सामाजिक विज्ञान का शिक्षणशास्त्र ( उच्च प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi
सामाजिक विज्ञान का शिक्षणशास्त्र ( उच्च प्राथमिक स्तर) | D.El.Ed Notes in Hindi
S-9C सामाजिक विज्ञान का शिक्षणशास्त्र ( उच्च प्राथमिक स्तर)
प्रश्न 1. सामाजिक विज्ञान शिक्षण के लिए सीखने की योजना का स्वरूप कैसा
हो? इसके लिए एक सीखने की योजना का निर्माण करें।
उत्तर―
सीखने की योजना
शिक्षक का नाम― कक्षा–7
कलांश― तिथि―
विषय-भूगोल (सामाजिक अध्ययन) इकाई―1
विषय-वस्तु : पृथ्वी के अंदर ताक-झाँक
विषय वस्तु से संबंधित पूर्व समीक्षा (शिक्षण से पहले किया जाने वाला कार्य) :
1. यह विषय वस्तु इस कक्षा के पाठ्यचर्या/पाठ्यक्रम में उल्लिखित किन-किन
उद्देश्यों/बिंदुओं से जुड़ा हुआ है ?
यह विषयवस्तु बच्चों में धरती की बनावट की समझ के साथ-साथ उसके महत्व की
भी शिक्षा देती है।
2. क्या यह विषय वस्तु पूर्ववत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है ? कैसे ? यह
विषय वस्तु इस कक्षा की और किन-किन विषयों इकाइयों से जुड़ा हुआ है ? क्या मैंने इस
विषय वस्तु का पहले शिक्षण किया है ? क्या मुझे विषय वस्तु से संबंधित पर्याप्त समझ है ?
हाँ, यह विषयवस्तु पूर्ववत कक्षाओं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है। पूर्ववत कक्षा में
पृथ्वी के स्थल रूप एवं बनावट का वर्णन है । जहाँ-जहाँ पृथ्वी की संरचना एवं उससे जुड़े
तत्वों की बात होगी उससे यह विषयवस्तु स्वतः जुड़ जायेगी। हाँ, मैंने इस विषयवस्तु का
पहले शिक्षण किया है। मुझे इसकी पर्याप्त समझ है।
3. विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण ।
यह विषयवस्तु बच्चों में पृथ्वी की अंदरूनी बनावट तथा उसमें पाये जाने वाले खनिजों
की जानकारी देती है।
4. सीखने-सिखाने की विधियाँ । इन विधियों को क्यों चुना गया?
विषयवस्तु के शिक्षण के लिए सामूहिक चर्चा, पठन, प्रदर्शन तथा प्रश्नोत्तरी विधि का
प्रयोग किया जायेगा । सामूहिक चर्चा द्वारा बच्चों के अनुभव को विषयवस्तु से जोड़ा जायेगा,
पठन एवं प्रदर्शन द्वारा उनमें विषयवस्तु की मूर्त समझ विकसित की जायेगी । प्रश्नोत्तरी विधि
द्वारा उनकी समझ का मूल्यांकन किया जायेगा।
5. सीखने की योजना
40 मिनट की इस कक्षा में सर्वप्रथम 10 मिनट सामूहिक चर्चा द्वारा बच्चों से पृथ्वी की
संरचना के बारे में उनकी समझ एवं अनुभवों को विषयवस्तु से जोड़ा जायेगा । फिर अगले
15 मिनट पाठ्यपुस्तक का पठन होगा। इसके साथ ही बच्चों को पृथ्वी की संरचना से जुड़े
चित्र तथा चलचित्र का प्रदर्शन किया जायेगा। इसके बाद बच्चों को कुछ खनिजों के नमूने
दिखा कर उन्हें इनके बारे में बताया जायेगा । अन्त के 15 मिनट में प्रश्नोत्तरी विधि द्वारा
उनकी समझ का मूल्यांकन किया जायेगा।
शिक्षक द्वारा स्व मूल्यांकन के सुझाव बिन्दु (शिक्षण के बाद किया जाने वाला कार्य):
1. क्या विद्यार्थी ने उन उद्देश्यों को समझा जिसके लिए यह विषय वस्तु थी? इसका
मूल्यांकन किया गया कि नहीं?
हाँ, विद्यार्थियों ने उद्देश्य को समझा । यह उनके मूल्यांकन से स्पष्ट हो गया ।
2. क्या इस विषय वस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता है ? क्यों
या क्यों नहीं?
विषय वस्तु को फिर से कक्षा में चर्चा करने की आवश्यकता तो नहीं है, परंतु अगली
कक्षा में विषय से संबंधित खनिजों के बारे में और चर्चा करने की आवश्यकता है।
3. साथियों द्वारा पूछे गए प्रमुख सवाल क्या थे? कितने विद्यार्थियों ने सवाल
पूछे?
तीन-चार विद्यार्थियों ने लावा एवं उसके पिघले होने का कारण पूछा।
4.आपने उन सवालों को कैसे समझाया? क्या विद्यार्थियों को स्वयं उन सवालों का हल
करने का मौका मिला?
उन्हें उससे संबंधित वैज्ञानिक कारणों के द्वारा समझाया गया ।
फिर विद्यार्थियों ने वैसे.प्रश्नों को समझा एवं हल किया ।
5. विषय वस्तु के सीखने-सिखाने में किस प्रकार के संसाधनों (T LM) का प्रयोग
किया गया? उनकी उपयोगिता क्या रही।
चित्र, आई सी टी, आदि का प्रयोग किया गया। प्रदर्शन को माध्यम बनाया गया जो
बहुत उपयोगी रहा।
6. इस विषय वस्तु को यदि दोबारा पढ़ाना हो तो आप सीखने-सिखाने की योजना में
क्या बदलाव करेंगे?
यदि इस विषयवस्तु को दुबारा पढ़ाना हो तो सीखने की योजना में कोई बदलाव नहीं
करेंगे।
7. इस विषय वस्तु से संबोधित कोई ऐसा सवाल जिसे आपको अपने संस्थान के विषय
विशेषज्ञ तथा मेंटर से चर्चा करने की अपेक्षा है?
इस स्तर पर कहाँ तक जानकारी देनी है।
8. कोई अन्य टिप्पणी।
समय का ध्यान रखना होगा।
प्रश्न 2. सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में बच्चों के आकलन-मूल्यांकन के
विविध तरीकों की समझ विकसित करें।
उत्तर―विद्यार्थियों के आकलन-मूल्यांकन के निम्नलिखित तरीके हैं―
क. मौखिक परीक्षायें (Oral Tests)― मौखिक परीक्षाओं का उद्देश्य बालकों की
मौखिक प्रश्नों द्वारा तुरन्त अभिव्यक्ति तथा क्रियाशीलता की जाँच करना हैं । प्रश्नों के उत्तर
मिलने पर परीक्षक बालक के सम्बन्ध में अपना मत स्थिर कर लेता हैं। इन परीक्षाओं का
प्रयोग पहले तो केवल छोटी कक्षाओं के बालकों के लिए ही किया था परन्तु आजकल
मौखिक परीक्षाओं का प्रयोग बड़ी कक्षाओं में प्रवेश साक्षात्कार तथा वाइवा-वोसी के लिए
भी किया जाता हैं।
ख. निबन्धात्मक परीक्षाएं (Essay Type Tests)―निबन्धात्मक परीक्षाओं का
तात्पर्य ऐसी परीक्षण प्रणाली से है जिसके अन्तर्गत सभी बालक पाठ्यक्रम के कई प्रश्नों के
उत्तर निश्चित समय के अन्दर निबन्ध के रूप में देते हैं। इन परीक्षाओं में प्रश्नों के उत्तर
इतने लम्बे होते हैं कि परीक्षक बालकों के विचार, तुलना, अभिव्यंजना तर्क तथा आलोचना
आदि के साथ-साथ विचारों को संगठित करने की योग्यता तथा भाषा एवं शैली आदि की
जाँच भली-भाँति कर सकता हैं। इसके माध्यम से व्यक्ति की उपलब्धि के साथ-साथ उसको
व्यक्त करने की शक्ति, लेखन क्षमता एवं व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी हो सकता है।
ग. वस्तुनिष्ठ परीक्षाएं (Objective Type Tests)― वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ नवीन
शैक्षिक अनुसंधान की देन हैं। इन परीक्षाओं में छात्रों को स्वतन्त्रता नहीं होती । छात्र अपनी
इच्छा से उत्तर नहीं दे सकते । प्रत्येक प्रश्न का एक विशिष्ट उत्तर होता है। ये प्रायः एक
निश्चित एवं लघु उत्तर होता है। इन परीक्षणों में अंक लगाते समय व्यक्तिगत विचारों का
कोई स्थान नहीं होता । कई बार तो उत्तर इतने संक्षिप्त होते हैं कि केवल एक शब्द या वाक्य
के नीचे रेखा खींच देने से ही काम चल जाता है।
घ. निरीक्षण (Observation)– निरीक्षण एक महत्वपूर्ण मूल्यांकन तकनीक है,
जिसके द्वारा अध्यापक किसी भी विद्यार्थी के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकता
है। यह विद्यार्थियों के बारे में जानने के लिए उनके विकास का मूल्यांकन करने के लिए,
उनकी योग्यताओं तथा क्षमताओं की पहचान करने के लिए यह उत्तम तकनीकों में से एक
तकनीक है। इसकी सहायता से अध्यापक विद्यार्थियों को रुचियों, अभिवृत्तियों, दृष्टिकोणों,
कौशलो, ज्ञान तथा भावनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकता है।
ङ. क्रम-निर्धारण मान (Rating Scale)-मनुष्य में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ होती
है, प्रत्येक मनुष्य की रुचि, योग्यता दूसरे मनुष्य से अलग होती है। स्वभाव से भी देखें तो
संसार में भिन्न-भिन्न स्वभाव के व्यक्ति है । क्रम निर्धारणमान व्यवहार को जानने का एक
ढंग है। मानवीय व्यवहार का मूल्यांकन करने के लिए इसका प्रयोग बहुत समय से किया
जा रहा हैं। निरीक्षण को मात्रात्मक रूप देने के लिए क्रम निर्धारण मान का प्रयोग किया
जाता है। रेटिंग स्केल से हम यह जान सकते हैं कि अमुक व्यक्ति में कोई विशिष्ट
मनोवैज्ञानिक गुण कितनी मात्रा में हैं।
च. मौखिक परीक्षाएं― इन परीक्षाओं द्वारा छात्रों की उपलब्धियों के उन पक्षों का
मूल्यांकन किया जाता है जिन्हें हम लिखित परीक्षा द्वारा नहीं माप सकते । इन परीक्षाओं में
मौखिक प्रश्न, वाद-विवाद, विचार-विमर्श एवं प्रदर्शन आदि सम्मिलित हैं। लिखित
परीक्षाओं की कमियों की पूर्ति किसी सीमा तक मौखिक परीक्षाओं द्वारा संभव है।
छ. पड़ताल सूची- पड़ताल सूची प्रश्नावली की भाँति व्यक्तिगत सूचना एवं मत जानने
का प्रमुख साधन है।
ज. चेक लिस्ट― इसका स्वरूप प्रश्नावली प्रविधि की तरह ही होता है। अंतर केवल
इतना है कि इसमें प्रश्नावली की अपेक्षा प्रश्न तथा कथन बहुत स्पष्ट होते हैं जिन्हें पढ़कर
विद्यार्थी केवल उनसे संबंधित सही उत्तर पर निशान लगाते हैं। इसमें उन्हें कुछ लिखना नहीं
पड़ता । चेक लिस्ट का उद्देश्य प्रश्नावली प्रविधि के ही समान होता है। यह आत्म मूल्यांकन
के लिए भी उपयोगी होती है।
झ. अभिलेख― विद्यार्थियों की विज्ञान की पुस्तिका, अभिलेख संचिका इत्यादि के
अवलोकन से उनकी रुचि, दृष्टिकोण, अनुभूति इत्यादि का मूल्यांकन किया जा सकता है।
कक्षा में तथा घर पर किए गए कार्य की पुस्तिकाओं को भी अभिलेख का अंग माना जा
सकता है।
ज. साक्षात्कार― साक्षात्कार द्वारा विद्यार्थियों की सामाजिक अध्ययन में रुचि का
विकास, उपयुक्त दृष्टिकोण, आत्मविश्वास, बौद्धिक स्तर, सामाजिक अध्ययन के ज्ञान का
प्रयोग इत्यादि का मूल्यांकन किया जा सकता है। मौखिक परीक्षा तथा साक्षात्कार के उद्देश्यों
में अधिक अंतर नहीं है।
ट. स्व आकलन― स्वयं का आकलन करना विद्यार्थियों के उनके सीखने में वृद्धि करने
हेतु उनकी सहायता हेतु आकलन की एक प्रभावी तकनीक है। यह विद्यार्थियों को उनके
मजबूत तथा कमजोर बिन्दुओं तथा जिस क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता है, के विषय में
जानकारी प्राप्त करने हेतु उनकी सहायता करती है। स्व आकलन विद्यार्थियों को उनकी
तुलना दूसरों के साथ करने या पाठ्यपुस्तक में पाठ के विषयवस्तु के साथ सत्यापित कर उनके
निष्पादन का आकलन करने हेतु विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के द्वारा की जा सकती है।
कभी-कभी सुझाये गए उत्तर प्रश्नों के साथ भी दिए जाते हैं ताकि दिए जा सकते हैं ताकि
विद्यार्थी अपने उत्तरों की तुलना दिए गए प्रस्तावित उत्तरों के साथ कर सकें।
ठ. सहपाठी आकलन― स्व आकलन की तरह सहपाठी आकलन भी सामाजिक
विज्ञान में विद्यार्थी के निष्पादन में आकलन की एक प्रयुक्त तकनीक है। विद्यार्थी सहपाठियों
के साथ रहना तथा अंत:क्रिया करना पसंद करते हैं । सहपाठी आकलन में सामान्यतः शिक्षक
द्वारा दिए गए कार्यों के उत्तर सहपाठियों में उनके द्वारा साझा किए जाते हैं । सहपाठी एक-दूसरे
के उत्तरों को पढ़ते हैं और आगे के सुधार हेतु अवलोकन या टिप्पणी प्रदान करते हैं । इस
प्रकार से आकलन करने पर विद्यार्थी अपने निष्पादन को सुधारने हेतु प्रतिपुष्टि प्राप्त करते हैं।
ङ. समूह आकलन― समूह आकलन सामाजिक विज्ञान में प्रयुक्त आकलन की एक
अन्य लोकप्रिय तकनीक है । जैसा कि हम जानते हैं कि सामाजिक विज्ञान शिक्षण में क्षेत्र
भ्रमण, परियोजना आधारित अधिगम, सामुदायिक सर्वेक्षण आदि जैसी कई संयुक्त समूह
केंद्रित गतिविधियां आवश्यक है। इन गतिविधियों में विद्यार्थी गतिविधियों को करने हेतु समूह
में एक साथ जाते हैं । कक्षाकक्ष परिस्थिति में भी बहुत से अधिगम अनुभव वाद-विवाद,
परिचर्चा, सेमिनार प्रस्तुति, प्रकरण आधारित समूह चिंतन, समकालीन मुद्दों पर समीक्षात्मक
विश्लेषण आदि जैसी अनुदेशनात्मक तकनीकों द्वारा प्रदान की जाती है। यह सभी सामूहिक
गतिविधियाँ शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में समूह आकलन हेतु आधार निर्माण करती है।
आकलन में निर्णय समूह के सदस्यों की गतिविधियों की योजना एवं क्रियान्वयन, समूह
गतिविधियों हेतु उनके योगदान तथा प्रस्तुतीकरण के समय समूह के निष्पादन की तुलना अन्य
समूह के साथ करने के दौरान सम्मिलित होने के आधार पर किया जा सकता है, इत्यादि ।
प्रश्न 3. सामाजिक विज्ञान शिक्षण के विभिन्न उपागम (approach) का उल्लेख
करें।
अथवा
सामाजिक विज्ञान का शिक्षण किस प्रकार करेंगे? इसके शिक्षण के विभिन्न
उपागमों का उल्लेख करें।
उत्तर―उच्च प्राथमिक स्तर पर विद्यार्थियों द्वारा परस्पर अंतक्रिया के वातावरण में ज्ञान
तथा कौशल अर्जित करने में मदद देकर सामाजिक विज्ञान के विभिन्न घटकों का शिक्षण
करने की आवश्यकता है। प्रायः देखा गया है कि पाठ्यचर्या में चर्चा किए गए मुद्दों और
बच्चे के प्रत्यक्ष ज्ञान में अंतर बढ़ता जा रहा है। यह महत्वपूर्ण है कि सीखने की प्रक्रिया
बच्चों और शिक्षकों में जांच-पड़ताल की प्रवृत्ति और रचनात्मकता को प्रोत्साहित करे ।
सीखने की प्रक्रिया को भागीदारी पूर्ण बनाने के क्रम में सूचना के मात्र आदान-प्रदान से
हटकर वाद-विवाद और परिचर्चा आदि में लगने की आवश्यकता है। शिक्षण की यह विधि
विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों को सामाजिक यथार्थताओं के प्रति सचेत रखेगी।
अवधारणाओं को व्यक्तियों और समुदायों के सजीव अनुभवों द्वारा विद्यार्थियों को स्पष्ट
किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए सामाजिक समानता को अवधारणा को उन समुदायों
के सजीव अनुभवों का उदाहरण देकर बेहतर ढंग से समझा जा सकता है, जो कि बच्चे के
सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण करते हैं। यह मी प्राय: देखा गया है कि
सांस्कृतिक, सामाजिक और वर्ग भिन्नता के कारण कक्षा में पक्षपात, पूर्वग्रह और प्रकृतियाँ
पैदा होती हैं। इसलिए शिक्षण के उपागम को अबाध (खुला) रखने की आवश्यकता है।
शिक्षक विभिन क्रियाकलापों में बच्चों को शामिल कर सकता है जिससे वे कुछ
अवधारणाओं को सजीव अनुभवों के द्वारा सीख सकें। उदाहरण के लिए―
● स्कूल में सामाजिक विज्ञान सप्ताह मनाया जा सकता है।
● विद्यार्थियों को पास के संग्रहालय या कला और शिल्प केंद्र घुमाने ले जाया जा
सकता है।
● विद्यार्थियों को रात्रि का आसमान, चंद्रमा की कलाओं, सूर्यादय तथा सूर्यास्त देखने
के लिए तथा दिन और रात की अवधि का और उनके अनुभवों का वर्णन की
के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
● विद्यार्थियों को ऐतिहासिक स्मारकों पर ले जाकर, इनके चित्र बनाकर इनके विषय
में लिखने को कहा जा सकता है। इन चित्रों को विद्यालय में प्रदर्शित किया जा
सकता है, इत्यादि।
इसके अलावा विद्यार्थियों से ग्रीष्मावकाश के दौरान ऐतिहासिक स्मारकों के मॉडल,
ज्वालामुखी और भूकंप के प्रभाव दिखाते चास, शब्द पहेली या पहेली बनाने के लिए कहा
जा सकता है। बच्चे प्राकृतिक पर्यावरण से संबंधित तत्वों को रेखांकित या चित्रित कर सकते
हैं। स्कूली पाठ्यक्रम से संबंधित समाचारपत्रों या पत्रिकाओं की कतरनें या बेवसाइट से
एकत्रित सूचनाएं प्रदर्शित की जा सकती हैं, इत्यादि ।
प्रश्न 4. सामाजिक विज्ञान की अवधारणा एवं इसकी प्रकृति का वर्णन करें।
उत्तर―सामाजिक विज्ञान का शाब्दिक अर्थ है-समाज का विज्ञान । सामाजिक विज्ञान
अंग्रेजी भाषा के शब्द Social Science का हिन्दी रूपान्तर है जो दो शब्दों Social और
Science से मिलकर बना है। सोशल का अर्थ है- मानव का उसके सामाजिक परिवेश में
अध्ययन करना और साइंस का अर्थ है- मानव का उसके परिवेश में क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित
अध्ययन करना । इस प्रकार सामाजिक विज्ञान से अभिप्राय उस विज्ञान से है जिसमें मानवीय
क्रियाओं और व्यवहारों का उनके सामाजिक परिवेश में क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन
किया जाता है।
समाज में मानव का जीवन उसकी विभिन्न क्रियाओं के आधार पर विभिन्न सामाजिक
विज्ञानों के लिए विषयवस्तु की उत्पत्ति एवं विकास हुआ है। सामाजिक विज्ञानों की विषयवस्तु
का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, इनकी परिसीमा में मानव का सम्पूर्ण इतिहास प्राचीन काल से लेकर
वर्तमान काल तक सीमित रहता है।
मानव के सामाजिक जीवन से सम्बन्धित सभी विषय सामाजिक विज्ञानों की श्रेणी में
आते हैं जैसे भूगोल, मनोविज्ञान, समाजशास्र, दर्शनशास्त्र, मानवशास्त्र, अर्थशास्त्र, नागरिक
शास्त्र, इतिहास आदि । इन विषयों के महत्व एवं उपयोगिता को ध्यान में रखकर इनके
अध्ययन को शिक्षा के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है। इन विषयों
को उच्च स्तर पर पृथक-पृथक रूप में पढ़ाया जाता है और साथ ही साथ इनमें अनुसन्धान
कार्य भी किये जाते हैं । उच्च स्तर पर इनका अध्ययन-अध्यापन एवं शोधकार्य वैज्ञानिक
विधि से किया जाता है । इन विषयों की पाठ्य-सामग्री एक-दूसरे से अलग होने के बावजूद
ये सभी विषय मानव के सामाजिक जीवन का गहनता एवं स्पष्टता से अध्ययन करते हैं।
सामाजिक विज्ञान की प्रकृति दृसामाजिक विज्ञान की प्रकृति को निम्नांकित रूप से स्पष्ट
किया जा सकता है―
1. सामाजिक विज्ञान एक कला है (Social Science is an Art)― सामाजिक
विज्ञान को कुछ विद्वान कला मानते हैं। उनका मानना है कि सामाजिक विज्ञान में भी
सामाजिक अध्ययन की भाँति उद्देश्यों का निर्धारण होता है, इसके नियम एवं साधन निश्चित
किए जाते हैं और व्यावहारिकता का ज्ञान प्रदान किया जाता है । इस आधार पर सामाजिक
विज्ञान मानव का सभी दृष्टिकोणों से अध्ययन करता है और सामाजिक विज्ञान जिन
सामाजिक विज्ञानों (इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र एवं नागरिक शास्र) से विषय-सामग्री ग्रहण
करता है उनका सम्बन्ध भी मानवीय व्यवहार, मानवीय सम्बन्धों, मानवीय संस्थाओं एवं
मानवीय वातावरण से होता है। अतः इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सामाजिक विज्ञान एक
कला है।
2. सामाजिक विज्ञान एक विज्ञान है (Social Science is a Science)―
सामाजिक विज्ञान को कुछ विद्वान विज्ञान मानते हैं क्योंकि सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत
विविध घटनाओं, शासन सत्ता से सम्बन्धित तथ्यों, ऐतिहासिक तथ्यों एवं घटनाओं, भौगोलिक
तथ्यों, प्राकृतिक घटनाओं जैसे-भूकम्प, ज्वालामुखी, पृथ्वी की आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों
आदि का अध्ययन एवं संकलन वैज्ञानिक प्रविधि से किया जाता है। इसके साथ ही राजनैतिक
समस्याएँ, क्रांतियाँ आदि से सम्बन्धित तथ्यों, आर्थिक समस्याओं-बेरोजगारी, निर्धनता,
भुखमरी, मांगपूर्ति, उत्पत्ति, हास नियम आदि आर्थिक नियमों से सम्बन्धित तथ्यों का संकलन
किया जाता है, इनका वर्गीकरण किया जाता है तथा कारण एवं परिणाम के आधार पर
सामान्यीकरण किया जाता है। तत्पश्चात् भविष्य हेतु भविष्यवाणी की जाती है परन्तु यह
भविष्यवाणी भौतिक विज्ञान की भाँति निश्चित होती है फिर भी सामाजिक विज्ञान को एक
विज्ञान माना जाता है।
3. सामाजिक विज्ञान कला एवं विज्ञान दोनों है (Social Science is both art
and science)—सामाजिक विज्ञान मुख्यत: मानव का अध्ययन करता है जो विश्व के
विभिन्न भागों में निवासित व्यक्तियों के जीवन और संस्कृति से सम्बन्ध जोड़ता है एवं ऐसा
ज्ञान, अनुभव और सोच प्रदान करता है जिसके चारों ओर सभी विषयों को समन्वित किया
जाता है। इसी आधार पर अधिकांश विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि सामाजिक विज्ञान, कला
और विज्ञान दोनों है।
4. भौतिक एवं सामाजिक वातावरण का अध्ययन (Study of Physical and
Social Environment)―सामाजिक विज्ञान एक ऐसा विषय है जिसमें मानव के भौतिक
एवं सामाजिक वातावरण का अध्ययन क्रमबद्ध एवं विस्तृत रूप से करता है। यह मानव के
वातावरण का अध्ययन कर उसके वातावरण के साथ अर्न्तसम्बन्ध की विस्तृत एवं क्रमबद्ध
विवेचना करता है। सामाजिक विज्ञान मूल रूप में मानव का ही अध्ययन है जो मानव को
विश्व के अन्य भागों में निवासित व्यक्ति की संस्कृति, सभ्यता एवं उसके वातावरण का ज्ञान
प्रदान करके उनके बीच अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करता है। यह जनतान्त्रिक नागरिकता का
विकास करता है।
प्रश्न 5. सामाजिक विज्ञान शिक्षण के दौरान विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तक
से आकलन-मूल्यांकन संबंधी प्रश्नों की समझ विकसित करें । उन सवालों से बच्चों
का आकलन-मूल्यांकन किस तरह हो सकता है ?
उत्तर–प्रश्न पूछना सामाजिक विज्ञान शिक्षण के आकलन-मूल्यांकन की एक
शक्तिशाली शिक्षक केंद्रित विधि है। शिक्षक प्रश्न पूछता है तथा विद्यार्थियों द्वारा दिए गए
उत्तर को मजबूत और विस्तारित किया जाता है। प्रश्नों का उपयोग विद्यार्थी सूचना के एक
विशिष्ट भाग को जितना अच्छा से समझते हैं, का पता लगाने, विद्यार्थी के अवधान को एक
बिन्दु से अन्य बिन्दु पर ले जाने, उनको पृथक्करण तथा बल देने द्वारा महत्वपूर्ण बिंदुओं के
ठहराव तथा प्रदत्त कार्य प्रारंभ करने से पहले उचित शिक्षा दिशा में विद्यार्थियों को रखने हेतु
किया जाता है। पूछताछ विद्यार्थियों में उच्च स्तर पर चिंतन कौशलों जैसे- विश्लेषण,
संश्लेषण तथा मूल्यांकन को बढ़ावा देता है। प्रश्नों को समझ कर उनकी प्रभाविता को बढ़ाने
के क्रम में विद्यार्थियों से विभिन्न विषयों की विषय वस्तुओं से निम्नलिखित प्रश्न पूछे जा
सकते हैं―
क. प्रश्न को स्पष्ट एवं शुद्ध होना चाहिए । प्रश्न में कोई जटिलता नहीं होनी चाहिए।
उदाहरण के लिए एक प्रश्न जैसे- “बौद्ध धर्म बारे में विद्यार्थियों को कोई अर्थ प्रदान नहीं
कर रहा है। यह पूछना अच्छा होगा कि “बौद्ध धर्म जैन धर्म से किस प्रकार भिन्न है ?”
शिक्षक को स्पष्ट प्रश्न पूछना चाहिए तथा किसी उत्तर के देने से पहले विराम रखना चाहिए।
इससे उत्तर के विषय में विद्यार्थियों को सोचने में सहायता मिलती है।
ख. शिक्षक को विद्यार्थियों के उत्तर प्राप्त करने के पश्चात तुरंत प्रतिपुष्टि प्रदान करनी
चाहिए। उन्हें विद्यार्थियों से कहना चाहिए यदि उत्तर अंशत: सही या पूर्णत: सही-सही हो ।
जैसे- “भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएँ क्या है ?” “ज्वालामुखी से आप क्या समझते
हैं?” इन प्रश्नों के उत्तर देने के पश्चात शिक्षक को उसकी प्रतिपुष्टि प्रदान करनी चाहिए।
ग. प्रश्नों के पूछने में विद्यार्थियों को सूचना का प्रयोग करने का आकलन भी करना
चाहिए । जैसे- “जब नई दिल्ली में दोपहर 12:00 बजे का समय होगा तब पेरिस में समय
क्या होगा ?”
घ. विश्लेषण करने वाले प्रश्न विद्यार्थियों से पूछने चाहिए जिनसे विद्यार्थियों के विभिन्न
विचार का पता चले जैसे- “स्वतंत्र भारत पर ब्रिटिश शासन का क्या प्रभाव है ?”
ङ. छात्रों में आलोचनात्मक समझ, निर्णय लेन एवं उसका समर्थन करने हेतु प्रश्नों के
द्वारा उनकी सोचने की क्षमता का मूल्यांकन किया जा सकता है। जैसे- “क्या आप संसदीय
सरकार का समर्थन करते हैं तथा क्यों ?”
च. अन्वेषक प्रश्न विद्यार्थियों को उनकी आरंभिक उत्तरों से आगे या बाहर जाने हेतु
प्रोत्साहित कर रहे तथा समस्या समाधान में उनकी सहायता के लिए होते हैं । उदाहरण के
लिए एक उत्तर जैसे- “वस्तु विनिमय अर्थव्यवस्था का अर्थ वस्तु से वस्तु का विनिमय होता
है। “शिक्षक विद्यार्थियों को कह सकता है कि वस्तु विनिमय अर्थव्यवस्था का एक उदाहरण
प्रदान करें।”
छ. मुक्त अंश वाले प्रश्न निश्चित सही या गलत उत्तर देने के लिए होते हैं। विद्यार्थी
स्वयं सोचने तथा तर्क के साथ उत्तर देने के लिए स्वतंत्र होते हैं। ऐसे प्रश्न विद्यार्थियों से
पूछने चाहिए जैसे- “मालदेव जैसे द्वीपीय देश के साथ क्या होगा यदि पृथ्वी पर तापमान
बढ़ता है ?”
ज. विद्यार्थियों से अपसारी प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं जो विद्यार्थी के अवधान को एक
बिंदु से आकर्षित करने में सहायक होते हैं तथा इसे एक भिन्न परंतु संबंधित बिंदु पर स्थापित
होने के लिए स्वतंत्रता की अनुमति देते हैं। जैसे- “क्या सिंधु घाटी सभ्यता के समानांतर
वर्तमान समय में हमारे पास कुछ है ?” यह एक अपसारी प्रश्न है जो विद्यार्थियों को दो सदृश्य
परिस्थितियों पर अपसारी चिंतन हेतु प्रेरित करता है, इत्यादि ।
प्रश्न 6. सामाजिक विज्ञान के प्रमुख क्षेत्रों का वर्णन करें।
उत्तर–सामाजिक अध्ययन के मुख्य घटक निम्नलिखित हैं―
क. भूगोल- भूगोल (Geography) वह शास्त्र है जिसके द्वारा पृथ्वी के ऊपरी स्वरूप
और उसके प्राकृतिक विभागों (जैसे-पहाड़, महादेश, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील,
उमरुमध्य, उपत्यका, अधित्यका, वन आदि) का ज्ञान होता है। पृथ्वी की सतह पर जो स्थान
विशेष हैं उनकी समताओं तथा विषमताओं का कारण और उनका स्पष्टीकरण भूगोल का
निजी क्षेत्र है। भूगोल शब्द दो शब्दों “” यानि पुनी और “गोल” से मिलकर बना है।
भूगोल विस्तृत पैमाने पर सभी भौतिक व मानवीय तथ्यों को अन्तक्रियाओं और इन
अन्तर्कियाओं से उत्पन्न स्थलरूपों का अध्ययन करता है। यह बताता है कि कसे, क्यों और
कहाँ मानवीय व प्राकृतिक क्रियाकलापों का उद्भव होता है और कैसे ये क्रियाकलाप एक
दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित हैं।
खा. इतिहास― इतिहास (History) का प्रयोग विशेषतः दो अयों में किया जाता है।
एक है प्राचीन अथवा विगत काल की घटनाएँ और दूसरा उन परनाओं के विषय में धारणा।
इतिहास शब्द का अर्थ है- परंपरा से प्राप्त उपाख्यान समूह (जैसे कि लोक कथाएँ)
वीरगाथा (जैसे कि महाभारत) या ऐतिहासिक साक्ष्य । इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय
का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखने वाली घटनाओं
का कालक्रमानुसार वर्णन होता है। दूसरे शब्दों में मानव की विशिष्ट घटनाओं का नाम ही
इतिहास है। या फिर प्राचीनता से नवीनता की ओर आने वाली, मानव जाति से संबंधित
घटनाओं का वर्णन इतिहास है। इन घटनाओं व ऐतिहासिक साक्ष्यों को तथ्य के आधार पर
प्रमाणित किया जाता है।
ग. राजनीतिशास्त्र/राजनीतिक विज्ञान― राजनीति विज्ञान एक सामाजिक विज्ञान है जो
सरकार और राजनीति के अध्ययन से सम्बन्धित है। राजनीति विज्ञान अध्ययन का एक
विस्तृत विषय या क्षेत्र है। राजनीति विज्ञान में ये तमाम बातें शामिल हैं: राजनीतिक चिंतन,
राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विचारधारा, संस्थागत या संरचनागत
ढांचा, तुलनात्मक राजनीति, लोक प्रशासन, अंतर्राष्ट्रीय कानून और संगठन आदि । आधुनिक
युग में जब संसार प्रत्येक विषय के वैज्ञानिक व व्यवस्थित अध्ययन की ओर झुक रहा है,
राज्य से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन को राजनीति शास्त्र अथवा राजनीति विज्ञान कहा जाता
है।
घ. अर्थशास्त्र― अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं
और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है।
‘अर्थशास्त्र’ शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक
अर्थ है- ‘घन का अध्ययन’ । किसी विषय के संबंध में मनुष्यों के कार्यों के क्रमबद्ध ज्ञान
को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मनुष्यों के अर्थसंबंधी कार्यों का
क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है।
अर्थशास्त्र का प्रयोग यह समझने के लिए भी किया जाता है कि अर्थव्यवस्था किस
से कार्य करती है और समाज में विभिन्न वर्गों का आर्थिक सम्बन्ध कैसा है। अर्थशास्त्रीय
विवेचना का प्रयोग समाज से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे- अपराध,
शिक्षा, परिवार, स्वास्थ्य, कानून, राजनीति, धर्म, सामाजिक संस्थान और युद्ध इत्यादि।
अर्थशास्त्र यह भी बतलाता है कि मनुष्यों के आर्थिक प्रयत्नों द्वारा विश्व में सुख और शांति
कैसे प्राप्त हो सकती है। सब शास्त्रों के समान अर्थशास्त्र का उद्देश्य भी विश्वकल्याण है।
अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय है, यद्यपि उसमें व्यक्तिगत और राष्ट्रीय हितों का भी
विवेचन रहता है।
ङ. समाजशास्त्र― समाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है। यह सामाजिक अध्ययन
की एक शाखा है, जो मानवीय सामाजिक संरचना और गतिविधियों से संबंधित जानकारी
को परिष्कृत करने और उनका विकास करने के लिए, अनुभवजन्य विवेचन और विवेचनात्मक
विश्लेषण की विभिन्न पद्धतियों का उपयोग करता है, अक्सर जिसका ध्येय सामाजिक
कल्याण के अनुसरण में ऐसे ज्ञान को लागू करना होता है । समाजशास्त्र की विषयवस्तु के
विस्तार, आमने-सामने होने वाले संपर्क के सूक्ष्म स्तर से लेकर व्यापक तौर पर समाज के
बृहद स्तर तक है। समाजशास्त्र, पद्धति और विषय वस्तु, दोनों के मामले में एक विस्तृत
विषय है।
चूँकि अधिकांशतः मनुष्य जो कुछ भी करता है वह सामाजिक संरचना या सामाजिक
गतिविधि की श्रेणी के अन्तर्गत सटीक बैठता है, समाजशास्र ने अपना ध्यान धीरे-धीरे अन्य
जैसे, चिकित्सा, सैन्य और दंड संगठन, जन-संपर्क और यहाँ तक कि वैज्ञानिक ज्ञान
के निर्माण में सामाजिक गतिविधियों की भूमिका पर केन्द्रित किया है।
प्रश्न 7. सामाजिक विज्ञान शिक्षण के आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख करें।
उत्तर―शिक्षण विधियाँ अथवा नीतियाँ कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होती हैं, शिक्षण
के दौरान शिक्षक को इन सिद्धान्तों को पालन करना आवश्यक होता है। व्यवहार को नियंत्रित
करने में सिद्धान्त सहायक होते हैं। शिक्षक के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए मुख्य
रूप से दो प्रकार के सिद्धान्तों पर बल दिया गया है―
1. शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त ।
2. शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त ।
1. प्रेरणा के सिद्धान्त― प्रेरणा वह विधि है जिसके द्वारा विद्यार्थियों को पाठ्य-सामग्री
में रुचि उत्पन्न हो जाए। इस दृष्टि से प्रेरणा के सिद्धान्त का तात्पर्य विद्यार्थियों में ज्ञान प्राप्त
करने के लिए रुचि उत्पन्न करना है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिस समय शिक्षक
विद्यार्थियों को ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर देता है तो सीखने और सिखाने की प्रक्रिया
सुचारू रूप से सम्पन्न होते रहती है पर उचित प्रेरणा के अभाव में विद्यार्थी सीखने में थोड़ा
भी रुचि नहीं लेते । अत: शिक्षक को ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए कि प्रत्येक
विद्यार्थी में वातावरण सम्बन्धी अधिक से अधिक नई-नई बातों अथवा पाठ्य-सामग्री को
जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाए। उदाहरण के लिए इतिहास पढ़ाते समय ताजमहल,
उसका मॉडल अथवा चित्र दिखाकर विद्यार्थियों में ताजमहल सम्बन्धी ऐतिहासिक घटनाओं
के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा उत्पन्न की जा सकती है। कारखानों तथा
आर्ट-गैलरियों को दिखाने से विज्ञान तथा कला के प्रति जिज्ञासा विकसित की जा सकती है।
2. क्रियाशीलता अथवा करके सीखने का सिद्धान्त― क्रियाशीलता के सिद्धान्त का
यह अर्थ है कि शिक्षक को प्रत्येक प्रकार के पाठ में क्रियाशीलता उत्पन्न करनी चाहिए।
स्मरण रहे कि क्रियाशीलता दो प्रकार की होती है― (1) शारीरिक तथा (2) मानसिक
शारीरिक क्रियाशीलता का अर्थ है विद्यार्थियों की कर्मेन्द्रियों को क्रियाशीलता प्रदान करना तथा
मानसिक क्रियाशीलता का तात्पर्य विद्यार्थियों की ज्ञानेन्द्रियों को क्रियाशीलता रखना है।
उदाहरण के लिए यदि इतिहास पढ़ाते समय विद्यार्थियों को पुस्तकों की अपेक्षा ऐतिहासिक
तथ्यों एवं घटनाओं को नाटक के रूप में दिखाया जाए तो खेलते ही खेलते उनको इतिहास
के विषय में ज्ञान अधिक सरलता से प्राप्त हो सकता है । ऐसे ही भूगोल का ज्ञान प्राप्त करने
की रुचि उत्पन्न की जा सकती है। चूँकि क्रियाशील रहने से विद्यार्थियों में अच्छी-अच्छी
भावनाएँ जाग्रत होती हैं तथा उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है, इसलिए आधुनिक शिक्षण प्रणालियाँ
जैसे- माण्टेसरी प्रणाली किन्डर-गार्टन प्रणाली, अन्वेषण प्रणाली, ‘डाल्टन प्रणाली, योजना
प्रणाली, बेसिक प्रणाली आदि इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं।
3.रुचि का सिद्धान्त―रुचि के सिद्धान्त का अर्थ यह है कि शिक्षा को उपयोगी तथा
प्रभावशाली बनाने के लिए विद्यार्थी की पाठ्य-विषय में रुचि उत्पन्न की जाए। जब विद्यार्थी
को पाठ्य-विषय में रुचि उत्पन्न हो जाती है तो वह ज्ञान को सरलतापूर्वक ग्रहण कर लेता
है। दूसरे शब्दों में उसे पढ़ते समय किसी प्रकार के कोई कठिनाई नहीं आती । उदाहरण के
लिए (1) विद्यार्थी की जिज्ञासा को जागृत किया जाए तथा उसे पाठ को उद्देश्य स्पष्ट रूप
से बताया जाए । यदि विद्यार्थी तथा शिक्षक दोनों को पाठ का उद्देश्य स्पष्ट रूप से ज्ञात हो
जाएगा तो विद्यार्थी की पाठ के प्रति रुचि अवश्य जाग्रत हो जाएगी।
4. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त का अर्थ यह है कि प्रत्येक पाठ का
कोई न कोई निश्चित लक्ष्य अथवा उद्देश्य अवश्य होना चाहिए । जैसा हमारा उद्देश्य होता
है उसी के अनुसार शिक्षण पद्धति का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए यदि हमारा
उद्देश्य समाज की अनुभूति कराना है तो इसकी शिक्षण-पद्धति उसी के अनुरूप होगी । अतः
प्रत्येक पाठ का कोई निश्चित उद्देश्य होना परम आवश्यक है यही नहीं, उसके विषय में
विद्यार्थियों तथा शिक्षक को पूरी-पूरी जानकारी भी होनी चाहिए। इससे शिक्षक को अपने
शिक्षण कार्य में सफलता मिलती है तथा विद्यार्थियों को पाउ के प्रति रुचि जाग्रत हो जाता है।
5. निर्माण तथा मनोरंजन का सिद्धान्त― इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि विद्यार्थियों
से ऐसी क्रियाएँ कराई जाए जो मनोरंजनपूर्ण हो तथा जो उनकी सृजनात्मक शक्ति का उचित
विकास कर सके। इससे विद्यार्थी स्कूल तथा शिक्षक में भयभीत न होकर शिक्षण क्रिया में
अधिक रुचि लेंगे, नई-नई बातें खोजने का प्रयास करेंगे तथा उन्हें सृजनात्मक क्रियाओं की
अभिव्यक्ति का अवसर मिलेगा। इस दृष्टि से निर्माण तथा मनोरंजन का सिद्धान्त सफल
शिक्षण के लिए परम आवश्यक है। बीसवीं शताब्दी में ऐसी अनेक शिक्षण-विधियों का
विकास हुआ है जो निर्माण तथा मनोरंजन अथवा खेल द्वारा शिक्षा के सिद्धान्त पर आधारित
है।
शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological Principle of Teaching)―
शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त शिक्षण प्रक्रिया को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित
करते हैं। इन सिद्धान्तों का प्रयोग अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए किया जाता
है। ये मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त निम्नलिखित हैं―
1.अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त― शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अभिप्रेरणा और
रुचि को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है । इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक और विद्यार्थी दोनों
को ही अभिप्रेरित होकर तथा रुचि से कार्य करना पड़ता है।
2. मनोरंजन का सिद्धानत― कई अवसरों पर विद्यार्थी कक्षा में थकान महसूस करता
है। कक्षा में शिक्षण कार्य अधिक लम्बा होने के कारण ऐसा होता है। इस थकान के
फलस्वरूप विद्यार्थी ऊब जाता है और कार्य में रुचि लेना बंद कर देता है। इस सिद्धान्त के
प्रयोग की आवश्यकता छोटे बच्चों की कक्षा में अधिक पड़ती है। अत: कक्षा में मनोरंजन
के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए।
3. सृजनात्मकता और आत्माभिव्यक्ति को प्रोत्साहन का सिद्धान्त― शिक्षक का
यह कर्तव्य बन जाता है कि वह विद्यार्थियों में सृजनात्मक और आत्माभिव्यक्ति को प्रोत्साहन
दे अर्थात् वह विद्यार्थियों में खोज करने की आदतों का विकास करें । विद्यार्थी अपने विचारों
एवं दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करने के योग्य हो सकें।
4. सुधारात्मक शिक्षण का सिद्धान्त― कई बार विद्यार्थियों में और शिक्षण कार्यों में
त्रुटियाँ होती हैं। शिक्षक को चाहिए कि वे इन त्रुटियों का पता लगाए तथा अपने शिक्षण
कार्यों में त्रुटियों को ढूंढकर उनमें सुधार करे । इसे सुधारात्मक शिक्षण कहते हैं । यह कार्य
इतना आसान नहीं है इसमें शिक्षक को कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
5. सहानुभूति और सहयोग का सिद्धान्त― शिक्षण विद्यार्थियों का एक अच्छा
पथ-प्रदर्शक सिद्ध हो सकता है यदि वह विद्यार्थियों के प्रति सहानुभूति रखता है और उनकी
कठिनाइयों को दूर करने में अपना सहयोग प्रदान करता है। ऐसे शिक्षण विद्यार्थियों के लिए
प्रेरणा बन जाते हैं, इत्यादि ।
प्रश्न 8. सामाजिक विज्ञान शिक्षण शास्त्र के विभिन्न उपागमों का उल्लेख करें।
उत्तर–सामाजिक विज्ञान शिक्षणशास्त्र के प्रमुख उपागम या आयाम निम्नलिखित हैं―
1. व्यवहारवादी उपागम (BehaviouristApproach)
2. संज्ञानात्मक उपागम (Cognitive Approach)
3. संरचनावादी उपागम (ConstructivistApproach)
4. अन्तर्विषयक उपांगम (Interdisciplinary Approach)
5. समन्वित उपागम (Intergrated Approach)
6. बाल-केन्द्रित उपागम (Child & Centered Approach)
7. पर्यावरण उपागम (Environmental Approach)
1. व्यवहारवादी उपागम (Behaviourist Approach)―इस प्रविधि में शिक्षक
बाहर से छात्रों में वांछित व्यवहार परिवर्तन करने का प्रयास करते हैं और शिक्षण अधिगम
प्रविधि को निर्देशित और नियंत्रित करते हैं अर्थात् छात्रों को सीखने के लिए कोई स्वतंत्रता
नहीं है। यह विधि व्यवहार विकास पर बल देती है । इस प्रकार का शिक्षण अधिगम उच्च
स्तरीय चिन्तन, समस्या समाधान योग्यताएँ और सृजनात्मकता पर बल नहीं देता है। यह मात्र
व्यवहार परिवर्तन पर बल देता है और छात्र के मानसिक विकास पर बल नहीं देता है।
2. संज्ञानात्मक उपागम (CognitiveApproach)―संज्ञानवा दी अवधारणा के तहत
अधिगम एक सक्रिय पहल है जिसमें व्यक्ति सक्रिय रूप से प्रतिभाग करते हुए परिस्थिति
में पाई जाने वाली समस्या का समाधान प्राप्त करता है। यह समाधान उसकी संज्ञानात्मक
संरचना में बदलाव के फलस्वरूप घटित होता है न कि उसके बाह्य रूप में दिखाई पड़ने
वाले बाहरी व्यवहार परिवर्तन द्वारा ।
3. संरचनावादी उपागम (CostructivistApproach)―संरचना त्मक परिप्रेक्ष्य में
सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है। विद्यार्थी सक्रिय रूप से पूर्व प्रचलित विचारों
में उपलब्ध सामग्री/गतिविधियों के आधार पर अपने लिए ज्ञान के निर्माण में मदद की जा
सकती है। जैसे- आरंभिक चर्चा (मानसिक चित्रण) सड़क यातायात के विचार पर आधारित
हो सकती है और ग्रामीण इलाके का कोई विद्यार्थी बैलगाड़ी के इर्द-गिर्द अपने विचार गढ़
सकता है। विद्यार्थी दी गई गतिविधियों (अनुभव) के माध्यम से (यातायात व्यवस्था) की
मानसिक छवि गढ़ सकता है । विचारों की रचना एवं पुनर्रचना उनके विकास के आवश्यक
लक्षण हैं । उदाहरण के लिए यातायात व्यवस्था पर आरंभिक विचार सड़क यातायात पर
निर्मित होगा और बाद में यह दूसरे प्रकार के यातायात जैसे-समुद्र और वायु यातायात को
समाहित करने के लिए विभिन्न गतिविधियों का उपयोग करते हुए पुनर्रचित होगा। विद्यार्थियों
को बाद में उपयुक्त गतिविधियों के माध्यम से यातायात व्यवस्था के बारे में बताया जा सकता
है (कारण-प्रभाव) हालांकि इस ज्ञान-निर्माण की प्रक्रिया का एक सामाजिक पहलू यह भी
है कि जटिल कार्य के लिए आवश्यक ज्ञान समूह परिस्थितियों में निहित होता है। इस संदर्भ
में सहयोगी शिक्षण को पर्याप्त महत्व दिए जाने की आवश्यकता है।
4.सामाजिक विज्ञान शिक्षणशास्त्र में अन्तर्विषयक उपागम (Interdisciplinary
Approach in Social Science Pedagogy)―अन्तर्विषयक उपागम एक ऐसे प्रमाणित
निरीक्षण साधन और विश्लेषण तकनीकी के रूप में कार्य करता है जिसके द्वारा शिक्षक
व्यवहार और कक्षा अन्त:क्रिया के प्रारूप का समुचित निरीक्षण किया जा सके । इस उपागम
के माध्यम से विभिन्न कक्षा-कक्ष परिस्थितियों को पहचान कर उनके समाधान एवं सुधार
हेतु प्रयास किया जाता है । साथ ही साथ विषय तथ्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया
जाता है । अन्तर्विषयक उपागम में एक शिक्षक की क्षमता और कार्य-कुशलता का अनुमान
उसके शिक्षण की स्थिति प्रभावपूर्णता के सम्बन्ध में लगाया जा सकता है और उसका शिक्षण
कितना प्रभावपूर्ण है, इसका वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन उसके कक्षा-व्यवहार अथवा विद्यार्थियों के
साथ होने वाली अन्तःक्रिया के माध्यम से किया जाता है।
5. सामाजिक विज्ञान शिक्षणशास्र में बाल-केन्द्रित उपागम (Child-Centred
Approach in Social Science Pedagogy)― बाल-केन्द्रित शिक्षा वह शिक्षा होती है
जिसमें छात्र-शिक्षक संबंध मैत्रीपूर्ण रहते हैं तथा इस शिक्षा में दृश्य-श्रव्य (Audio &
Visual Aids) साधनों का उपयोग होता है । बाल-केन्द्रित शिक्षा का आशय ऐसी शिक्षा से
है जिसमें समस्त शैक्षिक गतिविधियों का केन्द्र बालक होता है और इसमें शिक्षा बालक के
लिए होती है न कि बालक शिक्षा के लिए । बाल-केन्द्रित शिक्षा की धारणा के अनुसार
विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर पाठ्यक्रम बालकों की आवश्यकताओं, हितों, प्रवृत्तियों, क्षमताओं,
सामाजिक और आर्थिक पर्यावरण, सामाजिक जीवन से सामंजस्य स्थापित करने आदि मुख्य
बातों पर आधारित होता है जिसके फलस्वरूप बालक का स्वाभाविक रूप से उपयुक्त
पर्यावरण में सर्वांगीण विकास होता है बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर समस्याओं
का हल निकालकर आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वासी और स्वावलम्बी बनता है, इत्यादि ।
प्रश्न 9. सामाजिक विज्ञान के महत्व और उद्देश्य का वर्णन करें।
उत्तर–सामाजिक विज्ञान शिक्षण का महत्व- वर्तमान में सामाजिक विज्ञान को एक
उपयोगी विषय समझा जाता है। यह प्राकृतिक विज्ञान से किसी भी रूप में कमतर नहीं है।
सामाजिक विज्ञान का अध्ययन कई कारणों से महत्वपूर्ण हैं। यह बच्चों को उस योग्य बनाता
है कि वे-
● उस समाज को समझें जिसमें वे रहते हैं। यह सीखें कि समाज की संरचना,
शासन एवं प्रबंध कैसे होता है ? यह भी समझें कि कौन से बल समाज को अनेक
तरीकों से बदलते हैं तथा अनुप्रेषित करते हैं।
● भारतीय संविधान में प्रतिष्ठित मूल्यों, जैसे- न्याय स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा,
एकता और राष्ट्रीय एकीकरण से अवगत हों और एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष
और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के महत्व को समझ सकें।
● समाज के सक्रिय, जिम्मेदार और चिंतनशील सदस्य के रूप में बढ़ने में समर्थ हों।
● विविध मतों, जीवन शैलियों और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का सम्मान करना
सीखें। ग्रहण किए विचारों, संस्थाओं और परंपराओं के संबंध में प्रश्न कर सके
और उनकी जाँच-पड़ताल कर सकें।
● उस आनंददायक पाठ्य सामग्री को पढ़कर आनंद प्राप्त करें जो उन्हें उपलव्य
कराई गई है।
● ऐसे क्रियाकलापों में संलग्न हों जो उनमें सामाजिक और जीवन संबंधी कौशलों
का विकास करे और उन्हें यह समझाएँ कि ये कौशल सामाजिक अंतर्सम्बन्ध हेतु
महत्वपूर्ण हैं।
● पाठ्यपुस्तकों और कक्षाओं में विषय-वस्तु, भाषा तथा भावों में स्पष्टता होनी
चाहिए । जेंडर-संवेदनशीलता तथा सामाजिक वर्गों और हर प्रकार की असमानताओं
के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए । शिक्षार्थियों में उपर्युक्त उद्देश्यों
की समझ विकसित करना ताकि अपने जीवन में उक्त उद्देश्यों की प्राप्ति में
सफल हो सकें।
उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान शिक्षण के उद्देश्य हैं―
● मानव जाति और अन्य जीवों के निवास के रूप में पृथ्वी की अवधारणा का
विकास करना।
● वैश्विक संदर्भ में अपने क्षेत्र, प्रदेश और देश का अध्ययन करने के लिए विद्यार्थी
को प्रेरित करना।
● विश्व के अन्य भागों में समकालीन विकास के संदर्भ में विद्यार्थी को भारत के
अतीत के अध्ययन के लिए प्रेरित करना ।
● सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं के कार्यों और सक्रियता तथा राष्ट्र की
प्रक्रियाओं से विद्यार्थियों को अवगत कराना।
प्रश्न 10. सामाजिक विज्ञान के विभिन्न विषयों का आकलन-मूल्यांकन किस
प्रकार करेंगे? उदाहरण दें।
उत्तर–क. इतिहास का आकलन-मूल्यांकन- पाठ्यपुस्तकों की विषय सामग्री को
पढ़ाने और समझाने से पूर्व शिक्षक को पहले यह जान लेना चाहिए कि इतिहास में छात्रों
को क्या जानना चाहिए और क्या वे कर पायेंगे । ऐतिहासिक साक्षरता के तीन महत्वपूर्ण पहलू
1. ऐतिहासिक तथ्यों, विषयों और विचारों का ज्ञान
2. ऐतिहासिक तर्क-वितर्क, मनोविश्लेषण, संश्लेषण और ऐतिहासिक तथ्यों के मूल्यांकन
की योग्यता
3. संपूर्ण स्रोतागण के लिए ऐतिहासिक ज्ञान और तर्क का संचार ।
कक्षा को विभिन्न समूहों में बाँटकर उन्हें संबोधत स्थल के इतिहास और विरासत के
विभिन्न पक्षों पर परियोजना बनाने को कहा जा सकता है। परियोजना कार्य में उसके
प्रस्तुतीकरण और उसके बाद होने वाली चर्चा के आधार पर शिक्षक बच्चों में अन्वेषण की
क्षमता, जाँच-पड़ताल, समज्ञ, अभिव्यक्ति, रचनात्मक सहयोग और अनुसंधान दक्षता जैसे
कौशलों का आकलन कर सकते हैं।
भूगोल का आकलन-मूल्यांकन― उच्च प्राथमिक स्तर पर छात्रों को भूगोल की वे
बुनियादी अवधारणायें बताई जाती हैं जो इस दुनिया को समझने के लिए आवश्यक है जिसमें
वे रह रहे हैं। बच्चे सीखने का अधिक आनंद लेते हैं जब वह उनके निजी जीवन से संबोधत
होता है। उन्होंने जो प्राथमिक स्तर पर अर्जित किया है वह उनके उच्च प्राथमिक स्तर पर
आगे सीखने के लिए आधार प्रदान करता है। जब भूगोल को एक अलग विषय के रूप
में पड़ाया जाता है।
उच्च प्राथमिक कक्षाओं में पर्यावरण तथा पारिस्थितिक जैसे विषय वस्तुओं पर आधारित
इस गतिविधि, क्रियाकलाप को करते हुए विद्यार्थियों को निरीक्षण करने की क्षमता, समझ,
गंभीर रूप से सोचना और उनकी समझ व्यक्त करने की क्षमता का मूल्यांकन किया जा
सकता है। अध्यापक पर्यावरण के विषय में एक चर्चा के साथ आरंभ कर सकते हैं जैसे
विद्यार्थी अपने घर अथवा विद्यालय के आस-पास किस प्रकार परिवर्तनों के बारे में देखते
हैं अथवा सुनते हैं ? क्या उन्होंने पिछले एक वर्ष में किसी परिवर्तन को देखा है अथवा उनके
बारे में सुना है?
छात्रों द्वारा बनाए गए चित्रों/कथन और उन पर आधारित चर्चा के आधार पर
अध्यापक निम्नलिखित मूल्यांकन कर सकते हैं―
क. शिक्षार्थियों द्वारा बनाए गए चित्र/कथन (कार्य) से शिक्षक उनकी पर्यावरण एवं
उसके विभिन्न घटकों की समझ का आंकलन कर सकता है शिक्षार्थी का चित्र/कथन तथा
प्रस्तुति उसकी कल्पना और रचनात्मकता को प्रतिबिंबित करेगा। कुछ चित्रों के चयन में
प्रतिबिंबित करेगा। कुछ चित्रों के चयन में छात्रों की करने की क्षमता तथा तार्किक सोच
का पता लगेगा तथा साथियों द्वारा मूल्यांकन का मौका प्रदान करेगा।
ख. सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन का आकलन-मूल्यांकन-उच्च प्राथमिक
स्तर पर छात्रों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के विभिन्न पहलुओं से
परिचित कराना है। यह कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं तथा ज्ञान जो भारतीय लोकतंत्र के
कामगाज को समझने के लिए आवश्यक हैं, उन पर प्रारंभिक ध्यान देकर किया जा सकता
है। यह अवधारणायें काल्पनिक आख्यान का उपयोग करते हुए समझाई जा सकती है,
जिनके द्वारा बच्चे इनमें और अपने दिन-प्रतिदिन के अनुभवों के बीच तालमेल बना सकते
हैं।
अपने इलाके के स्थानीय निकाय से संबंधित मुद्दों के बारे में शिक्षार्थियों के मौजूदा ज्ञान
का पता लगाए । उनसे इस बारे में पूछिए कि दिन-प्रतिदिन की जिंदगी से जुड़े विभिन्न मुद्दों
और इस संबंध में स्थानीय निकाय की भूमिका के बारे में क्या सोचते हैं । विद्यार्थियों को अपने
घरों और स्कूल के आस पड़ोस को जानने-समझने विभिन्न स्थानीय मुद्दों और अपने स्थानीय
निकाय के इतिहास के विषय में परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों से पूछताछ कर, जानकारी
इकट्ठा करने और रिकार्ड करने का अवसर देकर, उनके कार्यों का मूल्यांकन कर सकते हैं।
अन्वेषण, समझाने और विस्तार में बताने के चरणों से शिक्षकों को अधिगमकर्ता का
सतत् आकलन करने के कई अवसर मिलेंगे और साथ ही नियमित रूप से उनकी प्रगति को
जानने में मदद मिलेगी। अवलोकन के माध्यम से विद्यार्थियों की अवधारणाओं की समझ
कक्षा में होने वाली चर्चाओं, बहसों व रोल प्ले द्वारा उनके मौखिक संचार कौशल तथा
संक्षिप्त रिर्पोटों द्वारा उनके लिखित संचार कौशलों का आकलन कर सकते हैं।
प्रश्न 11. सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में आकलन एवं मूल्यांकन की अवधारणा
स्पष्ट करें।
उत्तर―आकलनों का महत्व मूल्यांकन करने के औजारों की तरह है क्योंकि ये
शैक्षणिक प्रक्रियाओं तथा उनके परिणामों के बारे में बुनियादी सवालों- हम कक्षाओं में क्या
पढ़ा रहे हैं, विद्यार्थी सीखने की सामग्री के साथ किस तरह काम कर रहे हैं, स्कूल के परिवेश
में कैसा ज्ञान दिया जा रहा है, सीखी गई बातों को विद्यार्थी किस तरह आत्मसात और उपयोग
कर रहे हैं, संसार के जानकर तथा फिक्रमन्द नागरिकों के रूप में विद्यार्थी कैसे विकसित
हो रहे हैं ? के उत्तर देने में मदद करते हैं। आकलन रचनात्मक मूल्यांकन, अर्थात् रोजमर्रा
के अध्यापन का सतत् चलने वाला ऐसा हिस्सा जिसके माध्यम से शिक्षक विद्यार्थियों के साथ
की जाने वाली अपनी गतिविधियों में संशोधन करते हैं, हो सकते हैं। वे योगात्मक मूल्यांकन
हो सकते हैं जो वर्ष के अन्त में शिक्षक को यह जानने और मूल्यांकन करने में सहायक
होते हैं कि विद्यार्थी ने क्या सीखा है। इस दृष्टि से प्रामाणिक भी हो सकते हैं कि वे इसका
मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं कि सीखी गई बातों को विद्यार्थियों द्वारा लम्बी अवधि
में किस तरह लागू किया जाता है। उस दृष्टिकोण से देखने पर आकलन शैक्षणिक प्रक्रियाओं
का समग्र रूप से मूल्यांकन करने की सतत् प्रक्रिया का अंग होते हैं। आकलन और
मूल्यांकन दोनों का उद्देश्य बच्चों की अभिव्यक्ति, क्षमता, अनुभूति, आदि का मापन करना
है। आकलन एक संक्षिप्त प्रक्रिया है और मूल्यांकन एक व्यापक प्रक्रिया है
मूल्यांकन से आशय मूल्य के अंकन से है। इसकी सहायता से किसी पाठ्यक्रम में
निहित उद्देश्यों और मूल्यों की जाँच की जाती है। आर. के. कपूर के शब्दों में “मूल्यांकन
ज्ञान को जाँचने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, वरन इसके द्वारा छात्रों की समझदारी,
कौशल, कृतियाँ तथा रुचियों की भी जांच की जानी चाहिए। “साधारण अर्थों में कहा जा
सकता हैं कि किसी वस्तु, उपलब्धि, प्रक्रिया आदि का मूल्य अकित करना मूल्यांकन
कहलाता हैं। शिक्षण सत्र के द्वारा विद्यार्थियों की जो मासिक, त्रैमासिक, वार्षिक परिक्षायें ली
जाती हैं उनके द्वारा वस्तुत: उनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाता है । मूल्यांकन के
कई तरीके जो औपचारिक परिक्षाओं में नहीं हो सकते हैं, उन्हें जगह दी जा सकती है, जैसे
सामूहिक गतिविधि, स्व-आकलन, आपसी आकलन, मौखिक कार्य, पुस्तकालय या इंटरनेट
का उपयोग आदि । वास्तव में ये मूल्यांकन के साथ-साथ सार्थक शैक्षणिक गतिविधियाँ भी हैं।
इस प्रकार इन विचारों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हैं कि मूल्यांकन ऐसी प्रक्रिया
है जो विद्यार्थियों की विभिन्न उपलब्धियों, रुचियों, योग्यताओं, कुशलताओं तथा अभिवृत्तियों
की जाँच करती हैं, भावी विकास में उनका मार्गदर्शन करती है तथा शिक्षण-प्रक्रिया में प्रयुक्त
होने वाली विभिन्न विधियों तथा विभिन्न शिक्षण साधनों की उपयोगिताओं की जाँच करके
उनके परिवर्तन तथा संशोधन का मार्ग प्रशस्त करती हैं। यह एक सतत् प्रक्रिया है जो समूची
शिक्षा पद्धति की उपयोगिताओं तथा अनुपयोगिताओं की जाँच करके उसके भावी विकास को
निर्देशित करती हैं।
प्रश्न 12. सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में आईसीटी तथा कला समेकन के
उपयोग का वर्णन करें।
उत्तर–सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में आईसीटी का शिक्षकों द्वारा शिक्षण पद्धतियों
में उपयोग, अनिवार्य रूप से पारम्परिक तरीकों की शिक्षण पद्धतियों में मामूली संवर्धन से
लेकर उनके शिक्षण के दृष्टिकोण में अधिक मौलिक परिवर्तन करने के लिए किया जा सकता
है। आईसीटी का उपयोग प्रचलित शैक्षणिक पद्धतियों के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ शिक्षकों
और छात्रों के बीच संवाद के तरीके को सुदृढ़ करने के लिए किया जा सकता है । विभिन्न
उद्देश्यों के लिए शिक्षा में विभिन्न प्रकार के आईसीटी उत्पादों का उपयोग किया जाता है जैसे
कि- टेली कॉन्फ्रेंसिंग, ईमेल, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ऑडियो कॉन्फ्रेंसिंग, टेलीविजन पाठ, रेडियो
प्रसारण, इंटरएक्टिव रेडियो परामर्श, इंटरएक्टिव वॉइस रिस्पांस सिस्टम, ऑडियो कैसेट और
सीडी रॉम, स्मार्टफोन आदि का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार आईसीटी में प्रसारण और
वायरलेस मोबाइल दूरसंचार जैसी प्रौद्योगिकियों को शामिल किया गया है। आईसीटी के
विभिन्न घटकों के शिक्षण में उपयोग को हम निम्नलिखित प्रकार से भी समझ सकते हैं-
क. रेडियो– छात्रों को इसके शैक्षणिक कार्यक्रमों और समाचारों से लाभ मिलता है।
ख. टेलीविजन– शिक्षा, जागरूकता कार्यक्रमों और जनसंचार के क्षेत्र में इसका उपयोग
बड़े पैमाने पर किया जाता है।
ग. प्रिंट मीडिया– यह सूचना का बहुत ही प्रभावशाली और सबसे सस्ता स्रोत है।
इसका उद्देश्य सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर जागरूकता पैदा करना और लोगों को
दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को सूचित करना है।
घ. मोशन पिक्चर― यह मनोरंजन के साथ-साथ मजबूत संदेश प्रदान कर सकता है।
कुछ फिल्में आज के आधुनिक युग में सामाजिक चिंतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
जैसे- लंचबॉक्स, निल बटा सन्नाटा, आई एम कलाम इत्यादि ।
ङ. इंटरैक्टिव मल्टीमीडिया― यह शब्द कई मीडिया का एकीकरण है, जिसमें पठन
सामग्री, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टेली कॉन्फ्रेंसिंग इत्यादि की जानकारी प्रदान करने के लिए शामिल
किया जाता है। यह संबंधित जानकारी प्रस्तुत करने के लिए पाठ, ग्राफिक्स, एनिमेशन और
वीडियो का अद्वितीय संयोजन है।
च. पीसी आधारित आईसीटी इंटरनेट― इंटरनेट से जुड़ा एक व्यक्तिगत कम्प्यूटर
संचार के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया है। इंटरनेट ने कई अवसर खोल दिए हैं।
जानकारी प्राप्त करने, विश्व स्तर पर संचार करने, ईमेल, वॉइस-मेल, इ-कॉमर्स के माध्यम
से या आमतौर पर लाइव चैट या इंस्टेंट मैसेजिंग के माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान
एवं संप्रेषण व संवाद करना आसान हो गया है।
छ. वल्ड वाइड वेब― यह बहुत सारी जानकारी और ज्ञान को जोड़ने में सक्षम है।
इसने विश्व को एक वैश्विक गाँव में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
विद्यालयों में आईसीटी एक हस्तांतरणीय विषय बन गया है। आईसीटी के इस्तेमाल से
निर्मित इंटरेक्शन ने पाठ को और अधिक प्रभावी बना दिया है और बच्चों को ऐसे तरीके
से सीखने की अनुमति दी है जिससे वे आनंद लेकर सीखते हैं।
सामाजिक विज्ञान के शिक्षण में कला समेकन के उपयोग― कला समेकित
अधिगम दृश्य और प्रदर्शन कला के माध्यम से बच्चों को विभिन्न संदर्भो और अवधारणाओं
की छानबीन करने के अनूठे अवसर प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में, कला सीखने-सिखाने
की प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन जाती है। उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चे अवधारणाओं और
परिवेश के बीच अधिक जटिल अंतर्सम्बन्धों को समझने के लिए तैयार होते हैं। ‘कला
समेकित अधिगम’ बच्चों को सार्थक रूप से सरल अवधारणाओं के आधार पर नई
अवधारणाओं का निर्माण करने और उन्हें शैक्षणिक सामग्री से जोड़ने के लिए प्रेरित करता
है। बच्चे समूहों में काम करने के कौशलों को विकसित करते हैं। वे नए विचारों और संदर्भों
(थीम) को मिलकर तलाशने के कौशलों का परिष्करण भी करते हैं।
बच्चों के लिए ‘कला समेकित अधिगम’ पर आधारित गतिविधियों की योजना तैयार
करने के लिए कला अनुभवों के बारे में अच्छी तरह सोच-विचार करना आवश्यक है । कुछ
कला-अनुभव ‘आइस-ब्रेकर’ के रूप में हो सकते हैं जो 10 से 15 मिनट में आयोजित और
पूरे किए जा सकते हैं और अन्य कला-अनुभवों की अवधि लंबी भी हो सकती है ताकि
योजना के अधिगम उद्देश्यों’ और ‘अधिगम प्रतिफलों’ को प्राप्त किया जा सके । चित्रकला,
सामग्री तथा सूचना एकत्र करना, शब्दों तथा घटनाओं का मिलान करना, प्रश्न-उत्तर,
विचार-मंथन की गतिविधियों, प्रेजेंटेशन/प्रदर्शन आदि के रूप में हो सकते हैं। इन्हें किसी
भी विषय के संदर्भो (थीम) के आसपास विकसित किया जा सकता है क्योंकि इससे विषय
की सीमाओं के परे जाने और ज्ञान को समग्र रूप से प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
यह विविध प्रकार की अवधारणाओं, मुद्दों और कौशलों को प्राप्त करने में भी सहायता करता
है।
प्रश्न 13. सामाजिक विज्ञान (इतिहास, भूगोल, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन)
के शिक्षण में विभिन्न शिक्षण विधियों तथा तकनीकों का वर्णन करें।
उत्तर–सामाजिक अध्ययन की विभिन्न शिक्षण विधियों और तकनीकों का वर्णन
निम्नलिखित है―
क. क्षेत्र विधि या क्षेत्र भ्रमण― क्षेत्रविधि सामाजिक अध्ययन में विद्यार्थी केंद्रित एक
महत्वपूर्ण अनुदेशानात्मक विधि है । इसका अर्थ वास्तविक संसार में कक्षा-कक्ष अध्यापन
होता है। इसे वास्तविक जीवन की परिस्थिति में संचालित किया जाता है जहाँ विद्यार्थी किसी
घटना का अवलोकन, प्रासंगिक आंकड़ों का संग्रहण, आंकड़ों की प्रक्रिया एवं विश्लेषण
करते हैं एवं निष्कर्ष पर पहुंचते हैं । क्षेत्रविधि, कार्य की एक गतिमान इकाई से संबंधित होता
है। उदाहरण के लिए- उत्पादन के साधनों को पढ़ाते समय शिक्षक विद्यार्थियों को निकट
स्थित एक कारखाने में ले जा सकते हैं जहाँ विद्यार्थी वस्तुओं के उत्पादन में सम्मिलित
विभिन्न प्रक्रियाओं का अवलोकन करते हैं। क्षेत्रविधि विद्यार्थियों को प्राथमिक ज्ञान प्रदान
करती है तथा उनको बहुतसंख्य कौशलों एवं प्रक्रियाओं के एकीकरण को देखने हेतु सक्षम
करती है। इससे उन्हें अनुभव होता है, जिसे विद्यार्थी क्षेत्र कार्य से प्राप्त करते हैं जो प्रभावी
तथा स्थाई अधिगम में योगदान देते हैं।
ख. योजना (project) विधि― जिस विधि से छात्र किसी भी शैक्षणिक समस्या का हल
स्वाभाविक परिस्थिति में खोजने का प्रयास करता है, तर्क द्वारा जानकारी प्राप्त करता है और
उस ज्ञान के आधार पर अपने व्यवहार में परिवर्तन कर समस्या का समाधान करता है, उसे
प्रोजेक्ट पद्धति कहते है। इस विधि में समस्या का हल खोजने के लिए प्रयोजन पूर्ण कार्य
किये जाते हैं। इसमें अनुभव की पूर्ति के लिए भौतिक साधनों तथा वस्तुओं का प्रयोग
आवश्यक हैं। इसमें जीवन से सम्बन्धित समस्याओं का वास्तविक रूप में चयन करते हैं।
समस्याओं के लिए योजना तैयार की जाती है। छात्रा अपनी समस्या के हल ढूँढने के लिए
जो क्रियाएं करता है, उन क्रियाओं को भली प्रकार पूरा करने के लिए अनेक सूचनायें एकत्रित
करता है। छात्रा को विषय ज्ञान-अनुभवों एवं क्रियाओं द्वारा प्राप्त होता है। अध्यापक का
स्थान गौण होता है। उसका कार्य निर्देशन देना होता है। योजना विधि शिक्षण के
निम्नलिखित चरण हैं―
● परिस्थिति उत्पन्न करना, योजना का चयन, उद्देश्य निरूपण, योजना का कार्यक्रम
बनाना, योजना को पूर्ण करना, योजना का मूल्यांकन करना एवं योजना को लिखना।
● सामाजिक अध्ययन में ग्राम पंचायत का चुनाव, संगठन एवं कार्य प्रणाली,
विद्यालय के विभिन्न चुनाव, ग्राम, नगर तथा विद्यालय की सफाई, हमारे उत्सव,
विद्यालय की कृषि, सिंचाई के साधन, सामुदायिक सर्वेक्षण, विभिन्न ऐतिहासिक,
औद्योगिक, भौगोलिक आदि स्थानों की यात्राएं, मानचित्र मॉडल, समय रेखा,
समय ग्राफ, चित्र आदि का निर्माण, यातायात के साधन आदि विषयों पर योजनाएं
बनाई जा सकती हैं।
ग. सर्वेक्षण विधि― सर्वेक्षण एक वैज्ञानिक अध्ययन है, एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा
किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाओं के विषय में विश्वसनीय तथ्यों
का विस्तृत संकलन किया जाता है। इसकी सहायता से किसी भी पक्ष, विषय या समस्या
का खोजपूर्ण निरीक्षण किया जाता है तथा उससे संबंधित विश्वसनीय विस्तृत तथ्यों का
संकलन करके वास्तविक एवं प्रयोग से निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इन निष्कर्षों के आधार पर
रचनात्मक योजनाओं का निर्माण करके समाज सुधार और समाज कल्याण की दिशा में
महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं | Chaplin (1975) का मत है कि “सर्वेक्षण विधि का तात्पर्य
निर्देशन तथा प्रश्नावली विधि द्वारा जनमत के मापन से है।” सर्वेक्षण विधि में छात्रों को स्वयं
अन्वेषण करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसके द्वारा छात्र जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव
प्राप्त करते हैं। इसके द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान पर्याप्त समय तक मस्तिष्क में स्थाई रहता
है। वह क्रिया द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं। इसमें सीखने के सभी सिद्धान्तों का समावेश है।
उदाहरण के लिए- किसी गाँव की भौगोलिक स्थिति का सर्वेक्षण, गाँव की जनसंख्या,
व्यवसाय तथा आर्थिक दिशाओं के विषय में सर्वेक्षण, घरों तथा दुकानों की गणना करना तथा
उनमें उपलब्ध सुख सुविधाओं का सर्वेक्षण आदि ।
घ. समस्या समाधान विधि― समस्या समाधान विधि विद्यार्थी की मानसिक क्रिया पर
आधारित है। क्योंकि इस विधि में समस्या का चयन करके विद्यार्थी स्वयं के विचारों एवं
तर्कशक्ति के आधार पर मानसिक रूप से समस्या का हल ढूंढ कर नवीन ज्ञान प्राप्त करता है ।
सी. वी. गुड के शब्दों में “समस्या समाधान विधि में विद्यार्थी चुनौतीपूर्ण स्थितियों के
निर्माण द्वारा सीखने की ओर प्रेरित होते हैं। यह एक ऐसी विशिष्ट विधि है जिसमें लघु किंतु
संबंधित समस्याओं के सामूहिक समाधान के माध्यम से एक बड़ी समस्या का समाधान किया
जा सकता है।”
वास्तव में समस्या उस परिस्थिति को कहते हैं जिसके लिए विद्यार्थियों के पास पहले
से तैयार कोई हल नहीं होता है। ऐसी परिस्थिति में उनको तुरंत ही उस समस्या का हल
प्राप्त करने के लिए साधन जुटने पड़ते हैं । समस्या समाधान विधि में मानसिक निष्कर्षों पर
अधिक बल दिया जाता है। इसमें किसी समस्या या प्रश्न को एक विशेष स्थिति में वैज्ञानिक
ढंग से हल किया जाता है, परंतु इसके प्रयोग में इस बात पर बल दिया जाता है कि छात्र
समस्या को अपना समझ कर हल करने के लिए तैयार रहे। दूसरे शब्दों में विद्यार्थियों को
समस्या में अपनत्व अनुभव करना चाहिए। समस्या समाधान विधि के उपागम के
निम्नलिखित चरण हैं―
सर्वप्रथम समस्या का चयन, फिर यह पता लगाना कि यह समस्या क्यों है, उसके बाद
समस्या को पूर्ण करना, समस्या का हल निकालना तथा अंत में समाधान का प्रयोग करना।
ङ. कहानी विधि या कथात्मक विधि― कहानी कथन एक कला है जो शिक्षकों को
छात्रों के हृदय तक पहुंचाती है । इसके माध्यम से वे उनके अवधान को आकर्षित करते हैं।
यह विधि छात्रों की कल्पना तथा कौतूहल की भावना को तृप्त करने में बहुत सहायक है।
यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है, जिसके प्रयोग से बालकों के नैसर्गिक शक्तियों का अनजाने
में विकास किया जाता है। इसके द्वारा शिक्षक छात्रों के लिए पाठ को सजीव तथा रोचक
बनाने में समर्थ होते हैं। छात्रों को महानुभवों, सुधारकों, लेखको, संतों, अनुदेशकों तथा
वैज्ञानिकों एवं कलाकारों की कहानियां सामाजिक एवं विषयगत संदर्भ में सुनाई जाती है।
कहानी कथन विधि द्वारा जो ज्ञान प्रदान किया जाता है उसे छात्र शीघ्रता तथा सरलता से
ग्रहण कर लेते हैं क्योंकि छोटे बालों को में कौतूहल की भावना तथा कल्पना प्रियता अधिक
होती है तथा वह स्वभाव से ही कहानीप्रिय होते हैं। इसमें छात्रों की कल्पना, स्मरण शक्ति
तथा चिंतन शक्तियों का विकास किया जाता है। यह छात्रों में नागरिक तथा सामाजिक गुणों
का विकास करते हैं। उदाहरण के लिए इतिहास मानव-विकास की कहानी है जिसमें
आदिकाल से घटनाएं जुड़ती चली आ रही है। इस कहानी को कहानी विधि से पढ़ाना
स्वाभाविक भी है और प्रभावशाली भी क्योंकि यह वर्णनात्मक विधि है।
च. अवलोकन– अवलोकन शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘Observation’ का पर्यायवाची
है। जिसका अर्थ ‘देखना, प्रेक्षण, निरीक्षण, अर्थात् कार्य-कारण एवं पारस्परिक सम्बन्धों को
जानने के लिए स्वाभाविक रूप से घटित होने वाली घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण है।
अवलोकन का सम्बन्ध कृत्रिम घटनाओं एवं व्यवहारों से न हो कर, स्वाभाविक रूप से अथव
स्वतः विकसित होने वाली घटनाओं से है। अवलोकनकर्ता की उपस्थिति घटनाओं के घटित
होने के समय ही आवश्यक है ताकि वह उन्हें उसी समय देख सके । अवलोकन को सोच
समझकर या व्यवस्थित रूप में आयोजित किया जाता है। इस प्रविधि में नेत्रों द्वारा नवीन
अथवा प्राथमिक तथ्यों का विचारपूर्वक संकलन किया जाता है। कक्षा में अवलोकन द्वारा
शिक्षण के निम्नलिखित चरण है―
क. प्रारम्भिक आवश्यकतायें― अवलोकनकर्ता को सर्वप्रथम अवलोकन की रूपरेखा
बनाने के लिये यह निश्चित करना पड़ता है कि उसे किसका अवलोकन करना है ? तथ्यों
का आलेखन कैसे करना है? अवलोकन का कौन सा प्रकार उपयुक्त होगा ? आदि।
ख, पूर्व जानकारी प्राप्त करना- इस चरण में अवलोकनकर्ता निम्न जानकारी पूर्व
में प्राप्त कर लेता है- अध्ययन क्षेत्र की इकाईयों के सम्बन्ध में जानकारी, अध्ययन समूह
की सामान्य विशेषताओं की जानकारी जैसे स्वभाव, व्यवसाय, रहन-सहन, इत्यादि,अध्ययन
क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति की जानकारी, घटना स्थलों का ज्ञान एवं मानचित्र, आदि।
ग. विस्तृत अवलोकन रूपरेखा तैयार करना― रूपरेखा तैयार करने के लिए निम्न
बातों को निश्चित करना होता है- कल्पना के अनुसार अवलोकन हेतु तथ्यों का निर्धारण,
आवश्यकतानुसार नियंत्रण की विधियों एवं परिस्थितियों का निर्धारण, सहयोगी कार्यकर्ता
की भूमिका का निर्धारण।
घ. अवलोकन यंत्र― अवलोकन कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व, उपयुक्त अवलोकन यंत्रों
का निर्माण करना आवश्यक होता है। जैसे- अवलोकन निर्देशिका या डायरी, अवलोकित
तथ्यों के लेखन के लिए उचित आकार के अवलोकन कार्ड, अवलोकन-अनुसूची एवं
चार्ट-सूचनाओं को व्यवस्थित रूप से संकलित करने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है।
च. अन्य आवश्यकतायें― इसमें कैमरा, टेप रिकार्डर, मोबाइल आदि को शामिल किया
जा सकता है। इनकी सहायता से भी सूचनायें संकलित की जाती है।
छ. प्रदर्शन― प्रदर्शन विधि वह शिक्षण विधि है जिसमें किसी संरचना कार्य प्रणाली, तथ्य
तथा दृश्य को स्पष्ट किया जा सकता है। इस विधि में छात्र इंद्रियों की सहायता से जटिल
प्रक्रिया का सरलता से बोध करते हैं । इस विधि द्वारा शिक्षण करने पर मूर्त से अमूर्त शिक्षण
का अनुसरण किया जाता है। प्रदर्शन विधि में अध्यापक कक्षा में चार्ट, मॉडल का आयोजन
करके संबंधित विषय वस्तु का स्पष्टीकरण करता है। विद्यालयों में सामाजिक विज्ञान के
शिक्षण में विशेषतः अभीष्ट कौशलों के विकास में इसका प्रयोग किया जाता है। उदाहरण
के लिए- किसी देश का मानचित्र कैसे बनाया जाए एक कौशल है, जिसे प्रदर्शित किया जाता
है। प्रदर्शन बहुत प्रभावी होता है जब विद्यालय गतिविधि के अनुरूप किया जाए । यदि शिक्षक
मानचित्र पर निर्धारण हेतु मापन प्रविधि को प्रदर्शित करते हैं तब विद्यार्थियों द्वारा अनुकरण
कर गतिविधियों में उसका अनुसरण किया जाता है । इस प्रकार कभी-कभी विचार, अभिवृत्ति,
प्रक्रिया तथा अन्य यथार्थ भी इस विधि द्वारा प्रदर्शित किए जाते हैं।
ज. चर्चा― चर्चा, एक व्यापक शब्द है, जिसका अर्थ है दो या अधिक लोगों के समूह
के बीच अन्वेषी अन्योन्यक्रिया (खोज करने की दिशा में लक्षित बातचीत एवं व्यवहार) ।
‘बहस’ (वाद-विवाद) चर्चा का एक अधिक औपचारिक (और संभावित रूप से अधिक
गहन) रूप है जिसमें सामान्यतः दो भिन्न या परस्पर विरोधी दृष्टिकोण अथवा ‘पक्ष’ शामिल
होते हैं । सामाजिक अध्ययन की कक्षा में परस्पर चर्चा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षक और
छात्र आपस में मिलजुलकर किसी सामाजिक समस्या, विषय, भ्रमण, यात्रा अनुभव आदि के
संबंध में अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं। इससे छात्रों को कक्षा में अपने अनुभव
एवं विचारों को प्रकट करने एवं एक दूसरे के अनुभवों से सीखने की स्वतंत्रता मिलती है।
सामाजिक अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य है कि वह छात्रों में उचित दृष्टिकोण को विकसित
कर सके । चर्चा के माध्यम से दृष्टिकोणों का विकास सरल हो जाता है। जैसे- किसी छात्र
के परिवार में मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने बनाने या बढ़ईगिरी का व्यवसाय है तो छात्रा अपने
अनुभव कक्षा में बताएगा जो कि दूसरे छात्रों के लिए उपयोगी होगा । किसी छात्र का अनुभव
अपने परिवार या वातावरण को लेकर कैसा है, जब छात्र ग्रीष्माशीत अवकाश में भ्रमण पर
गए थे तो वहाँ क्या देखा था, उसे अपने समकक्ष समूह में चर्चा के माध्यम से बताया जा
सकता है। सामाजिक एवं भौतिक अनुभव छात्रों के मस्तिष्क को विभिन्न तरीकों से प्रभावित
करते हैं। छात्रों के अनुभवों को वास्तविक परिस्थितियों से संबंधित कर के छात्रों को संचार
से परिचित करवाया जा सकता है क्योंकि छात्र का अपने परिवेश से गहरा जुड़ाव होता है।
झ. गोष्ठी विधि― इस विधि में किसी विशेष विषय पर छात्र/छात्राओं द्वारा विचार
विमर्श, वाद-विवाद एक निश्चित समय में करना होता है। इसमें ऐसे प्रकरण पर विचार
किया जाता है जिसमें सभी सदस्यों की रुचि होती है। इसके द्वारा लोगों में सामाजिक एवं
भावात्मक गुणों का विकास होता है । इसके द्वारा दूसरों के विरोधी विचारों का सम्मान एवं
सहनशीलता की भावना विकसित होती है।
इस अधिगम के अन्तर्गत सीखने वालों को विभिन्न समूह में बाँट दिया जाता है । सीखने
वाले को अपने साथियों के साथ खुले मन से सामाजिक अध्ययन की विषय-वस्तु पर
आधारित अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता है । इसका प्रमुख
उद्देश्य छात्रों को अपनी व सामाजिक समस्याओं को स्वयं निराकरण करने के लिए प्रोत्साहित
करना तथा उन्हें समाधान निकालने के लिए अवसर प्रदान करना होता है । आवश्यकता पड़ने
पर वे शिक्षक से सहायता प्राप्त कर सकते हैं। समूह अधिगम आधारित गोष्ठी में छात्र
अधिक स्वतंत्र होने के कारण समस्या के समाधान, विषय को समझने, उसे सामाजिक संदर्भ
से जोड़ कर सीखने में अपने विचारों को पूर्णरूप से प्रकट कर सकते हैं।
ज, स्थानीय भ्रमण― स्थानीय भ्रमण द्वारा शिक्षण करने की विधि छात्रों को प्रत्यक्ष ज्ञान
देने के सिद्धान्त पर आधारित है। इस विधि में छात्रों को कक्षा की चारदीवारी में नियंत्रित
शिक्षा ना देखकर स्थान विशेष पर ले जाकर शिक्षा दी जाती है। यह छात्रों को प्रत्यक्ष अनुभव
प्राप्त करने का अवसर देती है। इस विधि से सामाजिक अध्ययन की कक्षा में पढ़ी गई बातों,
तथ्यों, वस्तुओं, भौगोलिक संरचनाओं, स्थानीय परिवेश, सामुदायिक जीवन, ऐतिहासिक
स्थलों, वस्तुओं आदि को बाहा जगत में आकर स्पष्टीकरण करने का अवसर मिलता है।
भ्रमण द्वारा वस्तुओं को समीप से देखने और प्रत्यक्ष अनुभव करने से छात्रों को विषय भली
प्रकार समझ में आ जाता है। इस विधि ने सामाजिक अध्ययन शिक्षण को सरल, बोधगम्य
तथा आकर्षक बनाया है। इस विधि द्वारा शिक्षण से छात्रों में निरीक्षण करने की योग्यता का
विकास होता है। इसमें छात्र मिलकर काम करना सकते हैं। इस विधि में छात्र भ्रमण के
साथ-साथ मनोरंजन होने के कारण मानसिक रूप से थकते नहीं है। इस विधि द्वारा
विद्यार्थियों में पर्यावरणीय मुद्दों की समझ विकसित करने के लिए स्थानीय परिवेश का उपयोग
किया जाता है। उदाहरण के लिए विद्यार्थियों को विद्यालय के मैदानों के इर्द-गिर्द उगने वाले
विभिन्न पौधों की खोज करने के लिए भेजना, किसी शहरी विद्यालय में विद्यार्थियों को उद्यानों,
बागीचों, पौधशालाओं या चिड़ियाघर जैसे स्थानों पर ले जाने से विषय के प्रति उनकी समझ
बढ़ेगी तथा स्थानीय क्षेत्र/मोहल्ले के साथ उनका जुड़ाव भी होगा।
ट. भागीदारी अनुभव― विद्यार्थियों की सीखने की क्रिया में उनकी भागीदारी, सीखने
संबंधी सर्वोत्तम परिणाम पाने की कुंजी है। विद्यार्थियों को निम्नांकित का अवसर मिलना
चाहिए―
● सीखते समय विचारों का योगदान देने का।
● अपने विचारों और अनुभवों के बारे में बोलने और चर्चा करने का।
● विद्यालय में उन्होंने जो सीखा उसे अपने रोजमर्रा के जीवन से जोड़ने का।
सामाजिक अध्ययन का भागीदारी अनुभव द्वारा शिक्षण में सीखने की क्रिया में सहयोग
देने और उसे दैनिक जीवन के साथ जोड़ने के लिए अध्यापक सुपरिचित स्थानीय संसाधनों
उपयोग करते हैं। अध्यापक ऐसे विविध खुले सवाल पूछते हैं जिनमें विद्यार्थियों को
व्याख्या करने का और अपने विचार सामने रखने का मौका मिले। अध्यापक विद्यार्थियों को
उनकी सीख के बारे में, पूरी कक्षा के रूप में, जोड़ी में या समूहों में बोलने के लिए प्रोत्साहित
कर सकते हैं। अध्यापक पाठों में सभी विद्यार्थियों को सक्रिय रूप से शामिल करते हैं। अतः
भागीदारी अनुभव द्वारा शिक्षण के निम्नलिखित चरण है―
पाठों का नियोजन करना, सभी को शामिल करना, सीखने के लिए उन्हें अनुभवों के
आधार पर बोलने के मौके देना, समूह अथवा जोड़ी में कार्य का उपयोग करना, चिंतन को
बढ़ावा देने के लिए खुले प्रश्न पूछना, निगरानी करना और फीडबैक देना, प्रगति और प्रदर्शन
का आकलन करना, स्थानीय संसाधनों का उपयोग करना तथा कहानी सुनाना, भूमिका पालन
करना।
ठ. नाटक विधि― अभिनय रंगमंच तक ही सीमित नहीं है। सामाजिक अध्ययन के
अध्यापन में अभिनय विधि का प्रयोग प्राथमिक स्तर पर सर्वथा उपयोगी एवं कारगर है। इसमें
आवश्यकता शिक्षक के चिंतन की तथा विषयांश के चयन की है । पाठ्यपुस्तक के पाठ्यांश
को आधार मानकर संवाद लेखन किया जाये । संवाद लेखन उपरांत पात्रों के अनुरूप
हाव-भाव के साथ शिक्षक द्वारा छात्रों के सहयोग से प्रस्तुति की जाये । यह वह विधि है जिसमें
शिक्षक आवश्यकतानुसार छात्रों की सहभागिता से गति, वाणी व हाव-भाव समायोजित कर
किसी घटना या चरित्र को प्रस्तुत करता है। इस विधि से पाठ की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचना
हो जाती है। इसके प्रयोग से छात्रों में विषय ग्राह्यता आत्मविश्वास तथा आत्माभिव्यंजना
शक्ति सहजता से विकसित की जाती है । इसके द्वारा उनमें निन्नक तथा लन्जाशीलता की
प्रवृत्ति दूर होती है। इसके अतिरिक्त छात्र बोलने की करता भी सीख लेते हैं।
ठ. प्रश्नोत्तर विधि― इस पद के अन्तर्गत शिक्षक इकाई की विषय वस्तु की छात्रों के
समक्ष बातचीत या कथन के द्वारा प्रस्तुत करता है । इसके बाद वह प्रनों द्वारा यह जानने
का प्रयास करता है कि छात्र इाकई की विषय वस्तु को समझ गया है या नहीं। यदि छाल
नहीं समझ पाते है तो शिक्षक उसको पुनः प्रस्तुत करेगा। शिक्षक अगले पद पर टब तक
नहीं जायेगा जब तक छात्र इस पद की विषयवस्तु को पूर्णत: समझ नहीं लेते । शिक्षण-अधिमान
प्रक्रिया में प्रश्न पूछने की कला बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इसकी सफलता
विद्यार्थियों से वांछित उत्तर प्राप्त करने पर निर्भर करती हैं ।
विद्यार्थियों के प्राप्त उत्तरों को किस रूप में ग्रहण किया जाए और इनके आधार पर
शिक्षण की उचित भूमिका कैसे बनाई जाए । खोजपूर्ण प्रश्न कौशल का सम्बन्ध इस कार्य
से होता है । जब कोई विद्यार्थी उत्तर नहीं देता अथवा अपूर्ण और गलत उत्तर देता है तो उसे
उत्तर देने क लिए प्रेरित करने अथवा सही उत्तर की ओर ले जाने के लिए अध्यापक ऐसे
प्रश्नों का सहारा लेता हैं जो धीरे-धीरे विद्यार्थी से पूर्वज्ञान अथवा सीखी हुई विषयवस्तु से
नवीन ज्ञान तक पहुँचाने अथवा उसकी खोज करने में सहायता करते हैं। ये प्रत उसके
अपूर्ण अथवा गलत उत्तर को खोज या अनुसंधान प्रक्रिया के माध्यम से पूर्ण और सही रूप
प्रदान करते हैं।
ङ. साक्षात्कार विधि― साक्षात्कार प्रविधि का विशिष्ट गुणवत्ता के कारण इसका
व्यापक उपयोग किया जाता है। साक्षात्कार में प्रत्यक्ष संबंध स्थापित किए सहयोग का
वातावरण बनता है और छात्र की रुचियों, दृष्टिकोण आदि में हुए परिवर्तनों एवं उनकी
व्यक्तिगत विशेषताओं की जाँच सरलता से की जा सकती है। साक्षात्कार के समय कुछ
पूर्व नियोजित प्रश्न किए जाते हैं तथा कुछ प्रश्न औपचारिकतर स्वरूप के होते हैं जिससे
साक्षात्कार में पर्याप्त लोच का गुण आ जाता है। छात्र खुलकर अपनी बात बता सकते है।
साक्षात्कार लेने वाले शिक्षक को साक्षरता तंत्र से भली भांति परिचित होना आवश्यक है।
ढ. स्रोत विधि― कोई वस्तु, स्थान, पुस्तक या व्यक्ति जो ज्ञान को वास्तविक आधार
प्रदान करते हैं, उस आधार को स्रोत कहते हैं। स्रोत मुख्य दो मुख्यतः दो प्रकार के होते
हैं― प्राथमिक एवं द्वितीयक । इन स्रोतों में प्राचीन स्मारक, भग्नावेश लोक, कथार कहानियां
पांडुलिपि, रिपोर्ट, डायरी, पत्र संधियां इत्यादि आती है। इन सामग्रियों द्वारा शिक्षण से
पाठ्यसामग्री की विश्वसनीयता सिद्ध होती है। मूल सामग्री का प्रयोग करने से शिक्षा
अनुमान तथा वास्तविकता में अंतर समझने लग जाते हैं। मूल स्रोतों के शिक्षण में प्रयोग
से वास्तविकता की भावना पैदा होती है। प्रसंग सहित प्राप्त किया हुआ ज्ञान विद्यार्थिको
रुचिकर लगता है और यह जीवन में उनके काम आता है। इससे विद्यार्थियों में प्रमाणिक
बातों को पहचानने की क्षमता विकसित होती है। स्रोतों के प्रयोग से अर्जित ज्ञान में
विश्वसनीयता आती है और छात्रों के पाठ्य सामग्री के अन्वेषण एवं परीक्षण की आदत पड़ती
है।
ण. मानचित्र विधि― मानचित्रण एक बिल्कुल अलग पर एक पूरक तकनीक है,जो
विचारों के संगठन और अवधारणाओं के बीच के सम्बन्ध स्थापित करती है। मानचित्र में
अवधारणाओं को एक तीर से जोड़ा जाता है और शब्द, उस जुड़ाव के बारे में समझाते हैं।
मानचित्र, देख कर सीखने वालों को विशेष रूप से आकर्षित करते हैं, पर सभी विद्यार्थी इनके
उपयोग से लाभान्वित हो सकते हैं, क्योंकि ये मानचित्र असल में एक कार्यनीति है, जिसका
उपयोग विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है।
त. आंकड़ा विश्लेषण विधि― आंकड़ों के विश्लेषण का अर्थ है- उनमें निहित तथ्यों
या अर्थों को निर्धारित करने हेतु विषय सामग्री का अध्ययन करना । विभिन्न विषयों की
विषयवस्तुओं के शिक्षण में किसी विशिष्ट उद्देश्य हेतु आंकड़ों को एकत्रित कर उनका
विश्लेषण इस विधि में किया जाता है । जैसे- किसी भौगोलिक प्रदेश के जलवायु की गणना
के किये उस स्थान के निश्चित समय तक प्राप्त मौसम के आंकड़ों के विश्लेषण से उस
स्थान की जलवायु का अध्ययन । इस प्रकार की शिक्षण विधि के प्रयोग से छात्रों में वैज्ञानिक
ढंग से सोचने की प्रक्रिया का विकास होता है।
थ. केस स्टडी विधि― केस स्टडी से तात्पर्य है किसी भी वस्तु, स्थिति का भली-भाँति
बारीकी से जाँच पड़ताल करना व जानना । इसका बुनियाद आधार विद्यार्थी की जिज्ञासु प्रवृत्ति
को माना जाता है । इस विधि में विद्यार्थी की स्वयं समाधान ढूंढने में सक्रिय भूमिका रहती
है, जबकि अध्यापक की भूमिका विद्यार्थियों को समस्या से भलीभाँति परिचित कराना है।
केस स्टडी की विषय वस्तु व्यक्ति, स्थान या सत्य घटना पर आधारित होती है । यह किसी
एक इकाई का सम्पूर्ण विश्लेषण होता है। इस प्रकार शिक्षक बालक के ‘समायोजित
व्यक्तित्व’ के निर्माण में सहायता करता है । केस स्टडी के लिए सबसे प्रबल तर्क यह है
कि किसी भी केस का अध्ययन तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि हम उसके विभिन्न
पहलुओं की उसमें होने वाली अन्तक्रियाओं का अध्ययन न करें । व्यक्तिगत अध्ययन (केस
स्टडी) विषय विशेष (जैसे बालक समूह या घटना) के गुण दोष एवं असमान्यताओं का
विश्लेषण है।
द. समूह शिक्षण या दल शिक्षण विधि― हम दल को ऐसे व्यक्तियों के समूह के
रूप में परिभाषित कर सकते हैं जो किसी परिणाम को निष्पादित करने में एक दूसरे के काम
आते हैं। दल अधिगम विद्यार्थियों के कौशल को सामर्थ्य में बदल देता है और वह कौशल
सहभागी तालमेल बनाने में संगठित वाहन की तरह कार्य करता है। दल अधिगम सहभागी
के दृष्टिकोण के कौशलों को विकसित करने पर जोर देता है। दल अधिगम वार्तालाप की
दो विधियों से उपजी है परिचर्चा और संवाद । परिचर्चा को जब शिक्षण में प्रयोग करते हैं
तब शिक्षक पात्रों के सहयोग से किसी जटिल समस्या के समाधान तक पारस्परिक
आदान-प्रदान व तर्क के माध्यम से पहुँचता है तो इसे परिचर्चा विधि कहते हैं। इस विधि
के अन्तर्गत शिक्षक पूर्व में ही छात्रों को चर्चा का विषय, दिन, समय अवधि एवं कालांश
आदि सुनिश्चित कर देता है। विद्यार्थी आपस में परिचर्चा करके उत्तरों तक पहुँचते हैं। संवाद
को प्रक्रिया के समय यह सीखते हैं कि साथ-साथ कैसे सोचा जाए जो केवल साझा परेशानी
की खोज में समस्याओं के हल सामूहिक रूप से मिलकर खोजे ।
प्रश्न 14. सामाजिक विज्ञान के विभिन्न विषयों (इतिहास, भूगोल, सामाजिक,
राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन) शिक्षण की विभिन्न शिक्षण सामग्रियों का उल्लेख
करें। इनका उपयोग शिक्षण में किस प्रकार करेंगे?
उत्तर―क. चार्ट- सामाजिक अध्ययन में चार्ट किसी प्रणाली प्रक्रिया तथा घटना के
ऐतिहासिक अनुक्रम का एक आरेखी निरूपण होता है। यह एक दृश्य निरूपण होता है
जिसका प्रयोग संक्षेपीकरण, सचित्र व्याख्या, तुलना करने, भेद बताने या विषय वस्तु को
प्रभावी और सक्षिप्त रूप में संप्रेषित करने के लिए किया जाता है। चार्ट का प्रयोग विद्यार्थियों
में अवधारणा निर्माण तथा विकास के लिए सामाजिक अध्ययन के विषयों में किया जाता
है। उदाहरण के लिए- पृथ्वी की आंतरिक संरचना का अध्ययन करने के लिए शिक्षक एक
चार्ट का उपयोग करते हैं, जिसमें पृथ्वी के अंदर की परतों को नाम एवं संरचना के साथ
प्रदर्शित किया जाता है। सामाजिक अध्ययन के शिक्षण में विभिन्न प्रकार के चार्ट का
अध्ययन किया जाता है―
1. प्रक्रिया चार्ट―प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को दिखाने के लिए । जैसे-ऊर्जा चक्र,
जीवन चक्र आदि।
2. संगठनात्मक चार्ट―किसी संगठन के विभिन्न घटकों के कार्यात्मक संबंधों का
निरूपण करने के लिए। जैसे- भोजन श्रृंखला, किसी संस्था का प्रशासनिक पदानुक्रम
आदि।
3. समय काल चार्ट― कालानुक्रम को निर्धारित करने के लिए । जैसे- घटनाओं को
समय काल के परिप्रेक्ष्य में तुलना करने के लिए आदि ।
4. सारणीबद्ध चार्ट― आंकड़ों को सारणीबद्ध रूप में निरूपित करने के लिए। जैसे-
पौषों के, जीवों के प्रकार आदि ।
5. वृक्ष चार्ट― वृद्धि और विकास को एक वृक्ष की उपमा देकर समझाने के लिए।
जैसे- किसी साम्राज्य के वंशजों के वंश वृक्ष की शाखाओं द्वारा प्रदर्शन इत्यादि ।
6. प्रवाह चार्ट― जहाँ शाखाएँ एक स्थान पर आकर मिलती है। जैसे- विभिन्न नदियों
की शाखाओं को एक समुद्र में विलीन होने को दिखाना आदि ।
7. अनुक्रम या पिलप चार्ट- यह विभिन्न प्रकार के चार्ट का संग्रह होता है जो एक
घटनाक्रम में बहुत सारी घटनाओं को दिखाता है।
ख, पोस्टर― पोस्टर किसी एका विचार या अवधारणा का प्रतीकात्मक निरूपण होता
है। पोस्टर में प्रायः चित्र द्वारा एक संदेश संप्रेषित करने को लिए मोटे व सुस्पष्ट अक्षरों का
प्रयोग करते हैं जो छात्रों को आकर्षित करते हैं। इसमें दृश्य और शाब्दिक दोनों अवयव होते
हैं। इसमें के विभिन्न प्रकार के रंगों का प्रयोग होता है । सामाजिक अध्ययन के शिक्षण में
पोस्टर रूपांकन तथा विकास की दृष्टि से सृजनात्मकता का प्रदर्शन करते हैं । यह जानकारी
प्रदान करने के साथ-साथ छात्रों का विषय वस्तु से संबंध स्थापित करने में भी सहायता करते
हैं। जैसे- इतिहास विषय के अध्ययन में किसी शासक से संबंधित पोस्टर अथवा उसके शासन
काल में सामाजिक स्थिति को दर्शाने वाला पोस्टर जिससे उस काल की स्थितियों, वेशभूषा,
रहन-सहन आदि की समझ विद्यार्थियों में स्पष्ट रूप से विकसित होती है।
ग. कार्टून― कार्टून का अर्थ है कोई भी हास्य या मनोरंजक चित्र । वर्ष 2006 में
राजनीति शास्त्र की नई पाठयपुस्तकों के साथ भारत में पाठ्यपुस्तकों में एक नया पैराडाइम
उभरा है। यह राजनीति विज्ञान की नवीन शिक्षण पद्धति और राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा
2005 द्वारा प्रस्तुत परिप्रेक्ष्य के अनुकूल था, जिसमें अभिमतों की विविधता और विचारों की
अनेकता के आधार पर विचार-विमर्श के जरिए विद्यार्थियों को खुद अपने मत बनाने में मदद
मिलती है। समाज अध्ययन पाठ्यपुस्तकों में सबसे ज्यादा उपयोग कार्टून्स का हुआ है।
कार्टून्स को सार्थक रूप से छापना आसान है। नई पाठ्यपुस्तकों में राजनीति विज्ञान को महज
कानूनों, नियमों, कायदों और तारीखों की फेहरिस्त के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है।
इसे एक ऐसे विषय के रूप में पेश किया गया है जो इन चीजों को पिछले 60 सालों की
महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनाओं के सन्दर्भ में रखकर देखता है।
कार्टून मूलत: राजनैतिक वक्तव्य होते हैं। ऐसा एक अकेला कार्टून पूरी विषयवस्तु का
स्थान ले सकता है या उसका निचोड प्रस्तुत कर सकता है। विद्यार्थियों को कार्टून्स का
विश्लेषण करने के अवसर देने की गुंजाइश सामाजिक अध्ययन की किसी अन्य शाखा से
ज्यादा राजनीति विज्ञान में है। कार्टून्स के जरिए अखबार रोजाना हमें देश की राजनैतिक
घटनाओं पर करारी टिप्पणी उपलव्य कराते हैं। इससे विषयवस्तु पर सटीक पकड़ एवं
लोकतांत्रिक संदर्भ विकसित होते है।
घ. चित्र (तस्वीर)― चित्र अध्यापन के अमूल्य साधन है। इनके द्वारा प्रकरण को
अधिक स्पष्ट और रोचक बनाया जाता है। जिन बातों का प्रत्यक्ष अनुभव छात्रों को नहीं
होता वे चित्रों की सहायता से पर्याप्त सीमा तक स्पष्ट एवं सार्थक हो जाती है।
अध्ययन-अध्यापन की किसी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती है जिसमें चित्रों
की सहायता ना ली जा सके । चित्रों की सहायता से शिक्षण कार्य करने पर सामाजिक विषयों
इतिहास, भूगोल आदि के सूक्ष्म अर्थ वाले शब्द और प्रतीक सार्थक बन जाते हैं । अभिभावकों
और अध्यापकों द्वारा समाचार पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं में निकलने वाले चित्रों को जब
उपयुक्त शीर्षक देकर सूचना पट्ट पर प्रदर्शित किया जाता है तो छोटे-छोटे बच्चे विश्व की
दैनिक घटनाओं में रुचि लेने लगते हैं। विश्व की विभिन्न जातियों के बीच सांस्कृतिक
मानदंडों तथा जीवन पद्धतियों के पारस्परिक आदान-प्रदान और विवेचन को प्रोत्साहित करने
में भी चित्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रों द्वारा ज्ञान को सार्थकता से प्रस्तुत किया जाता
है। साथ ही महत्व की बात यह है कि सहानुभूति को जागृत करने के लिए भी चित्रों का
उपयोग किया जा सकता है।
ङ. दस्तावेज― सामाजिक अध्ययन में दस्तावेज ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को
जानने के प्रारंभिक स्रोत होते हैं । शिक्षण कार्य इनका प्रयोग विषय वस्तु को प्रमाणिक बनाने
के लिए किया जा सकता है। दस्तावेज के दो प्रकार हैं- प्राथमिक स्रोत दस्तावेज एक
दस्तावेज है जो किसी व्यक्ति द्वारा बनाया गया था जो उस अतीत की किसी घटना में मौजूद
था जिसने इसे लिखा या इसके बारे में बात की थी। द्वितीयक स्रोत या माध्यमिक स्रोत
दस्तावेज एक दस्तावेज या आर्टिफैक्ट होता है जो घटना के बाद किसी व्यक्ति द्वारा हुई घटना
के बाद बनाया गया था। उदाहरण के लिए- राष्ट्रपति लिंकन द्वारा लिखित पत्र अन्यथा
बीक्सबी पत्र के रूप में जाना जाता है, एक प्राथमिक स्रोत दस्तावेज है। यह एक प्राथमिक
स्रोत दस्तावेज है क्योंकि यह एक सटीक पत्र है जिसे 1864 में किसी भी परिवर्तन किए बिना
स्वयं उनके द्वारा लिखा गया था। किताबें लेख पत्रिका विश्वकोश आदि द्वितीय स्रोत दस्तावेज हैं।
सामाजिक अध्ययन के शिक्षण में दस्तावेजों को मौलिक सामग्री तथा मौलिक स्रोत के
रूप में उपयोग किया जाता है । इससे विषय वस्तु के बारे में सीधे जानकारी तथा अनुभव
प्राप्त होते हैं । सामाजिक अध्ययन शिक्षण की यह क्रियात्मक विधि होती है । इसके द्वारा
शिक्षण से छात्रों से यह आशा की जाती है कि वे उपलब्ध स्रोतों का उपयोग कर इतिहास
की रचना करेंगे । दस्तावेजों के अध्ययन से छात्रों में चिंतन शक्ति का भी विकास होता है।
च. पत्र-पत्रिका― पत्र-पत्रिकाएँ मानव समाज की दिशा-निर्देशिका मानी जाती हैं ।
समाज के भीतर घटती घटनाओं से लेकर परिवेश की समझ उत्पन्न करने का कार्य पत्रकारिता
का प्रथम व महत्वपूर्ण कर्तव्य है। राजनीतिक-सामाजिक चिंतन की समझ पैदा करने के
साथ विचार की सामर्थ्य पत्रकारिता के माध्यम से ही उत्पन्न होती है। पत्र-पत्रिकाएं
पाठ्यपुस्तक से परे संसाधन हैं जो छात्रों की सीखने की प्रक्रिया को उनके अपने अनुभवों
और समकालीन घटनाओं से जोड़ने में सक्षम बनाते हैं, और शिक्षकों को छात्रों द्वारा कक्षा
में लाई जा रही जानकारी का पता लगाने के अवसर प्रदान करते हैं। पत्र-पत्रिकाएं ऐसे विषय
प्रदान करते हैं जो उस समय प्रासंगिक होते हैं और छात्रों के लिए दिलचस्प हो सकते हैं।
इन संसाधनों का उपयोग करते हुए छात्रों के आलोचनात्मक विचार कौशल को विकसित
करने में सहायता कर सकते हैं। पाठ्यपुस्तक से परे इन संसाधनों का उपयोग छात्रों को यह
अनुभव करने का कि कक्षा के बाहर समाज में क्या घटित हो रहा है, यह जानने का और
प्रामाणिक समकालीन एवं ऐतिहासिक तथ्यों के संपर्क में आने और उनके प्रभाव को जानने
का अवसर भी देता है।
छ. मॉडल― मॉडल किसी वास्तविक वस्तु या अमूर्त वस्तु की एक आसानी से पहचानी
जाने योग्य अनुकृति है। आमतौर पर यह प्रतिरूप सभी पक्षों की दृष्टि से केवल आकार को
छोड़कर मूल वस्तु के जैसा होता है। प्रतिरूप का आकार वस्तु से छोटा भी हो सकता है
और बड़ा भी । जब आकार कम कर दिया जाता है तो वस्तु का इस प्रकार सरलीकरण होता
है और केवल अनिवार्य भाग दिखाई देते हैं । उदाहरण के लिए- ग्लोब पृथ्वी का सरलीकृत
प्रतिरूप होता है जिसमें इसके अनिवार्य भाग ही दिखाई पड़ते हैं। किसी महाद्वीप, देश का
प्राकृतिक भूभाग या किसी भूदृश्य के अध्ययन आदि में इसका उपयोग लाभकारी होता है।
प्रतिरूप उपयोगी इसलिए होते हैं क्योंकि―
● यह कठिन अवधारणाओं का सरलीकरण कर देते हैं।
● बहुत बड़ी वस्तु को सुगमता से प्रेक्षणीय आकार में लघुकृत कर देते हैं।
● किसी वस्तु अथवा स्थान की संरचना को निर्देशित कर देते हैं।
● यह विद्यार्थियों को विषय वस्तु को समझने में सहायता करते हैं।
छात्र प्रतिरूप (मॉडल) को स्पर्श करके एवं अनुभव कर के सामाजिक अध्ययन की
विषय वस्तु को अपने सामाजिक संदर्भ में जोड़कर सीखते हैं।
ज, ग्लोब― ग्लोब पृथ्वी का एक छोटा कृत्रिम नमूना है । ग्लोब एक प्रमुख सामाजिक
अध्ययन शिक्षण सामग्री है। विशेष तौर पर इसे भूगोल के अध्ययन में प्रयुक्त किया जाता
है। भूगोल पृथ्वी का सबसे उत्तम प्रतिनिधित्व करने वाले सामग्री है क्योंकि यह भू-आकृति
को सही ढंग से स्पष्ट करने में सक्षम है। प्रक्षेपों के कारण विभिन्न क्षेत्रों के आकार एवं
क्षेत्रफल की अशुद्धियों को र करने में सक्षम होने के कारण यह और भी अधिक उपयोगी
माना जाता है। ग्लोब की सहायता से जल-स्थल वितरण, भूगति, दिन-रात, ग्रहण,
ज्वार-भाटा आदि अनेक भौगोलिक तथ्यों को ठीक से स्पष्ट कर पाना संभव हो पाता है।
इससे विद्यार्थी यह भी समझ पाते हैं कि पृथ्वी का ना तो कहीं ऊपरी भाग है और ना ही
निचला भाग जो कि मानचित्र की सहायता से स्पष्ट नहीं हो पाता है। इससे जल-स्थल
वितरण को समझने के साथ-साथ अक्षांश-देशांतर रेखाओं, उच्च दाब एवं निम्न दाब कटिबंध
आदि की समझ भी विकसित होती है। इससे विद्यार्थी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बारे
में भी ठीक से समझ विकसित करते हैं कि जो लोग भू-गोल के विपरीत या नीचे होंगे वे
नीचे क्यों नहीं करते हैं । सामाजिक अध्ययन के शिक्षण में निम्न प्रकार के ग्लोब का उपयोग
किया जाता है―
1. स्लेट ग्लोब― यह काला होता है और जल-स्थल वितरण और रेखा जालक को
दिखाता है।
2. प्राकृतिक ग्लोब― यह धरातलीय उच्चवाचन को प्रदर्शित करता है।
3. राजनैतिक ग्लोब― यह विभिन्न राजनीतिक विभाजनों को प्रदर्शित करता है।
झ. मानचित्र― मानचित्रों के द्वारा छात्रों के सम्मुख अमूर्त वस्तुओं को मूर्त कर दिया
जाता है। मानचित्र पृथ्वी के धरातल का कागज पर लघु रूप निरूपण होते हैं। प्रत्येक
मानचित्र पृथ्वी के धरातल का प्रतीकात्मक संक्षेपण होता है। अतः संक्षिप्त रूप में सूचना
प्रदान करते हैं। इसमें प्रतीकों का प्रयोग जैसे- रेखाओं, बिन्दुओं (डॉट), रंगों, शब्दों तथा
चिन्हों का प्रयोग किया जाता है।
सामाजिक अध्ययन में भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा आर्थिक अवधारणाओं को सीखने
के लिए इनका उपयोग बहुत महत्वपूर्ण होता है । प्रारंभिक स्तर पर मानचित्र में विवरण को
सरल रखा जाता है ताकि विद्यार्थी स्थानों को या विभिन्न भौतिक लक्षणों को ढूंढ सके तथा
दिशाओं को पढ़ सकें । मानचित्र की निम्नलिखित श्रेणियां हैं-
1. प्राकृतिक मानचित्र― जो जलवायु एवं मृदा वन क्षेत्रों, संसाधनों, वर्षा आदि को
प्रकट करते हैं।
2. राजनीतिक मानचित्र― जो देश और स्थानों का राजनीतिक विभाजन दिखाते हैं।
3.आर्थिक मानचित्र―जो फसलों का फैलाव या वितरण, भूमि उपयोग तथा परिवहन
आदि को दिखाते हैं।
4. सामाजिक मानचित्र― जो जनसांख्किीय वितरण, साक्षरता दर, भाषा, जनजातियां
आदि के वितरण को दिखाते हैं।
5. ऐतिहासिक मानचित्र― जो साम्राज्यों की सीमाएं, पर्यटक मार्ग, युद्ध स्थल,
राजनीतिक संधियां आदि को दिखाते हैं।
मानचित्र छात्रों को क्षेत्रों का तुलनात्मक ज्ञान, स्थानों के भौगोलिक संबंध, राजनीतिक,
ऐतिहासिक तथा आर्थिक परिवर्तन, प्रदेशों की उपज, भाषाएं, स्थलों का निर्धारण आदि की
समझ विकसित करने में सहायता करते हैं।
अ. मूल पदार्थ― मूल पदार्थ से आशय उस वस्तु से है जो अपने मूल रूप में कक्षा
में लाई जा सकती है और विद्यार्थियों को प्रदर्शित की जा सकती है। सामाजिक विज्ञान शिक्षण
में ऋतु मापक उपकरण, सर्वे से सम्बन्धित उपकरण, कृषि उपज से सम्बन्धित वस्तु आदि
पदार्थों का आवश्यकतानुसार प्रदर्शन किया जा सकता है। इनका प्रयोग पाठ की प्रस्तावना
तथा पाठ के विकास दोनों के लिए किया जा सकता है। विद्यार्थी इन्हें रुचिपूर्वक देखते हैं
इससे उनका ज्ञान स्थायी हो जाता है।
ट. नमूना― कक्षा शिक्षण में सदैव मूल पदार्थ लाना सम्भव नहीं होता है। चट्टानं खनिज
पदार्थ, मिट्टी, औद्योगिक क्षेत्र का उत्पादन आदि अपने मूल स्वरूप में कक्षा में नहीं लाया
जा सकता है। अत: ऐसी वस्तुओं के नमूने कक्षा में प्रदर्शित किये जा सकते हैं । मूल वस्तु
के अभाव में इनका उपयोग कक्षा में अच्छा रहता है। नमूनों का प्रयोग कक्षा शिक्षण की
प्रत्येक अवस्था में किया जा सकता है। विद्यार्थी इन्हें कक्षा में तो देख ही सकते हैं साथ
ही शिक्षक के निर्देश से अपने रिक्त समय में विद्यालय के विषय के संग्रहालय में भी देख
सकते हैं और ज्ञानार्जन कर सकते हैं । सामान्यतया नमूने कई प्रकार से एकत्र किये जा सकते
हैं- शिक्षक और विद्यार्थी भ्रमण के समय नमूने एकत्र कर सकते हैं, कुछ नमूने बाजार से
क्रय किये जा सकते हैं । यदि अन्य संस्थाओं में नमूने अधिक संख्या में हैं तो आवश्यकतानुसार
आपस में उन्हें बदला भी जा सकता है।
ठ. फोटोग्राफ― फोटोग्राफ सामाजिक विज्ञान शिक्षण में अत्यधिक उपयोगी है। किसी
सर्वेक्षण में स्थान विशेष के रेखा मानचित्र आदि तैयार करने के साथ वहाँ के तमाम फोटोग्राफ
खींचे जा सकते हैं। फोटोग्राफ में दृश्य का प्रदर्शन बिल्कुल शुद्ध होता है। क्योंकि फोटो
में दूरियों के बीच का अनुपात समान रहता है। कम परिश्रम और कम व्यय में ही फोटोग्राफ
तैयार किये जा सकते हैं। विमान द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ सामाजिक विज्ञान के
अध्ययन-अध्यापन में बहुतायत से प्रयोग किए जाते हैं। इनके द्वारा भूतल का स्थलाकृतिक
सर्वेक्षण शीघ्रतापूर्वक व शुद्धता से हो जाता है। सामाजिक विज्ञान में शिक्षकों को यथा
अवसर उपलब्य फोटोग्राफ का अवश्य प्रयोग करना चाहिए । स्थानीय अथवा शैक्षिक भ्रमण
के समय फोटोग्राफ्स लिये जा सकते हैं और कक्षा में प्रयोग हेतु सुरक्षित रूप से रखे जा
सकते हैं।
ड. एटलस (atlas)― एटलस विभिन्न प्रकार के मानचित्रों का समूह है। अतः
सामाजिक विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन में सर्वाधिक उपयोगी है। एटलस में संसार, विभिन्न
महाद्वीपों, देशों आदि के मानचित्र उनके स्थिति भू-रचना, जलवायु, वनस्पति, राजनैतिक
विभाजन, ऐतिहासिक स्थल, उद्योग धंधे, जनसंख्या आदि तथ्यों को प्रदर्शित करते हुए रखे
जाते हैं। किसी महाद्वीप अथवा देश के लिए अलग से इनका संकलन किया जा सकता है ।
सामाजिक विज्ञान अध्ययन कक्ष में एटलस का होना अनिवार्य है । साथ ही प्रत्येक विद्यार्थी
भी अपना एटलस रखे तो अच्छा होता है । एटलस ऐसा हो जिसमें तथ्यों को शुद्ध और स्पष्ट
रूप से प्रदर्शित किया गया हो । एटलस द्वारा विद्यार्थी अनेक पर्यावरणीय तथ्यों को स्वतः जान
जाता है।
ढ़ डायग्राम (diagram)―किसी कथन, परिभाषा, या निष्कर्ष को चित्रात्मक ढंग
से स्पष्ट करने हेतु बनाये गये चार्ट, ग्राफ या रेखाचित्र को डायग्राम या आरेख कहते हैं।
सामाजिक विज्ञान में तथ्यों, अमूर्त भावों, अथवा प्रत्ययों को स्पष्ट करने के लिए ये विशेष
रूप से उपयोगी होते हैं। इसे रेखाओं, ज्यामितीय आकृतियों तथा संकेतों की सहायता से
पाया जाता है। इससे विषय-वस्तु को रोचक और बोधगम्य बनाया जा सकता है।
प्रश्न 15 सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन शिक्षण की विभिन्न
शिक्षण विधियों एवं तकनीकों का उल्लेख करें।
उत्तर―सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन की
विभिन्न शिक्षण पद्धतियों में यहाँ संक्षेप में छात्र केन्द्रित विधियों को समझने का प्रयास करते
हान विधियों के अन्तर्गत हम यहाँ कुछ ही विधियों का वर्णन करेंगे। मात्र केन्द्रित विधियों
में शिक्षक मात्र सहयोगी के रूप में कार्य करते हैं । यह विधि बच्चों में सामाजिकता तथा
सहयोगी दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक है।
क विचार विमर्श एवं विवेचन (Lecture Cum Discussion Method)― इस
विधि में शिक्षक पाल्य विषय पर व्याख्यान देता है साथ वह पाठ्य वस्तु को समस्यात्मक
तरीके से प्रस्तुत करता है। इससे छात्र मानसिक रूप से सचेत हो जाता है और पाठ्यवस्तु
पर ध्यान केन्दित कर पाता है। इस विधि में शिक्षक पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करने के पश्चात्
छात्रों से प्रश्नों के माध्यम से उसको व्याख्या करता है। इस विधि में शिक्षक के मार्गदर्शन
में छात्रों द्वारा पाठ्यवस्तु पर विचार विमर्श किया जाता है, साथ ही छात्र विचार विमर्श करके
निष्कर्ष निकालने में समर्थ होते हैं। यह विधि व्याख्यान की सीमाओं या दोषों को दूर करने
में सहायक होती है। इस विधि में शिक्षक तथा छात्र परस्पर सहयोगी के रूप में कार्य करते
है। यह विधि सामाजिकता तथा सहयोगी दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक है। यह छात्रों
की चिन्तन तथा तर्क-शक्तियों को विकसित करने में सहायक है।
ख. अन्वेषण व्यूह रचना (Heuristic Strategy)— इस विधि में किसी विषय के
नवीन सिद्धान्तों एवं तथ्यों की खोज स्वयं छात्रों द्वारा की जाती है। इसी आधार पर सामाजिक
अध्ययन या सामाजिक विज्ञान के शिक्षक को अपने शिक्षण की व्यूह रचना इस प्रकार तैयार
करनी होती है कि छात्र स्वयं खोज या अन्वेषण के द्वारा सीखें और शिक्षक की भूमिका जिसमें
केवल पथ-प्रदर्शन के रूप में होती है। अन्वेषण व्यूह रचना में छात्रों के सम्मुख समस्या
को रखा जाता है और उन्हें व्यक्तिगत रूप से सोचने-समझने तथा कार्य करने की स्वतन्त्रता
दे दी जाती है। छात्र अपने-अपने विचार के अनुसार सोचते-समझते हैं और आपस में
वाद-विवाद करते हैं एवं हल निकालते हैं।
ग. योजना व्यूह रचना (Project Strategy)― योजना विधि में शिक्षक बालकों के
ऊपर कोई कार्य थोपता नहीं है, वरन् वह बालकों से विचार विमर्श करके ऐसी परिस्थिति
उत्पन्न करता है कि उनकी किसी विशेष कार्य में रुचि उत्पन्न हो जाती है। समस्या के
समाधान के लिए छात्र विभिन्न प्रकार की योजनाएँ प्रस्तुत करते हैं। शिक्षक उन योजनाओं
गुण दोषों के आधार पर छात्र को प्रायोजना चुनने में मदद करता है। योजना के लक्ष्यों
का निर्धारण शिक्षक के निर्देशों तथा सुझावों पर निर्भर होता है, परन्तु शिक्षक को इसके
निर्धारण में छात्रों की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं को ध्यान में रखना चाहिए।
छात्र कार्यक्रम में निर्धारित विभिन्न क्रियाओं को वैयक्तिक या सामूहिक दोनों रूप से करते
हैं। शिक्षक उनकी क्रियाओं का निरीक्षण एवं पथ प्रदर्शन करता है।
घ. मस्तिष्क विप्लव व्यूह रचना (Brain Storming Strategy)― मस्तिष्क विप्लव
का तात्पर्य, मस्तिष्क की उथल-पुथल से है अर्थात् मस्तिष्क में विचारों के तूफान आना
जिससे किसी भी विषय में ढेरों विचार एक साथ अचानक बिना किसी तथ्य की परवाह किये
उभर आते हैं। मस्तिष्क विप्लव की संज्ञा दी जाती है, इस शिक्षण व्यूह (मस्तिष्क विप्लव)
रचना में छात्रों के एक समूह को एक समस्या दे दी जाती है और उनसे कहा जाता है कि
वे सभी उस विषय पर वाद-विवाद करें और अपने-अपने विचार प्रस्तुत करें। साथ ही यह
आवश्यक नहीं है कि जो विषय वहाँ प्रस्तुत किए जाएँ वे सभी सार्थक सिद्ध हों । वहाँ समूह
को प्रोत्साहित किया जाता है जिससे वह समस्या का विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन कर
सकें। मस्तिष्क विप्लव व्यूह रचना द्वारा छात्रों को चिन्तन करने तथा निष्कर्ष पर पहुँचने
की क्षमता को विकसित करने के अधिक अवसर मिलते हैं।
ङ. नाटकीकरण विधि/पात्र अभिनय (Dramatization Method)― नाटकीकरण
का अर्थ होता है किसी अन्य के कार्य और व्यवहार को करना या उसका अनुकरण करना ।
इस अनुकरण में वह संगीत, नृत्य, हाव-भाव प्रदर्शन, वेशभूषा आदि सभी को उसी पात्र के
अनुरूप प्रस्तुत करता है । नाटकीकरण के माध्यम छात्रों को स्वयं सीखने के अवसर प्राप्त
होते हैं। इस विधि के द्वारा किसी भी बिन्दु या प्रकरण अथवा पाठ का सूक्ष्मता से अध्ययन
किया जा सकता है। नाटकीकरण विधि के प्रयोग से छात्रों में आत्मविश्वास, विवेचनात्मक
शक्ति का विकास हो सकता है। सामाजिक अध्ययन सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत नागरिक
शास्त्र, इतिहास एवं भूगोल शिक्षण के लिए यह विधि अत्यन्त उपयोगी है। इसमें सामाजिक
घटनाओं, ऐतिहासिक घटनाओं एवं भौगोलिक घटनाओं को यथार्थ रूप में प्रभावशीलता एवं
प्रभावपूर्ण और रुचिकर ढंग में प्रस्तुत किया जा सकता है । इसके साथ-साथ नागरिक शास्त्र
के अन्तर्गत विभिन्न संसदीय कार्य प्रणाली, महापुरुषों के कार्यों आदि में नाटकीकरण विधि
का प्रयोग किया जा सकता है।
च. स्वतंत्र अध्ययन― स्वतंत्र अध्ययन एक प्रकार की शैक्षिक प्रक्रिया है, जिसमें
शिक्षार्थी अपने अनुसार बहुत कम या नहीं के बराबर शिक्षकीय पर्यवेक्षण के चुने हुए विषय
पर अध्ययन करता है। विषय का चयन किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा हो सकता है पर यह
जरूरी नहीं है कि वह पाठ्यक्रम में शामिल हो। किसी भी विषय के बारे में गहरी समझ
बनाने के लिए उस विषय का गहराई से अध्ययन करना बहुत जरूरी है। जब कोई भी विषय
शिक्षार्थी की रुचि के अनुरूप हो और उसमें किसी प्रकार का कोई बंधन न हो तो वह विषय
सरलता से सीखी व समझी जा सकती है। स्वतंत्र अध्ययन से शिक्षार्थी को अपने स्वयं के
सीखने की गति का पता चलता है। किसी कार्य या परियोजना पर गहराई से अध्ययन करने
एवं विश्लेषण करने की क्षमता का विकास होता है जो किसी भी अकादमिक विकास के
लिए अति-आवश्यक गुण है।
प्रश्न 16. इतिहास शिक्षण की विभिन्न शिक्षण विधियों एवं तकनीकों का उल्लेख करें।
उत्तर–आधुनिक युग में शिक्षण विधियों के साथ जो पद (Term) प्रयुक्त किए जाते
हैं, वे छात्रों की सीखने की क्रियाओं Learning Activities का वर्णन करते हैं । उदाहरणार्थ–
वाद-विवाद विधि, प्रयोगशाला विधि, आगमन विधि, निगमन विधि, योजना विधि आदि ।
इतिहास शिक्षण की कोई विशेष विधि नहीं हैं । इसका शिक्षण विभिन्न ढंगों एवं साधनों के
प्रयोग से किया जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि इतिहास एक ऐसा व्यापक विषय
है जिसमें विभिन्न विवादग्रस्त प्रकरणों की व्याख्या की जाती है। इस कारण इनको समझने
के लिए प्रविधियों तथा ढंगों का प्रयोग करना पड़ता है इस दृष्टि से इसमें निम्नलिखित विधियों
को प्रयुक्त किया जा सकता है–
क. कथात्मक विधि―कथात्मक विधि में कहानी कहना, बातचीत करना, भाषण देना
आदि का समावेश होता है, क्योंकि इस सब में वाणी का उपयोग करना पड़ता है। छोटी
कक्षाओं में कहानी कहना ही इतिहास सिखाने की सर्वोत्तम विधि है। मानव बाल्यावस्था तथा
वृद्धावस्था-दोनों ही में कहानी सुनने तथा कहने में रुचि प्रदर्शित करता है। कुछ मनुष्यों में
कहानी कहने की कला जन्मजात होती है और कुछ व्यक्ति प्रयत्न करके सीख लेते हैं।
इतिहास के शिक्षक को इस कला को जानना आवश्यक है। यदि उनमें यह कला स्वाभाविक
रूप से नहीं है तो उसे प्रयत्न करके अर्जित करना चाहिए।
ख. खंड विधि― इस विधि में शिक्षक इतिहास से एक ऐसी सामान्य विषय-वस्तु का
चयन करता है, जिसको सुविधा एवं सरलता से विभिन्न प्रकरणों में विभाजित किया जा सकता
है। ये विभाजित प्रकरण ऐसे होते हैं जिनको वैयक्तिक रूप से छात्र पढ़ एवं लिख सकते
हैं। साथ ही उनके बारे में वे खोज कर सकते हैं। इन प्रकरणों को छोटे समूहों के द्वारा
भी पढ़ा एवं लिखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, अकबर नामक खण्ड को चुना जा सकता
है। इस खण्ड में सम्राट, दरबारी, लेखक, कलाकार, विद्वान, सेनापति, कूटनीति तथा व्यापारी
आदि प्रकरण निहित हैं। प्रत्येक प्रकरण से सम्बन्धित संदर्भ पुस्तकें तथा अन्य पुस्तकें
अध्ययन के लिए होंगी।
ग. स्रोत या आधार विधि― कोई भी लेखक किसी भी प्रकार से स्वयं भूतकाल में
नहीं जा सकता। अत: उस समय जो व्यक्ति उपस्थित थे, उन्होंने जो घटनाएँ देखी और उन्हें
लिखकर रखा, अथवा उनके पत्र-व्यवहार पर इतिहासकार को निर्भर रहना पड़ता है। इन
प्रमाणों और आधारों को चाहे वे लिखित अथवा अलिखित, तथ्य कहते हैं । ये तथ्य ही हमारे
इतिहास के स्रोत हैं। स्रोतों के द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाए जिससे बालक शिक्षा
प्राप्त कर सके। इस स्तर पर स्रोतों का विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए। शिक्षक छात्रों
को मौलिक या सहायक स्रोतों से उपयुक्त उद्धरण प्रदान करके उनके आधार पर किसी प्रश्न
का उत्तर लिखने के लिए कह सकता है। इस प्रकार से शिक्षक छात्रों की रुचि को कायम
रखने में सफल हो सकता है।
घ. पाठ्यपुस्तक विधि― पाठ्यपुस्तक वह साधन है, जिनके द्वारा किसी निर्दिष्ट लक्ष्य
या तथ्य को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पाठ्य-पुस्तक विधि
एक स्वतन्त्र शिक्षण विधि नहीं है, बल्कि यह वह प्रक्रिया या माध्यम है, जिनके द्वारा ज्ञान
प्राप्त किया जा सकता है। बालक पुस्तकों में व्यक्तियों के संकलित विचारों को अध्ययन
करता है, अर्थात् पुस्तक के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति करता है। अनुसार बालक मौखिक
रूप से किये हुए प्रस्तुतीकरण के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। इस प्रकार
पाठ्य-पुस्तक वह साधन है जिसके द्वारा बालक ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है।
ङ. समस्या समाधन विधि― समस्या विधि में केवल मानसिक निष्कर्षों पर ही अधिक
बल दिया जाता है, अर्थात् इसमें मानसिक हल ही प्रदान किया जाता है। अतः इस विधि
का सबसे प्रमुख गुण-मानसिक क्रिया एवं विमर्शी चिन्तन है। इतिहास-शिक्षण में इस विधि
का महत्वपूर्ण स्थान है। इस विधि में शिक्षक या तो स्वयं बालकों को समस्या दे देता है या
छात्र स्वयं प्रस्तुत करते हैं । समस्या एक छात्र के द्वारा भी प्रस्तुत की जा सकती है तथा कई
छात्र उसको सामूहिक रूप से प्रस्तुत कर सकते हैं। परन्तु इसके प्रयोग से इस बात पर बल
दिया जाता है कि छात्र समस्या को अपनी समस्या समझकर हल करने हेतु तत्पर रहें।
च. योजना विधि― योजना वह क्रिया है जो वास्तविक जीवन में रहकर पूर्ण की जाती
है, अर्थात् वह अपने स्वाभाविक वातावरण में ही पूर्ण होती है । इतिहास-शिक्षण में योजना
विधि का प्रयोग किया जा सकता है (ऐतिहासिक मानचित्र, मॉडल, समय-रेखाओं,
समय-ग्राफों आदि का निर्माण करना, विभिन्न नगरों के इतिहास का अध्ययन सामयिक
घटनाओं का शिक्षण आदि । परन्तु फिर भी इतिहास में इस पद्धति का प्रयोग अन्य सामाजिक
विज्ञानों की भाँति बहुतायात से नहीं हो सकता।
छ. व्याख्यान विधि― एक विधि के रूप में यह विधि यह मानकर चलती है कि सीखने
वाला भाषण तथा इंगित किए सम्बन्धों को समझने की योग्यता रखता है। निर्देश द्वारा शिक्षक
किसी मुख्य सूचना को प्रदान करता है जो छात्रों को अपने शैक्षिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए
आवश्यक होती है। कथन अपने रूप में संक्षिप्त होता है जबकि व्याख्यान काफी बड़ा ।
व्याख्यान को मुख्य उद्देश्य तथ्यों तथा धारणाओं को क्रमबद्ध रूप में प्रतिपादित करना है।
ज. वाद-विवाद विधि― वाद-विवाद औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही रूप में
हो सकता है। औपचारिक वाद-विवाद में प्रत्येक कार्य विधिवत् ढंग से किया जाता है। इसमें
निश्चित नियमों के अनुसार कार्य होता है। अनौपचारिक वाद-विवाद के संचालन के लिए
किन्हीं निर्धारित नियमों का अनुसरण नहीं किया जाता है । इस प्रकार के वाद-विवाद में छात्र
किसी विषय या प्रश्न या समस्या पर शिक्षक के निर्देशन में स्वतन्त्रतापूर्वक विचारों का
आदान-प्रदान करते हैं।
प्रश्न 17. भूगोल शिक्षण की विभिन्न शिक्षण विधियों एवं तकनीकों का उल्लेख
करें।
उत्तर―भूगोल शिक्षण में विधियों के साथ-साथ प्रविधियों की भी विशिष्ट भूमिका है।
भूगोल अध्यापन के कुछ शिक्षण विधियों व तकनीकों का वर्णन निम्नलिखित है―
क. क्लोज टेस्ट (colze test)― बच्चों में तर्कशक्ति एवं शब्दज्ञान को विकसित करने
हेतु यह अत्यन्त प्रभावी विधि है । इसमें किसी एक पैराग्राफ का चयन कर उसे श्यामपट्ट
पर लिखा या अभ्यास के लिए दिया जा सकता है। लिखते समय कुछ महत्वपूर्ण जानकारियों
को गायब कर उसकी जगह खाली स्थान रखा जाता है। पूरे वाक्य को पढ़कर विद्यार्थियों
को सोच समझकर, तर्क के आधार पर अपने शब्द ज्ञान एवं भावार्थ के आधार पर खाली
स्थानों में उचित शब्द लिखने के लिए चयन करना पड़ता है। समय-समय पर ऐसे क्लोज
टेस्ट देने से विद्यार्थियों में सोचने एवं तार्किक क्षमता का विकास होता है और वे सक्रिय रहते हैं।
ख. पाठ के आधार पर प्रश्न― पाठ के आधार पर प्रश्न प्रविधि अत्यंत उपयोगी साबित
होती है। बच्चों में आवश्यक चिंतन कौशल का विकास हो एवं वे विषय वस्तु पर आवश्यक
समझ के आधार पर शिक्षक द्वारा पूछे गए प्रश्नों का सही-सही उत्तर दे सकें। इस प्रविधि
में किसी एक पाठ या एक पैराग्राफ को विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए देकर फिर उनसे कुछ
प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा जाता है। विद्यार्थी पाठ को पढ़ते समय उसके महत्वपूर्ण
बिन्दुओं का नोट तैयार कर सकते हैं । विद्यार्थियों को निर्धारित समय में पठन एवं लेखन के
उपरांत शिक्षक द्वारा तैयार किए गए प्रश्नों का उत्तर देना होता है। शिक्षक इन प्रश्नों को
पहले से तैयार करके रखते हैं जो पाठ्यपुस्तक में दिए गए प्रश्नों से अलग हो सकते हैं।
विद्यार्थी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अपने नोट एवं स्मरण शक्ति की मदद ले सकते हैं।
ग. नोट्स लिखना― इस प्रविधि में अध्ययन के दौरान महत्वपूर्ण बिन्दुओं का नोट बनाने
का अभ्यास करवाया जाता है। इन नोट्स के आधार पर तत्कालिक तौर पर प्रश्न पूछ कर
विद्यार्थी के ज्ञान की परख कर सकते हैं या कुछ दिनों के पश्चात् विद्यार्थियों को नोट देखकर
प्रकरण को पुनः याद करके लिखने को भी कहा जा सकता है। ऐसा अभ्यास करवाने से
विद्यार्थी अपने ज्ञान अर्जन के प्रति हमेशा सजग रहते हैं और किसी भी समय प्रश्नों के उत्तर
देने में वे सक्षम होंगे। यह लगातार अभ्यास आधारित प्रविधि है, इसमें शिक्षक की भूमिका
महत्वपूर्ण है । शिक्षक को पढ़ाते समय ध्यान देना होगा कि विद्यार्थी अध्ययन करते समय
विषय के प्रमुख बिन्दुओं का सही ढंग से नोट्स बना हे हों ताकि उसका सहारा लक
आवश्यकतानुसार उसे विस्तारित कर सकें।
घ. माइंड मैप (Mind map)― माइंड मैप किसी प्रकरण को लम्बे समय तक याद
रखने में सहायक होता है । “किसी भी विषय के विभिन्न विषय-वस्तु पर उनकी प्रकृति एवं
व्याख्या के आधार पर प्रमुख विचारों, तथ्यों, बिन्दुओं को चिहाकित किया जाए एवं उससे
जुड़े हुए समस्त सहायक विचारों, तथ्यों, बिन्दुओं को रेखाचित्र के माध्यम से कम से कम
शब्दों या चित्रों या प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए तो उसे माइंड मैप कहा जाता है।”
माइंड मैप बनाने के पूर्व उसकी संरचना को समझना आवश्यक होता है। उदाहरण के
लिए मानचित्र को पढ़ने के लिए दिशा, संकेत और पैमाना की समझ रखना जरूरी है।
ङ. अभिनय― सक्रिय शिक्षण का एक नया आयाम अभिनय (Role Play) है।
अध्ययन किए जाने वाले विषय को चलते फिरते पात्रों के माध्यम से संप्रेषित किया जाए तो
उसका प्रभाव चिरस्थाई हो सकता है। कोई भी शिक्षण जितना सारगर्भित और मनोरंजक होगा
तो उसका प्रभाव हमारे मन मस्तिष्क में हमेशा के लिए अंकित हो जाता है। किसी भी विषय
की अवधारणा एवं उससे सम्बन्धित प्रमुख तथ्यों को समझाने के लिए ऐसे समय प्रकरणों
को चिह्नांकित करना होगा जिन पर अभिनय के माध्यम से अध्यापन करवाया जा सकता है।
प्रकरणों को चिह्नांकित करने के उपरांत पूरी कक्षा को छोटे-छोटे समूह में बांट दे और उन्हें
अभिनय तैयार करने को कहें। शिक्षक उन्हें उचित सहायता एवं मार्गदर्शन प्रदान करें और
समूहवार प्रस्तुतीकरण करवाएँ । अंत में अगर कोई कमी रह गई हो तो शिक्षक से पूरी कक्षा
को पुनः समझाए।
च. वाद-विवाद― समय-समय पर कुछ उपयोगी मुद्दों पर विद्यार्थियों को वाद-विवाद
प्रतियोगिताओं में सहभागिता करवाई जा सकती है। इस प्रकार के कार्यक्रमों में तैयारी
करते-करते बच्चे संबंधित बिन्दुओं पर काफी तैयारी कर लेते हैं। विद्यार्थियों को समय-समय
पर नियमित कक्षा के अलावा सह-शैक्षिक गतिविधियों का आयोजन करना होता है । इसके
तहत विभिन्न मुद्दों पर वाद-विवाद करवाते हुए विभिन्न विषयों में उनके विचारों में सष्टता
लाई जा सकती है और अपनी बात को तर्क के साथ बोलने का अभ्यास भी हो जाता है,
जैसे- “राष्ट्र के विकास के लिए वृक्षों को काटना जरूरी है। इस प्रविधि द्वारा विद्यार्थियों
में विषय की शीघ्र समझ, चिंतन कौशल, तार्किक क्षमता, प्रस्तुतीकरण, भाषा में पकड़,
सक्रियता से अध्ययन, व्यक्तित्व विकास इत्यादि कौशल विकसित होंगे।
छ. क्षेत्र भ्रमण― विद्यार्थी अपने आसपास के किसी गाँव या अन्य किसी कोत्र के शैक्षिक
प्रमण कर उस क्षेत्र के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । इस हेतु विषयवस्तुवार
भी क्षेत्र एवं समूह निर्धारित किए जा सकते हैं। जैसे भूगोल के विद्यार्थी किसी भौगोलिक
स्थल का भ्रमण कर डाटा एकत्रित कर सकते हैं। क्षेत्र भ्रमण के दौरान उन्हें विभिन्न प्रकार
की जिम्मेदारियाँ भी दी जा सकती है, ताकि उनमें सामाजिकि गुणों के विकास के साथ-साथ
जिम्मेदारियाँ निभाने की क्षमता भी विकसित हो सके। इस प्रविधि द्वारा बच्चों में सामाजिक
गणों का विकास, विश्लेषण, संश्लेषण, सक्रियता से अध्ययन, समूह भावना, योजना निर्माण
इत्यादि कौशल विकसित होंगे।
प्रश्न 18. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के संदर्भ में सामाजिक विज्ञान
की समझ विकसित करें।
उत्तर―राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में सामाजिक विज्ञान के शिक्षण पर चर्चा
हेतु गठित राष्ट्रीय फोकस समूह के सदस्यों ने एक आदर्श सामाजिक अध्ययन पाठ्यचर्या के
निर्माण हेतु किए गए पूर्व प्रयासों को अंगीकृत किया है। यह इस बात पर जोर देती है कि
पाठ्यचर्या संबंधी संस्तुतियों को पर्याप्त रूप से पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जाए, समिति
ने इस समीक्षा में मुख्य विचारणीय तथ्यों को प्रमुखता दी है ताकि सामाजिक विज्ञान को
बौद्धिक व रोजगारोन्मुखी बनाया जा सके । उदाहरण के लिए―
क. सामाजिक विज्ञान का एक प्रचलित दृष्टिकोण यह है कि यह एक अनुपयोगी विषय
है। इसके कारण विद्यार्थियों के स्वाभिमान में कमी आती है जिससे पूरी कक्षा प्रभावित होती
है। इसलिए इस तथ्य को उजागर करने की आवश्यकता है कि सामाजिक विज्ञान सामाजिक,
सांस्कृतिक और विश्लेषणात्मक कौशल प्रदान करता है जो कि बढ़ते एक-दूसरे पर आश्रित
विश्व से सामंजस्य स्थापित करने और इसके संचालन को निर्धारित करने वाली राजनैतिक
तथा आर्थिक वास्तविकताओं से निपटने के लिए आवश्यक है।
ख. ऐसा माना जाता है कि सामाजिक विज्ञान मात्र सूचनाओं का आदान-प्रदान करता
है और पूरी तरह मूल पाठों पर केंद्रित है, जिन्हें मात्र परीक्षाओं के लिए कंठस्थ करने की
आवश्यकता है। इसलिए सामाजिक विज्ञान में सूचनाओं के अत्यधिक भार को कम करने
की दिशा में किसी भी प्रयास के साथ-साथ प्रचलित परीक्षा प्रणाली की समीक्षा भी की जाए।
ग. यह एक धारणा है कि सामाजिक विज्ञान विषय में विशिष्टता प्राप्त करने वाले
विद्यार्थियों के लिए वांछित रोजगार विकल्प उपलब्ध नहीं हैं । अत: यह महत्वपूर्ण है कि
सामाजिक विज्ञान के महत्व को मात्र तेजी से फैलते सेवा क्षेत्र के रोजगारों में इसकी बढ़ती
प्रासंगिकता द्वारा ही नहीं बल्कि एक विश्लेषणात्मक और रचनात्मक मस्तिष्क की नींव तैयार
करने में इसकी अनिवार्यता को दर्शाते हुए बताया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार प्रासंगिक स्थानीय विषय-वस्तु
पठन-पाठन की प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए, जिनका शिक्षण स्थानीय पठन-पाठन स्रोतों
की मदद से गतिविधियों के साथ किया जाना चाहिए। पर्यावरण, जाति/वर्ग असमानता और
राज्य दमन जैसी समस्याओं पर अंतर्विषयक विधि से चर्चा करके पाठ्यपुस्तकों को बच्चे की
विचार प्रक्रिया और रचनात्मकता को प्रोत्साहित करने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही
अंतर्सम्बन्ध-सामाजिक विज्ञान के विषय जैसे- इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र और
अर्थशास्त्र में ऐसी विषय-वस्तुओं के चयन की आवश्यकता है जिनके जारिये विभिन्न विषयक
अधिगम एक गहरी और बहुमुखी समझ बनाने में मदद कर सके। साथ ही भिन्न-भिन्न
विषयों के पृथक अध्याय होने चाहिए।
(नोट- राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के प्रावधानों को बिहार के भौगोलिक
परिवेश के अनुसार थोड़े बहुत बदलावों के साथ बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2008 में
शामिल किया गया है।
प्रश्न 19. उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम, उससे संबट विषय एवं
उनके उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर—पाठ्यक्रम किसी भी विषय का एक महत्वपूर्ण अंग होता है। उस विषय में क्या
शामिल किया जाना है ? किसे पढ़ाना है ? कौन पढ़ाएगा? आदि प्रश्नों के उत्तर पाठ्यक्रम
के माध्यम से ही प्राप्त होते हैं। अतः विद्यार्थी एवं शिक्षक दोनों का पाठ्यक्रम के विभिन्न
आयामों के संबंध में ज्ञान होना आवश्यक है। उच्च प्राथमिक कक्षाओं में सामाजिक विज्ञान
के अंतर्गत तीन विषयों का शिक्षण किया जाता है- इतिहास, भूगोल एवं नागरिक शास्त्र ।
इन विषयों की पाठ्यचर्या को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम विकसित किए जाते हैं। प्रत्येक
पाठ्यक्रम में यह विषय अनेक प्रसंगों एवं अध्यायों में बंटे होते हैं। प्रत्येक प्रसंग या विषय
से कई उप प्रसंग या उप विषय एवं प्रत्येक प्रसंग या उप विषय से कई शीर्षक विकसित किए
जाते हैं। अंतिम रूप से प्रत्येक शीर्षक को कई अध्यायों में बांटा जाता है। अध्यायों की
संख्या विद्यालय समय सारणी में उस विषय को आवंटित समय के आधार पर निश्चित की
जाती है। सामाजिक विज्ञान का पाठ्यक्रम पूर्ण अनुभवों/तथ्यों जिनसे बालक भली-भाँति
परिचित होता है, से शुरू होकर उन अनुभवों, जो कि बालक से वास्तविक जीवन से बहुत
दूर होते हैं, की ओर विस्तृत होता है । यह घर के वातावरण से शुरू होता है । फिर विद्यालय,
पास-पड़ोस, स्थानीय सरकार, राज्य, देश एवं उसके बाद विश्व, इस प्रकार विस्तृत होता है।
इसके द्वारा विद्यार्थी प्रथम दृष्टया समग्र रूप से इन विषयों को देखता है तथा उसके बाद उसका
विश्लेषण करना सीखता है। उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के प्रमुख विषयों
इतिहास, भूगोल एवं नागरिक शास्त्र का अध्ययन वास्तव में मनुष्य का अध्ययन है । यह
विद्यार्थियों को विश्व एवं पर्यावरण के विषय में जागरूक करता है। इतिहास के अध्ययन
के अंतर्गत कैसे विश्व अलग-अलग समाज में विकसित हुआ, अतीत में हुई महत्वपूर्ण
घटनाएं, कैसे विचार एवं व्यक्ति जिन्होंने मनुष्य के जीवन को प्रभावित किया, को समझने
योग्य बनाता है। नागरिक शास्त्र का अध्ययन विभिन्न समाजों की संरचना, प्रबंध एवं शासन
प्रशासन को समझने के योग्य बनाता है तथा भूगोल का अध्ययन विद्यार्थियों को विश्व में
विभिन्न भौगोलिक संरचनाएं, अपने एवं विश्व के अनेक स्थानों के परिवेश, संस्कृति,
जलवायु, रहन-सहन, विश्व में अपना स्थान समझने के योग्य बनाता है। यह विद्यार्थियों की
सामाजिक समझ में वृद्धि करता है।
उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम से संबद्ध विषयों के उद्देश्य―
क. इतिहास―
● विद्यार्थियों को कालांतर में विचारों, घटनाओं और व्यक्तियों द्वारा परिवर्तन लाने हेतु
किए गए अंतर्भेदों की सराहना करने योग्य बनाना, साथ ही मानव समाज में समता
बनाए रखने वाली परिस्थितियों और शक्तियों को पहचानने की योग्यता प्रदान
करना।
● इतिहास को एक लौकिक चित्रपटल की तरह अन्य विषयों में सीखे गए तथ्यों की
व्यवस्था करने के लिए प्रयोग करना । जैसे- यातायात की कहानियां, और संचार
के साधन तथा औषधि और खाद्य निर्माण के यंत्र बालकों को गणित और विज्ञान
को बेहतर रूप से समझने को संभव बनाते हैं।
● इतिहास के शिक्षण द्वारा छात्रों में नैतिक मूल्यों का विकास करना । यह बालक
के मस्तिष्क में सही और गलत के नैतिक मूल्यों का बीजारोपण करता है तथा
देशभक्ति की भावना को बढ़ावा देता है।
● महान पुरुषों के कार्यों के अध्ययन द्वारा बालकों में उच्च जीवन आदर्शों और मूल्यों
को निर्देशित करना।
● अन्य तथा अपने देश के लोगों ने सत्य, न्याय और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का
निर्वाह करने संबंधी मूलभूत प्रश्नों का सामना कैसे किया, इसको समझने में मदद
करना जिससे वर्तमान में उपस्थित इन्हीं मुद्दों पर चिंतन करने में मदद मिल सके।
● बालकों की स्मृति, कल्पनाशीलता और तर्कशक्ति प्राप्त करने में सहायता करना,
इत्यादि।
ख. भूगोल―
● मानव जाति के अधिवास के रूप में पृथ्वी और जीवन के अन्य रूपों के बारे में
समझ विकसित करना।
● अधिगमकर्ता को वैश्विक संदर्भ में उनके अपने क्षेत्र, राज्य और देश के अध्ययन
में प्रवर्तित करना।
● आर्थिक संसाधनों के वैश्विक वितरण और वैश्वीकरण की जारी प्रक्रियाओं को
प्रवर्तित करना।
● विविध क्षेत्रों और देशों की अंतः निर्भरता की समझ प्रोन्नत करना।
● पृथ्वी जलवायु वनस्पति और वन्य जीव का मानव जीवन पर प्रभाव समझना।
● संसाधनों के संरक्षण के प्रति जागरूक करना और संरक्षण प्रक्रिया के प्रति पहल
करना, इत्यादि।
ग. नागरिक शास्त्र―
● बच्चों के बीच सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मूल्यों की बढ़ोतरी करना।
● बच्चों में राष्ट्रीय मूल्य, सहभागीता और धैर्य को विकसित करना।
● बच्चों को समाज का सक्रिय सहभागी बनाना।
● बच्चों के विभिन्न विवादास्पद सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक मुद्दों को हल
करने में सहायता करना ।
● बच्चों में प्रजातांत्रिक तथा संवैधानिक मूल्यों का अंतर्निवेशन करना।
● बच्चों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संस्थानों से परिचित कराना।
● बच्चों में शांति और समझ के मूल्यों में वृद्धि करना, इत्यादि ।
प्रश्न 20. उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के विभिन्न विषयों के
पाठ्यपुस्तकों की समझ विकसित करें।
उत्तर–पाठ्यक्रम में उल्लिखित निर्देशों के आधार पर पाठ्यपुस्तकों की विषय वस्तु
तैयार की जाती है। छात्रों का मानसिक स्तर इतना ऊंचा नहीं होता कि वे विद्यालय में पढ़ाई
गई विषयवस्तु को एक बार में ही आत्मसात कर सकें। इन्हें विषय वस्तु को पुनः पढ़ना पड़ता
है और फिर कभी विषय वस्तु को दोहराना पड़ता है। इन सब कार्यों के लिए पाठ्यपुस्तक
की आवश्यकता पड़ती है। पाठ्यपुस्तक छात्रों की विषयवस्तु को संकलित करने में सहायता
करती है। दूसरे शब्दों में पाठ्यपुस्तक एक ऐसी सहायक सामग्री है जो छात्रों के सम्मुख
अत्यन्त व्यवस्थित रूप में पाठ्यक्रम को प्रस्तुत करती है। सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत
इतिहास भूगोल एवं नागरिक शास्त्र की पाठ्यपुस्तकें विषयवस्तु को अत्यन्त तार्किक ढंग से
प्रस्तुत करती है जिससे विषयवस्तु सरल तथा सुगम हो जाती है । पाठ्यपुस्तकों की सहायता
से छात्र व्यक्तिगत रुचि के अनुसार अध्ययन कर सकते है।
सामाजिक विज्ञान में इतिहास एक ऐसा विषय है जिसका सम्बन्ध अतीत और वर्तमान
दोनों से जुड़ा है। इस विषय को पाठ्यपुस्तकें उस समय तक की सम्पूर्ण बातों का पर्याप्त
ज्ञान एवं संदर्भ छात्रों को उपलब्ध कराती हैं । भूगोल की पाठ्यपुस्तकों में विषयवस्तुओं को
सरल तथा सुबोध बनाने के लिए उदाहरणों, चित्रों, ग्राफों, मानचित्रों आदि का उपयुक्त रूप
से प्रयोग किया जाता है, जिससे छात्रों को इसे समझने में पर्याप्त मदद मिलती है । सामाजिक
आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन से संबंधित पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन से छात्रों को वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में शासन प्रशासन एवं कानून व विधिक व्यवस्थाओं की जानकारी प्राप्त होती है।
पाठ्यपुस्तकों में पाठ्यक्रम से संबंधित विषय वस्तुओं की केस स्टडी के द्वारा विषय का
ज्ञान परिस्थिति के अनुसार प्राप्त करने में सहायता मिलती है। पाठ्यपुस्तकों में विभिन्न विषयों
को उप विषयों एवं इकाइयों में बांट दिया जाता है जिससे कि स्थिति एवं समय के अनुसार
पाठ्यक्रम के उल्लिखित निर्देशों एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती
है एवं शिक्षकों के लिए भी शिक्षण योजना बनाने, पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम में वर्णित शैक्षिक
उद्देश्यों को प्राप्त कैसे तक करना है तथा विषय वस्तु का ज्ञान छात्रों को कहाँ तक देना है,
इसकी समझ बनाने में एवं अपनी योजना का निरंतर विश्लेषण करने के लिए संदर्भ प्रदान
करती है।
प्रश्न 21. उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत विभिन्न विषयों
के विषय वस्तुओं की समझ विकसित करें।
उत्तर―उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में तीन विषयों को
शामिल किया गया है- इतिहास, भूगोल तथा नागरिक शास्र । इन विषयों के विषय वस्तुओं
का वर्णन निम्नलिखित है―
क. इतिहास― उच्च प्राथमिक स्तर तक इतिहास की विषय वस्तु प्राचीन भारतीय सभ्यता
पर केंद्रित रहती है और विद्यार्थियों को उनके देश के विकास और विश्व पटल पर इनकी
भूमिका के संबंध में व्यापक समीक्षा प्रदान करती है। विद्यार्थी सीखते हैं कि किस प्रकार
भूतकाल के सबक का वर्तमान और भविष्य के लिए विद्वतापूर्ण निर्णय लेने के लिए उपयोग
किया जा सकता है। यह घटक इस प्रकार विद्यार्थियों में इतिहास के महत्व के संबंध में
ऐतिहासिक संवेदनशीलता और जागरूकता के विकास में सहायता करता है। प्रत्येक कक्षा
गणित 6 से 8 में प्रत्येक वर्ष तक एक कलानुक्रम समयावधि का अध्ययन किया जाता है,
जिसके अंतर्गत सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को समझने का
प्रयास किया जाता है। इस प्रकार इतिहास अध्ययन विद्यार्थियों को सांस्कृतिक विविधता,
तकनीकी और आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तीव्र परिवर्तन गुणों वाले जटिल समाज
में उत्तरदायी नागरिकों के निर्माण और समाज को योगदान दे सकने के लिए तैयार करता है।
इसकी विषय वस्तुओं में आरंभिक समाज, प्रथम कृषक और चरवाहे, विभिन्न सभ्यताएं,
जीवन जीने के प्रकार, नवीन विचार जैसे- उपनिषद, जैनवाद, बौद्धवाद, प्रथम, साम्राज्य,
उनके राजनीतिक विस्तार, संस्कृति और विज्ञान, नवीन राज्य और राजा, नवीन साम्राज्य का
सूजन, उस समय के प्राचीन व्यापार और शिल्पकार, क्षेत्रीय संस्कृति, अलौकिक आस्था,
स्त्रियां और उनकी स्थिति में सुधार, उस समय का ग्रामीण जीवन और समाज, उस समय
के उद्योग, उसके बाद ब्रिटिश शासन और प्रशासन, जाति व्यवस्था, उपनिवेशवाद, राष्ट्रीय
आंदोलन और फिर स्वतंत्रता के पश्चात् भारत के इतिहास का अध्ययन विभिन्न विषय वस्तुओं
के माध्यम से किया जाता है।
ख. भूगोल- भूगोल के विषयवस्तु का अध्ययन विशेष शाखाओं के माध्यम से किया
जाता है। ये शाखाएं हैं- भौतिक भूगोल, जिसके अंतर्गत जलवायु भू-आकृतियाँ, वनस्पतियों
का अध्ययन होता है, मानव भूगोल, जो मानव और भौगोलिक समाज के स्थानीय संगठन
से संबद्ध है, प्राणी भूगोल तथा क्षेत्र भूगोल । उच्च प्राथमिक स्तर पर भूगोल की विषयवस्तु
में शामिल है- ग्रह और सौर प्रणाली, ग्लोब का अध्ययन, मान चित्रों का अध्ययन, पृथ्वी
के चार क्षेत्रों-स्थलमंडल, जलमंडल, वायुमंडल और जल मंडल, महाद्वीप और समुद्र का
अध्ययन, पृथ्वी की भू आकृतियों की विशेषताओं को जानना, विश्व के भौगोलिक विभाजन
जैसे- पर्वत, पठार, मैदान, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, जीव-जंतु एवं उनके संरक्षण की
जरूरत को जानना, प्राकृतिक पर्यावरण, वायु संगठन, जल की आवश्यकता एवं महत्व, जल
का परिसंचरण, प्राकृतिक पर्यावरण के अंतर्गत व्यवस्था, परिवहन और संचार व्यवस्था, मानव
पर्यावरण और अंतःक्रिया, विभिन्न जलवायु क्षेत्रों की केस स्टडी, प्राकृतिक संसाधन उनकी
उपयोगिता एवं संरक्षण, उद्योग उनकी आधारभूत संरचना और विकास एवं खनिजों के
उपयोग, सूचना संचार तकनीक, मानवीय संसाधनों का संरक्षण-संगठन, जनसंख्या वितरण
और घनत्व इत्यादि की समझ शामिल है। इन सब विषय वस्तुओं की विद्यार्थियों में समझ
बनाना, उनके संरक्षण तथा उपयोगिता और महत्व को जानना, संसाधनों के संरक्षण के प्रति
विद्यार्थियों को जागरूक करना एवं विभिन्न प्रकार की भौगोलिक संरचना, उनकी स्थिति
जानना व अपनी भूमिका समझना इन सब विषयवस्तुओं का ध्येय है।
ग. नागरिक शास्त्र― उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन
राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र के एक एकीकृत विषय के रूप में कार्य करता है।
इस स्तर पर सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को पूर्व में
नागरिक शास्त्र के रूप में पढ़ाया जाता था। इसकी विषयवस्तु में समाज में सामुदायिक योजना
का विकास, स्थानीय सरकार जैसे कि ग्रामीण सरकार की आवश्यकता संरचना एवं उसके
कार्य, शहरी सरकारों नगर निगम इत्यादि की संरचना एवं उसके कार्य, जिला प्रशासन, उसकी
कानून-व्यवस्था एवं दी गई नागरिक सुविधाएं, सामुदायिक संपत्ति के संरक्षण संबंधी
सार्वजनिक संपत्ति कानून, इसके संरक्षण के उपाय, इसके बाद संविधान की प्रमुख विशेषताएँ,
विधि निर्माण की प्रक्रिया राज्य में संसद द्वारा कानून कैसे बनाए जाते हैं, इसका अध्ययन,
विधि कानूनों का क्रियान्वयन किस प्रकार होता है, मंत्रिमंडल, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति इत्यादि
का वर्णन, लोक सेवा आयोग का वर्णन, कानून की व्याख्या हेतु सर्वोच्च न्यायालय उच्चतम
न्यायालय के कार्यों, शक्तियों का अध्ययन, अंतर्राष्ट्रीय सशक्तिकरण, पंचवर्षीय योजनाएं,
जनसंख्या, देश की सुरक्षा से संबंधित सुरक्षा बलों एवं उनके कार्य, भारत एवं विश्व के लिए
संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। इन अवधारणाओं पर केंद्रित ज्ञान
भारतीय प्रजातंत्र की कार्य क्षमता को समझने के लिए आवश्यक है। इस स्तर पर भारत की
प्रजातांत्रिक संरचना के सभी पहलुओं का समावेश नहीं किया जाता है। सामाजिक विज्ञान
एवं राजनीतिक जीवन के विषय वस्तुओं के अध्ययन से बच्चे प्रतिदिन के जीवन में
राजनीतिक एवं सामाजिक पहलुओं के बीच गहरे अंतर्सम्बन्धों को ग्रहण करने के योग्य बनाते
हैं।
प्रश्न 22. उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान में सीखने के संकेतकों की
समझ विकसित करें।
उत्तर― सीखने के संकेतक मुख्य रूप से शिक्षक को प्रत्येक विद्यार्थी के बारे में यह
सोचने की अवसर देते हैं कि उसने सत्र के दौरान क्या सीखा और किस क्षेत्र में उसको और
सीखने की आवश्यकता है। अर्थात्, जरूरत है इस को चिद्वित करने के लिए शिक्षक को
प्रत्येक विद्यार्थी के बारे में जानना होता है तथा शिक्षक द्वारा की जाने वाली प्रत्येक गतिविधि
में यह देखा जाता है कि विद्यार्थी ने किसी अवधारणा से संबंधित किन-किन बिन्दुओं को
जान लिया है और किनकी जरूरत है। उच्च प्राथमिक स्तर पर विभिन्न विषयों (भूगोल,
इतिहास और राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन) में निम्नलिखित संकेतक या
सीखने के प्रतिफल निर्धारित हैं जो निर्धारित करते हैं कि इस स्तर तक बच्चे-
क, सौर मंडल एवं तारो, ग्रहों और उपग्रहों को समझते हैं।
ख. पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों को जीवमंडल के विशेष संदर्भ में पहचानते हैं।
ग. समतल सतह पर दिशाओं का पता लगाते हैं तथा विश्व के मानचित्र पर महाद्वीप
और सागरों को चिह्नित करते हैं।
घ. अक्षांश व देशांतर रेखाओं को पहचानते हैं। उदाहरण के लिए ग्लोब एवं विश्व
मानचित्र पर विभिन्न भूमध्य रेखा, कटिबंध इत्यादि को पहचानते हैं।
ङ. भारत के मानचित्र और भौतिक विशेषताओं को चिह्नित करते हैं । पैमानों दिशाओं
और मुख्य विशेषताओं को दर्शाते हुए रूढ़ चिह्न का प्रयोग कर मानचित्र बनाते हैं।
च. भारत की जलवायु के पहचानते हैं ।
छ. अर्थव्यवस्था को पहचानते हैं।
ज. ऋतुओं के अनुसार उगाई जाने वाली फसलों का वर्गीकरण करते हैं।
झ. जनसंख्या की विशेषताओं का वर्णन करते हैं।
ञ. विभिन्न काल के इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोतों की पहचान करते हैं।
ट. भारत में मानचित्र के ऐतिहासिक दृश्य व स्थलों को चिह्नित करते हैं।
ठ. मानव संस्कृति के विशिष्ट लक्षणों की पहचान करते हैं।
ड. विभिन्न राज्यों एवं राजवंशों के महत्वपूर्ण योगदान को सूचीबद्ध करते हैं।
ढ. प्राचीन काल के समग्र विकास का वर्णन करते हैं।
ग. किसी काल के साहित्य के अभिलेखों में उल्लिखित प्रकरणों, घटनाओं, व्यक्तित्व
का वर्णन करते हैं।
त भारत के धर्म, कला एवं स्थापत्य आदि क्षेत्रों में बाह्य जगत से संपर्क के उपरांत
हुए प्रभाव का वर्णन करते हैं।
थ. विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में भारत द्वारा किए गए महत्वपूर्ण योगदान को रेखांकित
करते हैं।
द. इतिहास के विभिन्न विकास के बारे में सूचनाओं को संश्लेषित करते हैं।
घ. प्राचीन काल के विभिन्न धर्मों और विचार धाराओं की मूल भावना एवं धार्मिक मूल्यों
का विश्लेषण करते हैं।
न. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के विभिन्न प्रकार के व्यवसाय, उपलब्धता के लिए उत्तरदाई
कारकों का वर्णन करते हैं।
प. संयुक्त परिवार एवं एकल परिवार के गुण-दोष की समीक्षा करते हैं।
फ. राष्ट्रीय प्रतीक के माध्यम से राष्ट्रीय एकता के भाव को समझते हैं।
ब. शासन-प्रशासन के विभिन्न स्तरों को पहचानते हैं।
भ. शासन-प्रशासन की भूमिका का वर्णन स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक करते हैं।
म. स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में ग्रामीण व शहरी स्थानीय प्रशासन सुविधाएँ जैसे-
बिजली, पानी, सड़क आदि की उपलव्यता में सरकार की भूमिका को चिह्नित करते हैं।
य. प्राचीन काल से लेकर मध्य काल तथा आधुनिक काल तक के राजनीतिक,
सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिवर्तनों व शासनों को रेखांकित करते हैं तथा समझते हैं।
र. धार्मिक विचारों एवं स्वतंत्रता आंदोलन की प्रासंगिकता व महत्व को समझते हैं।
ल. भारत में चुनाव प्रक्रिया एवं सरकार गठन की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं, इत्यादि ।