हिन्दी का शिक्षणशास्त्र-2 (प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi
हिन्दी का शिक्षणशास्त्र-2 (प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1. रचनात्मक उपागम ज्ञान को बहुपक्षीय मानता है, स्पष्ट करें।
उत्तर― रचनात्मक उपागम में विश्वास करने वालों का मानना है कि सीखने में सीखने
वाले/वाली की सक्रिय भूमिका होती है। वह यह भूमिका मुख्यतः चिन्तन के स्तर पर
निभाता/निभाती है। उसके सामने जो बात आदि रखी जाती है, वे उन पर यांत्रिक ढंग से
प्रतिक्रिया देने को बाध्य नहीं हैं। बल्कि वे उन बातों पर चिन्तन करते/करती हैं और तब
प्रतिक्रिया देते/देती हैं। वे मानते हैं कि इंसान का सीखना इनपुट-आउटपुट सिद्धांत के आधार
पर नहीं चलता। वे मानते हैं कि ज्ञान एकरेखीय न होकर बहु-पक्षीय होता है। यानि एक
कविता, कहानी, घटना आदि के एक से ज्यादा मतलब निकल सकते हैं। मतलब का
निकलना सीखने वालों के अनुभवों पर निर्भर करता है।
प्रश्न 2. ‘विद्यालय में शुद्धोच्चारण के अभ्यास’ पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।
उत्तर―विद्यालय में शुद्धोच्चारण के अभ्यास – विद्यालय में शुद्धोच्चारण का
अभ्यास करते समय अध्यापकगण निम्न बात का ध्यान रखें―
(i) मिठास, (ii) अक्षरों की अस्पष्टता, (iii) पदों का पृथक-पृथक् उच्चारण, (iv) सुन्दर
स्वर, (v) धैर्य, (vi) लय-समर्थता ।
उच्चारण सम्बन्धी निम्नलिखित दोषों से विद्यार्थियों को बचाना चाहिए―
(i) गाना, (ii) जल्दी-जल्दी उच्चारण करना, (iii) सिर हिलाते हुए वाचन कराना, (iv)
मौन रूप से उच्चारण करना, (v) अर्थ समझे बिना उच्चारण करना, (vi) दबे स्वर में पढ़ना।
विद्यार्थियों का उच्चारण शुद्ध करने के लिए निम्नलिखित दो उपाय अपनाये जा सकते हैं―
(क) शुद्ध बोलने का अभ्यास कराना,
(ख) शुद्ध बोलने वालों का साहचर्य।
बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति बड़े तीव्र यप में पायी जाती है, इसलिए समय-समय
पर उनका सम्पर्क अच्छे वक्ताओं से कराना चाहिए, ताकि वे स्वाभाविक रूप से शुद्ध
उच्चारण को ग्रहण कर सकें।
इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उच्चारण सम्बन्धी शुद्धता पूरे शब्द की
होनी चाहिए केवल अशुद्ध अंग की ही नहीं, उदाहरणस्वरूप, यदि कोई बालक ‘सुशोभित ‘
को ‘सुशोभित’ कहता है तो उच्चारणाभ्यास पूरे शब्द ‘सुशोभित’ का ही कराया जाये, केवल
‘सु’ का ही नहीं।
अध्यापक को इसकी विशेष जानकारी रखनी चाहिए कि जहाँ तक संभव हो, उच्चारण
शुद्ध करने के कार्य में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो सकती है।
प्रश्न 3. लिखना सीखाने के सिद्धांत या नियम क्या है ?
उत्तर– लिखना सिखाने के सिद्धांत (नियम)– बालकों को लिखना सिखाते समय
निम्नलिखित बातों का स्मरण रखना आवश्यक है―
1. लेखन-चक्र अधिक लम्बी न हो, अन्यथा बालक थक जाएंगे और उनका लेख
अच्छा नहीं होगा।
2. वही बालक अच्छा लिख सकेगा, जिसमें सम्यक् रूप से पढ़ने की क्षमता होगी।
3. लिखना सिखाने का भी एक क्रम है। यह क्रम वर्णमाला के क्रम से कुछ भिन्न है।
4. एकदम ही बालकों से छोटे-छोटे अक्षर लिखने के लिए न कहा जाय। पहले-पहल
उन्हें बड़े अक्षर लिखने को दिए जायँ। इस बात का ध्यान रखा जाय कि उनमें पर्याप्त अंतर
न हो। धीरे-धीरे अक्षरों का आकार और अंतर ठीक होने लगेगा।
5. लिखना सिखाते समय पहले वही अक्षर चुना जाए, जिसे बालक थोड़े ही प्रयास से
लिख सकें। फिर उस वर्ण में थोड़ा सा परिवर्तन करके एक और वर्ण बनाया जाय। इसी प्रकार
चार-पाँच वर्ण बनवाए जाएँ। सारी वर्णमाला को इसी तरह कुछ वर्णों में विभाजित करके
अक्षर बनाना सिखाना जाए। इस प्रकार बालक अक्षरों को तुलनात्मक दृष्टि से भी देख सकेंगे ।
प्रश्न 4. बच्चों के शुरूआती लेखन की संकल्पना क्या है ?
उत्तर―जिस तरह बच्चे एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत जमीन पर घुटनों के बल
चलते हैं, सहारा लेकर खड़े होते हैं और फिर चलना सीखते हैं, उस तरह पढ़ने-लिखने
की प्रक्रिया के तहत भी कुछ ऐसे पड़ाव आते हैं जो स्वाभाविक हैं। जब बच्चे पहला शब्द
बोलते हैं तो घर में खुशी की लहर सी दौड़ जाती है। सभी उस बच्चे को घेरकर यह उम्मीद
करते हैं कि वह कब एक और शब्द बोलेगा, पर सोचने की बात यह है कि हम उसी बच्चे
को तब क्यों नहीं उम्मीद भरी नजरों और उत्साह से देखते हैं, जब वह पहली बार पेंसिल
पकड़कर लकीर खींचता है । एक बच्चे के लिए किसी लिखित प्रतीक का अर्थ बनाना या
जमीन, दीवार अथवा कागज पर रेखा खींचना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है एक कदम है
जो बच्चों ने उठा लिया है, एक पड़ाव पार करने की तरफ । यही बच्चों का शुरूआती लेखन है।
प्रश्न 5. शिक्षण अभ्यास से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर– शिक्षण अभ्यास के क्रम में शिक्षक अपनी जिम्मेदारी (आकादमिक, शैक्षिक
व सामाजिक) को शिक्षा के बृहत्तर परिणाम व लोकतांत्रिक समाज के संदर्भ में समझें। कक्षा
के भीतर की प्रक्रिया कोई पृथक घटना नहीं है, बल्कि इसका गहरा जुड़ाव विभिन्न सामाजिक
ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से होता है। शिक्षक अपने सार्थक कर्म के माध्यम से असमान
सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए हस्तक्षेप करता है। उसकी यह भूमिका एक सांस्कृतिक कर्मी
की तरह होती है। शिक्षण अभ्यास में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए कि प्रशिक्षु शिक्षक
न सिर्फ शिक्षा के तकनीकी पक्ष को समझ पाए, बल्कि वे हस्तक्षेपकारी भूमिका को भी
साकार रूप दे सकें। कोशिश यह होनी चाहिए कि वे अनुभवों के जरिए रूढ़ीवादी सामाजिक,
सांस्कृतिक मान्यताओं आदि का तार्किक ढंग से चुनौती दे सके। इस क्रम में पाठ योजना
के पारम्परिक स्वरूप में क्रांतिकारी बदलाव लाने की अपेक्षा है। जिसकी नये स्वरूप में बाल
केन्द्रित शिक्षा लोकतांत्रिक सोच, सृजनशीलता तथा आलोचनात्मक शिक्षणशास्त्र आदि
अवधारणाओं को बढ़ाया जा सके। शिक्षा अभ्यास द्वारा पाठ योजना के पारंपरिक प्रारूप के
स्थान पर सीखने की योजना के एक लचीले तार्किक स्वरूप को लाने की कोशिश है।
प्रश्न 6. ‘स्कीमा’ क्या है ? जीन पियाजे के सिद्धांत के आलोक में सीखने में
आत्मसात करने और समायोजन की भूमिका की पड़ताल करें ।
उत्तर–जीन पियाजो एक जीव वैज्ञानिक की तरह भाषा सीखने को व्याख्यायित करते
हैं। उनका मानना है कि मानसिक विकास में जन्मजात कारकों की भूमिका नहीं होती,
विकास का कारण है—जीव और वातावरण के बीच अन्तःक्रिया। इसका एक निहितार्थ यह
है कि जिस प्रकार बच्चा/बच्ची वातावरण के संपर्क में आता है और उसका विकास क्रमशः
होता है, उसी प्रकार उसकी भाषा का भी विकास होता जाता है। जैसे-जैसे बच्चा वातावरण
के संपर्क में आता है अथवा वातावरण से अंतःक्रिया करता है, वैसे-वैसे उसकी मानसिक
संरचनाओं में गुणात्मक बदलाव आता है। पियाजे के अनुसार सीखने के संदर्भ में
आत्मसातीकरण और समायोजन की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण होती है। एक उदाहरण के माध्यम
वह एक गाय देखता है और उसकी माँ उस गाय की ओर संकेत कर कहती है
आ गई। बच्चा गाय की ‘छवि को उसके नाम के साथ ध्वनि/आवाज संयोजित कर लेता
है। यानी बच्चे की बौद्धिक संरचना में ‘गाय’ की छवि और ध्वनि अपना स्थान ले लेती है।
पियाजे के अनुसार यह छवि ‘स्कीमा’ कहलाती है। बच्चा अपनी बौद्धिक संरचना के आधार
पर उसे आत्मसात करता है। अब बच्चा कुत्ता, बैल, बिल्ली आदि देखता है और उसे ‘गाय’
कहकर संबोधित करता है। यह सामान्यीकरण की प्रवृत्ति है। बच्चे के गाय और शेष जानवरों
में संभवतः पैरों के आधार पर सामान्यीकरण किया। लेकिन जब अलग-अलग समय पर
बच्चे के समक्ष उन जानवरों को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है तो बच्चा पूर्व में बनाई
गई छवि में परिवर्तन करता है। इस परिवर्तन के आधार पर वह गाय, कुत्ता, बैल, बिल्ली
आदि जानवरों में द करना सीखता है और उसके साथ क्रमशः उनके नामों (ध्वनियों/शब्दों)
को जोड़ता है। इतना ही नहीं वह धीरे-धीरे समय के बढ़ते क्रम में अलग-अलग तरह की
गायों (सफेद, काली, भूरी, चितकबरी आदि) में भी अंतर करने लगता है और उसी के
अनुरूप शब्दों का प्रयोग करता है। यह समायोजन की स्थिति है।
प्रश्न 7. ‘हिन्दी की वर्तमान स्थिति’ विषय पर वस्तुनिष्ठ, लघुत्तरात्मक तथा
निबंधात्मक दो-दो प्रश्न बनाइए।
उत्तर– हिन्दी की वर्तमान स्थिति’ पर वस्तुनिष्ठ, लघुत्तरात्मक और निबंधात्मक प्रश्न
इस प्रकार हैं :
वस्तुनिष्ठ प्रश्न :
1. हिन्दी भाषा की उत्पत्ति किससे हुई है ?
(क) पाली प्राकृति से
(ख) लौकिक संस्कृत
(घ) मागधी अपभ्रंश से
(ग) कैदिक संस्कृति से
उत्तर-(ग)
2. हिन्दी भाषा की लिपि कौन-सी है ?
(क) खरोष्ठी
(ख) देवनागरी
(ग) शामी
(घ) ब्राह्मी
उत्तर-(ख)
लघुत्तमात्मक प्रश्न :
1. हिन्दी भाषा किस क्षेत्र में व्यवहार में लाई जाती है ?
2. हिन्दी भाषा की उपेक्षा के प्रमुख कारण बताइए।
निबंधात्मक प्रश्न :
1. ‘हिन्दी की वर्तमान स्थिति) पर एक सारगर्भित निबंध लिखिए।
2. हिंदी की वर्तमान स्थिति के लिए उत्तरदायी कारणों का उल्लेख कीजिए। सुधार के
उपाय भी सुझाइए।
प्रश्न 8. हिन्दी भाषा में मूल्यांकन हेतु प्रश्न-पत्र निर्माण की दृष्टि से ध्यातव्य
बातों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर― हिन्दी भाषा में मूल्यांकन हेतु प्रश्न-पत्र निर्माण की दृष्टि से ध्यान रखने योग्य
बातें निम्नांकित हैं :
(i) हिन्दी भाषा शिक्षण के अनेक उद्देश्य होते हैं। अतः इनसे सम्बन्धित, छात्रों में जिन
योग्यताओं की जाँच कराना हमारा लक्ष्य हो, उन्हीं पर आधारित प्रश्न होने चाहिए।
(ii) प्रश्न-पत्र निर्माण में भाषा शिक्षण के उद्देश्य एवं अपेक्षित व्यवहार परिवर्तनों का
स्पष्ट एवं सुनिदिष्ट उल्लेख होना चाहिए।
(iii) प्रश्न-पत्र रचयिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि किन योग्यताओं को कितना
महत्त्व देना है या इन्हें किस अनुपात में रखा जाए ? प्राइमरी कक्षाओं में भाषिक तत्वों पर,
माध्यमिक कक्षाओं में वैचारिक तत्व बोध एवं अभिव्यक्ति पर, उच्चतर माध्यामिक कक्षाओं
में स्वतंत्र अभिव्यक्ति समीक्षा पर अधिक बल दिया जाता है। अतः विविध उद्देश्यों के
सापेक्षिक महत्त्व के समझकर ही यह अनुपात निर्धारित करना चाहिए।
(iv) जहाँ तक सम्भव हो, पाठ्यचर्या के अधिक से अधिक भाग पर प्रश्न बनाए जाएं
पर प्रश्न इतने अधिक भी न हों कि बालक परीक्षावधि में उन्हें कर ही न सके।
(v) प्रश्न-पत्र निर्माण के समय ध्यान रखना चाहिए कि किस उद्देश्य की प्राप्ति का
मूल्यांकन किस प्रकार के प्रश्नों द्वारा किया जा सकता है ?
(vi) ध्यान रखना चाहिए कि किस प्रकार के प्रश्नों के लिए कितने अंक निर्धारित किए
जाएँ। सामान्यतः 40 प्रतिशत निबंधात्मक, 20 प्रतिशत लघुत्तरात्मक और 30 प्रतिशत
वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का विभाजन समीचीन माना जाता है।
(vii) यह ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यक्रम के किस अंश में से कितने प्रश्न
निबंधात्मक, कितने लघुत्तारत्मक और कितने वस्तुनिष्ठ पूछे जाएँ?
(viii) प्रश्नों की भाषा सरल, स्पष्ट एवं बोधगम्य होनी चाहिए। सभी परीक्षार्थी किसी.
प्रश्न का एक ही अर्थ निकाले यह आवश्यक है।
प्रश्न 9. हिन्दी शिक्षण में मौखिक अभिव्यक्ति के मूल्यांकन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर– हिन्दी शिक्षण में मौखिक अभिव्यक्ति का मूल्यांकन–मूल्यांकन के लिए पहले
हमें यह जानना आवश्यक है कि बालक की मौखिक अभिव्यक्ति में क्या-क्या विशेषताएँ
होनी चाहिए ? गंभीरता से विचार करने से हमें ज्ञात होता है कि मौखिक अभिव्यक्ति में
निम्नांकित विशेषताएँ होनी आवश्यक हैं।
(i) बालक का उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से पूर्णतया शुद्ध हो । शिक्षक यह ध्यान रखे
कि बालक के उच्चारण में स्थानीय बोली का प्रभाव नहीं हो। हिन्दी भाषा शिक्षक बालक
के शुद्ध उच्चारण के प्रति प्रयत्नशील हो ।
(ii) भाषा सरल हो, व्यंग्यात्मक तथा लम्बे वाक्य नहीं हो और सामाजिक शब्दों, व्यंजन
गुच्छों का अभाव हो ।
(iii) भाषा प्रसंगानुकूल, स्वाभाविक, हाव भाव सहित हो।
(iv) वार्तालाप में अनावश्यक, दुरुह, अप्रचलित, शब्द न हों।
(v) ऐसी भाषा का प्रयोग उचित है, जिसको सुनते ही उसका अर्थ स्पष्ट हो जाए।