F-2 बचपन और बाल विकास
F-2 बचपन और बाल विकास
F–2
बचपन और बाल विकास
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. बालक के विकास में समाज की क्या भूमिका है।
उत्तर― परिवार की भाँति समाज भी बालक की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण साधन है।
कि स्वभाव से मानव सामाजिक प्राणी है, इसीलिए उसने वर्षों के अनुभव से सीख लिया
है कि व्यक्तित्व तथा सामूहिक क्रियाओं का सर्वोत्तम रूप में विकास समाज द्वारा ही किया
जा सकता है। समाज बालक पर औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार के प्रभाव डालता
है। अच्छे समाज में पलने वाले बच्चे शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं, जबकि
भरे समाज में बड़े होने वाले बच्चे शरीर व मन दोनों से अस्वस्थ होते हैं। बच्चे पर समाज
के प्रभाव का निम्न शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन किया जा सकता है―
(क) शारीरिक विकास पर प्रभाव― अच्छे समाज में गली-कूचों में सफाई की,
स्थान-स्थान पर पाकों आदि की व्यवस्था होती है। बच्चों के खेलने-कूदने के लिए मैदान, झूले
आदि होते हैं, जो बच्चे के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं।
(ख) मानसिक विकास पर प्रभाव-स्थान-स्थान पर खोले गए स्कूलों तथा
पुस्तकालयों आदि का बच्चे के मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि
एक अच्छे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे, जहाँ अच्छा पुस्तकालय व अच्छा वातावरण हो, मानसिक
रूप से ज्यादा स्वस्थ होते हैं।
(ग) सामाजिक विकास पर प्रभाव समाज में समय-समय में सामाजिक सम्मेलनों,
मेलों तथा उत्सवों एवं धार्मिक कार्यों में भाग लेने से बालक विभिन्न व्यक्तियों से सम्पर्क
स्थापित करता है। इससे बालक में सहानुभूति, सहयोग, सहनशीलता, समाजसेवा एवं त्याग
की भावना आदि का विकास होता है। सामाजिक वातावरण में रहते हुए उसे कर्तव्यों तथा
अधिकारों का भी ज्ञान होता है।
(घ) सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव प्रत्येक समाज की निजी संस्कृति होती है। इस
संस्कृति को छाप समाज के प्रत्येक सदस्य पर पड़ जाती है । बालक अनजाने ही समाज की
बोल-चाल, भाषा तथा आचरण को अपना लेता है।
(ङ) चारित्रिक तथा नैतिक विकास पर प्रभाव― परिवार के पश्चात् बालक के
चारित्रिक व नैतिक विकास पर समाज का गहरा प्रभाव पड़ता है। एक अच्छे सामाजिक
वातावरण में रहने वाला बच्चा अच्छे गुण सीखता है, उच्च चरित्र का मालिक बनता है।
इसके विपरीत बुरे सामाजिक वातावरण में पलने वाला बच्चा असामाजिक तत्वों का शिकार
हो जाता है तथा बुरी आदतें सीख लेता है।
प्रश्न 2. बालक के शारीरिक विकास और मानसिक विकास के गतियों का संक्षिप्त
विवरण दें।
उत्तर―1.शारीरिक विकास की गति― बच्चे की अभिवृद्धि और विकास एक समान
गति से नहीं होता, उसमें काफी उतार-चढ़ाव होता है। शारीरिक विकास पर लम्बे समय तक
चलने वाले अध्ययनों से काफी कुछ जानकारी प्राप्त हुई है, उनके कुछ निष्कर्ष इस प्रकार है―
(i) जन्म से लेकर दो वर्षों तक शरीर का विकास सबसे अधिक गति से होता है।
(ii) इसके बाद यौवनाराम से कुछ पहले तक विकास धीमी गति से होता है।
(iii) उसके बाद से यौवनारम्भ तक विकास की गति में एक स्फुरण आता है।
(iv) यौवनारम्य के बाद विकास की गति निरन्तर घटती जाती है । बालकों तथा बालिकाओं
में विकास का स्वभाव लगभग एक-सा होता है, परन्तु उनके किशोरावस्था के स्फुरण
काल में अन्तर आता है।
2.मानसिक विकास की गति― मानसिक विकास का निश्चित स्वरूप अभी तक ठीक
प्रकार ज्ञात नहीं हो सका है। साथ ही साथ मानसिक विकास की प्रक्रिया इतनी जटिल है
कि यौद्धिक विकास का मापन करना अत्यन्त कठिन कार्य है। फिर भी मानसिक विकास
को गति में भी कुछ भिन्नता पाई जाती है। मानसिक विकास की गति के कुछ सामान्य लक्षण
इस प्रकार है―
(i) आरम्भिक बाल्यकाल और उसके कुछ समय बाद तक मानसिक विकास की गति
काफी तेज होती है। परन्तु धीरे-धीरे किशोरावस्था के उत्तरार्ध में वह लगभग
अचल-सी हो जाती है।
(ii) सामान्य रूप से शैशवकाल तथा स्कूल-पूर्व काल में मानसिक विकास काफी तेज
गति से होता है।
(iii) मानसिक विकास की गति तथा स्वभाव में बालकों में काफी व्यक्तिगत भिन्नता
पाई जाती है।
(iv) सामान्यतः मानसिक विकास लगभग 18 वर्ष की आयु तक अपनी चरम सीमा तक
पहुँच जाता है, परन्तु कुछ व्यक्तियों में यह 20 वर्ष के बाद भी कुछ समय तक
चलता रहता है।
प्रश्न 3. बाल विकास अध्ययन का क्या उद्देश्य है?
उत्तर–बाल अध्ययन के उद्देश्य बाल विकास अध्ययन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं―
1. बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं की जानकारी प्राप्त करना ।
2. बाल विकास के विभिन्न क्षेत्रों की जानकारी प्राप्त करना । जैसे–शारीरिक, मानसिक,
सामाजिक, संवेगात्मक आदि ।
3. प्रत्येक अवस्था के विकासात्मक परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त करना।
4. विकासात्मक परिवर्तनों के कारणों की जानकारी प्राप्त करना कि ये परिवर्तन किन
कारणों से अमुक अवस्था में होते हैं?
5. विभिन्न अवस्थाओं में विकास के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित करने वाले तत्वों के
बारे में जानकारी प्राप्त करना ।
6. बालकों के समुचित विकास के लिए उनकी रुचियों तथा आवश्यकताओं को
जानकारी प्राप्त करना।
7. परिवर्तनों के आधार पर बालकों के विकास के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करना ।
8. सामान्य तथा असामान्य बालकों का तुलनात्मक अध्ययन करना।
9. विकास को प्रभावित करने वाले तत्वों-परिपक्वता और शिक्षण तथा वंशानुक्रम और
वातावरण में सहसम्बन्ध ज्ञात करना ।
10. बालकों में पाई जाने वाली विशिष्टताओं और असामान्यताओं की जानकारी प्राप्त
करना।
प्रश्न 4.बाल्यावस्था में बालक का विकास किस प्रकार होता है? संक्षेप में बताइए।
उत्तर―बाल्यावस्था (Childhood)-विकास की दृष्टि से बाल्यावस्था एक महत्वपूर्ण
अवस्था मानी जाती है, क्योंकि यह अवस्था शारीरिक व मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण
होती है। दो से बारह वर्ष की अवस्था को बाल्यावस्था माना गया है, लेकिन अध्ययन की।
दृष्टि से इस दो भागों में विभाजित किया गया है―
पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood)―(2 से 6 वर्ष)
(ii) उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood)―(7 से 12 वर्ष)
यह अवस्था भी ‘समायोजन की अवस्था होती है। बालक नित-प्रतिदिन सभी क्षेत्रों में
अपने नये वातावाग के साथ समायोजन का प्रयास करता है।
इस अवस्था में बालकों को ‘जिज्ञासा प्रवृत्ति’ अधिक हो जाती है। नये वातावरण में
समायोजन से पूर्व वह उसके बारे में जानना चाहता है जिससे वह अपने माता-पिता तथा शिक्षकों
में तरह-तरह के सवाल करता है।
बाल्यावस्था में बालकों में समूह प्रवृत्ति’ अधिक हो जाती है । नये वातावरण में समायोजन
से पूर्व वह उसके बारे में जानना चाहता है, जिससे वह अपने माता-पिता तथा शिक्षकों से
तरह-तरह के सवाल करता है।
बाल्यावस्था में बालकों में ‘समूह प्रवृति’ का विकास होता है। अब वह बचपनावस्था
के समान स्व-प्रेमी नहीं रहता है अपितु खेल के साथियों के साथ रहना पसन्द करता है।
‘सामाजिकता’ की दृष्टि से भी यह अवस्था अति महत्वपूर्ण होती है । समूह प्रवृत्ति के कारण
अच्छी सामाजिकता का विकास होता है। समूह में रहने से बालकों के अन्दर अनेक गुणों,
जैसे—अनुकरण, खेल, सहयोग, सहानुभूति, नैतिकता आदि सकारात्मक गुणों का विकास होता है।
सकारात्मक गुणों के साथ-साथ कुछ नकारात्मक गुण भी प्रकट होते हैं। जैसे―द्बन्द्ब,
स्पर्धा, झगड़ा तथा मारपीट, आक्रामकता आदि । परन्तु इन सभी नकारात्मक गुणों का प्रदर्शन
बह सामाजिक समायोजन के लिए ही करता है, जिससे उसमें आत्मनिर्भरता की भावना का
विकास होता है।
बाल्यावस्था बालक को जीवन की अनेकों वास्तविकताओं से परिचित कराती है, जिनके
बीच रहकर वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने का तरीका सीख लेता है, जो
उसके किशोर जीवन के लिए आधार का कार्य करता है।
प्रश्न 5. बालक के शैशवावस्था की विशेषताएं बताएँ।
उत्तर―शवावस्था की विशेषताएँ–शैशवावस्था की अपनी कुछ प्रमुख विशेषताएं
होती हैं, जो अन्य अवस्थाओं से भिन्न होती हैं। ये प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं―
(i) अपरिपक्वता―शैशवावस्था में शिशु न तो शारीरिक रूप से परिपक्व होता है और
न ही मानसिक रूप से। अत: वह इस योग्य नहीं होता है कि वह अपना कुछ कार्य स्वयं
कर सके । शारीरिक और मानसिक रूप से शक्तिहीन होने के कारण उसमें इतनी क्षमता नहीं
होती है कि वह जन्म के बाद शीघ्रता से अपने नये वातावरण के साथ समायोजन कर ले।
अतः उसे अपने समायोजन के लिए परिवार के संरक्षण की आवश्यकता होती है।
(ii) पराश्रितता― अपरिपक्वता के कारण शिशु अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में
असमर्थ रहता है। अतः जन्म के बाद वह अपने पालन-पोषण तथा देखभाल के लिए दूसरों
पर आश्रित रहता है। गर्भ में तो उसका पोषण प्राकृतिक रूप से माँ के शरीर से होता रहता
है, किन्तु जन्म के बाद भी उसे जीवित रहने के लिए माँ के दूध की आवश्यकता होती है।
(iii) मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार―शैशवावस्था में शिशु के सभी व्यवहार मूल प्रवृत्तियों
द्वारा निर्धारित रहते हैं, इसलिए भूख लगने पर रोता है, प्यार करने पर हँसता है। यदि उसकी
(वस्तु छीन लेता है, तो वह रोने लगता है। माँ को देखकर प्रसन्न होता है। अत:
इस आयु में शिशु में तर्क और चिंतन की कमी के कारण उसकी क्रियायें और व्यवहार मूल
अतः शैशवावस्था पराश्रितता की अवस्था होती है।
प्रवृत्तियों द्वारा प्रेरित होते हैं।
(iv) संवेगशीलता—शिशु बड़ा संवेगी होता है। किन्तु उसके संवेग क्षणिक होते हैं, जो
मूलतः सुखदायक व दु:खदायक संवेदनाओं से सम्बन्धित होते हैं। यदि उसके संवेगों की तुष्टि
नहीं होती है तो वह रोने लगता है और तुष्टि होने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है।
(v) व्यक्तिगत विभिन्नता–जन्म के बाद सभी शिशु समान नहीं होते हैं। उनमें व्यक्तिगत
विभिन्नता पायी जाती है। प्रत्येक शिशु की शारीरिक बनावट, रंग, रूप और व्यवहार एक-दूसरे
भिन्न होते हैं। कुछ शिशु शान्त होते हैं, जबकि कुछ अधिक रोते हैं। इसी प्रकार से
कुछ अधिक क्रियाशील होते हैं, जबकि कुछ कम क्रियाशील होते हैं।
प्रश्न 6. बालकों द्वारा खेले जाने वाले कुछ सामान्य खेलों का विवरण दीजिए।
अथवा, बालकों द्वारा खेले जाने वाले कुछ सामान्य खेल एवं खेल क्रियायों को
संक्षेप में बताएँ।
उत्तर― सामान्यतया हमारे देश में बालक जो खेल खेलते हैं अथवा जिन क्रियाओं में
उन्हें भाग लेते हुये पाया जाता है, उसके कुछ निम्न रूप हो सकते हैं―
1. मुख्य खेल या बाहर मैदानों में खेले जाने वाले खेल, जैसे—क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल,
वॉलीबाल, बास्केटबाल, लॉन टेनिस आदि ।
2. छोटे खेल या अन्दर खेले जाने वाले खेल, जैसे—टेबलटेनिस, रिंग, नैटबाल,
बैडमिन्टन, कैरम, शतरंज आदि ।
3. स्वदेशी या भारतीय खेल जैसे कबड्डी, खो-खो, कुश्ती, लम्बी कूद, गुल्ली-डंडा
आदि।
4. खेल-कूद सम्बन्धी क्रियायें, जैसे—विभिन्न प्रकार की दौड़ें, लम्बी कूद, ऊंची कूद,
गोला फेंकना, चक्र फेंकना, भाला फेंकना, तैरना, जिम्नास्टिक एवं कसरतें
करना आदि।
5. छोटे बच्चों द्वारा खेले जाने वाले स्थानीय खेल, जैसे—चोर-सिपाही, शेर-बकरी,
लंगड़ी टाँग, पि, विष-अमृत, बोल मेरी मछली कितना पानी, चूहा-बिल्ली,
छुपा-छुपी, गुड्डे-गुड़ियों का खेल, गुटके खेलना एवं रस्सी कूदना आदि ।
प्रश्न 7. शारीरिक विकास के प्रमुख आधार संक्षेप में लिखिए।
उत्तर―शारीरिक विकास के प्रमुख आधार–बालक के शारीरिक विकास में शारीरिक
तंत्रों के साथ-साथ शारीरिक आकार, गठन आदि प्रमुख आधार हैं।
शारीरिक तंत्र―इसके अन्तर्गत कंकाल तंत्र, स्नायु तंत्र, अन्तःस्रावी तंत्र आदि
प्रमुख हैं।
(अ) कंकाल तंत्र―कपाल से लेकर पैर की अंगुलियों तक अस्थियों के समुचित एवं
आनुपातिक विकास से संतुलित शारीरिक विकास होता है। प्रारंभिक वर्षों में अस्थियों में वृद्धि
और विकास तेज होता है तथा अस्थियों में दृढ़ता आती है।
(ब) स्नायु तंत्र―स्नायु तंत्र के विकास के साथ बच्चे की बौद्धिक क्षमता में वृद्धि
होती है, जो उसके व्यवहार में नवीनता लाती है। मांसपेशियों की संवृद्धि गामक क्षमता में
वृद्धि करती है, जिसका सीधा सम्बन्ध बच्चे की खेलकूद की गतिविधि से होता है।
(स) अन्तःस्रावी ग्रन्थि― इनका विकास बच्चे के व्यवहार में परिवर्तन लाता है तथा
किशोरावस्था में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढ़ता है, जो इससे पूर्व की अवस्था में नहीं
होता। साथ ही बच्चे के शारीरिक अवयवों में परिवर्तन यथा-ऊँचाई, भार, शारीरिक अनुपात
आदि उसके व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
शारीरिक स्थिति― बच्चे की शारीरिक स्थिति शरीरकरती है, यथा-श्वसन, पाचन, रक्त परिसंचरण, अंतःस्रावी ग्रंथियों से स्रावित हामान्स, आदि के आंतरिक क्रियाकलापों पर निर्भर
संपादित क्रियाकलाप शारीरिक स्थिति को संतुलित बनाए रखते हैं।
प्रश्न 8. मनोगतिक विकास का क्या अर्थ है?
अथवा, बच्चों के सर्वांगीण विकास में मनोगतिक विकास की क्या आवश्यकता है?
उत्तर―मनोगतिक विकास का अर्थ-मनोगतिक विकास से हमारा तात्पर्य ऐसी प्रक्रियाओं
से है, जिनमें चिन्तन, प्रत्यक्षीकरण और समस्या का हल निहित होता है । साधारण भाषा में
यह ऐसी प्रक्रिया है, जिन्हें बौद्धिक, संज्ञानात्मक या बोधात्मक क्रियाएँ कर सकते हैं । मनोगतिक
विकास का अर्थ-समझने की शक्ति, स्मृति, तर्कशक्ति और बुद्धि अभिवृद्धि से है।
बच्चों के सर्वांगीण विकास में उनके मनोगत्यात्मक विकास का होना अति आवश्यक
है। मनोगत्यात्मक विकास का संबंध मांसपेशियों के कार्य तथा शरीर में गतियों या क्रियाओं
की उत्पत्ति से है, जो मानसिक क्रिया के सचेतन नियंत्रण के अंतर्गत होती है। यह गत्यात्मक
कौशलों से निर्देशित होती है जैसे—गति, समन्वय, परिचालन, दक्षता, बल तथा चाल।
जीन पियाजे ने यह अध्ययन करने की कोशिश की कि बालकों में मानसिक विकास
किस प्रकार होता है ? उन्होंने जिन विचारों का प्रतिपादन किया, उन्हें पियाजे के मानसिक
विकास के सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। बालकों में वृद्धि का क्रमिक विकास पियाजे के
अनुसार निम्न चार चरणों या अवस्थाओं में सम्पन्न होता है।
प्रश्न 9. वे कौन-से तत्व हैं, जो गामक विकास को प्रभावित करते हैं?
उत्तर―सामान्यतः गामक विकास को प्रभावित करने वाले तत्व या कारक इस प्रकार हैं―
1. बुरी शारीरिक दशा-बालक का शारीरिक स्वास्थ्य यदि ठीक नहीं है तो उसका
गामक विकास अवरुद्ध हो जाता है। बीमारी, कुपोषण आदि के द्वारा गामक विकास अवरुद्ध
होता है। ऑपरेशन, स्नायु प्रणाली तथा मांसपेशीय दोषों के कारण भी गामक कौशल देर
से विकसित होते हैं। स्मिथ ने भी इस कथन की पुष्टि करते हुए कहा है कि बीमारी की
दशा में गामक विकास में देर लगती है।
2. शरीर का आकार― बालक के शरीर का आकार, उसके बैठने, खड़े होने, चलने
तथा उससे सम्बन्धित अन्य कौशलों को प्रभावित करता है। ऐसी स्थिति में बालक के शरीर
का गुरुत्वाकर्षण केन्द्र बदल जाता है । छोटो हड्डियों वाले पतले बालक जल्दी चलना सीखते
हैं। झगड़ालू बालकों में क्रियात्मकता अधिक पाई जाती है।
3. बुद्धि (Intelligence)― दो वर्ष की अवस्था में वृद्धि तथा गामक-विकास के
सह-सम्बन्ध का ज्ञान होने लगता है। जिन बालक बालिका विकास अवरुद्ध होता है,
उनमें गामक कौशल भी अवरुद्ध पाए जाते हैं। बुद्धिमान बालकों में गति अधिक पाई जाती
है। विद्यालय-पूर्व अवस्था में बुद्धि तथा गाम का सम्बन्ध प्रखर रूप में देखा जाता है।
4. मांसपेशीय विकास के अवसर न मिलना―कई बार यह भी देखा जाता है कि
अभ्यास के अवसरों के अभाव में गामक विकास पूर्णता प्राप्त नहीं हो पाता। जो बच्चे सदैव
गोद या पालने या सोफे पर रखे जाते हैं, जिन्हें मिट्टी में खेलने के अवसर नहीं मिलते,
उनका गामक विकास देरी से होता है। भारत में सदैव गोद में रखे जाने वाले छुई-मुई बच्चों
में गामकता देर से विकसित होती देखी गई है।
5. अभिप्रेरणाओं का अभाव―गामक कौशल के विकास के समय यदि अभिप्रेरणा
नहीं दी जाती तो विकास पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। चलने, दूध पीने, वस्त्र पहनने आदि
को क्रियाएँ सीखते समय यदि बालक को प्रोत्साहन दिया जाए तो वह उन कौशलों को कुशलता
के साथ सोखता है।
6. विशिष्ट गति पर बल―कुल विकास से पूर्व विशिष्ट गति के सीखने पर जो बल
दिया जाता है, उससे भी गामक पर प्रभाव पड़ता है। नृत्य, लेखन आदि पर यदि समय से
पूर्व बल दिया जाता है तो उसके सामान्य गति विकास पर प्रभाव पड़ता है।
7. भय―भय का प्रभाव गामक पर होता है। भय के कारण बालक गामक क्रिया को
दोहराने से घबराता है। यदि बालक को किसी भी कार्य को करते समय डराया जाएगा तो
वह कुठित तो होगा ही, साथ ही किसी भी क्रिया को करने के लिए उसे साहस संजोना
पड़ेगा। बच्चों को मना करना, डाँटना आदि गामक विकास पर प्रभाव डालते हैं।
प्रश्न 10. बच्चों के दाँतों की संरचना में परिवर्तन किस प्रकार होता है ?
उत्तर–बच्चों के दाँतों की संरचना में परिवर्तन–दाँतों का निर्माण एक लम्बी प्रक्रिया
है, जो कुई वर्षों तक चलती है। जब बच्चा जन्म लेता है, उस समय उसके दाँतों के बनने
को प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी होती है। यद्यपि दाँतों के निकलने का क्रम सभी बच्चों में एक
जैसा ही होता है, परन्तु दाँत निकलने की आयु और दाँत निकलते समय होने वाला कष्टों
में प्रत्येक बच्चों में भिन्नता हो सकती है। पहला दाँत सामान्यतः 4 से 12 महीने के बीच
आता है। इसकी औसत आयु सात महीने होती है । ढाई वर्ष की आयु प्राप्त करते-करते बच्चे
के तकरीबन बीस दाँत निकल आते हैं, परन्तु ये अस्थाई दाँत होते हैं, जो बाल्यवस्था तक
टूट जाते हैं। अतः ये दूध के दाँत कहलाते हैं ।
अधिकांश बच्चों के दूध के दाँत छह वर्ष की आयु तक टूटने लगते हैं और इसकी
जगह स्थाई दाँत आने लगते हैं। यह प्रक्रिया तकरीबन 12 वर्ष के आस-पास पूरी हो जाती
है। दूध के सभी बीस दाँतों के स्थान पर स्थाई दाँत निकल आते हैं। यही कारण है कि
सात-आठ साल के बच्चे बिना दाँतों के मुस्कुराते हुए दिख जाते हैं, जिनसे दाँत परिवर्तन
को अवस्था की पहचान आसानी से की जा सकती है। पहलीदाँत (मोलर) 6 वर्ष की आयु
में प्रकट होती है। दूधिया दाँतों के पीछे में स्थाई दाँत होते हैं, जिन्हें गलती से दूधिया दाँत
ही समझ लिया जाता है। तेरह वर्ष की आयु तक दूसरी दाँतें प्रकट होती हैं और इस समय
तक दाँतों की कुल संख्या बढ़कर 28 हो जाती है। अक्कल दाँत कहे जाने वाले दाँत (अंतिम
बार) पच्चीस वर्ष की आयु तक निकल आते हैं।
प्रश्न 11. बच्चों के शारीरिक विकास में खेल, व्यायाम तथा योग का क्या
महत्व हैं?
उत्तर―खेलकूद एवं योग–बच्चों के शारीरिक विकास में खेलकूद का बहुत अधिक
महत्व होता है, जो बच्चे जन्म के पश्चात् जितने अधिक क्रियाशील होते हैं, उम्र बढ़ने के
साथ-साथ जितना अधिक खेलकूद करते हैं, उनका शारीरिक विकास उतना ही स्वाभाविक
तरीके से (जीन्स द्वारा निर्धारित अवस्था में) होता है। बच्चे अपनी अभिव्यक्ति भी खेलकूद
व शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से ही अधिक सहज रूप से कर पाते हैं। अत: यह महत्वपूर्ण
हो जाता है कि परिवार में माता-पिता व अन्य सदस्य अथवा बच्चा जहाँ पल रहे हैं, वे लोग
इस बात को अच्छी तरह समझे कि बच्चों के शारीरिक विकास हेतु खेलकूद व शारीरिक
व्यायाम का बहुत महत्व है। प्रायः भारतीय परिवारों में अधिक खेलकूद करने वाली लड़कियों
के प्रति आम राय होती है कि उन्हें अधिक उछलकूद नहीं करनी चाहिए। अधिक समय
घर में रहना चाहिए, परन्तु ऐसा करते समय परिवार के लोग यह भूल जाते हैं कि लड़कियों
के शारीरिक विकास हेतु भी खेलना-कूदना आवश्यक है। उचित शारीरिक विकास न होने
पर बच्चों में इसका प्रभाव अन्य विकास जैसे संवेगात्मक, भावात्मक विकास पर दिखाई देता
है। विद्यालय आने के पश्चात् शिक्षकों को भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि बच्चों को
अधिक-से-अधिक शारीरिक गतिविधियों व क्रियाएँ करवाएं, जिसमें विभिन्न खेलकूद एवं
यौगिक क्रियाओं आदि का भी समावेश हो।
बच्चों के शारीरिक एवं मनोगतिक विकास को संतुलित एवं पूर्ण विकसित करने में योग
एवं व्यायाम काफी प्रभावी एवं महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
प्रश्न 12. बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास किस
उत्तर―बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास-बाल्यावस्था के प्रारम्भ काल तक बच्चों
में प्राय: सभी संवेगों का जन्म हो चुका होता है। अत: बाल्यावस्था में कोई नवीन संवेगों
की उत्पति न होकर संवेग जागत करने वाली परिस्थितियों और उद्दीपकों की प्रकृति और संवेगों
को अभिव्यक्ति करने के ढंग में परिवर्तन होते रहते हैं। इस दृष्टिकोण से बाल्यावस्था में
बच्चे में निम्न परिवर्तन दिखाई देते हैं―
1.शैशवावस्था में बच्चा बहुत स्वार्थी होता है। वह अपनी ही हित साधना में लीन रहता
है। अत: इस अवस्था में बच्चे के संवेग प्रायः भूख, प्यास, नींद, माँ-बाप का स्नेह, खिलौने
की इच्छा आदि तत्काल आवश्यकताओं द्वारा ही संचालित होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे वह
बड़ा होता चला जाता है, उसकी दुनिया भी बड़ी होती जाती है और अब उसके संवेग अनेक
प्रकार के उद्दीपकों और परिस्थितियों द्वारा जागत होना प्रारम्भ कर देते हैं। बालक के संवेगात्मक
व्यवहार को स्कूल का वातावरण, हमजोलियों के साथ उनका सम्बन्ध और अन्य वातावरण
सम्बन्धी कारक प्रभावित करते हैं । उसकी रुचियों और अनुभवों से उसके संवेगात्मक व्यवहार
को एक नई दिशा मिलती है। एक ओर जहाँ उसके संवेग नवीन उद्दीपकों से जुड़ जाते है।
वहीं दूसरी और कुछ पुराने उद्दीपकों द्वारा संवेगों को जागृत करने की क्षमता प्रायः समाप्त
हो जाती है। अब वह कपड़े पहनने अथवा स्नान करने में, हाथ-पैर पटकने आदि जैसी चेष्टाएँ
नहीं करता और न अब उसे अपरिचितों से भय ही लगता है
2. इस अवस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति के ढंग में भी पर्याप्त परिवर्तन दिखाई देता
है। शैशवावस्था में संवेगात्मक व्यवहार में आंधी और तूफान-सी गति होती है और यह प्रायः
चीखने-चिल्लाने, हाथ-पैर पटकने आदि गत्यात्मक क्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। लेकिन
बाल्यावस्था और विशेष रूप से उसके आखिरी वर्षों में बालक अपने संवेगों की अभिव्यक्ति
उचित माध्यम से करने का प्रयास करता है। संवेगात्मक रूप से अब उसमें कुछ स्थितरता
एवं गंभीरता आने लगती है। परिवर्तनों के मूल में कई कारण हैं, प्रथम तो बाल्यावस्था में
बालक को अपनी भावनाओं के प्रकाशन के लिए भाषा का माध्यम मिल जाता है, दूसरे अब
वह अधिक सामाजिक हो जाता है और यह अनुभव करने लगता है कि अब उसे डरना या
बातचीत में रोना अथवा गुस्सा होना शोभा नहीं देता, तीसरे, उसमें बुद्धि का पर्याप्त विकास
हो जाने के कारण अब वह अपने संवेगात्मक उफान पर नियंत्रण स्थापित करने में समर्थ
हो जाता है।
प्रश्न 13. संवेगात्मक विकास से आप क्या समझते हैं? संवेगात्मक विकास में
अभिभावकों और शिक्षकों की क्या भूमिका है ?
उत्तर―संवेगात्मक विकास-बच्चे के सम्पूर्ण विकास में उसके संवेगात्मक विकास
का भी महत्वपूर्ण स्थान है। जन्म के पश्चात बच्चा अपने परिवार के सम्पर्क में आता है।
परिवार द्वारा लालन-पालन के दौरान उसको स्नेह व अपनापन मिलता है और इस अपनेपन
से उसके अन्दर सुरक्षा की भावना पैदा होती है। माँ की गोद में बच्चा स्वयं को सुरक्षित
महसूस करता है। फलस्वरूप उसमें इस प्रकार सुरक्षा की भावना जन्म लेती है। भावनाओं
का प्रकटीकरण संवेगों द्वारा होता है।
बच्चों के संवेग में अभिभावक की भूमिका या बालक-अभिभावक सम्बन्ध बालकों के
संवेगात्मक व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। माता-पिता की मनोवृत्तियाँ तथा पालन-पोषण का
तरीका बालकों के संवेगों की मात्रा तथा स्वरूप को निर्धारित करता है।
अतिसतर्क माता-पिता अपने बच्चों की साधारण सी परेशानियों को ही अधिक महत्व
देते हैं। वे बालकों की छोटी-छोटी परेशानियों पर हो चिन्तित हो जाते हैं। ऐसे बच्चे
आत्मविश्वास खो देते हैं. और आत्म-निर्भर नहीं बन पाते हैं। वे छोटे-से-छोटे कार्यों को करने
में भयभीत रहते हैं तथा जो माता-पिता अपने बालकों का तिरस्कार या उपेक्षा करते हैं उनके
बालक झगड़ालू, क्रोधी और आक्रामक व्यवहार वाले हो जाते हैं। क्रोध एवं आक्रामकता
बालकों में समाज विरोधी व्यवहारों की उत्पत्ति करती है।
बच्चों के संवेग में शिक्षक की भूमिका या अध्यापकों द्वारा बालकों का संवेगात्मक व्यवहार
सामान्य है या असामान्य है, इस बात का अच्छी तरह से अध्ययन किया जाना चाहिए। अगर
उन्हें उसमें कुछ असामान्यता का आभास होती है तो समय से पहले योग्य व्यक्तियों की सहायता
लेकर उसके निराकरण और रोकथाम के लिए पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
सीखने की प्रक्रिया में संवेगों की रचनात्मक भूमिका की ओर भी अध्यापक द्वारा उपयुक्त
विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे भी हो, बच्चे के संवेगात्मक तनाव को समाप्त
करने की चेष्टा की जानी चाहिए तथा उसके अन्दर किसी भी प्रकार की अनावश्यक मानसिक
ग्रन्थियों और विकारों को पनपने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 14. सृजनात्मकता क्या है? उराका विकास करने में अभिभावकों और शिक्षकों
की भूमिका को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―सृजनात्मकता का अर्थ―सृजनात्मकता का अर्थ है, सृजन या ‘रचना करना’ ।
सृजनात्मकता शब्द अंग्रेजी शब्द ‘Creativity’ का हिन्दी रूपांतरण है, जिसका आशय है
‘उत्पादकता’। अत: सृजनात्मकता में भी उत्पादकता होती है, जो व्यक्ति की मौलिक और
नवीन सोच होती है, यह चाहे साहित्य सृजन के रूप में हो, चित्रकारी हो, गीत, संगीत, नृत्य
हो, एक इंजीनियर द्वारा पुल का निर्माण हो, एक बढ़ई द्वारा तैयार की गयी मेज हो या मिस्त्री
द्वारा बनायी गयी कोई इमारत हो या अंतरिक्ष की उड़ान हो ।
अभिभावकों की भूमिका:
1. बालकों की जिज्ञासाओं को सही तरीके से शांत करें। उनके प्रश्नों का आदर
करें।
2. बालकों के लिए घर में समुचित वातावरण तैयार करें। उनकी सृजनशीलता को प्रेरित
करें, अनावश्यक हस्तक्षेप व नियंत्रण द्वारा दमित न करें।
3. बालक को अपनी सृजनात्मकता के विकास के लिए यदि किसी वस्तु या सामग्री
को आवश्यकता है, तो वह उस उपलब्ध करायें।
4. बालकों के मौलिक चिन्तन में किसी प्रकार को बचा न डालें तथा अपने परम्परागत
तरीके अपनाने के लिए बाध्य न करें।
शिक्षक की भूमिका:
शिक्षक द्वारा बालकों की सृजनशीलता को प्रोत्साहित करना आवश्यक है, क्योंकि प्रसिद्ध
शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी का मानना है कि विद्यालय या विद्यालय के बाहर प्राप्त अनुभवों में
उच्च कोटि की सृजनात्मकता निहित रहती है।
शिक्षकों को बालकों के सृजनात्मक विकास में अधोलिखित भूमिका का निर्वहन करना
चाहिये―
1. बच्चों की व्यक्तिगत क्षमताओं और विभिन्नताओं को पहचान का व्यक्तिगत प्रशिक्षण
दें।
2. बच्चों की कल्पनात्मक और असाधारण बातें सुनकर उसेजित न हों बल्कि सहानुभूति
पूर्वक सुनें।
3. विषय की नवीनतम जानकारी रखें, बालक की जिज्ञासाओं को शांत करें तथा शिक्षण
में आधुनिक प्रविधियों का प्रयोग करें।
4. बालकों में सृजनात्मकता का विकास करने के लिए शिक्षक को स्वयं भी सृजनात्मक
प्रवृत्ति का होना चाहिये। वह स्वयं भी साहित्य, विज्ञान और कला आदि के क्षेत्र
में सृजनात्मक कार्य करें। इससे बालकों को प्रेरणा व प्रोत्साहन मिलता है।
5. शिक्षक को चाहिये कि वह छात्रों को विभिन्न सृजनात्मक कार्यो की नवीनतम सूचनाओं
से अवगत करायें और यदि संभव हो तो नवीनतम सूचनाओं को एकत्रित करने में
सहयोग प्रदान करें।
6. शिक्षक को चाहिये कि वह छात्रों के सृजन की प्रशंसा करें और उनमें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा
का विकास करें तथा सृजनात्मक कार्यों के अभ्यास के अवसर प्रदान करें।
7. शिक्षक को बच्चों के उत्पादक और मौलिक चिन्तन को बढ़ावा देना चाहिये।
8. विभिन्न आयु-स्तरों के अनुसार छात्रों को निर्माण, सुधार तथा अन्वेषण के कार्य में
लगाना चाहिये।
प्रश्न 15. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व से क्या समझते हैं ?
उत्तर–अन्तर्मुखी व्यक्तित्व― इस प्रकार का व्यक्तित्व उन व्यक्तियों का होता है, जिनका
स्वभाव, आदतें और गुण बाह्य रूप से प्रकट नहीं होते। ये आत्मकेन्द्रित होते हैं और सदा
अपने में ही खोये रहते हैं। ये लोग कम बोलते हैं, लज्जाशील तथा एकान्तप्रिय होते हैं।
ये शीघ्र घबड़ा जाते हैं। संकोची होने के कारण अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने
में कठिनाई का अनुभव करते हैं। परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति सत्यनिष्ठ होते हैं और प्रत्येक
कार्य को सोच-विचार कर करते हैं । ये अच्छे लेखक होते हैं, किन्तु अच्छे वक्ता नहीं होते।
ये अध्ययनशील और मननशील होते हैं । प्रायः ऐसे व्यक्ति किताबी कीड़ा होते हैं और आगे
चलकर वैज्ञानिक, दार्शनिक और अन्वेषक बनते हैं। ये हँसी-मजाक, निन्दा और बेकार की
बातचीत करना पसंद नहीं करते। ये सामाजिक क्रियाकलापों में प्रायः कम रुचि लेते हैं, अतः
कम लोकप्रिय होते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रतिक्रियावादी भी होते हैं तथा स्थिति को अपने अनुसार
चाहते हैं।
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