Pedagogy of civics

B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र

B.ED Notes in Hindi | विधालय विषय का शिक्षण शास्त्र

Q.  निबन्धात्मक परीक्षण तथा वस्तुनिष्ठ परीक्षण पर प्रकाश डालें।
(Throw light on Essay Type test and objectives type test.)
(क) निबन्धात्मक परीक्षा
(Essay Type Test)
हमारे देश में इसय परीक्षा का अधिक प्रचलन है। इसमें बालकों को कुछ प्रश्नों का उत्तर निर्धारित समय के अन्दर निबन्ध के रूप में लिखना पड़ता है। इसमें बालकों की अभिव्यंजना-शक्ति सुलेख, शैली, भाषा, आदि का अधिक प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त इसमें परीक्षक की मनोदशा (Mood) का भी प्रभाव रहता है। इसमें आत्मगत तत्व (Subjective element) की प्रधानता है। प्रचलित परीक्षा-प्रणाली के दोष (Defects ofthe Existing Examination system)-इस प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं-
1. परीक्षा शिक्षा का एक साधन होनी चाहिए परन्तु आजकल वह शिक्षा का लक्ष्य बन गयी है। बालक पढ़ते हैं शिक्षक पढ़ाते हैं किसलिए? किस उद्देश्य से? केवल परीक्षा उत्तीर्ण करने व कराने के लिए।
2. वह केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित रहती है। बालक की वास्तविक प्रगति की पूर्ण जाँच नहीं कर पाती है।
3. परीक्षा विद्यार्थियों के लिए भयानक स्वप्न बन गयी है। इसने छात्रों के नैतिक स्तर को भी गिरा दिया है क्योंकि परीक्षा उत्तीर्ण करना तथा कराना ही शिक्षा का मुख्य ध्येय हो गया है।
4. यह विद्यालय के कार्यों पर भी दूषित डालती है। सभी कार्य इसी की प्राप्ति के लिए न्योछावर कर दिये आते हैं। यहाँ तक कि समय-तालिका, गृह-कार्य, पाठ्यक्रम आदि सभी उसी के द्वारा शामिल किए जाते हैं।
5. यह छात्रों के मस्तिष्क में ज्ञान तो भर देती है परन्तु उसका प्रयोग नहीं सिखाती है।
6. विद्यार्थियों के स्वास्थ्य पर भी यह निकृष्ट प्रभाव डालती है। वे परीक्षा के दिनों में खेलना-कूदना, अपने मित्रों से मिलना, पर्याप्त विश्राम करना सोना आदि सबको तिलांजलि दे देते हैं।
7. परीक्षा में वैयक्तिक प्रभाव अधिक है। इसके अतिरिक्त छात्रों के लेख, विचार तथा लिखने के ढंग का भी प्रभाव पड़ता है। इसी कारण जाँचने तथा अंकों में विशेष विस्तार रहता है।
8. यह स्मरण-शक्ति पर अधिक बल देती है
9. इसके द्वारा विद्यार्थियों के वास्तविक ज्ञान की जाँच नहीं हो पाती। इसमें अवसर की ही प्रधानता रहती है।
10. यह कोई वैज्ञानिक विधि नहीं है। यह सिंह का पद एक चूहे या बिल्ली को प्रदान कर देती है और श्रृंखला का एक पद एक सिंह को। भारत में प्रचलित मूल्यांकनाभिमुख प्रवृत्ति का यह परिणाम यह है कि बच्चों के माता-पिताओं, छात्रों तथा अध्यापकों के जीवन का मात्र एक ही लक्ष्य रह गया है—परीक्षा पास करना या परीक्षा पास कराना । यदि किसी भी क्रियाकलाप में मूल्यांकन का यह मसला न हो तो अध्यापक के लिये यह पढ़ पाना कठिन होता है क्योंकि बच्चों की उसमें रुचि नहीं होती और उनके माता-पिता ऐसे शिक्षक से गुस्सा होते हैं। ऐसी स्थिति में एक शिक्षक को विचार मात्र से ही एक चिढ़ा हुआ पिता कहता सुनाई देता है,
“यह अध्यापक क्या कर रहा है ? क्यों समय बर्बाद कर रहा है ? इसको चाहिए बच्चों का ध्यान अध्ययन ने लगाये । अध्यापन का अर्थ उसकी भाषा में शिक्षा नहीं, बल्कि पाठ्य-पुस्तकों की रटाई तथा परीक्षा है, इसके अलावा कुछ नहीं है। यही कारण है कि अच्छा अध्यापक व बालकों को सृजनात्मक व जिज्ञासु बुद्धि प्रदान करते हुए शिक्षित करना असम्भव हो गया है। इस समय बालकों को भी मूल्यांकन की छूत लग गई है। अब उनके लिये एक ही अभिप्रेरण-शक्ति रह गई है-परीक्षा में अधिक अंक पाना । उनके पास पाठ्य-पुस्तक, सरल अध्ययन तथा नकल के अलावा किसी भी क्रियाकलाप के लिये समय नहीं है। नकल को रोकने या नकल के लिये सुविधा प्रदान करना आज हमारे जीवन के प्रमुख प्रश्न बन गये हैं।
परीक्षा की आवश्यकता (Need of Examination)-इस समस्त दोषों का अवलोकन करने के पश्चात् स्वत: ही यह प्रश्न उठता है कि इसको क्यों न समाप्त कर दिया जाय, तथापि यह परीक्षा अत्यन्त आवश्यक है। इसके निम्नलिखित कारण हैं-
(i) छात्रों की योग्यता तथा उनके द्वारा प्राप्त किये हुए ज्ञान की जाँच करने के लिए यह आवश्यक है, क्योंकि माता-पिता यह देखना चाहते हैं कि उनका बालक अपने परिश्रम के अनुकूल लाभ प्राप्त कर रहा है या नहीं। इसकी सूचना परीक्षा के बिना प्राप्त नहीं हो सकती । समाज को भी इसी के द्वारा सन्तुष्ट किया जाता है ।
(ii) पथ-प्रदर्शन के लिए परीक्षा परमावश्यक है।
(iii) सामाजिक तथा आर्थिक जीवन-स्तर स्थापित करने के लिए यह अनिवार्य है।
(iv) छात्रों में श्रेणी-विभाजन, चयन तथा उन्नति के लिए यह आवश्यक
(v) सीखने की प्रक्रिया तथा शिक्षण को प्रोत्साहन देने के लिए भी इसकी आवश्यकता है।
(vi) शिक्षक, विधि पुस्तक, पाठ्यक्रम तथा विषय-सूची की उयोगिता की जाँच करने के लिए भी अत्यन्त अनिवार्य है।
सुधार के लिए सुझाव (Suggestions for Improvement)-इस प्रकार परीक्षा की आवश्यकता पर विचार करने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि इसको समाप्त नहीं किया जा सकता है, वरन् इसमें सुधार प्रकट किये हैं। ये निम्नलिखित है-
(i) वैयक्तिक प्रभाव को कम किया जाय। इसको कम करने के लिए नवीन प्रणाली के प्रश्न प्रयोग में लाये जाएँ।
(ii) परीक्षाकों का चयन सतर्कता से किया जाये। इनमें उन्हीं शिक्षकों को रखा जाय तो उस विषय को पढ़ाते हों।
(iii) बाहा-परीक्षा कम की जाएँ।
(iv) विद्यार्थियों का आन्तरिक अभिलेख (Record) रखा जाय और उनको कक्षोन्नति का आधार बनाया जाय।
(v) प्रश्न ऐसे दिये जाये जो बालकों के विषय-सम्बन्धी समस्त ज्ञान को अधिक र बनाने में सहायक हों।
(vi) शिक्षा तथा परीक्षा में सम्बन्ध हो। परीक्षा का भय उत्पन्न न कर, वरन् वे परीक्षा की अपना सहायक तथा मित्र समझे।
(vii) परीक्षा छात्रों में किसी प्रकार का भय उत्पन्न न कर, वरन् वे परीक्षा को अपना सहायक तथा मित्र समझे।
(viii) परीक्षाएँ निष्पक्ष हों और उनके द्वारा बालक की पूरी-पूरी जाँच की जाय। उसके शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक-सभी प्रकार के विकास की जाँच हो। दो परीक्षकों से वही परीक्षा-पुस्तक ऊंचवानी चाहिए । छात्रों के उत्तरों का अकन निष्पक्षता से किया जाना चाहिए।
(ख) नई प्रणाली या वस्तुनिष्ठ परीक्षण
मनोविज्ञान ने शिक्षा को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण देन प्रदान की है। मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षा की कुछ नवीन विधियाँ निकाली हैं। इन विधियों का प्रयोग आजकल सभी विषयों में लोकप्रिय हो गया है। इन विधियों के अन्तर्गत परीक्षार्थी से छोटे-छोटे प्रश्न पूछे जाते हैं और थोड़े समय में उनका उत्तर देना पड़ता है, ये परीक्षाएँ कई प्रकार की हैं। इन परीक्षाओं द्वारा सत्यासत्य, तिथि-ज्ञान, तथ्य-ज्ञान और विचार-ज्ञान की जाँच छोटे-छोटे प्रश्नों द्वारा ली जाती है। इस प्रणालो में वे सब गुण विद्यमान हैं जो एक उत्तम परीक्षा में होने चाहिए। वस्तुनिष्ठ जाँच में उत्तम परीक्षण के गुण पाये जाते हैं। इन गुणों का विवेचन नीचे दिया जा रहा है-
1. वस्तुनिष्ठता (Objectivity) नवीन प्रणाली को जाँचों में यह गुण पाया जाता वस्तुनिष्ठता का अभिप्राय वैयक्तिक तत्त्वों के निष्कासन से है। प्रश्न के उत्तर को चाहे एक हो परीक्षक जाँचे अथवा अनेक, माप में भिन्नता न हो । प्रश्न ऐसे होने चाहिए जिनके उत्तर एक हो, जिससे परीक्षक का व्यक्तिगत पक्षपात, उसकी मनोवशा, छात्रों को भाषा-शैली आदि का प्रभाव उसके निर्णय पर न पड़ सके।
2. वैधता (Validity)-जिस वस्तु-विशेष की हम जाँच करना चाहते हैं। यदि परीक्षण किसी अन्य वस्तु की जाँच न करके उसी की जाँच करता है तो हम उस परीक्षण को वैध मानते हैं, नवीन प्रणाली के परीक्षणों में यह गुण पाया जाता है। किस सीमा तक शुद्ध एवं सम्यक रूप में जाँची जा सकती है, जिससे हम उसके निर्णयों या
3. विश्वस्तता (Reliability)-परीक्षण द्वारा हम जिस वस्तु को जाँचना चाहते हैं, वह परिणामों पर विश्वास कर सकें। उदाहरणार्थ यदि विश्वसनीय परीक्षण द्वारा किसी छात्र की जाँच की जाती है तो उससे प्राप्त अंकों में कोई वृद्धि या कमी नहीं होनी चाहिए, चाहे उसके प्रयोग में समय का अन्तर क्यों न हो। नवीन प्रणाली की जांच में यह गुण पाया जाता है।
4. अंकन की सरलता (Easy in Scoring)-उत्तम परीक्षणों में अंकन करना सुगम । है। नवीन प्रणाली की जाँचों में यह गुण प्राप्त होता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षण के प्रकार
वस्तुनिष्ठ जाँच निम्नलिखित दो प्रकार की होती है–
(1) प्रमापीकृत वस्तुनिष्ठ जाँच (Standandized Objective Tests),
(ii) अध्यापक निर्मित-वस्तुनिष्ठ जाँच (Teacher-made Objective Tests) | प्रमापीकृत तथा अध्यापक निर्मित जाँचों या परीक्षण में अन्तर केवल इतना है कि प्रथम को प्रभापीकृत करके दिया जाता है और इसका प्रयोग सामान्य रूप से किया जा सकता है। साथ ही इनका निर्माण विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है परन्तु अध्यापक निर्मित परीक्षणों का प्रयोग सामान्य रूप से नहीं किया जाता । इनका प्रयोग विशेष स्थानों पर विशेष परिस्थितियों में हो सकता है, क्योंकि इनका निर्माण विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही किया जाता है।
नवीन प्रणाली या वस्तुनिष्ठ परीक्षण के गुण 
(i) इस प्रणाली द्वारा हम अल्प समय में अनेक तथ्यों की जाँच कर सकते हैं । निबन्धात्मक परीक्षा में हमें इतना अवसर प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि उसकी प्रकृति वर्णनात्मक है।
(ii) इसके द्वारा तथ्यों के ज्ञान की परीक्षा नहीं होती है वरन् कालानुक्रम, तिथि-ज्ञान तथा निर्णय-शक्ति की जाँच भी की जाती है। यह परीक्षा निबन्धात्मक परीक्षा की पर्याप्त मात्रा में पूरक है।
(iii) इसमें भाषा का कार्य-भाग अधिक नहीं होता है जो कि निबन्धात्मक परीक्षा में बहुत बड़ा भाग लेती है। भाषा निबन्धात्मक परीक्षा में परीक्षक को अत्यन्त प्रभावित करती है। निबन्धात्मक परीक्षा के इस दोष को यह परीक्षा दूर करती है।
(iv) इसमें वैयक्तिक प्रभाव को भी समाप्त किया गया है। निबन्धात्मक परीक्षा में परीक्षण का स्वभाव विशेष भाग लेता है परन्तु उसको यहाँ समाप्त कर दिया गया है।
नवीन प्रणाली के दोष
सामाजिक विषयों की जाँच के लिए जब इस प्रणाली का प्रयोग किया गया, तब इसके निम्नलिखित दोष दृष्टिगोचर हुए-
1. इन प्रश्नों के बनाने में अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। सबसे अधिक कठिनाई अपवर्त्य चयन की परीक्षा में होती है क्योंकि सभी मनुष्यों की विचारधाराएँ एक समान नहीं होती हैं, उदाहरणार्थ-शिवाजी (बहादुर, राजनीतिज्ञ, साहसी, विद्वान) थे। इसमें विभिन्न व्यक्तियों की विभिन्न विचारधाराएँ हो सकती हैं क्योंकि मानव-चरित्र जटिलता से पूर्ण है और ऐतिहासिक चरित्र तो विशेष रूप से जटिल होते हैं। उसके विषय में परीक्षक कैसे कह सकता है कि मेरा विचार ही सत्य है ? परन्तु प्रो. घाटे का विचार है कि यदि इतिहास का शिक्षक अपने विद्यार्थियों को योग्यता तथा निष्पक्षता के साथ इनके चरित्र के विषय में ज्ञान देगा तो ऐसी कठिनाई उत्पन्न नहीं होगी । छात्रों में शिक्षक वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करें, जिनसे वे निष्पक्ष निर्णय कर सकें।
2. यह परीक्षा अनुमान लगाने (Guess Work) के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करती है। यह छात्रों को केवल इधर-उधर चिह्न लगाने के लिए अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं सिखाती है। छात्र कहानियों के विषय में कुछ नहीं लिख सकते, क्योंकि उनको लिखने का कार्य कुछ नहीं दिया जाता है। इससे छात्रों को प्रश्नों के उत्तर लिखने का ढंग नहीं सिखाया जा सकता है
3. इसके विरद्ध तीसरा प्रबल आरोप यह है कि इनके प्रयोग द्वारा छात्रों की विचार तर्क आदि शक्तियों का विकास नहीं होता । साधारण प्रश्नों तक ही इनका उपयोग हो सकता है। इसके द्वारा किसी प्रकार की श्रृंखला अथवा क्रमबद्धता स्थापित नहीं की जा सकती। साधारण विचार तथा तर्क-शक्ति निबन्धात्मक परीक्षा से ही छात्रों में उत्पन्न की जा सकती है। वह परीक्षा निबन्धात्मक
परीक्षा का स्थान ग्रहण नहीं कर सकती है और न यह उच्चतर कक्षाओं के लिए उपयुक्त है । इसके द्वारा केवल उसके तथ्य-ज्ञान तथा कालानुक्रम की जाँच की जा सकती है।

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