Pedagogy of civics

B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र

B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र

Q. नागरिकशास्त्र शिक्षण की विभिन्न विधियों का वर्णन करें।
(Discuss the different Methods of Teaching Civics.)
Ans. नागरिकशास्त्र-शिक्षण में प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण-विधियों को निम्नलिखित दो शीर्षकों के अन्तर्गत विभक्त किया जा सकता है-
(अ) परम्परागत शिक्षण-विधियाँ (Traditional Methods of Teaching), (ब) क्रियाशील शिक्षण विधियाँ (Dynamic Methods of Teaching) |
(अ) परम्परागत शिक्षण विधियाँ
(Traditional Methods of Teaching)
परम्परागत शिक्षण-विधि की अवधारणा (Concept of Traditional Methods of Teaching)—प्राचीन एवं मध्यकाल में शिक्षण-प्रक्रिया (Teaching process) के दो बिन्दुओं-शिक्षक तथा पाठ्य-वस्तु का अधिक महत्त्व रहा । उस समय शिक्षण-प्रक्रिया के तीसरे बिन्दु-छात्र या बालक का स्थान गौण बना रहा । परम्परागत अवधारणा में शिक्षण विधि मात्र ज्ञान को सूचना या तथ्यों के रूप में प्रदान करने का एक साधन था जिसे शिक्षक मौखिक या पाठ्य-पुस्तक के माध्यम से छात्र को हस्तान्तरित करता था। छात्र इस सूचनात्मक ज्ञान को बिना सोचे-समझे कण्ठस्थ करके परीक्षा में शब्दशः प्रस्तुत कर देता था। इस प्रकार परम्परागत शिक्षण-विधियों का उद्देश्य तथ्यात्मक ज्ञान को मौखिक या पाठ्य-पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत करना था। इन विधियों में शिक्षक की स्थिति आदेशात्मक थी। परन्तु मनोविज्ञान तथा शिक्षा के क्षेत्र में हुए अनुसंधानों एवं प्रयोगों ने शिक्षण-प्रक्रिया के तृतीय बिन्दु बालक पर बल दिया जिसके फलस्वरूप बालकेन्द्रित शिक्षा का आविर्भाव हुआ। बालकेन्द्रित शिक्षा ने क्रियाशीलन विधियों (Dynamic methods) पर बल दिया। इस परिवर्तन ने शिक्षक की स्थिति को आदेश देने वाले की बजाय परामर्शदाता के रूप में प्रस्तुत किया ।
1. पाठ्य-पुस्तक विधि—छात्र अनुभव तथा ज्ञान की प्राप्ति दो ढंगों से करते हैं- 1. प्रत्यक्ष रीति से तथा 2. अप्रत्यक्ष रीति से । प्रथम ढंग के अनुसार ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से वास्तविक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। अप्रत्यक्ष रीति के अन्तर्गत दो ढंग आते – 1. पुस्तक के माध्यम से, 2. मौखिक स्तुतीकरण द्वारा । प्रथम के अनुसार बालक पुस्तकों में संकलित विचारों का अध्ययन करके ज्ञान की प्राप्ति करता है। दूसरे के अनुसार बालक मौखिक रूप से किये गये प्रस्तुतीकरण द्वारा ज्ञान की प्राप्ति करता है । इस प्रकार इन दोनों ढंग के आधार पर तीन शिक्षण-पद्धतियों-1. पाठ्य-पुस्तक विधि, 2. भाषण या व्याख्यान विधि
तथा 3. कहानी-कथन विधि (Story telling method) का निर्माण हुआ। पाठ्य-पुस्तक विधि को परिभाषित करते हुए ई. बी. वेस्ले ने लिखा है, “पाठ्य-पुस्तक पद्धति शिक्षण की वह प्रक्रिया है जिसका तात्कालिक उद्देश्य पाठ्यस-पुस्तक में निहित
सूचनाओं की समझदारी प्रदान करना होता है।”
इस साधन के प्रयोग का एक रूप यह भी है कि शिक्षक पाठ्य-पुस्तक के पाठों के आधार पर छात्रों के लिए पृथक् कार्य निर्धरित करता है, जिसमें पाठ की समस्त बातों का समावेश होता है। परन्तु यह कार्य इस प्रकार निर्धारित किया जाता है जिसकी पूर्ति के लिए छात्रों को अन्य पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, सन्दर्भ पुस्तकों आदि का भी प्रयोग करना पड़े। इस प्रकार पाठ्य-पुस्तक छात्रों को सक्रिय बनाकर ज्ञानार्जन का आधार बन जाती है।
नागरिकशास्त्र में पाठ्य-पुस्तक विधि का प्रयोग (Use of Text-Book Method of Civics)-नागरिकशास्त्र-शिक्षण में इस पद्धति का प्रयोग विद्यालय शिक्षा के सभी स्तरों पर किया जा सकता है। परन्तु जूनियर तथा उच्च कक्षाओं में उसके प्रयोग के लिए पाँचवें रूप को अपनाया जाए। साथ ही एकाकी पाठ्य-पुस्तक के स्थान पर बहु-पाठ्य-पुस्तक प्रणाली का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि एकाकी पाठ्य पुस्तक के प्रयोग से छात्रों में मुद्रित पृष्ठों के प्रति निर्भरता की भावना विकसित हो सकती है। परन्तु बहु-पाठ्य-पुस्तक के प्रयोग से छात्रों में अपना निर्णय बनाने की क्षमता, स्वाध्याय की आदत, तार्किक शक्ति का विकास तथा उनके दृष्टिकोण को विस्तृत बनाया जा सकता है।
2. व्याख्यान विधि-शिक्षण में इस विधि का प्रयोग प्राचीनकाल से होता रहा है। आजकल भी भारतीय स्कूलों में इस विधि ने महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर रखा है। व्याख्यान का अभिप्राय पाठ को भाषण के रूप में पढ़ाने से है। इसमें शिक्षक अपने मुख से बात कहकर पढ़ाता है। इसको कथन विधि भी कहते हैं। व्याख्यान विधि की सफलता दो बातों पर निर्भर है-1. पाठ्य-वस्तु का चयन तथा 2. उस पाठ्य-वस्तु का प्रस्तुतीकरण करने का ढंग। प्रस्तुतीकरण का ढंग वक्ता के व्यक्तित्व पर निर्भर है। इसके लिए वक्ता में सुस्वर, तथा  योग्यता का होना आवश्यक है। शिक्षा की प्रगतिशील विचारधारा के समर्थकों का विचार है कि यह विधि शिक्षण के लिए अनुपयुक्त है। उनका कहना है कि इसमें बालक निष्क्रिर स्रोता बना रहता है। परन्तु यह तर्क ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यह विधि शिक्षा-मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के विपरीत नहीं है। इसमें छात्रों की मानसिक क्रिया होती है। यदि शिक्षक पूर्ण तैयारी तथा रोचक ढंग से अपने व्याख्यान को अपने छात्रों के सम्मुख रखेगा और उनको सक्रिय रखने के लिए उनसे प्रश्न पूछता रहेगा तो यह आरोप दूर किया जा सकता है । इस आरोप का दोषी शिक्षक है, न कि विधि । व्याख्यान द्वारा कर्णेन्द्रिय जागरूक रहती है। व्याख्यान, वक्ता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ, छात्रों के मस्तिष्क में स्थान प्राप्त करता है । नागरिकशास्त्र-शिक्षण के लिए यह विधि अत्यन्त लाभदायक है क्योंकि इसमें विभिन्न समस्याओं, योजनाओं तथा संस्थाओं का समावेश होता है। शिक्षक अपने व्यासख्यान द्वारा उनकी संक्षिप्त रूपरेखा तथा प्रस्तावना इस विधि द्वारा सरलता से बालकों के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है।
3. कहानी-कथन विधि (Story Telling Method)—यह विधि मौखिक प्रस्तुतीकरण का एक रूप है। इसमें व्याख्यान की भाँति छात्रों के समक्ष किसी कहानी की विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया जाता है । व्याख्यान विधि की भाँति इसकी भी सफलता प्रस्तुतकर्ता के ऊपर निर्भर रहती है।
छोटी कक्षाओं में कहानी कहना ही नागरिकशास्त्र सिखाने की सर्वोत्तम विधि है। प्लेटो (Plato) ने भी इस विधि को छोटे बच्चों के लिए लाभप्रद एवं उपयुक्त बतलाया था। बालक स्वभावत: कहानी-प्रिय होते हैं। कल्पना की उड़ान में उनकी बहुत-सी नैसर्गिक प्रवृत्तियों का विकास होता है। मानव बाल्यावस्था तथा वृद्धावस्था दोनों ही में कहानी सुनने तथा कहने में रुचि दिखलाता है। कुछ व्यक्तियों में कहानी कहने की कला जन्मजात होती है और कुछ व्यक्ति इसे प्रयल करके सीख लेते हैं । नागरिकशास्त्र के शिक्षक को इसे जानना आवश्यक है। यदि यह उसमें स्वाभाविक रूप से नहीं है तो उसे प्रयत्न करके इसे अर्जित करना चाहिए । यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो वह सफल शिक्षक नहीं हो सकेगा तथा अपने छात्रों के साथ पूर्ण न्याय
न कर सकेगा । शिक्षक को नागरिकशास्त्र के ऐसे विषयों का चयन कर लेना चाहिए जो कहानी के रूप में कहे जा सकें। उदाहरणार्थ-सहयोग, नेतृत्व, प्रेम, सत्यता, सहानुभूति, दया, त्याग आदि गुणों को विकसित करने वाली कहानियाँ ।
(ब) क्रियाशील शिक्षण विधियाँ
परम्परागत शिक्षण विधियों में शिक्षण-प्रक्रिया शिक्षक-प्रधान बन जाती है। इनमें शिक्षक वक्ता तथा छात्र श्रोता बना रहता है। यह स्थिति शोचनीय है। अत: इसे सुधारने के लिए क्रियाशील या गतिशील विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए । इन विधियों ने शिक्षक-छात्र दोनों ही सक्रिय रहकर शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया (teaching learning process) को प्रभावी बनाते हैं। माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर कमीशन) ने गतिशील शिक्षण विधियों की निम्नांकित विशेषताएँ बतायी हैं-
1. गतिशील विधियाँ छात्रों ने कार्य के लिए प्रेम विकसित करें।
2. इनके द्वारा छात्रों में स्पष्ट चिन्तन की क्षमता का विकास किया जाए।
3. इनके द्वारा छात्रों की अभिरुचियों (Interest) के क्षेत्र को विस्तृत बनाया जाए।
4. इनके द्वारा छात्रों को स्वक्रिया के लिए अवसर प्रदान किये जाएँ।
5. इनके द्वारा छात्रों को अध्ययन-कला (Art of study) में प्रशिक्षित किया जाये।
6. इनके द्वारा छात्रों में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने की आदतों का विकास किया जाए।
7. इनके द्वारा छात्रों के सहभागित्व के लिए विविध अवसर प्रदान किये जाएँ।
नागरिकशास्त्र-शिक्षण में निम्नलिखित गतिशील शिक्षण-विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-
1. निरीक्षण या अवलोकन विधि—यह ज्ञानार्जन का वह सुबोध तथा प्रभावशाली साधन है जिसके द्वारा बालक स्वयं क्रियाशील रहकर किसी वस्तु या तथ्य का पता लगाता है। जो ज्ञान छात्र निरीक्षण या अवलोकन द्वारा प्राप्त करता है, वह स्थायी होता है तथा उसके सम्पूर्ण ज्ञान का एक भाग बन जाता है । इस प्रकार निरीक्षण करके ज्ञानार्जन की विधि को हम ‘निरीक्षणात्मक विधि’ के नाम से पुकारते हैं। इसमें शिक्षक स्वयं न बताकर छात्रों को निरीक्षण करने के लिए प्रेरित करता है और छात्र पर्यावलोकन तथा निरीक्षण करके स्वयं ज्ञानार्जन करते हैं। नागरिकशास्त्र का शिक्षक इस विधि का उपयोग प्रायः शिक्षा के सभी स्तरों पर कर सकता है। परन्तु इसका उपयोग प्रारम्भिक और माध्यमिक कक्षाओं में अधिक लाभदायक सिद्ध होगा, क्योंकि इस स्तर पर छात्रों को सामाजिक संस्थाओं तथा दशाओं का ज्ञान कम होता है। इस विधि के प्रयोग से छात्र इनका निरीक्षण तथा पर्यावलोकन करके वस्तुनिष्ठ ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे छात्रों को पुस्तक तथा व्याख्यान के आधार पर दिए हुए सिद्धान्त कम समझ में आते हैं तथा अस्थायी रहते हैं। इन सिद्धान्तों को हम इस विधि की सहायता से सुगम, सरल तथा
बोधगम्य बना सकते हैं। नागरिकशास्त्र के शिक्षक का परम कर्तव्य है कि अपने छात्रों को सामाजिक संस्थाओं तथा समुदायों का अवलोकन कराएँ ।
इस विधि की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. इसमें छात्रों के अवलोकन, निर्णय, चिन्तन तथा स्वतन्त्र अभिव्यंजना-शक्ति का विकास होता है।
2. इसके प्रयोग से शिक्षालय, घर तथा समाज के बीच उत्तम सम्बन्ध स्थापित किये जाते
3. इस विधि द्वारा छात्रों को सामाजिक संस्थाओं तथा समुदायों की समानताओं तथा असमानताओं का ज्ञान सुगमतापूर्वक प्राप्त हो जाता है
4. इसके प्रयोग से छात्र विषय का प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करते हैं।
2. विचार-विमर्श या वाद-विवाद विधि-आधुनिक शैक्षिक विचारधारा के अनुसार छात्र को मात्र निष्क्रिय श्रोता नहीं माना जाता है वरन् उसको सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय बनाये रखने पर बल दिया जाता है। बालक जिस ज्ञान को करके सीखता है, वह अधिक स्थायी रहता है। अत: बालक को सक्रिय बनाये रखने के दृष्टिकोण से विभिन्न क्रियात्मक शिक्षण-विधियों का प्रयोग किया जाता है। उनमें से एक वाद-विवाद विधि है। वाद-विवाद विधि शिक्षण की वह विधि है जिसमें शिक्षक तथा छात्र मिलकर किसी प्रकरण, प्रश्न या समस्या के सम्बन्ध में स्वतन्त्रतापूर्वक सामूहिक वातावरण में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए आगे कुछ परिभाषाएँ दी जा रही हैं-
जेम्स एम० ली—“वाद-विवाद एक शैक्षिक सामूहिक क्रिया है जिसमें शिक्षक तथा छात्र सहयोगी रूप से किसी समस्या या प्रकरण पर बातचीत करते हैं।”
योकम तथा सिम्पसन “वाद-विवाद बातचीत का एक विशिष्ट स्वरूप है। इसमें समान्य बातचीत की अपेक्षा अधिक विस्तृत एवं विवेकयुक्त विचारों का आदान-प्रदान होता है। सामान्यतः वाद-विवाद में महत्त्वपूर्ण विचारों एवं समस्याओं को सम्मिलित किया जाता है।”
3. योजना विधि—इस विधि के जन्मदाता श्री किलपैट्रिक हैं। डीवी के प्रयोजनवाद के सिद्धान्तों के आधार पर इस विधि का निर्माण किया गया है। इस विधि के निर्माण की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से हुई है-
1. शिक्षालयों की शिक्षा केवल सूचनात्मक थी और उसका दैनिक जीवन की ठोस स्थितियों तथा पर्यावरण से कोई सम्बन्ध नहीं था।
2. पाठशालाओं का पर्यावरण नीरस तथा अरुचिकर होता था, वहाँ छात्र निष्क्रिय श्रोता बनकर केवल. सूचनाएँ ग्रहण करते थे।
3. शिक्षालयों के पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधियों का बालक की रुचियों, अभिव्यक्तियों, आवश्यकताओं तथा क्षमताओं से कोई सम्बन्ध नहीं था।
4. शिक्षा में सामाजिक दृष्टिकोण का पूर्णतया अभाव था। ऐसी परिस्थितियों में एक ऐसी शिक्षण विधि की आवश्यकता प्रतीत हुई जिससे छात्र क्रियाशील रहकर रुचिपूर्वक ज्ञान अर्जित कर सके और उसे उपयोग में ला सके । परिणामस्वरूप योजना विधि का निर्माण हुआ।
विभिन्न विद्वानों ने प्रोजेक्ट शब्द की परिभाषा विभिन्न प्रकार से की है-
1. किलपैट्रिक ने इस शब्द की परिभाषा इस प्रकार की है, “प्रोजेक्ट वह सहदयपूर्ण अभिप्रायुक्त क्रिया है जो पूर्ण संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में की जाए।”
2. स्टीवेन्सन के अनुसार, “प्रोजेक्ट एक समस्या-मूलक कार्य है जिसका समाधान उनके प्रकृत वातावरण में रहते हुए ही किया जाता है।”
3. बैलार्ड के अनुसार, “प्रोजेक्ट वास्तविक जीवन का एक छोटा-सा भाग है जिसको शिक्षालय में प्रतिपादित किया जाता है।”
प्रत्येक ऐसी समस्या छात्र के दैनिक जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए। उसका चयन व सम्पादन बच्चों द्वारा ही होना चाहिए, शिक्षक और उसकी इच्छा का इसमें कोई स्थान नहीं है। उसका स्थान केवल पथ-प्रदर्शक तथा मित्र का है। इसमें छात्र परस्पर सहयोग व आत्म-परिश्रम एवं सूझ से कार्य को सम्पादित करते हैं। इस प्रकार समाज में रहते हुए छात्रों में शिक्षा तथा सामाजिक गुणों, अर्थात् सहयोग, सहकारिता, नेतृत्व आदि का विकास होता है।
4. समस्या समाधान विधि—यह विधि योजना विधि से पर्याप्त समानता रखती है। इन दोनों विधियों में अन्तर इस बात का है कि योजना विधि में प्रायोगिक कार्य को महत्त्व प्रदान किया जाता है। यह प्रायोगिक कार्य एक वास्तविक स्थिति में सम्पन्न किया जाता है, जबकि समस्या विधि में मानसिक निष्कर्षों पर अधिक बल दिया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि योजना विधि में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की क्रियाएँ सन्निहित होती हैं, जबकि समस्या विधि में केवल मानसिक हल ही प्रदान किया जाता है। इस प्रकार समस्या विधि में किसी समस्या या प्रश्न को एक विशेष स्थिति में वैज्ञानिक ढंग से हल किया जाता है |
अतः इस विधि की सबसे प्रमुख विशेषता, मानसिक एवं आलोचनात्मक चिन्तन है। नागरिकशास्त्र-शिक्षण में इस विधि का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसका प्रमुख ध्येय बालकों को जीवन की वास्तविक समस्याओं से परिचित कराना है नागरिकशास्त्र में इस विधि के उपयोग के लिए बहुत अधिक अवसर पाये जाते हैं।
इस विधि में शिक्षक या तो स्वयं छात्रों को समस्या देता है या छात्र स्वयं प्रस्तुत कर देते है समस्या एक छात्र द्वारा भी प्रस्तुत की जा सकती है तथा कई छात्र उसको सामूहिक रूप से भी रख सकते हैं। परन्तु इसके प्रयोग में इस बात पर बल दिया जाता है कि छात्र समस्या को अपनी समझकर हल करने के लिए तत्पर रहें । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि छात्रों को समस्या में अपनत्व अनुभव करना चाहिए। इसके अतिरिक्त समस्या ऐसी चुनी जानी चाहिए जो छात्रों के सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हो । दूसरे, समस्या छात्रों की रुचि एवं मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिए। इसके प्रयोग में निम्नलिखित स्तरों का ध्यान रखना
चाहिए-
1: समस्याका चयन तथा प्रस्तुतीकरण ।
2. समस्या से सम्बन्धित तथ्यों का एकत्रीकरण एवं व्यवस्था ।
3. तथ्यों की जाँच तथा सम्भावित हलों का निर्णय ।
4. तथ्यों का विश्लेषण, आलोचना तथा उनके आधार पर परिणाम निकालना ।
5. परिणामों का मूल्यांकन तथा सामान्य नियमों का निर्माण ।
6. समस्या का लेखा।
उदाहरण – नागरिकशास्त्र में विभिन्न समस्याओं को उनके समाधान हेतु छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, निर्धनता की समस्या, निरक्षरता, कुटीर उद्योगों की समस्या, खाद्य समस्या, सुरक्षा की समस्या, भाषा की समस्या, कृषि की समस्या आदि ।
5. इकाई विधि – सामाजिक विषयों के अध्ययन के लिए पाश्चात्य देशों में इकाई विधि का प्रयोग किया गया है। यह विधि संयुक्त राज्य अमेरिका में अत्यन्त लोकप्रिय है। इस विधि के निर्माण में गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों (Gestalt Psychologists) का बहुत बड़ा योग है इसके अनुसार सीखने की प्रक्रिया के लिए जो भी सामग्री प्रस्तुत की जाय, वह समग्र रूप में होनी चाहिए। यह मनोविज्ञान के इस तथ्य पर आधारित है कि शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा जैविक घटनाएँ समवाय इकाइयों (Co-ordinated units) के द्वारा गठित होती हैं । इस तथ्य को लेकर इकाई विधि का निर्माण हुआ । इसके मुख्य प्रवर्तक हेनरी सी० मौरिसन हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक The Practice of Teaching in the Secondary Schools में इकाई की व्याख्या की है । मौरिसन के अनुसार, “इकाई वातावरण, संगठित विज्ञान तथा कला का विस्तृत तथा महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।” यह परिभाषा समाज विज्ञान तथा प्राकृतिक विज्ञान-दोनों को ही पने में स्थान देती है। इकाई के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ नीचे दी जा रही हैं-
बॉसिंग-“इकाई में सम्बद्ध तथा अर्थपूर्ण क्रियाओं की व्यापक सूची निहित है और का विकास छात्रों के अभिप्रायों को प्राप्त करने, महत्त्वपूर्ण शैक्षिक अनुभवों को प्रदान करने तथा उपयुक्त व्यवहारगत परिवर्तन लाने के लिए कया जाता है।”
इकाई विधि के लाभ (Merits of Unit Method)-
1. इसके द्वारा बालकों में विषय के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है।
2. बालकों की लज्जाशील प्रवृत्ति तथा झिझक को दूर किया जा सकता है।
3. इसके द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान-उपलब्धि पर ध्यान दिया जा सकता है। दूसरे यह विधि मनोवैज्ञानिक है।
6. प्रयोगशाला विधि—शिक्षा की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति ने प्रत्येक विषय के लिए अपनी प्रयोगशाला स्थापित करने को बाध्य किया है। जिस प्रकार वैज्ञानिक विषयों के लिए प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है, उसी प्रकार सामाजिक विषयों के लिए भी आधुनिक काल की विचारधारा के अनुसार प्रयोगशाला का होना आवश्यक है। नागरिकशास्त्र भी एक विज्ञान जिसके लिए एक विशेष कक्ष या प्रयोगशाला की आवश्यकता है। इस कक्ष द्वारा उस विषय का वातावरण स्थापित किया जाता है जो उसकी शिक्षा के लिए अति आवश्यक है। आधुनिक शैक्षिक विचारधारा के अनुसार शिक्षक का परम कर्त्तव्य है कि वह छात्रों के लिए ऐसा वातावरण या ऐसी स्थिति उत्पन्न करें जिससे छात्र स्वक्रिया द्वारा ज्ञान अर्जित कर सकें । विशेष कक्ष या प्रयोगशाला वह साधन है जिसके द्वारा नागरिकशास्त्र का शिक्षक बच्चों की शिक्षा के लिए उपयोगी स्थिति तथा वातावरण उत्पन्न कर सकता है। यह प्रश्न स्वत: ही उठता है कि नागरिक शास्त्र की प्रयोगशाला में किन-किन वस्तुओं का होना आवश्यक है? इसके उत्तर में
निम्नलिखित बातों को प्रस्तुत कर सकते हैं-
1. साधारण कक्ष से एक बड़ा कक्ष होना चाहिए जिसमें एक समय में 30 या 40 बालक स्वाध्ययन कर सकें।
2. छात्रों के लिए मेज तथा कुर्सियाँ होनी चाहिए। मेज ऐसी हों जिन पर छात्र सुगमता से अपना प्रायोगिक कार्य कर सकें।
3. श्यामपट या चॉकपट्ट ।
4. संगठन-चार्ट, तालिका-चार्ट, मॉडल चित्र, मानचित्र, रेखाकृतियाँ आदि ।
5. फ्लेनल बोर्ड।
6. पुस्तकों की आलमारियाँ-विषय सम्बन्धित पाठ्य-पुस्तकें, सहायक पुस्तकें तथा विशेष अध्ययन योग्य पुस्तकें होनी चाहिए । शिक्षकों के अध्ययन के लिए भी उपयुक्त पुस्तके होनी चाहिए।
7. पत्र-पत्रिकाएँ।
8. रेडियो तथा टेलीविजन ।
9. फिल्म तथ प्रोजेक्टर ।
10. सूचना पट (Bulletin Board) ।
7. समाजीकृत अभिव्यक्ति विधि-आधुनिक युग में कक्षा-कक्ष में समाजीकृत प्रक्रियाओं के प्रयोग की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है जिसके फलस्वरूप शिक्षण-शास्त्र में एक नवीन एवं गत्यात्मक विधि को स्थान मिला है जो समाजीकृत अभिव्यक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। वेस्ले का मत है कि समाजीकृत अभिव्यक्ति एक आदर्श है जो शिक्षण में ऐसे प्रयोगों की
कल्पना करता है जिसमें कक्षा के सभी बालक सहयोग तथा सद्भावना से ज्ञानार्जन कर सकें। इसके द्वारा कक्षा के वातावरण की कृत्रिमता को समाप्त किया जाता है और उसके स्थान पर स्वाभाविकता उत्पन्न की जाती है जिसमें बालक अपने स्वभाव एवं रुचि के अनुसार स्वतन्त्रतापूर्वक सहयोगी ढंग से ज्ञानार्जन करता है।
समाजीकृत अभिव्यक्ति विधि का अर्थ (Meaning of Socialized Recitation Method) बाइनिंग व बाइनिंग ने लिखा है, “समाजीकृत अभिव्यक्ति को सामाजिक वाद-विवाद कहा जा सकता है।” समाजीकृत अभिव्यक्ति की शुद्ध परिभाषा के सम्बन्ध में मतभेद है। कुछ इसके अर्थ को संकुचित रूप में व्यक्त करते हैं। उनका विचार है- समाजीकृत अभिव्यक्ति वह प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक अपना भार सम्पूर्ण कक्षा या छात्रों को सीमित को सौंपकर स्वयं को कक्षा की कार्यवाही से भार-मुक्त कर लेता है। कुछ विद्वान् इसको उदार दृष्टि से देखते हैं। उनके दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करते हुए बाइनिंग व बाइनिंग
ने लिखा है, “कोई भी कक्षा-सत्र जो एक वर्ग के रूप में सामूहिक चेतना तथा वैयक्तिक उत्तरदायित्व प्रदर्शन करें, समाजीकृत अभिव्यक्ति है ।” मुफात ने इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “समाजीकृत अभिव्यक्ति विधि व्याख्यान विधि की अपेक्षा छात्रों के सहयोग के लिए अधिक अवसर प्रदान करती है। वह एक सामान्य सामूहिक वाद-विवार विधि है जिसमें सभी बालक अपना योगदान देकर, प्रश्न पूछकर तथा समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करके सहयोगी ढंग से भाग लेते हैं। यह विधि किसी प्रकरण की प्रस्तावना, किसी महत्त्वपूर्ण घटना पर बातचीत करने तथा किसी समस्या के अध्ययन में प्रयुक्त की जा सकती।
8. स्रोत विधि—स्रोत भूतकालीन घटनाओं द्वारा छोड़े गये शेष चिह्न (Traces) हैं । यद्यपि ये घटनाएँ वास्तविक रूप में घटित होती हैं फिर भी वे अधिक समय तक वास्तविक नहीं रह पातीं। उनके द्वारा छोड़े गये शेष चिह्न ही उन्हें वास्तविकता प्रदान करते हैं। इन्हीं शेष चिह्नों की सहायता से अतीत की घटनाओं का तार्किक एवं क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत करना सम्भव है इस विधि में विवेक तथा निर्णय-शक्ति का उपयोग करके तथ्य या आधार को प्राप्त करना पड़ता है। इसमें शिक्षक मूर्तियों, खण्डहरों, वस्त्रों, औजारों जैसी वस्तुओं अथवा गीत, चुटकले अथवा परम्पराओं जैसे मौखिक विवरणों तथा पत्र-पत्रिकाओं, प्रतिवेदन, नियमों या विधान, सन्धियाँ, समाचार-पत्र, आत्मकथाएँ आदि जैसे लिखित विवरणों के शैक्षिक महत्त्व को देखता है। वस्तुतः व्यवहार में यह विधि हस्तलिखित तथा मुद्रित विवरणों के प्रयोग से सम्बन्धित है। इसमें बालक विभिन्न स्रोतों से जानकारी एकत्रित करके स्वयं अपने विवरण तैयार करते हैं। साथ ही वे अपनी पाठ्य-पुस्तक की पाठ्य-सामग्री को भी समृद्ध बनाते हैं। छात्रों को इनके उपयोग से विश्वस्त बनाया जा सकता है। साथ ही इसके उपयोग से उन्हें विभिन्न समस्याओं या विवादास्पद मामलों के समाधान में सहायता दी जा सकती है। साथ ही उन्हें स्वाध्ययन के लिए तत्पर बनाया जा सकता है। इनके उपयोग से उनमें आलोचनात्मक दृष्टि विकसित की जा सकती है। स्रोतों के उपयोग से मंद बुद्धि बालक भी अनुमान तथा निश्चयात्मक कथन में अन्तर समझ सकता है।
स्रोत विधि के लाभ—इस पद्धति के प्रयोग से निम्नलिखित लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं
1. इसके प्रयोग से तथ्यों को सजीव बनाया जा सकता है ।
2. इसके प्रयोग से छात्र करके सीखने में समर्थ होते हैं।
3. इसके द्वारा छात्रों को समूह-कार्य करने के लिए अवसर प्रदान किये जाते हैं।
4. यह विधि समुचित चिन्तन, उचित काल्पनिकता, तुलना एवं व्याख्या करने, निष्कर्ष निकालने आदि मानसिक क्रियाओं के लिए अवसर प्रदान करती है।
5. यह कक्षा-पाठों को परिपूरित करती है।
6. यह तथ्यों या आँकड़ों को एकत्रित एवं संगठित करने में प्रशिक्षण प्रदान करती है।
9. निरीक्षित-अध्ययन विधि-अमेरिका में इस विधि का प्रचलन 19वीं शताब्दी के अंत में प्रारम्भ हो गया था। इसका प्रयोग परम्परागत विधि के दोषों को दूर करने के लिए किया गया । इस विधि का महत्व इसलिए भी बढ़ा कि इसके विपक्षियों ने इसका एक पृथक् विधि के रूप में प्रयोग न करके अन्य विधियों के साथ एक प्रविधि या रीति के रूप में किया था। यह अध्ययन-कक्ष या अध्ययनशाला में पूर्व निर्धारित कार्य के सम्बन्ध में किया जाता है और उनका शिक्षकों द्वारा निरीक्षण एवं निर्देशन किया जाता है। इसको ‘निदेर्शन-अध्ययन’ (Directed study) के नाम से भी पुकारा जाता है।
सामाजिक विषयों के शिक्षण में यह रीति बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। इसमें छात्रों को कार्य दे दिया जाता है । इसके उपरान्त छात्र अपने-अपने कार्य में संलग्न हो जाते हैं और शिक्षक उनके कार्य का निरीक्षण करता है। इसके अतिरिक्त वह निर्देशन भी प्रदान करता है। निर्देशन हेतु पृथक् रूप से एक और शिक्षक भी नियुक्त किया जा सकता है। छात्र शिक्षक से अपनी कठिनाइयों एवं समस्याओं का समाधान कराते रहते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि इस पद्धति के प्रयोग से छात्रों की शिक्षालय की समस्त क्रियाओं का निरीक्षण एवं निर्देशन किया जाता है।
परन्तु यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि अध्ययनशाला में उन्हें क्रियाओं का निरीक्षण एवं निर्देशन हो पायेगा जो कि निर्धारित कार्य से सम्बन्धित हैं। वस्तुतः यह एक रीति या प्रविधि है, जिसका प्रयोग अन्य पद्धतियों के प्रयोग में किया जा सकता है। परन्तु कुछ विद्वान इसे पृथक् विधि के रूप में ग्रहण करते हैं।
शिक्षक इस रीति के प्रयोग के लिए छात्रों को दो भागों में विभक्त कर सकता है, अर्थात् पिछड़े  बालकों का वर्ग तथा सामान्य बालकों का वर्ग। इन समस्त छात्रों को एक ही वर्ग में रखकर अपने कार्य का निर्धारण करेगा। ‘जाति-प्रथा’ के विषय में शिक्षक सर्वप्रथम पूरी कक्षा के समक्ष एक सूक्ष्म विवेचना प्रस्तुत करेगा। वह इस विवेचना में इसके प्राचीन रूप, विकास तथा वर्तमान स्थिति के विषय में बतायेगा । इस जानकारी के उपरान्त छात्र अपने कार्य में संलग्न हो जाएँगे । शिक्षक इस समय निरीक्षण करेगा और उनकी वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों ही रूप में कठिनाइयों एवं समस्याओं का समाधान करेगा। इस समय वह कार्य से सम्बन्धित सामग्री के विषय में छात्रों को निर्देशित भी करेगा।
निरीक्षित-अध्ययन विधि के प्रयोग से छात्रों में निम्नलिखित कौशलों का विकास किया जा सकता है-
1. अनुदेश सामग्री (Instructional material) के पढ़ने से सम्बन्धित कौशल ।
2. विश्व-कोशों के प्रयोग से सम्बन्धित कौशल।
3. शब्द-कोशों के प्रयोग से सम्बन्धित कौशल।
4. मानचित्र, एटलस, अनुक्रमणिका आदि के प्रयोग से सम्बन्धित कौशल ।
5. ग्राफों के अध्ययन से सम्बन्धित कौशल।’
निरीक्षित-अध्ययन पद्धति के प्रयोग के लिए विद्यालय-अवधि अधिक होनी चाहिए। साथ ही यह पद्धति अधिक व्ययी है। इसके लिए उपयुक्त अध्ययन सामग्री प्रत्येक विद्यालय में उपलब्ध नहीं हो पाती है।
10. अभिक्रम अधिगम विधि-बीसवीं शताब्दी को बालक का युग माना गरा अतः इस शताब्दी मेंबालक के सम्यक् मानसिक विकास के लिए पाठ्य-वस्तु के सुनियोजन एवं प्रस्तुतीकरण के सम्बन्ध में अनेक नवीन परीक्षण किये गये। इन परीक्षणों में बालक को किसी विषय की शिक्षा देने, या उसका समुचित ज्ञान प्रदान करने के लिए उस विषय से सम्बन्धित सामग्री को एक विशेष प्रकार से नियोजित किया गया। तत्पश्चात् उसे बालक के समक्ष विभिन्न क्रमबद्ध खण्डों में प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार के परीक्षणों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-
(अ) इकाई योजना-इसमें ज्ञान की विभिन्न शाखाओं को इकाइयों में विभाजित किया गया।
(ब) डाल्टन योजना-इसमें बालक से एक निश्चित कार्य योजना के अनुसार कार्य करने की आशा की गई।
(स) विनेटका योजना-इसमें विषय-वस्तु को इकाइयों तथा क्रमबद्ध सोपानों में विभक्त किया गया।
कुछ बातों में उक्त योजनाओं से मिलती-जुलती अनेक बातों में इनसे भिन्न और इन सबसे अधिक प्रभावी तथा महत्त्वपूर्ण योजना है—क्रमबद्ध अनुदेशन (Programmed Instruction) की। इसको क्रमबद्ध शिक्षा (Programmed education) तथा अभिक्रमित अधिगम (Programmed learning) के नामों से पुकारा जाता है।
क्रमबद्ध या अभिक्रमित अनुदेशन के प्रत्यय का विकास अमेरिका में हुआ । इसके विकास का श्रेय ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय के सिडनी एल. प्रेसी को जाता है। प्रेसी ने 1926 में ऐसी मशीनों का विकास किया जिनका प्रयोग शिक्षण तथा परीक्षण के लिये किया गया। 1954 में हारवर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक बी. एफ० स्किनर ने स्वतः अनुदेशनात्मक प्रविधियों का विकास किया । उसने प्रयोगशाला के निष्कर्षों के आधार पर अभिक्रमित अनुदेशन का विकास किया। उसने पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में प्रस्तुत किया और उसने अध्ययन के साथ छात्रों की अनुक्रिया को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार कठिन से कठिन प्रत्ययों का छात्रों को बोध कराया गया। स्किनर के अभिक्रमित या क्रमबद्ध अनुदेशन को रेखीय अभिक्रम (Linear programming) कहते हैं जबकि प्रेसी के अनुदेशन को मिश्रित क्रमबद्ध अनुदेशन (Adjunctive Programming) कहते हैं। 1955 में नार्मन ए क्राउडर ने प्रशिक्षण के लिए एक प्रविधि का विकास किया जिसे शाखीय क्रमबद्ध अनुदेशन या शाखीय अभिक्रम (Branching Programming) कहते हैं। इसमें पाठ्य-वस्तु की व्याख्या की जाती है और उसके अंत में बहु-विकल्पीय प्रश्न पूछे जाते हैं जिनमें से सही उत्तरों का चयन किया जाता है। यदि छात्र गलत उत्तर चयन करता है तो उसे उपचारात्मक शिक्षण की सुविधा प्रदान की जाती है, जब वह सही उत्तर का चयन करता है तब उसे आगे की विषय-वस्तु पढ़ने को दी जाती है
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निम्न बातें स्पष्ट होती हैं-
1. प्रेसी ने शिक्षण मशीनों एवं प्रश्नों के उत्तरों के अभ्यास से अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाया।
2. स्किनर ने पुनर्बलन (Reinforcement) से अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन पर बल दिया।
3. क्राउडर ने निदान तथा उपचार के माध्यम से अनुदेशन को प्रभावी बनाया।
नागरिकशास्त्र-शिक्षण में इस विधि का प्रयोग – नागरिकशास्त्रशिक्षण के अन्तर्गत इस विधि का प्रयोग अधिकांश प्रकरणों में किया जा सकता है। इसमें शिक्षक प्रोग्राम के फ्रेमों का निर्माण करता है तथा उस फ्रेम को छात्र के समक्ष प्रस्तुत कर उसकी स्वचालित अधिगम-प्रक्रिया का अवलोकन कर आवश्यकतानुसार सहायता करता है। इस प्रकार इस विधि में शिक्षक की भूमिका मार्गदर्शक एवं व्यवस्थापक की होती है। वह अभिक्रमित अधिगम सामग्री का निर्माण कर उसकी प्रतिलिपियाँ तैयार करके कक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी को देकर आवश्यक निर्देश प्रदान करेगा। वह छात्रों को पाठ्य वस्तु या प्रश्न या रिक्त स्थानों के वाक्यों को ध्यान से पढ़कर उत्तर के बाद इसका मिलान या तुलना पाठ्य-वस्तु के बायीं ओर अंकित उत्तर से करने को कहेगा। यदि उत्तर सही है तो आगे बढ़ने का और यदि उत्तर गलत है तो उसे शुद्ध करवाकर आगामी प्रश्न का उत्तर देने का आदेश देगा।
11. समुदाय-संसाधन विधि (Community Resource Method)-जॉन यू. माइकेलिस के अनुसार, “समुदाय जीवन-यापन के विभिन्न ढंगों के विषय में प्रत्यक्ष ज्ञान प्रदान करने के लिए बालक की प्रयोगशाला है । समुदाय में बालक भूगोल, इतिहास, यातायात, सन्देशवाहन, शासन तथा जीवन के अन्य पक्षों के सम्बन्ध में संकल्पनाएँ विकसित कर सकता है।” नागरिकशास्त्र को प्रायः सामुदायिक नागरिकशास्त्र के नाम से पुकारा जाता है जिसमें सामाजिक वातावरण के प्रति छात्रों सम्बन्धों पर बल दिया जाता है। इस सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत स्थानीय समुदाय, ग्रामीण या नगरीय समुदाय, राज्यीय समुदाय, राष्ट्रीय समुदाय तथा विश्व समुदाय आते हैं । नागरिकशास्त्र में समुदाय के संसाधनों का अध्ययन करना आवश्यक है क्योंकि छात्र उनके माध्यम से जीवन के विभिन्न अनुभवों को प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। साथ ही वे प्रतिदिन के जीवन के व्यावहारिक ज्ञान से आदर्श सामाजिक जीवन की प्राप्ति के लिए कदम उठा सकते हैं। समुदाय के प्रमुख संसाधनों को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
1. प्रशासकीय संस्थाएँ,
2. सार्वजनिक सेवा संस्थाएँ,
3. स्थानीय पर्यावरण तथा प्राकृतिक साधन,
4. ऐतिहासिक स्थल,
5. संग्रहालय,
6. सामाजिक संस्थाएँ।
नागरिकशास्त्र में समुदाय-संसाधन विधि का प्रयोग–नागरिकशास्त्र के शिक्षण में विभिन्न प्रविधियों—परिदर्शन, पर्यटन, क्षेत्र-पर्यटन, स्थानीय सर्वेक्षण आदि का प्रयोग करके स्थानीय संसाधनों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। उक्त प्रविधियों के प्रयोग से नागरिकशास्त्र का शिक्षक, ग्राम-पंचायत, क्षेत्र समिति, नगर पंचायत, नगरपालिका, नगर महापालिका, जिला पंचायत आदि के विषय में प्रत्यक्ष ज्ञान प्रदान कर सकता है। इस प्रकार प्राप्त किया हुआ ज्ञान अधिक स्थायी तथा उपयोगी होगा। प्रत्येक समाज अपने भौगोलिक एवं प्राकृतिक वातावरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है । अत: स्थानीय नदियों, झीलों, पर्वतों तथा धरातल के विषय में जानकारी देने के लिए परिदर्शन एवं शैक्षिक यात्राओं का आयोजन किया जाये। इनके माध्यम से वे अपने क्षेत्र विशेष की प्राकृतिक शक्तियों एवं साधनों से अवगत हो सकेंगे। छात्रों को जीवन का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने के लिए समाज-सेवा में सतत् क्रियाशील पोस्ट ऑफिस, चिकित्सालय, टेलीग्राफ ऑफिस, बैंक, जल एवं विद्युत विभाग, स्थान विशेष के कुटीर उद्योगों, लघु उद्योगों, बड़े-बड़े औद्योगिक केन्द्रों, बाजारों, हाटों आदि का अवलोकन कराया जाए।
इससे उनको जीवन के विभिन्न व्यावहारिक अनुभवों की प्राप्ति होगी। समुदाय के इन विभिन्न क्रियाकलापों की जानकारी के अतिरिक्त छात्र सड़क के नियम, नागरिक नियमों आदि के विषय में प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं।

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