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CTET NOTES IN HINDI | विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध

CTET NOTES IN HINDI | विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध

विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध

विकास
Development
◆ विकास एक सार्वभौमिक (Universal) प्रक्रिया है, जो जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त तक अविराम होता रहता है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता बल्कि इसके अंतर्गत वे सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त तक निरंतर प्राणी में प्रकट होते रहते हैं।
◆ विकास को ‘क्रमिक परिवर्तनों की श्रृंखला’ भी कहा जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है तथा पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है। प्रौढ़ावस्था में पहुँचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है
वे विकास की प्रक्रिया के ही परिणाम होते हैं।
हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह ‘व्यवस्थित’ तथा ‘समनुगत’ (Coherent Pattern) परिवर्तन है, जिसमें कि प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है,
जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ व योग्यताएँ प्रकट होती हैं।” ‘व्यवस्थित’ (Orderly) शब्द का तात्पर्य यह है कि विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तनों में कोई-न-कोई क्रम अवश्य होता है और आगे वाले परिवर्तन पूर्व परिवर्तन पर आधारित होता है। ‘समनुगत’ (Coherent Pattern) शब्द का अर्थ है परिवर्तन संबंधविहीन नहीं होते हैं उनमें आपस में परस्पर संबंध होता है।
मुनरो (Munro) के अनुसार, “विकास परिवर्तन-शृखंला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।”
◆ विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तन वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों तथा वातावरण दोनों का ही परिणाम होता है। विकास की प्रक्रिया में होनेवाले शारीरिक परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है किन्तु अन्य दिशाओं में होनेवाले परिवर्तनों को
समझने में समय लग सकता है।
विकास के रूप
Forms of Development
विकास की प्रक्रिया चार प्रकार के होते हैं-
(a) आकार में परिवर्तन (Change in Size): शारीरिक विकास क्रम में निरंतर शरीर के आकार में परिवर्तन होता रहता है। आकार में होनेवाले परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है। शारीरिक विकास क्रम में आयु वृद्धि के साथ-साथ शरीर के आकार व भार में निरंतर परिवर्तन होता रहता है।
(b) अनुपात में परिवर्तन (Change in Proportion) : विकास क्रम में पहले आकारों में परिवर्तन होता है लेकिन यह परिवर्तन आनुपातिक होता है। प्राणी के शरीर के सभी अंग विकसित नहीं होते हैं और न ही उनमें एक साथ परिपक्वता आती है। अतः सभी अंगों के विकास का एक निश्चित अनुपात नहीं होता है।
उदाहरण—शैशवावस्था में बालक स्वकेंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था के आते-आते वह अपने आस-पास के वातावरण तथा व्यक्तियों में रुचि लेने लगता है।
(c) पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन (Disappearance of Old Features): प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषताओं का लोप होता रहता है। उदाहरण-बचपन के बालों और दाँतों का समाप्त हो जाना बचपन की अस्पष्ट ध्वनियाँ, खिसकना, घुटनों के बल चलना, रोना, चिल्लाना इत्यादि गुण समाप्त हो जाते हैं।
(d) नये गुणों की प्राप्ति (Aquisition of New Features) : विकास-क्रम में जहाँ एक तरफ पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वहीं उसका स्थान नये गुण प्राप्त कर लेते हैं। जैसे कि स्थायी दाँत निकलना, स्पष्ट उच्चारण करना, उछलना-कूदना और भागने- दौड़ने की क्षमताओं का विकास इत्यादि विकास-क्रम में नये गुण के रूप में प्राप्त होते हैं।
विकास के सिद्धांत
Principles of Development
विकास सार्वभौमिक तथा निरंतर चलती रहनेवाली क्रिया है, लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है। इन नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक व मानसिक क्रियाएँ विकसित होती रहती हैं। विकास के कुछ प्रमुख नियम
निम्नलिखित हैं-
1. विकास का एक निश्चित प्रतिरूप होता है (Development Follows a Certain Pattern) : मुनष्य का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है-मस्तकाधोमुखी दिशा तथा निकट दूर दिशा।
★ मस्तकाधोमुखी विकास क्रम (Cephalocaudal Development Sequence)में शारीरिक विकास ‘सिर से पैर की ओर’ होता है। भ्रूणावस्था से लेकर बाद की सभी अवस्थाओं में विकास का यही क्रम रहता है।
★ निकट दूर विकास क्रम (Proximodistal Development Sequence) में शारीरिक विकास पहले केंद्रीय भागों में प्रारंभ होता है तत्पश्चात केंद्र से दूर के भागों में होता है। उदाहरण के लिए पेट और धड़ में क्रियाशीलता जल्दी आती है।
2. विकास सामान्य से विशेष की ओर होता है (Development Proceeds form General to Specific) : विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रियाएँ करता है तत्पश्चात् विशेष क्रियाओं की ओर अग्रसर होता है। विकास का यह नियम शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक सभी प्रकार के विकास पर लागू होता है।
3.विकास अवस्थाओं के अनुसार होता है (Development Proceeds by Stages): सामान्य रूप से देखने पर ऐसा लगता है कि बालक का विकास रुक-रुक कर हो रहा है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। उदाहरण के लिए जब बालक के दूध के दाँत निकलते हैं तो ऐसा लगता है कि एकाएक निकल आये परंतु नींव गर्भावस्था के पाँचवें माह में पड़ जाती है और 5-6 माह में आते हैं।
4. विकास में व्यक्तिगत विभेद सदैव स्थिर रहते हैं (Individual Differences Remain Constant in Development): प्रत्येक बालक की विकास दर तथा स्वरूपों में व्यक्तिगत विभिन्नता पायी जाती है। उदाहरण के लिए, जिस बालक में शारीरिक क्रियाएँ जल्दी उत्पन्न होती हैं वह शीघ्रता से बोलने भी लगता है जिससे उसके भीतर सामाजिकता का विकास तेजी से होता है । इसके विपरीत जिन बालकों के शारीरिक विकास की गति मंद होती है उनमें मानसिक तथा अन्य प्रकार का विकास भी देर से होता है। अतः प्रत्येक बालक में शारीरिक व मानसिक योग्यताओं की मात्रा भिन्न-भिन्न होती
है। इस कारण समान आयु के दो बालक व्यवहार में समानता नहीं रखते हैं।
5. विकास की गति में तीव्रता व मंदता पायी जाती है (Development Proceeds in a Spiral Fashion): किसी भी प्राणी का विकास सदैव एक ही गति से आगे नहीं बढ़ता है, उसमें निरंतर उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। उदाहरण के लिए विकास की अवस्था में यह गति तीव्र रहती है उसके बाद में मंद पड़ जाती है।
6. विकास में विभिन्न स्वरूप परस्पर संबंधित होते हैं (Various Forms are Inter-Related in Development):
7. विकास परिपक्वता और शिक्षण का परिणाम होता है (Development Results from Maturation and Learning): बालक का विकास चाहे शारीरिक हो या मानसिक वह परिपक्वता व शिक्षण दोनों का परिणाम होता है।
★ ‘परिपक्वता’ से तात्पर्य व्यक्ति के वंशानुक्रम द्वारा शारीरिक गुणों का विकास है। बालक के भीतर स्वतंत्र रूप से एक ऐसी क्रिया चलती रहती है, जिसके कारण उसका शारीरिक अंग अपने-आप परिपक्व हो जाता है। उसके लिए वातावरण से
सहायता नहीं लेनी पड़ती है।
★ शिक्षण और अभ्यास परिपक्वता के विकास में सहायता प्रदान करते हैं। यह सीखने के लिए परिपक्व आधार तैयार करते है और सीखने के द्वारा बालक के व्यवहार में प्रगतिशील परिवर्तन आते हैं।
8. विकास एक अविराम प्रक्रिया है (Development is Continuous Process): विकास एक अविराम प्रक्रिया है, प्राणी के जीवन में यह निरंतर चलती रहती है। उदाहरण के लिए-शारीरिक विकास गर्भावस्था से लेकर परिपक्वावस्था तक निरंतर चलता रहता है परंतु आगे चलकर वह उठने-बैठने, चलने-फिरने और दौड़ने-भागने की क्रियाएँ करने लगता है।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक
Factors Affecting of Development
बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
1. वंशानुक्रम (Heredity) : डिंकमेयर (Dinkmeyer, 1965) के अनुसार, “वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से ही पायी जाती हैं। प्राणी के विकास में वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्व होने के कारण प्राणी के मौलिक स्वभाव और उनके जीवन-चक्र की गति को नियन्त्रित करती हैं।”
★ प्राणी का रंग, रूप, लंबाई, अन्य शारीरिक विशेषताएँ, बुद्धि, तर्क, स्मृति तथा अन्य मानसिक योग्यताओं का निर्धारण वंशानुक्रम द्वारा ही होता है।
★ माता के रज तथा पिता के वीर्य कणों में बालक का वंशानुक्रम निहित होता है। गर्भाधान के समय जीन (Genes) भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त होते हैं। ये जीन ही वंशानुक्रम के वाहक हैं। अतः एक ही माता-पिता की संतानों में भिन्नता दिखायी देती है, यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) है ।
★ प्रतिगमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता-पिता की संतानें दुर्बल बुद्धि के भी हो सकते हैं।
2. वातावरण (Environment): वातावरण में वे सभी बाह्य शक्तियाँ, प्रभाव, परिस्तिथियाँ आदि सम्मिलित हैं, जो प्राणी के व्यवहार, शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं। अन्य क्षेत्रों के वातावरण की अपेक्षा बालक के घर का वातावरण उसके विकास को सर्वाधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।
3. आहार (Nutrition): माँ का आहार गर्भकालीन अवस्था से लेकर जन्म के उपरांत तक शिशु के विकास को प्रभावित करता है। आहार की मात्रा की अपेक्षा आहार में विद्यमान तत्व बालक के विकास को अधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।
4.रोग (Disease): शारीरिक बीमारियाँ भी बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती हैं। बाल्यावस्था में यदि कोई बालक अधिक दिनों तक बीमार रहता है तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
5. अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands): बालक के अंदर पायी जानेवाली ग्रन्थियों से जो स्राव निकलते हैं, वे बालक के शारीरिक और मानसिक विकास तथा व्यवहार को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।
★ पैराथाइराइड ग्रन्थि से जो स्राव निकलता है उस पर हड्डियों तथा दाँतों का विकास निर्भर करता है। बालक के संवेगात्मक व्यवहार और शांति को भी इस ग्रंथ का स्राव प्रभावित करता है।
★ बालक की लंबाई का संबंध थॉइराइड ग्रन्थि के स्राव से होता है। पुरुषत्व के लक्षणों (जैसे—दाढ़ी, मूंछे और पुरुष जैसी आवाजें) तथा स्त्रीत्व के लक्षणों का विकास जनन ग्रंथियों (Gonad Glands) पर निर्भर करता है।
6. बुद्धि (Intelligence): बालक का बुद्धि भी एक महत्वपूर्ण कारक है, जो बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। तीव्र बुद्धि वाले बालकों का विकास मंद बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से होता है। दुर्बल बुद्धि वाले बालकों में बुद्धि का विकास तीव्र बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा मंद गति से होता है तथा विभिन्न विकास प्रतिमान अपेक्षाकृत अधिक आयु-स्तरों पर पूर्ण होते हैं।
7. यौन (Sex): यौन-भेदों का भी शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा कम लंबी उत्पन्न होती हैं परंतु वयःसंधि अवस्था के प्रारंभ होते ही लड़कियों में परिपक्वता के लक्षण लड़कों की अपेक्षा शीघ्र विकसित होने लगता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का मानसिक विकास भी कुछ पहले पूर्ण हो जाता है।
विकास की विभिन्न अवस्थाएँ
Stages of Development
विभिन्न वैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं को अलग-अलग प्रकार से वर्गीकृत
किया है। ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-
» रॉस के अनुसार विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
(a) शैशवावस्था          — 1-3 वर्ष
(b) पूर्व बाल्यावस्था    —  3-6 वर्ष
(c) उत्तर-बाल्यावस्था  —  6-12 वर्ष
(a) किशोरावस्था        — 12-18 वर्ष
★ बाल विकास और बाल अध्ययन की दृष्टि से हरलॉक के द्वारा किया गया वर्गीकरण सामान्य माना गया है। इनके अनुसार विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
1. गर्भावस्था।                    गर्भाधान से जन्म तक
2. शैशवावस्था।                 जन्म से दो सप्ताह तक
3. बचपनावस्था                 तीसरे सप्ताह से दो वर्ष तक
4. पूर्व-बाल्यावस्था।           तीसरे वर्ष से छह वर्ष तक
5. उत्तर-बाल्यावस्था।         सातवें वर्ष से बारह वर्ष तक
6. वयःसंधि।                     बारह वर्ष से चौदह वर्ष तक
7. पूर्व-किशोरावस्था।         तेरह से सतरह वर्ष तक
8. उत्तर-किशोरावस्था।       अठारह से इक्कीस वर्ष तक
9. प्रौढ़ावस्था।                   इक्कीस से चालीस वर्ष तक
10. मध्यावस्था।                इकतालीस से साठ वर्ष तक
11. वृद्धावस्था                  साठ वर्ष के बाद
★ इस प्रकार वैज्ञानिकों ने विकास को विभिन्न अवस्थाओं में विभक्त किया है।
1. गर्भकालीन अवस्था (Prenatal Period): यह अवस्था गर्भाधान से जन्म के समय तक मानी जाती है। इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
★ इस अवस्था में विकास की गति अन्य अवस्थाओं से तीव्र होती है।
◆ समस्त रचना, भार और आकार में वृद्धि तथा आकृतियों का निर्माण इसी अवस्था में होता है।
★ इस अवस्था में होनेवाले परिवर्तन मुख्यतः शारीरिक ही होते हैं।
2. शैशवावस्था (Infancy): जन्म से लेकर 15 दिन की अवस्था को शैशवास्था कहा जाता है। इस अवस्था को ‘समायोजन’ (Adjustment) की अवस्था भी कहा जाता है। उसकी उचित देखभाल के द्वारा नये वातावरण के साथ समायोजन माता-पिता द्वारा किया जाता है।
3. बचपनावस्था (Babyhood): यह अवस्था दो सप्ताह से होकर दो वर्ष तक चलती है। यह अवस्था दूसरों पर निर्भर होने की होती है। संवेगात्मक विकास की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चे के भीतर लगभग सभी प्रमुख संवेग जैसे—प्रसन्नता, क्रोध, हर्ष, प्रेम, घृणा आदि विकसित हो जाते हैं। यह अवस्था संवेग-प्रधान होती है।
4. बाल्यावस्था (Childhood): यह अवस्था शारीरिक एवं मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। अध्ययन की दृष्टि से इसे दो भागों में बाँटा गया है-
(a) पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood):   2 से 6 वर्ष
(b) उत्तर बाल्यावस्था (Late Childood):   7 से 12 वर्ष
★ इस अवस्था में बालकों में ‘जिज्ञासु’ (Curiosity) प्रवृति अधिक हो जाती है, जिससे वह अपने माता पिता शिक्षकों से तरह-तरह के सवाल करता है।
★ बाल्यावस्था में बालकों में ‘समूह-प्रवृति’ (Gregariousness) का विकास होता है। बच्चे साथियों के साथ रहना और खेलना अधिक पसंद करते हैं।
5. वयःसंधि (Puberty): वयःसंधि बाल्यावस्था और किशोरावस्था को मिलाने में सेतु का कार्य करती है। यह अवस्था बहुत कम समय की होती है लेकिन शारीरिक विकास की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण अवस्था है।
★ इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है यौन अंगों की परिपक्वता का विकास । बालिकाओं में यह अवस्था सामान्यतः 11 से 13 वर्ष के बीच प्रांरभ हो जाती है और बालकों में 12 से 13 वर्ष के बीच ।
6. किशोरावस्था (Adolescence): यह अवस्था 13 वर्ष से प्रारंभ होकर 21 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में बाँटा गया है-
(a) पूर्व-किशोरावस्था (Early Adolescence)     — (13-16 वर्ष)
(b) उत्तर-किशोरावस्था (Late Adolescence)   — (17-21 वर्ष)
★ इस अवस्था में बालकों में समस्या की अधिकता, कल्पना की अधिकता और सामाजिक अस्थिरता होती है। इस समय किशोरों को शारीरिक एवं मानसिक समायोजन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शारीरिक और मानसिक परिवर्तन के फलस्वरूप उनके संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक जीवन का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है।
7. प्रौढ़ावस्था (Adulthood): किशोरावस्था के पश्चात 21 से 40 वर्षों की अवस्था प्रौढ़ावस्था कहलाती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्यों को पाने की कोशिश करता है। यह पारिवारिक जीवन में प्रवेश की अवस्था है।
8. मध्यावस्था (Middle Age): 41 से 60 वर्ष की आयु को मध्यावस्था माना गया है। इस अवस्था में प्राणी के अंदर शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। इस समय व्यक्ति सुख-शांति व प्रतिष्ठा से जीने की कामना करता है। सामाजिक संबंधों के प्रति
भी मनोवृत्तियाँ दृढ़ हो जाती हैं।
9.वृद्धावस्था (Old Age): जीवन की अंतिम अवस्था वृद्धावस्था है, जो 60 वर्ष से प्रारंभ होकर जीवन के अंत समय तक मानी जाती है। यह अवस्था ‘हास’ की अवस्था होती है। इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का ह्रास होने लगता है।
स्मरण शक्ति कम होने लगती है।
परीक्षोपयोगी तथ्य
● विकास गर्भाधान से लेकर जीवनपर्यन्त तक चलता है।
विकास में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक, मानसिक और संवेगात्मक होते हैं।
● विकास में होनेवाले परिवर्तन गुणात्मक होते हैं।
● विकास-क्रम प्राणी को परिपक्वावस्था प्रदान करता है।
● विकास परिपक्वता और परिवर्तनों की श्रृंखला है।
● विकास को क्रमिक परिवर्तनों की शृंखला कहा जाता है। इसके फलस्वस्थ व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है और पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है।
● विकास में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक और विनाशात्मक दोनों प्रकार के होते ।।
● प्रारंभिक अवस्था में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक (Constructive) होते हैं। उत्तरार्द्ध में होनेवाले परिवर्तन विनाशात्मक (Dostructive) होते हैं।
● रचनात्मक परिवर्तन प्राणी में परिपक्वता लाते हैं और विनाशात्मक परिवर्तन उसे वृद्धावस्था (Maturity) की ओर ले जाते हैं।
● मानव का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है मस्तकाथोमुखी विकास और निकट दूर विकास क्रम ।
● मस्तकाधोमुखी विकास सिर से पैर की ओर होता है।
● भ्रूणावस्था में पहले सिर का विकास होता है बाद में धड़ तथा निचले भागों का विकास होता है।
● निकट दूर विकास क्रम में शारीरिक विकास पहले केन्द्रीय भागों में प्रारंभ होता है इसके बाद केन्द्र से दूर के भागों में होता है।
● विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रिया करता है इसके बाद विशेष क्रिया की ओर अग्रसर होता है।
● प्रत्येक बालक की विकास दर तथा प्रतिमानों में व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Difference) पायी जाती है।
● शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति समान नहीं होती है।
● विकास परिपक्वता और शिक्षण दोनों का परिणाम होता है।
● बालक के विकास में पोषण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संतुलित और पौष्टिक भोजन (प्रोटीन, वसा, खनिज लवण, विटामिन) शारीरिक व मानसिक विकास में सहायक होता है।
◆ बालक के विकास को प्रभावित करनेवाले तत्व है- पोषण (Nutrition), बुद्धि (Intelligence), यौन (Sex), अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands), प्रजाति (Race), रोग एवं चोट (Disease and Injuries), घर का वातावरण (Family
Environment), पास-पड़ोस का वातावरण (Neighbourhood Environment) विद्यालय का वातावरण (School Environment), सांस्कृतिक वातावरण (Cultural Environment) तथा शुद्ध वायु एवं प्रकाश (Fresh Air and Light)
◆ शैशवावस्था शिशु के ‘समायोजन की अवस्था’ कहलाती है, क्योंकि इस अवस्था में शिशु गर्भाशय के आन्तरिक वातावरण से निकलकर बाहा वातावरण के साथ समायोजन का प्रयास करता है।
◆ विकास के क्रम में शैशवावस्या की मुख्य विशेषताएँ ।- अपरिपक्वता, पराश्रितता (Dependency), संवेगशीलता (Emotionality), व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences) इत्यादि ।
● बचपनावस्था की विशेषताएँ होती हैं-खतरनाक अवस्था (Dangerous Stage), अजीबोगरीब अवस्था (Critical Stage), आत्मनिर्भरता की अवस्था (Period of Independency), उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास (Gradual Growth and Development), पुनरावृत्ति की प्रवृत्ति (Tendency of Repetition), आत्मकेन्द्रित (Self Centered) और स्वप्रेमी, नैतिकता का अभाव (Lackof Morality), अनुकरण की प्रवृत्ति (Tendency of Imitation), मानसिक प्रक्रियाओं के विकास में तीव्रता,
सामाजिक भावना का उदय (Development of Social Felling) |
● पूर्व बाल्यावस्था को तीव्र विकास की अवस्था, स्कूल पूर्व की अवस्था, समूह पूर्व की अवस्था और जिज्ञासु प्रवृति की अवस्था कही जाती है।
● पूर्व बाल्यावस्था में बालक अपनी क्रियाओं में हस्तक्षेप करना पसन्द नहीं करता है, विद्रोह की भावना की प्रवृति पायी जाती है। वह स्वतंत्र रूप से अपने अनुसार कार्य करना चाहता है।
● विकास के क्रम में उत्तर बाल्यावस्था को प्रारम्भिक स्कूल की आयु (Elementary School Age), चुस्ती की आयु (SmartAge), गन्दी आयु (Dirty Age), समूह आयु (Gang Age), सारस अवस्था और नैतिक विकास की आयु (Age of Morality) इत्यादि की अवस्था कहा जाता है।
● विकास के क्रम में किशोरावस्था को सुनहरी अवस्था कहा जाता है।
● किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ हैं-
       ★ यह परिवर्तन की अवस्था है।
       ★ इस अवस्था में ‘विषमलिंगी भावना’ का विकास होता है।
       ★ इस अवस्था में बालक में कल्पना की प्रधानता होती है।
       ★ यह तनाव और परेशानी की अवस्था है।
       ★ यह पूर्ण वृद्धि की अवस्था कहलाती है।
       ★ यह आत्मनिर्भरता और व्यवसाय चुनने की अवस्था होती है।
● वृद्धि गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती है ।
● वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक होते हैं।
● वृद्धि के दौरान होनेवाले परिवर्तन मात्रात्मक होते हैं।
● वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं।
● विकास कभी नहीं समाप्त होने वाली प्रक्रिया है, यह निरन्तरता के सिद्धान्त से सम्बन्धित है।
● विकास एवं वृद्धि के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार निम्न कक्षाओं में शिक्षण खेल विधि पर आधारित होती है।
● विकास में वृद्धि का तात्पर्य है बालकों में सीखने, स्मरण तथा तर्क इत्यादि की क्षमता में वृद्धि होना।
● गर्भ में बालक को विकसित होने में 280 दिन लगता है।
● नवजात शिशु का भार 7 पाउण्ड होता है।
हरलॉक के अनुसार, “विकास के परिणामस्वरूप नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।”
● मैक्डूगल ने मूल प्रवृतियों को चौदह प्रकार से वर्गीकृत किया है।
डम्बिल के अनुसार, “किसी दूसरी वस्तु की अपेक्षा एक वस्तु पर चेतना का केंद्रीकरण अवधान है।”
● हॉल का सिद्धांत किशोरों के मनोविज्ञान से संबंधित व्याख्या करता है। इसके अंतर्गत 12 से 21 वर्ष तक की आयु के किशोरों की शारीरिक, मानसिक, व्यक्तिगत व सामाजिक क्रियाओं व व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। किशोरावस्था
मानव जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था होती है, क्योंकि इस अवस्था में मनुष्य में क्रांतिकारी परिवर्तन जन्म लेते हैं।
● शिक्षा मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है, जो प्राणियों के व्यवहार एवं मानसिक तथा दैहिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है, जिसका बाल केंद्रित शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा मनोविज्ञान की सहायता से बाल केंद्रित शिक्षा के अंतर्गत बालकों
के व्यवहार के परिमार्जन के लिए तथा शैक्षिक परिस्थितियों में व्यवहार का अध्ययन के लिए विशेष सहायता ली जाती है।
● बाल मनोविज्ञान एक प्रकार का वैज्ञानिक अध्ययन है, जिसमें बालक के जन्म के पूर्व काल (गर्भावस्था) से लेकर उसकी किशोरावस्था तक का अध्ययन किया जाता है, जिसमें बालकों के व्यवहार, स्थितियों, समस्याओं के साथ-साथ उन सभी कारणों
का भी अध्ययन किया जाता है, जिसका प्रभाव बालक के व्यवहार एवं विकास पर पड़ता है।
● जॉन वी वॉटसन व्यवहारवादी मनोविज्ञान विचार धारा के प्रवर्तक माने जाते हैं।
वॉटसन का कथन है- “मुझे नवजात शिशु दे दो। मैं उसे डॉक्टर, वकील, चोर या जो चाहूँ बना सकता हूँ।” अधिगम, अभिप्रेरणा तथा पुर्नबलन पर विशेष ध्यान केंद्रित रहना व्यवहारवादियों की प्रमुख विशेषता है।
● विकास की किशोरावस्था में बुद्धि का विकास अधिकतम होता है। इस अवस्था में विकास से संबंधित प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है—मानसिक योग्यताएँ, शक्ति, भाषा एवं रूचि/अभिरूचियों का विकास ।
● शारीरिक वृद्धि एवं विकास को अभिवृद्धि (Growth)कहा जाता है, क्योंकि अभिवृद्धि एक निश्चित समय एवं एक निश्चित सीमा तक चलती है तथा शारीरिक विकास एक निश्चित समय व सीमा के अंतर्गत होता है।
● वृद्धि तथा विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए मनोवैज्ञानिक द्वारा अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया। जैसे-
★ फ्रॉयड का मनोलैंगिक विकास सिद्धांत
★ पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत
★ एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास सिद्धांत
★ चोमस्की का भाषा विकास सिद्धांत
★ कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत

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