F-10

पर्यावरण अध्ययन का शिक्षणशास्त्र

पर्यावरण अध्ययन का शिक्षणशास्त्र

पर्यावरण अध्ययन का शिक्षणशास्त्र
                                           लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पर्यावरण अध्ययन की प्रकृति एवं क्षेत्र की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर―पर्यावरण अध्ययन का विकास विभिन्न विषयों के समेकित रूप में हुआ है।
प्राथमिक स्तर पर प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान और पर्यावरण शिक्षा के समेकित रूप
में पर्यावरण अध्ययन का अध्यापन किया जाता है । NCF 2005 भी कहता है कि “विज्ञान
व सामाजिक विज्ञान को पर्यावरण अध्ययन में समाहित करना चाहिए, जिसमें स्वास्थ्य शिक्षा
भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इतना ही नहीं यह विषय तो भाषा, गणित, कला, शिक्षा आदि
का भी कुछ पुट लिए रहता है।” वस्तुत: पर्यावरण अध्ययन विषयगत सीमांकन से लगभग
मुक्त विषय है तथा परिवेश में परिवर्तन के फलस्वरूप पड़ने वाले प्रभाव तथा परिवेश को
समझे जाने वाले तरीकों का अध्ययन इसकी मुख्य विषयवस्तु है।
      पर्यावरण अध्ययन निकटतम व्यक्तिगत दैहिक घेरे से लेकर वृहत्तर ब्रह्माण्ड का अध्ययन
है। ये सारी जैव-अजैव वस्तुएँ, परिस्थितियाँ, घटनाएँ, कारक, बल एवं क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ
जो जीव-जगत को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करती हैं, पर्यावरण अध्ययन की दृष्टि
से महत्त्वपूर्ण हैं। वस्तुतः पर्यावरण अध्ययन प्रकृति, उसका प्रभाव तथा मानवीय अंत:क्रिया
के फलस्वरूप प्रभावित प्रकृति का अध्ययन है। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के चारों
ओर के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक घेरे में सम्पन्न होने वाली सभी प्रकार की क्रियाओं, परिवर्तनों,
अंतःक्रियाओं और उनके प्रभावों का अध्ययन पर्यावरण अध्ययन के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।
प्रश्न 2. “पर्यावरण शिक्षा बहु-विषयी होती है” स्पष्ट करें।
उत्तर–पर्यावरण शिक्षा, एक ऐसा अध्ययन क्षेत्र है, जिसमें जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों तथा
मनुष्य समुदायों के अपने वातावरण के साथ अंतर्सबंध बनते हैं। इनका वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन
करना ही पर्यावरण शिक्षा है। पर्यावरण शिक्षा का पाठ्यक्रम प्रकृति और समाज के संगम
को दर्शाता है, अर्थात् उसमें जहाँ भौतिक परिवेश बोलता है, वहाँ सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश
भी मौन नहीं रहता। अर्थात् मानव जहाँ एक तरफ प्रकृति से जुड़ा हुआ है, तो दूसरी ओर
समाज से। दोनों का क्षेत्र व्यापक है। प्रकृति के अध्ययन में जहाँ वनस्पतिशास्त्र, भूगोल,
कृषि-वानिकी, जीवविज्ञान, रसायन, भौतिकशास्त्र और इनसे जुड़े हुए विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी
के विषय आ जाते हैं। वहीं समाज का अंग बनने के साथ ही मानव उन सभी परिस्थितियों,
अंतर-संबंधों एवं प्रतिक्रियाओं का भी अंग बन जाता है, जो अतीत से लेकर भविष्य तक
अपना विस्तार रखती हैं। उसके विश्वास, आस्थाएँ, रहन-सहन के तरीके, प्रतिक्रियाएँ आदि
सभी व्यापक समाज से जुड़ी हुई बातें हैं और ये बातें जिन शास्त्रों की रचना करती हैं, वे
हैं—इतिहास, धर्मशास्त्र, दर्शन, साहित्य मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, नेतृत्वशास्त्र, अर्थशास्त्र,
नागरिकशास्त्र, भूगोल आदि । पर्यावरण का इन सबके साथ कहीं न कहीं, कोई न कोई रिश्ता
अवश्य है । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि पर्यावरण शिक्षा एकांगो नहीं, सर्वांगी
है, अलग-थलग नहीं, सबको समाये हुए है और संकीर्ण नहीं, व्यापक है। इसलिए पर्यावरण
शिक्षा के लिए बुनियादी तैयारी तो जरूरी है ही, क्रियान्वयन के चरण भी तय करना जरूरी
है। प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में जहाँ किसी न किसी तरह
की निरंतरता तो रहती है, वहीं स्तर के अनुसार विषय क्षेत्र का विस्तार भी होता रहता है।
बच्चे की जिज्ञासा का धरातल जितना अधिक बढ़ता जाता है, पर्यावरण शिक्षा की सामग्री
का फैलाव भी उतना ही विस्तृत होता चला जाता है।
प्रश्न 3. थीम प्रकरण के मित्र और आस-पास के वातावरण तथा भोजन का संक्षेप
में विवरण दें।
उत्तर― थीम-परिवार, मित्र और आस-पास का वातावरण परिवारों और रिश्तों की
पहचान, घर के बुजुर्गों से उनके बचपन के बारे में जानना, अपने मित्रों के बारे में बताना,
दोस्तों के साथ किए जाने वाले कार्यों की सूची बनाना । विभिन्न प्रकार के आवासों में समानता
और अंतर देखना । जीव-जंतुओं के समूह में से विशेषता के आधार पर समूह बनाना जैसे
जमीन पर चलने वाले, तैरने वाले, उड़ने वाले । चोंच में पाए जाने वाले अन्तर, पालने वाले
जानवरों के नाम अलग छांटना । आस-पास के पेड़ पौधों के तने एवं पत्तों के आकार के
आधार पर फर्क समझना । पत्तियों की खुशबू, रंग एवं डिजाइन में फर्क को समझना, पत्तियों
में समानता और फर्क को समझना, विभिन्न प्रकार के आवासों में समानता और अंतर को
देखना । पुराने समय के वाहनों के बारे में पता करना। स्वयं की यात्रा के अनुभव सुनाना
तथा अन्य बालकों के अनुभव सुनाना । यात्रा के लिए प्रयोग में आने वाले विभिन्न वाहनों
के बारे में पढ़ना, बातचीत करना ।
      थीम-भोजन—भोजन संबंधित सांस्कृतिक विभिन्नता, भोज्य पदार्थ प्रदान करने वाले पौधों
और जंतुओं के बारे में आधारभूत अवधारणा ।
        राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में खाए जाने वाले विशेष भोज्य पदार्थ, भोजन को पकाकर
और बिना पकाये/कच्चा खाया जाना, भोजन पकाने के लिए काम आने वाले विभिन्न ईंधन
तथा भोजन पकाने में काम में आने वाले विभिन्न उपकरण स्टोव, गैस चूल्हा, सौर चूल्हा
आदि विभिन्न अंचलों में खाना बनाने में काम आने वाले बर्तन/परिवार में भोजन पकाने के
कार्य में जेण्डर संवेदनशीलता, परिवार में लोगों की भोजन संबंधी आदतें, आयु, लिंग और
शारीरिक कार्यों के अनुरूप भोजन की मात्रा, शिशु का भोजन, शिशु के भोजन में माँ के
दूध का महत्त्व, पालतू और जंगली जानवरों का भोजन आदि ।
प्रश्न 4. थीम प्रकरण आस तथा जल के बारे में संक्षेप में बताएँ।
उत्तर―थीम-आवास― विभिन्न प्रकार के आवासों में समानता एवं अंतर को देखना,
आर्थिक स्थिति के आधार पर आवाम मानता को लेकर बातचीत करना; जैसे—जहाँ शहर
या आस-पास ऊँची इमारतें हैं, वहीं कुछ लोग जो फुटपाथ पर भी रहते हैं। चित्र के आधार
पर आवासों में फर्क करना। आस-पास अवलोकन करके मकानों के निर्माण की सामग्री की
सूची तैयार करना । नक्शे में से वस्तुओं की सूची बनाना। स्वयं के घर का चित्र बनाना एवं
घर के सदस्यों के बारे में लिखना। चित्र की सहायता से पक्षियों एवं जानवरों के आवास
के बारे में अपने विचार रखना। पक्षियों के घोंसलों के चित्र बनाना। घर व आस-पास की
सफाई तथा विशेष अवसरों पर घर सजाने के तरीके इस्तेमाल कर रहे साधनों के बारे में
बताना । नक्शे पर आधारित प्रश्नों का (जैसे निशाना बनाना, वस्तुओं की सूची तैयार करना)
उत्तर लिखना, नक्शा बनाने के संकेत/निशान की आवश्यकता आदि मुद्दों पर बातचीत में भाग
लेना/अपने आस-पास रैन बसेरों के बारे में पता लगाना/रैन-बसेरों की सुविधा के बारे में बड़ों
से पता करना। आस-पास की किसी ऐतिहासिक इमारत के बारे में जानकारी एकत्रित
करना/आवास की आवश्यकता (बरसात, सर्दी-गर्मी एवं अन्य समस्याओं से बचने के लिए
आवास की आवश्यकता है) साथ-साथ रहने के लिए घर की आवश्यकता/पर क्यों बनाए
जाते हैं, के बारे में चर्चा, घर की साफ-सफाई की आवश्यकता, सफाई में सभी के सभी के सहयोग
की आवश्यकता/घर का कचरा फेंकने के लिए स्थान/विभिन्न संस्कृति में घरआवास को
अलग-अलग तरीके से सजाया जाता है/जलचरों के विभिन्न प्रकार के आवास ।
        थीम-जल―जल के स्थानीय स्रोत, पानी के उपयोग आदि के बारे में अपने अनुभव
शेयर करना, पानी की कमी, एक बार इस्तेमाल किए पानी का पुन: उपयोग, पानी की बरबादी
आदि के बारे में बातचीत करना । पानी की कमी के कारण, पानी की उपलब्धता, पानी की
दैनिक जीवन पर असर, गाँव एवं शहर में जल स्रोत, वर्षा प्रात्तु में आस-पास का वातावरण
पर प्रभाव, वर्षा के जल को घर में संग्रहण करने के तरीके, जल की मात्रात्मक जानकारी,
पानी भरने में लिंग आधारित भूमिका एवं सामाजिक भेदभाव, जल प्राप्त करने में दूरी एवं
उपयोग की मात्रा का अनुमान जल की शुद्धता आदि ।
प्रश्न 5. थीम प्रकरण यात्रा और कुछ करना तथा कुछ बनाना पर एक संक्षिप्त
विवरण दें।
उत्तर―थीम-यात्रा-स्वयं की यात्रा के अनुभव सुनाना तथा अन्य बालकों के अनुभव
सुनना, यात्रा के लिए प्रयोग में आने वाले विभिन्न वाहनों के बारे में पढ़ना एवं बातचीत करना,
अलग-अलग प्रकार के फोन के चित्र बनाना, फोन एवं चिट्ठी के बारे में अपने विचार लिखना,
सुराने समय के वाहनों के बारे में पता करना, बीस साल बाद किस प्रकार के वाहन होंगे,
इस बारे में कल्पना करके लिखना, किसके माध्यम से पर्वतारोहण और साहसिक यात्रा के
बारे में जानकारी होना । पर्वतारोहण में इस्तेमाल की जाने वाली चीजों के चित्र देखकर पहचानना,
ट्रैफिक संकेतों को पहचानना । अवलोकन द्वारा चन्द्रमा के विभिन्न आकरों के चित्र बनाना।
किसी पहाड़ पर अकेले रहने के लिए तैयारी करने के बारे में कल्पना से लिखना, अवलोकन
के आधार वाहनों की सूची बनाना, प्रकरण से सम्बन्धित चित्रों में सूक्ष्म विवरण को देख पाना
चिट्ठियों में अन्तर देखना (जैसे डाक टिकटों में फर्क, डाक का ठप्पा), डाकघर का अवलोकन,
चित्र देखकर रेलवे स्टेशन की विभिन्न घटनाओं पर बातचीत करना ।
       थीम-कुछ करना और बनाना―घर के कार्य एवं कार्यों का समय से संबंध पर विचार
करना, लिंग, आयु के आधार पर कार्यों के विभाजन पर विचार, काम एवं आराम के समय
की जानकारी होना, स्थानीय एवं घरेलू, बाहरी खेलों की चर्चा, विभिन्न शारीरिक व्यायाम,
बालकों के विद्यालय जाने के महत्त्व पर चर्चा, जाति एवं आर्थिक आधार पर बालकों के कार्य
पर चर्चा, रंग, आकार, आकृति के आधार पर पत्तों को वर्गीकृत करना, कपड़ों या अन्य वस्तुओं
में फूल एवं पत्तियों के डिजाइन खोजना, खिलौनों का वर्गीकरण जिन वस्तुओं से बनते हैं, उस
आधार पर करना । चिकनी मिट्टी से ईंट तैयार करके घर बनाना । माचिस के डिब्बे से रेलगाड़ी
बनाना, पत्र पेटी बनाना, डाक टिकट इकट्ठे करके चिपकाना, फोन बनाना, मिट्टी से बर्तन
बनाना, परिचित पेड़-पौधों के बारे मे अपने अनुभव बता पाना, लोगों की जरूरतें और उनके
लिए चीजें बनाने की कोशिश, लोगों की रचनात्मकता और सूझ-बूझ, मिट्टी के गुण, मनुष्य
के शुरू में बर्तन कैसे बनाएँ—इसका परिचय, बर्तन बनाने के तरीकों का विकास ।
प्रश्न 6. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 (NCF-2005) एवं बिहार पाठ्यचर्या 2008 (BCF-
2008) की रूपरेखा के संदर्भ में पर्यावरण अध्ययन की संक्षेप में चर्चा करें।
उत्तर―1977 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या समिति द्वारा दस वर्ष का स्कूली पाठ्यक्रम बनाया
गया। इसके अंतर्गत यह अनुशंसा की गई कि प्राथमिक कक्षाओं में पर्यावरण अध्ययन को
एकल विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए । प्रथम दो कक्षाओं (I-II) की पाठ्यपुस्तकों में
प्राकृतिक व सामाजिक दोनों वातावरणों को सम्मिलित रूप से प्रस्तुत किया जाना प्रस्तावित
हुआ। कक्षा 3. 4 व 5 तक इसे सामाजिक अध्ययन व सामान्य विज्ञान के रूप में पर्यावरण
भाग-1 व पर्यावरण भाग-2 के रूप में पढ़ाए जाने का प्रस्ताव रखा गया । राष्ट्रीय शिक्षा नीति
1986 एवं राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 1988 ने भी इस विचार को समर्थन व बढ़ावा दिया ।
इसके बाद के समय में अपने आसपास की दुनिया को देखने व समझने के लिए बच्चे
क्या-क्या प्रक्रियाएँ अपनाते हैं, वे इनके बारे में कैसे सीखते हैं, आदि विषयों पर कई शोध
हुए। इन शोधों से पर्यावरण अध्ययन का शिक्षणशास्त्र भी प्रभावित हुआ। अतः बाद के समय
में पर्यावरण के शिक्षणशास्त्र व शिक्षकों से ये अपेक्षाएँ बढ़ीं कि बच्चों में इससे संबंधित कौशलों
व समझ के विकास में बढ़ावा हो।
    इन शोधों से बात भी सामने आई कि बच्चे हों या हम, सभी अपने आसपास के वातावरण
को प्राकृतिक व सामाजिक घटकों के रूप में बाँट कर नहीं देखते हैं। पर्यावरण का एकीकृत
रूप ही हमारे जीवन का हिस्सा होता है। अत: NCF-2000 में पर्यावरण को प्राथमिक कक्षाओं
में (1-5) एकीकृत रूप में प्रस्तुत करने की मांग पर जोर दिया गया । वर्तमान में NCF-2005
भी इसी स्वरूप का समर्थन करता है व इसे और सशक्त रूप में रखने की अनुशंसा भी करता
है । BCF-2008 भी इसी अनुशंसा को बल देता है।
प्रश्न 7. स्थानीय परिवेश तथा परिवार का बालक के विकास पर क्या प्रभाव पड़ता
है?
उत्तर–परिवेश एवं परिवार की स्थिति― बच्चे के आस-पास का परिवेश तथा परिवार
की स्थिति का उसके विकास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। बच्चों के विकास में परिवार का
भूमिका अति महत्त्वपूर्ण होती है। चाहे बच्चों का शारीरिक विकास हो या मानसिक, संवेगात्मक
विकास हो या सामाजिक, परिवार ही वह पहली इकाई है, जहाँ विकास के सभी आयामों की
नींव पड़ती है। बच्चों को पौष्टिक भोजन एवं स्वास्थ्य सम्बन्धित सुविधाएँ देने की जिम्मेदारी
परिवार की ही होती है जो कि बच्चों के शारीरिक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है।
किसी भी बच्चे का पहला सामाजिक अनुभव उसके परिवार में होता है । शब्द भाव-भंगिमा.
वाक्य-रचना, व्यवहार-शिष्टाचार आदि सभी बच्चा अपने परिवार से सीखता है। प्रारंभिक वर्षों
में उसे जो अनुभव या संस्कार मिले हैं, वे ही आगे चलकर बच्चों के विकास के सामाजिक
एवं भावात्मक पहलू का निर्धारण करते हैं । आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार के बच्चे शारीरिक
एवं मानसिक रूप से विकसित होते हैं, क्योंकि इन्हें हर प्रकार की सुविधा प्राप्त होती है, जिससे
उन्हें मानसिक संतोष मिलता है तथा र्थक स्थिति के ठीक नहीं होने से कुंठा और असन्तोष
का जन्म होता है, जिससे शारीरिक व मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
प्रश्न 8. बच्चों के परिवेश संबंधी ज्ञान तथा अनुभव को जानने के क्या तरीके
हैं ? किन्हीं चार तरीकों को बताएँ।
उत्तर―बच्चों के परिवेश संबंधी ज्ञान तथा अनुभव को जानने के निम्नलिखित तरीके हैं :
(i) आप बच्चों से अधिकाधिक बातचीत कर उनके साथ दोस्ताना रिश्ता तैयार कर
सकते हैं। ऐसा करने से ज्यादा से ज्यादा बच्चे विद्यालय आना पसंद करेंगे। यदि
आप बच्चों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में सहज नहीं है, तब भी हावभाव की
सहायता से आपको प्रयासरत रहना चाहिए।
(ii) बच्चों की बातचीत को समझने के लिए आप समुदाय के साथियों या अन्य शिक्षकों
की मदद भी ले सकते हैं।
(iii) अपनी समझ बनाने के लिए एक शिक्षक द्वारा बच्चों से सहायता लेना भी बच्चों
के लिए सकारात्मक व्यवहार दर्शाता है। शिक्षक का वह प्रयास हाशियाकृत बच्चों
को बहुत बड़ी उपलब्धि का भाव भी दे सकता है।
(iv) समय निकालकर आप बच्चों के घरों पर भी जा सकते हैं। उनके माता-पिता क्या
काम करते हैं, बच्चे उनकी किस कामों में मदद करते हैं, आदि पता कर सकते
हैं। इसके साथ ही ऐसा करने से आपको उनके रहन-सहन और संस्कृति के बारे
में भी पता चलेगा।
प्रश्न 9. कक्षा क्रियाकलापों का संगठन और आयोजन करते समय किन बातों को
ध्यान देना चाहिए?
उत्तर― क्रियाकलापों की आयोजन एवं संगठन करते समय निम्न बातों पर ध्यान देंगे:
(i) पाठ के उद्देश्यों का निर्धारण कर लेंगे कि पाठ पढ़ लेने के बाद बच्चे में कौन-सी
दक्षता विकसित होगी?
(ii) विद्यार्थियों को दिए जाने वाले निर्देशों की सूची बना लेंगे।
(iii) आवश्यक सामग्री की सूची लेंगे।
(iv) कक्षा का संगठन इस प्रकार करेंगे कि शिक्षक और शिक्षार्थी, शिक्षार्थी और दूसरे
शिक्षार्थी में अंतःक्रिया आसानी से हो सके । बच्चों को समूह में बैठने का उचित
स्थान हो।
(v) बैठने की व्यवस्था में समय-समय पर परिवर्तन करते रहेंगे।
(vi) बच्चों के साथ मिलकर क्रियाकलाप आयोजित करेंगे।
(vii) बच्चों को कक्षा में सामग्री लाने और उसका उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।
प्रश्न 10. पर्यावरण संरक्षण में परिवार की क्या भूमिका है?
उत्तर―कोई व्यक्ति. अकेला नहीं रह सकता। उसे किसी न किसी रूप में किसी न
किसी के सहयोग की आवश्यकता होती है। उसकी यह आवश्यकता परिवार के द्वारा ही
पूर्ण होती है। परिवार में सहयोग का जो आदर्श देखने को मिलता है, वह कहीं और मुश्किल
से ही देखने को मिलता है। माँ-बाप, भाई-बहन व अन्य सभी का आपस में किसी न
किसी रूप में सहयोग चलता रहता है। बाँसी के अनुसार, “परिवार वह स्थल है जहाँ
हर नई पीढ़ी नागरिकता का नया पाठ सीखती है तथा कोई व्यक्ति सहयोग के बिना जीवित
नहीं रह सकता।”
      परिवार में बालक परमार्थ और परोपकार की शिक्षा प्राप्त करता है। बनार्ड शॉ के अनुसार,
“परिवार ही वह स्थान है, जहाँ नई पीढ़ियों पारिवारिकता के साथ-साथ रोगी सेवा, छोटों
और बड़ों की सेवा और सहायता करते केवल देखती ही नहीं है, अपितु उसे करती भी हैं।”
           परिवार के मुखिया की आज्ञा व निर्देशन के अनुसार ही परिवार के सभी कार्य होते
हैं। बालक परिवार में आज्ञा पालन करना और अनुशासन में रहना सीखता है और यह गुण
पर्यावरण संरक्षण के लिए अत्यन्त आवश्यक है। काम्टे के अनुसार, “आज्ञा पालन और सरकार
दोनों रूपों में पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन का निरन्तर विद्यालय बना रहेगा।” परिवार
ही बालक को भावी जीवन निर्वाह करने योग्य बनाता है।
     परिवार बालक का प्रथम विद्यालय होता है। अतः परिवार जितना प्रभावशाली होगा बालक
का व्यक्तित्व भी निःसन्देह उतना ही प्रभावशाली होगा । इसलिए परिवार के मुखिया को परिवार
की व्यवस्था पूर्ण रूप से उचित ढंग से करनी चाहिए, जिससे घर का वातावरण अनुशासनपूर्ण
व स्वस्थ बना रहे । परिवार के मुखिया को परिवार के आस-पास (पड़ोस) के वातावरण
का भी निर्माण करने में समुचित सहयोग करना चाहिए । परिवार का मानसिक वातावरण स्वस्थ
रहना चाहिए। वह समुदाय को ऊँचा उठाने में अपना सहयोग प्रदान करे। जब तक बालक
विद्यालय में परम्परागत शिक्षा प्राप्त करने जाता है, तब तक उसके मस्तिष्क में अनेक ग्रन्थियों
का निर्माण हो चुका होता है और शिक्षक उसमें वांछित व्यवहार परिवर्तन नहीं कर पाता है।
ऐसे में परिवार का दायित्व और भी बढ़ जाता है। इस संदर्भ में प्लूटो के अनुसार, “यदि
आप चाहते हो कि वालक सुन्दर वस्तुओं की प्रशंसा और निर्माण करे तो उसे सुन्दर वस्तुओं
से घेर दो।”
          उपरोक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि परिवार बालक में ऊपर दिए गए गुणों
का विकास करके पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
प्रश्न 11. प्रयोग प्रदर्शन विधि से पया समझते हैं?
उत्तर―प्रयोग-प्रदर्शन विधि-पर्यावरणीय शिक्षा के अध्यापन के लिए यह सर्वाधिक
उपयुक्त विधि है। इस विधि के द्वारा विद्यार्थियों के संवेदी अंगों को सजग किया जा सकता
है। इसलिए इसे बहुसंवेदी शिक्षण प्रविधि भी कहा जाता है। हम जानते हैं कि ज्ञानेन्द्रियों
को ज्ञान अर्जन का द्वार कहा जाता है। यह एक ऐसी विधि है, जिसमें विद्यार्थी देखता है,
सुनता है तथा करके सीखता है। इससे अर्जित ज्ञान स्थायी और स्पष्ट हो जाता है। इससे
शिक्षक विभिन्न वस्तुओं, जीवन-जन्तुओं, पेड़-पौधों, खनिज सामग्री, रासायनिक दवाओं इत्यादि
को प्रदर्शित करके विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष ज्ञान देकर पर्यावरण के प्रति उनकी जिज्ञासाओं तथा
रुचियों को विकसित करने में सफल होता है। इस विधि के द्वारा पर्यावरण के विभिन्न घटकों,
पर्यावरणीय संकटों तथा इससे बचने के उपायों के ज्ञान को व्याख्यान के साथ-साथ विभिन्न
प्रतिमानों, आवरणों एवं रासायनिक दशाओं का प्रयोग अत्यधिक स्पष्ट रूप में करके जागरूकता
को बढ़ाया जा सकता है। अत: यह विधि पर्यावरणीय शिक्षा की सर्वोत्तम विधि कहलाती है ।
प्रश्न 12. प्रयोग-प्रदर्शन विधि के गुण-दोष बताएँ।
उत्तर—प्रयोग-प्रदर्शन विधि के गुण-इस विधि के गुण निम्नलिखित प्रकार हैं :
(i) इस विधि में विद्यार्थी स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता है।
(ii) यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है।
(iii) इसमें शिक्षक के समय एवं श्रम दोनों की बचत होती है।
(iv) शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों सक्रिय रहते हैं।
(v) विधि विद्यार्थियों निरीक्षण शक्ति और तर्क-शक्ति दोनों का विकर,
(vi) प्रत्यक्ष ज्ञान प्रदान करने की यह सबसे सरल विधि है।
(vii) यह विधि धन की भी बचत करती है।
(viii) कम उपकरणों के द्वारा शिक्षक स्वयं प्रयोग कर पूरी कक्षा को ज्ञान प्रदान करता है।
प्रयोग-प्रदर्शन के दोष—इस विधि के दोष इस प्रकार हैं:
(i) इस विधि में विद्यार्थियों की अपेक्षा शिक्षक अधिक सक्रिय रहते हैं।
(ii) विद्यार्थियों को स्वयं प्रयोग करने का मौका नहीं मिलता।
(iii) व्यक्तिगत विभिन्नता का ध्यान नहीं रखा जाता है
(iv) विद्यार्थियों की संख्या अधिक होती है। अतः यह प्रभावशाली विधि नहीं होती है।
(v) प्रयोग प्रदर्शन करते समय शिक्षक इतना लीन हो जाता है कि उसे यह ध्यान नहीं
रहता है कि विद्यार्थियों को प्रयोग समझ में भली-भाँति आ रहा है या नहीं।
(vi) आवश्यक नहीं है कि विद्यार्थी प्रयोग के समस्त भाग को ध्यान से देखें या सुनें ।
प्रश्न 13. प्रयोग-प्रदर्शन विधि को प्रभावशाली बनाने के सुझाएँ बताएँ।
उत्तर–प्रयोग-प्रदर्शन के लिए सुझाव–इस हेतु सुझाव इस प्रकार हैं :
(i) प्रयोग-प्रदर्शन को प्रभावशाली बनाने के लिए जरूरी है कि शिक्षक को समस्त
वैज्ञानिक उपकरणों तथा यंत्रों को संचालित करने का ज्ञान होना चाहिए।
(ii) प्रयोग-प्रदर्शन सही हो, इसके लिए शिक्षक को स्वयं अभ्यास कर लेना चाहिए।
(iii) प्रयोग में काम आने वाले उपकरणों को पहले से ही व्यवस्थित कर लेना चाहिए।
(iv) प्रयोग में काम आने वाले उपकरण आकार में इतने बड़े होने चाहिए कि कक्षा के
समस्त विद्यार्थी उसे देख सकें।
(v) प्रयोग ज्यादा लम्बा और उबाऊ नहीं होना चाहिए।
(vi) प्रदर्शन किसी समस्या को हल करने वाला या अवधारणा को स्पष्ट करने
होना चाहिए।
प्रश्न 14. पर्यावरणीय शिक्षा के प्रसार में शिक्षक की भूमिका को बताएँ ।
उत्तर―शिक्षक समाज का एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वयुक्त सम्मानीय सदस्य है, अत:
पर्यावरण शिक्षा के प्रसार में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है । शिक्षक का सम्बन्ध विभिन्न आयु-वर्ग
के विद्यार्थियों के साथ होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि चूँकि समाज के भावी
कर्णधारों को सही दिशा-निर्देश देने वाला, उसका पथ-प्रदर्शक शिक्षक ही होता है। इस वजह
से भी शिक्षक की भूमिका अहम हो जाती है, जो अपने विद्यार्थियों को, नई पीढ़ियों को अपने
विभिन्न प्रकार के पर्यावरण, जैसे—सामाजिक, प्राकृतिक तथा मनोवैज्ञानिक के प्रति चेतना
विकसित करने के लिए विविध गतिविधियों का आयोजन कर सकते हैं।
प्रश्न 15. शिक्षक विद्यार्थियों को किस प्रकार की गतिविधियों द्वारा पर्यावरण शिक्षा
की जानकारी दे सकते हैं?
उत्तर―शिक्षक विद्यालय में विभिन्न विषयों का ज्ञान विद्यार्थियों को देते हैं, इसलिए उस
विषय के साथ विभिन्न तरह के पर्यावरण की जानकारी सहज ढंग से दी जा सकती है।
कुछ गतिविधियाँ जो पर्यावरण शिक्षा के लिए प्रभावी हैं, निम्नलिखित हैं:
(क) वृक्षारोपण तथा हरी-भरी वाटिकाओं का सरंक्षण करना तथा कराना।
(ख) जहाँ कहीं भी गन्दगी दिखाई पड़े, वहाँ की सफाई करने एवं करवाने के लिए
विद्यार्थियों को प्रेरित करना, जैसे—पार्को, जलाशयों, शहरों की गन्दी एवं भरी हुई
नालियों की सफाई आदि ।
(ग) विद्यार्थियों को पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए जागरूक बनाने की शिक्षा देना,
साथ ही साथ क्रियात्मक रूप में गन्दी बस्तियों एवं गाँवों में ले जाकर उन्हें ऐसे
कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित करना, जिससे जनसामान्य पर्यावरण सुधार
के लिए सजग हो सकें और इसे सुधारने के लिए सभी वर्ग के लोगों का सहयोग
ले सकें।
(i) नाटक, लघु नाटक, नुक्कड़ नाटक, कठपुतली नाटक, जिसमें विभिन्न बातों को
जानकारी को आकर्षक ढंग से दिखाया जा सकता है, जैसे-गन्दगी से हानि, ध्वनि,
वायु, जल, भूमि प्रदूषण से हानि, परिवहन के साधनों से नुकसान, ओजोन परत
में निरन्तर हास, ग्रीन हाउस प्रभाव, वृक्षारोपण की आवश्यकता एवं महत्त्व इत्यादि ।
(ii) पर्यावरण सम्बन्धी फिल्मों, निबन्यों, लेखों, रिपोर्टों, चित्रकला, पोस्टर, पेंटिंग,
स्लोगन, कवि सम्मेलन, फोटोग्राफी प्रतियोगिता, जो कि पर्यावरण एवं इसके
संरक्षण से जुड़ी हों, विद्यार्थियों एवं सामान्य जन चेतना के लिए प्रभावी गतिविधियाँ
शिक्षा का प्रभावी प्रचार-प्रसार किया जा सकता है। पर्यावरण संचेतना में
भावात्मक पक्ष को महत्त्व दिया जाता है।
प्रश्न 16. पर्यावरणीय शिक्षा में अध्यापक के गुण बताएँ।
उत्तर―अध्यापक के आवश्यक गुण―शिक्षक को बहुमुखी व्यक्तित्व का होना
आवश्यक है।
(अ) शारीरिक गुण–शारीरिक बनावट, स्वास्थ्य, उत्साह, कपड़ों का चुनाव से पहनने
का ढंग, योलना, भाषा शैली, भाव-भंगिमा व मुद्रा, उठने-बैठने व चलने-फिरने का तौर तरीका
आदि।
(ब) मानसिक गुण―विषय-ज्ञान, शिक्षण कता, बाल मनोविज्ञान की जानकारी,
अध्ययन-अध्यापन में रुचि और कार्य के प्रति निष्ठा।
(स) नैतिक गुण―न्यायप्रियता, आत्मविश्वास, व्यवहार कुशलता, चारित्रिक, मुदत
समाज के प्रति उत्तरदायित्व, सत्यवादी कर्तव्यपरायणता, उदारता, महानुभूति, अनुशामत,
ईमानदारी आदि।
(द) व्यक्तिगत गुण-हसमुख रहना, आशावादी, नेतृत्व, परिश्रम, लगन, सादा जीवन,
शिष्ट व्यवहार, मिलनसार आदि ।
प्रश्न 17. पर्यावरण के सम्बन्ध में ज्ञान देने के लिए ‘खेल विधि’ किस प्रकार
शिक्षकों के लिए एक प्रभावशाली विधि है?
अथवा, खेल विधि पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।
उत्तर―खेल विधि-पर्यावरण के सम्बन्ध में ज्ञान देने के लिए ‘खेल विधि’ एक
प्रभावशाली विधि के रूप में कार्य करती है। इसके लिए शिक्षक को विभिन्न शैक्षिक खेलों
का निर्माण तथा आयोजन करना चाहिए। ये खेल पर्यावरण से सम्बन्धित होने चाहिए। खेलों
में बच्चों में ज्ञान और कौशल विकसित होता है।
         महान् शिक्षाविद् प्रो॰ फ्रोबेल ने खेल के महत्त्व को स्वीकार करते हुए इस बात पर
विशेष बल दिया कि प्राथमिक स्तर पर बालकों को सभी ज्ञान खेल-खेल के माध्यम से ही
दिया जाना चाहिए।
      खेल विधि के जन्मदाता यूरोप के श्री हेनरी काल्डवेल कुक को माना जाता है । काल्डवेल
कुक के अनुसार, “खेल बालक की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, जितना मन वह खेल में
लगाता है, उतना मन किसी भी और कार्य में नहीं लगाता।” उन्हीं के शब्दों में, “विभिन्न
विषयों के शिक्षण में खेल विधि का प्रयोग सरलतापूर्वक किया जा सकता है। खेल ही खेल
में बालक जो बातें सीख जाता है, उन्हें वह कभी नहीं भूल पाता है।”
        मॉन्टेसरी के अनुसार, “खेल प्रकृति की शिक्षा देने का सबसे सरल एवं सुगम साधन
है और बालक की शिक्षा उसकी प्रकृति व रुचि के अनुसार होनी चाहिए।”
         मैक्डूगल के अनुसार, “खेल एक प्रकार से निर्देश या अनुकरण की प्रवृत्ति है। इससे
बालक शीघ्र सीखता है।”
      स्टर्न के शब्दों में, “खेल स्वेच्छा से आत्म संयम की ही एक प्रवृत्ति है।”
ह्यूलिक के अनुसार, “जो कार्य अपनी इच्छा से स्वतंत्रतापूर्वक वातावरण में स्वतंत्र होकर
करे, वही खेल है।”
         ड्रोवर के अनुसार, “खेल मे क्रिया की प्रमुख भूमिका तथा उसकी उपयोगिता क्रिया
में निहित है।”
प्रश्न 18. छात्रं को पर्यावरण के प्रति संवदेनशील बनाने में एक शिक्षक की भूमिका
किस प्रकार की होनी चाहिए? किन्हीं पाँच बिन्दुओं को बताएँ ।
उत्तर―निम्नलिखित बिन्दुओं की सहायता से छात्र को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने
एक शिक्षक की भूमिका को दर्शाया जा सकता है :
1. पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन― शिक्षक विभिन्न पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ
आयोजित करके छात्रों में पर्यावरण चेतना विकसित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा
सकता है। शिक्षक स्वयं छात्रों के साथ उपस्थित होकर भौतिक पर्यावरण की वर्तमान स्थिति
का ज्ञान देता है, अतः वह विभिन्न विषयों के साथ अलग-अलग प्रकार के पर्यावरण की
को सुधारने के लिए उनको प्रेरित कर सकता है, शिक्षक विद्यालय में छात्रों को विभिन्न विषयों
जानकारी सरल और सहज ढंग से छात्रों को दे सकता है।
2. पर्यावरण के विभिन्न स्वरूपों; जैसे-भौतिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक पर्यावरण
में उत्पन्न प्रदूषण व अन्य समस्याओं को पहचानने, विश्लेषित और मूल्यांकित करने में शिक्षक
महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है।
3. पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न क्रियाकलापों; जैसे–निबन्धों, लेखों, आख्याओं एवं फिल्मों
का सृजन करके एवं पूर्वनिर्मित सामग्रियों में वांछित सुधार करके उन्हें छात्रों को रोचक ढंग
से समझाकर शिक्षक अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
4. शिक्षक समाज का एक विशेष प्रतिनिधि होता है। वह पर्यावरण के सकारात्मक एवं
नकारात्मक पक्षों का गहन अध्ययन करने में छात्रों का मार्गदर्शन करके एक विशेष भूमिका
निभा सकता है। वह छात्रों को पर्यावरण के विभिन्न स्वरूपों से सम्बन्धित नवीन ज्ञान से
अवगत करा सकता है और पर्यावरण सुधार में विशेष भूमिका अदा कर क्रान्ति ला सकता है।
5. पर्यटन द्वारा― शिक्षक छात्रों को पर्यटन/भ्रमण द्वारा पर्यावरण के विषय में विशिष्ट
जानकारी देकर अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है । भ्रमण द्वारा विभिन्न स्थानों की
विकृतियों एवं प्रदूषणों को दिखाकर उनके विषय में ज्ञान प्रदान कर सकता है। इन विकृतियों
एवं प्रदूषण का उन स्थानों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ? भ्रमण द्वारा इन प्रभावों का निरीक्षण
कर उनका समाधान ढूँढ़ने में उनकी सहायता कर सकता है।
प्रश्न 19. पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने में एक शिक्षक की भूमिका किस
प्रकार की होनी चाहिए?
उत्तर―शिक्षक होने के नाते हमारा यह दायित्व होता है कि हम अज्ञानतावश भी ऐसा
कोई कार्य न करें जिससे बच्चे विद्यालय से विमुख हो जाएँ। कक्षागत विविधता के प्रति
हम तभी संवेदनशील हो सकते हैं, जबकि हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर बच्चों के जीवन
से जुड़े हों। उनके बारे में आपके पास पर्याप्त जानकारी उपलब्ध हो। इसके लिए आप
निम्नलिखित तरीके प्रयोग में ला सकते हैं :
(i) आप बच्चों से अधिकाधिक बातचीत कर उनके साथ दोस्ताना रिश्ता तैयार कर
सकते हैं। ऐसा करने से ज्यादा से ज्यादा बच्चे विद्यालय आना पसंद करेंगे। यदि
आप बच्चों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में सहज नहीं है, तब भी हावभाव की
सहायता से आपको प्रयासरत रहना चाहिए।
(ii) बच्चों की बातचीत को समझने के लिए आप समुदाय के साथियों या अन्य शिक्षकों
की मदद भी ले सकते हैं।
(iii) अपनी समझ बनाने के लिए एक शिक्षक द्वारा बच्चों से सहायता लेना भी बच्चों
के लिए सकारात्मक व्यवहार दर्शाता है। शिक्षक का यह प्रयास हाशियाकृत बच्चों
को बहुत बड़ी ‘उपलब्धि’ का भाव भी दे सकता है।
(iv) समय निकालकर आप बच्चों के घरों पर भी जा सकता हैं। उनके माता-पिता
क्या काम करते हैं, बच्चे उनकी किन कामों में मदद करते हैं, आदि पता कर
सकते हैं। इसके साथ ही ऐसा करने से आपको उनके रहन-सहन और संस्कृति
के बारे में भी पता चलेगा।
(v) प्राथमिक कक्षाओं में, खासतौर पर कक्षा 1 व 2 में बच्चों की भाषा को प्राथमिकता
देनी चाहिए। ऐसा हो सकता है कि आप उस भाषा को नहीं समझ पा रहे हों,
तब भी बच्चों को उसमें बातचीत करने व अपने आपको व्यक्त करने से नहीं रोकना
चाहिए।
(vi) आपके द्वारा कक्षा के बच्चे की अभिव्यक्ति के विभिन्न तरीकों यथा-चित्र बनाना,
नाटक, कहानी सुनाना व लोकनृत्य आदि को उभारने के अवसर दिए जाने चाहिए।
(vi) आप अपनी कक्षा में बच्चों द्वारा बनाई गई चीजों को प्रदर्शित भी कर सकते हैं
जिसमें उनके चित्र, कहानियाँ, कविताएँ, हाथ से बनाई चीजें आदि हो सकती हैं।
(vii) समुदाय से अभिभावकों (खासकर हाशियाकृत समुदाय के) को कक्षा में बुलाकर
उनके पास उपलव्य जानकारियों को बच्चों के साथ साझा कर सकते हैं।
प्रश्न 20. शिक्षक के लिए शिक्षण के दौरान आकलन के तरीकों को बताएँ ।
उत्तर―शिक्षण के दौरान आकलन के तरीके निम्नलिखित हैं:
(i) प्रत्येक बच्चें का एक पोर्टफोलियो  तैयार करना जिसमें न सिर्फ बच्चे का ब्योरा
लिखा है, बल्कि उसके द्वारा लिखे गए, बनाए गए, किए गए शैक्षिक व सह-शैक्षिक
गतिविधियों के अभिलेख भी हों।
(ii) बच्चे द्वारा विभिन्न अवसरों पर कक्षा में किए गए ऐसे सवालों का अभिलेख तैयार
किया जा सकता है, जो बच्चे को संज्ञानात्मक विकास की जानकारी दे सके । बच्चे
द्वारा विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में शामिल होने की प्रक्रिया का अवलोकन
व उसका सतर्क विश्लेषण हो । शिक्षण के दौरान हम बच्चों के बीच ये सवाल
रखते हैं कि वृत्त, आयत या आयतन क्या है ? जो बच्चे समझ रहे हैं वह अपने
कार्य भली-भाँति कर रहे हैं, कुछ बच्चे समझने का प्रयास कर रहे हैं और जो
बच्चों की समझ से बाहर है, इसका अवलोकन शिक्षक बच्चों की गतिविधि को
देखते हुए करेंगे।
(iii) किसी कार्य के बारे में बच्चे कहाँ तक चिन्तन करते हैं, वर्गीकरण करते हैं, किस
हद तक उनकी जानकरी है, यह हमें बच्चे के विकास के द्वारा मिलती है।
उदाहरणस्वरूप सजीव और निर्जीव के बारे में पूछते हैं, तब कुछ बच्चे इसका
जवाब देते हैं और कुछ नहीं दे पाते है।। इस तरह हम उसकी उपलब्धि का आकलन
कर लेते हैं।
(iv) विभिन्न विषयों में बच्चों की बढ़ती समझ को सतर्कतापूर्वक बनाए गए
अभिलेख-पत्रक (रिपोर्ट कार्ड) पर दर्ज करना । शिक्षक-शिक्षिकाओं द्वारा सामूहिक
रूप से प्रत्येक बच्चे के विकास का सतर्क विश्लेषण करना। शिक्षण के दौरान
बच्चों को अनुत्तीर्ण या उत्तीर्ण करने के लिए मूल्यांकन न किया जाए, बल्कि एक
ऐसे आकलन की पद्धति (लिखित, मौखिक, अवलोकन) विकसित की जाए जो
बच्चों को कारगर तरीके से सीखने में मदद करे।
प्रश्न 21. सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन में आने वाली किन्हीं सात चुनौतियों को
बताएँ।
उत्तर―सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन में आने वाली चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं :
(i) प्रधानाध्यापक के सहयोग की कमी, शिक्षक और बच्चों के प्रति अभिभावकों के
सहयोग की कभी भी इस दिशा में एक चुनौती है।
(ii) समय से छात्रों को पाठ्यपुस्तक उपलब्ध नहीं रहने के कारण छात्रों को अध्ययन
में कठिनाई होती है, जिसके कारण वर्गकक्ष में सी० सी० ई. का कार्य प्रभावित
होता है।
(iii) एक से अधिक शिक्षकों द्वारा एक ही विषय का अध्यापन का कार्य करने पर भी
वर्गकक्ष में सी. सी. ई. का कार्य प्रभावित होता है।
(iv) छात्रों के छोटे-छोटे भाई-बहन (अनामांकित छह वर्ष से कम आयु के बच्चे) के
वर्गकक्ष में उपस्थित रहने के कारण उन छात्र-छात्राओं की सी॰ सी॰ ई. करने में
कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
(v) कुछ बच्चों की अनुपस्थिति के कारण एक ही विषय/अवधारणा पर बार-बार चर्चा
करनी पड़ती है।
(vi) प्रत्येक स्तर के बच्चे अर्थात् कुछ बच्चों का पिछड़ा होना, कुछ बच्चों का प्रगति
करना, इससे सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन का कार्य चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
(vii) दूसरी कक्षाओं में कोलाहल, कुछ गतिविधियों में अधिक स्थान की आवश्यकता
Oblique सामग्री की आवश्यकता के कारण भी सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन का
कार्य कठिन हो जाता है।
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