F-11

कला समेकित शिक्षा

कला समेकित शिक्षा

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. कला शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? प्राथमिक स्तर पर कला शिक्षा
क्यों महत्त्वपूर्ण है ? इसकी विभिन्न विधाओं का उल्लेख करें।
उत्तर–विभिन्न प्रकार की सामग्रियो, माध्यमों और तकनीकों के द्वारा मुख्य रूप से अपने
विचारों, संवेगों और भावनाओं की कल्पनाशीलता एवं सृजनात्मकता के साथ आत्म अभिव्यक्ति
का साधन कला है।
      कला शिक्षा का उद्देश्य शिक्षार्थियों को संवेदनशील बनाना है। इसके माध्यम से वे प्रकृति
में प्राप्त ध्वनियों, गतियों, रूपों, रंगी तथा रेखाओं के सौन्दर्य की सराहना करना सीखते है।
कला शिक्षा का महत्त्व :
1. कला शिक्षार्थियों में सौन्दर्य बोध और सौन्दर्य सराहना की भावना विकसित करती है।
2, कला शिक्षा के द्वारा शिक्षार्थियों में प्रेक्षण (अवलोकन) की कुशलता विकसित होती है।
3. कला शिक्षा के द्वारा शिक्षार्थी अपनी पसंद की विधा को पहचानने और चुनने का
अवसर प्राप्त करता है।
4. कला शिक्षा सृजनशीलता और कुशलता विकसित करने में सहायता करती है।
5. कला शिक्षा के माध्यम से बालक की पारम्परिक कलाएँ हस्तशिल्प, लोकगीत, नृत्य
आदि की अभिव्यक्ति होती है।
इस प्रकार कला शिक्षा की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राथमिक स्तर पर कला शिक्षा
का विशेष महत्त्व है, क्योंकि बालकों में सृजनशीलता का विकास करने के लिए यह स्तर
अत्यंत निर्णायक होता है।
     कला शिक्षा की विधाओं को निम्न भागों में बाँटा गया है:
1. दृश्य कलाएँ―दृश्य कलाओं में विचारों और संवेगों को किसी माध्यम और सामग्री
आदि के द्वारा व्यक्त किया जाता है।
इसमें निम्नलिखित कलाएँ सम्मिलित है
(i) रेखांकन और चित्रांकन―इसमें छोटे-छोटे बच्चे टेड़ी-मेड़ी रेखाओं के माध्यम
से कुछ बनाते हैं और अपने विचारों को अभिव्यक्त करते हैं।
(ii) छपाई की कक्षा―इसमें एक सतह की बनावट या आकृति को छाप द्वारा
दूसरे सतह पर उतारा जाता है। जैसे-दिवाल पर अंगुलियों का छाप लगाना ।
(iii) कोलाज बनाना―किसी वस्तु के आरेखन को सजाने के लिए उस पर किन्हीं वस्तुओं
या सामग्रियों को चिपकाकर जो कलात्मक रचना बनाई जाती है, उसे कोलाज कहते
हैं। जैसे–रंगीन कागज का प्रयोग करके हाथी के आरेखन पर चिपकाना।
(iv) मृत्तिका प्रतिरूपण-इसमें मिट्टी का प्रयोग करके बच्चे कई तरह के वर्तन,
जैसे–पशु-पक्षी, खिलौने आदि बनाते हैं।
(v) मुखौटा निर्माण कला―मुखौटा की सहायता से बच्चे किसी दूसरे पात्र के चरित्र
का अभिनय करते हैं।
(vi) प्रतिरूपण (मॉडल)―बेकार या फेंकी गई सामग्री से उपयोगी चीज बनाना ।
थर्मोकोल से विद्यालय अस्पताल बनाना प्रतिरूपण (मोडल) बनाना है।
2. मंचीय कलाएँ― जैसा की नाम से स्पष्ट है, इस कला का प्रदर्शन सामूहिक रूप से
मंच से किया जाता है। इसमें निम्न कलाएँ आती है:
(i) संगीत―लोरीगीत, अभिनय गीत, राष्ट्रगान का प्रदर्शन आदि ।
(ii) लयात्मक संचलन और नृत्य―किसी निश्चित ढाँचे के अनुसार संचलन नृत्य है।
जैसे―विभिन्न क्षेत्रीय लोकनृत्य।
(iii) सृजनात्मक नाट्य―इसमें बालक अपने नाट्यों के आलेख स्वयं तैयार करते हैं
और अपनी रूचि एवं योग्यता के अनुसार पात्रों का अभिनय करते है। जैसे―
पाठ्यपुस्तक की कहानियों पर आधारित नाटक।
(iv) कठपुतली का खेल-इसमें पुतलियों के माध्यम से अपना भाव या विचार व्यक्त
किया जाता है।
प्रश्न 2. बाल कला की विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं का वर्णन करें?
उत्तर―बालको की कला में विकास की अवस्थाओं में काफी विविधता पाई जाती है,
क्योकि बालकों में आयु और व्यक्तिगत विभिन्नता के कारण अन्तर पाया जाता है। फिर भी
बाल कला के विकास की अवस्थाओं को निम्नलिखित पाँच भागों में वर्गीकृत किया गया है:
1.घसीट आरेखन अवस्था (2 से 4 वर्ष)―इस अवस्था में बालक द्वारा कागज पर
निशान बनाया जाता है, लेकिन चीज
के रूप में उसका कोई अर्थ नहीं होता
है। वह बिना किसी अभिप्राय के उसमें
रंगों का प्रयोग करता है। यह
आरेखन बालकों के कंधों के पेशीय                              ph
संचलन का परिणाम होता है। धीरे-
धोरे संचलन बेहतर होने लगते हैं और
बनाई गयी आकृतियाँ टेड़ी-मेढ़ी, गोल
और सीधी होने लगती है। घसीट
आरेखन की तीसरी अवस्था में बच्चे
रंगों का प्रयोग विभिन्न अर्थ देने के
लिए करने लगते हैं। अंतिम अवस्था
बालक अपनी अभिव्यक्ति के लिए
चित्रों को सरल रूप में रेखांकित करने
लगते हैं।
2.प्राग अन्वित आरेखन अवस्था (4 से 6 वर्ष)―किसी बालक द्वारा पहली बार किसी
आकृति को देखकर उसके समान आकृति बनाने के प्रयास को प्राग अन्वित आरेखन अवस्था
कहते है। इसके माध्यम से बच्चे अपने विचारों को संप्रेषित करने लगते है। 4 वर्ष की अवस्था
के आसपास बालक के ये आरेखन पहचानने लायक हो जाते हैं। घसीट आरेखन भी
नियमित रेखाओं से बनने लगते हैं, जो दूसरों द्वारा पहचाने जा सकने वाले पदार्थों का रूप
ले लेते है।
ph
3.अन्वित आरेखन अवस्था―इस अवस्था में बालक एक निश्चित रूप को विकसित
करता है तथा अपने आरेखन में स्वयं सृजित या कहीं देखे गये चित्रों को बनाता है। इस
अवस्था में बालक में स्थान की अवधारणा विकसित होती है और विभिन्न निश्चित रेखाओ
को नियमित रूप से खींचने लगता है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं और रंगों के बीच
संबंध खोज लेता है। वह एक पदार्थ के लिए एक ही रंग का प्रयोग करता है।
4. नव्ययथार्थवादी अवस्था (9-11 वर्ष)―इस
अवस्था को टोली या दल अवस्था भी कहते हैं। इस
अवस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तन उनके आरेखनों
में दिखाई देते हैं। मानवीय आकृतियों के चित्रण में बालक
अब कपड़ों, वेषभूषा पर ध्यान देता है। लड़का-लड़की                ph
के बीच अंतर पर बल देने लगता है। अपने वैयक्तिक
अनुभवों को प्रतिबिंबित करने के लिए रंगों का प्रयोग
करने लगता है। इस अवस्था में पहली बार डिजाइन
बनाने का सचेतन प्रयास करता है।
ph
5 यथार्थवादी अवस्था―परिवेश के प्रति अधिकाधिक सचेत होने लगते हैं। अपने
आरेखन में अनुपात और गहराई जैसी बातों के विषय में सोचने लगता है। मानवीय आकृतियों
के आरेखन में शरीर के संधि स्थलों का प्रयोग करने लगता है। शारीरिक क्रियाओं का अच्छी
तरह चित्रण करने लगता है। दूर की वस्तुओं को अब छोटे आकार में चित्रित करने लगता
है।
ph
प्रश्न 3. ‘वाल कला’ से आप क्या समझते हैं ? बच्चों के कला विकास क्रम
की मुख्य अवस्थाओं को सोदाहरण स्पष्ट करें।
उत्तर―वाल कला की समझ-कला अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। कला के
जरिए हम अपने अनुभव, विचार आदि प्रकट करते हैं, दूसरों से साझा करते हैं। बच्चों के
संदर्भ में भी यह एक स्वाभाविक क्रिया है। वस्तुतः बच्चों की यह प्रवृत्ति होती है कि जो
कुछ उन्ह अनुभव होता है, उसे तुरंत साझा करना चाहते हैं। साथ ही उनमें कुछ भी न छिपाने
का गुण भी उन्हें अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करता है। बच्चों द्वारा बनाए गए चित्र, अन्य
कलात्मक कार्य के माध्यम से उनके आंतरिक विकास का दर्शन होता है तथा उनके गुणों का
प्रत्यक्षण होता है। बच्चों में कला विकास में निरंतरता होती है। जिसकी अवस्थाएँ समय के
साथ बदलती रहती है। सामान्यता बच्चों में कला विकास में निरंतरता होती है। जिसको
अवस्थाएँ समय के साथ बदलती रहती है। सामान्यतः बच्चों में कला अनुभव के विकास की
चार अवस्थाएँ होती है। यद्यपि इन अवस्थाओं को विभाजित करने वाली कोई कठोर रेखा
नहीं है। एक अवस्था से दूसरी अवस्था, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी अवस्था में बच्चा
कब प्रवेश करता है? यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह सब बच्चों
के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। बच्चों के कला विकास क्रम की मुख्य अवस्थाएँ निम्नवत्
है―
1. कीरम-कांटे अवस्थाः 4-5 साल से पहले
2. प्रतीक-काल अवस्थाः 4-6 से लेकर 8-9 साल तक
3. वास्तविक-परिचय काल अवस्थाः 8-9 साल से 12-13 साल तक
4. किशोर-अवस्था और उसके बादः 13-14 साल से आगे।
कीरम-कांटे अवस्था― यह अवस्था बच्चों की शारीरिक हलचल और साधनों से परिचय
की अवस्था है। बच्चा पेंसिल को पकड़ने की कोशिश करता है। कागज पर आड़ी-तिरछी
लकीरें खींचता या घसीटता है। हालाँकि उसके द्वारा खींची गई लकीरे किसी खास विषय
से संबंधित नहीं होती है।
प्रतीक-काल अवस्था― पेंसिल पकड़ने, हाथ घुमाने या चलाने की क्षमता आने के बाद
बच्चा वैसे चित्र या रचना करना शुरू करता है, जिसमें आकार का संबंध होता है। वह जो
भी अनुभव करता है उन्हें आकारों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है , आकार का संबंध उनके
द्वारा देखी गई वस्तुओं से होता है। यह अवस्था बच्चों के अनुभव को अभिव्यक्त करती है।
वह चीजों को जैसा जानता है, अनुभव करता है, वैसा ही चित्र बनाता है न कि वस्तु जैसी
दिखती है वैसा। एक बच्चा इस अवस्था में कई चीजों से संबंधित प्रतीक बना लेता है। इस
अवस्था के चित्र प्रतीक-प्रधान होते हैं। जैसे-बच्चा, आदमी के चेहरे के लिए एक गोला
और उसके अंदर तीन-चार छोटे-छोटे गोले, कुछ लकीर दो आँख, नाक की लकीर, मुँह
का गोला या लकीर, इसी तरह हर वस्तु के प्रतीक नए-नए अनुभवों के आधार पर उसके
दिमाग में बनते और बदलते रहते हैं।
    वास्तविक-परिचय काल अवस्था―बच्चों में अनुभव के साथ-साथ प्रतीकों की व्यवस्था
भी बदलती जाती है। अनुभव का असर चीजों की प्रतीक पर पड़ता है। जो क्रमशः विकसित
होता है, उसमें कुछ चीज जुड़ जाती है या बदल जाती है, जैसे-पूर्व की अवस्था में आदमी
के चेहरे के प्रतीक में इस अवस्था में नाक, कान, बाल आदि भी जुड़ जाते हैं। यहाँ आकार
के साथ-साथ तुलना भी होने लगती है। अतः बच्चा वास्तविकता के बारे में अधिक सचेत
हो जाता है। इसलिए इस अवस्था को वास्तविक-परिचय-काल कहा जाता है। वस्तुतः इस
अवस्था में बच्चा बहिर्मुखी होने लगता है। उसकी दुनिया बदलने लगती है। वह बाहर की
दुनिया के साथ अपना संबंध समझने लगता है। उसके आत्म अनुभूति और अभिव्यक्ति का
स्वरूप भी बदल जाता है। इस प्रकार बाह्य दुनिया की वास्तविकता से परिचय का अनुभव
उसके विचारों एवं नजरिये को वास्तविकता प्रधान बनाती है। अतः उसके चित्र और अन्य
कृतियाँ भी वास्तविक होने लगती है। वास्तविक परिचय अवस्था बच्चे के समाजीकरण और
सामाजिक अंतःक्रिया से भी प्रभावित होती है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में उसके अस्तित्व
का भाव उसे स्वयं के साथ अपने समाज के लिए भी कुछ करने के लिए प्रेरित करता है।
इस प्रकार उसका यह पहलू जो के उसे दूसरों के लिए कुछ करता है, यानी वह काम जो
वह दिखाने के लिए करता है, उसे बड्डी जैसा करने में मदद करता है। इस कारण भी उसके
चित्र एक उम आने पर वास्तविक होने लगते हैं।
      किशोर अवस्था―किशोरावस्था बच्चों के लिए एक नया अनुभव होता है। उनमें
शारीरिक और मानसिक बदलाव होते हैं। इन बदलावों का प्रभाव कला की अभिव्यक्ति पर
भी दिखाई पड़ता है। वह एक चित्र बनाने जाता है, किंतु चित्र उतना वास्तविक नहीं बनता,
जितना उसे दिखता है। उसकी आँखें वस्तु में और उसके चित्र में कोई फर्क नहीं चाहती,
लेकिन उसका हाथ हार मान जाता है एवं उसकी हिम्मत टूट जाती है और कला की तरफ
से उसका दिल हटने लगता है। यद्यपि यह अवस्था विकास की प्राकृतिक सीढ़ी है, लेकिन
इस अवस्था में कला शिक्षकों या सुराधकों द्वारा अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
प्रश्न 4. कला शिक्षा के अन्तर्गत ‘कला में शिक्षा’ (Education of Arts) और
‘शिक्षा में कला’ (Arts in Education) के तात्पर्य को सोदाहरण समझाएँ।
अथवा, कला शिक्षा की अवधारणा, प्रकृति व क्षेत्र का वर्णन करें।
उत्तर―कला शिक्षा : अवधारणा, प्रकृति एवं क्षेत्र-कला सौंदर्य का बोध और
अभिव्यक्ति है। यह मनुष्य के विचारों और भावों को प्रकट करने की भाषा है। यह कोई पृथक
ज्ञान नहीं है बल्कि हमारे दैनिक जीवन का ही हिस्सा है, जिसका प्रयोग हम किसी न किसी
रूप में करते रहते हैं। कला के माध्यम से हम एक दूसरे के भावों और अनुभवों को भी
सराहते हैं। कला का सीधा सम्बन्ध हमारी ज्ञानेन्द्रियों से है।
     कला शिक्षा इंद्रिय संक्रियाओं को उत्प्रेरित करने की एक प्रक्रिया है। वह शिक्षक/शिक्षिका
एवं शिक्षार्थियों को एक व्यापक फलक प्रदान करती है। जिन तथ्यों या विचारों को शब्दों
के माध्यम से व्यक्त करना कठिन होता है, उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए कला एक सशक्त
माध्यम है। वस्तुतः कला शिक्षा चाहे वह दृश्य रूप में हो प्रदर्शन के रूप में शिक्षक
एवं शिक्षार्थियों को पूर्ण अभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने के लिए सहायक सिद्ध होती है।
जब हम शिक्षा और कला की बात करते हैं तो सामान्यतः दो तथ्य उभरकर सामने आते
है―
(i) कला में शिक्षा तथा
(ii) शिक्षा में कला
कला में शिक्षा से तात्पर्य है कि कला की किसी खास विधा की सिद्धान्त, प्रक्रिया, तकनीक
एवं नियमों का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना। शिक्षा में कला से तात्पर्य है कि कला शिक्षा के
सभी पक्षों के साथ-साथ वे तमाम तथ्य जो किसी व्यक्ति की वृद्धि और विकास में योगदान
देते हैं। वस्तुतः शिक्षा में कला ज्ञान के साथ-साथ कौशल, सम्बन्धित गुणों एवं अनुभवों का
संश्लिष्ट रूप है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कला शिक्षा सीखने एवं अभिव्यक्त करने
की प्रक्रिया है, जबकि कलां सम्बन्धित रचनात्मक प्रक्रिया का उत्पाद है, जो कि चित्रकला,
नाटक, नृत्य, संगीत, गीत आदि के रूप में प्रस्तुत होता है।
        कला शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसके अन्तर्गत वे सभी तथ्य शामिल होते हैं
जो किसी न किसी प्रकार हमारी संवेदना और सौन्दर्यानुभूति को प्रभावित करते हैं । कला शिक्षा
की व्यापकता को देखते हुए इसे मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है―
1. दृश्य कला―दृश्य कला से तात्पर्य कला की उन सभी विधाओं से है जिनकी कलात्मक
अभिव्यक्ति को हम मूर्त रूप में देख सकते हैं जैसे चित्रकला, drawing painting, मूर्तिकला,
design, college, मूद्रण (print), मास्क, पुतलीकला (puppet) इत्यादि ।
इसमें निम्नलिखित कलाएँ सम्मिलित है:
(i) रेखांकन और चित्रांकन― इसमें छोटे-छोटे बच्चे टेडी-मेड़ी रेखाओं के माध्यम
से कुछ बनाते हैं, और अपने विचारों को अभिव्यक्त करते हैं।
(ii) छपाई की कक्षा–इसम एक सतह की बनावट या आकृति को छाप द्वारा
दूसरे सतह पर उतारा जाता है। जैसे-दिवाल पर अंगुलियों का छाप लगाना।
(iii) कोलाज बनाना–किसी वस्तु के आरेखन को सजाने के लिए उस पर किन्हीं वस्तुओं
या सामग्रियों को चिपकाकर जो कलात्मक रचना बनाई जाती है, उसे कोलाज कहते
है। जैसे-रंगीन’कागज का प्रयोग करके हाथी के आरेखन पर चिपकाना।
(iv) मृत्तिका प्रतिरूपण–इसमें मिट्टी का प्रयोग करके बच्चे कई तरह के बर्तन,
जैसे-पशु-पक्षी, खिलौने आदि बनाते हैं।
(v) मुखौटा निर्माण कला–मुखौटा की सहायता से बच्चे किसी दूसरे पात्र के चरित्र
का अभिनय करते हैं।
(vi) प्रतिरूपण (मॉडल)–बेकार या फेकी गई सामग्री से उपयोगी चीज बनाना।
थर्मोकोल से विद्यालय या अस्पताल बनाना प्रतिरूपण (मॉडल) बनाना है।
2. प्रदर्शन कला-प्रदर्शन कला से तात्पर्य कला की उन विधाओं से है जिसे देखा,
सुना या प्रदर्शित किया जा सके, जैसे-संगीत, गायन, वादन, नाटक, नृत्य, कठपुतली, मूक
अभिनय इत्यादि।
मंचीय कलाएँ–जैसा की नाम से स्पष्ट है, इस कला का प्रदर्शन सामूहिक रूप से
मंच से किया जाता है। इसमें निम्न कलाएँ आती है
(i) संगीत–लोरीगीत, अभिनय गीत, राष्ट्रगान का प्रदर्शन आदि।
(ii) लयात्मक संचलन और नृत्य–किसी निश्चित ढाँचे के अनुसार संचलन नृत्य है।
जैसे विभिन्न क्षेत्रीय लोकनृत्य ।
(iii) सृजनात्मक नाट्य–इसमें बालक अपने नाट्यों के आलेख स्वयं तैयार करते हैं
और अपनी रूचि एवं योग्यता के अनुसार पात्रों का अभिनय करते हैं।
जैसे-पाठ्यपुस्तक की कहानियों पर आधारित नाटक।
(iv) कठपुतली का खेल–इसमें पुतलियों के माध्यम से अपना भाव या विचार व्यक्त
किया जाता है।
इन दो कलाएँ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कला में शिक्षा और शिक्षा
में केला का समन्वय होता है।
प्रश्न 5. कला समेकित शिक्षा क्या है ? इसकी क्या उपयोगिता होनी चाहिए?
अथवा, आप स्वयं कला को अपने शिक्षण के साथ जोड़ पाने में कितना सक्षम
है?
उत्तर―कला समेकित शिक्षा एवं शैक्षिक उपयोगिता-कलात्मकता मनुष्य का
नैसर्गिक गुण है। वह जन्म से ही कलाकार होता है। वह बचपन से ही कला सजन की
सतत् प्रक्रिया में लगा रहता है, चाहे दिवार पर आड़ी तिरछी रेखाएँ खींच रहा हों या अपने
आस-पास के किसी व्यक्ति की नकल कर रहा हो या कोई गीत अपने अन्दाज में गा रहा
हो या किसी डब्बे को पीट-पीठ कर मनचाही आवाज निकालने की कोशिश कर रहा हो
या मिट्टी के खिलौने बना रहा हों। इन गतिविधियों में उन्हें आनन्द आता है, उन्हें शब्दों में
कहा जाना कठिन है। इससे स्पष्ट होता है कि कला की एक विशेषता आनन्द की प्राप्ति
भी है। इसी वजह से प्रायः यह देखा जाता है कि बच्चे निसंकोच कई प्रकार की कला
गतिविधियों में मशगुल पाए जाते हैं। कभी अकेले और कभी समूह में उनके क्रियाकलाप
चलते रहते हैं। जैसे-गुड्डे-गुड़िया का खेल, बरसात में कागज की नाव चलाना, जानवरों
की आवाज की नकल करना, लकीरों के माध्यम से अपनी दुनिया एवं काल्पनिक दुनिया
के लोगों का चित्रण करना, चाहे वह आपको अच्छा लगे या नहीं, परन्तु उसमें उनकी
सृजनात्मकता दिखाई पड़ती है।
        बच्चे ठन कार्यों को करना चाहते हैं जिनमें उन्हें मजा आता हो और यह भी सत्य है
कि मजा के साथ किया गया कार्य सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में प्रभावी होता है। प्रभावी
रूप से सीखने-सिखाने के लिए ऐसा क्या किया जाए जिसको बच्चे मजा लेकर करें । सामान्यतः
विद्यालयों में जब सीखने-सिखाने की प्रक्रिया शिक्षक केन्द्रित होती है, तब उसमें निरसता आने
लगती है। बच्चों को शिक्षक के निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता है भले ही वह करना चाहता
हो या नहीं। प्राथमिक विद्यालयों में कुछ ऐसे किए जाने की आवश्यकता है जिससे बच्चे
को विद्यालय में रुचि उत्पन्न हो तथा वह प्रतिदिन कुछ नया सोंच कर विद्यालय जाता हो
और वहाँ वह जो भी करता हो, उसमें उसे मजा आता हो। ऐसा देखा गया कि कला की
प्रक्रियाओं में बच्चों को अत्यधिक मजा आता है। कला में अन्तिम उत्पाद महत्त्वपूर्ण नहीं
है बल्कि प्रक्रिया अत्यधिक महत्त्व रखता है। इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि उत्पाद
कोई मायने नहीं रखता बल्कि यह तो उस बच्चे की पहचान है जिसे वह अपना सृजन कहता
है और जो अपने आप में विशिष्ट होता है लेकिन यह भी सच है कि बच्चे को अत्यधिक
मजा कला सृजन की प्रक्रिया में आता है। इन तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि विषयों
के शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में कला को एक माध्यम के रूप में उपयोग करने से बच्चे मजे
के साथ विषयों की अवधारणा आसानी से समझ सकेगें और साथ ही साथ सिखाने की प्रक्रिया
में रुचि भी लेने लगेगें। इस प्रकार की शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को कला समेकित शिक्षा
कहते हैं।
     कला समेकित शिक्षा, सीखने-सिखाने की वैसी प्रक्रिया है, जिसमें कला को एक माध्यम
के रूप में उपयोग किया जाता है। अर्थात् कला की कई विद्याओं जैसे दृश्य कला एवं प्रदर्शन
कला के अन्तर्गत चित्रकला, मूर्तिकला कई प्रकार के शिल्प जैसे मुखौटे बनाना, या अन्य
सामग्रियों से कई कलात्मक वस्तुओं का निर्माण तथा प्रर्दशन कलाओं में नाटक, नृत्य, गीत-संगीत
आदि को विषयों के साथ जोड़ कर बच्चों को आनन्ददायी वातावरण में विषयों की समझ
पक्की करना।
     कला समेकित शिक्षा के लिए शिक्षक को कला विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है। परन्तु
यह आवश्यक है कि उन्हें कला विद्याओं की थोड़ी समझ होनी चाहिए, जिसका समावेशन
वे समझदारी से विभिन्न विषयों में करा सकें। कला समेकित शिक्षण तकनीक में बच्चों को
अपनी अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता होती है। इसके लिए आवश्यक है कि एक आनन्दायी
वातावरण का निर्माण हो, और यह तभी संभव है जब बच्चा विद्यालय को अपनी मनपसंद
जगह मानने लगे। इसके लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय की सम्पूर्ण गतिविधियों में बच्चा
स्वतंत्र रूप से अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें । इस प्रक्रिया में शिक्षक को एक सशक्त
योजना बनानी चाहिए जिसमें यह ध्यान देने की बात है कि विद्यालय एक कला विद्यालय
में न बदल जाए अपितु यह एक ऐसी जगह में तब्दील हो जाए, जहाँ प्रवेश करते ही बच्चा
आनन्द से भर कर स्वतः सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में संलग्न हो जाता है। हमें चाहिए
कि विद्यालय में चेतना-सत्र से छुट्टी की अवधि तक प्रतिदिन एक नवाचारी कला गतिविधियों
के लिए बच्चों को तैयार करें जैसे–चेतना सत्र में बच्चों को नए-नए तरीके से खड़ा होना
या बैठना, नई प्रार्थना, गीत-संगीत, लघु नाट्य आदि का समावेश करना, कई अन्य गतिविधियों
का समावेशन करना, खेल एवं कला की घंटी का सार्थक एवं कलात्मक उपयोग करना, प्रतिदिन
विद्यालायचर्या का समापन एक लघु प्रार्थना, गीत आदि करना। इस संपूर्ण प्रक्रिया में
संवेदनशील नवाचार करने के असीम गुंजाईश मौजूद है। विद्यालयी परिसर को सुरुचिपूर्ण तरीके
से सजाने के लिए भी उन्हें प्रेरित किया जा सकता है।
      यहाँ सीखने का तात्पर्य पाठ्यचर्या के उद्देश्यों की प्राप्ति है जो व्यापक है न की टुकड़ो
में जबकी हमारी मान्यता है कि पाठ्यक्रम के अनुसार वर्ग कक्ष में विषयों को टुकड़ों में पढ़ाना
ही उचित है।
गाँधी और टैगोर हमारे अग्रणी दार्शनिक हैं―शिक्षा के बारे में उनके विचारों का समकालीन
भारत में केन्द्रीय स्थान है। देवी प्रसाद उन्हीं के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शिक्षा
के दो मुख्य लक्ष्य रखते हैं: “शिक्षा को चाहिए कि वह समाज द्वार महत्त्वपूर्ण माने जाने
वाले मूल्यों की समझ बनाए और उन्हें जीवन के व्यवहार में लाना सिखाए । इसके साथ-साथ
उसे चाहिए कि आत्म-सम्मान और स्वतंत्रता तथा विवेक और समझ-बूझ की भावना को व्यक्ति
के मन में बैठाएँ ताकि वह आजादी से सोच पाए और जीवन में अपने चुनाव स्वयं करने
में सक्षम बन पाए।” कला, कला समेकित शिक्षा के माध्यम का काम करे, इसके हक में.
तर्क देते हुए वे अपनी बात को इस तरह समेटते हैं: “दुसरे शब्दों में सामान्य तौर पर शिक्षा
और विशेष तौर पर कला-शिक्षा एक तरीका है बढने और विकास करने का, प्रकृति की सुन्दरता,
सामाजिक मूल्यों और सम्पूर्ण जीवन के सौन्दर्यशास्त्रीय पक्षों के प्रति संवेदनशील होने का।”
उक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए कला को
एक सशक्त माध्यम के रूप में उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है
कि शिक्षक एक योजना के साथ कला को विषयों के साथ समावेशित करना सीख लें। साथ
ही, ऐसी योजना में तरह-तरह के आईस-ब्रेकर गतिविधियों को कराने की भरपूर सम्भावना
होती है जिससे सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को सरस बनाने में बहुत मदद मिलता है।
        उदाहरण― कक्षा समेकित कक्षा में शिक्षक ने कक्षा के सभी बच्चों को उनकी संख्या
के अनुसार कई समूहों में विभाजित कर उन्हें कुछ सामाग्रियाँ दी हैं, जैसे—कुछ गीली मिट्टी,
रंग, अखबार, क्रेयान, आदि उन्हें अपनी-अपनी पसंद के अनुसार कलात्मक समाग्री निर्माण
करने को कहा है, इस बात की स्वतंत्रता दी गई है कि बच्चे अपने पंसद के अनुसार कार्य
करें। समय और स्थान बच्चों ने अपने अनुसार निर्धारित किया और अलग-अलग समूह में
विद्यालय परिसर में बैठ कर अपने काम करने लगें। शिक्षक लगातार उनके कार्य का अवलोकन
कर रहें हैं। शिक्षक भी बच्चों के साथ घुल-मिल कर काम कर रहें हैं। कुछ देर के बाद
बच्चों ने अपनी कलाकृतियों को कक्षा में सजा कर प्रदर्शित किया है। किसी ने अपने चित्र
में अपना घर बनाया है तो किसी ने मिट्टी का साँप बनाया है, किसी ने कागज की रंग-बिरंगी
टोपी बनाई है तो किसी ने टोकरी । वच्चे अपनी-अपनी कलाकृति को देखकर मुग्ध हो रहें
थे तथा इसको बनाने में अपने अनुभव एक दूसरे से बाँट रहे थे।
      अब शिक्षक ने सभी बच्चों से बारी-बारी से अपने-अपने कला अनुभव बाँटने को कहा।
बच्चों ने अपनी भाषा में अपने शब्दों के सहारे अपनी बात रखने का प्रयास किया। मैने महसुस
किया कि बच्चे सोंच कर बोलने की दक्षता प्राप्त करने की प्रक्रिया में स्वतः जुड़ गये थे।
बच्चे स्वतः सुनने और बोलने का अधिगम प्रक्रिया में जुड़ गए थे। सभी बच्चों ने अपने
बनाए उस मिट्टी के साँप की लम्बाई हथेली से, बीते से तथा स्केल से मापा । बच्चे अपने-अपने
तरह से साँप की लम्बाई माप रहे थे और लम्बाई की अवधारणा देखकर, मापकर, अंदाजा
आदि लगाकर समझ रहे थे। कुछ बच्चे तो साँप के घर, साँप के प्रकार पर आपस में बात
कर रहे थे और शिक्षक से भी पूछ रहे थे। एक बच्चे ने साँप को अपने बनाए गए टोकरी
में रख कर यह बताया कि मेरे गाँव में एक सपेरा आया था और वह जीवित साँप को टोकरी
में रखे हुए था। कोई अपनी बनाई गई टोपी और उसमें लगाए गए पंख को दिखा रहा था
वह यह भी बता रहा था कि इसको खोलने पर कई प्रकार के त्रिभुज और चतुर्भुज की आकृति
इसमें दिखाई पड़ती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रही जब तक शिक्षक ने बच्चों को आज
की क्रियाकलाप पर सभी बच्चों को धन्यवाद नहीं दे दिया। मैंने महसुस किया कि बच्चे
इस कक्षा में सभी विषयों को एक साथ सीख रहे थे। शिक्षक ने बताया की मैंने पहले से
एक योजना बना ली थी तथा कक्षा के पाठ के अनुसार ही विषयों पर बात किया । अन्त
में शिक्षक ने कुछ कार्य घर से करके लाने के लिए भी दिए। इस प्रकार कला समेकित
शिक्षा एक ऐसी शिक्षण अधिगमक प्रक्रिया है, जो आन्नद पूर्वक स्वतः सीखने सिखाने की
अवसर पैदा कर देती है।
प्रश्न 6. दृश्य कला से आप क्या समझते हैं ? कला शिक्षा के छात्रों को आप
दृश्य कला की अवधारणा कैसे स्पष्ट करेंगे?
        अथवा, कला शिक्षा में दृश्य कला का क्या महत्व है ? एक शिक्षक के रूप में
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में इसकी क्या उपयोगिता है ?
उत्तर–दृश्य कला पाठ्यचर्या का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इस प्रकार का एक संवेदी
अनुभव अधिक समय तक चलता है, क्योंकि ऐसे अधिगम में एक जैसे संवेदी अंग सम्मिलित
होते हैं। विद्यार्थियों को अपने पड़ोस के ब्योरों के प्रेक्षण और वस्तुओं तथा उनके पर्यावरण
के बीच के संबंधों का अन्वेषण करने के लिए प्रोत्साहन कर या कुछ कल्पना के बाद तस्वीर
खीचता है, तो उसकी संकल्पना अधिक सार्थक होती है, जैसा कि दृश्य तस्वीरों खींचता है,
तो उसकी संकल्पना अधिक सार्थक होती है, जैसा कि दृश्य तस्वीर में अर्थ के लिए एक
गंभीर विश्लेषण में सर्जना विकसित होती है।
    “कला का उद्देश्य वस्तुओं की वाह उपस्थिति का नहीं बल्कि उनके आन्तरिक अभिप्राय
का पुनः प्रस्तुतीकरण है।”
कला का वह पक्ष या कलात्मक अभिव्यक्ति जिन्हें हम देख पाते हैं या जिनकी मूर्त अनुभूति
होती है, दृश्य कला की श्रेणी में आते हैं, जैसे–फोटोग्राफी, छपाई; चलचित्र, मूर्तिकला आदि।
दृश्य कलाएँ–दृश्य कलाएँ दो प्रकार की होती है।
(1) द्विआयामी या चित्रात्मक कलाएँ-रेखन, चित्रांकन, कोलाज निर्माण, छपाई।
(2) त्रिआयामी कलाएँ-मुखौटा निर्माण, मृतिका प्रतिरूपण, मिट्टी के बर्तन ।
द्विआयामी या चित्रात्मक कलाएँ–इस कला का प्रयोग सपाट धरातल या कागज,
कार्ड, बोर्ड, जमीन आदि पर बालक करते हैं। जिसके निम्नलिखित अंग हैं :
1. आरेखन और चित्रांकन– कलात्मक क्रिवाकलापों में आरेखन और चित्रांकन की
महत्वपूर्ण भूमिका है, इसमें छोटे बालक आरेख बनोकर उसमें रंग भरते हैं। इसके माध्यम
से ये बच्चे अपनी अनुभूतियों, विचारों और कल्पनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं।
    द्विआयामी आरेखन के लिए सामग्री और प्रविधि :
(i) मुक्त रूप से टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचने और आरेखन के लिए पेंसिल, कोयला, रंगीन
चॉक, क्रेयॉन आदि प्रयुक्त होते हैं। पेंसिल और कोयले का प्रयोग कागज पर होता
है। ये पेशीय संचलन तथा नियंत्रण के विकास में सहायता करते हैं। चॉक का प्रयोग
सीधे चॉक बोर्ड पर होता है।
(ii) क्रेयॉन से उत्कीर्णन या कुछ चमकदार रंगीन क्रेयॉनों से मजबूत कागज को रंगा
जाता है और फिर इसकी पहली परत पर काले रंग से क्रेयॉन की दूसरी परत ।
चढ़ाई जाती है। फिर उसके ऊपर नाखून या कील की सहायता से आकृतियों को
बनाया जाता है।
(iii) किसी कागज पर मोमी या क्रेयॉन से चित्र या डिजाइन बनाया जाता है।
जलीय रंग और उनके उपयोग―प्राथमिक स्तर पर चित्रांकन करने के लिए जलीय
रंग का प्रयोग किया जाता है, जिसे पोस्टर कलर या टेम्परा पेंट भी कहते हैं। ये सुखे
पाउडर तथा क्रीमी द्रव के रूप में मिलता है। जिसमें गोंद मिलाते हैं।
2. छपाई कला–छपाई कला एक ऐसी कला है, जिसमें एक सतह की बनावट को
छाप द्वारा दूसरी सतह पर अंतरित करते हैं। जैसे-ब्लॉक छपाई, ठप्पा लगाना, उंगलियाँ
छापना, हाथ-छापना, आदि।
3. समुच्चित चित्र (कोलाज बनाना)― किसी वस्तु के आरेखन को सजाने के लिए
उस पर किन्ही वस्तुओं या सामग्रियों को चिपकाकर जो कलात्मक रचना बनाई जाती है, उसे
समुच्चित चित्र (कोलाज) कहते हैं। अर्थात् कोलाज का अर्थ है, किसी अन्य सतह पर, वस्तुओं
या सामग्रियों को चिपकाकर बनाई गई कलात्मक रचना।
        प्राथमिक स्तर पर कागजी कोलाज और मिश्रित कोलाज बहुत उपयोगी और रुचिकर
होती है।
त्रिआयामी कलाएँ-मृत्तिका प्रतिरूपण, लु आदि की पट्टी और मुखौटा निर्माण
त्रिआयामी कलाएँ है।
     यह क्रियाकलाप तीन आयामो (लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई) में निर्मित कलाकृतियों को सजाने
आदि में प्रयोग किया जाता है, जो निम्न है
(i) मृतिका प्रतिरूपण― इनमें मिट्टी का उपयोग त्रिआयामी कलाकृतियो अथवा वस्तुओं
को सजाने, बनाने आदि में किया जाता है।
(ii) तेल मृत्तिका (प्लास्टीन)―व्यावसायिक क्षेत्रों में बच्चा इस मिट्टी से भिन्न-भिन्न
कलाकृतियों का निर्माण करता है। इस मिट्टी में आलसी का तेल मिलाकर उपयोग किया जाता
है।
(iii) मिट्टी के बर्तन―मिट्टी के पात्र कुम्हार की क्रियाओं से परिचित कराकर पात्र बनाने
की क्रियाकलाप कराया जाय। क्रियाकलाप-कक्षा 1 और 2 के छात्रों को विशेषकर मिट्टी से
अण्डाकार आकृति बनाना, खेलने संबंधी पात्र बनाना आदि।
III और IV के कक्षा-छात्र हेतु क्रियाकलाप:
(i) गृह कार्य में काम आने वाले पात्र का निर्माण करना, (ii) मिट्टी पात्र को आग में पकाना,
(iii) मानव की आकृति बनाना, (iv) खेलने का सामान बनाना।
(iv) मुखौटा निर्माण―भिन्न-भिन्न जानवर आदि के मुख आकृति बनाना और किसी
व्यक्ति विशेष का रूप धारण करना । क्रियाकलाप कक्षा 1 और 2 के छात्रों को कागज और
पत्ते से मानव या इसके अंगों को बनाना।
     प्रतिरूपण (मॉडल) बनाना―प्रतिरूपण कला के द्वारा बालकों में कलात्मक संवेदना
को विकसित करने में विशेष सहायता मिलती है और अपने किये हुए कार्य से संतुष्टि प्राप्त
होती है, जिसमें विभिन्न वस्तुओं से किसी त्रिआयामी वस्तु को बनाया जाता है, जिन्हें हम
मॉडल या प्रतिरूपण कहते हैं। कक्षा 1 और 2 के लिए क्रियाकलाप के रूप में पुराने कार्ड-
बोर्ड के डिब्बों से खिलौना गाड़ी बनाना, कक्षा 3 और 4 के छात्रों के लिए कागज को मोड़कर
नई आकृति बनाना।
        कला शिक्षा में दृश्य कला का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैसे तो कला के माध्यम से कल्पना
की अभिव्यक्ति होती है, लेकिन जिस सहजता से कल्पनाओं को सार्थक अभिव्यक्ति दृश्य
के माध्यम से होती है, वह अपने आप में अद्वितीय है। वास्तव में दृश्य कला कल्पना, सोच
तथा अनुभवों का मूर्तन है। दृश्य कला शिक्षार्थियों के अशाब्दिकभावों को सहजता से
अभिव्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, खास कर दृश्य कला में प्रयुक्त सामग्री, दृश्य
अभिव्यक्ति को और भी जीवन्त बनाते हैं। दृश्य कलाएं नए अनुभवों के सृजन और पुराने
अनुभवों की निरन्तरता को सुनिश्चित करती है।
            साथ ही, दृश्य कलाओं के माध्यम से प्राप्त अनुभव शिक्षार्थियों के मस्तिष्क में स्थायी
छाप छोड़ती है। महत्त्वपूर्ण रूप से दृश्य सामग्री विभिन्न अवधारणाओ की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि
को व्यवहारिक आधार प्रदान करती है। दृश्य कलाएँ लोक एवं क्षेत्रीय कलाओं के साथ-साथ
सांस्कृतिक निरन्तरता को भी प्रोत्साहित करती है। दृश्य कलाएँ ऐन्द्रिक अनुशासन और नियंत्रण
को प्रोत्साहित करती है। दृश्य कला में आंतरिक भाव सहजता और पूर्णता में अभिव्यक्त
होते हैं। दृश्य कला की सबसे बड़ी विशेषता है, इससे संबंधित कार्यों का संग्रहण एवं प्रदर्शन।
वस्तुतः दृश्य कलाएँ आसानी से संग्रहित और प्रदर्शित की जा सकती है अर्थात् भविष्य में
भी उनका प्रयोग सहजता से किया जा सकता है। दृश्य कला के अन्तर्गत किए गए कार्य
भविष्य के कार्य के लिए दृष्टि प्रदान करते हैं तथा आधार भी बनते है।
           अतः कला शिक्षण में दृश्य कला शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में शिक्षकों के लिए बहुत
ही उपयोगी सिद्ध होती है।
प्रश्न 7.द्विविमीय दृश्यकला एवं त्रिविर्मीय दृश्यकला में मूलभूत अंतर स्पष्ट करें।
कक्षा शिक्षण में इसका सार्थक उपयोग आप कैसे करेंगे?
उत्तर―दृश्य कलाएँ―दृश्य कलाएँ दो प्रकार की होती है।
(1) द्विआयामी या चित्रात्मक कलाएँ―आरेखन, चित्रांकन, कोलाज निर्माण, छपाई,
(2) त्रिआयामी कलाएँ―मुखौटा निर्माण, मृतिका प्रतिरूपण, मिट्टी के बर्तन।
द्विआयामी या चित्रात्मक कलाएँ―इस कला का प्रयोग सपाट धरातल या कागज,
कार्ड, बोर्ड, जमीन आदि पर बालक करते हैं। जिसके निम्नलिखित अंग हैं :
1. आरेखन और चित्रांकन― कलात्मक क्रियाकलापों में आरेखन और चित्रांकन की
महत्वपूर्ण भूमिका है, इसमें छोटे यालक आरेख बनाकर उसमें रंग भरते हैं। इसके माध्यम
से ये बच्चे अपनी अनुभूतियों, विचारों और कल्पमाओं की अभिव्यक्ति करते है।
     कला शिक्षण में द्विआयामी आरेखन के लिए सामग्री और प्रविधि :
(i) मुक्त रूप से टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खीचने और आरेखन के लिए पैसिल, कोयला, रंगीन
चॉक, केयॉन आदि प्रयुक्त होते हैं। पेंसिल और कोयले का प्रयोग कागज पर होता
है। ये पेशीय संचलन तथा नियंत्रण के विकास में सहायता करते हैं । चॉक का प्रयोग
सीधे चॉक बोर्ड पर होता है।
(ii) क्रेयॉन से उत्कीर्णन या कुछ चमकदार रंगीन क्रेयॉनों से मजबूत कागज को रंगा जाता
है और फिर इसकी पहली परत पर काले रंग से क्रेयॉन की दूसरी परत यढ़ाई जाती
है। फिर उसके ऊपर नाखून या कील की सहायता से आकृतियों को बनाया जाता है।
(iii) किसी कागज पर मोमी या क्रेयॉन से चित्र या डिजाइन बनाया जाता है
जलीय रंग और उनके उपयोग―प्राथमिक स्तर पर चित्रांकन करने के लिए जलीय
रंग का प्रयोग किया जाता है, जिसे पोस्टर कलर या टेम्परा पेंट भी कहते है। ये सुखे
पाउडर तथा क्रीमी द्रव के रूप में मिलता है, जिसमें गोद मिलाते हैं।
2. छपाई कला―छपाई कला एक ऐसी कला है, जिसमें एक सतह की बनावट को
छाप द्वारा दूसरी सतह पर अंतरित करते हैं। जैसे-ब्लॉक-छपाई, ठप्पा लगाना, उंगलियाँ
छापना, हाथ-छापना, आदि।
3. समुच्चित चित्र (कोलाज बनाना)―किसी वस्तु के आरेखन को सजाने के लिए
उस पर किन्हीं वस्तुओं या सामग्रियों को चिपकाकर जो कलात्मक रचना बनाई जाती है, उसे
समुच्चित चित्र (कोलाज) कहते हैं । अर्थात् कोलाज का अर्थ है, किसी अन्य सतह पर, वस्तुओं
या सामग्रियों को चिपकाकर बनाई गई कलात्मक रचना।
    प्राथमिक स्तर पर कागजी कोलाज और मिश्रित कोलाज बहुत उपयोगी और रुचिकर
होती है।
         त्रिआयामी कलाएँ― मृत्तिका प्रतिरूपण, सु आदि की पट्टी और मुखौटा निर्माण
त्रिआयामी कलाएँ है।
      यह क्रियाकलाप तीन आयामो (लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई) में निर्मित कलाकृतियों को सजाने
आदि में प्रयोग किया जाता है, जो निम्न है
(i) मृतिका प्रतिरूपण―इनमे मिट्टी का उपयोग त्रिआयामी कलाकृतियों अथवा वस्तुओं
को सजाने, बनाने आदि में किया जाता है।
(ii) तेल मृत्तिका (प्लास्टीन)― व्यावसायिक क्षेत्रों में बच्चा इस मिट्टी से भिन्न-भिन्न
कलाकृतियों का निर्माण करता है। इस मिट्टी में आलसी का तेल मिलाकर उपयोग किया जाता
है।
(iii) मिट्टी के बर्तन―मिट्टी के पात्र कुम्हार की क्रियाओं से परिचित कराकर पात्र बनाने
की क्रियाकलाप कराया जाय। क्रियाकलाप-कक्षा 1 और 2 के छात्रों को विशेषकर मिट्टी से
अण्डाकार आकृति बनाना, खेलने संबंधी पात्र बनाना आदि।
III और IV के कक्षा-छपत्र हेतु क्रियाकलाप:
(i) गृह कार्य में काम आने वाले पात्र का निर्माण करना,
(ii) मिट्टी पात्र को आग में पकाना,
(iii) मानव की आकृति बनाना,
(iv) खेलने का सामान बनाना।
(iv) मुखौटा निर्माण― भिन्न-भिन्न जानवर आदि के मुख आकृति बनाना और किसी
व्यक्ति विशेष का रूप धारण करना । क्रियाकलाप कक्षा 1 और 2 के छात्रों को कागज और
पत्ते से मानव या इसके अंगों को बनाना ।
       प्रतिरूपण (मॉडल) बनाना―प्रतिरूपण कला के द्वारा बालको में कलात्मक संवेदना
को विकसित करने में विशेष सहायता मिलती है और अपने किये हुए कार्य से संतुष्टि प्राप्त
होती है, जिसमें विभिन्न वस्तुओं से किसी त्रिआयामी वस्तु को बनाया जाता है, जिन्हें हम
मॉडल या प्रतिरूपण कहते हैं । कक्षा 1 और 2 के लिए क्रियाकलाप के रूप में पुराने कार्ड-
बोर्ड के डिब्बों से खिलौना गाड़ी बनाना, कक्षा 3 और 4 के छात्रों के लिए कागज को मोड़कर
नई आकृति बनाना।
            अत: उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि दृश्यकला के माध्यम से सृजित कलात्मक उत्पाद
जिन्हें हम एक वस्तु के रूप में पकड़ नहीं सकते, उन्हें द्विविनीय दृश्यकला कहते हैं तथ
जसे हम देख सकते हैं तथा हाथ में पकड़ सकते हैं। अर्थात् उसमें गहराई एवं ऊंचाई नूल
रूप से हो, त्रिविमीय दृश्यकला कहते हैं।
प्रश्न 8. मुखौटे बनाने के तरीकों का वर्णन कीजिए। मुखौटे का शिक्षण कार्य
में उपयोगिता समझाइए।
उत्तर―मुखौटे–छात्रों को खेल-खेल में रोचक तरीके से शिक्षा प्रदान करने के लिये
यह भी एक अत्यन्त उपयोगी शिक्षण सहायक सामग्री है। इसका निर्माण बहुत कम लागत
से किया जा सकता है। मुखौटों को अनेक तरीको से बनाया जा सकता है, परन्तु मुख्य रूप
से दो ही तरीके अधिकतर प्रयोग में लाए जाते हैं।
1. मोटे कागज से बने मुखौटे―इसके लिये निम्न वस्तुएँ आवश्यक सामग्री के रूप
में प्रयोग की जाती हैं–आइबरी शीट, रंगीन कागज, रंग, कैची, रूई-ऊन, गोंद आदि।
सर्वप्रथम वस्तु का आकार पेंसिल द्वारा शीट पर बनाकर
मुखौटे का प्रारूप तैयार किया जाता है। इसके उपरान्त
कैची से काटकर मुखौटे का ढाँचा निकाल लेते हैं। इसमें              ph
चेहरे पर लगाकर आँख का निशान लगाकर उसके छेद
बना लेते हैं। फिर इसकी वास्तविकता बनाए रखते हुये,
आवश्यकता अनुरूप सजा लेते हैं।
     कुछ अंग अलग से काटकर भी गोंद द्वारा चिपकाए
जा सकते हैं। रिबन के दो बराबर टुकड़े लेकर मुखौटे
के पिछले हिस्से में कागज के नीचे दबाकर चिपकाने से बाँधने की डोरी तैयार हो जाती है।
    ये टुकड़े इतने बड़े होने चाहिए कि गाँठ सरलता से बँध सके। रिबन की जगह इलास्टिक
के एक टुकड़े को मुखौटे पर दोनों तरफ से कागज के नीचे दबा देने पर भी बार-बार
सरलतापूर्वक मुखौटा पहनने के सहारे का प्रबन्ध किया जा सकता है। इलास्टिक का टुकड़ा
अधिक मोटा नहीं होना चाहिए व इतना बड़ा अवश्य हो कि मुखौटे में सिर आसानी से घुस
जाए।
        (2) गुब्बारे पर कागज की परतें लगाकर मुखौटा बनाना-इसके लिये आवश्यक
सामग्री निम्न हैं―
एक गुब्बारा, कुछ पुराने अखबार, गोंद, पानी, रंग, डोरी के लिये
रिबन या इलास्टिक, कैची आदि। इसके लिये सर्वप्रथम एक गुब्बारे को
फुलाकर गाँठ लगा लें। गुब्बारा न तो अधिक और न ही कम भरा हो।
इसके उपरान्त अखबार के छोटे-छोटे टुकड़े कर पहले पानी से गीले करके
दो-तीन सतह तक गुब्बारे पर लगाते हये इसे पूर्णतः ढक देव फिर पानी       ph
में गोंद मिलाकर इन टुकड़ों से 4-5 परतें और गुब्बारे पर लगा दें। इसे
कुछ घंटों के लिये सूखने दें। फिर एक सफेद कागज या वस्तु के अनुरूप
रंग का कागज गोंद द्वारा ऊपर से चिपका दें। इसे अच्छे से चिपकने दें।
फिर गुब्बारे को सूई चुभोकर उसकी हवा निकाल दें। फिर इसे बीच में से दो भागों में काट
दें। आँख की जगह निशान लगाकर छेद बना लें। फिर इसे अपनी इच्छा अनुसार सजाएँ तथा
पीछे डोरी रिबन या इलास्टिक द्वारा कागज के नीचे दबाकर बाँधने के लिये तैयार करें।
मुखौटे का शिक्षण कार्य में शिक्षण सहायक सामग्री के रूप में उपयोग:
(1) अध्यापक छात्रों को मुखौटा पहनवाकर उनसे अभिनय व नाटक करवा सकते हैं।
(2) छात्र मुखौटा पहनकर उस वस्तु पर आधारित कविता का पाठ कर उससे सम्बन्ध
स्थापित कर उसे शीघता से समझ सकेंगे। जैसे-सेब का मुखौटा पहनकर छात्र
उस पर कविता बोल सकता है।
(3) छात्रों को मुखौटे की सहायता से पहचान करने व वस्तु का नाम बोलने के योग्य
बनाया जा सकता है।
(4) छात्रों को कहानियाँ आदि ‘सुनाई जा सकती है तथा पाठ भी रोचक तरीके से पढ़ाए
जा सकते है।
प्रश्न 9. चित्रांकन एवं पेंटिंग के संदर्भ में निम्नांकित पदों को सोदाहरण
समझाइए।
(क) टोन (Tone)
(ख) टेक्सचर (Texture)
(ग) रिदम (Rhythm)
(घ) एम्फेसिज (Emphasis)
उत्तर : (क) टोन–प्रकाश तथा छाया का प्रभाव टोन कहलाता है। यह गहरे से हल्के
या हल्के से गहरे रंग के तल को जाहिर करता है। इससे चित्र में गहराई उत्पन्न होती है,
रंगों में इसका विशेष महत्व है। रंग का हल्का-भारीपन प्रकाश तथा छाया की शक्ति को बढ़ाता
है।
(ख) टेक्सचर―इससे तल की बनावट जाहिर होती है। विभिन्न प्रकार के चिकने और
खुरदरे तल हो सकते हैं। चटाई, खटर इत्यादि को छूकर हम इसका अनुभव कर सकते हैं।
वस्तुतः टेक्सचर चित्र फ्लैट सतह को उभारता है। रंग, शेड एण्ड लाइट या स्क्रीन द्वारा
सतह पर टेक्सचर का प्रभाव पैदा किया जाता है।
(ग) रिदम―चित्र के भागों को दोहराने से रिद्म (लय-ताल) का प्रभाव पैदा होता है।
यह दोहराना दाएं से बाएं या ऊपर से नीचे हो सकता है। आलंकारिक अथवा सजावटी डिजाइनो
में इसका विशेष महत्व है।
(घ) एम्फेसिज―चित्र में किसी एक भाग को विशेष प्रधानता दी जाती है। चित्र को
प्रभावपूर्ण बनाने के लिए उसके विशेषज्ञ भाग को उभारना जरूरी हो जाता है। वास्तव में
प्रत्येक कम्पोजीशन में एक प्वाईंट होता है, जिसे प्वाइंट ऑफ इंटरेस्ट या चित्र का मुख्य
भाग भी कह सकते हैं। आकृति, रचना और रंगों के कंट्रास्ट से उत्पन्न किया जा सकता है।
प्रश्न10.विद्यालय में आमतौर पर किए जानेवाले कागज शिल्प के उदाहरण है।
कागज की नाव एवं कागज की जहाज बनाने की विधियों बताते हुए यह स्पष्ट करें
कि इसका उपयोग गणित शिक्षण में (ज्यामिति) के शिक्षण में किस प्रकार किया जा
सकता है।
उत्तर―कागज कतरन मुख्यतः सजावट में प्रयुक्त होती है। ये घरों में दीवारों, खिड़कियों
दरवाजों, लैम्पों और लालटेनों को अलंकृत करते हैं। विद्यालय में मनाये जाने वाले उत्सवों
में कागज काटकर विभिन्न झण्डे-पताके बनाने में बच्चे विशेषकर रुचि लेते हैं। कागज शिल्प
लोक कला का एक प्राचीन उदाहरण है। सारे संसार में इस कला को विभिन्न तरीको द्बारा
आत्मसात किया गया है।
           प्रायः सभी बच्चों ने अपने बचपन में कागज के नाव और जहाज बनाये होंगे।
कागज के नाव और जहाज को बनाना भी एक कला है। इसके लिए कागज को मोड़ा जाता है।
          जैसे ही हम कागज मोड़ने का शब्द सुनते हैं हमारे मस्तिष्क में लोकप्रिय जापानी शैली
ओरिगामी (ओरि का अर्थ मोड़ना और गामी का अर्थ कागज) आता है। कला के रूप में
एक शिल्प जैसा संरचनात्मक या कंक्रीट आकार देने की योग्यता अपेक्षित है। इस कला का
लक्ष्य है, पदार्थ के एक समतल शीट को मोड़ने और शिल्प तकनीकों के माध्यम से पूर्ण शिल्प
में परिवर्तित करना और ऐसे काट और गोंद विचारित नहीं है, केवल एक जरूरत है कि
इसमें एक चुन्नट होनी चाहिए। कागज शिल्प बहुत हल्का और संभालने में आसान है। ऐसे
शिल्प के लिए पुराने समाचार पत्र प्रयुक्त किये जा सकते हैं।
       यह कला महज, खेल तक सीमित नहीं है। इसका दूसरा पहलू गणित का है। दुनिया
में वस्तुत: सारे बच्चे गणित के डर से स्कूल नहीं आते या छोड़ देते हैं। गणित उनके समझ
से बहुत कठिन है, लेकिन सच्चाई यह कि गणित दूसरे विषय की अपेक्षा सहज, सुन्दर और
सरल विषय है।
   कागज करतन द्वारा इसका प्रयोग गणित शिक्षण में निम्न प्रकार से लिया जा सकता है।
   कागज करतन की दो विधियाँ हैं―कैची और चाकू का प्रयोग कर । कागज के आठ
टुकड़ों तक को एक साथ बाँधा जाता है। इसका मूलभाव है, कागज को तेज धारवाली कैंची
से काटना । चाकू से कागज काटने के लाभ अधिक है, क्योंकि कैची से काटने की अपेक्षा
चाकू से एक बार में अधिक कागज काटे जा सकते है। द्वि-आयामी या त्रि-आयामी काट सामान्य
है जो कि गहराई और अनुपात आदि का भ्रम सृजित करता है।
          केस अध्ययन―बच्चे किसी भी प्रकार का एक वर्गाकार कागज ले सकते है और इसे
किसी ज्यामितीय शैली में क्षैतिज या उर्ध्वाधर मोड़ सकते है।
कागज काटना:
पच्चीकारी
      चरण:
1. कागज की तीन पतली धारियाँ काटें और फिर 1 सेमी के वर्गाकार छोटे टुकड़े प्राप्त
करने के लिए इन्हें क्षैतिज काटें।
2. एक कागज पर एक नमूना ढाँचा या तस्वीर बनाएँ।
3. तदनुसार इन्हें रंगीन कागज के वर्गों से भरें।
4. हम स्केच पेन से सूक्ष्म विवरण खींचे, जैसे-फूल का तना।
5. पूर्ण चित्र एक पच्चीकारी के जैसा दिखता है।
ph
                        (कागज शिल्प कला)
प्रश्न 11.प्रदर्शन कला से आप क्या समझते हैं? प्रदर्शन कला के विभिन्न तत्वों
को बताइए।
उत्तर―कला एक ऐसा विषय है, जिसमें विभिन्न क्रियाओं व गतिविधियों के माध्यम
से छात्रों के सर्वांगीण विकास में सहायता मिलती है। कला का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है व
कला शिक्षण का उद्देश्य केवल छात्रों का संज्ञानात्मक विकास ही नहीं अपितु क्रियात्मक विकास,
व्यवहारगत परिवर्तनों को लाते हुए, छात्रों को आत्मनिर्भर व जीवन जीने की कला सिखाना
है। कला शिक्षण के माध्यम से छात्रों में विचारों, भावों, अनुभवों, प्रतिक्रियाओं, संवेदनाओं,
धारणाओं कल्पनाओं, संवेगों व क्रियाओं की स्वच्छन्द रूप से आत्म अभिव्यक्ति को विकसित
करने के लिए अवसर प्रदान किए जाते हैं।
यह एक ऐसा विषय है, जो छात्रों के जीवन से नीरसता को दूर कर कल्पनाओं के रंग
भरता है। छात्रों को सृजनात्मकता व नवीनता को अपनाने के लिए प्रेरित करता है तथा उनमें
रुचि व समझ विकसित करते हुए प्रत्येक कार्य को पूर्ण लगन व मेहनत से करने के लिए
तैयार करता है।
       यह कोई अलग-अलग विषय नहीं है अपितु यह अन्य विषयों व अन्य विषय इसका
अंग उसी प्रकार है, जैसे आत्मा का शरीर से सम्बन्ध है । यह आपस में एक-दूसरे के पूरक है।
चित्रांकन, नृत्य, नाटक, एकांकी, शिल्पकारी, रेखाचित्र, रंग भरना आदि इनमें से किसी
भी रूप द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करना कला कहलाता है तथा इन सभी कलाओं
को प्रदर्शित करना ही प्रदर्शन कला कहलाता है।
      यह एक ऐसा माध्यम है जो सभी सीमाओं व बन्धनों से मुक्त है, किसी-न-किसी उद्देश्य
को प्राप्त करने के लिए इसे अपनाया जाता है । यह लोक, पाश्चात्य, शास्त्रीय, नवीन, प्राचीन
सभी रूपों को अपने में समेटे हुए हैं तथा इसके द्वारा प्रत्येक छात्र की जरूरतों को पूरा किया
जा सकता है।
      कला एक ऐसा विषय है, जिसके द्वारा छात्रों को अपनी जिज्ञासा, रूचियों, भावनाओं
आदि को सन्तुष्ट व विकसित करने के भरपूर अवसर प्राप्त होते हैं। इसके माध्यम से वह
अपने समय का उचित रूप से प्रयोग कर सकते हैं।
        प्रदर्शन कला के विभिन्न तत्व―प्रदर्शन कला के अन्तर्गत वे सभी कलाएं समाहित
हैं, जिन्हें आंगिक, वाचिक व आहार्य और सात्विक के माध्यम से प्रदर्शित किया जा सकता
है। साधारणतः जिन्हें देखा, सुना या प्रदर्शित किया जा सके
वे सभी कलाएँ प्रदर्शन कला के रूप में शामिल किया जा सकता
है। जैसे-संगीत, नाटक, नृत्य, पुतली कला, मूक अभिनय,
कविता वाचन, कहानी सुनाना, भाषण कला आदि । संगीत में                 ph
गायन और वादन दोनों रूपों को प्रदर्शन किया जाता है। लोक
संगीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य जिनका सीधा संबंध लोक चेतना
से है, प्रदर्शन कला का महत्वपूर्ण अंग है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे जीवन के विभिन्न
पहलुओं को कला प्रभावित करती है। प्रदर्शन कलाएँ शिक्षार्थियों के शारीरिक, मानसिक,
सांवेगिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार है। इनके माध्यम से विचार एवं भावनाओं
की सशक्त अभिव्यक्ति होती है। साथ ही शिक्षार्थियों में आत्मविश्वास एवं सृजनशीलता का
विकास होता है। प्रदर्शन कला को हम सामान्यतः समूहों में कार्य करते हैं, जिससे समूह भावना,
अनुशासन, समन्वय, समानता, धैर्य और लगाव की सोच और रचनात्मक एवं सकारात्मक भावना
का विकास होता है। इसमें जीवन की विभिन्न कठिनाइयों व परिस्थितियों का सामना करने
का अनुभव प्राप्त होता है। जिससे सृजनात्मक सोच और रचनात्मक एवं सकारात्मक व्यवहार
का विकास होता है। प्रदर्शन के पश्चात् कलात्मक व सृजनात्मक संतुष्टि का अनुभव होता
है जो हमारे व्यक्तित्व को निखारने में अहम भूमिका निभाता है।
प्रश्न 12. लोक नृत्य से आपका क्या अभिप्राय है? बिहार के प्रमुख लोकनृत्य को
बताइए।
उत्तर―लोकनृत्य-जब भाषा का उद्गम नहीं हुआ था, तब भी आदिमानव अपने भावों
की अभिव्यक्ति को अंगों के संकेत द्वारा करता था। अपनी छाया को हिलाने और उसमें विविध
मुद्राएँ बनाकर क्रीड़ा करने में मानव को सुख की अनुभूति होती थी। अनुकरण की इस भावना
ने नृत्य को जन्म दिया। मानव द्वारा अपनी आनन्दानुभूति की विविध हाव-भाव और अंग संचालन
के साथ अभिव्यक्त करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
    भारतवर्ष में नृत्य को धर्म कार्य मानकर सम्मानित किया गया है। इस कला को देवी-देवताओं
ने अपनाया इसलिए नृत्य व संगीत को दैवीय कला माना जाता है। श्रीकृष्ण भगवान बांसुरी
बजाकर व रास-नृत्य द्वारा चराचर को मुग्ध कर देते थे। भगवान शिव को ‘नटराज’ (नर्तकों
का राजा) कहा जाता है। उनके द्वारा किए गए नृत्य को ‘तांडव’ तथा पार्वती द्वारा किए गए
नृत्य को ‘नाट्य’ कहा गया है जो कि आज भी नृत्य में विद्यमान हैं।
       भारतवर्ष एक विशाल देश है। इसके विभिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न भाषा, रीति-रिवाज,
उत्सव-त्योहार हैं जिनकी झलक हमें लोक नृत्यों में देखने को मिलती है। हमार देश में कई
लोक नृत्य प्रचलित हैं जैसे—पंजाब में भांगड़ा, बिहार में सांथली, गुजरात में गरवा, असम
में बिहु, गैर, महाराष्ट्र में लावणी व तमाशा, राजस्थान में घमर, गरवा, पणिहारी, तेराताली,
गैर आदि।
      बिहार के लोक नृत्यों की सूची काफी लम्बी है। इनमें निम्नांकित महत्त्वपूर्ण है―
1. नारदी―यह एक कीर्तनिया नाच है। इसमें परम्परागत साज मृदंग एवं झाल का प्रयोग
किया जाता है। कीर्तनकार इस नृत्य के दौरान विभिन्न प्रकार के स्वांग किया करते हैं।
2.गंगिया―पतित पावनी गांगा मात्र एक नदी ही नहीं अपतुि भारतीय संस्कृति की जननी
है। गंगा बिहार की प्रमुख नदियों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि इसके पवित्र जल से
स्नान करने स मानव अपने समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। गंगा स्तुति महिलाओं के द्वारा
नृत्य के माध्यम से की जाती है जिसे गंगिया नृत्य कहा जाता है।
3. मांझी नृत्य―नदियों में नाविकों द्वारा यह गीत नृत्य मुद्रा में पाया जाता है।
4. घो-घो रानी―छोटे-छोटे बच्चों का खेल, जिसे लोक शैली में घो-घो रानी कहा जाता
है। इस नृत्य में एक लड़की बीच में रहती है तथा चारों तरफ से लड़कियाँ गोल घेरा बनाकर
गीत गाती हैं और घूमती हैं।
5. गोदनी—इस लोक नृत्य में मछली बेचने वाली तथा ग्रहकों का स्वांग किया जाता है।
6. लौढ़ियारी—इसमें नायक जो एक किसान होता है, अपने बधान (गाय, भैंसा बाँधने
की जगह) पर भाव भागमाओं के साथ गाता और नाचता है।
7.धन-कटनी― फसल कट जाने के बाद किसान सपरिवार खुशियाँ मनाता हुआ गाता
और नाचता है। जो धनी कटनी नाच के रूप में जाना जाता है।
8. बोलबै—यह नृत्य पति के परदेश जाते समय के प्रसंग से जुड़ा है। यह अंगप्रदेश
(भागलपुर) तथा इसके आस-पास के इलाकों में प्रचलित है।
9.सामा-चकेवा―यह नृत्य बिहार के मिथिलांचल का एक महत्त्वपूर्ण नृत्य है। इसमें
महिलाएं अपने भाईयों की रक्षा के लिए निवेदन करती हैं। इसे कार्तिक मास में किए जाने
की परम्परा है।
10.घंटो―भारत देश की परम्परा है अतिथि देवो भव। परंतु जब घर में कुछ खाने का
न हो तब अतिथि का आगमन दु:ख का विषय होता है। इस नृत्य के माध्यम से ससुराल
में रह रही गरीब बहन को जब भाई के आने की सूचना मिलती है तो वह काफी खुश हो
जाती है, लेकिन खाने का अभाव उसे परेशान कर देता है। सत्कार की चिंता में विरह गीत
गाया जाता है तथा बेचैनी भरा नृत्य भी किया जाता है।
11.झिझिया―यह मिथिला का बहुत ही लोकप्रिय लोक नृत्य है जिस दुर्गापूजा के अवसर
पर महिलाओं के द्वारा किया जाता है। इस नृत्य का संबंध तंत्र-मंत्र स भी बताया जाता है।
12. इरनी-बिरनी―यह लोक नृत्य अंगिका का एक प्रमुख नृत्य है। इस नृत्य की
विषयवस्तु पति-पत्नी के बीच मनमुटाव है।
13.डोमकच―शादी-ब्याह के अवसर पर महिलाओं द्वारा समूह में स्वांग एवं नत्य के
रूप में किया जाने वाला यह एक लोकप्रिय नृत्य नाटिका है। जब बारात दुल्हन के घर शादी
के लिए रवाना हो चुकी होती है और घर पर सिर्फ महिलाएँ ही रह जाती हैं तो महिलाओं
द्वारा पुरुषों का वेश बनाकर नृत्य नाटिका किया जाता है।
14. देवहर―देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता हुआ अत्यन्त प्राचीन गीत एवं नृत्य
है। बिहार और झारखंड में यह प्रचलित है। कहीं-कहीं इस नृत्य को भगता नाच के नाम
से भी जाना जाता है।
15. बगुलो―यह उत्तर बिहार का अत्यन्त लोकप्रिय लोक नृत्य है। इसें ससुराल से रूठकर
जाने वाली एक स्त्री का राह चलते दूसरे स्त्री के साथ नोंक-झोंक का बड़ा ही सजीव चित्रण
किया जाता है।
16. झरणी―मुसलमानों द्वारा मुहर्रम के अवसर पर झूमते हुए गाया जाने वाला एक प्रकार
का नृत्य और गीत है।
17. जट-जटिन―एक विशेष जाति जाट और उनकी पत्नी जटिन के द्वारा किया जाने
वाला गीत और नृत्य है। इसे सामान्यतः इन्द्र भगवान को मानने के लिए वर्षा ऋतु में किया
जाता है।
18. होरी–बसंत के आगमन पर गाया जाने वाला गीत और नृत्य होली के दिन अपने
चरण पर होता है।
19. जोगीरा नाच―होली के अवसर पर पुरुषों द्वारा महिलाओं का स्वांग रच के किया
जाने वाला नृत्य।
20. नटुआ नाच― मिथिला में पुरुषों के द्वारा महिलाओं का नृत्य नटुआ नाच कहलाता है।
21. पावड़िया नृत्य―शिशु के जन्म होने पर किन्नरों के द्वारा किया जाने वाला बधाई
गीत और नृत्य पावड़िया नृत्य कहलाता है।
22. लौंडा नाच―यह एक विशेष प्रकार का नृत्य है जिसमें पुरुष महिला का स्वांग
करके नृत्य करते हैं। बिहार में इसकी प्राचीन परम्परा है।
23. विद्यापत―मिथिला में मैथिली कोकिल विद्यापति के गीतों का नृत्य के रूप में प्रस्तुति
विद्यापत कहलाता है।
24.झमटा―बिहार के पश्चिम चम्पारण में रहने वाली एक मात्र जनजाति समुदाय धारुओं
का लोकनृत्य झमटा अपने आप में एक सांस्कृतिक विरासत है।
प्रश्न 13. शास्त्रीय नृत्य क्या हैं? भारतीय शास्त्रीय नृत्य के प्रमुख अंगों को बताइए।
अथवा, सृजनात्मक नृत्य पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।
उत्तर―नृत्य की अधिकतम प्रचलित प्रणालियों उच्च स्तर की विस्तृत प्रणालियों से शासित
होती थी और इनका उदय आम आदमी के बीच से होता था। शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य
के बीच मुख्य अन्तर इनके नियम बद्धता एवं विस्तार का है। नृत्य और नाट्य कला अपने
अग्रिम सिद्धांतों और शास्त्रों के नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं।
शास्त्रीय नृतय से संबंधित एक शिक्षक मोहन जी के संस्मरण
           पिछले वर्ष जनवरी माह की बात है। मेरे शहर में बौद्ध महोत्सव का आयोजन हुआ
इसमें कत्थक नृत्य के महान कलाकार पंडित बिरजू महाराज का कार्यक्रम भी था। मैं अपने
दोस्तों के दबाव पर कार्यक्रम देखने चला गया। कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। एक फूहड़ सा नृत्य
प्रारंभ हुआ। चारों तरफ से शोरगुल होने लगे। दर्शकों की संख्या बढ़ने लगी। कुछ समय के
बाद नृत्य समाप्त हुआ तथा पंडित बिरजू महाराज के कार्यक्रम को उदघोषणा हुई। पंडित जी
कत्थक नृत्य की बारीकियाँ बताते हुए अपने कई नृत्य प्रदर्शित किए। मुझे यह अच्छा नहीं
लग रहा था या यों कहें मुझे इसकी समझ नहीं थी। मेरे बगल में बैठे हुए एक विदेशी दर्शक
ने मुझे इस नृत्य की बारीकियों समझाई। मैं झेंप गया, मुझे लगा कि मैं अपनी संस्कृति के
प्रति संवेदनशील नहीं हूँ, जितना को एक दूसरे देश के व्यक्ति को हमारी संस्कृति और विरासत
की खूबियाँ अपनी ओर आकर्षित करती हैं। मेरा नजरियास अब
बदल चुका था। मेरे द्वारा इन शास्त्रीय नृत्यों को देखने का नजरिया
बदल गया था। अब में दूरदर्शन पर प्रसारित अखिल भारतीय नृत्य
के कार्यक्रमों का नियमित दर्शक हूँ, जबकि पहले मैं इन कार्यक्रमों           ph
के प्रसारण प्रारंभ होते ही चैनल बदल दिया करता था।
       आप इस संस्मरण से क्या सोचते हैं। आपको ऐसा नहीं लगता
कि हम अपनी परम्पराओं और सांस्कृतिक विरासत को भुलते जा
रहे हैं तथा नकल की परम्परा को अपनाने लगे हैं। हमारी कलात्मक
संवेदनशील दिशा परिवर्तित करती जा रही है। आइए, शास्त्रीय
नृत्य के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू को समझने का प्रयास करते हैं।
भारतीय शास्त्रय नृत्य के तीन मुख्य अवयव हैं―
1: नृत्त 2. नृत्य 3. नाट्य
1. नृत्त—इसके मुख्यतः दो हिस्से हैं। पहला ताल कहलाता है जो समय के मापन को
प्रदर्शित करता है जबकि दूसरा लय है जो गति को दिखाता है। नृत्त, को नृत्य के शुद्ध स्वरूप
में जाना जाता है जिसमें शारीरिक गतिशीलता एवं सौंदर्य प्रदर्शित होता है परन्तु रस और भाव
का अभाव होता है। नृत्त दो प्रकार के होते हैं―
2. नृत्य―नृत्य में रस और भाव प्रधान है। शाब्दिक रूप में रस का अर्थ ‘स्वाद’ या
महक है और पद आनन्दातिरे यास मनोदशा है, जिसका अनुभव दर्शक किसी नृत्य (अभिनय)
प्रदर्शन को देखकर करता है। नृत्य में नौ रस होते हैं- (1) शृंगार रास (2) हास्य रम (3)
करूण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयंकर रस (7) विभत्स रस (8) अद्भुत रस (9)
शान्त रस। इन रसों के संगत भाव भी हैं, प्रेम, हास्य, दुख, क्रोध, ऊर्जा, भय, निराशा, आश्चर्य
एवं शान्ति। इनमें दो प्रकार के भांव है। एक तांडव, जो शिव के रौद्र।
        सृजनात्मक नृत्य― वर्तमान समय में नृत्य की कई शैलियाँ विकसित हो गई हैं जिनमें
संसार की कई नृत्य विधाओं का दखाई पडता है। आपने टी.वी. के कई चैनलों पर
नृत्य प्रतियोगिता के कार्यक्रम देखें होंगे। आपने ऐसे नृत्य देखे होंगे जो न तो लोक नृत्य हैं
और न ही शास्त्रीया इन्हें सृजनात्मक नृत्य की
‘श्रेणी में रखा जा सकता है, जैसे-रोबोट नृत्य,
ब्रेक डांस, हीप-हॉप, फ्यूजन। भारतीय सिनेमा
इस प्रकार के नृत्य शैली का जन्म माना जा
सकता है। इस प्रकार की नत्य यद्यपि हमारे
सांस्कृतिक परम्पराओं का परिचायक नहीं है।
अपितु इनमें कलाकारों के कला क्षमता या                         ph
कुछ नया करने का जज्बा दिखाई पड़ता है।
इसका एक सकारात्मक पहलू यह है कि
बच्चों को अत्यन्त प्रभावित करते हैं।
      यहाँ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह प्रासंगिक
होगा कि कला के माध्यम से शिक्षा में यह
आवश्यक नहीं है कि कला प्राचीन/पारम्परिक
है या सृजनात्मक अपितु इनसे बच्चों के
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया कहाँ तक प्रभावित
होता है।
प्रश्न 14. रंगकर्म से बच्चों में किन कौशलों का विकास होता है? विस्तार से चर्चा
कीजिए।
उत्तर―रंगकर्म से बच्चों में निम्न कौशलों का विकास होता है―
(1) कल्पना करना―नाटक करने के लिए नए-नए विचारों के बारे में सोचना और उसे
बेहतर बनाने के लिए सृजनात्मक तरीकों के बारे में सोचना, आसपास मौजूद संसाधनों का
उपयोग हमारे जीवन में आने वाली वास्तविक परिस्थितियों के लिए हमें तैयार करता है।
आईन्स्टाइन ने कहा है, “कल्पनाशीलता ज्ञान इकट्ठा करने से ज्यादा जरूरी है।” नाटक
कल्पनाशीलता को प्रयोग करने के भरपूर अवसर देता है।
(2) समानुभूति―नाटक करते समय हम अलग-अलग समय की अलग-अलग संस्कृति
के अलग-अलग लोगों को जिन्दगियों को जी रहे होते हैं, उसे करीब से जानते हुए उनको
परिस्थितियों को समझा रहे होते हैं। इससे समाज के विभिन्न लोगों के प्रति सहनशीलता, संवेदना
का विकास होता है।
(3) सहयोगात्मक रवैया–प्रायः नाटक पूरे समूह का सहयोगपूर्ण प्रयास होता है। नाटक
तैयार करने के दौरान समूह के सभी व्यक्ति एक-दूसरे को सुनते हैं, समझाते हैं, चर्चा करते
हैं एवं एक व्यवस्था बना कर रखते हैं। अपने मतभेदों को दूर कर, सामूहिक रूप से लक्ष्यपर्ति
के लिए प्रयास करना, किसी तरह के समूह के सुचारू रूप से चलने के लिए बहुत जरूरी
है। फिर चाहे वह समाज रूपी बड़ा समूह ही क्यों न हो?
(4) एकाग्रता― नाटक तैयार करने के दौरान मस्तिष्क, शरीरांगो और आवाज को केन्द्रित
करने में मदद मिलती है, अपने भावों को नियंत्रित करना, जिसका प्रभाव दूसरे विषयों पर
और आगे चलकर जीवन पर भी पड़ता है।
(5) सम्प्रेषण कौशल-नाटक विचारों की मौखिक और मूक अभिव्यक्ति को बढ़ावा
देता है। अपनी आवाज को दूर तक पहुँचाना, शब्दों को उच्च एवं साफ उच्चारण करना, धाराप्रवाह
भाषा का प्रयोग कर पाना, स्थिति स्थान एवं व्यक्ति विशेष के अनुसार भाषा का उचित प्रयोग
कर पाना-सब नाटक सिखाता है।
(6) समस्या का हल ढूँढ़ना―नाटक करते समय हम यह सीखते हैं कि कोई भी समस्या
कैसे और कब, किससे सबसे सामने रखती है, किसी भी समस्या पर तात्कालिक प्रदर्शन करना,
और उस समस्या के समाधान हेतु उचित प्रतिक्रिया देना, जिन्दगी के बेहतर अनुकूलन में मदद
करता है।
(7) मनोरंजन–नाटक करने के दौरान खेल-खेल में अनगिनत विषयों को सीखने और
उस पर समझ बनाने के मौके मिलते हैं। इससे प्रेरणात्मक तथा दबावमुक्त वातावरण बनाने
में सहायता मिलती हैं।
(8) भावात्मक विकास―नाटक करते और नाटक की तैयारी करते समय विभिन्न
गतिविधियों को करते हुए सबको अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर मिलता है
जो कि एक सुरक्षित और नियंत्रित वातावरण में तनाव तथा विद्वेष को निकालने और उससे
जूझाने का अवसर है। यह आगे चलकर किसी भी प्रकार के असामाजिक व्यवहार को रोकने
में मदद करता है।
(9) आत्मानुशासन–नाटक को तैयार करना और प्रस्तुत करना नाटक करने वालों की
सामूहिक जिम्मेदारी होती है। इसके लिए ये जरूरी है कि हर भागीदार स्वयं को अनुशासन
में ढाले। बिना आत्मानुशासन के नाटक का मंचन लगभग असम्भव है।
(10) भरोसा―नाटक तैयार करते समय, सभी साथियों को एक-दूसरे पर पूरा भरोसा
करना पड़ता है, क्योंकि नाटक करना एक समूह कार्य है और जब तक समूह साथियों का
एक दूसरे पर भरोसा नहीं होगा, तब तक कोई समूह सुचारू रूप से काम नहीं कर पाएगा।
(11) स्मरण शक्ति का सुदृढ़ होना―नाटक करते समय सिर्फ अपने ही नहीं, अपितु
अपने साथियों के भी संवादों को याद रखना पड़ता है। मंच पर किसका प्रवेश कहाँ से होगा,
कौन कब कौन-सा संवाद बोलेगा तथा किसकी कहाँ खड़ा होना है? ये सब बातें हर एक
व्यक्ति को याद रखनी होती है।
(12) सामाजिक जागरूकता―नाटक में प्रयोग होने वाली पौराणिक कहानियाँ, कथाएँ,
कविताएँ आदि समाज और संस्कृति से जुड़े विभिन्न मुद्दों और द्वंद्वों से रूबरू करवा, उनके
साथ एक संवाद स्थापित करने का अवसर देती है।
(13) सौन्दर्यबोध का विकास―नाटक करते समय हम विभिन्न कलाओं के साथ
अंतःक्रिया करते हैं। इस दौरान हम जीवन की नित नई प्रक्रियाओं से जुड़ते हुए उसमें छिन
सौन्दर्य को समझाने की कोशिश करते हैं। नाटक करने के लिए यह जरूरी है कि हम अपने
आसपास की परिस्थितियों का सुक्ष्म अवलोकन कर उसमें छिपे सौन्दर्य को ढूंढ निकालें और
उसे आत्मसात कर लें।
प्रश्न 15. नाटक की विभिन्न विधाओं को स्पष्ट कीजिए।
अथवा, निम्न पर टिप्पणी लिखें:
1. एकांकी, 2. एकाभिनय एवं मूकाभिनय, 3. नुक्कड़ नाटक, 4. मंचीय नाटक,
5. इंप्रोवाइजेशन ।
उत्तर―1.एकांकी-एकांकी शब्द का अर्थ है-एक अंक वाला । एकांकी में पात्रों की
संख्या सीमित होती है। एकांकी जीवन का क्रमबद्ध विवेचन नहीं है बल्कि उसके एक पहलू
की झलक मात्र है । एकांकी में संकलन प्रायः होता है सीमित समय, सीमित पात्र और सीमित
घटनाकाल । इसमें स्थान, समय और पात्र का सामंजस्य आवश्यक होता है । मर्यादा की दृष्टि
से एकांकी में केवल आधिकाधिक कथा होती है। वह एकदम आरम्भ होकर अंत को ओर
बढ़ती है। इसीलिए इसमें जटिलता, घटना-वैविध्य, कथा-संकुलता नहीं होता। संवाद में भी
मितव्ययता का प्रयोग होता है। एकांकी व्यापक नहीं वरन् सीमित और अपेक्षाकृत पूर्ण होते
हुए भी एक खण्ड चित्र है। इसको लक्ष्य एक प्रभाव उत्पन्न करना, एक स्थिति रचित करना
और एक चरित्र या एक छोटी सी चरित्र समूह पर ही अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित करना होता
है।
 2. एकाभिनय एवं मूकाभिनय—अभिनय का एक अन्य स्वरूप है—एकाभिनय। इस
विधा के अन्तर्गत मंच पर एक ही पात्र विभिन्न पात्रों के रूप में कार्य करता है। एक ही
पात्र होने के कारण इसे एकाभिनय कहा जाता है। मंच पर एक ही कलाकार होने पर भी
दर्शकों को लगता है कि एक से अधिक किरदार मंच पर मौजूद हैं। यह कार्य अभिनेता अपने
प्रेषण, स्मृति और गहन अभ्यास के द्वारा ही कर सकता है।
     एकाभिनय में संवाद छोटे और प्रभावी होने चाहिए। इसमें पात्रों की पोशाक और सज्जा
गौण हो जाती है।
            मूकाभिनय―वाणी या ध्वनि के माध्यम से विकास से पूर्व जिस दैहिक हाव-हाव में
हम अपनी मन-स्थितियों को अभिव्यक्त करते रहे है, वही मूकाभिनय है। इसके नाम से हो
विदित है कि इसमें अभिनय करने वाले पात्र मूक रहते हैं अर्थात् इसमें पात्रों द्वारा भाषा का
प्रयोग नहीं होता है। मूक यानी बिना बोले अभिनय द्वारा किसी नयी स्थिति को व्यक्त या
स्थापित करना। हम अपने दैनिक जीवन में कई जगह कई यार बिना बोले या संवाद के इशारों
से अपने आन्तरिक भाव को सम्प्रेषित करते हैं तथा किसी भी बात पर ध्यानाकर्षण और
प्रतिक्रिया
भी करते हैं। मूकाभिनय में स्थान, सामग्रो तथा चरित्र को मात्र दैहिक भाषा से व्यक्त किया
जाता है। मूकाभिनय एकांकी और समूह दोनों ही स्थितियों में प्रस्तुत किया जा सकता है।
मूकाभिनय में आँखों व चेहरे की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, पात्र वास्तविक परिधान या विभिन्न
प्रकार के विशेष परिधानों का रूपांकन भी करते हैं। मूकाभिनय अधिक लम्बी अवधि का
नहीं होता है क्योंकि लम्बी अवधि होने के कारण खेला जा सकता है और नुक्कड़ पर भी।
दर्शकों तक कथ्य का सम्प्रेषण भाव-भंगिमा और अंग संचालन द्वारा ही होता है।
3. नुक्कड़ नाटक रंगमंच के विकास से पूर्व हमारे समाज में कई सूचनाओं का
प्रचार-प्रसार करने वाली किसी नवाचार या परिस्थिति से समाज को अवगत कराने या कभी-कभी
मनोरंजन के रूप में भी नुक्कड़ नाटक का प्रचलन रहा है। नाम के अनुसार नुक्कड़ नाटक
को गली-मौहल्ले के किसी भी नुक्कड़ में कर सकते हैं। इसके लिए अधिक व्यस्त स्थानों
को चुना जाता है, स्थान चयन के उपरान्त साधारण से मंच पर भी इसकी प्रस्तुति अच्छे ढ़ंग
से हो सकती है। नुक्कड़ नाटक में कहीं किसी और कोई दीवार नहीं होती है, दर्शक चारो
तरफ होते हैं। अभिनयकर्ता और दर्शक नाटक प्रदर्शन के दौरान एक-दूसरे के बेहद करीब
होते हैं। इन नाटकों के माध्यम से समाज की बहुचर्चित समस्याएँ; जैसे—जनसंख्या वृद्धि
दहेज, साम्प्रदायिकता, पर्यावरण प्रदूषण आदि उभारकर उसके दुष्परिणामों को दर्शकों के समक्ष
प्रस्तुत किया जाता है और समाधान की ओर संकेत भी होता है । नुक्कड़ नाटक अपने साध
रण और प्रत्यक्ष प्रदर्शन की वजह से जनमानस के बीच आसानी से पहुंच जाता है । सफदर
हाशमी ने नुक्कड़ नाट्यशाला को एक ऐसे माध्यम के रूप में प्रस्तावित किया जो कि ज्वलंत
सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों की बात करता है।
4.मंचीय नाटक― मंचीय नाटक आमतौर पर मंच पर ही खेले जाते हैं। नाटक के लिए
मंच होना जरूरी है जिसमें तीन तरफ दीवार होती है परन्तु एक तरफ से वह खुला होता है
ताकि दर्शक नाटक देख सकें। मंच पर हमेशा परदे लगे होते हैं जिससे प्रवेश व प्रस्थान
किया जा सकता है। मंच पर नाटक करते समय पात्रों के परिधान, प्रकाश व्यवस्था, संगीत
आदि महत्त्वपूर्ण होते हैं। ध्वनि नियोजन के लिए पारम्परिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग नाटक की
आवश्यकता अनुसार किया जाता है।
5. इंप्रोवाइजेशन–बच्चों को समूह में बैठाकर उनसे कुछ ऐसे अभ्यास करवाए जाएँ
जिससे उन्हें अपने ज्ञान, अपनी समझ के विस्तार का बोध हो । उदाहरण के लिए, उन्हें क्रमबद
टॉपिक दें और उनसे उस टॉपिक की पूरी यात्रा का वृतान्त सुनें; जैसे―
* सोचें क्या हुआ जब तुम कक्षा में प्रथम स्थान पर आए ?
* सोचें क्या हुआ जब तेज बरसात में बस खराब हो गई?
* सोचें क्या हुआ जब तुम्हारे पिताजी की नौकरी छूट गई?
इस तरह बच्चों को कई विषयों पर अभ्यास दिए जा सकते हैं।
प्रश्न 16. कठपुतली कला से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रकार एवं महत्व बताइए।
उत्तर―कठपुतली-कठपुतली नृत्य कला में सबसे अधिक प्राचीन है। शायद जब नाटक
का प्रारम्भ हुआ था। उस समय से ही कठपुतली नृत्य व्यवहार में प्रचलित है। कठपुतली
कला न केवल भारत को ही कला है अपितु विदेशों में भी विभिन्न प्रकार की कठपुतलियों
का प्रदर्शन किया जाता रहा है और वर्तमान में भी किया जा रहा है। कनाडा, कोरिया, वियतनान
ताशकंद, जर्मनी, इन्डोनेशिया आदि देशों में कठपुतलियों के नृत्य करवाए जाते हैं और आज
भी अच्छी प्रतियोगिताओं में कठपुतलियाँ भाग लेती हैं।
        कठपुतलियों के निर्माण की विधि―कठपुतलियों जैसा कि शब्द से मालूम होता है
कि ये काठ की लकड़ी की बनी हुई मानव आकृति की पुतलियाँ है जिन्हें पात्र के अनुसार
विभिन्न प्रकार की वेशभूषाओं से सजाया जाता है। राजस्थान में आज भी कठपुतलियों के
खेल दिखाए जाते हैं, जिन्हें निम्न स्तर में गिना जाता है। यह कलाकर कठपुतलियाँ बनाते
हैं तथा उनके खेल दिखाते हैं आर्थिक दृष्टि से यह पिछड़े हुए हैं लेकिन अपनी परम्पराओं
को निभा रहे हैं। कठपुतली नृत्य में कलाकार सूत के धागे से इनको नचाता है और इसी
आधार पर नाट्यशास्त्र में सूत्रधार का प्रयोग किया जाता है। सूत्रधार हो नाटक को प्रारम्भ
करने के लिए सबसे पहले नांदी पाठ करता है जैसा कि भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में बतलाया
गया है।
          सूत्रधार पठेतत्र मध्यम स्वरमाश्रितः।
       नान्दी पदै दशाभिरष्टाभिर्वायप्तलड्कृत्ताम् ।
कठपुतली कला का महत्त्व―
कठपुतली कला का बड़ा महत्व है। कठपुतली
के माध्यम से कठपुतली कलाकार केवल
मनोरंजन ही नहीं करते बल्कि वे इसके माध्यम
से लोक कथाओं को प्रकट करते हैं। पौराणिक
कथाओं के जैसे-रामायण, महाभारत, बाबा                         ph
रामदेव, तेजाजी आदि की कथाओं का चित्रण
करते हैं। कठपुतली के माध्यम से प्राचीन
समय की लोक कथाएँ तथा वेशभूषा का भी
ज्ञान होता है। भारत के कई कलाकार विदेशों
में भी कठपुतली का प्रदर्शन करने जाते हैं।
       कठपुतली के माध्यम से बालकों को
उचित हाव-भाव एवं अभिनय करने की कला सिखाई जाती है। कठपुतली के खेलों एवं
नाटिकाओं के अभ्यास एवं प्रदर्शन बालकों को मौखिक अभिव्यक्ति का विकास किया
जा सकता है। इसके माध्यम से हकलाना, शरमाना, तुतलाना आदि दोषों को दूर किया जा
सकता है। इससे छात्रों को अच्छा आचरण, सामाजिक गुण एवं अच्छी आदतों के बारे में
सफलतापूर्वक एवं प्रभावशाली ढंग से समझाया जा सकता है।
      कठपुतलियों के प्रकार― कठपुतलियों के निम्नलिखित प्रकार हैं―
1. दस्ताना कठपुतली― उँगलियों एवं हाथ से संचालित दस्ताना कठपुतली से विभिन्न
प्रकार के खेल एवं नाटक किए जाते हैं। इसके लिए एक तीन तरफ से बन्द छोटा-सा मंच
बनाया जाता है। आगे से बैठे हुए आदमी एवं हाथ के बराबर पर्दा लगा दिया जाता है और
वहाँ बैठकर इन्हें हाथ में पहनकर अभिनय कराया जाता है।
2 रूमाल कठपुतली― रूमाल को एक विशेष प्रकार से बल द्वारा गठन लगाकर या
तह करके बनाई जाती है और इन्हें भी हाथ से संचालित किया जा सकता है। इनका प्रचलन
कम होता है।
3. छड़ी कठपुतली―यह दस्ताना कठपतुली के अनुसार ही है। यह कठपुतली इसमें
हाथ की जगह छडी से काम लिया जाता है। यह कपड़े की बनी होती है। इसके साथ-साथ
कुट्टी (कागज की लुगदी) का प्रयोग चेहरे बनाने के लिए किया जाता है। जगह-जगह रंग
भी लगे होते हैं।
प्रश्न 17. निम्नलिखित शास्त्रीय नृत्यों पर टिप्पणी लिखें―
(1) भरतनाट्यम (2) कत्थक (3) कथकली (4) ओडिसी, (5) कुचीपुड्डी
उत्तर―1.भरतनाट्यम-भरतनाट्यम दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रदेश का शास्त्रीय नृत्य
है। दो हजार वर्ष पुरानी परम्परागत इस नृत्य का उद्गम स्थल तन्जावुर है। प्राचीन काल
में ईश्वरोपासना हेतु मन्दिरों में देवदासियों द्वारा किए जाने के कारण इसे ‘दासिअट्टये’ भी
कहा जाता है। लक्षण भाव, राग, ताल ये तीन भरतनाट्यम के मुख्य भाग है। संगीत के
समस्त अंगों और उपांगों का प्रयोग शस्त्रोक्त प्रकार से किया जाता है।
     नृत्यम्, नृतम्, नाट्यम् के आधार पर आज के युग में पुरुष एवं स्त्रियों द्वारा यह नृत्य
किया जाता है जबकि पूर्वकाल में केवल नर्तकियों द्वारा मन्दिर के चारदिवारी के अन्दर नृत्य
किया जाता था। नाट्यशास्त्र एवं अभिनय दर्पण के आधार पर भरतनाट्यम् का शास्त्रीय शिक्षण
कुशल गुरुओं द्वारा दिया जाता है । इस नृत्य में मुद्राओं का बाहुल्य है । नृत्य मुख्यतः अदिव
(पाद संचाल) एवं हस्तमुद्रा पर निर्भर करता है। मुख्यतः 64 पमुद्राएँ हैं जो 9 भागों में
विभाजित हैं। इसमें थारडवु, नाटडवु कुथिथु टाडयु, मन्दिदव, सरिकल एवं थट्टिमेहु अत्यंत
महत्यपूर्ण हैं ।शृंगार रस प्रधान यह नृत्य परमात्मा के प्रति जीवात्मा के समर्पण का उत्कृष्ट
रूप है।
       संगीत एवं वाद्य― यह नृत्य गीत के साथ किया जाता है। मृदंग, बाँसुरी, लायलन, वीणा
आदि याद्यों के साथ कर्नाटक संगीत होता है, ।
    भरतनाट्यम् में देवदासियों को योग―भरतनाट्यम के अचार्य ‘नतुवन (नटवुंनार)
कहलाते हैं। जो निशुल्क शिक्षा देते हैं जब उनकी शिप्यायें धन कमाने लगती हैं तो वे अपने
अर्जित धन का एक हिस्सा जीवनपर्यन्त अपने गुरु को देती हैं। दासियाँ तीन प्रकार की होती
है―
1.राजदासी―राज दरवार में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाली नर्तकियों को राजदासी
कहते हैं।
2. देवदासी―देवालयों में नृत्य करने वाली नर्तकी देवदासी कहलाती है
3. स्यदासी―जो दासियाँ किसी विशेष अवसरों पर अपनी इच्छा से नृ करती हैं उन्हें
स्वदासी कहा जाता है।
        भरतनाट्यम की वेश-भूषा―इस नृत्य में नर्तकिया मराठी स्त्रि की भाँति लांघदार
लम्बी साड़ी पहनती हैं। दोनों पैरों के बीच से इसके छोटे से जोट दिया जाता है। धोती
के ऊपर वाले हिस्से को दुपट्टे की भाँति कंधे पर रखते हुए कमर पर लपेट लेते हैं। आधी
या चौपाई बाँह का ब्लाऊज पहना जाता है। कमर में करघनी तथा बाजू और गले में आभूषण
पहनते हैं। बालों का सुन्दर ढंग से चोटी बनाई जाती है। मस्तक पर तिलक, भौहों के ऊपर
से कपोल तथा दोनों तरफ बिन्दी और होठों और गालों पर हल्की-सी लाली लगाते हैं। आभूषण
में कई रत्नों से जटिल माला, बुन्दे, टीका, अंगूठी, चूड़ियाँ, बाजूबन्द, पायल, घुँघरू हाथफूल,
कंगन आदि पहने जाते हैं। वेणी पर बेला, चमेली के फूलों की माला होती है।
जैकेट जो कानजीपुरम के रेशम और बनारसी रेशम से बनाया जाता है, पहनते हैं―
केवल टीका, चोटी आभूषण, चूड़ी को छोड़कर नर्तकियों जैसा ही पहनते हैं
         भरतनाट्यम नृत्य क्रम―भरतनाट्यम के नृत्य क्रम को सात भागों में विभाजित
जाता है―
1. अल्लारिपु―भरतनाट्यम का प्रारंभ प्रार्थना के रूप में नटराज अथवा गणना
पुष्पांजलि अर्पित किया जाता है। इस मुद्रा में शरीर के दोनों अंग दायाँ-बायाँ भाग एक-सा
रहता है । कलाकार को नृत्य मुद्रा दर्शकों के सम्मुख रहती है-नमस्कार की मुद्रा के पश्चात
गला, आँख भौहों की मुद्रा से ईश्वर की अराधना करते हैं, ईश्वर से कार्यक्रम की सफलता
का आशीर्वाद लेता है।
2 जेथीस्वरम्―द्वितीय चरण में गायन के साथ नृत्य होता है।
3.शब्दम्―साहित्यिक भाषा में ईश्वर की वन्दना और राजा की स्तुति को नर्तकी अपनी
भाव भंगिमाओं से प्रदर्शित करती है।
4. वर्णन―सबसे महत्वपूर्ण एवं आकर्षक नृत्य के उस चरण में पदसंचालन और अंग
स्थितियों के समन्वय से प्रियतम की प्रतीक्षानं नायिका का भाव दिखाया जाता है। अपनी
इस कला प्रदर्शन में कलाकार को पूर्ण छूट रहती है।
5. पद्म―पाँचवें चरण में शृंगारिक भावजन्य चेष्टाओं की पूर्ण प्रधानता रहती है।
6. तिल्लाना―इसमें घुँघरुओं की तेज गति से उत्तेजना पैदा की जाती है।
7.श्लोकम्―संस्कृत के श्लोकों द्वारा भगवान कृष्ण की आराधना करते हुए कार्यक्रम
समाप्त होता है।
      विशिष्ट गुरु तथा कलाकार―कंडप्पा पिल्ले, गौरी अम्मा, याल सरस्वती, ई. कृष्ण
अरूयर, रामगोपाल, रुक्मणिदेवी, अखण्डेल यामिनीकृष्ण मूर्ति, वैजयन्तिमाला, कमला,
मृणालिनी साराभाई, कुपेरूया, गोविन्दराज पिल्ले, महालिंगम पिल्ले, पार्वती कुमार, कल्याण
सुन्दरम कमल लक्ष्मण, ददम सुब्रह्मण्यम, चिताराविश्वेश्वरम्, पन्धनलूर मीनाक्षी सुन्दरम् पिल्ले,
पन्थनलूर चाकालिंगम पिल्ले, पद्मश्री वजूर नारायण पिल्लै एवं अरूयर लक्ष्मण, यामिनी
कृष्णामूर्ति, सोनाल मानसिंह एवं अदिति निगम (युवा नर्तकी) मुख्य है।
       वैजयन्तीमाला―दक्षिण भारत की मशहूर नर्तको वसुन्धरा देवी की पुत्री वैजयन्तीमाला
प्रसिद्ध अभिनेत्री तथा भरतनाट्यम् शेली को प्रसिद्ध नृत्यांगना हैं। 1959 में अपने नृत्य का
तप लेकर इंग्लैंड में जाने के पश्चात् आज भी इटली तथा अन्य देशों में नृत्य प्रदर्शन के लिए
जाती है तथा भारत में आए विदेशियों (विशेष) के सम्मुख नृत्य प्रस्तुत करने के लिए आपको
विशेष निमंत्रण दिया जाता है । चलचित्र में होने के बावजूद भी जब भी आप नृत्य की प्रस्तुति
करती हैं तो वह केवल शुद्धशास्त्रीय नृत्य होता है।
2. कत्थक―कथक शब्द की उत्पत्ति कथा से हुई है और ‘कथन’ करांति कथकः’ अर्थात्
जो कथन करता है वह कथन है। कथा प्रधान होने के कारण उसे कथक कहा गया है।
महापुराण, महाभारत तथा नाट्यशास्त्र में भी कथन शब्द मिलता है। मोहन जांदड़ों, हड़प्पा
की खुदाई में जो नृत्य मुद्राएँ मिली हैं वे कथक नृत्य को हैं। पाली शब्द कोष में कधिको
एक उपदेश के लिए प्रयुक्त किया गया है। संगीत रत्नाकर के तेरहवें अध्याय में ‘कधक’
कथन का उल्लेख है। यह नृत्य सर्वप्रथम भगवान् कृष्ण द्वारा किया गया था इसलिए इस
नटवरी नृत्य भी कहते हैं। प्राचीन काल में कथावाचकों द्वारा मन्दिरों में पौराणिक कथाओं
के आधार पर नट लोग, जो भरत कहलाते थे, नृत्य करते थे। याद में नट जाति के लोगों
में बुराइयाँ आने के कारण समान उनका बहिष्कार कर दिया था। यही कारण है कि उन
नटों ने स्वयं कथा कह कर अपनी जीविका चलाने के लिए स्वयं नृत्य करना प्रारम्भ कर
दिया जो नटवरी कहलाए । ‘नटवरी नृत्य’ नाम से एक ऐसी शैली को जन्म दिया, जिसमें
भाव प्रधान, ताल प्रधान और चमत्कार प्रधान तत्वों का समावेश होने लगा। कथक के क्षेत्र
में जयपुर, लखनऊ और बनारस के घराने मशहूर हैं।
       संगीत एवं वाद्य―इस नृत्य में मुख्यत: तबला एवं हारमोनियम, सारंगी, बायलन एवं
गायक होते हैं।
      वेशभूषा―लहँगा, चोली, चुस्त पाजामा, दुपट्टा, पैरों में धुंधरू, हाथों में आलता, सुन्दर
कीमती जवाहरात, बाजूबन्द, चूड़ियाँ, टिकुली, बिन्दी, सुखर्जी, लिप्सटिक, टीका, कर्ण आभूषण,
माला आदि। इसके अतिरिक्त लम्बा पाजामा, उस पर धेरै नमा थोड़ा ऊंचा (एंडी से) फ्रॉक,
ऊपर जैकेट तथा लम्बा दुपट्टा, कंघी भी इस नृत्य का मुख्य वेशभूषा थी अब लहँगा अधिक
प्रचलन में है।
        नृत्यक्रम―कथक नृत्य में पग संचालन एवं आकर्षक मुद्राओं का सुन्दर समन्वय मिलता
है। कथक नृत्य के दो मुख्य अंग हैं―
1. ताण्डव, 2. लास्य
कथक नृत्य मनत्यकार के अतिरिक्त कुछ और कलाकार भी होते हैं। एक व्यक्ति लहरा,
दूसरा तबले पर संगत कभी कभी दूसरा सारंगी और तीसरा वायलन पर भी संगत देता है।
लहरा देने के लिए सारंगी अधिक प्रयुक्त समझी जाती है। अधिकतर शिक्षक तबले में बीच-बीच
में बोल बोलते रहते हैं जिससे नर्तक के नर्तन में सहायता मिल जाती है।
नृत्य के प्रारम्भ में लहरा जिसे नगमा भी कहते हैं, शरू किया जाता है उसके बाद तबला
वादक एक या दो तिहाईदार उठान व चक्करदार टुकड़ा बजाकर सम पर आता है इसके बाद
गुरु एवं अन्य संगतकार को सलाम कर एक सुन्दर सी मुद्रा में खड़ा हो जाता है। इस
बाद आमद और निकास दिखाकर विभिन्न भाव मुद्रा में खड़ा हो जाता है इसे ठाढ कहते
हैं। इस समय तबलावादक सीधा-सीधा ठेका लगाते हैं। आवश्यकतानुसार अलग-अलग
छोटे-छोटे मोहरे अथवा तिहाई लगाकर सम पर आ जाते हैं, नर्तक विभिन्न ठाढ प्रस्तुत करते
हैं।
      इसके पश्चात् सलामी नृत्य, मुगलकालीन परम्परा के आधार पर की जाती है। इसमें
नर्तक नृत्य के माध्यम से राजा अथवा नवाब को सलाम करते हैं । अब यह परम्परा रही नहीं
किन्तु नमस्कार हिन्दु पद्धति से भी किया जाने लगा है। इसके पश्चात् तोड़े, परन, विभिन्न
लय में तथा कभी ताल में, नृत्य को दर्शाते हैं। विभिन्न बोलों में तिहाईदार और तिहाई रहित
अंग संचालन और पैर को बोलों द्वारा प्रदर्शित करते हैं। तबले के साथ लड़त में श्रोतागण
आनन्द लेते हैं। कविता में नर्तक ब्रजभाषा में रचित कवित को ताल द्वारा सुनाते हैं। कवित
के बाद गत और गतभाव की बारी में नर्तक नृत्य की विभिन्न गति दिखाते हैं। तत्पश्चात्
लय को गतिमान करके नृत्य किया जाता है। तबले की गति और सतर्कता अति आवश्यक
है। अंत में नर्तक और तबलिया जब थक जाते हैं तो नर्तक तिहाई अथवा नवहक्का को तिहाई
लेकर अपना नृत्य समाप्त करते हैं।
       विशिष्ठ गुरु तथा कलाकार―अच्छन महाराज, बिरजू महाराज, लच्छू महाराज, शम्भू
महाराज, दुर्गाप्रसाद, हजारी प्रसाद, गौरी शंकर, सितारा देवी, रौशन कुमारी एवं गोपीकृष्ण है
तथा युवा नृतकियों में पूनम सारस्वत, तापोश, रीनू गिरी आदि हैं।
3. कथकलि―दक्षिण भारत के केरल प्रदेश का यह प्राचीन शास्त्रीय नृत्य है। संगीत,
कथा तथा अभिनय सुन्दर समन्वय द्वारा 20 से 22 नर्तक इसकी प्रस्तुति करते हैं। रामायण,
महाभारत तथा पौराणिक कथाओं पर आधारित इन नृत्यों में नर्तक स्वयं कुछ नहीं बोलता केवल
भाव भंगिमा द्वारा पार्श्व के गायन के आधार पर नृत्य करते हैं। इन नृत्य का आर्विभाव
लोकधर्मीनाट्यनृत्य की परम्परा ‘कृष्णनाट्टम्’ से हुआ। कथा का अर्थ है कहानी और कविता
और कलि का अर्थ है खेल । किसी कथा के पात्रों के बड़े-बड़े मुखौटे लगाकर संगीतमय
अभिव्यक्ति के साथ प्रस्तुत करने को कथकलि कहते हैं। इसमें स्त्री का अभिनय भी पुरुष
करते हैं।
     संगीत एवं वाद्य― यह नृत्य पार्श्व में संगीतमय कविताओं के द्वारा भावों को स्पष्ट किया
जाता है। संगीत के लिए ‘मर्दल’ (मृदंग) रुद्रवीणा और बाँसुरी का प्रयोग होता है। पैरों में
धुंधरु बाँधा जाता है। गीतों की भाषा मलयालम होती है। पार्श्व में गीत कविता चलने से
कथा समझने में कठिनाई नहीं होती । कथाओं के छन्द भिन्न-भिन्न तालों पर आधारित होते
हैं।
    वेश भूषा―शरीर पर एक चुस्त जैकेट और रंग बिरंगा घाघरा पहनते हैं। सुन्दर केश
सज्जा, विशेष मुख शृंगार (पात्रों के अनुसार) चेहरे को लाल, पीला, सफेद, बिन्दी, काली
भौंह, काजल आँखों में, ओठों में सुखी, पात्रों के अनुसार मस्तक पर तिलक और सिर पर
गोल मुकुट लगाया जाता है। कभी-कभी लम्बा चोगा, जिसका चौड़ा घेरा और लम्बी-लम्बी
बाहें होती हैं और ऊपर से चादर भी ओढ़ लेते हैं। कुण्डल, लकड़ी की चूड़ी, कवच, मुकुट,
हार, नूपुर, फूलमाला आदि से शृंगार राम, रावण, कृष्ण, शिव, पार्वती की भूमिका के अनुसार
होता है।
      कथकलि नृत्य क्रमः
1. पर्दे के पीछे से ईश्वर प्रार्थना तथा कथानायकों का परिचय ।
2. वादकों का सम्मिलित वाध वृन्द में सर्वप्रथम मर्दल (मृदंग) बजता है।
3. अभिनेता तथा अभिनेत्री का धीरे-धीरे मंच पर प्रवेश पात्रों के अनुरूप आगिक मुद्राओं
द्वारा भाव प्रगट कर पात्र परिचय, जैसे रावण-रौद्र मुद्रा।
4. कथा प्रसंग के अनुसार रस भाव मुद्राओं द्वारा आंगिक अभिनय।
5. अधिकांश कथाएँ वध से सम्बन्धित होती हैं जैसे बलियध, कंसवध, दुर्योधन वध,
रावण वध आदि।
     विशिष्ट गुरु तथा कलाकार―केरल वर्मा (आधुनिक कथकलि के जन्मदाता), शंकरन
नम्बूदीपाद, गोपीनाथ, कुंजुकुरूप, राघवन नायर, कनक रेले, कृष्णनुकुट्टी प्रमुख हैं।
4. ओडिसी―ओडिसी अथवा उड़ीसा नृत्य, भरतनाट्यम की भाँति ही प्राचीन है।
सहजयान और ब्रजयान, बुद्धकालीन परम्परा की शाखाओं के सौन्दर्य प्रधान साधना से ओडिसी
नृत्य का उद्भव हुआ। सन् 1950 से विशेष प्रकाश में आने वाली ओडिसी नृत्य का उद्भव
सातवीं शताब्दी में ईश्वर को समर्पित इस नृत्य शैली का जन्म महरीर परम्परा जो योग तन्त्र
एवं अंग मुद्राओं को समर्पित थी प्रारम्भ हुआ। 13वीं शताब्दी में निर्मित भुवनेश्वर का
कोर्णाक मन्दिर का नटमण्डप एवं जगन्नाथपुरी का मन्दिर ओडिसी नृत्य की प्रमुख आधार
भूमि रही है।
        संगीत एवं वाद्य―मृदंग, वीणा संगीत भी अपना अलग स्थान रखता है। जयदेव कृत
गीत गोविन्द इसका प्रिय विषय है।
      वेश भूषा―सुन्दर रंगों के विपरीत बार्डर की साड़ी को मराटी तरीके से लाँघदार पहनाकर
कमर में पटका, सुन्दर ब्लाऊज तथा साड़ीनुमा पल्ले को कमर में सुन्दर कर्धनी, गले में माला,
कानों में झुमके, टिकूली, जूड़ा बनाकर उसे सुन्दर मुकुट से सजाया जाता है। हाथ पैरों में आलता,
मुखसज्जा सुन्दर बंगाली वधु के समान किया जाता है । आँखों में काजल सुशोभित होता है ।
जब सज-धज कर ओडिसी बाला मंच पर आती है तो ऐसा लगता है आकाश से अप्सरा उतरकर
घरती पर आ गई है। शृंगार रस प्रधान होने के कारण वेश भूषा अत्यंत आकर्षक होती है।
        नृत्य क्रम―भरतमुनी के नाट्यशास्त्र में चार नृत्य शैलियाँ– अवन्ति, दक्षिणत्य, पांचाली
और ओड़मागधी का उल्लेख है। ओडिसी नृत्य ईश्वर को समर्पित भाव-भगिमाएँ हैं। इसक
प्रधान भाग लास्य और अल्प भाग तांडव होता है। इसलिए इसमें भरतनाट्यम और कत्थन
का मिला जुला स्वरूप है। बौद्ध, शैव, वैष्णव, ब्राह्मण और शाक्त संस्कारों से मण्डित, रस
प्रधान श्रृंगार नृत्य है । इस नृत्य का सैद्धांतिक एवं क्रियात्मक पक्ष अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता
है। लास्य एवं ताण्डव प्रधान होने के कारण इसे लास्य ताण्डव नृत्य भी कहते हैं।
    विशिष्ट गरु तथा कलाकार―श्री मोहन महापात्र तथा उनके शिष्य केलुचरण महापात्र,
पंकज चरणदास महाराण, हरेकृष्ण बहेड़ा तथा उनके शिष्य पुत्री कविता, कल्याणी कावेरी,
प्रताप चन्द्र बहेड़ा गुरु पिताम्बर बिस्वाल आदि हैं। अन्य ओडिसी गुरु में माघायर राऊत,
रमणिरंजन जेना (पिता) एवं रश्मिरन्जन (पुत्र), सुरेन्द्रनाथ जिन एवं प्रख्यात कलाकारों में संयुक्ता
पाणिग्रही, माधवी मुद्गल, सोनल मानसिंह हैं। युवा नर्तकियों में कुंजलता मिश्रा, सुनन्दा बनर्जी,
लीना महन्ती, निशा महन्ती, संगीता दास तथा नर्तक-मनोरंजन नायक, राहुल आचार्य, देवाशीष
पटनायक आदि हैं।
5. कुचीपुड्डी(कुचिपुड़ी)―आन्ध्र प्रदेश के कुचिपुड़ि नामक गाँव से भागवत अवतार
ब्राह्मणों द्वारा कचिपुड़ी नृत्य का संरक्षण तथा शैली का विकास कृष्णदेव आर्य के युग
(1510-1530) में हुआ। उद्गम समय ईसा से पूर्व दूसरी शताब्दी था। वैष्णव भक्ति से
ओत-प्रोत एक परम्परागत नृत्य है। रामायण की कथा को गीत, नृत्य व अभिनय के माध्यम
से प्रस्तुत करने वाले ‘कुशीलव’ (प्राचीन नट समुदाय) कहलाते हैं। इस नृत्य का मुख्य उद्देश्य
वैदिक एवं उपनिषदों में वर्णित धर्म एवं अध्यात्मक का प्रचार-प्रसार करना है। भागवत एवं
पुराण इसका मुख्य आधार है। इस नृत्य में पुरुष ही स्त्रियों का भी पात्र निभाते हैं । अकेला
नर्तक भी इस शैली को प्रदर्शन दे सकता है।
इसमें लास्य और ताण्डव का समन्वय होता है। इस नृत्य के नृत्यकार तंत्र-मंत्र में भी
विश्वास रखते हैं। इस नृत्य में पद् संचालन, ग्रीवा संचालन, हस्त मुद्राएँ आदि पर विशेष
ध्यान दिया जाता है।
संगीत एवं वाद्य–मृदंग, मंजीरा मुख्य वाद्य एवं गायक होते हैं।
वेशभूषा–वेशभूषा भरतनाट्यम शैली के प्रकार की होती है।
कुचिपुड़ी नृत्य क्रम–अधिकतर विषय ‘दशावतार शब्दम्’, ‘मण्डूक शब्दम’.
‘श्रीरामपट्टाभिषेकम्’ “शिवाजी शब्दम’ आदि मुख्य नाटक है। कुचिपुड़ी नृत्य स्वतंत्र एवं
लचकदार रहता है। लास्य एवं ताण्डव दोनों का सम्श्रिण पाया जाता है। इसमें भरतनाट्यम
के समान तिल्लाना और अंत में काली नृत्य प्रस्तुत किया जाता है।
विशिष्ट गुरु तथा कलाकार―सिनेन्द्र योगी (रंगमंच पर लाने का श्रेय), वेम्पतिचिन्ना
सत्यम्, सी. रामा चरियेलु. वेदान्तम सत्यनारायण, यामिनी कृष्ण मूर्ति, शोभा नायडू,
वैजयन्तीमाला, नरसिंहाचारी, वसंतचारी, रीता देवी, कामदेव, स्वपनसुन्दरी, राजा राधा रेड्डी,
मल्लिका साराभाई।
प्रश्न 18. विद्यालय की कुछ दैनिक गतिविधियों का वर्णन करें, जिससे बच्चों में
कला समेकित शिक्षा की रुचि उत्पन्न हो सकें।
उत्तर―विद्यालय की दैनिक गतिविधियाँ विद्यालय में सीखने के माहौल, अवसर चुनौतियाँ
आदि उपलब्ध करातरी है। यह शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के बीच विद्यालय में समूह कार्य की
संस्कृति विकसित करने के साथ, रूचि के मुताबिक कला अनुभव संबंधित गतिविधि में शामिल
होने की तत्परता, शिक्षार्थियों के क्षमता विकास, वर्गकक्ष के अन्दर या बहार इनके उपयोग
का अवसर उपलब्ध कराती हैं। ऐसी गतिविधियाँ शिक्षार्थियों में सृजनात्मकता, नवाचार, सीखने
के असीम अवसर आदि उपलब्ध कराते हुए विद्यालयी एवं कक्षायी माहौल को अधिगम के
अनुकूल बनाने में सफल होती है।
कुछ दैनिक गतिविधियाँ :
आइस ब्रेकर-आइस ब्रेकर एक ऐसा मनोरंजक अभ्यास है जो जड़ता को तोड़ते हुए
अन्त:क्रियात्मक, सृजनात्मक एवं आनन्ददायी माहौल के निर्माण में सहायक होता है। आईस
ब्रेकर झिझक और अन्य व्यवहारगत बाधाओं को दूर करने में तथा किसी खास परिस्थिति
को विभिन्न दृष्टिकोण से देखने की समक्ष विकसित करने में मददगार होता है। जहाँ आइस
ब्रेकर एक और प्रतिभागियों में त्वरित अभिव्यक्ति के लिए आत्मविश्वास उत्पन्न करता है,
वहीं दूसरी ओर यह समूह भावना, आपसी मेलजोल, अन्तरवैयक्तिक कौशलों का भी विकास
करता है।
        उदाहरण के तौर पर, वर्ग कक्ष में उपलब्ध कोई भी सामग्री लें। एक बच्चे से कहें
कि उस सामग्री/पदार्थ के वास्तविक कार्य के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार से उपयोग करें।
उदाहरण स्वरूप कलम का उपयोग बाँसुरी के रूप में करना, किताब/कॉपी का उपयोग
टीवी रेडियों के रूप में करना, इन्स्ट्रमेन्ट बाक्स का उपयोग मोबाईल के रूप में करना आदि ।
बच्चों से कहें कि वो उस पदार्थसामग्री के साथ वर्गकक्ष में एक अभिनय करें और बाकी
बच्चे यह पहचानेंगे कि कौन-सा कार्य हो रहा है?
        चेतना सत्र―विद्यालयों में चेतना सत्र के साथ ही विद्यालयी गतिविधियाँ औपचारिक
रूप से शरू होती है। सामान्यतः चेतना सन में प्रार्थना को समह गायन के साथ इसे पूरा
मान देने की परंपरा रही है। प्रार्थना या प्रेरणा गीत के अलावा कहानो, समाचार वाचन, आज
के विचार जैसे गतिविधियाँ आयोजित भी होती हैं या वर्गकक्ष में होने वाली गतिविधियों की
चर्चा चंतना सत्र में कोई जुड़ाव नहीं होता है। आवश्यकता है वर्गकक्ष की कुछ चुनी हुई
गतिविधियों का जुड़ाव चेतना सत्र की गतिविधियों से की जाय । इससे चेतना सत्र एवं वर्गकक्ष
की गतिविधियाँ अलग-अलग न होकर एक दूसरे की अनुपूरक हो जाए और सीखने के आयामों
का विस्तार होगा।
         चेतना सत्र : गतिविधियों में निरन्तर बदलाव भी आवश्यक है। जैसे, बच्चों के खड़े
होने के पैटर्न में बदलाव, प्रार्थना/प्रेरणागीत को बदल-बदलकर गाना, चेतना सत्र की गतिविधियों
का निर्धारण बच्चों के समूह द्वारा किया जाना आदि विविधत पूर्ण कार्य चेतनासत्र की रोचकता
और प्रासांगिकता को बढ़ाते हैं। बच्चों को खड़े होने के पैटर्न पर कक्षा के विषयों से जोड़कर
बातचीत की जा सकती है। इसी तरह प्रार्थना प्रेरणागीत के भाव तथा उपयोगिता पर भाषा
की कक्षा में बात की जा सकती है। बच्चों को नई-नई प्रार्थना प्रेरणागीत की रचना करने
के लिए प्रेरणागीत की रचना करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
    अन्य दैनिक गतिविधियाँ: मिड-डे-मिल, बाल सभा, अन्तर विद्यालयी प्रतियोगिता
विशेष अवसरों पर आयोजनों जैसी गतिविधियाँ विद्यालयों में आयोजित की जा
सकती है।
         मिड-डे-मिल : मिड-डे-मिल के सफल आयोजन हेतु बच्चे कला से संबंधित निम्न
कार्य कर सकते हैं:
□ हाथों की सफाई पर जोर देने के लिए चित्र बनाना एवं स्लोगन लिखकर जगह-जगह
पर लगाना।
□ भोजन बर्बाद नहीं करने की सलाह देते हुए कार्टून बनाना एवं स्लोगन लिखकर लगाना ।
□ जूठे एवं बचे भोजन को इधर-उधर न फेंककर एक जबह इक्कठा कर पशु-पक्षियों
को देने के लिए जागरूकता फैलाने हेतु पोस्टर लगाना ।
□ वच्चों को स्वयं के बैठने के लिए चटाई निर्माण के लिए प्रोत्साहित करना । इसके
लिए फटे कपड़े पॉलिथिन एवं अन्य बेकार की चीजों का उपयोग किया जा सकता है।
बाल-सभा/अन्तर विद्यालयी प्रतियोगिता
□ विषय वस्तु का चयन बच्चें करेंगे।
□ बच्चे विद्यालय के सौंदीकर योजना बनाएँ।
□ नाटक, मूक-अभिनय का प्रदर्शन किया जाए।
□ इसमें संगीत तथा स्वास्थ्य एवं स्वच्छता से संबंधित विषय पर कार्यक्रम
करेंगें।
□ रंगोली, चित्रकला, गीत-संगीत, विविध प्रकार के खेल प्रतियोगितता का आयोजन ।
□ चित्र कोलाज शिल्प आदि की प्रदर्शनी का आयोजन ।
□ कविता/निबन्ध लेखन प्रतियोगिता ।
□ संगीत के लिए स्थानीय सामग्री का उपयोग ।
प्रश्न 19. मूल्यांकन क्या है? कला शिक्षा में मूल्यांकन के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
अथवा, मूल्यांकन क्या है? कला के क्षेत्रों में मूल्यांकन क्यों आवश्यक हैं? इसकी
उपयोगिता बताइए।
अथवा, कला शिक्षण में मूल्यांकन क्यों किया जाना चाहिए? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―मूल्यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि
शिक्षण प्रक्रिया के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकी या नहीं।
प्रत्येक कार्य व विषय के अध्ययन-अध्यापन कार्य को पूर्णता तभी प्राप्त होती है जब
निर्धारित समय अवधि पर कार्य का विभिन्न आधारों पर मूल्यांकन किया जाए। मूल्यांकन
से अध्यापक व विद्यार्थियों दोनों को ही लाभ होता है। अध्यापक यह जान पाते हैं कि उनके
द्वारा कराए गए शिक्षण कार्य में वह कितने सफल रहे, उद्देश्यों की कहाँ तक प्राप्ति हुई व
उनके द्वारा चुनी गई शिक्षण विधियाँ कितनी उपयुक्त सिद्ध हुई? छात्रों को मूल्यांकन द्वारा
अपनी कमियों का पता चलता है और वह उन्हें दूर करने एवं बेहतर रूप से कार्य करने
के लिए अपने को तैयार कर पाते हैं। उनमें सुधार की संभावना को बल मिलता है।
    कला के क्षेत्र में मूल्यांकन की आवश्यकता या उपयोगिता―कला के क्षेत्र में मूल्यांकन
का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। कला के दोनों रूपों दृष्टांत कला व प्रदर्शन कला के
मुख्य उद्देश्यों की प्राप्ति तभी होती है जब छात्र स्वयं अपनी कमियों को जान जाएँ और यह
उद्देश्य मूल्यांकन में अपनाई गई दक्षता पर निर्भर करता है। मूल्यांकन द्वारा छात्र धीरे-धीरे
स्वयं सहो पथ को चुनने के लिए प्रेरित होंगे। उनमें सही गलत की परख का विकास होगा।
यह उनके लिए जीवन-पर्यंत प्रत्येक कार्य में सहायक सिद्ध होगा।
     जिस प्रकार हम सब जानते हैं. कला अन्य विषयों से भिन्न है। इस विषय में व्यावहारिक
पृष्ठभूमि पर आधारित ज्ञान प्रदान किया जाता है व इसमें छात्रों को भावभौगमा व आत्म
अभिव्यक्ति को बल दिया जाता है। इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति कुशल मूल्यांकन द्वारा ही
संभव है। कला के क्षेत्र में मूल्यांकन करते समय निम्न बातों पर बल दिया जाता है―
• कार्य को समझ
• कौशलों की प्राप्ति
• कार्य के प्रति निष्ठा, लगन व तत्परता
• जिम्मेदारी व अनुशासनपूर्ण व्यवहार
• सृजनात्मकता
• सहयोग, भागीदारी, समन्व्य की भावना
• जिज्ञासा व आत्मविश्वास
• सामाजिक दृष्टिकोण व परिवेश से जुड़ाव की भावना
• आत्म अभिव्यक्ति
• आत्म मूल्यांकन को योग्यता का विकास ।
• बच्चों के व्यक्तिगत और विशेष जरूरतों को पहचानने में।
• उपर्युक्त तरीकों के आधार पर अध्यापन और सीखने की स्थितियों की योजना
बनाने में।
• कोई बच्चा क्या कर सकता है और क्या नहीं, उसको किस चीज में रुचि है, वह
क्या करना चाहता है और क्या नहीं, इन सबके प्रति समझ बनाने में।
• बच्चों को कुछ प्राप्त कर पाने, पूर्णता की भावना के विकास के लिए प्रोत्साहित
करने में।
• बच्चे के प्रगति के प्रमाण तय (कमजोर पक्ष और मजबूत पक्ष का पता करना) कर
पाने में और इन सूचनाओं को अभिभावकों और दूसरों तक सकारात्मक रूप से संप्रेषित
कर पाने में।
• बच्चों के मूल्यांकन के प्रति व्याप्त भय को दूर करने और उन्हें स्व-मूल्यांकन के
लिए प्रोत्साहित करने में।
• प्रत्येक बच्चे के सोखने और विकास में मदद करने तथा सुधार को संभावनाएं खोजने
में।
                                                 □□□

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