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स्त्रीत्व और पुरुषत्व से सम्बन्धित सिद्धान्तों पर प्रकाश डालिए । स्त्रीत्व और पुरुषत्व के विकास में विभिन्न अभिकरणों की भूमिका स्पष्ट कीजिए । Highlight the Theories Related Femininity and Masculinity. Explain the Role of Various Agencies in the Development of Femininity and Masculinity.

प्रश्न  – स्त्रीत्व और पुरुषत्व से सम्बन्धित सिद्धान्तों पर प्रकाश डालिए । स्त्रीत्व और पुरुषत्व के विकास में विभिन्न अभिकरणों की भूमिका स्पष्ट कीजिए ।
Highlight the Theories Related Femininity and Masculinity. Explain the Role of Various Agencies in the Development of Femininity and Masculinity.
उत्तर – स्त्रीत्व और पुरुषत्व से सम्बन्धित सिद्धान्त
  1. मनोविश्लेषण सिद्धान्त (Psychoanalystic Theory )यह सिद्धान्त फ्रायड ने दिया था। इस सिद्धान्त के अनुसार लैंगिक पहचान का विकास, समान लिंगी माता-पिता के समानीकरण से होता है। लड़की अपनी माँ के व्यवहार, एवं लक्षणों को अपनाने लगती है जबकि लड़का अपने पिता को अपना समान लिंगी मानकर उसके व्यवहारों एवं लक्षणों को अपनाने लगता है। जब कोई बच्चा 3 साल का होता है तब उसे अपने विपरीत लिंगी माता-पिता से लगाव हो जाता है । इसी समय समान लिंगी माता-पिता से ईर्ष्या का भाव भी उत्पन्न होता है। जब बच्चा 6 साल का होता है तब उसे समान लिंगी माता-पिता का समानीकरण होने लगता है अर्थात् वह समान लिंगी माता-पिता के लक्षणों एवं व्यवहारों को अपनाने लगता है। इस प्रकार, लड़के अपने पिता से पुरुषत्व गुणों को ग्रहण करने लगते हैं और लड़कियाँ अपनी माता से स्त्रीत्व ग्रहण करने लगती हैं। चोडोरो (Chodorow) का मानना है कि लैंगिक पहचान के विकास में माताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। माताएँ अपने पुत्र को अलग एवं भिन्न मानने लगती हैं क्योंकि उनका पुत्र विपरीत लिंग का होता है लेकिन अपनी लड़की को अपने लिंग का मानकर अपने जैसा व्यवहार जारी रखते हुए उसका पालन करती हैं। अपने पुत्र को उसके पिता जैसे व्यवहार एवं लक्षणों को अपनाने के लिए कहती हैं ।
  2. संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त – यह सिद्धान्त मानता है कि जीवन की कुछ घटनाओं की लैंगिक पहचान पर दीर्घकालीन परिणाम होता है। लैंगिक पहचान का विकास क्रम संज्ञानात्मक होता है न कि मनोलैंगिक । इस सिद्धान्त का मानना है कि लैंगिक पहचान का विकास उस समय से पहले ही शुरू हो जाता है जब समलिंगी माता-पिता के कारण इसका विकास होना शुरू होता है। समलिंगी माता-पिता का अनुकरण करने से पहले ही लैंगिक पहचान स्थापित हो जाती है और विशेष लिंगी व्यवहार और अभिवृत्ति की अभिव्यक्ति शुरू हो जाती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि लैंगिक पहचान संज्ञानात्मक विकास का परिणाम है। इस सिद्धान्त के प्रणेता कोहलबर्ग (Kohlberg) के अनुसार लैंगिक पहचान के विकास के दो महत्वपूर्ण अवस्थाएँ होती हैं-
    1. पहली अवस्था – सबसे पहले जब बच्चा अपने लिए लड़का या लड़की शब्द सुनता है तो इस आधार पर वह अपने को स्त्री या पुरुष लिंग से सम्बन्धित करता है। ऐसा लगभग 3 वर्ष की अवस्था में होता है जब कोई बच्चा अपने आप को किसी विशेष लिंग की अपनी स्थाई प्रकृति मानने लगता है। लगभग 4 वर्ष की अवस्था में विशेष लिंग वाले प्रत्यय, पहचान या व्यवहार को दूसरे में देखने लगता है, विश्लेषण करने लगता है जिससे वह अपने लैंगिक पहचान को सुदृढ़ करता जाता है।
    2. दूसरी अवस्था – जैसे ही कोई बच्चा विशेष लिंगी पहचान का सुदृढ़ीकरण करना शुरू करता है, वह दूसरी अवस्था में आ जाता है। इस अवस्था में वह दूसरे विशेष लिंगी व्यवहार एवं अभिवृत्ति एवं अपने विशेष लिंगी व्यवहार एवं अभिवृत्ति में समानता का विश्लेषण करने लगता है। इसी अवस्था में उसकी लैंगिक पहचान का सुदृढ़ीकरण हो जाता है और विश्वास हो जाता है कि उसका लिंग अब नहीं बदलेगा चाहे बाहरी तौर पर वह कोई भी कपड़े पहने। अब यह भी निश्चित हो जाता है कि किसी और के चाहने या कहने से भी उसका लिंग नहीं बदलेगा। ऐसा उसके संज्ञानात्मक विकास के कारण होता है। अब यह प्रत्यय उसके मानसिक क्षेत्र में अंकित हो जाता है ।
  3. लैंगिक पहचान का अधिगम सिद्धान्त -इस सिद्धान्त अनुसार सामाजिक वातावरण ही लैंगिक पहचान को विकसित करते हैं। इस सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत माता – पिता एवं शिक्षक आते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार पुरस्कार एवं दण्ड इस निर्धारण में विशेष भूमिका निभाते हैं। माता-पिता एवं शिक्षक स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व के आधार पर ही बच्चों को पुरस्कार या दण्ड देते हैं। यानि जब कोई बच्चा अपने लिंग जैसा व्यवहार करता है तब माता-पिता उसका समर्थन करते हैं जिससे बच्चा सीखता रहता है कि कौन से लक्षण, व्यवहार और अभिवृत्ति लिंग के अनुसार उपयुक्त है। इसी क्रम में कोई बच्चा लैंगिक पहचान सीखता रहता है इस सिद्धान्त का यह भी मानना है कि बच्चा अपने माता-पिता के व्यवहार, शरीर की विभिन्नता, पहनावा, शब्द, अभिवृत्ति का अनुकरण भी करता रहता है और सीखता रहता है। वस्त्र, शब्द, व्यवहार के लिए पुरस्कार एवं दण्ड प्रत्यक्ष रूप से दिया जाता है। इसके कारण कोई बच्चा वैसा करना शुरू कर देता है जैसी उससे अपेक्षा की जाती है। माता-पिता अपने आदेशों के आधार पर भी बच्चों को लैंगिक पहचान सिखाते रहते हैं। माता-पिता के द्वारा बोले जाने वाले शब्दों जो विशेष लिंग के लिए विशेष शब्द होते हैं, इन्हीं आधार पर बच्चा विशेष लिंगी शब्द पहचान लेता है और उसका प्रयोग करता है। माता-पिता के द्वारा खरीदा जाने वाला सामान भी विशेष लिंगी के लिए सीखने का अवसर होता है।

माता-पिता बच्चों के लिए उनके लिंग के आधार पर विशेष रूप रंग का सामान खरीदते हैं, जैसे- लड़कियों की पोशाक, लड़कों की पोशाक, खिलौने, खाने का सामान आदि। लड़कियों के द्वारा उच्च आवाज में बात करने पर नाराजगी एवं नाखुशी व्यक्त करने से भी लड़कियाँ यह सीखने लगती हैं कि किस प्रकार का व्यवहार एवं अभिवृत्ति उनके लिए उपयुक्त है।

पुरुष और महिलाओं की वास्तविक प्रकृति
महिलाओं और पुरुषों से सम्बन्धित व्यवहार उनके लिए विशिष्ट चिह्न (Sign) भी बन जाते हैं फिर वे उसी लिंग से सम्बन्धित लक्षणों को प्रकट करते हैं। यदि किसी एक लिंग का व्यक्ति दूसरे लिंग के व्यवहार को प्रदर्शित करता है तो उसके व्यवहार पर सबकी दृष्टि आकर्षित हो जाती है। जैसे यदि कोई पुरुष सब्जी काट रहा है तो उस पर ध्यान चला जाता है और यदि कोई महिला मोटर साईकल या रिक्शा चला रही है तो उस पर ध्यान चला जाता है। पुरुष और महिलाओं की प्रकृति को दिखाने वाले उनके विशेष लक्षण होते हैं । यही विशिष्ट लक्षण, उनकी प्रकृति को दिखाते हैं पर इन लक्षणों के आधार पर ही पुरुष और महिलाओं की वास्तविक प्रकृति की जानकारी नहीं मिलती है बल्कि यह वास्तविक प्रकृति उनकी क्षमताओं पर आधारित हो चाहिए। समूह में या व्यक्तिगत रूप में महिलाओं और पुरुषों के व्यवहार से सम्बन्धित तत्त्व ही लैंगिक भूमिकाओं को तय करते हैं। सम्राज में किसी लिंग विशेष में शामिल होने के लिए मान्यताओं और मूल्यों के अनुसार ही व्यवहार किया जाता है ताकि लिंग की स्पष्टता हो । जैसे विज्ञापनों या मीडिया के अन्य चित्रों में महिलाओं को आदर्श रूप में पतला दिखाया जाता है।

हेगेमोनिक स्त्रीत्व (Hegemonic Femininity) में वाह्य रूप और व्यवहार दोनों ही आते हैं। अनुसंधानों में यह स्पष्ट किया गया है कि महिलाओं को पतला दिखना, एक सामाजिक-सांस्कृतिक दबाव है। (Ehreinreich and English, 1979)

  1. पतले शरीर के अलावा मेकअप का प्रयोग भी इसी के अन्तर्गत आता है ।
  2. स्त्रीत्व से बाल एवं बाल सज्जा भी जुड़ा हुआ है। बालों का कम होना, सफेद होना, औरत के रूप के लिए अच्छा नहीं माना जाता।
  3. स्त्रीत्व को बनाए रखने में परिवार, मीडिया और साथी, तीनों का असर पड़ता है।
  4. कॉस्मेटिक्स का प्रयोग करना, लिपस्टिक लगाना, नेल पॉलिश लगाना, आभूषण धारण करना भी स्त्रीत्व का प्रतीक माना जाता है।
  5. स्त्रियों को तारीफ सुनना अच्छा लगता है। खासकर अपने शरीर की तारीफ, उनकी पोशाक की तारीफ, उनकी बुद्धि की तारीफ । यद्यपि इसका अपवाद भी हो सकता है।
स्त्रीत्व और पुरुषत्व के विकास में विभिन्न अभिकरणों की भूमिका
  1. परिवार की भूमिका (Role of Family) – परिवार में जैसे ही किसी लड़की का जन्म होता है, सभी लोग उस लड़की को सुंदरता के दृष्टिकोण से ही देखते हैं और मूल्यांकन करते हैं कि सुंदर है, कोई यह नहीं कहता ‘देखो कितनी ताकतवर (Strong) है। परिवार के सदस्य ही (सांस्कृतिक रूप से स्त्री जाति क्या है? स्त्री जाति किन लक्षणों के आधार पर स्त्री कहलाती है?) बताते हैं। जैसे ही कोई लड़की, संस्कृति मान्य लक्षणों को नहीं प्रदर्शित करती उसे टोक दिया जाता है और इसी तरह लड़कियाँ स्त्री जाति के लक्षणों को अपनाती जाती हैं। शरीर वजन और वाह्य रूप, नई पीढ़ी की लड़कियों को यह सिखाते हैं कि इनका स्त्री जाति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है ।
    शादी या समारोह के दौरान, युवा लड़कियों को सजने-धजने और रूप- सौन्दर्य पर ज्यादा ध्यान न सिर्फ लड़कियाँ स्वयं ध्यान देती हैं बल्कि इसकी प्रेरणा खुद परिवार के सदस्य भी देते हैं। मकसद कहीं न कहीं यह होता है कि इन समारोहों में इन लड़कियों को पसन्द किया जाए और उन्हें संपूर्ण स्त्री के रूप में देखा जाए जिससे उनका विवाह हो सके ।
    परिवार के सदस्य ही उन्हें क्या खाना है, क्या प्रयोग करना है का भी प्रशिक्षण देते हैं। किस प्रकार के भोजन से रूप – सौन्दर्य स्त्री जाति के लक्षणों के अनुरूप होगा, इसका भी प्रशिक्षण दिया जाता है। परिवार के अलावा साथियों के साथ तुलना किस प्रकार की लड़की को लड़के पसन्द करते हैं, को प्रत्यक्ष रूप से देखने के बाद, वैसे ही लक्षणों को अपनाने का दबाव भी बना रहता है। यदि लड़कियाँ यह देखती हैं कि लड़कियों के पतले होने और शरीर के अंगों को सन्तुलित विकास के आधार पर ही वे लड़कों द्वारा पसन्द की जाती हैं तो वे उन्हीं लक्षणों को अपनाने लगती हैं। पुरुष के लक्षणों वाली लड़कियों को सब कुछ तो मिल सकता है पर लड़के नहीं मिलते।
  2. मीडिया की भूमिका (Role of Media) – विज्ञापन और अन्य अवसरों के द्वारा मीडिया एक आदर्श स्त्री के लक्षणों को ही प्रदर्शित करता है और इन्हीं आदर्श लक्षणों को लिंग विशेष के लोग अपनाने लगते हैं। स्त्री जाति विशेष से सम्बन्धित नवीनतम् प्रवृत्तियाँ मीडिया के द्वारा ही प्रचारित किए जाते हैं। संस्कृति – मान्य लक्षणों को ही आधार बनाकर शारीरिक लक्षणों को पोषित करने वाले संदेश और उत्पादों को सुनाया और दिखाया जाता है, जैसे- विज्ञापनों में फेसवाश साबुन, तेल, क्रीम आदि प्रत्यक्ष रूप से स्त्री जाति और पुरुष जाति से सम्बन्धित किए जाते हैं। पुरुषों की तुलना में स्त्री जाति को क्रीम की अधिक आवश्यकता बतायी जाती है। ज्यादातर विज्ञापनों में महिला के चेहरे को चमकता हुआ दिखाया जाता है। जो एक दबाव भी बनाते हैं कि इसके बिना उनका अस्तित्व ही नहीं है। इसी दबाव के कारण ही सौन्दर्य उत्पाद महिलाओं के द्वारा खरीदे जाते हैं। लिपस्टिक के उत्पादों को भी विज्ञापन के जरिए दिखाया जाता है कि किस प्रकार लिपस्टिक लगाना सुंदरता को बढ़ाता है। ऐसा ही क्रीम, काजल आदि उत्पादों को भी स्त्री जाति से सम्बोधित करके दिखाया जाता है। जबकि पुरुषों को शक्ति अर्जित करने वाले लक्षणों को दिखाया जाता है, जैसे- सिक्स पैक बनाना, शरीर को ऊर्जावान बनाना, डियोड्रंट का प्रयोग करना। अपने आपको स्टाइलिश बनाना आदि को जाति से सम्बन्धित किया जाता है।
  3. पूर्वजों के व्यवहार प्रतिमान हमारे पूर्वजों द्वारा विपरीत लिंग को आकर्षित करने और उन पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने के प्रयासों को हमारे वंशानुक्रम ने पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित किया और उस समय किए गए व्यवहार एवं प्रयास को वर्तमान समय तक पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाई है। इन प्रतिमानों में सेक्स – दबाव’ एवं ‘सेक्स पर नियन्त्रण को महत्वपूर्ण कारणों में माना गया । पूर्वजों के द्वारा अपने लैंगिक • अस्तित्व को बचाने के लिए जिन प्रयासों को किया गया, कालांतर में वही प्रयास, लैंगिक लक्षण के रूप में विकसित हो गए और हमारे संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में प्रतिस्थापित हो गए । वर्तमान समय में लड़के और लड़कियों के द्वारा इन्हीं लक्षणों का आज भी अनुसरण किया जाता है, जो कि सिर्फ अनजाने या अचेतन प्रयास (Unconscious Effort) कहे जा सकते हैं जो स्वयं अपना कार्य करते हैं क्योंकि यही लक्षण पुरुष और स्त्री के बीच व्यक्तिगत सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं। पहले स्त्रियों पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए पुरुषों ने ताकत और ऊर्जा का संरक्षण किया तो वर्तमान समय में उसी को पुरुषत्व का प्रतीक माना जाता है। आज भी बलिष्ठता और ताकत (Muscles and Power) को पुरुषत्व के लिए आवश्यक माना जाता है।

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