Pedagogy of civics

B.ED NOTES IN HINDI | B.ED SYLLABUS IN HINDI

B.ED NOTES IN HINDI | B.ED SYLLABUS IN HINDI

वर्तमान पाठ्यक्रम के दोषों की विवेचना करें।
(Discuss the Basic Principles of syllabus construction. Describe the Defects of present curriculum of civics.)
Ans. नागरिक शास्त्र के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक उपयुक्त पाठ्यक्रम का होना परमावश्यक है। इसके अभाव में हम नागरिकशास्त्र के निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। स्वत: ही यह प्रश्न उठता है कि नागरिकशास्त्र के पाठ्यक्रम में किन-किन तथ्यों, सूचनाओं और क्रियाओं आदि को स्थान प्रदान किया जा सके। पाठ्यक्रम के निर्माण के सिद्धान्तों को जानने से पूर्व पाठ्यक्रम के अर्थ को जानना आवश्यक है।
पाठ्यक्रम का अर्थ – ‘करीकुलम’ (Curriculum) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘currere’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है—’Race-Course’ (दौड़ का मैदान) । इस प्रकार. ‘पाठ्यक्रम वह दौड़ का मैदान है, जिस पर बालक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दौड़ता है।” इसके अर्थ को और अधिक स्पष्टक रने के लिए कुछ परिभाषाएँ नीचे दी जा रही हैं-
कनिंघम-“पाठ्यक्रम कलाकार (शिक्षक) के हाथ में एक यंत्र है जससे वह अपनी सामग्री (विद्यार्थी) को अपने आदर्श (लक्ष्य) के अनुसार अपने कलागृह (विद्यालय) में मोड़ता है।” माध्यमिक शिक्षा आयोग – “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है, जो विद्यालय में परम्परागत ढंग से पढ़ाये जाते हैं, वरन् इसमें अनुभवों की वह सम्पूर्णता निहित है जिसको छात्र-विद्यालय, कक्षा-कक्ष, पुस्तकालय, वर्कशॉप, प्रयोगशाला और खेल के मैदान तथा शिक्षकों एवं शिष्यों के अगणित अनौपचारिक सम्पर्कों से प्राप्त करता है, इस प्रकार विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है, जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को
प्रभावित कर सकता है और उनके सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता देता है।”
मुनरो-“पाठ्यक्रम में वे समस्त अनुभव निहित हैं जिनको विद्यालय द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग लाया जाता है।”
रुडयार्ड व क्रॉनबर्ग-“पाठ्यक्रम में, व्यापक रूप में, सम्पूर्ण विद्यालयी वातावरण निहित है। इस वातावरण में विद्यालय द्वारा छात्रों को प्रदान किये जाने वाले समस्त कोर्स, क्रियाएँ, पाठन क्रियाएँ तथा समुदाय आते हैं।”
शिक्षा आयोग-“विद्यालय की देखभाल में उसके अन्दर तथा बाहर अनेक प्रकार के कार्यकलापों से छात्रों को विभिन्न अध्ययन के अनुभव प्राप्त होते हैं, हम विद्यालय पाठ्यक्रम को इन अध्ययन अनुभवों की समष्टि मानते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं को देखने से पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं-
1. पाठ्यक्रम लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन है।
2. पाठ्यक्रम में अनुभवों की सम्पूर्णता निहित है।
3. विद्यालय में तथा विद्यालय के बाहर के अनुभव एवं क्रियाकलाप इसमें आते हैं।
4. पाठ्यक्रम में निहित अनुभवों का प्रयोग शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है।
5. सम्पूर्ण विद्यालयी वातावरण पाठ्यक्रम है।
पाठ्यक्रम-निर्माण के बुनियादी सिद्धान्त– पाठ्यक्रम-निर्माण के प्रमुख सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
1. उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Usefulness)— पाठ्यक्रम निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि उसमें जिन विषयों को स्थान दिया जाय, वे बालक के भावी जीवन के लिए उपयोगी होने चाहिए । इस सम्बन्ध में नन ने लिखा है, “साधारण मनुष्य सामान्यत: यह चाहता है कि उसके बच्चे केवल ज्ञान के प्रदर्शन के लिए कुछ व्यर्थ की बातें सीखें, परन्तु समग्र में वह यह चाहता है कि उनको वे बातें ही सिखायी जाएँ जो भावी जीवन में उनके लिए उपयोगी हों।”
2. रचनात्मक उपलब्धि का सिद्धान्त (Principle of Creative Achievement)- प्रत्येक बालक में किसी-न-किसी क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने की कुछ-न-कुछ योग्यता अवश्य होती है। अत: पाठ्यक्रम को ऐसे अवसर अवश्य देने चाहिए, जिनमें रचनात्मक कार्य की यह योग्यता व्यक्त हो सके। बालक को अपनी रचनात्मक शक्तियों का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। सम्भव है कि प्रारम्भ में उसे अधिक सफलता न मिले । पर यदि उचित निर्देशन दिया जाएगा, तो उसकी रचनात्मक शक्तियों का विकास होगा।
3. जीवन-सम्बन्धी सब क्रियाओं का समावेश का सिद्धान्त (Principle of Inclusion of all Life-activities)- पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय ऐसा प्रयास करना चाहिए कि उसमें से सब क्रियाएँ आ जाएँ, जो प्रत्येक बालक के स्वास्थ्य, विचार, ज्ञान, कुशलता, मूल्यांकन, अभिव्यक्ति, चरित्र और सामाजिक तथा आर्थिक सम्बन्धों को उन्नत बनाएँ । चूंकि हम लोकतन्त्र के सिद्धान्त को स्वीकार कर चुके हैं, इसलिए पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए, जिससे कि बालक प्रारम्भ से ही लोकतन्त्रीय जीवन के ढंग को धीरे-धीरे ग्रहण करते चले जाएँ। अत: यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम में ऐसी क्रियाओं को स्थान दिया जाए, जो लोकतन्त्रीय अनुकूलन में सहायक हो ।
4. अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त (Principle of the Totality of Experiences) – शिक्षा की आधुनिक विचारधारा के अनुसार पाठ्यक्रम का अर्थ केवल सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है, जिन्हें परम्परागत ढंग से पढ़ाया जाता है । पाठ्यक्रम में उन सब अनुभवों को भी स्थान दिया जाता है, जिनको बालक विभिन्न क्रियाओं द्वारा प्राप्त करता है। ये क्रियाएँ- विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, वर्कशॉप, खेल के मैदान तथा शिक्षकों और छात्रों के अगणित अनौपचारिक सम्पर्कों में चालू रहती हैं। इस प्रकार पाठ्यक्रम में विद्यालय के सम्पूर्ण जीवन को समाहित किया जाना चाहिए।
5. विविधता और लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Variety and Elasticity)- पाठ्यक्रम में विविधता और लचीलेपन की आवश्यकता इसलिए है; जिससे कि छात्रों की रुचियों, विभिन्नताओं, दृष्टिकोणों, मनोवृत्तियों और आवश्यकताओं को अनुकूल बनाया जा सके । बालकों पर अनुपयुक्त विषयों को लादने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इससे उनमें निराशा की भावना उत्पन्न होती है। साथ ही उनके सामान्य विकास में बाधा पड़ती है। इसके विपरीत, ज्ञान, कुशलता और मूल्यांकन के कुछ ऐसे विस्तृत क्षेत्र हैं, जिनके सम्पर्क में बालकों को लाना चाहिए । अतः पाठ्यक्रम में इनको प्रथम स्थान देना चाहिए।
पर इनको ऐसी मात्रा में रखना चाहिए कि छात्रों की शक्तियों और क्षमताओं से परे न हो जाएँ।
6. सामुदायिक जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Relationship with Comunity Life)- पाठ्यक्रम का सामुदायिक जीवन से स्पष्ट सम्बन्ध होना चाहिए। पाठ्यक्रम को इस जीवन की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं की व्याख्या करनी चाहिए और बालकों को इसकी कुछ महत्त्वपूर्ण क्रियाओं के सम्पर्क में लाना चाहिए । इसका अर्थ यह है कि पाठ्यक्रम में उत्पादक कार्यों को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए क्योंकि यह कार्य व्यवस्थित मानव-जीवन का आधार है। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम स्थानीय आवश्यकताओं और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए।
7. अवकाश के लिए प्रशिक्षण का सिद्धान्त (Principle of Training for Leisure)- पाठ्यक्रम इस प्रकार बनाना चाहिए कि वह छात्रों को कार्य और अवकाश दोनों के लिए प्रशिक्षित करें। इसलिए अध्ययन के विषयों के साथ-साथ पाठ्यक्रम में अन्य क्रियाओं को भी स्थान देना चाहिए; जैसे-खेलकूद, सामाजिक और सौन्दर्यात्मक क्रियाएँ आदि । ये क्रियाएँ बालकों को अपने अवकाश का सदुपयोग करने के लिए प्रशिक्षित करेंगी।
8. क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Activity)- शिक्षाशास्त्रियों का विचार है कि शिक्षा के पाठ्यक्रम में ‘चार एच’ (Four H) को स्थान मिलना चाहिए, अर्थात् ‘स्वास्थ्य’ (Health), मस्तिष्क (Head), हाथ (Hand) तथा ‘हृदय’ (Heart) की शिक्षा बालकों की दी जानी चाहिए। प्रयोजनवाद के अनुसार भी पाठ्यक्रम में ‘हाथ’ तथा ‘मस्तिष्क’ की शिक्षा का समन्वय होना चाहिए, क्योंकि बालक प्रकृति के अनुसार सक्रिय होता है, इसलिए यह अनिवार्य है कि उसको क्रियाशील बनाये रखने के लिए पाठ्यक्रम में विभिन्न क्रियाओं को स्थान दिया जाये। दूसरे शब्दों में, पाठ्यक्रम को प्रायोगिक एवं व्यावहारिक बनाया जाना चाहिए।
9. वैयक्तिक आवश्यकताओं का सिद्धान्त (Principle of Individual Needs)- पाठ्यक्रम निर्माताओं को मुख्य रूप से निम्नलिखित दो प्रकार की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए-
(अ) ‘स्व’ की आवश्यकताएँ—ये व्यक्ति को कार्य करने के लिए उत्प्रेरित करती हैं।
(ब) वे आवश्यकताएँ जो वयस्कों की दृष्टि में बालकों के लिए अनिवार्य हैं।
उपर्युक्त के अतिरिक्त व्यक्ति की सुरक्षा की आवश्यकता को भी ध्यान में रखना चाहिए।
नागरिकशास्त्र में अधिगमानुभवों एवं विषय-वस्तु का चयन
पाठ्यक्रम-निर्माताओं की सहायता के लिए बर्टन तथा डी. के. ह्वीलर ने अधिगमानुभवों (Learning experiences) के चयन के मानदण्ड या निष्कर्ष (Criterion) प्रस्तुत किये हैं जिनको नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है-
बर्टन का मानदण्ड–इसके अनुसार अधिगमानुभवों को निम्नलिखित छः शर्ते पूरी करनी चाहिए-
(i) वे छात्रों की दृष्टि में उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाने योग्य हों।
(ii) वे शिक्षकों की दृष्टि में वांछनीय सामाजिक उद्देश्यों की ओर ले जाने वाले हों।
(iii) उनमें छात्र के सन्तुलित विकास के लिए विभिन्न प्रकार की वैयक्तिक तथा वर्गगत प्रवृत्तियों का समावेश हो।
(iv) वे वर्ग के परिपक्वता स्तर के लिए उपयुक्त हों।
(v) उनका आयोजन विद्यालय तथा समाज की उपलब्ध साधन-सुविधाओं के द्वारा किया जाना सम्भव है।
(vi) उनमें वैयक्तिक भेदों की दृष्टि से इतनी विविधता हो कि वर्ग के सभी सदस्यों को उपर्युक्त प्रवृत्तियाँ प्राप्त हो सकें।
ह्वीलर का मापदण्ड—यह मापदण्ड अधिक वैज्ञानिक तथा व्यापक है। इसके निम्नलिखित सात बिन्दु हैं-
1. वैधता- किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम का उद्देश्य बालकों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाना होता है। अत: किसी भी अधिगमानभव का चयन करते समय यह ध्यान रखना परमावश्यक है कि वह अपेक्षित उद्देश्य से सम्बन्धित हो । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उन सीखने के अनुभवों का चयन किया जाय जो उद्देश्यों की पूर्ति में सहायता प्रदान कर सकें।
2. व्यापकता – पाठ्यक्रम के लिए उन अधिगमरानुभवों का चयन किया जाए जो घोषित प्रत्येक उद्देश्य के लिए उपयुक्त अनुभव प्रदान कर सकें और व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन ला सकें।
3. विविधता— वैयक्तिक भेद (Individual difference) आज एक सर्वमान्य तथ्य है और अधिगम के क्षेत्र में किये गये अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि छात्रों के लिए न केवल भिन्न-भिन्न प्रकार के अधिगमों की ही आवश्यकता है वरन वे भिन्न-भिन्न विधियों से सीखते हैं। साथ ही उनकी सीखने की गति भी भिन्न होती है। अतः यह स्थिति अधिगमानुभवों की विविधता की माँग करती है। इन अनुभवों में जितनी विविधता होगी उतनी ही अधिक इस बात की सम्भावना होगी कि बालक को ऐसी अनुकूल क्रियाएँ प्राप्त हो सकें जो उसे अपेक्षित दिशा में प्रगति करने के योग्य बना सकें।
4. उपयुक्तता— छात्रों के लिए प्रस्तुत किये जाने वाले अनुभव उपयुक्त हों। यह उपयुक्तता वैयक्तिक तथा वर्ग स्तर अथवा दोनों ही दृष्टि से होनी चाहिए।
5. प्रतिमान – शिक्षा के उद्देश्यों के समान ही किसी विद्यालय द्वारा प्रस्तुत अधिगमानुभवों में भी पारस्परिक सम्बन्ध तथा तारतम्य बना रहना परमावश्यक है। इस प्रकार के सम्बन्ध तथा तारतम्य को प्रतिमान कहा जाता है। यह प्रतिमान ही औपचारिक शिक्षा का मूल तत्त्व है। इसके द्वारा ही औपचारिक शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा से पृथक् हो जाती है। प्रतिमान के प्रमुख पक्ष हैं-
(i) सन्तुलन, (ii) अविच्छिन्नता, (iii) संचय, (iv) अधिगमानुभवों की पुनरावृत्ति तथा (v) बहुल अधिगम।
6. जीवन से तादात्म्य- शैक्षिक अनुभवों को तभी क्रियात्मक माना जा सकता है जब उनका वास्तविक जीवन के साथ अधिकतम और समीपतम सम्बन्ध हो। यह सम्बन्ध वर्तमान तथा भावी दोनों प्रकार के जीवन से होना चाहिए।
7. छात्रों का सहभागीत्व- अधिगमानुभवों के आयोजन में छात्रों को भी सहभागी बनाया जाना चाहिए। ऐसा न करके से छात्र उनमें स्वेच्छा से भाग नहीं ले सकेगा। वह इनमें अनमने ढंग एवं दबाव के कारण भाग लेगा। परिणामस्वरूप वह समझदारी के स्थान पर प्राप्त सूचना को रटने का प्रयास करेगा जिसे वह जल्दी ही भुला देगा।
पाठ्य-वस्तु का चयन
ज्ञान की विशालता तथा मानव की सीमित क्षमता ने किसी भी पाठ्यक्रम के लिए पाठ्य-वस्तु या विषय-वस्तु (Content) के चयन की आवश्यकता पर बल दिया है। प्रश्न यह उठता है कि विषय-वस्तु का चयन कैसे किया जाए ? अथवा इस चयन का मूल आधार क्या है ? पाठ्यक्रम के लिए विषय-सामग्री के चयन में मानव उपयोगिता तथा सार्थकता को आधार बनाने का प्रयास करना है । ऐतिहासिक दृष्टिसे देखें तो विषय-वस्तु का निर्धारण आदिकाल से शैक्षिक उद्देश्यों के अनुकूल किया जाता रहा है। परन्तु आधुनिक शताब्दी में इसके चयन के प्रति सजगता एवं जागरूकता बढ़ी है। डी. के. हीलर ने पाठ्य-वस्तु के चयन के लिए एक मानदण्ड दिया है जो दो भागों में विभक्त है-1. मुख्य तथा 2. गौण । इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-
1. मुख्य मानदण्ड- इसके अन्तर्गत दो बिन्दुओं को रखा गया है। प्रथम बिन्दु वैधता तथा द्वितीय बिन्दु महत्त्व है। वैधता नामक बिन्दु के अन्तर्गत निम्न बातों को लिया गया है-
1. अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता प्रदान करने वाली विषय-वस्तु को वैध माना गया है। अतः हम पहले उद्देश्यों का निर्धारण करें और तब उनकी पूर्ति के लिए उपयुक्त विषय-वस्तु का चयन करें।
2. विषय-वस्तु प्रामाणिक हो ।
महत्त्व– किसी पाठ्य-वस्तु के महत्त्व का निर्धारण करते समय पाठ्यक्रम आयोजक को निम्नलिखित दो बातों को जानना आवश्यक है
(अ) उस विषय की मूलभूत संकल्पनाएँ एवं धारणाएँ क्या हैं ?
(ब) उस विषय से सम्बन्धित वे कौन-से सिद्धान्त हैं जो उसकी सीमाओं को पार करके
अन्य क्षेत्रों तक भी पहुँचाते हैं ?
2. गौण मानदण्ड- ह्वीलर ने इसमें निम्नलिखित तीन बिन्दुओं को रखा है-
(अ) छात्र की आवश्यकताएँ तथा अभिरुचियाँ— पाठ्य-वस्तु का चयन छात्रों की आवश्यकताओं तथा अभिरुचियों को आधार बनाकर किया जाना चाहिए।
(ब) उपयोगिता— उसी विषय-वस्तु का चयन किया जाना चाहिए जो छात्रों की वर्तमान तथा भावी समस्याओं का समाधान करने में सहायक हो।
(स) अधिगम योग्यता— विषय-वस्तु का चयन करते समय छात्रों की सीखने की योग्यता तथा काठिन्य स्तर को आधार बनाया जाना चाहिए।
नागरिकशास्त्र के वर्तमान पाठ्यक्रम के दोष- यदि हम नागरिकशास्त्र के वर्तमान पाठ्यक्रम का पाठ्यक्रम-निर्माण के विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर विश्लेषण करें तो उसमें निम्नलिखित दोष दिखायी पड़ते हैं-
1. वर्तमान पाठ्यक्रम का एक दोष यह है कि इसका आधार सम्पूर्ण विद्यालय वातावरण नहीं है । यह छात्रों में उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण विकसित करने में असमर्थ रहता है। इसका अध्ययन करने के बावजूद बालकों का दृष्टिकोण संकीर्ण बना रहता है। वे सार्वजनिक हित के लिए अपने व्यक्तिगत हितों को त्यागने में असमर्थ रहते हैं। अत: वर्तमान पाठ्यक्रम केवल
छात्रों को अगली कक्षा में प्रवेश पाने के योग्य बना पाता है। इस प्रकार इसका दृष्टिकोण अति संकुचित है।
2. माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार वर्तमान पाठ्यक्रम अत्यधिक सैद्धान्तिक एवं पुस्तकीय है। वस्तुत: नागरिकशास्त्र का वर्तमान पाठ्यक्रम छात्रों को केवल सैद्धान्तिक ज्ञान तो प्रदान कर देता है, परन्तु वह उनको व्यावहारिक ज्ञान एवं प्रशिक्षण प्रदान नहीं कर पाता । जबकि नागरिकशास्त्र वास्तविक जीवन की ठोस परिस्थितियों से सम्बन्धित है। इस पाठ्यक्रम में उन तथ्यों, सूचनाओं आदि को स्थान दिया गया जिनको जानने के लिए छात्रों को पुस्तकों पर अधिक निर्भर रहना पड़ता है। इस कारण पाठ्यक्रम पुस्तकीय बन गया है।
3. वर्तमान पाठ्यक्रम में समृद्ध एवं महत्त्वपूर्ण विषय-सूचियों का अभाव-सा है।
4. नागरिकशास्त्र का वर्तमान पाठ्यक्रम वैयक्तिक विभिन्नताओं की पूर्ति करने में असमर्थ है। इसमें मंदबुद्धि तथा कुशाग्रबुद्धि वाले छात्रों के लिए प्रावधान नहीं पाया जाता है।
5. नागरिकशास्त्र का प्रचलित पाठ्यक्रम परीक्षाओं से अधिकृत है। यह छात्रों को कुछ परीक्षाएं पास करने के लिए भले ही तैयार करे परन्तु यह नागरिकशास्त्र-शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य लोकतान्त्रिक नागरिकता के विकास को प्राप्त करने में कोई सहायता नहीं दे रहा है-इतिहास इस बात का साक्षी है कि 1947 से आज तक हम दो सन्ततियों का निर्माण कर चुके हैं जिन पर वर्तमान समाज के संचालन का भार है। आप स्वयं विचार करके देखें कि हमने जिन सन्ततियों का निर्माण किया है, वे अपने दायित्वों का निर्वाह किस प्रकार कर रही है।
6. वर्तमान पाठ्यक्रम जीवन की ठोस परिस्थितियों से सम्बन्धित नहीं है। यह छात्रों को सामाजिक एवं नागरिक जीवन में उचित प्रकार से व्यवस्थित होने के लिए तैयार नहीं कर पाता । यह छात्रों को जीवन के संघर्षों, थपेड़ों आदि का मुकाबला करने के योग्य नहीं बना पाता।
7. नागरिकशास्त्र का वर्तमान पाठ्यक्रम क्रिया-प्रधान न होकर मात्र सूचनाओं को प्रदान करता है।
8. प्रचलित पाठ्यक्रम लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुरूप नहीं है जबकि इसे छात्रों को लोकतन्त्रीय शासन तथा जनतन्त्रीय जीवन के ढंग के लिए तैयार करना है।
9. वर्तमान पाठ्यक्रम आवृत्ति और स्मृति पर अधिक बल देता है। इसमें मौलिकता तथा सृजनात्मकता के विकास के लिए कोई स्थान नहीं है।
10. माध्यमिक विद्यालयों का वर्तमान पाठ्यक्रम विश्वविद्यालयी आवश्यकताओं की पूर्ति में संलग्न है।
11. वर्तमान पाठ्यक्रम शिक्षा के अनौपचारिक साधनों— प्रेस, समाचार-पत्र, रेडियो, टेलीविजन आदि के प्रति उदासीन है। इसमें उनके प्रयोग के लिए बहुत कम अवसर है।
12. वर्तमान पाठ्यक्रम वयस्कों के आदर्शों व मूल्यों के अनुकूल निर्मित किया गया है। इसमें छात्रों की आवश्यकताओं तथा उनकी मान्यताओं के लिए स्थान नहीं है।

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