्त्री कुले ने अपनी पुस्तक ‘Orgination एवं ‘Human Nature and the Sectal Order समझाने का प्रयास किया कि एक जैविक प्राणी सामाजिक प्राणी बनता है। यही उनके सिद्धानका मु बिन्दु है। केले का कहना है कि (S) का समाज से होता है तथा इन्हें अलग नहीं किया जा है। उन्हीं के शब्दों में स्वयं एवंदना पैदा “Self and society are twin-bor”, कूल के अनुसार तीन बातों को सोचता हैस है।
(1) दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं ?(ii) दूसरों की राय के सन्दर्भ में मैं अपने बारे में क्या सोचता हूँ ?(iii) मैं अपने बारे में सोचकर अपने का कैसा मानता हूँ
कूले महोदय ने बताया कि बच्चों में दो वर्ष कीउम्र में आत्मचेतना (Self-Consciousness) का विकास होने लगता है। गिन्स ने कहा कि उन्होंने अपने विचारों का प्रतिपादन अपने बच्चों के विकास की प्रक्रिया के अवलोकन के आधार पर किया।
बच्चे समाज में कैसे सीखते हैं इसके लिए उन्होंन “सामाजिक आत्मदर्शन का दर्पण सिद्धान्त दिया इस विषद पर लेस्ली तथा सहयोगियों ने लिखा-The tooking-ass is the group or society in which person imagine how others see them”,
इस सिद्धान्त की सर्वप्रथम चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Human Nature and Social Order में की। कूले का कहना है कि व्यक्ति समाज में अपना दर्पण देखता हूँ तथा ये जानने का प्रयास करती है उसके बारे में क्या सोचते हैं। वह अपने बारे में स बनाता है। इस राय के बाद ही बच्चे में श्रेष्ठता या हीनता के भाव आते हैं। समाज किसी व्यक्ति के बारे में क्या सोचता है तथा फिर वह व्यक्ति उस बारे में क्या सोचता हैं ये प्रक्रिया आजीवन चलती है। इस फलस्वरूप ही व्यक्ति में आत्म का विकास होता है। व्यक्ति सामाजिक मूल्यों, आदर्शी एवं नियमों का इसलिए पालन करता है कि समाज उसे अच्छे व्यक्ति के रूप में स्वीकार करे। कोई व्यक्ति अपने बारे में जैसा विचार बनाता है। उसका प्रभाव उसके आचरण एवं व्यक्ति के विकास पर पड़ता है। इसे बीयर स्टेट ने बड़े ही सरल एवं रोचकपूर्ण ढंग से रखा है। उन्होंने कहा- Thes I am not what I think I am, and I am not what you think I am; I am what I think You think I am.”
- फ्रॉयड का समाजीकरण का सिद्धान्त ( Freud’s Theory of Socialisation)- फ्रॉयड ने बताया कि कामवृत्तियों ( Sex – Instincts) का मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। उन्होंने सम्पूर्ण समाजीकरण की प्रक्रिया को इड (Ed), इगो (Ego) तथा सुपर इगो (Super Ego ) के द्वारा समझाने की कोशिश की तथा यौन वेद में समाजीकरण को ऑडिपस काम्पलैक्स ( Oedipus Complex) तथा इलेक्ट्रॉ काम्पलैक्स (Electra Complex) के रूप में समझाने का प्रयास किया। फ्रॉयड ने व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में “सुपर इगो” को महत्त्वपूर्ण माना है।
“इड” का सम्बन्ध हमारी मूल प्रेरणाओं, इच्छाओं तथा स्वार्थों से सम्बन्धित है तथा हमारी सभी इच्छाएँ इड द्वारा ही प्रेरित होती हैं ।इगो जिसे अहम् कहते हैं। स्व का चेतन व तार्किक रूप होने के कारण वास्तविकता है जो ये निर्धारित करता है कि व्यक्ति को अमुक कार्य करना चाहिए या नही ।सुपर इगो का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों से है । इड (अपनी इच्छाओ) का सुपर इगो से सामंजस्य बैठाने या इड और सुपर इगो के अर्न्तद्वन्द्व की प्रक्रिया से ही समाजीकरण होता है। जब इगो तथा सुपर इगो में सामंजस्य नही होता है तो इसी कारण अनेक व्यक्ति समाज विरोधी कार्य करते हैं। यदि इगो, सुपर इगो का कहना मानकर इड को नियंत्रित कर लेता है तो व्यक्ति सामाजिक मान्यताओं के अनुकूल व्यवहार करने के लिए प्रेरित होता है। इससे इस बात को मान्यता दी गई है कि मानव व्यवहार का अधिकांश भाग अचेतन शक्तियों द्वारा संचालित होता है ।
- मीड का समाजीकरण का सिद्धान्त ( Mead’s Theory of Socialisation) – जॉर्ज मीड एक दार्शनिक तथा सामाजिक मनोवैज्ञानिक थे। वे अमेरिका में एक शिक्षक थे। उन्होंने अपने जीवन में बहुत कम लिखा लेकिन जो लिखा व भाषण के दौरान कहा उनके विद्यार्थियों ने एक साथ जोड़ कर उनके नाम से Mind, Self and Society का शीर्षक देकर सन् 1934 में एक पुस्तक के रूप में छपवाया तथा यह प्रतीकात्मक संचारवाद (Symbolic Interactionism) के नाम से समाजशास्त्र में प्रचलित हुआ। मीड महोदय फ्रॉयड के विचारों से सहमत नही थे उनका कहना था कि शिशु में आत्मन् का विकास अनुकरण (Limitation) से होता है। इसके लिए उन्होंने कहा कि बच्चों को निम्न चरण से गुजरना पड़ता है-
- प्रारम्भिक स्तर- इस अवस्था का काल लगभग एक से तीन वर्ष का होता है इस अवस्था में बच्चा ये नहीं समझता है कि वह क्या कर रहा है। कभी वह अपने खिलौने से प्यार से खेलता है तो कभी वह उन्हें फेंक देता है।
- क्रीड़ा स्तर- इस अवस्था का काल उसके 4 वर्ष तक का है। इस अवस्था में उसे इस बात की जानकारी होने लगती है कि वह क्या कर रहा है। लेकिन जो भी वह करता है उसमें सम्बद्धता नही रहती है।
- खेल स्तर – ये अवस्था 4 से 5 वर्ष या इससे कुछ अधिक रहती है। इस स्तर में वह घर के बाहर कोई खेल खेलना प्रारम्भ कर देता है। वह अपनी तथा दूसरों की भूमिकाओं को समझने लगता है, वह दूसरो की भूमिका निभाने का प्रयास करता है जिसे उन्होंने “Taking the role of the other” कहा है।