F-1

F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ

प्रश्न 1. बच्चे तथा बचपन से आपका क्या अभिप्राय है? इसके
सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणा का वर्णन कीजिए।
अथवा, बचपन की अवधारणा सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के साथ बदलती
रहती है, समझाएँ।
अथवा, एक बच्चे के परिवार की सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति उसके
बचपन को बढ़ती है, कैसे? समझाएँ।
उत्तर–बच्चे, बचपन एवं समाजीकरण की मूल संकल्पना समय तथा स्थान के अनुसार
निरन्तर विकसित होती रही है। प्रत्येक परिवार, समुदाय एवं समाज, बच्चे तथा बचपन एवं
उनके समाजीकरण को भिन्न-भिन्न नजरियों से देखते हैं तथा विभिन्न तरीकों एवं साधनों से
उनके विकास की व्यवस्था करते हैं। मानव मूलतः एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्राणी है।
सामाजिक व्यवस्था की वह एक नियामक और अपरिहार्य इकाई है। विभिन्न विकासीय
अवस्थाओं से गुजरते हुए व्यक्ति के लिए बचपन और उससे जुड़े हुए विभिन्न सन्दर्भ एवं
अनुभव जीवन को लगातार प्रभावित करते हैं।
      बचपन मात्र जैविक निर्मित ही नहीं होता, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनैतिक
निर्मित भी होता है। समाज अपनी विभिन्न गतिविधियों एवं प्रक्रियाओं के माध्यम से व्यक्तियों
के समाजीकरण की व्यवस्था करता है। आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में ‘बचपन एवं
समाजीकरण’ के व्यवस्थापन एवं नियमन में माता-पिता, परिवार, पड़ोस, समुदाय, मीडिया
तथा विद्यालय आदि की भूमिका महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा
कि मूलत: यह संस्थाएँ ‘बच्चे एवं बचपन’ को गढ़ती है। मानव समाज एक संगठन के
रूप में अपनी निरंतरता एवं अस्तित्व को बनाये रखने के लिए अपनी संतति के मूल्य, नियम,
परम्पराएँ, लोकाचार इत्यादि का सचेत हस्तांतरण करता है। वस्तुतः सहज रूप में यह प्रक्रिया
ही समाजीकरण है, जिसमें समाज द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी सामाजिक मूल्य, नियम एवं परम्पराओं
इत्यादि को सिखाया जाता है।
          बच्चा और बचपन― बचपन की ऐतिहासिक समझ, यह बताती है कि विश्व की कई
प्राचीन सभ्यताओं में भी बाल्यावस्था और किशोरावस्था के बीच के समय को बचपन माना
जाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार फिलिप एरीज (1962) के अनुसार प्राचीन मानवीय समाजों
में बच्चे को एक स्वतंत्र सामाजिक मानवशास्त्रीय श्रेणी में नहीं रखा जाता था। मध्यकालीन
समाज जहाँ एक ओर प्रायः बच्चों को उनके पिता या अभिभावक के नियंत्रण एवं सत्ता के
अधीन रखने के पक्ष में था। वहीं दूसरी ओर पारस्परिक भारतीय दृष्टिकोण बच्चों को दया,
करुणा, अहिंसा इत्यादि का अधिकारी मानते हुए, उनमें आत्मानुशासन, आज्ञाकारिता, निश्छलता
इत्यादि गुणों को आवश्यक मानता है। मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था में बाल्यावस्था पर कोई
स्पष्ट विचार नहीं मिलता। बच्चों को सामाजिक-नैतिक नियमावली का पालन वयस्कों के
अनुसार ही करना पड़ता था।
      वस्तुत: बचपन की अवधारणा 16वीं-17वीं शताब्दी के मध्य हुआ एक ऐतिहासिक सृजन
है जो अपने शुरुआती दौर में अभिजात्य वर्ग के सन्दर्भ में ही गढ़ा गया था। इतिहासकार फिलिप
एरीज (1962) मानते हैं कि
‘‘………..एक बार जब बाल्यावस्था की संस्था का अभ्युदय होना आरंभ हुआ, समाज में
छोटे मानव की स्थिति बदलने लगी। बच्चों को वयस्क वास्तविकता से बचाने के क्रम में बच्चों
से जन्म, मृत्यु, लिंग, त्रासदी और वयस्क दुनिया की घटनाओं को छिपाना प्रारम्भ हुआ।”
जॉन होल्ट (1974) का मानना है कि,”आधुनिक बाल्यावस्था की संस्था, दृष्टिकोण,
रीति-रिवाज और आधुनिक जीवन में बच्चों को परिभाषित करने और उन्हें खोजने वाले वैधानिक
कानून इत्यादि का निर्माण एक सतत् प्रयास है।” जिसके अन्तर्गत―
● बच्चों का जीवन किस प्रकार का है?
● बड़े-बुजुर्ग इनके साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं?
● इनके जीवन के लिए क्या बेहतर हो सकता है ? इत्यादि
आधुनिकता ने बच्चों एवं बचपन के प्रति हमारी समझ में व्यापक बदलाव लाया है।
मूलतः बच्चा जैविक रूप से मानव विकास के दो प्रमुख अवस्थाओं शैशव एवं किशोर अवस्था
के मध्य की एक अवस्था है। कुछ जीवविज्ञानी अपनी परिभाषाओं में मानव-भ्रूण को भी
एक अजन्मा बच्चे के रूप में स्वीकार करते हैं।
       बच्चा एक सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई होता है। हर सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में
बच्चे एवं बचपन को अलग-अलग नजरिए से देखा जाता है। हर जाति धर्म व परंपरा में बच्चे
तथा बचपन की समझ अलग-अलग है। जाति, धर्म, आर्थिक व सामाजिक दशा आदि बच्चे
व बचपन को देखने के हमारे नजरिए को प्रभावित करते हैं। अभिजात्य वर्ग के बच्चों का
लालन-पालन अधिक प्यार एवं सुरक्षा के माहौल में होता है। बच्चों के देखभाल के लिए
वाछित सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाती हैं। बच्चों को जातीय संस्कारों एवं सामाजिक
संबंधों को सिखाया जाता है। किसके साथ बैठना है, किसके साथ खेलना है तथा किसके
साथ खाना खाना है ? ये सारी बातें सिखायी जाती है।
      वहीं सुविधा विहीन परिवारों में बच्चों का लालन-पालन भिन्न प्रकार से होता है। अक्सर
माता पिता दोनों कार्य करते हैं, इसलिए बच्चा कई बार घर में अकेला होता है या बड़े भाई
या बहन की देख-रेख में होता है। कभी-कभी माता-पिता बच्चों को अपने साथ खेतों पर
ले जाते हैं। धीरे-धीरे उन्हें अपने साथ काम पर भी ले जाना शुरू कर देते हैं। इस माहौल
में बच्चे समर्पण के भाव एवं जातीय व्यवहार सीखते हैं एवं सामाजिक अतसंबंधों की भी
समझ विकसित करते हैं।
    ग्रामीण एवं शहरी परिवेश में भी बच्चों के लालन-पालन का तरीका अलग होता है जिसका
प्रभाव बच्चों के व्यवहारों से परिलक्षित होता है। ऐसा माना जाता है कि शहरी परिवेश के
बच्चे ज्यादा उन्मुक्त एवं खुले विचारों के होते हैं, जबकि ग्रामीण परिवेश के बच्चे शिष्ट
व शर्मिले होते हैं। हालांकि इन मान्यताओं पर मतभेद भी हैं।
         पश्चिमी देशों में बचपन को आयु के साथ जोड़कर देखा जाता है, जहाँ 5-11 वर्ष का
काल खंड बचपन का होता है, जबकि भारत के संदर्भ में यह सीमा लगभग 14 वर्ष तक
चला जाता है।
    बच्चा एवं बचपन की सामाजिक-सांस्कृतिक के लिए यह भी जानना आवश्यक है कि बच्चा
लड़का है अथवा लड़की। भारत में लड़का एवं लड़की के लालन-पालन में बहुत अन्तर है। आज
भी लोग लड़कियों की अपेक्षा लड़कों का बेहतर तरीके से लालन-पालन करते हैं, बेहतर शिक्षा
एवं अधिक स्वतंत्रता देते हैं। लडाकया में समर्पण, त्यापनरता के भाव भरे जाते हैं, जिन्हें
नारित्व का गुण कहा जाता है और जो कई बार लिंग भेद-भाव एवं रूढ़िवादिता को जन्म देता है।
        निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून 2009, 6-14 वर्ष तक के बच्चों को
शिक्षा का अधिकार देता है। एक महत्वपूर्ण व गंभीर बात की ओर ध्यान आकृष्ट कराना आवश्यक
है कि बच्चों के साथ अंतक्रिया करते समय हम अक्सर यह अपेक्षा करते हैं कि बच्चे न
केवल अनुशासन में रहें बल्कि समाज सम्मत व्यवहार भी करें। वस्तुतः हम ऐसा करके उन्हें
वयस्क वास्तविकताओं एवं भूमिकाओं के लिए तैयार कर रहे होते हैं। यह अनपेक्षित दबाव
उन्हें छोटा वयस्क बना रहा होता है।
आवश्यकता इस बात की है कि-‘बच्चे को बच्चे के मूल स्वरूप में ही स्वीकार किया
जाए’। इस तरह हम उनके बाल सुलभ विशेषताओं एवं गुणों मसलन उनकी चंचलता, चपलता,
निश्छलता, क्रियाशीलता, मासूमियत इत्यादि को सहेज सकते हैं।
           कोठारी आयोग (1964-66)– की इस अवधारणा को कि देश के भविष्य का निर्माण
उसकी कक्षाओं में हो रहा है। बच्चे देश के वर्तमान हैं। बच्चों को भविष्य की अपेक्षित तैयार
के संदर्भ में न समझ कर उन्हें उनके वर्तमान संदर्भ में जानना एवं समझना चाहिए। यह दृष्टिकोण
हमें बच्चों को यथार्थवादी दृष्टिकोण से समझने में मददगार होगा। जब हम कहते हैं कि बच्चा
वर्तमान है तो हम उसकी स्वतंत्र अवस्था को स्वीकार करते हैं तथा उनके अधिकारों की बात
करते हैं। उन्हें बेहतर जीवन जीने का अधिकार है। उन्हें तनाव रहित एवं सहज जीवन जीने
का अधिकार है। इस हिसाब से हमें उनकी प्रत्येक अवस्था में, अवस्था के अनुरूप विकास
का उपाय करना चाहिए। अनुच्छेद 21(क) में बच्चों की शिक्षा के मौलिक अधिकार को
जीवन जीने के अधिकार के साथ शामिल किया गया। बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन की
व्यवस्था की गई है। ये सभी उपाय बच्चों को वर्तमान के साथ जोड़ते हैं।
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प्रश्न 2. बालक के समाजीकरण का क्या अर्थ है? समाजीकरण की प्रक्रिया का
वर्णन कीजिए।
अथवा, समाजीकरण क्या है ? विभिन्न परिभाषाओं को लिखें।
उत्तर–व्यक्ति को सामाजिक स्वरूप देने वाली प्रक्रिया ही समाजीकरण है। समाजीकरण
सामाजिक अन्तःक्रियाओं पर आधारित एक प्रक्रिया है, जो कि मनुष्य को, समाज की स्वीकृति
एवं नैतिक मानवीय स्वरूप प्रदान करती है। इसके द्वारा व्यक्ति समूह का एक क्रियात्मक सदस्य
बनता है, उसी के स्तर के अनुसार कार्य करता हैं। उसके लोकाचार, परम्परा तथा सामाजिक
परिस्थितियों के साथ अपना समन्वय स्थापित करता है। समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति अथवा
बालक मानव-कलयाण के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होकर व्यवहार करना सीखता है और
ऐसा करने से सामाजिक आत्म-नियंत्रण, सामाजिक उत्तरदायित्व और संतुलित व्यक्तित्व का
अनुभव करता है।
            समाजीकरण का अर्थ व परिभाषा–समाजीकरण मानव-समाज की स्वभाविक और
एकीकरण करने वाली समाजीकरण क्रिया हैं। समाजीकरण की परिभाषा के संबंध में विद्वानों
में मतैक्य नहीं है।
उदाहरणार्थ :
1. गिलिन और गिलिन के अनुसार―”समाजीकरण से हमारा अभिप्राय उस प्रक्रिया
से है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह का क्रियात्मक सदस्य बनता है, उसके स्तर के अनुसार कार्य
करता है। उसके लोकाचार, परम्परा तथा सामाजिक परिस्थितियों के साथ अपना समन्वय
स्थापित करता है।”
2. बोगार्डस― “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग मानव-कल्याण के लिए
एक-दूसरे पर निर्भर होकर व्यवहार करना सीखते हैं और ऐसा करने में सामाजिक आत्मनियंत्रण,
सामाजिक उत्तरदायित्व और संतुलित व्यक्तित्व का अनुभव करते हैं।
3. बी. वी. अकोलकर―”व्यक्ति द्वारा व्यवहार परम्परा पूर्तिमानों को ग्रहण करना ही
समाजीकरण कहलाता है, क्योंकि वह दूसरों से एकीकरण करने और उनके द्वारा कार्य करनेवाली
संस्कृति के प्रति उसका झुकाव होता है।”
4. किम्बल यंग― “समाजीकरण का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिससे व्यक्ति सामाजिक
और सांस्कृतिक संसार में प्रवेश करता है, जिससे वह समाज और उसके विभिन्न समूहों का
सदस्य बनता है जो उसे समाज की मान्यताओं को स्वीकार करने को प्रेरित करती है।
5. रॉस― “समाजीकरण सहपाठियों में “हम की भावना के विकास के साथ ही उसकी
योग्यता में विकास एवं साथ-साथ कार्य करने की इच्छा से होगा।” समाजीकरण वस्तुतः
सामाजिक अन्त:क्रियाओं पर आधारित प्रक्रिया है जो कि मनुष्य का सम्पर्क का स्वीकृत एवं
नैतिक मानवीय स्वरूप प्रदान करती है।
समाजीकरण की प्रक्रिया:
(i) आनुवांशिकता–जिसका आधार संचार जैविकीय वातावरण पर आधारित है।
(ii) सामाजिकता–जिसका आधार सांस्कृतिक वातावरण है। संचार का माध्यम
सामाजिक संसार (communication) निर्धारित करते हैं। संचार का माध्यम सीखने।
की प्रक्रिया है। जिसके द्वारा अभ्यास या आदतों की सहायता से व्यक्ति जीवन की
वास्तविकता ग्रहण करता है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति को सामाजिक
बना दिया जाता है। इस प्रक्रिया के निम्नांकित विभिन्न स्तर हैं :
1. पालन-पोषण।
2. सहानुभूति।
3. आत्मीकरण।
4. सामाजिक शिक्षा जिसमें अन्तर्नोद सूझ अनुक्रिया और पुरस्कार है।
5. परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण।
6. नवीन अनुक्रियाएँ।
7. पारस्परिक व्यवहार।
8. सहकारिता एवं
9. निर्देश।
द्वारा व्यक्ति अथवा बालक में समाजीकरण का विकास होता है। समाजीकरण के
विकास को परिवार, पड़ोस, साथी, स्कूल, सामाजिक संस्थाएँ, शारीरिक रचना, मानसिक दोष
तथा आवश्यकताएँ भी प्रभावित करती हैं। ये सभी मिलकर व्यक्ति अथवा बालक को
सामाजिक बनाते हैं।
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प्रश्न 3. बच्चों के समाजीकरण को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
अथवा, बालक के समाजीकरण के आवश्यक तत्व बताइए।
उत्तर― समाजीकरण को प्रभावित करने वाले कारक या तत्व : समाजीकरण की
प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें अनेक तत्वों का योग होता है। चूँकि समाजीकरण एक
सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, इस कारण इसकी सफलता या विफलता किसी एक तत्व
पर निर्भर नहीं होती, बल्कि एकाधिक तत्वों पर होती है। दूसरे शब्दों में, समाजीकरण के
कुछ कारण होते हैं, जो निम्नलिखित होते हैं ―
1. परिवार : समाजीकरण करने वाली संस्था के रूप में परिवार का महत्व वास्तव में
असाधारण है। यह कहा जाता है कि माँ के त्याग और पिता की संरक्षता में रहते हुए बच्चा,
जोभा सीखता है, वह उसके जीवन की स्थाई पूजा होती है। इसका कारण यह है कि परिवार
एक प्राथमिक समूह है, इस कारण परिवार में आमने-सामने का सम्बन्ध होता है और यह
सम्बन्ध अधिक स्थाई व निरन्तर चलने वाला होता है। परिवार के सदस्यों के बीच घनिष्ठता,
सहयोग, स्नेह, प्यार-दुलार आदि होता है। ये सभी विशेषताएँ समाजीकरण में सहायक होती
है। परिवार में ही बच्चे को सर्वप्रथम यह ज्ञात होता है कि कौन-कौन से कार्य उसे करने
चाहिए और किन-किन कार्यों को उसे नहीं करना है। बालक ऐसे काम करना सीखता है,
जिनसे उसकी माँ व परिवार के अन्य लोग उसे प्यार करें और ऐसे कार्यों से बचता है, जिनके
कारण उसे दण्ड भोगना पड़ता है। इस प्रकार परिवार में ही वह समाजीकरण का प्रथम पाठ,
सोखता है। परिवार में ही बच्चा सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ, क्षमा का महत्व और सहयोग
की आवश्यकता सीखता है और अपनी मौलिक धारणाएँ, आदर्श और शैली की रचना करता है।
2. खेल का समूह : बच्चा जब थोड़ा-सा बड़ा होकर घर से बाहर कदम रखता है,
तो उसका सम्पर्क अन्य बच्चों से भी होता है। वह उनके साथ खेलता है। ये बच्चे अलग-अलग
परिवार के होते हैं, इस कारण उनके व्यवहार, ढंग, रीति-नीति, रुचि, धारणा आदि भी
अलग-अलग होते हैं। इन विविधताओं के बीच बच्चा खेलने के साथ ही अनुकूलन की कला,
मिलकर काम करने की आदत तथा सामाजिक-सम्बन्धों की परिवार के दायरे के बाहर फैलाने
का ढंग भी सीखता है। इस प्रकार खेल-समूह का समाजीकरण के रूप में अधिक महत्व है।
3. पड़ोस एवं समूह : पड़ोसियों तथा अन्य बड़े-बूढ़े के सम्पर्क में आने से बालक
के सामने अनेक नये विचार आते हैं। बातचीत तथा गप्पबाजी के बीच व्यवहार के ढंग उसका
ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं और इस प्रकार उसे नये आदर्शों से परिचित होने का
अवसर मिलता है। पड़ोस में रहनेवाले धनी अथवा निर्धन, शिक्षित एवं अशिक्षित तथा विभिन्न
व्यवसायों के व्यक्ति अपनी-अपनी आदतों एवं मान्यताओं के साथ बालक के सामने आते
हैं और उसके ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। इससे बालक का समाजीकरण होता है।
4. शिक्षा संस्थाएँ : स्कूल और कॉलेज समाजीकरण की अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्थाएँ हैं।
विद्यालयों में बच्चे की मानसिक क्षमताओं का विकास होता है तथा उसके लिए सामाजिक
सम्बन्ध स्थापित करने का क्षेत्र और विस्तृत हो जाता है। वहाँ वह अनेक प्रकार के शब्दों
और अध्यापकों के सम्पर्क में आता है और उनसे बहुत कुछ सीखता है। विद्यालय में ही पुस्तकों
के द्वारा बच्चे की देश-विदेश की संस्कृति और समाज में परिचित होने का अवसर मिलता
है। इससे उसके व्यक्तित्व के विकास में काफी सहायता पहुँचती है। विद्यालय में बालकों
को सामाजिक आदर्शों, मान्यताओं, प्रथाओं, नियमों की प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा मिलती है और
बालक इनको ग्रहण करके इनके अनुसार आचरण करता है। विद्यालय में विभिन्न सामाजिक
क्रियाओं का आयोजन होता है, जिनमें भाग लेने से बालक का अनजाने ही समाजीकरण होता है।
5. जाति तथा वर्ग : व्यक्ति जिस जाति से सम्बन्धित होता है, उसे उसके नियमों तथा
प्रतिबन्धों को मानना ही पड़ता है। न मानने पर जाति वर्ग से दण्ड प्राप्त होता है। इन नियंत्रणों
तथा नियमों का प्रभाव व्यक्ति के समाजीकरण की प्रक्रिया पर पड़ता है। वर्ग-व्यवस्था भी
व्यक्ति को एक सामाजिक स्थिति प्रदान करती है, जिसके आधार पर वर्ग-चेतना पनपती है
और व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्धों का क्षेत्र निश्चित होता है।
6. भाषा : समाजीकरण का आधार सामाजिक अन्त:क्रियाएँ ही हैं और भाषा की सहायता
से अन्तःक्रियाएँ अत्यधिक सरल हो जाती है। भाषा की सहायता से बच्चे के लिए परिवार
के सदस्यों तथा अन्य लोगों के साथ सम्पर्क स्थापित करना सरल हो जाता है। वह भाषा
के कारण दूसरों के विचारों को ग्रहण करता और लाभ उठाता है।
7. धर्म : धर्म का प्रभाव भी व्यक्ति के सामाजिक व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है।
धर्म ही व्यक्ति में पाप और पुण्य की धारणा या विश्वास का विकास करता है। हेज का
कहना है कि “यह विश्वास समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान करता है।”
8. राजनीतिक तथा आर्थिक संस्थाएँ : राजनीतिक एवं आर्थिक संस्थाओं का भी योगदान
व्यक्ति के समाजीकरण की प्रक्रिया पर होता है। उदाहरणार्थ, तानाशाही सरकार होने पर व्यक्ति
के जीवन में सुरक्षा की भावना कम होती है, जिससे उसके व्यक्तित्व के स्वाभाविक विकास
में बाधा पहुँचती है। जनतंत्रीय व्यवस्था में व्यक्ति को अपने विकास का स्वतंत्र अवसर प्राप्त
होता है, जिससे उसका समाजीकरण तेजी से होता है। आर्थिक क्रियाओं जैसे-नौकरी, व्यापार,
वाणिज्य, कृषि आदि का प्रभाव व्यक्ति के विचार, आचार, मनोभाव एवं क्रियाओं पर पड़ता है।
9. शिक्षा : बालक के समाजीकरण में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। परिवार के
बाद शिक्षा-संस्था में बालक का समाजीकरण सर्वाधिक रूप से होता है। शिक्षा-संस्था का
विवेचन ही एक सामाजिक संस्था के रूप में इसलिए किया जाता है, क्योंकि (1) यह सांस्कृतिक स्वरूप वाली होती है। (2) इसकी स्थापना विचारपूर्वक व्यक्तिगत और सामाजिक
आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति के लिए की जाती है। (3) यह निश्चित प्रतिमानों का
प्रतीक है और इसके पास सामाजिक समस्याओं को हल करने के अपने प्रामाणिक तरीके
होते हैं। विद्यालय व्यक्ति को सामाजिक-प्रणाली के रूप में प्रशिक्षित करके समाज की सेवा
करता है।
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प्रश्न 4. बच्चों के समाजीकरण में समाजीकरण के दोनों रूप प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष
समाजीकरण की आवश्यकता होती है। तर्कपूर्ण विवेचना करें।
‘उत्तर–व्यक्ति का समाजीकरण दो तरीकों से होता है-प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्षा प्रत्यक्ष
समाजीकरण वह है जिसमें समाज में बच्चे का समाजीकरण के लिए प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं
स्पष्ट रूप से उल्लिखित नियम एवं उपाय अपनाए जाते हैं। जैसे बड़े बुजुर्गों के साथ आदर
का व्यवहार, आपस में प्रेम और विश्वास के साथ रहना, इत्यादि। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष
सामाजीकरण अनेक दिशा-निर्देशों पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए समाज में पुरुषों
एवं महिलाओं की सहानता की बात बढ़-चढ़ कर कही जाती है, महिलाओं को पूजनीय कहा
जाता है, किन्तु दैनिक कार्यों में बिल्कुल विपरीत व्यवहार दिखाया जाता है। जैसे-घर में खाना
बनाना सिर्फ महिलाओं का कार्य है। आमतौर पर महिलाएं परिवार के सभी सदस्यों को खिलाने
के बाद ही खाना खाती है। महिलाएँ पारिवारिक निर्णयों में सहभागी नहीं होती। बच्चे लड़का
या लड़की के रूप में इन असमानताओं के अप्रत्यक्ष संदेशों को इस प्रकार आत्मसात कर
लेते हैं कि इन प्रथाओं में कोई बुराई नजर नहीं आती।
      शिक्षा अनेक प्रकार से इस अप्रत्यक्ष समाजीकरण को व्यवहार में लाती हैं इसे प्रच्छन्न
पाठ्यचर्या कहा जाता है। पाठ्यचर्या का संबंध संगठन द्वारा सम्प्रेषित संदेशों और
अधिकारिक विषयों के अधिगम के अलावा शिक्षा व्यवस्था के प्रचलन से है।
           समाजीकरण समाज के नियमों के अनुसार चलने की आदत डालने की एक प्रक्रिया
है। क्योंकि समाज जटिल एवं बहुस्तरीय संरचनाओं वाला होता है इसलिए समाजीकरण की
प्रक्रिया भी जटिल एवं बहुआयामी होते हैं। बहुत सारे कारक इस प्रक्रिया में भागीदार होते
हैं। इनमें से कुछ कारकों की पहचान हमने की है।
    बच्चे के समाजीकरण में परिवार, मित्र-समूह, समुदाय, विद्यालय, संचार माध्यम, राजनीति
एवं धर्म प्रमुख भूमिका निभाते हैं। परिवार बच्चे के समाजीकरण की प्राथमिक इकाई है। इसी
में बच्चों के समाजीकरण का प्रारंभिक चरण चलता हैं धर्म, संस्कृति, लिंग, जाति से संबंधित
प्राथमिक व्यवहारों की नींव परिवार में ही पड़ती है। छोटी उम्र में ही परिवार दंड, पुरस्कार
तथा पुनर्बलनों का उपयोग कर परिवार एवं समाज के वांछित व्यवहारों को आकार देता है।
मित्र-समूह बच्चों का वह खुला मंच होता है जहाँ वे खुलकर अपने विचारों का आदान-प्रदान
करते हैं एवं अपने मित्रों से बहुत सारी आदतें सीखते हैं। बच्चों का पहनावा, खान-पान,
खेल-कूद एवं जीवन शैली पर मित्र समूह का बहुत बड़ा प्रभाव होता है। समुदाय हमेशा यह
चाहता है कि बच्चा समाज-स्वीकृत व्यवहार ही करे। उनके व्यवहार पर न केवल परिवार
का बल्कि अन्य लोगों की भी निगाहें होती हैं। बच्चों की आदतों में सुधार के लिए समुदाय
कई बार परिवार पर दबाव भी डालता है। विद्यालय की भूमिका समाजीकरण में बहुत महत्वपूर्ण
माना जाता है। विद्यालय समाजीकरण में समाज एवं राज्य के बीच कड़ी की भूमिका निभाता
है। विद्यालय के पास ऐसे अनेकों उपकरण होते हैं जिनके द्वारा वह बच्चों का समाजीकरण
करता है। उसमें से कुछ उपकरण है। पाठ्यचर्या, शिक्षण-पद्धति, शिक्षक की भूमिका,
पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ आदि।
          आज संचार माध्यम भी समाजीकरण के एक प्रमुख कारक के रूप में उभरा है। कार्टून
चैनलों की भरमार एवं मोबाइल फोन की उपलब्धता ने बच्चों की समाजिकता को प्रभावित किया
है। ये संचार माध्यम धीरे-धीरे बच्चों को परिवार एवं समुदाय से दूर करते चले जा रहे हैं।
कई बार बच्चों में द्वन्द्व की स्थिति भी पैदा करते हैं जब बच्चे संचार माध्यमों पर दिखाए गए
दृश्यों को अपने परिवेश के संदर्भ में देखते हैं। राजनीति बच्चों में नागरिकता के गुणों के विकास
का प्रयास करती है। इसके लिए विद्यालय को यह एक माध्यम के रूप में प्रयोग करता है।
भारत के संदर्भ में यह बच्चों में धर्म निरपेक्षता, सहिष्णुता, सहयोग की भावना एवं समानता
के गुणों का विकास करती है। शिक्षा का मौलिक अधिकार बच्चों को स्वतंत्र व्यक्ति के रूप
में स्वीकार करता है और उन्हें सम्मानित जीवन जीने का अधिकार देता है।
    हर धर्म बच्चों का इस प्रकार से समाजीकरण करता है कि बच्चे उस धर्म की रीति-रिवाजों,
धार्मिक अनुष्ठानों, विश्वासों, मान्यताओं को अपना लें। इसमें परिवार एवं समुदाय माध्यम का
काम करते हैं।
          समाजीकरण के द्वारा बच्चों को उन आदतों, व्यवहारों को सिखाया जाता है जो समाज
सममत हो एवं समाज को बरकरार रखने में मदद करे। समाज की निरंतरता समाजीकरण द्वारा
कायम रहती है। समाज के कुछ स्थापित नियम, विश्वास, मान्यताएँ आदि होते हैं। समाज
विभिन्न माध्यमों से इन्हीं नियम, विश्वास, मान्यताओं को बच्चों को सिखाता है।
          लेकिन समाज अपने हर सदस्य को बराबरी का दर्जा नहीं देता। इसमें हर, सदस्य का
स्थान क्रम निश्चित होता है। जो सामान्यतया कम परिवर्तनशील है। वस्तुतः समाजीकरण न
केवल समाज की निरंतरता बल्कि यथा-स्थिति को भी कायम रखता है।
        इस प्रकार हम देखते हैं कि बच्चों के समाजीकरण में समाजीकरण के दोनों रूप प्रत्यक्ष
एवं अप्रत्यक्ष समाजीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बच्चों के समाजीकरण में इनकी
आवश्यकता है।
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प्रश्न 5. समाजीकरण एक सयास प्रक्रिया है। व्याख्या कीजिए।
उत्तर― समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा बालक को समाजिक बनाया जाता है। इस प्रक्रिया
के अनेक कारक होते हैं जिसमें वे महत्वपूर्ण कारक निम्न हैं―
1. बालकों के पालन-पोषण का गहरा प्रभाव सामाजिक प्रक्रिया पर पड़ता है। जिस प्रकार
का वातावरण बालक को प्रारम्भिक जीवन में मिलता है तथा जिस प्रकार से माता-पिता बालक
का पालन-पोषण करते हैं उसी के अनुसार बालक में भावनाएँ तथा अनुभूतियाँ विकसित हो
जाती हैं। इसका अर्थ यह है कि जिस बालक की देखरेख उचित नहीं होती, वह समाज विरोधी
आचरण वाले हो जाते हैं। अत: उचित समाजीकरण हेतु बालक का पालन-पोषण ठीक प्रकार
से किया जाना चाहिए।
2. बालकों को शैशवावस्था से लेकर किशोरावस्था तक उचित सहानुभूति की आवश्यकता
होती है। शैशवावस्था में वह परिवार से सहानुभूति चाहता है, परन्तु किशोरावस्था तक आते-आते
बालकों की सहानुभूति से सम्बन्धित समस्याएँ तथा निर्णयों की पूर्ति उनके मित्र करते हैं इस
प्रकार सहानुभूति के द्वारा बालकों में अपनत्व की भावना का विकास होता है।
3. माता-पिता, परिवार तथा पड़ोस की सहानुभूति द्वारा बालकों में आत्मीकरण की भावना
विकसित होती है। जो लोग बालकों को अपना समझकर उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार
करते हैं बालक उन्हीं को अपना समझने लगता है तथा उन्हीं के आदर्शों के अनुसार ही बालक
व्यवहार करते हैं।
4. अनुकरण के अतिरिक्त सामाजिक शिक्षण का भी बालकों के व्यक्तित्व पर तथा
समाजीकरण पर विशेष प्रभाव पड़ता है। यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि सामाजिक
शिक्षण का प्रारम्भ परिवार से ही होता हैं यही पर रहकर बालक माता-पिता, भाई-बहन तथा
अन्य सदस्यों के साथ रहकर अपनी शिक्षा को ग्रहण करते हैं तथा समाजीकरण की प्रवृत्ति
उनमें जन्म लेती है।
5. व्यक्ति को समाज ही सामाजिक बनाता है तथा कहा जाता है कि समाज की सहकारिता
ही बालक को सामाजिक बनाने में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। जैसे-जैसे बालक अपने सहयोगियों
के साथ पाया जाता है वैसे-वैसे ही वह दूसरे लोगों को अपना सहयोग देता जाता है। इससे
बालक की सामाजिक प्रवृत्तियाँ संगठित हो जाती हैं।
      इस प्रकार समाजीकरण के विकास को परिवार, पास पड़ोस, साथी, स्कूल, सामाजिक
संस्थाएँ, शारीरिक रचना तथा मानसिक दोष तथा आवश्यकताएँ भी प्रभावित करती है। ये सभी
मिलकर व्यक्ति अथवा बालक को समाजिक बनाते हैं। अतः हम देखते हैं कि समाजिकरण
एक सयास प्रक्रिया है।
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 6. बच्चों के बचपन में पायी जाने वाली विभिन्नताएँ उनके सामाजिक एवं
सांस्कृतिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है, विवेचना करें।
उत्तर― बच्चों के बचपन में पाई जाने वाली विभिन्नताएँ उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक
परिस्थितियों से प्रभावित होती है। इसे हम उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं―
        कहा जाता है कि जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन। ठीक उसी प्रकार में समाज की जो
परिस्थितियाँ होगी, उसी के अनुरूप वहाँ के लोगों में आचार-विचार, उत्संस्करण, अभिवृत्ति
होगी। परिस्थितियों का समाजीकरण प्रक्रिया पर व्यापक असर पड़ता है।
        उदाहरण 1. सोहनपुर गाँव के लोग सुबह उठते ही चौक-चौराहे पर जुआ खेलने बैठ
जाते हैं और लंबे समय तक खेलते रहते हैं। खेलने के दौरान कभी वे एक-दूसरे पर चिल्लाते
हैं तो कभी गाली-गलौज भी करते रहते हैं। कभी-कभी उनके बीच मारपीट भी हो जाती
है। आसपास के बच्चे उनके चिल्लाने, गाली-गलौज और मारपीट को देखते हैं।
      इसके फलस्वरूप उनमें खेल-खेल में चिल्लाने, गाली-गलौज करने और मारपीट करने
की आदत बनने लगी। वे बड़ों का समान करना भूल गए। वे दिन-प्रतिदिन ठीक वैसे ही होते
जा रहे हैं।
        उदाहरण 2. मोहनपुर गाँव के लोग सुबह उठकर नित्य क्रिया से निवृत होकर पूजा-पाठ
करते हैं। अपने कामों पर विशेष ध्यान लगाते हैं। अपने पड़ोसियों के भी कामों में हाथ बँटाते
हैं। वे बच्चों को अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं। बच्चे भी उनके पूजा-पाठ के समय बड़ों की
नकल करते हुए हाथ जोड़कर ईश्वर की प्रार्थना में उनके साथ खड़े हो जाते हैं।
    यहाँ हम देखते हैं कि सोहनपुर गाँव की परिस्थितियाँ समाजीकरण पर नकारात्मक प्रभाव
डालने वाली है। वहाँ के बच्चों में गाली-गलौज तथा चोरी-ठगी की प्रवृति पाई गई। जबकि
मोहनपुर गाँव की परिस्थिति बच्चों के समाजीकरण में सकारात्मक प्रभाव डालती है।
         इस प्रकार हम देखते हैं कि बच्चे निरंतर रूप से समाज के विभिन्न क्रियाकलापों को
अवलोकन करते हुए आत्मसात कर लेते हैं। उदाहरण में हमने देखा कि बच्चों में पाई जाने
वाली विभिन्नताओं में सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का प्रभाव स्पष्ट है। अतः समाज
की परिस्थितियों का बच्चों के बचपन में पायी जाने वाली विभिन्नताओं पर प्रभाव डालती है।
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 7. बालकों के समाजीकरण में परिवार में लिंग-भेद का वर्णन करें।
उत्तर—बालकों के समाजीकरण या स्वयं के समाजीकरण में एक पुरुष अथवा महिल
की भूमिका का विवरण इस प्रकार है―
1.समाजीकरण की प्रकृति और लिंग― परिवार में एक बच्चे के साथ उसके लिंगानुसार
अलग-अलग व्यवहार किया जाता है, क्योंकि परिवार में ही बच्चों को सर्वप्रथम अपने लिंग
के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है। उसके लिंग के आधार पर ही उसका विकास किया जाता
है। इस प्रकार से माता-पिता द्वारा बचपन से ही यह अवधारणा बालक के हृदय में उत्पन्न
कर दी जाती है कि अपने जीवन में उसकी किस प्रकार की भूमिका होगी क्योंकि हमारे
पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुषों का समीकरण बिल्कुल अलग ढंग से किया जाता है। पुरुषों
से यह आशा की जाती है कि उनमें पुरुषोचित गुण पूरी तरह से विकसित हो, जैसे—स्वतंत्रता,
आत्मनिर्भरता, प्रभावी सक्रियता, नेतृत्व का गुण, स्वावलम्बन, तार्किकता, प्रतियोगिता आदि।
इसका कारण यह है कि इन गुणों से युक्त पुरुषों पर ही समाज गर्व करता है तथा किसी
नारी में ये गुण उत्पन्न होने पर समाज द्वारा पौरूषीय गुण वाली स्त्री बताकर उसमें परिवर्तन
लाने के लिए समाज दबाव बनाता है। इस सबका परिणाम यह हुआ कि पुरुष को अपना
कैरियर चुनने, नये क्षेत्र में भागीदारी करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है जबकि इसी समाज ने
महिलाओं के लिए सबकुछ पहले निश्चित कर दिया है। यदि स्त्रियाँ अपने कैरियर उस क्षेत्र
में बना लेती है तो ठीक है। अन्यथा परिवार द्वारा उनका शीघ्र ही विवाह कर दिया जाता है।
इसीलिए महिलाओं को परम्पराओं तथा समाज की दासी के रूप में ही स्त्री को देखा जाता
है। वस्तुतः परिवार समाज में उनकी स्वयं की न कोई पहचान होती है न उन्हें किसी प्रकार
की कोई स्वतंत्रता ही प्राप्त होती है।
        अतः स्त्रियों का समाजीकरण पुरुष प्रधानता के आधार पर ही परिवार एवं समाज द्वारा
किया जाता है।
    2.समाजीकरण की दृष्टि से नारी की भूमिका― हिन्दू परिवार में महिलाओं को न
तो किसी प्रकार का कोई निर्णय लेने का अधिकार दिया जाता है और न ही घर की चारदीवारी
के बाहर ही क्रियाओं में किसी भी प्रकार से भाग लेने का अधिकार ही उन्हें दिया जाता
है। यही नहीं महिलाओं से आशा की जाती है कि वे अपने अधिक से अधिक समय को
गृहकार्य में व्यतीत करें समाज उनके व्यवहार में कुछ ऐसे गुणों की आशा करता है कि महिलाओं
में सहनशीलता, समर्पण, परोपकारिता आदि जैसे गुण अवश्य होने चाहिए।
     उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि समाजीकरण पर भी लिंग का बहुत अधिक प्रभाव है
क्योंकि एक पुरुष का समाजीकरण इस प्रकार से होता है कि वह स्वयं जागरूक बने तथा
स्वयं के विकास के विषय में अधिक से अधिक सोचे, जबकि स्त्री का समाजीकरण इस
प्रकार से किया जाता है कि उसके परिवार के सदस्यों की उन्नति में ही उसकी उन्नति है।
समाज में नर-नारी के समाजीकरण का एक आधार यह भी है कि पुरुष बच्चों के लालन-पालन
की कोई भी जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेते हैं। परिवार में बच्चे के लालन-पालन की पूर्ण
जिम्मेदारी महिला को ही सौंप दी जाती है। यह कहा गया है कि बच्चे को समाज के अनुरूप
बनाने में महिला की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि महिला ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में
अनेक गुणों को स्थानान्तरित करती है। समाज में एक बालक का समाजीकरण करने में वस्तुतः
माँ की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है और माँ ही बच्चे की प्रथम शिक्षक होती है, क्योंकि बालक
को समाज के मानदंडों का पालन करने की और उन बातों को नहीं करने की जो कि समाज
के प्रतिकूल है कि शिक्षा परिवार में केवल माँ ही देती हैं
    समाज में स्तरीकृत एवं सोपानीकृत व्यवस्था का प्रचलन रहा है, क्योंकि कोई भी समाज
चाहे वह आदिम समाज हो या चाहे आधुनिक समाज है। इसकी व्यवस्था के अपवाद नहीं है।
    समाज के आधार भी हमेशा समान नहीं रहे हैं क्योंकि यह हमेशा इस आधार पर अवलम्बित
रहे हैं कि किसी समाज के प्राथमिक मूल्य क्या है ? स्तरीकरण को इस प्रक्रिया ने ही हमारे
समाज वर्ग के जाति आदि घटकों में सीमित कर दिया है। इस सामाजिक स्तरीकरण में भी
महिलाओं को पुरुषों से अलग का ही स्तर दिया गया है। अतः लिंग के आधार पर समाज
में नारी की भूमिकाएँ भी अलग-अलग निर्धारित की गयी है, जिनके माध्यम से नारी की
परिस्थिति, भूमिका, पहचान, सोच एवं अपेक्षाओं को मनमाफिक रूप से गाढ़ा है।
     वस्तुतः नारीयता के निर्माण की प्रक्रिया समाज में विद्यमान संस्थाओं, सांस्कृतियों, मूल्यों
एवं व्यवहारों, प्रथाओं, लिखित एवं मौखिक ज्ञान, धार्मिक अनुष्ठानों तथा नारी अपेक्षित विशिष्ट
मूल्यों से स्थापित की गई है। बचपन से ही बालक एवं ालिकाओं के व्यवहार को इस प्रकार
से संचालित किया जाता है कि बालक को साहसिक, बौद्धिक एवं क्रमिक कार्यों को इस
प्रकार से विकसित किया जा सके और बालिका को क्षमा, भय, लज्जा, सहनशीलता, सहिष्णुता,
नमनीयता के गुणों को आत्मसात करने के लिए प्रेरणा प्रदान की जाती है। समाज में यह
प्रक्रिया बालक एवं बालिका के व्यवहार से इस प्रकार से जोड़ दी जाती है कि अन्ततः उसका
स्वपहचान एवं अन्य लोगों की परिभाषा के आधार पर उसके अनुसार व्यवहार करने को समाज
के द्वारा सामान्य माना जाता है। परिवार में बालक एवं बालिका के खेल एवं खिलौने भी
इस प्रकार से भिन्न होते हैं कि समाज द्वारा परिभाषित नर-नारी के क्षेत्र के अनुसार ही उनका
विकास किया जा सके।
          इस प्रकार समाज में साहसिक कार्यों के लिए पुरुष को चुना जाता है एवं परम्परागत
और गृह कार्यों के लिए महिलाओं को दायित्व सौंपा जाता है।
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 8. शिक्षा, विद्यालय तथा समाज के अंर्तसम्बन्धों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर― मानव मूलतः एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्राणी हैं वह स्वभाव से ही जिज्ञासु होता
है। बालक के जन्म के बाद शुरुआती चरण में वह परिवार के सदस्यों के बीच रहता है और
इनके अनुरूप अपने-आप को ढालता है। बाल्यावस्था के समय में वह विद्यालय जाना शुरू
करता है तथा अपने आस-पड़ोस से भी ज्ञानार्जन करता है।
      मूलतः शिशु जन्म के समय एक जैविक प्राणी के रूप में होता है। समाज उसे सामाजिक
प्राणी बनाने की व्यवस्था करता है। वह प्रक्रिया जिसके माध्यम से कोई जैविक प्राणी एक
सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित होता है, समाजीकरण कहलाती है। समाजीकरण सामाजिक
आशाओं व मान्यताओं के अनुरूप ढालने की प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति समाज के साथ
आत्मीकरण करता है और समाज द्वारा एक जीवंत सदस्य के रूप में स्वीकार किया जाता
है। परिवार, आस-पड़ोस के लोग, विद्यालय व समाज की अन्य इकाइयाँ निरंतर अपने
तौर-तरीकों, मान्यताओं व विश्वासों के अनुरूप व्यक्ति को ढालने का प्रयास करती है। परन्तु
समाजीकरण की यह प्रक्रिया अंधानुकरण मात्र नहीं हैं। यह चयनात्मक एवं मूल्यांकनात्मक
प्रक्रिया है। व्यक्ति समाज के उसी तौर-तरीकों को अपनाता है जो उसके मूल्यांकन के उपरांत
अपनाने योग्य होता है। चूंकि व्यक्ति एक जीवंत व विवेकशील इकाई है, अत: न सिर्फ समाज
इसे प्रभावित करता है वरन व्यक्ति भी समाज को प्रभावित करता है, उसके तौर-तरीकों,
मानयताओं व विश्वासों में आवश्यक संशोधन करता है तथा कुछ नयी बातों को जोड़ता है।
सामान्यतया उसके संशोधन की आधारभूमि गहरे सामाजिक मूल्य ही होते हैं। वह ऐसे कार्यों
को करने का जोखिम कम ही उठाता है जो समाज विरोधी कार्यों के श्रेणी में आते हैं। अतः
यह कहा जा सकता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित एवं
प्रतिबंधित (Control and Restrict) करती है। समाजीकरण की यह प्रक्रिया जीवनपर्यंत चलती
है, क्योंकि समाज के तौर-तरीके, रीति-रिवाज, मान्यताएँ, प्रथाँ, मूल्य, विश्वास आदि भी
चिरस्थायी नहीं है। इनमें मंथर गति से ही सही परन्तु परिवर्तन होते रहता है। अतः व्यक्ति
के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि परिवर्तनशील दौर के साथ कुशल सामंजस्य स्थापित
करें। इस प्रकार समाजीकरण जीवनपर्यंत व्यक्ति का समाज के अनुरूप चयनात्मक व
मूल्यांकनात्मक अनुकूलन है।
       समाजीकरण की प्रक्रिया को मुख्यतः दो स्तरों पर विभाजित किया जाता है—प्राथमिक
तथा द्वितीयका प्राथमिक स्तर पर माता-पिता, परिवार, आस-पड़ोस तथा समुदाय जहाँ
समाजीकरण के मुख्यतः सरल पक्ष से संबंधित है, वहीं द्वितीयक स्तर पर विद्यालय, धर्म व
राज्य समाजीकरण के मुख्यतः जटिल पक्ष से संबंधित हैं। चूँकि समाज जटिल समग्र (Complex
Whole) है, अत: उच्च स्तर के समाजीकरण हेतु समाज ने संचित ज्ञान, समझ, व्यवहार,
भाव, आस्था व विश्वास की शिक्षा दिये जाने के लिए विद्यालय नामक संस्था को जन्म दिया,
जहाँ अध्ययन कर बालक समाज की विभिन्न जटिलताओं के साथ सामंजस्य स्थापित करने
में दख बन सके। इस प्रकार एक संस्था के रूप में शिक्षा व विद्यालय मूलतः उच्च स्तर
के समाजीकरण के बड़े दायित्व का निर्वहन करते हैं, साथ ही समाज के रीति-रिवाजों, मान्यताओं
व मूल्यों आदि को संशोधित, निर्मित व पुनर्निर्मित भी करते रहते हैं। इस प्रकार शिक्षा व विद्यालय
तथा समाज के मध्य परस्पर पूरकता का संबंध है।
     समाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान बालक-बालिका मुख्यत: तीन प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित
करते हैं—सहयोगपरक अनुकूलन, तटस्थ भाव तथा विरोधी प्रतिक्रियाएँ। समाज में सहयोगपरक
अनुकूलन प्रशंसित होता है। जबकि तटस्थ भाव व विरोधी प्रतिक्रियाएँ हतोत्साहित की जाती
है व उनके व्यवहार परिवर्तन का निरंतर प्रयास किया जाता है। साथ ही समुदाय की यह
भी आस्था होती है कि विद्यालय में ही उनके व्यवहार का समुचित रूपांतरण हो पायेगा। इस
प्रकार समुदाय विद्यालय को समाजीकरण की उच्चकृत संस्था के रूप में देखता है।
       आज के परिपेक्ष्य में देखने पर ऐसा लगता है कि आज का समाज विद्यालय के प्रति
असंवेदनशील हो गया है, वह विद्यालय (खासकर सरकारी विद्यालय) को अपना नहीं मान
रहा है। पहले समुदाय विद्यालय को यह जानता था कि विद्यालय उसका अपना है, परन्तु आज
विद्यालय को यह सिद्ध करना पड़ रहा है कि वह समुदाय का, समुदाय के लिए व समुदाय
द्वारा है।
        अतः एक संस्था के रूप में शिक्षा व विद्यालय की समाज के प्रति भूमिका के संदर्भ
में वर्तमान विद्यालयीय व्यवस्थाओं का अवलोकन व तदनुरूप सुधार आवश्यक है। वही समाज
को भी विद्यालय के प्रति उसकी भूमिकाओं के संदर्भ में जागरूक बनाने की जरूरत है।
शिक्षायी विषयों में प्रकृति व समाज से जुड़ाव के अवसर देने, विद्यालयीय आयोजनों
में उसको व्यवहार में लाने तथा समाज के हार्दिक सहयोग के माध्यम से ही समाजीकरण
की प्रक्रिया बेहतर संचालित हो सकती है। परन्तु आवश्यक यह भी है कि समाजीकरण की
प्रक्रिया लोकतांत्रिक हो, उसमें तमाम मतों, विचारों, भावनाओं व संवेदनशीलताओं के लिए
भी कहीं ना कहीं स्थान हो, फिर चाहे वह उन बच्चों द्वारा ही क्यों ना दिया गया हो जो
उस समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 9. विद्यालय में समाजीकरण की प्रक्रिया का वर्णन करें।
अथवा, विभिन्न कारकों की भूमिका एवं प्रभावों का वर्णन कीजिए जो विद्यालय
में बालक के समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ?
अथवा, विद्यालय में समाजीकरण की प्रक्रिया को कौन-कौन से कारक प्रभावित
करते हैं?
उत्तर― हमारे बचपन के शुरुआती दिन परिवार एवं आस-पड़ोस तक ही सीमित रहते
हैं। इस परिवार व आस-पड़ोस में बच्चों के समाजीकरण का प्रथम चरण चलता है, परन्तु
वहाँ उनको उतनी विविधताओं का सामना नहीं करना पड़ता, जितनी विविधताएँ उन्हें विद्यालय
में मिलती है। भिन्न-भिन्न उम्र, लिंग, जाति, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, आचार-व्यवहार, आर्थिक
सामाजिक दशा आदि से संबंधित बच्चों, शिक्षकों तथा वे अन्य कर्मचारियों आदि की मौजूदगी,
बच्चों के लिए समाज के एक लघु रूप का बिम्ब प्रस्तुत करता है और इस प्रकार समाजीकरण
हेतु बच्चों को विद्यालय में ज्यादा अवसर प्राप्त होता है। विद्यालय में बच्चे ना सिर्फ समाज
के विविध रूपों से परिचित होते हैं वरन विभिन्न प्रकार की गतिविधियों, आयोजनों व भूमिकाओं
से भी होकर उन्हें गुजरना पड़ता हैं प्रार्थना, योग-व्यायाम, खेल-कूद, कक्षा-शिक्षण, सास्कृतिक
गतिविधियों, बागवानी, वृक्षारोपण, प्रभातफेरी, रैलियों, विभिन्न दिवसों को मनाये जाने हेतु
आयोजित कार्यक्रमों तथा अपने साथी-समूहों, शिक्षकों व अन्य लोगों के साथ होने वाले संवादों,
वस्तुओं के आदान-प्रदान आदि के माध्यम से और विद्यालय-प्रतिनिधि, कक्षा-प्रतिनिधि,
बाल-संसद व विद्यालय में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में मिलने वाली भूमिकाओं व उत्तरदायित्व
आदि के माध्यम से बच्चों के अंदर संवेदनशीलता, मैत्री, समूह-भावना तथा परस्पर सहयोग
व जिम्मेदारी की भावनाओं का विकास होता है। बच्चे के विद्यालयीय जीवन में ऐसे अनेको
कारक मौजूद होते हैं, जिनके माध्यम से समाजीकरण की प्रक्रिया संचालित होती है।
      परन्तु कभी-कभी विद्यालयों में बच्चों के समाजीकरण की यह प्रक्रिया सहभागात्मक की
बजाय दमनकारी स्वरूप धारण कर लेती है। बच्चों की समझ व संवेदनाओं को महत्व न
देते हुए विद्यालयीय घटक अपने निर्मित आधारों के अनुरूप अनुकूलन हेतु बच्चों को बाध्य
करते हैं। यह स्थिति बालक के मन को गंभीर कुण्ठाओं व अंतर्विरोधी से भर देती है और
कभी-कभी बच्चा परिवार व आस-पड़ोस के माध्यम से स्वाभाविक ढंग से सीखे हुए व्यवहारों
व मूल्यों को भूलाकर नाकरात्मक व्यवहार करने लगता है। इस प्रकार दमनात्मक समाजीकरण,
विसमाजीकरण (पूर्ण समाजीकरण के प्रभाव को नष्ट कराने वाला) तथा नकारात्मक
समाजीकरण (त्याज्य व निषेधित व्यवहार प्रतिमान को ग्रहण करना) की दिशा की ओर ले
जाने का काम करने लगती है। अतः विद्यालयीय वातावरण में चलने वाले सोद्देश्य समाजीकरण
की प्रक्रिया में बच्चों की समझ व संवेदनाओं के लिए भी जगह होनी चाहिए ताकि सही
मायने में यह प्रक्रिया बाध्यकारी होने की बजाय लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप चयनात्मक
व मूल्यांकन हो सके। अतः विद्यालयों में एक समझ विकसित करने की आवश्यकता है, कि
बच्चे भविष्य नहीं बल्कि वर्तमान हैं।
      विद्यालयीय जीवन के विभिन्न कारक बच्चों के समक्ष सामाजिक अंत:क्रिया के विभिन्न
अवसर प्रस्तुत करते हैं यह सामाजिक अंत:क्रिया मूलतः सहयोग, प्रतियोगिता, संघर्ष, व्यवस्थापन
तथा आत्मसातीकरण के रूप में होती है।
           शिक्षा, शिक्षण व विद्यालय की व्यवस्था समाज ने अपनी आशाओं के अनुरूप किया
है। चूँकि समाज जीवंत है, अत: उसकी आशाएँ भी चिरस्थाई नहीं है। अतः समाज की इकाई
के रूप में व्यक्ति व समान सोच व समझ रखने वाला उनका समूह निरंतर सामाजिक आशाओं
को संशोधित, निर्मित व पुनर्निर्मित करते रहता है। इस प्रकार शिक्षा, शिक्षण व विद्यालयीय
व्यवस्था के आधार, संदर्भ, लक्ष्य, उद्देश्य व दिशा निरंतर संशोधित, निर्मित व पुनर्निर्मित होते
रहते हैं। हमारा सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनैतिक जीवन तथा चिंतन शिक्षा, शिक्षण
व विद्यालयों की दिशा तय करते हैं। चूँकि हमारा समाज ग्रामीण, शहरी तथा नगरीय, पिछड़े,
मध्यम वर्ग तथा अगड़े, आर्थिक सुविधासंपन्न, सामान्य व सुविधाहीन; राजनैतिक समझ व
शक्ति संपन्न, समर्थक व हासिए पर जीने वाले और विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों व भाषाओं
वाला है; अत: राज्य द्वारा विकसित व पोषित शिक्षा, शिक्षण व विद्यालयों के स्वरूप व दशा
में भी पर्याप्त भिन्नताएँ हैं। इस प्रकार इनके संदर्भ में किन्हीं निश्चित सामाजिक, सांस्कृतिक,
आर्थिक व राजनैतिक आधारों की सर्वव्यापकता को स्थापित करना व सामान्यीकृत निर्णय लेना
उचित नहीं होगा। परंपरा व रूढ़ियों द्वारा स्थापित वाद और स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व न्याय
की मान्यताओं वाले लोकतांत्रिक मूल्यों के रूप में प्रतिवाद के द्वंद्व से उपजा संश्लेषणात्मक
संवाद ही शिक्षा, शिक्षण तथा विद्यालयों के लिए आधार प्रस्तुत करता है। चूँकि विद्यालय
भिन्न-भिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक परिवेश में स्थापित हैं अतः उनके संश्लेषण
का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न है। इसलिए एक शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने
विद्यालय को वहाँ के परिवेश के अनुरूप समझे व तदनरूप वहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ
व व्यवहार को विकसित करने का वातावरण तैयार करे। अतः विद्यालय जहाँ स्थित है उस
जगह के इतिहास, भूगोल, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, वहाँ घटने वाली प्रमुख घटनाओं, वहाँ के
समुदाय की मान्यताओं व विश्वासों, वहाँ के लोगों की आशाओं, वहाँ के प्रभुत्व वर्ग के प्रभुता
के कारणों व उस वर्ग का समुदाय के प्रति मतों व अभिवृत्तियों, वहाँ हासिए पर जीने वाले
लोगों की पीड़ाओं व समस्याओं तथा प्रभुता संपन्न लोगों के प्रति उनके अभिवृत्तियों आदि
को समझ वहाँ के शिक्षक को आवश्यक रूप से विकसित करनी पड़ेगी ताकि वहाँ के बच्चों
के विकास तथा विद्यालय व समाज के परस्पर जुड़ाव हेतु अपनाई जाने वाली रणनीतियाँ व
व्यूह-रचनाओं के निर्माण में उपरोक्त समझ का सदुपयोग किया जा सके।
          शिक्षक संस्था के रूप में शिक्षा व शिक्षायी विषय-वस्तु है जो विद्यालयीय व्यवस्था के
केन्द्र में है जिसके इर्द-गिर्द विद्यालय का समस्त आयोजन संचालित हो रहा है। समाज अपनी
क्रमशः बदलती जरूरतों, मान्यताओं व विश्वासों के अनुरूप शिक्षा के स्वरूप को निर्मित करते
रहता है और इस प्रकार शिक्षायी विषय-वस्तु में भी आवश्यक परिवर्तन होते रहता है। अतः
शिक्षायी विषय-वस्तु स्वतंत्र न होकर समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था व राजनीति सापेक्ष है।
समाज की आशाएँ व जरूरतें, संस्कृति की मान्यताएँ व विश्वास, अर्थव्यवस्था की आवश्यकताएँ
तथा राजनीतिक की दृष्टि आदि शिक्षायी विषय-वस्तु को तय करते हैं। अतः हमें शिक्षायी
विषय-वस्तु को इस विस्तृत दृष्टिकोण से देखना होगा ताकि आवश्यकता व उपयोगिता के
आधार पर निरंतर इसका आकलन, मूल्यकरण व मूल्यांकन होता रहे और इस प्रकार अनुपयोगी
विषय-वस्तु के पीछे छात्रों, विद्यालयों व शिक्षकों के लगने वाले समय व श्रम को बचाया
जा सके।
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 10. समाज की सृष्टि तथा समाज की स्रष्टा के रूप में विद्यालय की भूमिका
की विवेचना कीजिए।
अथवा, समाज के विकास में विद्यालय के कार्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा, विद्यालय समाज का, समाज के लिए तथा समाज के द्वारा है, स्पष्ट करें।
उत्तर—(क) समाज की सृष्टि के रूप में विद्यालय की भूमिका : प्राचीन काल
में मानव का सामाजिक जीवन बड़ा ही सरल था। उस बालक को जिसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक
आवश्यकताओं की अपेक्षा होती थी, उसकी पूर्ति परिवार अपने अनुभव के आधार पर करता
था। तत्पश्चात् इस उद्देश्य की पूर्ति देवालयों अथवा गिरजाघरों के धार्मिक कृत्यों द्वारा की जाने
लगी। जब तक किसी का व्यवसाय अथवा व्यापार घर अथवा गाँव में चलता था, तब तक
परिवार तथा देवालय बच्चों की शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे।
      समय के साथ समाज का आकार बढ़ा, तब उन्होंने अपनी उचित शिक्षा के लिए विद्यालय
की रचना की। अन्य साधन अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा कार्य में योगदान देते रहे, किन्तु स्कूल
प्राथमिक, प्रत्यक्ष और ज्ञात रूप से शिक्षा-कार्य में लग गया। गिनती और लिपि के विकास
के फलस्वरूप इसका जन्म हो गया पाया। भारत, मिश्र, यूनान, चीन, रोम, बेबीलोन सभी प्राचीन
संस्कृति के लिए प्रसिद्ध देशों में स्कूल का विकास हुआ। विद्यालयों की स्थापना होने पर
भी वहाँ केवल राजा-महाराजाओं व कुलीन वंशजों को ही शिक्षा दी जाती थी। जनसाधारण
तथा सार्वजनिक शिक्षा का प्रचार प्रजातंत्र की देन है। जैसे-जैसे समाज में प्रजातंत्र की भावना
फैलती गई, वैसे-वैसे शिक्षा सार्वजनिक बनती गई।
          स्कूल प्रथा का विकास― संसार के प्रसिद्ध सांस्कृतिक नगरों जैसे भारत, चीन, मिश्र,
बेबीलोनिया, यूनान, रोम आदि में सबसे पहले स्कूल का सूत्रपात हुआ। इन दिनों बालकों को
केवल सांस्कृतिक शिक्षा दी जाती थी। उन्हें भाषा, धर्म, दर्शनशास्त्र, गणित आदि से परिचित
कराया जाता था। किन्तु इस प्रकार के विद्यालय सबके लिए सुलभ नहीं थे। भारत में इस
प्रकार की शिक्षा ब्राह्मणों तथा उच्च वर्गों तक ही सीमित थी। आगे चलकर सामान्य जन-समूहों
के बच्चों के लिए भी विद्यालय खोले जाने लगे और औपचारिक शिक्षण संस्थाओं का स्वतंत्र
रूप से विकास हुआ।
         इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि समाज ही विद्यालय का निर्माता है और विद्यालय
का जो रूप हम आज देख रहे हैं, उसके विकास में समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
(ख) समाज की स्रष्टा के रूप में विद्यालय की भूमिका-समाज के लिए स्रष्टा
के रूप में विद्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विद्यालय अपने रचनात्मक कार्यक्रमों के
द्वारा समाज को आगे बढ़ा सकता है तथा अपनी अमिट छाप समाज पर छोड़ सकता है। स्कूल
एक सामाजिक संस्था है, जिसका उद्देश्य केवल इतना ही है कि कतिपय सामाजिक कार्य
में आवश्यकता को पूर्ति करे। स्कूल केवल औपचारिक शिक्षा का केन्द्र नहीं है, वरन् वहाँ
पर बालक को समाज में रहने की शिक्षा मिलती है। वहाँ उसको सुसंस्कृत तथा आदर्श नागरिक
बनाया जाता है। विद्यालय एक लोक संस्था है। एक लोक संस्था के लिए यह जरूरी है कि
वह लोगों की आवश्यकताओं तथा समस्याओं पर केन्द्रित हो। उसका पाठ्य-क्रम उसके जीवन
का आदर्श हो। उसके कार्य की विधि उन्हीं के अनुसार हो। वह जाति के जीवन और चरित्र
को प्रतिबिम्बित करने वाला हो। स्कूल की शिक्षा का सामाजिक वातावरण के साथ गहरा सम्बन्ध
है। तभी विद्यालय समाज के स्रष्टा के रूप में अपने उत्तरदायित्व का पालन कर सकता है।
    समाज के विकास में विद्यालय का कार्य― समाज के विकास के लिए विद्यालय कों
निम्नांकित कार्य करने चाहिए :
1. स्कूल समाज के आवश्यकताओं और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर अवलंबित होकर
कार्यशील बने। स्थानीय जाति और उसका वातावरण स्कूल के लिए एक सुव्यवस्थित विषय-क्रम
उपस्थित करता है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि स्कूल स्थानीय जाति की आवश्यकताओं,
रुचियों का परीक्षण एवं प्रशंसा करके समुचित रूप से उनकी सेवा में तत्पर हो जाय। वह
अपने रचनात्मक तथा सहपाठ्यक्रम क्रियाकलापों द्वारा भी उनकी उन आवश्यकताओं की पूर्ति
में तत्पर हो जाय। स्कूल बालकों की किताबी अथवा कतिपय पाठ्यक्रम सम्बन्धी कलाओं
की या रचनाओं के ज्ञान तक हो अपने को सीमित न रखे, अपितु वह बालकों की सामाजिक
रुचियों की भी पूर्ति करे।
2. स्कूल अनेक प्रकार से समाज का सहयोग प्राप्त कर सकता है। स्कूल अनेक प्रकार
का सहयोग अपने यहाँ के समारोहों तथा कार्यक्रमों के अवसर पर समाज से प्राप्त कर सकता
है। यह तभी संभव है जब दोनों में पारस्परिक सम्बन्ध हो। इस प्रकार जब स्कूल और समाज
में पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान होगा, तब सामाजिक सम्पर्क बढ़ेगा।
3. यह जरूरी है कि समाज की बहुमुखी आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर पाठ्यक्रम
में परिवर्तन किया जाय। पाठ्यक्रम सामाजिक परिवेश अथवा आवश्यकता पर आधारित हो।
4. विद्यालय का उद्देश्य समाज के अभ्युदय की ओर ले जाने वाला होना चाहिए। स्कूल
का कर्तव्य है कि वह सामाजिक बुराइयों के प्रति समाज को जागरुक बनाये। वह जुआ, दहेज,
ऋण, नशाखोरी, मुकदमेबाजी आदि दुर्गुणों से बचने के लिए समाज पर प्रभाव डाले तथा
सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य आदि विकासात्मक कार्यों में समाज का नेतृत्व तथा सहयोग करें।
5. विद्यालय समाज का लघुरूप है। एक छोटा, सुन्दर, व्यवस्थित समाज वह है जिसके
दायरे में बहुत-कुछ सिखाया जाता है। स्कूल एक आदर्श समाज है, जिसके द्वारा समस्त
अच्छाइयों और गुणों को आत्मसात कराया जाता है। जनतंत्रीय विद्यालयों में विद्यार्थियों को
स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व का ऐसा पाठ पढ़ाना चाहिए, जिसे वे जीवनपर्यन्त न भूलें। समुन्नत
व्यक्तित्व तथा सुसंस्कृत जीवन बिताने की शिक्षा देना स्कूल का कर्तव्य है। स्मिथ ने ठीक
ही कहा है, विद्यालय सभ्य मनुष्यों के द्वारा स्थापित की गई संस्थाएँ हैं, जिनका उद्देश्य युवक
की तैयारी में मदद करना है, जिससे वह समाज में अच्छी तरह व्यवस्थित हो सकें और उसका
ये योग्य और कुशल सदस्य बन सकें।
6. बेलार्ड ने कहा है– “शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति की व्यापक दृष्टि से
विचारे हुए सामाजिक सम्बन्ध के बीच सफलतापूर्वक भाग लेना सिखाया जाता है। विद्यालय
ऐसे ही महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने के लिए जन्मा है।” विद्यालय का कर्त्तव्य है कि
वह विद्यार्थियों को पाठ्य-विषय के अतिरिक्त बौद्धिक प्रशिक्षण, चरित्र-शिक्षा, सामाजिक
जीवन-शिक्षण, देशभक्ति की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की शिक्षा दे।
7. अनौपचारिक रूप से विद्यालय को खेल-कूद, समाज सेवा, नाटक, कहानी, कविता,
आदि की प्रतियोगिता और अनेक सहगामी क्रियाशीलों की व्यवस्था करनी चाहिए। नन महोदय
ने इस क्षेत्र पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि “विद्यालय को सर्वप्रथम एक शिक्षण स्थान’
के रूप में नहीं सोचना चाहिए वरन् वह ऐसा स्थान है; जहाँ बच्चे किसी विशेष क्रिया में अनुशासित
किए जाते हैं-विशेष क्रियाएँ जो व्यापक संसार में अधिक और स्थायी महत्व की है।”
उपर्युक्त कार्यों के द्वारा ही विद्यालय समाज के स्रष्टा रूप में अपने का सक्षम बना सकता है।
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
प्रश्न 11. विद्यालय को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के कोन-कौन से उपाय
है ? वर्णन कीजिए।
उत्तर― कभी-कभी विद्यालयों में बच्चों के समाजीकरण की प्रक्रिया सहभागात्मक की
बजाय दमनकारी स्वरूप धारण कर लेती है। बच्चों को समझ व संवेदनाओं को महत्व न
देते हुए विद्यालयीय घटक अपने निर्मित आधारों के अनुरूप अनुकूलन हेतु बच्चों को बाध्य
करते हैं। यह स्थिति बालमन को गंभीर कुण्ठाओं व अंतर्विरोधों से भर देती है और कभी-कभी
बच्चा परिवार व आस-पड़ोस के माध्यम से स्वभाविक ढंग से सीखे हुए व्यवहारों व मूल्यों
को भूलाकर नकारात्मक व्यवहार करने लगता है। इन सभी को दूर करने के लिए विद्यालय
को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने की आवश्यकता है।
          विद्यालय को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के उपाय निम्न है:
1. घर या परिवार से सहयोग― शिक्षा के प्रभावशाली साधन बनाने के लिए विद्यालय
को घर से सहयोग करना चाहिए। उससे बच्चों की आदतों, रुचियों, गुणों और अवगुणों का
पता चल जाएगा। इन बातों को जानकर शिक्षक सम्यक् रूप से छात्रों का पथ-प्रदर्शन कर
सकते हैं। दूसरी ओर माता-पिता भी अपने बच्चों के बारे में शिक्षकों के विचार से लाभ उठा
सकते हैं। शिक्षकों और अभिभावकों मे निकट सम्पर्क स्थापित करने के लिए निम्नलिखित
उपायों को अपनाया जा सकता है
(i) अभिभावक संघ–अभिभावकों और शिक्षकों को एक-दूसरे के सम्पर्क में लाने के
लिए अभिभावक-मंच स्थापित किए जाने चाहिए। संघ की बैठकों का कार्य बदलता रहना
चाहिए; जैसे—अभिभावकों और शिक्षकों में बच्चों की शिक्षा के बारे में विचार-विमर्श, नई
शिक्षण-विधियों की व्याख्या, प्रदर्शन, शिक्षा में नई प्रवृत्तियों पर भाषण इत्यादि। इन सब बातों
में अभिभावकों के ज्ञान में वृद्धि होगी और वे शिक्षकों को महत्त्वपूर्ण सहयोग दे सकेंगे।
(ii) अभिभावक― दिवस-प्रत्येक विद्यालय में प्रतिवर्ष एक या दो बार अभिभावक-दिवस
मनाया जाना चाहिए। इस अवसर पर अभिभावकों को अपने बच्चों के खेल-कूद, नाटक, प्रदर्शनी
आदि को देखने का अवसर दिया जाना चाहिए।
(iii) प्रगति पत्र― अभिभावकों के पास उनके बच्चे के प्रगति-पत्र अवश्य भेजे जाने
चाहिए। इनसे वे जान सकेंग उनके बच्च विद्यालय में उन्नति कर रहे हैं या नहीं।
(iv) छात्रों के घर जाना—शिक्षकों को समय-समय पर छात्रों के घर जाना चाहिए।
ऐसा करने से वे अभिभावकका शिक्षको की समय और अभिभावकों से छात्रों की समस्याओं
पर विचार-विमर्श कर सकेंगे।
2.सामाजिक जीवन से सम्पर्क-यह शिकायत प्रायः सर्वत्र सुनने को मिलती है कि
विद्यालय का सामाजिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता। फलतः जब बालक शिक्षा समाप्त
करके जीवन में प्रवेश करता है तो उसे जीवन का ज्ञान ठीक से नहीं रहता। वास्तव में विद्यालय
का सामाजिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए। उसे बाहर के समाज का छोटा रूप
होना चाहिए। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्न उपायों को काम में लाया जा सकता है:
(i) समाज सेवा में भाग–समुदाय की भलाई के लिए छात्रों को विभिन्न प्रकार के
सामाजिक कार्यों में सक्रिय भाग लेना चाहिए। विद्यालय को छात्रों में समाज सेवा के आदर्श
और इच्छा को कूट-कूट कर भरने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही, उसे छात्रों को समाज-सेवा के अवसर और सुविधाएँ देनी चाहिए।
(ii) समाज के सदस्यों को निमंत्रण― विद्यालय को समाज के ऐसे सदस्यों को
समय-समय पर निमंत्रण भेजना चाहिए, जो विभिन्न उपयोगी कार्यों में लगे हुए हों। ये सदस्य।
अपने भाषणों द्वारा छात्रों को बताएं कि उनके कार्यों का समाज में क्या स्थान है, और इन
कार्यों की कठिनाइयाँ और इच्छाइयाँ क्या हैं? इस प्रकार छात्रों में समाज का ज्ञान बढ़ेगा।
(iii) सामाजिक विषयों का शिक्षण―विद्यालय को सामाजिक विषय के अध्ययन पर
बल देना चाहिए। इससे छात्रों को समाज के राजनीतिक आर्थिक बातों का ज्ञान प्राप्त होगा।
(iv) प्रौढ़ शिक्षा का केन्द्र―विद्यालय को प्रौढ़-शिक्षा का केन्द्र होना चाहिए। इससे
भारत जैसे देश की निरक्षरता की समस्या कुछ सीमा तक हल हो सकती है। इसके अतिरिक्त,
विद्यालय के सम्पर्क में रहने के कारण प्रौढ़ व्यक्ति विद्यालय की प्रगति में रुचि लेने लगेंगे।
(v) सामाजिक सेवा-संघों का निर्माण―सैयदेन ने विद्यालयों में, समाज सेवा संघों के
निर्माण पर बहुत बल दिया हैं ये संघ बाढ़ आने पर, छूत की बीमारियाँ फैलने पर अथवा
उत्सवों और जुलूसों में आसपास के लोगों की सहायता करें। संघ के इन कार्यों को स्काउटिंग
कार्यों से सम्बन्धित करके जनता का बहुत हित किया जा सकता है।
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
F-1 समाज शिक्षा और पाठ्यचर्या की समझ
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