F-4

विद्यालय संस्कृति, परिवर्तन और शिक्षक विकास

विद्यालय संस्कृति, परिवर्तन और शिक्षक विकास
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास में चेतना सत्र की भूमिका पर प्रकाश डालें।
उत्तर–विद्यालय में शैक्षिक कार्यदिवस की शुरुआत ‘चेतना सत्र’ से होती है जिसमें
प्रधानाध्यापक, शिक्षक-शिक्षिकाओं, वाल संसद, मीनामंच एवं सभी विद्यार्थियों की भूमिका
होती है जो विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए मील का पत्थर होता है। निर्धारित
समयानुसार विद्यालय खुलने के साथ ही चेतना-सत्र की शुरूआत होती है। चंतना-सत्र में
सभी विद्यार्थीगण निर्देशों के अनुरूप पंक्तिबद्ध होते हैं। ड्राम एवं विट के साथ सावधान-विश्राम
कराया जाता है। इसके बाद जिस हाऊस का टर्न होता है, वह सुबह की सभा’ को Command
देकर शुरुआत कराते हैं। इसके बाद साधारणतः प्रार्थना या ऊर्जावान शपथ का लयवद्ध सुन्दर
गान होता है। फिर, पूरी तन्मयता के साथ राष्ट्रीय गान होता है, मैदान में Pin drop silence
को स्थिति होती है।
      राष्ट्रीय गान के बाद जिस हाऊस का टर्न होता है, वह हाऊस चेतना सत्र में अंग्रेजी
एवं हिन्दी में अलग-अलग या किसी एक ‘समाचार-वाचन’ का प्रस्तुतीकरण करते हैं।
समाचार-वाचन के बाद हाऊस द्वारा तैयार कराए गए विद्यार्थी अथवा उस हाऊस के शिक्षक
द्वारा समाचार का विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है।
        समाचार की व्याख्या के पश्चात् उस सप्ताह के निर्धारित विषय पर हाऊस के किसी
एक सदस्य द्वारा सम्बोधन होता है। इससे विद्यार्थियों में किसी विषय पर किसी सभा में
धारा-प्रवाह में बोलने की शैली का विकास होता है। Extrempore speech के अलावा उस
हाऊस के विद्यार्थियों द्वारा सामान्य ज्ञान के प्रश्न भी ‘सुबह की सभा में पूछे जाते हैं और
उसका सही जबाब प्रस्तुत किया जाता है। कभी-कभी विद्यार्थीगण Thought of the day
भी ‘चेतना-सत्र’ में प्रस्तुत करते हैं। सुबह की सभा के शुरुआत के पूर्व में ही बरामदा में
लगे श्यामपट्ट पर Thought of the day लिखा जाता है।
    हाऊस के सम्बन्धित शिक्षक चिह्नित विषय पर अपना व्याख्यान देते हैं ताकि विद्यार्थियों
में ज्ञान एवं उत्साह का व्यापक संचार हो । सम्बन्धित शिक्षक सामान्य ज्ञान से जुड़े रोचक
तथ्य भी सुबह की सभा में प्रस्तुत कर सकते हैं। शिक्षक के सम्बोधन के बाद Morning
Assembly ताली बजाकर उनका स्वागत करता है।
    प्रायः शनिवार या सप्ताह के किसी एक दिन PT (व्यायाम एवं प्राणायाम्) कार्यक्रम संचालित
होता है। इसके पश्चात् प्रधान शिक्षक या सम्बन्धित शिक्षक आवश्यक सूचना सुबह की सभा
में प्रस्तुत करते हैं।
     इसके पश्चात् शारीरिक स्वच्छता जाँच अभियान भी चलाया जा सकता हैं। सभी विद्यार्थियों
के पोशाक, नाखून, बाल, दाँत की सफाई, जूते का चमकना आदि चेक करते हैं एवं आवश्यक
निर्देश देते हैं जिससे बच्चे लाभान्वित होते हैं।
          हाऊस के अनुसार विद्यालय कैम्पस को अलग-अलग Zone में बाँट दिया जाता है।
हरेक Zone के साफ-सफाई, स्वच्छता एवं वागवानी को जिम्मेवारी Houswise होती है।
विद्यालय के इन हाऊसों में प्रतियोगिता जैसी स्थिति होती है और हरेक हाऊस अपने क्षेत्र
को आपेक्षिक रूप से साफ-सूथरा एवं हरा-भरा रखने का प्रयास करते रहते हैं।
          चेतना-सत्र के प्रारम्भ से पहले ही सम्बन्धित हाऊस के Convenor शिक्षक सभी
विद्यार्थियों को उनके काम, प्रस्तुतीकरण के तरीके इत्यादि पहले ही उनका मार्गनिर्देशन कर
देते हैं ताकि कोई अव्यवस्थ्या जैसी स्थिति नहीं रहे।
सुबह की सभा में प्रार्थना के समय हारमोनियम, ढोलक, तवला आदि वाद्ययंत्रों का उपयोग
एवं लाउडस्पीकर की सहायता से आयोजित होनेवाली प्रार्थना न सिर्फ विद्यालय परिवार को
बल्कि ग्रामीण समुदाय एवं उस वक्त के राहगीरों को भी आकर्षित करता है । छोटे-छोटे बच्चों
एवं बच्चियों को लयबद्ध गाते एवं बजाते. सम्बोधित करते देखकर मंत्रमुग्ध हो जाना स्वाभाविक
है। सारी विशिष्टताएँ ‘चेतना-सत्र में की जा रही परिपाटी का ही प्रतिफल है । नेतृत्व कौशल,
आपसी सहयोग एवं समन्वय, स्फूर्ति, जिम्मेदारी का एहसास विद्यार्थियों में स्वभावतः प्रस्फुटित
होने लगता है।
चेतना-सत्र के कार्यान्वयन से विद्यार्थियों के व्यक्तित्व में दिनोंदिन निखार आता जाता
है। विद्यार्थीगण जीवन के तमाम औपचारिकताओं से वाकिफ होते रहते है, किसी सभा में
अपनी बात रखने, देश-विदेश का जानकारी, नैतिक शिक्षा आदि से रु-ब-रु होते रहते हैं।
यह सत्र विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के रास्ते में मील का पत्थर है।
प्रश्न 2. विद्यालय संरचना में प्रधानाध्यापक की भूमिका का विस्तृत वर्णन करें।
अथवा, प्रधानाध्यापक के प्रमुख दायित्व एवं कार्य बताएँ।
उत्तर― विद्यालय का उत्थान व विकास प्रधानाध्यापक की क्षमता तथा योग्यता पर काफी
हद तक निर्भर करता है। विद्यालय की हर गतिविधि में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इनकी
भूमिका अवश्य होती है। प्रधानाध्यापक के कर्त्तव्यों को बहुआयामी कहा जा सकता है क्योंकि
विद्यालय प्रबंधन से लेकर अध्यापन और अन्य कई कार्यों में उसकी सहभागिता सदैव अपेक्षित
रहती है। इस प्रकार, विद्यालय के प्रबन्धन, संगठन, प्रशासन, पर्यवेक्षण तथा प्रगति में
प्रधानाध्यापक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वह सचमुच में विद्यालय रूपी गाड़ी का प्रेरक
यंत्र है, सचालक है, विद्यालय में उसका केन्द्रीय स्थान है। सर परसीवल रेन के शब्दों में,
“घड़ी के लिए नितना स्प्रिंग का महत्त्व है, मशीन के लिए चालक चक्र का महत्त्व है―
विद्यालय के लिए प्रधानाध्यापक का।”
श्री पी. सी. रेन ने स्कूल को सील लगाने का चपड़ा तथा प्रधानाचार्य को सील कहा
है। जैसी सील होगी वैसी ही स्पष्ट मुहर होगी। विद्यालय का सुसंचालन, उसकी व्यवस्था
अथवा अव्यवस्था का सारा उत्तरदायित्व उसके प्रधानाचार्य का है। वह अपने विद्यालय का
व्यवस्थापक, संचालक, सहयोगी, शिक्षकों का मित्र, दार्शनिक और निर्देशक तथा छात्रों का
वास्तविक संरक्षक है। इसी के द्वारा विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं में समायोजन स्थापित
किया जाता है। वास्तव में सही ढंग से विचार किया जाये तो रायबर्न का यह कथन सत्य
प्रतीत होता है कि “विद्यालय में प्रधानाचार्य का वही महत्त्व है जो जलयान में उसके कप्तान
का होता है । जहाज चलानेवाले कितने भी चतुर और अनुभवी हो, किन्तु यदि कप्तान ठीक
नहीं है तो यात्रा पूरी होने में संदेह है, क्योंकि वहीं निर्देशन, संचालन, पथ-प्रदर्शन तथा निर्णय
लेनेवाला होता है। उसी के नेतृत्व में वाकी सभी लोग कार्य करते है।”
   प्रधानाध्यापक का पद और कार्यक्षेत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण और जटिल है। वह छात्र भी
होता है, शिक्षक भी, शासक भी, होता है, सेवक भी। एक और अपनी सुख-सुविधा का
इच्छुक होता है, दूसरी और राष्ट्रसेवा हेतु चिह्नित । अत: इनके अन्दर विशिष्ट गुणों का होना
नितान्त आवश्यक है। किसी भी प्रधानाध्यापक को यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि
वह पहले अध्यापक है, फिर प्रधानाध्यापक । प्रधानाध्यापक के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए
‘माध्यमिक शिक्षा आयोग’ ने भी लिखा है―
“किसी विद्यालय की प्रतिष्ठा का बहुलांश उन प्रभावों पर आश्रित रहता है जो प्रधानाध्यापक
अपने साथियों, अपने छात्रों तथा जनता पर डालता है।”
प्रधानाध्यापक के कार्य एवं भूमिका :
(A) अकादमिक कार्य― प्रधानाध्यापक के निम्नलिखित अकादमिक कार्य हैं―
1. अध्यापन कार्य― प्रधानाध्यापक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य शिक्षण से सम्बन्धित
है। उन्हें स्वयं शिक्षण करना चाहिए तथा सहायक शिक्षकों को शिक्षण कार्य ठीक से करने
लिए उचित परामर्श तथा प्रेरणा देते रहना चाहिए । आवश्यकतानुसार प्रधानाध्यापक को
आदर्श पाठ का आयोजन भी करना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रधानाध्यापक समय-समय पर
शिक्षकों को विभिन्न सेमिनारों, वर्कशॉपों में भाग लेने के लिए भेजे ।
2 शिक्षण प्रशिक्षण में भूमिका निभाना― प्रधानाध्यापक का यह उत्तरदायित्व है कि
वह शिक्षण प्रक्रिया की विभिन्न कड़ियों को जोड़े तथा उन्हें समन्वित रूप से कार्यशील बनाए ।
शिक्षकों को शिक्षण प्रक्रिया के विभिन्न मदों से परिचित कराये तथा व्यवहार रूप में व्यवहृत
करने हेतु आवश्यक वातावरण का निर्माण करें। नवीन शैक्षिक तकनीकी तथा विधियों की
अपनाने के लिए पहल किया जाना चाहिए। प्रशिक्षण तथा प्रदर्शन की व्यवस्था करें।
3. शोध व लेखन कार्यों से जुड़ना―प्रधानाध्यापक के पास अध्यापन का एक बड़ा
अनुभव होता है। वह अपने अनुभव एवं क्षमता के आधार पर शोध करता है तथा लेखन
द्वारा अपने अनुभव शैक्षिक तकनीक, शैक्षिक विधि तथा ज्ञान को लिपिबद्ध कर प्रचारित एवं
प्रसारित करता है जिससे लोगों को लाभ मिलता है।
4. शैक्षिक निरीक्षण विद्यालय का मुख्य कार्य अध्ययन एवं अध्यापन है। अतः
प्रधानाध्यापक को समय-समय पर उसका निरीक्षण अवश्य करना चाहिए। अध्यापन कार्य के
निरीक्षण में निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है―
(i) अध्यापक के अध्यापन कार्य का निरीक्षण उसे और श्रेष्ठ बनाने के दृष्टि से होना
चाहिए।
(ii) प्रधानाध्यापक को किसी भी अध्यापक के कार्य की कटु आलोचना नहीं करनी
चाहिए। गलतियों को सुझाव के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
(iii) विद्यार्थियों के लिखित कार्य का निरीक्षण भी यदा-कदा करना आवश्यक है।
(iv) आवश्यकतानुसार प्रधानाध्यापक को आदर्श-पाठ का आयोजन भी करना चाहिए।
(v) ‘सीखने की योजना के प्रयोग पर तत्पर रहना चाहिए।
(vi) आवश्यक TLMs (Teaching Learing Materials) एवं Teaching Aids के प्रयोग
पर बल देना चाहिए।
(B) प्रशासनिक कार्य― प्रधानाध्यापक के निम्नलिखित प्रशासनिक कार्य हैं―
1. नीति निर्धारण― नीति तथा नियमन को समुदाय को आवश्यकताओं के अनुरूप रखा
जाता है। शिक्षा सोद्देश्य क्रिया है, अत: प्रधानाध्यापक का महत्त्वपूर्ण कार्य है―शैक्षिक लक्ष्यों
तथा उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु नीति निर्धारित करना तथा उसे क्रियान्वित करना ।
2. प्रशासनिक निर्देशों का अनुपालन करना― स्कूल के प्रशासन के लिए सरकार
द्वारा कुछ नियम तथा कानून निर्धारित रहते हैं। प्रधानाध्यापक इन्हीं नियमों एवं कानूनों के
अनुसार स्कूल को संचालित करते हैं। उदाहरणार्थ-स्कूल समय पर लगे, समय पर छुट्टी
हा, वर्ग-व्यवस्था ठीक रहे, स्कूल में अनुशासन रहे, आदि वातों का प्रबंधन करना प्रधानाध्यापक
का कार्य है। समय पर नामांकन, परीक्षा, मूल्यांकन, विहित प्रपत्रों को विभाग में भेजना,
उच्चाधिकारियों के बैठक में भाग लेना इत्यादि प्रधानाध्यापक के कार्य हैं।
3. निर्देश देना― विभागीय निर्देशों, अनुशासन शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के मद्देनजर
प्रधानाध्यापक विभिन्न तरह के निर्देश देते हैं, उसे Order Book में लिपिबद्ध करते हैं, क्योंकि
विद्यालय के कुशल संचालन एवं उद्देश्यों की प्राप्ति की जिम्मेदारी प्रधानाध्यापक के ही कंधों
पर होती है।
4. प्रशासनिक निरीक्षण― अध्यापन क्रियाओं के साथ-साथ बालकों के नैतिक एवं
आध्यात्मिक तथा शारीरिक विकास को भी अत्यन्त आवश्यकता होती है। अतः प्रधानाध्यापक
को बालचर, एन. सी. सी., नाटक तथा साहित्यिक सभाएँ, खेल, दैनिक प्रार्थना, गीता प्रवचन
एवं दैनिक-नैतिक कथाओं को सुनाने का आयोजन करना होता है। साथ ही इस बात का
निरीक्षण भी करना होता है कि विद्यालय के भवन की देखभाल, फर्नीचर की देखभाल, खेल
तथा नैतिक शिक्षा बच्चों को ठीक तरह से दी जाती है अथवा नहीं ।
                प्रधानाध्यापक का यह परम कर्तव्य है कि यह छात्रावास में विद्यार्थियों के भोजन,
रहन-सहन, अध्ययन, नैतिक स्तर तथा अन्य सुविधाओं के स्तर पर समय-समय पर निरीक्षण
करें, उचित सुझाव और प्रेरण दें। छात्रावास-जीवन विद्यालय अध्ययन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण
है। इसीलिए प्रधानाध्यापक को उसका निरीक्षण तथा समुचित सेवाएँ उपलब्ध कराना उचित,
आवश्यक एवं उपयोगी है।
        प्रशासनिक दृष्टि से प्रधानाध्यापक एक ओर विद्यालय को समुदाय से जोड़ता है, दूसरी
ओर इसे सरकार के शिक्षा विभाग तथा अन्य सामाजिक क्षेत्रों से सम्बद्ध करता है। स्थानीय
समुदाय की इच्छाएँ प्रधानाध्यापक के माध्यम से विद्यालय में कार्यान्वित होती हैं। सरकार
की इच्छाएँ उसी के माध्यम से विद्यालय जीवन को प्रभावित करती हैं।
         (C) वित्तीय कार्य प्रधानाध्यापक को वित्तीय व्यवस्था पर भी पैनी नजर रखनी होती
है। रोकड़-पुस्तक, Bill Book, आवंटन पंजी इत्यादि पर प्रत्येक मद में प्रधानाध्यापक के
हस्ताक्षर होते हैं। अतः उस धन के सदुपयोग के लिए जिम्मेवार है। प्रत्येक कक्ष में उपस्थिति
रजिस्टर होता है जिसमें शुल्क भरा जाता है। उसमें भी अन्तिम हस्ताक्षर प्रधानाध्यापक को
हो करना पड़ता है। अतः प्रधानाध्यापक को प्रत्येक वित्तीय कार्य का सूक्ष्म निरीक्षण करना
चाहिए।
1. कर्मियों के वेतन से सम्बन्धित कार्य― प्रधानाध्यापक अपने कर्मियों का समय से
पूरा वेतन भुगतान के लिए भी जिम्मेवार होता है। इसके लिए वह समयानुसार आवंटन की
मांग करता है । आवश्यक विहित प्रपत्र पर अनुपस्थिति विवरणी के आधार पर विल का भुगतान
संभव कराता है।
2. छात्रवृत्ति तथा अन्य राशियों का वितरण― प्रधानाध्यापक सरकार द्वारा चलायी जा
रही कल्याणकारी योजनाओं के मद्देनजर छात्रवृत्ति एवं अन्य आवश्यक राशि विद्यार्थियों के
बीच वितरित करता है। इसके लिए वह आवंटन की माँग करता है और उपयोगिता प्रमाण-पत्र
अपने शीर्षस्थ अधिकारियों को भेजता है।
(D) प्रबंधकीय कार्य― 1. बैठकों का आयोजन करना―प्रधानाध्यापक अपने
विद्यालय में होनेवाली किसी भी बैठक की अध्यक्षता करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत
सभी के विचार सुनता है, उनकी समस्याओं को जानता है। बैठक का एजेण्डा तय करता
है। विद्यालय के सफल संचालन में सभी कर्मियों की राय लेता है तथा विद्यालय के सफल
संचालन का मार्ग प्रशस्त करता है
2. कर्मियों के मध्य समन्वय की स्थापना― प्रधानाध्यापक अपने ज्ञान व विवेक का
प्रयोग करके सभी कर्मचारियों के मध्य भाईचारे एवं प्रेम तथा सौहार्द का वातावरण स्थापित
करता है ताकि विद्यालय का पूर्णरूपेण विकास संभव हो सके।
3. स्वच्छता एवं पर्यावरण जागरूकता का प्रबंधन एक सफल प्रधानाध्यापक अपने
कैम्पस में स्वच्छता बनाए रखने के लिए Biodegradable तथा Non bio degradable Pit
तैयार कराता है। जगह-जगह पर Dustbin की व्यवस्था करता है। चेतना सत्र में स्वच्छता
के महत्त्व को बताता है। स्वयं भी सफाई करके विद्यालय परिवार के सभी सदस्यों को आकृष्ट
कर सकता है।
    पर्यावरण जागरूकता के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाओं पर बल देता है । वृक्षारोपण को
प्रश्रय देता है। हरेक वर्ग-कक्ष में आवश्यक नारों एवं वक्तव्य लिखवाकर टंगवाता है।
4. पुस्तकालय, प्रयोगशाला एवं कम्प्यूटर के प्रयोग पर बल―एक सफल
प्रधानाध्यापक अपने विद्यालय के पुस्तकालय, प्रयोगशाला एवं कम्प्यूटर शिक्षा को लोकप्रिय
बनाता है। वह व्यवस्था करता है कि ज्यादा-से-ज्यादा शिक्षार्थी इसका उपयोग कर सकें ।
(E) नेतृत्व―एक सफल प्रधानाध्यापक के पास करिश्माई नेतृत्व क्षमता होती है। यह
क्षमता उसके उत्तम स्वास्थ्य, स्फूर्ति व सहनशीलता, व्यक्तिगत आकर्षणशक्ति, उत्साह, साहस,
लगन, सहकारिता, चातुर्य से पुष्पित होती है। प्रधानाध्यापक में स्वस्थ्य निर्णय लेने की क्षमता,
ज्ञान ग्राहता, समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नेतृत्वशक्ति अत्यधिक निखरती है।
प्रधानाध्यापक पूरे विद्यालय का नेतृत्व करता है। उसी के नेतृत्व शक्ति से विद्यालय का विकास
होता है। वह विभिन्न मंचों पर विद्यालय का प्रतिनिधित्व करता है। वह विद्यालय परिवार
के सभी सदस्यों को सहयोग, समन्वय, भातृत्ववाद के सिद्धांत पर आगे ले जाता है। वह
अपने नेतृत्वशक्ति से विद्यालय को अद्वितीय बना सकता है।
       विद्यालय के सफल संचालन एवं गुणात्मक विकास हेतु प्रधानाध्यापक का कार्य अति
महत्त्वपूर्ण है क्योंकि विद्यालय सम्बन्धी सभी कार्यों के लिए वह जिम्मेदार होता है। उसकी
थोड़ी-सी भी लापरवाही, गलत निर्णय, असहयोग की भावना, द्वेप की भावना आदि अनेक
दुर्भावनाएँ हैं जिन्हें यदि वह अपनाता है तो निश्चित रूप से उस विद्यालय का भविष्य अंधकारमय
ही होगा।
प्रश्न 3. विद्यालय प्रबंधन में बाल-संसद’ की भूमिका स्पष्ट करें।
उत्तर—बाल संसद―बाल संसद विद्यालय के विद्यार्थियों का एक ऐसा मंच होता है
जहाँ वे अपने विद्यालय, समाज-परिवार तथा स्वास्थ्य एवं शिक्षा के अपने अधिकारों की बात
खुलकर करते हैं। विद्यालय परिसर की साफ-सफाई से लेकर अनुशासन व्यवस्था को बनाए
रखने में ‘बाल संसद’ अपनी भूमिका को अच्छी तरह से निभाता है।
बाल संसद के उद्देश्य:
1. बच्चे एवं बच्चियों में जीवन कौशल का विकास करना ।
2. बच्चों में नेतृत्व एवं निर्णय लेने की क्षमता का विकास कसा ।
3. विद्यालय गतिविधियों एवं प्रबंधन में भागीदारी सुनिश्चित करना ।
4. विद्यालय को आनन्दमयी, सुरक्षित और साफ-सुथरा रखना।
5. विद्यालय में अनुशासन व्यवस्था को बनाए रखना।
6. बच्चों में लोकतांत्रिक गुणों का विकास करना तथा उनमें Civic Sense की भावना
को जगाना।
7. Learning by doing के सिद्धांत के आधार पर बच्चों में शिक्षा का अलख जगाना ।
8. बच्चों का सर्वांगीण विकास करना ।
बाल-संसद का गठन―प्रधानाध्यापक द्वारा विद्यालय के एक शिक्षक को बाल संसद
के लिए संयोजक शिक्षक/शिक्षिका के रूप में दायित्व दिया जाता है। ये शिक्षक/शिक्षिका
विद्यालय में प्रत्येक शैक्षिक सत्र के प्रारम्भ में ही बाल-संसद के गठन को सुनिश्चित करते हैं।
संयोजक शिक्षा द्वारा पूर्व सूचना देकर विद्यालय के सभी छात्र एवं छात्राओं को बुलाया
जाता है। सभा में सभी छात्र-छात्राओं को उनके वर्ग के अनुसार बैठाया जाता है । सभी बच्चों
को बाल-संसद के बारे में विस्तार से बताया जाता है । इसके बाद सभी वर्गों के बच्चों को
पाँच समूहों में इस प्रकार बाँटा जाता है कि विभिन्न प्रकार के बच्चे सभी समूहों में हो ।
पाँच समूहों के नाम महापुरुषों, नदियों, फूलों और पहाड़ों के नाम पर रखे जाते हैं। समूहों
के नाम जाति, सम्प्रदाय या धर्म के नाम नहीं रखे जाने चाहिए। सभी समूह को अलग-अलग
बैठाकर प्रत्येक समूह को एक मंत्री और एक उपमंत्री (जिसमें एक लड़की अनिवार्य रूप
से हो) चुनने को कहा जाता है। इन चुने हुए मंत्रियों के समूह से एक प्रधानमंत्री का चुनाव
होता है जिस पर सभी की सहमति होती है । इसके बाद प्रधानमंत्री द्वारा सभी मंत्री और उपमंत्री
की बैठक बुलाई जाती है तथा दायित्वों का बँटवारा किया जाता है । वाल-संसद का कार्यकाल
एक वर्ष का होता है। शैक्षणिक सत्र के प्रथम माह में ही इसका गठन अनिवार्य रूप से
कर लिया जाता है।
मंत्रिमण्डल― बाल संसद के मंत्री निम्नवत् होते हैं―
1. प्रधानमंत्री एवं उपप्रधानमंत्री।
2. शिक्षा मंत्री एवं उपशिक्षा मंत्री (मीना मंत्री)
3. स्वास्थ्य एवं स्वच्छता मंत्री एवं उपस्वास्थ्य एवं स्वच्छता मंत्री
4. जल कृषि मंत्री एव उपजल कृषि मंत्री
5. पुस्तकालय एवं विज्ञान मंत्री तथा उपपुस्तकालय एवं विज्ञान मंत्री
6. सांस्कृतिक एवं खेलमंत्री तथा उप सांस्कृतिक एवं खेलमंत्री
इस प्रकार, बाल संसद में कुल 12 सदस्य होते हैं (एक प्रधानमंत्री एवं उपप्रधानमंत्री
के अलावा पाँच मंत्री तथा पाँच उपमंत्री होते हैं) इन सभी मंत्रियों एवं उपमंत्रियों के कार्य
का विभाजन किया जाता है । विद्यालय प्रबंधन के लिए ये सभी मंत्री काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाते हैं।
प्रश्न 4. विद्यालय प्रबंधन में मीना मंच की भूमिका स्पष्ट करें।
उत्तर―मीना मंच विद्यालय जाने या नहीं जाने वाली किशोरियों का एक ऐसा समूह है
जो बालिका शिक्षा की बाधाओं को दूर करके अपने परिवार में समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत
करता है। यह मंच एक सुगमकर्ता शिक्षक या प्रधान शिक्षक की देखरेख में बनता है तथा
उसके मार्गदर्शन में काम करता है। सुगमकर्ता शिक्षक मंच को सक्रिय बनाता है, गतिविधियों
की योजना बनवाता है तथा सदस्यों को स्वयं निर्णय लेने का मौका प्रदान करता है।
मीना मंच के उद्देश्य:
1. यह सुनिश्चित करता है कि लड़कियाँ सही आयु में स्कूल में दाखिला लें।
2. लड़कियाँ प्रतिदिन स्कूल आएँ।
3. लड़कियों के व्यक्तित्व में विकास हो ।
4. यह सुनिश्चित करना कि लड़कियाँ प्रारंभिक शिक्षा पूरी करें।
5. लड़कियों में नेतृत्व एवं सहयोग की भावना विकसित करना।
6. शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर जागरूकता पैदा करना इत्यादि ।
मीना मंच के कार्य:
1. अनामांकित तथा अनियमित बच्चों की पहचान कर उन्हें विद्यालय से जोड़ने का प्रयास
करना।
2. लड़कियों को शिक्षा, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति जागरुक बनाना ।
3. घरों में जाकर लड़कियों के माता-पिता को स्कूल में दाखिला कराने के लिए प्रेरित
करना।
4. विद्यालय की गतिविधियों में लड़कियों की भागीदारी बढ़ाना ।
5. लड़का-लड़की के वीच भेदभाव पर रोक लगाना ।
6. दहेज-प्रथा एवं बाल विवाह रोकने के लिए समाज को जागरूक बनाना ।
7. बालिकाओं के शैक्षिक तथा सामजिक स्थिति पर मोहल्ला / टोला से बैठकें आयोजित
करना।
नारा लेखन प्रतियोगिताएँ तथा अन्य प्रतियोगिताएं आयोजित कराना तथा उल्लेखनीय
उपलब्धि पर मीना पुरस्कार देना । साथ ही साथ रोल प्ले, खेल प्रतियोगिता एवं सीरिज आयोजित
करना ताकि लड़कियों का सर्वांगीण विकास हो।
मीना मंच के सदस्यों द्वारा चुनी गई कोई एक किशोरी प्रेरक के रूप में जानी जाती
है। मंच के क्रियाकलापों का नेतृत्व करती है । हर महीने प्रेरक को बदला जाता है जिससे
ज्यादा से-ज्यादा लड़कियों को नेतृत्व क्षमता के विकास का मौका मिल सके । प्रेरक स्कूल
में पढ़नेवाली लड़की होनी चाहिए। उसे सुगमकर्ता शिक्षक के मार्गदर्शन में काम करना चाहिए।
मीना प्रेरक को सभी सदस्यों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।
मीना मंच के सकुशल संचालन के लिए उन्हें स्कूल की छुट्टी के बाद या मध्याह्न भोजन
के दौरान समय देना चाहिए । सदस्यों को सप्ताह में एक बार अवश्य मिलना चाहिए । मीना-मंच
के मिलने, अपने गतिविधियों की योजना बनाने और उन पर चर्चा करने के लिए छुट्टी के
बाद विद्यालय में ही उन्हें एक कमरा दे देना चाहिए। मीना-मंच की सदस्या इस कमरे का
नाम मीना-कक्ष रख सकती हैं।
वास्तव में, यदि यह मीना-मंच सक्रिय रूप से कार्य करें तो विद्यालय का स्वरूप ही
बदल जाएगा। उपस्थिति बढ़ने के साथ-साथ बालिकाओं में आत्मनिर्भरता एवं कुशल नेतृत्व
की क्षमता का भी विकास होगा जो एक विकसित समाज के लिए अत्यावश्यक है।
प्रश्न 5. समय-सारणी से क्या समझते हैं ? इसके महत्व की चर्चा कीजिए।
उत्तर–सरल शब्दों में, समय-सारणी से अर्थ एक ऐसी सूची से है जिसमें अंकित लिखित
समय के अनुसार कार्य सम्पादित किए जाते हैं अर्थात् जो कार्य किया जाना है, उसके सम्बन्ध
में यह लिखा रहता है कि अमुक कार्य इस तिथि, इस दिन और इस वार को अमुक बजे
किया जाना है। विद्यालय संचालन में समय सारणी एक महत्त्वपूर्व सूची होती है।
          विद्यालय की समस्त गतिविधियों को समयानुसार सूचीबद्ध करना ही समय-सारणी की
परिभाषा को व्यक्त करता है अर्थात् विद्यालय का खुलना, विषयवार कालांश लगाना, मध्यान्तर,
विद्यालय बन्द होना, और अध्यापक के कार्यों का पर्यवेक्षण तथा विद्यालय का निरीक्षण करना
इत्यादि के विषय में निर्धारित कार्य क्रम, जो समय को आधार मानकर सूचीबद्ध किया जाता
है । इसे ही समय-सारणी की संज्ञा दी जाती है ।
शिक्षाविदों द्वारा समय-सारणी के बारे में निम्न प्रकार के मत प्रस्तुत किए गए हैं―
1. हण्डन एवं त्रिपाठी के शब्दों में,”वह योजना अथवा तालिका जिसमें विद्यालय की
दैनिक क्रियाओं, विषयों, कक्षाओं एवं समय का विभाजन दर्शाया जाता है, उसे समय-विभाग
चक्र कहते हैं।”
2. एक प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री के अनुसार, “विभिन्न विषय एवं क्रियाएँ विद्यालय में
किस-किस समय कितनी-कितनी देर तक पढाई अथवा कराई जाएँ. इन समस्त वातों के लेखे
को ही समय-विभाग चक्र कहते हैं ।
3. Dr. S.N. Mukharjee के शब्दों में, “The Daily Time Table is important
because it is mirror that reflects within some accuracy of the entire school
programme.”
4. Pitman के शब्दों में, “Well arranged Time-table is the surest mark of well
arranged mind.”
समय-सारणी का महत्त्व :
1. समय-सारणी एक ऐसा दर्पण है, जिसमें विद्यालय के समस्त शैक्षणिक एवं पाठ्य
सहगामी कार्यक्रम प्रतिविम्बित होते हैं। इससे विद्यालय के अनेक कार्यक्रमों का ज्ञान
होता है। विद्यालय में कौन-कौन सी सहगामी तथा शारीरिक क्रियाएँ चलती हैं,
खेलकूद एवं अन्य गतिविधियों की क्या व्यवस्था है और प्रत्येक क्रिया को कितना
समय दिया जाता है।
2. समय-सारणी के द्वारा विद्यालय के सभी भौतिक एवं मानवीय साधनों का अधिकतम
उपयोग किया जा सकता है। इसके द्वारा सभी कार्य नियमित समय पर कराए जाते हैं।
3. प्रधानाध्यापक, शिक्षक तथा विद्यार्थीगण सभी जानते हैं कि उन्हें कब कौन-सा कार्य
करना है । इससे विद्यालय के कार्यों में नियमितता आती है, अस्त-व्यस्तता समाप्त
हो जाती है। अध्यापकों की जिम्मेदारियों का सही ढंग से विभाजन होता है।
4. खेल के मैदान, प्रयोगशाला पुस्तकालय, कम्प्यूटर लैब इत्यादि में सभी कक्षाओं को
अपने-अपने कार्य करने के लिए सही समय मिलता है । सभी विद्यार्थी हरेक गतिविधि
में भाग ले सकते हैं।
5. समय-सारणी के होने से कोई भी क्रिया ज्यादा देर तक नहीं होती है जिससे ऊव
तथा थकान से छूटकारा मिलता है।
6. विषयों को उनके कठिनाई स्तर के अनुरूप व्यवस्थित किया जाता है। इससे छात्री
में नैतिक गुणों का भी विकास होता है। छात्र समय के महत्त्व को जानने लगते
हैं, उनमें नियमितता आती है।
7. विभिन्न साधनों और समय के बीच समन्वय स्थापित करने में सहायता मिलती है
तथा शिक्षकों और छात्रों को हर समय विभिन्न क्रियाओं में व्यस्त रखा जाता है।
8. समय-सारणी से शिक्षक तथा छात्र दोनों यह समझ जाते हैं कि प्रत्येक विषय का
अध्ययन-अध्यापन के लिए कितना समय लगता है। इससे सभी शिक्षकों के कार्यभार
में समुचित बँटवारा हो जाता है । बीच-बीच में शिक्षकों को विश्राम का अवसर मिलता
रहता है।
प्रश्न 6. आपदा से क्या आशय है ? इसके प्रकारों का विस्तृत उल्लेख करें।
अथवा, प्राकृतिक आपदा एवं मानवजनित आपदा से क्या अभिप्राय है? स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर―आपदा एक खतरनाक घटना है जो प्राकृतिक और मानवजनित दोनों हो सकती
है जिससे जनजीवन, वातावरण, धनसम्पत्ति आदि भयानक रूप से तबाह और बर्बाद हो जाते
हैं। प्राकृतिक आपदाओं में भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी, भूस्खलन, सुनामी, अकाल, दुर्भिक्ष इत्यादि
आते हैं। वहीं दूसरी ओर मानवजनित आपदाओं के अन्तर्गत औद्योगिक दुर्घटनाएँ, रेल या सड़क
दुर्घटनाएँ, बाँध का टूटना, जहरीली गैसों का रिसाव, युद्ध तथा आगजनी, आतंकवाद, परमाणु
विस्फोट इत्यादि आते हैं।
          आपदाएँ चाहें प्राकृतिक हो या मानवजनित यह बड़े पैमाने पर धन-जन की हानि करते
हैं । यह अपने साथ बेरोजगारी, बेकारी, गरीबी, धन की क्षति, अपंगता तथा प्राकृतिक संसाधनों
की भारी बर्बादी लेकर आती है।
आपदाओं के कारण निम्न प्रकार की समस्याएँ उभर कर सामने आती हैं :
1. आपदा के कारण सामान्य जन-जीवन क्षतिग्रस्त हो जाता है जिससे समाज की आबादी
का एक बड़े भाग पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
2. वृहत् पैमाने पर जीवन की बर्बादी, रोजी-रोटी की समस्या, धन की बर्बादी से जनजीवन
बिखर जाता है, अपनों का साथ छूट जाता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी भी बर्बाद हो
जाती है।
3. देश की आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
4. आपदाओं की वजह से प्रभावित लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा प्रभाव
पड़ता है। वे लोग मानसिक रूप से अपने को अकेला तथा सदमें के शिकार हो
जाते हैं। उनका जीवन ठहर-सा जाता है
5. एक ओर जहाँ आपदा प्रभावित लोग अपनों से बिछुड़ने के गम में अस्थिर हो जाते
हैं। वहीं, दूसरी और कहाँ से अपना जीवन शुरू करें, उनके सामने एक बड़ी चुनौती
होती है।
आपदाओं के प्रकार :
                                                  आपदा
                 ↓___________________↓________________↓
प्राकृतिक आपदाएँ:                                                 मानवजनित आपदाएँ :
भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी, भूस्खलन,                   औद्योगिक दुर्घटनाएँ, रेल या सड़क,
सुनामी, अकाल इत्यादि।                                         दुर्घटनाएँ, बाँध का टूटना,
                                                                जहरीली गैसों का रिसाय, युद्ध, आगजनी,
                                                                     आतंकवाद, परमाणु विस्फोट इत्यादि ।
प्राकृतिक आपदाएँ―प्राकृतिक आपदाएँ प्रकृति के हिंसात्मक घटनाओं के कारण
अचानक आती है एवं इससे निबटने में मानवजन लाचार होता है। एक संकट जब आपदा
बन जाती है तब समाज का कोई बड़ा तबका उससे निबटने में लाचार हो जाता है । लोगों
की मौत, धन-जन की क्षति, घायल और बीमार लोग सामाजिक और आर्थिक ढाँचे को झकझोर
देते हैं। प्रकृति के विभिन्न तत्वों के बीच अंत:क्रियाओं तथा किसी क्षेत्र की विशिष्ट भौगोलिक
पृष्ठभूमि की वजह से जो आपदा होती है उसे प्राकृतिक आपदा कहते हैं । उदाहरण स्वरूप,
2004 का हिन्द तूफान, महासागर का सुनामी, 2008 का चीन का भूकम्प, 2007 का म्यांमार
का तूफान, 2015 का नेपाल का भूकम्प, कुछ वर्षों तक राजस्थान में अकाल इत्यादि ।
1. भूकम्प—पृथ्वी के नीचे परतों से अचानक ऊर्जा के उत्पादन के फलस्वरूप भूकम्पी
तरंगें उत्पन्न होती है और इसकी तीव्रता इतनी तेज होती है कि पृथ्वी पर बने इमारतों में हलचल
पैदा होती है। यदि भूकम्प की तीव्रता अधिक होती है तो बड़े-से-बड़े भवन गिर जाते हैं
और भारी जान-मान की क्षति होती है।
    भूकम्प की तीव्रता रिएक्टर स्केल पर मापी जाती है जिसे Chartes E Richter ने 1935
में ईजाद किया। कुछ महत्त्वपूर्ण भूकम्प क्वेटा 1395 में, उत्तर काशी में 1991 में (2000
लोग मृत), लातूर में सितम्बर 1993 में (9475 लोग मृत), भुज गुजरात में जनवरी, 2001 में
(1381 लोग मृत) भारी भूकम्प 2005 में जापान में, पाकिस्तान अक्तूबर 2005 में (30,000
लोग मृत) हुए जिससे भयानक जानमाल की हानि हुई।
2. सुनामी―सुनामी दो शब्दों से मिलकर बना है। Tsu का मतलब बन्दरगाह और
nami का मतलब जापान में तरंगों से है। जब एक बड़ा भूकम्प अधिकेन्द्र अपतटीय स्थिति
में होता है, यह समुन्द्र के किनारे पर पर्याप्त मात्रा में विस्थापन का कारण है जो सुनामी
का कारण है। भूकम्प के झटके कभी-कभी भू-स्खलन और ज्वालामुखी गतिविधियों को
भी पैदा कर देते हैं । सुनामी तरंगे 15 मीटर की ऊँचाई तक जा सकती है जिससे तटीय क्षेत्रों
में भारी तबाही हो सकती है । एक सुनामी में तरंगों की कई श्रेणियाँ हो सकती है जो पचास
किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चल सकती है।
3. बाढ़―किसी भी क्षेत्र में उसकी क्षमता से ज्यादा पानी का आना जो सतह से ऊपर
आकर सूखी जमीन को अपने आगोश में लेता है, बाढ़ है। किसी भी नदी या झील में
उसकी क्षमता से ज्यादा आयतन का पानी का होना जिसको उसकी सतह बाँधकर नहीं रख
सकता है यह सतह से ऊपर आकर सूखे जमीन में जहाँ आबादी होती है, भारी तबाही
मचाता है जिससे जन-धन की अपार क्षति होती है। जैसे—”बिहार के शोक’ के रूप में
प्रसिद्ध कोसी नदी इसका एक उदाहरण है जो प्रत्येक वर्ष उत्तर बिहार में भारी तबाही मचाती
है। बाढ़ का कारण प्रकृति एवं मानवजानित दोनों ही है। उदाहरणार्थ जुलाई 2005 का गुजरात
का बाढ़।
4. चक्रवात―ट्रॉपिकल साइक्लोन बहुत ही शक्तिशाली, खतरनाक एवं वायुमण्डलीय
आँधी-तुफान है जिसे विश्व के अलग-अलग भागों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
कैरेबियन समुद्र तथा दक्षिण-पूर्वी अमेरिका में -Hurricanes के नाम से जाना जाता है।
उत्तरी प्रशान्त महासागर, चीन के दक्षिणी तट, जापान और फिलीपीन्स में Typhoon नाम से
जाना जाता है। बांग्लादेश तथा पूर्वी तटीय क्षेत्र भारत में चक्रवात नाम से जाना जाता है।
Tropical Cyclones ज्यादा खतरनाक होता है जिसकी गति 180-400 किमी०/घंटा होती है।
वर्षा की मात्रा बहुत तीव्र होती है एवं वायुमंडलीय दाब बहुत कम । दिसम्बर 1996 का Cyclone
आंध्र प्रदेश का, उड़ीसा का Cyclone अक्टूबर 1999 का, सितम्बर 2005 का अमेरिका का
Hurricane Rita इत्यादि ।
5. सूखा-सूखा एक ऐसी भयंकर स्थिति है जिसके कारण मनुष्यों, जानवरों, फसलों.
मिट्टी अनाज की भारी क्षति होती है और सूखे के कारण लोग आत्महत्या करते हैं, जानें जाती
हैं। पौधों और जानवरों की जातियाँ खत्म होने लगती हैं। जानवर और पक्षी पलायन करने
लगते हैं।
6. भू-स्खलन—यह ज्यादा पर्वतीय क्षेत्रों में होता है। इसमें अचानक तथा द्रुतगति से
बड़े-बड़े चट्टान पर्वत से जमीन की ओर खिसकने लगते हैं। इससे पर्वत के निचले इलाकों
में रहने वाले लोगों को काफी नुकसान होता है। यह दुर्घटनाएँ ज्यादातर बरसात में होती है।
उदाहरणार्थ―तमिलनाडु के नीलगिरी में 1993 में 40 लोग मारे गये । उत्तरकाशी में सितम्बर
अक्तूबर 2003 में 362 लोग मारे गये तथा 3000 लोगों को निकाला गया।
7.जंगली आग–यह एक अनियंत्रित आग है जो जंगल या मैदानी भागों में लगती है।
इसका मुख्य कारण सूखा, ढनका या बिजली गिरना है। इससे जंगल में कीमती पेड़ों को
तथा जंगली जानवरों को काफी नुकसान होता है तथा यह जानलेवा होता है।
मानवजनित आपदाएँ:
1. दुर्घटनाएँ—जीरो टॉलरेंस.के फेज में तेज गति एवं मशीनीकरण के युग में कई बड़ी
दुर्घटनाएं होती है जिससे भारी जान-माल की क्षति होती है। सरकार एवं प्राइवेट की करोड़ों
की राशि बर्वाद होती है।
(क) सड़क दुर्घटना―जनसंख्या विस्फोट एवं गाड़ियों की अत्यधिक संख्या के मद्देनजर
तीव्र गति से गाड़ियाँ, शराब पीकर एवं मोबाइल से बात करते गाड़ी चलाने तथा गाड़ी की
खराब स्थित के कारण सड़क दुर्घटनाएं होती रहती हैं।
(ख) रेल दुर्घटना―रेलवे पर अत्यधिक बोझ, ट्रैक की बदतर स्थिति, चालकों की
लापरवाही के कारण रेल-दुर्घटना होती है जिससे हजारों-लाखों की जानें जाती है और काफी
सरकारी धन की क्षति होती है।
(ग) हवाई दुर्घटना―इंजन की गड़बड़ी, कुहासा, खराब मौसम, हवाई जहाज में आग
लगने और चिड़ियों के बैठने आदि से हवाई दुर्घटना हो सकती है।
2. आग—यह किसी भी समय और कहीं भी मानवीय भूल के मद्देनजर, शॉट सर्किट
एवं एल.पी.जी. गैस से घरों, कार्यालयों, उद्योगों में आग लग सकती है। जिससे भयंकर
जानमाल, धन की हानि होती है। सिगरेट, बीड़ी भी आग के कारण होते हैं ।
3. आतंकी हमला—फासिस्ट एवं अलगाववादी शक्तियों द्वारा बम विस्फोट, मानवीय बम,
प्लेन हाइजेक होता है जिससे लाखों की संख्या में निर्दोष लोग काल के गाल में समा जाते
हैं। यह एक कातिलाना एवं कायराना हमला है, जिससे व्यापक जानमाल की क्षति होती है।
हमारा देश सदियों से आतंकी हमला का शिकार है। पेंटागन, वाशिटगन बम विस्फोट, मुम्बई,
अक्षरधाम आक्रमण, संसद भवन पर आक्रमण इत्यादि ।
4.जहरीली गैसों का रिसाव एवं औद्योगिक दुर्घटनाएँ―औद्योगिक केन्द्रों से जहरीली
गैसों के रिसाव से भी भारी दुर्घटनाएँ होती हैं। दिसम्बर, 1984 में भोपाल गैस त्रासदी में
मिथाईल आइसोसाइनेट (MIC) के रिसाव से हजारों लोग मारे गए। बहुत सारे लोग अंधे हो
गए और विभिन्न बीमारियों के शिकार हो गए। इस त्रासदी के कारण 1989 तक लगभग
3598 लोगों के मारे जाने की पुष्टि हुई।
5.परमाणु विस्फोट–द्वितीय विश्वयुद्ध में, 1945 ईमें अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा
और नागासाकी दो शहरों पर एटम बम गिराया जिससे दोनों शहर एकदम बर्वाद हो गए ।
भयंकर जानमाल की हानि तो हुई ही, अभी तक वहाँ के वच्चे विकलांग पैदा होते हैं एवं
जमीन अनुर्वर हो चुकी है।
    गंभीर दुर्घटना युक्रेन की राजधानी किव के नजदीक Chernoby Nuclear Rcactor में
1986 में हुई जिसमें 31 लोगों की मौके पर ही मौत हो गई। वहाँ करीब 4000 थॉयराइट
कैन्सर से मारे गए।
6. महामारी― सामान्यतः बाढ़ के बाद वायरस, बैक्टीरिया, फंगस आदि के संक्रमण से
महामारी रोग फैलता है जिससे भारी संख्या में लोग काल-कवलित हो जाते हैं। मलेरिया,
डेंगू, जापानी इंफैलायटिस, प्लेग इस तरह की महामारी है।
प्रश्न 7. आपदाओं से निबटने के लिए कौन-कौन से कारगर उपाय किए जाने
चाहिए ? विस्तृत रूप से वर्णन करें।
उत्तर–प्राकृतिक एवं मानवजनित आपदाएँ भयंकर जानमाल को क्षति पहुँचाती है। ये
मानवीय शोक, अवसाद, दुर्बलताएँ तथा अपार धन की क्षति पीछे छोड़ जाती हैं। हम मानवजनित
आपदाओं को तो नियंत्रित करने का प्रयास कर सकते हैं। परन्तु, प्राकृतिक आपदाओं को
नियंत्रित नहीं किया जा सकता । प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए तथा इसके दुष्परिणाम
को कम करने के लिए हम आपदा से पहले, आपदा के मध्य में तथा आपदा के बाद कुछ
सुरक्षात्मक उपाय अपना सकते हैं।
Common wealth Government के संस्तुतियों एवं निर्देशों के आलोक में आपदा प्रबंधन
के चार तत्त्व हैं―
1. P -Preparedness (तैयारी)
2. R -Response (अनुक्रिया)
3. R -Recovery (पुनः प्राप्ति/आरोग्य लाभ)
4. P -Prevention (निवारण/रोक)
1. Preparedness (तैयारी):
(i) आपदा प्रबंधन का पहला चरण सरकार स्वयं समूह / गैर सरकारी संगठनों के माध्यम
से लोगों में टेलीविजन, समाचार-पत्रों, रेडियों के द्वारा जागरूकता फैलाना तथा
समसामयिक आपदाओं के बारे में जानकारी देना, उन्हें शिक्षित करना।
आपदा प्रबंधन की योजनाओं को अच्छी तरह तैयार करना तथा इससे पूरे समाज
को अंगीभूत करना।
(iii) भौतिक और मानवीय संसाधनों की सूची तैयार करना जो आपदा के समय काम
आएँ।
(iv) लोगों का व्यक्तिगत रूप से आर्थिक मदद करने के लिए जागरूक और प्रोत्साहित करना।
करना।
2. Response Relief( अनुक्रिया या मदद)―आपदा के घटित होने के पहले, आपदा
के दरम्यान या आपदा के घटित होने के बाद के सुरक्षात्मक उपायों को अनुक्रिया या मदद
कहते हैं। यह समाज के द्वारा की जानेवाली सबसे पहली सहभागिता है।
(i) एक नियंत्रण कक्ष हमेशा तैयार करना चाहिए जो आपदा से प्रभावित अपरिपक्व लोगों
की बर्बादी को कम करने के उपायों और रोकथाम की जानकारी और सूचना दें।
(ii) साझा चूल्हा का निर्माण करना जिससे लोगों को भोजन की व्यवस्था हो सकें।
(iii) घायलों के उपचार के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तथा चिकित्सीय व्यवस्था करना।
(iv) गृहविहीन हो चुके प्रभावित लोगों के लिए तत्काल सुरक्षित स्थान तथा आश्रय की
व्यवस्था करना।
(v) खोजी एवं बचाव दल का गठन करना जो खोजे हुए प्रभावित लोगों, जानवरों तथा
अन्य सम्बन्धित चीजों की खोज के लिए प्रशिक्षित लोगों को शामिल करें जो इस
कार्य को संयम तथा ईमानदारी से निभा सकें।
3. Recovery/Rehabilitation (पुनर्वासन)―आपदा से प्रभावित लोगों को फिर से
उचित स्थान पर ठहराने की व्यवस्था ही पुनर्वासन कहीं जाती हैं।
(i) मलवों से छाँटे गए वस्तुओं को स्थानीय एवं नए संसाधनों के साथ मिलाजुला कर
घर तथा भवनों का पुनर्निर्माण करना ।
(ii) प्रभावित लोगों को वित्तीय सहायता प्रदान करना जिससे उन्हें आर्थिक संकटों से
उबारा जा सकें। रोजगार की व्यवस्था करना।
(iii) आपदा के बाद कूड़े-कचरे तथा मलवे से उपयोगी वस्तुओं को छाँटकर अलग रखना
तथा उसे पुनः उपयोग में लाने योग्य बनाना ।
(iv) घरों के निर्माण होने तक अस्थाई घरों का निर्माण करना जिससे बेघर हुए लोगों
को अस्थाई रूप से छत मिल सके।
(v) प्रभावित लोगों में परामर्श द्वारा भावनात्मक बातों से प्रभावित करके मनोबल को
बढ़ाना जिससे वे इस आपदा की घड़ी में अपना हिम्मत नहीं हारे।
(vi) प्रभावित लोगों में संक्रमित बीमारियों के रोकथाम एवं उपचार के लिए चिकित्सीय
दल की उपलब्धता।
4. Prevention (निवारोक/रोक)― ये सभी पहलू आपदा के रोकथाम के लिए पहले
से की जाने वाली उपाय है जिसके द्वारा आपदा के प्रभाव का निवारण किया जा सकता है―
(i) खतरा प्रभावित क्षेत्रों से आबादी को दूर बसाया जाना चाहिए ताकि नुकसान को
कम-से-कम किया जा सकें।
(ii) भवनों का निर्माण आपदारोधी उपायों को ध्यान में रखकर किया जाएँ।
(iii) सामुदायिक जागरूकता लाकर आपदा के कारण निर्वारण एवं बचाव के उपायों के
बारे में समाज के लोगों को शिक्षित तथा जागरूक किया जाना चाहिए ।
प्रश्न 8. विद्यालय अभिलेख से क्या समझते हैं ? विद्यालय अभिलेख के विभिन्न
प्रकारों का परिचय देते हुए इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालें।
उत्तर―विद्यालय अभिलेखों से अभिप्राय समाज अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने
के उद्देश्य से विद्यालय की स्थापना करता है। समाज के सदस्य एक समिति का गठन कर
विद्यालय की जमीन का चयन करते हैं, उसको लेने तथा उस पर विद्यालय भवन का निर्माण
करने और अन्य उपकरणों की व्यवस्था करने के लिए विभिन्न प्रकार से सहयोगपूर्ण प्रयास
करते हैं । शिक्षा विभाग एवं सरकार से पत्र-व्यवहार करते हैं, अध्यापकों एवं अन्य कर्मचारियों
की नियुक्ति करवाते हैं । विभिन्न कक्षाओं में छात्रों का प्रवेश किया जाता है, उनसे प्रवेश शुल्क
आदि लिया जाता है तथा छात्रों के विकास के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन
किया जाता है। विद्यालय की स्थापना, विकास एवं प्रगति से सम्बंधित इन सभी कार्यों का
पूरा-पूरा रिकार्ड रखना जरूरी होता है जिससे संबंधित अधिकारियों को जवाब दिया जा सके।
विद्यालय की त्पत्ति, विकास योजनाओं, कार्यक्रमों, उद्देश्यों, महत्वाकांक्षाओं, उपलब्धियों आदि
सभी के विषय में जानने, वांछित स्तर की प्राप्ति का मूल्यांकन करने के लिए हर कार्य के
अलग-अलग लेखे-जोखे की जांच की जरूरत होती है। अत: अलग-अलग फाइलों या रजिस्टरों
में सभी का पूरा-पूरा लेखा-जोखा अर्थात् विधिवत और व्यवस्थित रूप से सभी सूचनाओं
को लिपिवद्ध रूप में सुरक्षित रखना पड़ता है।
      “विद्यालय की इन सभी सूचनाओं और बातों को फाइलों में लिखकर रखने को ही विद्यालय
के अभिलेख कहा जाता है।”
         “विभिन्न विभागों से होने वाले पत्राचार की प्रतिलिपियों, मूल पत्र रसीद आदि को फाइलों
में संग्रहीत करके रखा जाता है। ये ही विद्यालय के रिकार्ड के नाम से जाने जाते हैं।”
       ये रिकार्ड और रजिस्टर कई प्रकार के होते हैं । कार्यों की विभिन्नता के आधार पर इनका
कई भागों में बाँटा जा सकता है :
    विद्यालय अभिलेख के प्रकार―विद्यालय में विभिन्न प्रकार के अभिलेख होते हैं―
सामान्य अभिलेख–सामान्य रजिस्टर, लॉग बुक, वैठक रजिस्टर, आगंतुक पुस्तिका,
स्टॉफ मिटिंग रजिस्टर, जनसंपर्क अभिलेख, विद्यालय प्रगति पत्रक. आगत-निर्गत पंजी।
    अध्यापक से संबंधित अभिलेख― संवा पुस्तिका, उपस्थिति पंजी, अवकाश पंजी, शिक्षक
डायरी, गोपनीय अभिलेख, प्रगति पत्र ।
       विद्यालय से संबंधित अभिलेख―उपस्थिति पंजी, विद्यालय परित्याग पंजी, नामांकन
पंजी, पोशाक वितरण पंजी, प्रगति पत्रक, प्रगति अभिलेख रजिस्टर, बाल पंजी, छात्रवृति वितरण
पंजी।
उपकरण संबंधी अभिलेख–स्टॉक बुक, प्रयोगशाला पंजी, पुस्तकालय स्टॉक एवं वितरण
पंजी, खेलकूद सामग्री स्टॉक एवं वितरण पंजी।
आँकड़ा संबंधी अभिलेख― विद्यार्थियों का नामांकन, बालक-बालिकाओं की संख्या
(आयु, वर्ग एवं कोटिवार), भौतिक सुविधाओं का वितरण, छात्र-शिक्षक अनुपात, अनामांकित
बच्चों एवं पोषक क्षेत्र के बच्चों की संख्या ।
वित्तीय अभिलेख― रोकड़ पंजी, खाता-वही, आकस्मिक व्यय पंजी, MDM उपयोगिता
पंजी, चेक आगत-निर्गत पंजी, मदवार व्यय विवरणी।
विभिन्न अभिलेखों की उपयोगिता :
(i) विद्यालय वार्षिक विवरणी—इस अभिलेख के आधार पर विद्यालय की भौतिक
स्थित, विद्यार्थियों की सामाजिक तथा शैक्षिक स्थिति एवं वित्तीय आय-व्यय का लेखा किया
जाता है।
(ii) नामांकन पंजी—यह एक अधिकाधिक अभिलेख है, जो किसी भी विद्यार्थी का
विद्यालय में नामांकन की पुष्टि करता है। इसके आधार पर सभी विद्यार्थियों के पारिवारिक
विवरण के साथ ही जन्म तिथि, पता, जाति, धर्म, पारिवारिक शैक्षिक स्थिति आदि की जानकारी
प्राप्त हो जाती है।
(iii) MDM से संबंधित पंजी—इसके द्वारा विद्यालय में प्रतिदिन दिए जाने वाले भोजन
और छात्रों की संख्या के संबंध में जानकारी प्राप्त हो जाती है।
(iv) छात्र उपस्थिति पंजी—इसके द्वारा छात्र की विद्यालय में उपस्थिति और अनुपस्थिति
की जानकारी प्राप्त होता है।
(v) शिक्षक उपस्थिति पंजी―इसके द्वारा शिक्षकों को विद्यालय में उपस्थिति एवं
अनुपस्थिति की जानकारी प्राप्त होती है।
(vi) सूचना पंजी―इस पंजी के अवलोकन से विद्यालय में संचारित किए जाने वाले
सहशैक्षिक गतिविधियों को जानकारी होती है, साथ ही प्रत्येक कार्यों का विकेन्द्रीकरण कितना
किया गया इसका भी पता चलता है।
(vii) रोकड़ पंजी―इस पंजी में विद्यालय में प्रदत्त सभी प्रकार की निधियों का
लेखा-जोखा संधारित रहता है। विद्यालय को प्राप्त कुल राशि, खाते में शेष कुल राशि का
विवरण इसमें दर्ज होता है।
प्रश्न 9. विद्यालय अभिलेखों की व्यवस्था एवं रख-रखाव किस प्रकार किया जाता
है? वर्णन करें।
उत्तर― विद्यालय के अभिलेख, रजिस्टर एवं फाइलें मुख्याध्यापक एवं शिक्षकों को
विद्यार्थियों के बारे में आवश्यक सूचनाएँ प्रदान करने में सहायता करते हैं। इसके आधार पर
ही वे अपने कक्षा शिक्षण के कार्य में सुधार लाने का प्रयास करते हैं। अध्यापकों को न
केवल छात्रों की प्रगति का ज्ञान होता है वरन् अपनी कार्यकुशलता का पता भी चल जाता
है। ये अभिलेख हो छात्रों का उचित रूप से वर्गीकरण करने, उनको कक्षा में उन्नति करने
एवं उचित व्यवस्थापन के कार्य में अध्यापकों की मदद करते हैं। विभिन्न स्तरों एवं विभागों
के शिक्षा अधिकारियों को इन्हों अभिलेखों के आधार पर विद्यालय संबंधी सभी सूचनाएँ दी
जाती हैं। ये अभिलेख ही विद्यालय में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त धन का उचित हिसाब रखने
और उसका सदुपयोग करने में सहायता करते हैं, परन्तु यह सब कार्य तभी हो सकता है जबकि
अभिलेखों और रजिस्टरों का रख-रखाव बहुत सावधानी के साथ, नियमित एवं स्पष्ट रूप
से किया जाए।
     विद्यालय का कार्य किसी एक व्यक्ति का अपना कार्य नहीं है। यह एक सामूहिक कार्य
है, परन्तु हर एक को जवाब देने का दायित्व मुख्याध्यापक का ही होता है, अत: उसे अपने
विद्यालय के सभी अभिलेखों एवं रजिस्टरों से वांछित सूचना स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाए, इसके
लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए―
1. विद्यालय के प्रत्येक अभिलेख या सूचना के लिए अलग-अलग रजिस्टर और फाइलें
रखनी चाहिए जिससे जिस प्रकार की सूचना लेनी हो उसी रजिस्टर या फाइल को
तुरन्त देखा जा सके।
2. सभी अभिलेखों में पूर्णता होनी चाहिए। उसमें सम्बंधित सभी सूचनाएँ पूरी तरह
से अंकित होनी चाहिए।
3. विद्यालय अभिलेखों में जो भी सूचनाएँ अंकित हों वे वैध, विश्वसनीय और सही
होनी चाहिए।
4. सभी सूचनाएँ नियमित रूप से अंकित की जानी चाहिए। अभिलेखों की नियमित
जाँच भी होनी चाहिए।
5. विभिन्न सूचनाओं को अभिलेखों में दर्ज करने में देरी नहीं करनी चाहिए।
6. अभिलेख सरल और पूर्ण होने चाहिए। उनमें किसी प्रकार की जटिलता नहीं होनी
चाहिए।
7. विद्यालयों के अभिलेख और रजिस्टरों में साफ-साफ लिखा जाना चाहिए जिससे
उस पढ़ने से परेशानी न हो।
8. अभिलेखों को बहुत सावधानी में लिखना चाहिए। किसी प्रकार की कटिंग नहीं होनी
चाहिए। यदि कटिंग करना आवश्यक हो तो उस पर लाघु हस्ताक्षर कर देने चाहिए।
9. अभिलखो में लिखे हुए के ऊपर नहीं लिखना चाहिए। यदि काई त्रुटि हो और
उसे ठीक करना हो तो लाल स्याही से शुद्धि करनी चाहिए उस पर मुख्याध्यापक
के हस्ताक्षर भी करा लेने चाहिए। किसी भी स्थिति में लिखे हुए को ब्लेड या
चाकू से खरोंचना नहीं चाहिए, स्याहो दूर करने की विधि का प्रयोग करना चाहिए।
10. सभी रिकार्ड एवं रजिस्टरों को रखने के लिए अलग कमरा और अलग अलमारियाँ
होनी चाहिए।
11. सभी रिकार्ड व रजिस्टरों को अलमारियों में ताले में बन्द करके रखना चाहिए जिससे
वे पूरी तरह से सुरक्षित रहें।
12. स्कूल के रिकार्ड को विद्यालय से वाहर ले जाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
13. रजिस्टरों में से कोई भी पृष्ठ फाड़ना नहीं चाहिए।
14. सभी रजिस्टरों को अच्छी प्रकार से जिल्द बंधी होनी चाहिए।
15. प्रत्येक रजिस्टर के पृष्ठों पर जिल्दसाज से अंक लगाने की मशीन से अंक लगवा
लेने चाहिए या लाल स्याही से हर पृष्ठ पर नम्बर डाल देने चाहिए।
16. जब भी कोई नया रजिस्टर लगाना हो तो उसके बाहरी पृष्ठ पर निम्न बातें अवश्य
लिखी होनी चाहिए:
(i) विद्यालय का नाम
(ii) रजिस्टर का नाम
(iii) रजिस्टर का क्रमांक
(iv) रजिस्टर का भाग क्रम
(v) रजिस्टर में कुल पृष्ठों की संख्या
(vi) रजिस्टर के शुरू करने व बंद करने की तिथि
17. विद्यालय के सभी रजिस्टरों की एक सूची तैयार कर लेनी चाहिए। उस सूची में
रजिस्टर का नाम, उसको क्रम संख्या व उसके इंचार्ज का नाम लिखा होना चाहिए।
यह सूची मुख्याध्यापक को मेज पर शीशे के नीचे रखी जानी चाहिए। इससे किसी
भी रजिस्टर को ढूंढने में पेरशानी नहीं होगी।
18. सभी फाइलों के प्रथम पृष्ठ पर रजिस्टर की तरह आवश्यक सूचनाएँ लिखी होनी
चाहिए। फाइलों के अन्दर का प्रथम पृष्ठ खाली छोड़ देना चाहिए जिससे उस
पर फाइल की विषय-वस्तु लिखी जा सके। फाइल के हर पृष्ठ पर भी नम्बर
पड़े होने चाहिए।
19. एक रजिस्टर को पूरा भर जाने पर ही नया रजिस्टर लगाना चाहिए। कई विद्यालयों
में हर वर्ष नया रजिस्टर शुरू कर देते हैं। चाहे पुराने रजिस्टर में पृष्ठ खाली क्यों
न पड़े हों। यह अनुचित है।
20. रजिस्टर एवं अभिलेखों को हमेशा स्याही से लिखना चाहिए, पेन्सिल से नहीं।
21. रजिस्टर के हर कालम को साफ-साफ भरना चाहिए। कोई भी कलम खाली नहीं
छोड़ना चाहिए।
प्रश्न 10. शिक्षा के अधिकार और विद्यालय में परिवर्तन विषय पर अपने विचार
व्यक्त करें।
उत्तर―शिक्षा का अधिकार, 2009 भारतीय शिक्षा के फैलाव की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण
कदम है। यह अधिकार अकस्मात् ही पारित नहीं हुआ, इसकी पृष्ठभूमि काफी पुरानी है।
शिक्षा के अधिकार का मुख्य लक्ष्य सभी को शिक्षा प्रदान करना तथा शिक्षा से वंचित तबकों
के लिए 6 से 14 वर्ष के बच्चों को विशेष रूप से प्रारंभिक शिक्षा के दायरे में लाना है।
उक्त लक्ष्य को हासिल करने के लिए विद्यालय की व्यवस्था में कई तरह से बदलाव अपेक्षित
है। ये बदलाव विद्यालय की भौतिक संरचना से लेकर विद्यालय के प्रशासनिक ढाँचे तक
के सभी आयामों से सम्बन्धित है जिसमें अध्यापकों, प्रधानाध्यापक, प्रबंधन, अभिभावकों तथा
बच्चों की भूमिका में भी बदलाव शामिल है।
शिक्षा के अधिकार के कुछ प्रावधानों की वजह से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में भी कुछ
बदलाव अपेक्षित है। इन बदलावों को क्रियात्मक रूप देने के लिए भी विद्यालय की व्यवस्था
में परिवर्तन आवश्यक है। शिक्षा का अधिकार कानून संविधान के 86वें संशोधन के द्वारा
2009 में पारित हुआ और 1 अप्रैल, 2010 से लागू किया गया। यह अधिकार हमें सरकार
से स्वतः नहीं मिला है, बल्कि इसके पीछे एक लम्बा इतिहास है। भारत में अंग्रेजी सरकार
के शिक्षा के सुधार के नाम पर कई प्रस्ताव सुझाये गए । भारतीय संविधान सभा में भी शिक्षा
के मुद्दे पर काफी बहस हुई। संविधान निर्मात्री समिति के अध्यक्ष डॉ॰बी॰आर॰ अम्बेडकर
सहित कई सदस्य शिक्षा के अधिकार को भारतीय संविधान के तीसरे भाग में दिए गए मूल
अधिकारों में शामिल करना चाहते थे। इसके विपरीत, शिक्षा को नीति-निर्देशक सिद्धांतों के
अन्तर्गत अनुच्छेद 45 के तहत शामिल किया गया। अनुच्छेद 45 में कहा गया कि “राज्य
यह करेगा कि संविधान के लागू होने के 10 वर्ष के भीतर 14 वर्ष तक के सभी बच्चों
की निःशुल्क एवं अनिवार्य बुनियादी शिक्षा प्रदान की जाए।”
              इसके मायने यह थे कि 10 वर्ष के भीतर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा
की समुचित व्यवस्था पूरे देश में केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा कर ली जानी चाहिए। यह
एकमात्र ऐसा नीति निर्देशक सिद्धान्त था जिसके लिए समय-सीमा निर्धारित की गई थी जिसमें
यह प्रतीत होता है कि संविधान-सभा शिक्षा के अधिकार के प्रति काफी गंभीर थे।
       शिक्षा से जुड़ी व्यवस्था को लागू करना केन्द्र या राज्य सरकारों की अनिवार्य जिम्मेवारी
नहीं थीं। इसीलिए सरकारों ने विभिन्न कारणों के चलते उपरोक्त लक्ष्य हासिल करने के
लिए अपेक्षित ध्यान नहीं दिया। इस संदर्भ में 1993 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्नीकृष्णन्
वनाम आंध्र प्रदेश सरकार के मुकदमे में दिए गए निर्णय से महत्त्वपूर्ण मोड़ आया । इस निर्णय
को आमतौर पर उन्नीकृष्णन् निर्णय कहा जाता है। संविधान के चौथे भाग में दिए गए अनुच्छेद
45 को संविधान के तीसरे भाग में दिए गए मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 21 में दी
गई जीवन जीने की स्वतंत्रता के साथ जोड़कर साकारात्मक रूप से पढ़ना चाहिए क्योंकि
ज्ञान हासिल करने के अवसरों के अभाव में जीवन जीने की स्वतंत्रता निरर्थक है, अत: हम
ज्ञान के बिना जीवन को पूरी स्वतंत्रता के साथ नहीं जी सकते । इस तरह सर्वोच्च न्यायालय
ने उक्त निर्णय में 6 से 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य
शिक्षा को मूल अधिकार का दर्जा दे दिया। लेकिन इसे वास्तव में मूल अधिकार बनाने हेतु
संसद द्वारा कानून पारित करने की आवश्यकता थी।
     सन् 1997 में सरकार द्वारा उक्त विषय पर सुझाव देने के लिए गठित की गई ‘साधकीय
समिति’ ने यह सिफारिश की कि शिक्षा के अधिकार को ‘मूल अधिकार’ बनाया जाएँ और
इसके लिए संविधान में आवश्यक संशोधन किया जाए । इन्हीं सिफारिशों के आधार पर 2002
में तत्कालीन सरकार ने संविधान के 86वें संशोधन विधेयक बनाने में 8 वर्ष लग गए और
यह 2009 में पारित किया गया। इस विधेयक के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 21 में “जो
कि जीवन जीने की स्वतंत्रता से सम्बन्धित है।” अनुच्छेद 21 (A) में जोड़ा गया जिसमें कहा
गया कि राज्य 6 से 14 वर्ष तक के आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा
प्रदान करेगा।
प्रश्न 11. शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 के मुख्य प्रावधानों का उल्लेख
उत्तर–शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं―
1. 6 से 14 वर्ष की आयु वाले सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान
करें।
करना केन्द्र तथा राज्य सरकारों की जिम्मेवारी होगी।
2. हरेक आवासीय क्षेत्र के 1 किमी के दायरे में कक्षा 5 तक का प्राथमिक विद्यालय
होगा।
3. हरेक आवसीय क्षेत्र के 3 किमी० दायरे में कक्षा 8 तक का मध्य विद्यालय होगा
ताकि बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए घर से बहुत दूर न जाना पड़े। यह प्रावधान इस
तथ्य को ध्यान में रखते हुए शामिल किए गए हैं कि देश के विभिन्न राज्यों में बहुत से बच्चे
विशेष रूप से लड़कियाँ विद्यालय को घर से दूर होने की वजह से पढ़ाई छोड़ देती हैं।
4. प्रारम्भिक शिक्षा यानी कक्षा-8 तक के वर्गों की पढ़ाई या 14 वर्ष की आयु पूरी
होने तक किसी भी बच्चे को किसी भी कक्षा में असफल घोषित नहीं किया जा सकता।
ऐसा इसलिए किया गया है कि बच्चों पर पढ़ाई और परीक्षा का अतिरिक्त मानसिक दबाव
ना पड़ें तथा वे स्वतंत्रतापूर्वक जीवन के सभी क्षेत्र में सीखने की कोशिश करें ।
5. किसी भी बालक या बालिका को उसकी आयु के अनुसार वर्ग में प्रवेश प्रदान करने
में कोई भी विद्यालय इंकार नहीं करेगा । उदाहरण के लिए, अगर किसी बालक/बालिका की
आयु 12 वर्ष है तो कक्षा 6 में प्रवेश देना होगा। विद्यालय के अध्यापकों व प्रबंधन से यह
अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे बच्चों को उनकी आयु के समकक्ष वर्ग और पहले की कक्षाओं
की तैयारी करवाएँ तथा सम्बन्धित वर्ग के लायक बनाएँ । इस प्रावधान के पक्ष में तर्क दिया
जाता है जिन बच्चों को इस अधिकार के पहले शिक्षा प्राप्त करने के समुचित अवसर नहीं
मिले हैं। वे शिक्षा प्राप्ति के अवसरों से वंचित नहीं रहे तथा आयु अधिक हो जाने की वजह
से पिछड़े भी न हों।
6. कुछ प्रावधानों के द्वारा धार्मिक और भाषाई आधार पर नीति समूह द्वारा चलाए जा
रहे अल्पसंख्यकों के नीति विद्यालयों के अलावा हर तरह के नीति विद्यालयों एवं केन्द्र सरकार
और उसके प्रतिष्ठानों द्वारा चलाए जा रहे विद्यालयों जैसे—केन्द्रीय विद्यालयों, नवोदय विद्यालयों,
सैनिक स्कूलों आदि में 25% सीटें गरीब तबके के बच्चों से भरी नहीं जाती तब तक कोई
विद्यालय ऐसे बच्चों को प्रवेश देने से इंकार नहीं कर सकता।
7. जिन बच्चों को निजी एवं उच्चस्तरीय माने जाने वाली सरकारी विद्यालयों में आरक्षण
के आधार पर प्रवेश दिया जाएगा उन बच्चों के हिस्से की फीस को उस राज्य की राज्य
सरकार या केन्द्र सरकार द्वारा विद्यालय को विद्यालय में होनेवाली प्रति विद्यार्थी कुल खर्च
की दर से किया जाएगा।
8. विभिन्न विद्यालयों में प्रवेश देने समय विद्यार्थी तथा अभिभावकों के साथ साक्षात्कार
नहीं किए जाएंगे और ना ही आरक्षित कोटे में कैपिटेशन फीस । दानशुक्ल लिया जा सकता
है। यद्यपि शिक्षा के अधिकार अधिनियम से यह अपेक्षा की जाती है कि इसमें समान स्कूल
प्रणाली को विकसित करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए जाएंगे।
लेकिन, विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक कारणों के चलते ऐसा नहीं हुआ । उपरोक्त
दोनों प्रावधानों के द्वारा अधिनियम में यह प्रयास किया गया है कि सामाजिक न्याय तथा सामाजिक
समानता की तरफ एक कदम बढ़ाने की कोशिश की जाए । विभिन्न विद्यालय इन प्रावधानों से
बचने के लिए स्वयं को अल्पसंख्यक विद्यालय की श्रेणी में लाने के उचित और अनुचित प्रयास
कर रहे हैं। कई ऐसे विद्यालय भी हैं, जो इन प्रावधान की तरफ समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं।
प्रश्न 12. शिक्षा के अधिकार के प्रावधानों की वजह से विद्यालय व्यवस्था में
बदलाव की आवश्यकता महसूस होती है ?
अथवा, समावेशी शिक्षा के कारण विद्यालय में होनेवाले परिवर्तनों का उल्लेख करें।
उत्तर―आज समावेशी शिक्षा के दायरे में सिर्फ विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ही नहीं
अपितु वंचित बच्चे भी आने लगे हैं और समावेशी शिक्षा का दायरा बढ़ गया है। इसलिए
समुचित विद्यालय प्रबंधन के बिना इन सबको समावेशी शिक्षा प्रदान करना संभव नहीं है।
विद्यालय प्रबंधन अपनी सामाजिक हैसियत की वजह से समावेशी शिक्षा के लिए कई तरह
के कार्य कर सकता है।
    विद्यालय प्रबंधन समाज के विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण
विकसित कर सकता है ताकि लोग ऐसे बच्चों को साकारात्मक दृष्टि से देंखे। प्रबंधन अपने
क्षेत्र के लोगों में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का विद्यालयों में दाखिल करवाने के सम्बन्ध
में जागरूकता पैदा कर सकता है।
समावेशी शिक्षा के लिए विद्यालय भवन की संरचना में परिवर्तन, आवश्यक सहायक
उपकरण की व्यवस्था, शिक्षक एवं विद्यालय प्रबंधन को आवश्यक प्रशिक्षण एवं निर्देशन प्रदान
करके नई विद्यालयो व्यवस्था के निर्माण की बात होनी चाहिए जिसके अन्तर्गत निम
वातों पर बल दिया जाना चाहिए―
1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के मन से उनकी हीनभावना को समाप्त किया जाना
चाहिए।
2. सामान्य बच्चों के साथ परस्पर अन्तः क्रिया और मेल मिलाप ।
3. बच्चों के लिए विशेष शैक्षिक तकनीकों का सहारा लेना जो सामान्य बच्चों के लिए
रोचक हो।
विद्यालय में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए
कई तरह के ढाँचागत बदलावों की आवश्यकता होती है। जैसे—रैंकों का निर्माण, व्हील चेयरों
की व्यवस्था, समुचित स्थानों पर शौचालय एवं पीने के पानी का प्रबंध, कक्षाओं के बड़े
दरवाजे वाले कमरें, अल्पदृष्टिवाले बच्चों को बच्चों के अनुकूल श्यामपट्ट इत्यादि, उक्त सारी
व्यवस्थाएँ करवाने में विद्यालय प्रबंधन सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
    विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए जिन तकनीकी उपकरणों यथा कैलिपरस, कृत्रिम
जूते, Hear Aids. आदि एकत्रित करने में विद्यालय प्रबंधन इससे जुड़ी संस्थाओं से सहयोग
ले सकता है।
    विद्यालय प्रबंधन सामान्य बच्चों को विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति साकारात्मक
दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता कर सकता है। समावेशी शिक्षा प्रदान करने के लिए
विद्यालय की भौतिक संरचना तथा विद्यालय में होने वाली शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में व्याप्त
बदलावों की आवश्यकता है।
       शिक्षकों को भी अपने देखरेख में इन विशेष आवश्यकता वाले बच्चों तथा सामान्य बच्चों
से अन्तःक्रिया करवानी चाहिए ताकि इनके मन से भेदभाव की भावना निकल सके।
      समावेशी कक्षा में शिक्षण अधिगम संचालन हेतु तकनीकी का अधिक-से-अधिक उपयोग
किया जाना चाहिए। आजकल कम्प्यूटर आधारित अथवा कम्प्यूटर उपलब्ध है जिससे विशेष
आवश्यकता वाले बच्चे बहुत से कार्य सामान्य ढंग से कर सकते है। शिक्षण अधिगम प्रणाली
में इन विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यकतानुसार बदलाव ही उन्हें समस्त सामान्य
बच्चों के साथ समान रूप से भागीदार बना सकता है―
1. दृश्य श्रव्य सामग्री का उपयोग
2. खेल विधि का अधिकतम संचालन
3. समूह चर्चा
4. आगमन विधि पर बल ।
5. स्वयं करके सीखने के लिए प्रेरित करना ।
6. प्रोत्साहित करना इत्यादि कार्य किए जा सकते हैं।
प्रश्न 13. सूचना एवं संचार तकनीकी के आधुनिक शिक्षा में प्रयोगों या सूचना
एवं संचार तकनीकी के लाभों का वर्णन करें।
अथवा, सूचना एवं संचार तकनीक की सहायता से शिक्षकों एवं छात्रों में किस
तरह के बदलाव आने की संभावना है?
उत्तर―सूचना एवं संचार तकनीक की सहायता से शिक्षा का विशेष रूप से प्रचार-प्रसार
हुआ है। उपग्रहों की मदद से चलने वाले रेडियों, टेलीविजन के अनेक शैक्षणिक कार्यक्रम
देश के सुदुर क्षेत्र तक पहुँचने में सफल हुए हैं । शिक्षक और छात्र कम्प्यूटर तथा इंटरनेट
के माध्यम से कई शैक्षणिक कार्यक्रमों का लाभ उठा रहे हैं। सूचना एवं संचार तकनीक
की सहायता से शिक्षकों और छात्रों में निम्नलिखित तरह के बदलाव हो रहे हैं―
1. सूचना एवं संचार तकनीक शिक्षण कार्य को उद्देश्य केन्द्रित बनाने में तथा छात्र
केन्द्रित रखने में सहायता और प्रभावशाली निर्देशन प्रदान करती है।
2. यह छोटे तथा बड़े समूह में एवं व्यक्तिगत स्तर पर भी शिक्षण एवं अधिगम सम्बन्धी
उद्दीपन तथा अनुक्रिया प्रदान करके शिक्षक के गुणात्मक योग्यता का विस्तार कर
रही है।
3. यह तकनीक शिक्षक को Learning Plan प्रस्तुतीकरण को प्रभावशाली बनाने में
सहायता करती है।
4. सूचना एवं संचार तकनीक शिक्षण प्रक्रिया को सरल, सुगम तथा रोचक बनाकर
छात्रों के ज्ञान एवं अनुभव की वृद्धि में सहायक होती है।
5. यह शिक्षण में विविधता लाने के लिए विभिन्न विद्याओं एवं साधनों का प्रयोग करती
है जो छात्रों में समझ स्थापित करने की दिशा में अग्रणी है
6. यह तकनीक विद्यार्थियों की कक्षा कार्य में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करती है।
7. यह शिक्षक को ऐसी प्रक्रियाओं और साधनों का ज्ञान देने का प्रयास करती है जो
उपचारात्मक शिक्षण, शोध तथा अन्य सम्बन्धित कार्यों में मदद देती है।
8. Self Inspectional Programmes के माध्यम से यह तकनीक Individual
Instruction के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
9. यह तकनीक शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को अधिक जीवन्त, रोचक, प्रेरक तथा सक्रिय
बनाकर शिक्षण में सुधार लाकर शिक्षण की गुणवत्ता में वृद्धि करती है।
10. सूचना एवं संचार तकनीकी अपने साधनों का उपयोग करते हुए दूर-दराज क्षेत्रों
में एक साथ बड़ी जनसंख्या तक पत्राचार तथा दूरस्थ शिक्षा आदि के द्वारा शिक्षा
पहुँचाने में सहायता देती है।
11. शिक्षार्थियों के आर्थिक, सामाजिक तथा भौगोलिक स्तर पर बिना ध्यान दिए हुए
सूचना एवं संचार तकनीक सभी के लिए समान शिक्षा के अवसर प्रदान करने के
लिए एक शक्तिशाली साधन है।
12. टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट, कम्प्यूटर आदि साधनों के माध्यम से यह सेवारत शिक्षकों
एवं कर्मचारियों के लिए अनवरत शिक्षा के द्वार खोलती है।
13. यह घर में बैठे-बैठे उपाधियाँ प्राप्त करने में सहायक होती है।
14. सूचना एवं संचार तकनीक अध्यापक को सीखने की प्रभावपूर्ण विधियों तथा सिद्धांतों
का ज्ञान प्रदान करती है, सीखी हुई विषय-वस्तु को स्थायी करने की विभिन्न
प्रक्रियाओं का अध्ययन करती है तथा छात्रों में सीखने के प्रति प्रेरण जाग्रत करने
में तथा उनकी रूचि बनाए रखने में सहायता करती है।
इसमें कोई संदेह नही कि सूचना एवं संचार तकनीकी अध्यापक की कार्यकुशलता में
वृद्धि करती है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को रोचक, सरल व प्रभावशाली बनाने में शिक्षक
की बहुत अधिक सहायता करता है। शिक्षा की संरचना व उसकी प्रकृति को स्पष्ट करके
यह अध्यापक को अनुसंधान के लिए प्रेरित करती हैं जिससे शिक्षण में गुणात्मक उन्नति संभव
हो सके । इसके प्रयोग से अध्यासमय तथा शक्ति को वचत होती है । यह अध्यापक
को अनेक समस्याओं का उचित समाधान तलाश करने में सहायता प्रदान करती है।
सूचना एवं संचार तकनीकी ने शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को अत्यन्त सरस व सरल बना
दिया है। आज अध्यापक कम से कम शक्ति लगाकर कम-से कम समय म अधिक से अधिक
छात्रों को शिक्षा प्रदान कर सकता है।
प्रश्न 14. वर्तमान समय में शिक्षा का सार्वभौमिकरण क्या है तथा शिक्षा द्वारा
विद्यालय व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन किये गये ? वर्णन कीजिए।
उत्तर–वर्तमान समय में शिक्षा के सार्वभौमिकरण में निम्न तीन बातें सम्मिलित हैं―
I. नामांकन की सार्वभौमिकता।
II. शिक्षा में बने रहने की सार्वभौमिकता।
III. उपलब्धियों की सार्वभौमिकता।
I. नामांकन की सार्वभौमिकता― नामांकन की सार्वभौमिकता से हमारा तात्पर्य है कि
विद्यालय जाने योग्य उम्र के सभी बालक चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, प्रजाति, क्षेत्र, लिंग
या भाषा के हो, बिना किसी भेदभाव के अपना नाम किसी-न-किसी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण
कराने के लिए लिखायें।
    देखने में आता है कि आज भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त किये 69 वर्ष व्यतीत हो गये हैं,
फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में सार्वभौमिकता हम नहीं ला पाये हैं। आज भी एक बड़ी संख्या
में बालक विद्यालय में अपना नाम लिखाने से वंचित रह जाते हैं। इस समाज से निरक्षरता
जितनी कम करने के प्रयास कर रहे हैं, यह उतनी ही बढ़ रही है। हम प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा
शिक्षित करने की महत्त्वाकांक्षी योजना बना बैठे हैं, किन्तु वालकों की वह कतार जो नाना
कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा ही है, धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है इसके अनेक कारण
हैं,जैसे―
1. देश की बढ़ती हुई जनंसख्या
2. निर्धनता,
3. बालक की शिक्षा के प्रति कुछ वर्गों की उदासीनता,
4. पर्याप्त विद्यालयों का अभाव,
5. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम,
6. अनाकर्षक विद्यालय तथा शिक्षण विधियाँ,
7. सामाजिक विषमताएँ,
8. दूषित शिक्षा प्रणाली।
नामांकन की सार्वभौमिकता को सफल बनाने हेतु कोठारी आयोग ने निम्नांकित सुझाव
दिये―
1. भारत में आयु-वर्ग के क्षेत्र में विद्यालयों में जो विषमताएँ हैं, उन्हें दूर किया जाये तथा
6 से 11 वर्ष की आयु के बच्चों को विद्यालय में नाम लिखवाने हेतु प्रेरित किया जाये ।
2. बालक प्रथम दिन जब विद्यालय आये, उसी दिन उसका नामांकन कर लिया जाये ।
3. उपस्थिति अधिकारी अधिक जागरूक बनें।
4. अनिवार्य शिक्षा अधिनियम का कठोरता से पालन किया जाये।
ग्रामीण तथा दुरूह क्षेत्रों में नामांकन की सार्वभौमिकता की दिशा में विशेष कठिनाइयाँ
आ रही हैं। यहाँ अधिकतर 9 वर्ष व इससे अधिक आयु के बच्चे प्रथम कक्ष में प्रवेश ले
लेते हैं, किन्तु शिक्षाधिकारीगण तथा अभिभावकों की अजागरूकता तथा अशिक्षा एवं निर्धनता
के कारण देश में नामांकन को सार्वभौम बनाने में अभी तक सफलता नहीं मिली है। इस
दिशा में कोठारी आयोग द्वारा सुझाये गये प्रस्तावों के अलावा भी हमें कुछ अन्य उपाय करने
होंगे, जैसे―
1. शिक्षा की संरचना में आवश्यक परिवर्तन एवं सुधार लाये जायें।
2. नामांकन को अधिकतम बनाने हेतु उपयोगी एवं व्यावहारिक योजनायें बनायी जायें।
3. ऐसी व्यवस्था हो कि प्रत्येक बालक को एक किलोमीटर के अन्दर स्कूल उपलब्ध
हों।
4. पंजीकरण प्रणाली लागू की जाये।
5. प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह निःशुल्क हो।
6. पाठ्यक्रम में सरूपता लायी जाये।
7. प्रवेश के मानदण्ड निष्पक्ष हों।
8. स्थानान्तरित छात्रों की कठिनाइयाँ दूर की जायें।
9. विद्यालयों के निरीक्षण एवं परिवीक्षण को उपयोगी बनाया जाये ।
10. ‘सबके लिए शिक्षा’ आन्दोलन के लिए जनसाधारण में जागरूकता लायी जाये।
II. शिक्षा में बने रहने की सार्वभौमिकता― नामांकन की सार्वभौमिकता से तात्पर्य
सभी उपयुक्त छात्रों का विद्यालय में प्रवेश लेने से है, किन्तु विद्यालय में प्रवेश ले लेना ही
पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि बालक विद्यालय में प्रवेश ले तथा शिक्षण
के एक स्तर को पूरा करने तक विद्यालय में ही बने रहे । एक स्तर की शिक्षा पूरी होने से
पूर्व ही विद्यालय छोड़ देने से उसकी शिक्षा व्यर्थ हो जाती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई
बालक कक्षा एक में प्रवेश लेता है तो उसे प्राइमरी शिक्षा पूरी करनी चाहिए। वह तब तक
विद्यालय में रहे जब तक कि उसकी प्राइमरी शिक्षा पूरी नहीं हो जाती। किन्तु देखा गया
है कि नाना कारणों से बालक एक स्तर की शिक्षा पूरी किये बिना ही विद्यालय छोड़ देते
हैं। अपनी शिक्षा पूरी किये बिना बीच में विद्यालय छोड़ देना तकनीकी शब्दों में अपव्यय
कहलाता है। उदाहरण के लिए, जब कोई बालक किसी विद्यालय में कक्षा छ: में प्रेवश लेता
है तथा कक्षा सात में जाकर पढ़ाई छोड़ देता है तो यह सार्वभौमिकता की धारणा न होकर
अपव्यय कहलायेगा, क्योंकि उसने एक-डेढ़ साल व्यर्थ ही पढ़ा, वह पढ़ाई बेकार हो गयी।
उसके परिश्रम, धन तथा आयु का अपव्यय हुआ।
III. उपलब्धियों की सार्वभौमिकता–सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक दृष्टि से किसी
विद्यालय के किसी छात्र का नामांकन होना तथा एक निश्चित स्तर की शिक्षा पूरी करना ही
आवश्यक नहीं है, यह भी आवश्यक है कि वह अपने शिक्षा-जीवन में अच्छी उपलब्धि प्रदर्शित
करे। उपलब्धि की सार्वभौमिकता से आशय है कि छात्र किसी भी कक्षा में एक वर्ष से अधिक
न रुके अर्थात् वह किसी भी कक्षा की परीक्षा में अनुत्तीर्ण न हो। उसकी उपलब्धि ऐसी
हो कि वह हर वर्ष आगामी कक्षा में प्रोन्नत होता रहे । एक ही कक्षा में एक वर्ष से अधिक
का ठहराव या रुकना या असफल होना अवरोधन कहलाता है।
प्रश्न 15. आप कक्षा प्रबंध से क्या समझते हैं? कक्षा प्रबंध के विभिन्न घटकों
का उल्लेख कीजिए। कक्षा प्रबंध के लिए विभिन्न दिशा-निर्देशों का वर्णन करें।
अथवा, कक्षा की व्यवस्था पर टिप्पणी करें।
उत्तर― कक्षा प्रबंध से मेरा अभिप्राय है कक्षा में ऐसी परिस्थिति पैदा करना जिसमें अधिगम
का सुचारू रूप से संवर्धन हो । कक्षा के संसाधनों, अधिगम क्रियाकलापों का प्रबंध ही कक्षा
प्रबंधन है।
कक्षा प्रबंध में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देते हैं―
(i) परिवेश का निर्माण― शिक्षार्थियों के अवरोधक व्यवहारों की पहचान कर उन्हें दूर करने
का उपाय करते हैं। उचित व्यवहारों को प्रोत्साहित एवं प्रबलित करते हैं कक्षा में प्रवेश, बैठने,
पाठ पढ़ने के लिए तैयार होने, पाठ प्रस्तुत के समय सक्रीय एवं सहकारी बनने तथा पाठ समाप्ति
पर कक्षा छोड़ने के कुछ दिशा निर्देशों को लागू करके उचित परिवेश का निर्माण कर सकते हैं।
(ii) शिक्षण-अधिगम क्रियाकलाप―समूह बनाकर, गतिविधियों एवं क्रियाकलापों को
आयोजित कर, मॉनिटरिंग करके कक्षा व्यवस्था बना सकते हैं।
(iii) कक्षा विन्यास― शिक्षार्थियों के बैठने के लिए फर्नीचर, श्यामपट्ट, नक्शे, चार्ट
आदि की उचित स्थिति कक्षा प्रबंध के लिए आवश्यक है।
कक्षा प्रबंध के घटक―कक्षा प्रबंध के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं―
(i) वांछित व्यवहार के लिए पुनर्बलन—शिक्षार्थियों के अच्छे व्यवहार के लिए पुनर्बलन
(प्रशंसा) करने से अच्छे व्यवहार को बारंबारता बढ़ती है। लेकिन बुरे (अवांछित) व्यवहार
पर दंड देने या बार-बार ध्यान देने से अवांछित व्यवहार में कमी नहीं आती बल्कि उसमें
वृद्धि देखी गई है। अतः यदि कोई शिक्षार्थी कक्षा में ज्यादा शोर करता है तो उसे डाँटने या
दंड देने के बजाये जो शांति से बैठता है उसको प्रशंसा करेंगे तो अशांति पैदा करने वाले
बच्चे पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
(ii) प्रत्येक शिक्षार्थी पर नजर रखना―कक्षा में जो कुछ हो रहा है उस पर शिक्षक
का ध्यान समान रूप से और समय पर जाना चाहिए। ऐसा होता है कि पढ़ाते समय अथवा
शिक्षक जब श्यामपट्ट पर कुछ लिख रहा होता है कुछ विद्यार्थी बात करने लगते हैं। ऐसी
स्थिति में बिना विलंब किए इस रोकना चाहिए। शिक्षार्थियों को लगना चाहिए कि शिक्षक
का ध्यान हमेशा बच्चों पर है।
(iii) स्पष्ट निर्देश देना–यदि किसी काम को करने के लिए किसी विद्यार्थी को कहना
हो तो उसे स्पष्ट बता देंगे कि किस विद्यार्थी को क्या करना है। उदाहरणार्थ यदि खिड़की
बंद करानी है तो किसी एक विद्यार्थी को स्पष्ट निर्देश देंगे बंद करने के लिए।
(iv) प्रत्येक शिक्षार्थी के लिए पर्याप्त कार्य सुनिश्चित करना―प्रत्येक शिक्षार्थी को
काम में व्यस्त रखना प्रबंध के लिए आवश्यक हैं। पढ़ाए गए विषय-वस्तु के बिन्दुओं को
नोट करने के लिए कहेंगे। कक्षा कार्य देकर भी व्यस्त रखा जा सकता है। तीव्र गति से
कार्य करने वालों को अतिरिक्त कार्य भी देंगे।
(v) शिक्षक-शिक्षार्थी के बीच अंतःक्रिया―शिक्षकों के एकतरफा संप्रेषण से कक्षा
में निष्क्रीयता आ जाती है। अत: कक्षा में दो तरफ संप्रेषण आवश्यक है। शिक्षार्थी को
क्रियाशीलन एवं प्रश्न-उत्तर में व्यस्त रखना जरूरी है। अंतःक्रिया के ढाँचे में बदलाव
समय-समय पर लाना चाहिए।
(vi) अधिगम कार्य के प्रति शिक्षार्थियों का ध्यान केन्द्रित रखना―कक्षा में यदि
शिक्षार्थी अधिगम कार्य की ओर ध्यान नहीं देंगे तो प्रवृत्ति पैदा होगी। अत: शिक्षार्थियों का
ध्यान बनाए रखने के लिए शिक्षक को उद्दीपन भिन्नता कौशल का प्रयोग करना चाहिए।
अपने हाव-भाव, भाषा-शैली, स्वर गति को आनंददायी बनाकर कक्षा प्रबंध को बेहतर बना
सकते हैं। ध्यानाकर्षण के लिए श्रव्य-दृश्य सामग्री का प्रयोग भी आवश्यक है।
(vii) पाठ की अच्छी तैयारी―पाठ के शैक्षणिक उद्देश्य का निर्धारण और उद्देश्यों की
पूर्ति के लिए उचित शिक्षण-रणनीति का चयन जरूरी है। विषय-वस्तु पर अधिकार,उचित
TLM का प्रयोग, उपयुक्त शिक्षण विधि, आत्म विश्वास के साथ शिक्षण कक्षा प्रबंध में कारगर
सिद्ध हुए हैं।
(viii) एक क्रियाकलाप से दूसरे में सहज परिवर्तन—एक क्रियाकलाप से दूसरे
क्रियाकलाप में परिवर्तन सहज नहीं होगा तो बच्चे बात करना शुरू कर देते हैं । शिक्षण कार्य
में बाधा होती है जैसे―यदि शिक्षक किसी कक्षा में पढ़ा रहा है और उसी बीच कोई सूचना
आती है तो शिक्षक सूचना सुनाते हैं और शिक्षार्थी आपस में बात करना शुरू कर देते हैं।
अतः ऐसी स्थिति में सावधानी और सहजता से काम करना होगा।
एक शिक्षक हेतु प्रभावी कक्षा-कक्ष प्रबन्ध के लिए अपनाए जाने वाल दिशा-निर्देश तथा
रणनीतियाँ निम्नलिखित हैं―
(i) सार्थक क्रियाकलाप कराएँ।
(ii) कक्षा-क्रियाकलापों के प्रति विश्वस्त, उत्साहपूर्ण तथा सोद्देश्य दृष्टिकोण हों।
(iii) शिक्षण में यांत्रिकता तथा तथ्यात्मकता से बचना चाहिए ।
(iv) कक्षा-प्रबन्ध में वांछित तथा अवांछित व्यवहारों के बीच भेद करना साख ।
(v) शिक्षार्थियों का ध्यान अधिगम कार्य से हटाने वाले व्यवहारों को नियमित करने के
लिए तत्काल सार्थक कदम उठाएँ।
(vi) शिक्षण कार्य शुरू करने से पहले शिक्षार्थियों के साथ तादात्म्य स्थापित कीजिए
ताकि वे कार्य-पथ से न भटकें।
(vii) मौन तथा शारीरिक भाषा का लाभप्रद प्रयोग करना सीखें।
(vi) शिक्षार्थियों से अपनी अपेक्षाओं के सम्भावित परिणामों का पूर्वानुमान लगाएँ ।
(ix) आवश्यकता महसूस करने पर सुधारात्मक उपाय अपनाने चाहिए।
(x) शिक्षार्थियों को अपने अभिप्राय का स्पष्ट बोध कगएँ तथा यह भी स्पष्ट करें कि
इस सम्बन्ध में आप उनसे कैसे व्यवहार की उम्मीद करते हैं।
(xi) कक्षा में इस प्रकार का वातावरण बनाएँ कि शिक्षार्थी निरर्थक बातों से बचें।
(xii) कक्षा-प्रबन्ध का कार्य धैर्यपूर्वक करें।
प्रश्न 16. शिक्षार्थी केंद्रित उपागम (बाल केंद्रित उपागम) से आप क्या समझते
हैं? वास्तविक कक्षा स्थिति में शिक्षार्थी केंद्रित उपागम को कैसे कार्यान्वित करेंगे ?
अथवा, शिक्षार्थी केंद्रित उपागम की संकल्पना की सोदाहरण व्याख्या करें।
अथवा, बालक-केन्द्रित उपागम को सर्वाधिक उपयुक्त उपागम माना जाता है।
उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―इस उपागम का मुख्य केंद्र शिक्षार्थी होता है न कि शिक्षक । इस उपागम के
अनुसार शिक्षा का व्यापक उद्देश्य बच्चे का सर्वतोमुखी विकास होता है। पाठ्यचयां बच्चों
की आवश्यकताओं, अभिरुचियों अभिवृत्तियों और योग्यताओं पर आधारित होती है। इसमें
शिक्षार्थी अपनी गति के अनुसार अधिगम के कौशलों को विकसित करते है।। क्रिया द्वारा
सीखने, अनुभव करने और बच्चे की सक्रिय प्रतियोगिता पर जोर दिया जाता है। इस उपागम
में शिक्षण प्रक्रिया के स्थान पर अधिगम प्रक्रिया पर बल दिया जाता है।
शिक्षार्थी केन्द्र उपागम के कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं―
(i) लचीली पाठ्यचर्या, (ii) शिक्षण की विभिन्न विधियाँ, (iii) विविध अधिगम अनुभव
कार्य-क्रियाकलाप, (iv) विभिन्न अधिगम समय, (v) बच्चों को प्रगति के निर्धारण की विभिन्न
विधियाँ, (vi) कक्षा में लोकतांत्रिक वातावरण ।
वास्तविक कक्षा स्थिति में शिक्षार्थी केंद्रित उपागम का कार्यान्वयन―वास्तविक कक्षा
स्थिति में शिक्षार्थी केंद्रित उपागम का प्रयोग निम्न प्रकार किया जाता है―
(i) सर्वप्रथम शिक्षक एक मित्र, सुसाध्यकर्ता, मार्गदर्शक या मध्यवर्ती व्यक्ति के रूप
में सुनियोजित क्रियाकलापों द्वारा प्रत्येक बच्चे के लिए प्रेरक अधिगम परिवेश की रचना
करते हैं।
(ii) बच्चों को व्यक्तिगत रूप से जानना―प्रत्येक बच्चा अपनी योग्यताओं,
अभिरुचियों, पसंद-नापसंद और व्यवहार की दृष्टि से एक-दूसरे से भिन्न होता है। कुछ ऐग
अभिलक्षण भी होते हैं, जो बच्चों के प्रत्येक विशिष्ट आयु वर्ग में समान होते हैं। हम बच्चों
के शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास के अनुसार शिक्षण अधिगम प्रक्रिया
का आयोजन करते हैं।
(iii) बच्चे कैसे सीखते हैं इसका ज्ञान होना―बच्चे कैसे सीखते हैं, इस बात को
जानकारी शिक्षक को होनी चाहिए तभी बच्चों के अधिगम के संवर्धन में सहायता कर सकते
हैं। सीखने के कुछ तरीके निम्नलिखित हैं―
(a) पूर्व ज्ञान के आधार पर सीखते हैं। अतः पूर्व ज्ञान को ध्यान में रखकर अधिगम
अनुभवों का आयोजन करते हैं। (b) सीखने की गति भिन्न होती है, अत: अधिगम के लिए
समय निर्धारित करने में नम्यता होनी चाहिए। (c) बच्चों का अधिगम मूर्त से अमूर्त की ओर,
ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा विशेष से सामान्य की ओर बढ़ता है। अतः अधिगम अनुभवों
की योजना में इस सिद्धान्त का ध्यान रखते हैं। (d) व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखते
हैं। (e) बच्चे प्रोत्साहन और प्रशंसा मिलने पर बेहतर सीखते हैं । (1) विषय-वस्तु रोचक एवं
परिचित हो, बच्चे आसानी से सीखते हैं, (g) यदि शिक्षण प्रक्रिया आनंदमयी और क्रियाकलाप
आधारित हो तो अधिगम बेहतर होता है।
       (vi) प्रत्येक शिक्षार्थी को सहभागिता के लिए प्रोत्साहित करना—प्रत्येक बच्चे को
शिक्षण-अधिगम क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से सम्मिलित करने से अधिगम वेहतर होगा।
ऐसा तब होगा जब हम सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार करेंगे । शिक्षार्थी के लिंग, संस्कृति
समाज, आर्थिक स्थिति, योग्यता के आधार पर भेद नहीं करेगा। प्रश्नों के उत्तर देते समय
बच्चों को प्रोत्साहित करेंगे। सभी शिक्षार्थियों से दृष्टि सम्पर्क बनाए रखेंगे जिससे लगे कि
हम सभी से बात कर रहे हैं। समय-समय पर बैठने की व्यवस्था को बदलेंगे। कक्षा में
कभी-कभी घूमते रहेंगे। बच्चों से व्यक्तिगत रूप से बात भी करेंगे।
पाठ्यचर्या और पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में नम्यता/लचीलापन― विभिन्न बच्चों के
अनुसार पाठ्यचर्या को भिन्न-भिन्न तो नहीं बनाया जा सकता परन्तु पाठ्यचर्या के संव्यवहार
में प्रयुक्त की जानेवाली विधियों, सामग्री में नम्यता और भिन्नता हो सकती है। पाठ्यचर्या
के केन्द्रीय तत्व सभी बच्चों के लिए समान होंगे।
    प्रत्येक बच्चे को सक्रिय बनाने और उसकी वैयक्तिक आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि
से परिप्रश्न, समूह अधिगम, सम समूह अनुशिक्षण, स्व शिक्षण, क्रियाकलाप काफी उपयोगी
सिद्ध होते हैं। प्रभावी प्रश्न शिक्षार्थियों को समीक्षात्मक दृष्टि से सोचने तथा नए विचारों
को परस्पर संबंद्ध करने और नए अधिगम को अपने वर्तमान ज्ञान से समाकलित करने के
लिए अभिप्रेरित करते हैं। भीड़ भरी कक्षा में, सभी शिक्षार्थियों को भाग लेने । अधिगम में
सहभागी बनाने के लिए समूह कार्य बहुत उपयोगी है । समूह कार्य द्वारा बच्चों में आत्मविश्वास,
संप्रेषण कौशल तथा सहयोग की आदत को विकसित किया जा सकता है। समूह बनाते समय
यह ध्यान रखते हैं कि एक समूह में 4-5 शिक्षार्थी ही रहे । प्रत्येक समूह को स्पष्ट निर्देश,
दायित्व और समय निर्धारित करते हैं। प्रत्येक समूह का एक नेता होता है । समूह के प्रत्येक
सदस्य को क्रियाकलाप में भाग लेना सुनिश्चित करते हैं। अंत में इतना समय अवश्य रखते
हैं कि सभी समूह को एक साथ बैठाकर अनुवर्ती कार्य किया जा सके।
      (v) विविध सामग्री के माध्यम से सीखना― शिक्षण अधिगम को बेहतर बनाने के लिए
शिक्षण-अधिगम सामग्री अत्यावश्यक है। सर्वोत्तम अधिगम सामग्री बच्चे के स्थानीय परिवेश
में उपलव्य सजीव या निर्जीव वास्तविक वस्तुएँ होती हैं, किन्तु सदा वास्तविक वस्तुओं को
प्राप्त करना, उनसे अंतःक्रिया कर पाना संभव नहीं होता। अत: चार्ट, चित्र, कार्यपत्रक या
मॉडल के रूप में विविध प्रकार की अधिगम सामग्री का निर्माण और विकास करना पड़ता
है। इसके अतिरिक्त बौद्धिक खेल, पहेलियाँ, खेल सामग्री, कविताएँ, नाट्यगीत, कहानी की
पुस्तकें तथा पत्रिकाओं के माध्यम से बेहतर अधिगम हो सकता है। सीखने के लिए अधिगम
कोना भी उपयुक्त स्थल है, जहाँ ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायक, रुचिकर और आनंददायक सामग्री
उपलब्ध हो।
      (vi) अपनी गति से सीखना–प्रत्येक बच्चा, बुद्धि, योग्यता और अभिरूचि की दृष्टि
से एक-दूसरे से भिन्न होता है। अतः तीव्र गति से सीखने वाले बच्चों के लिए समुन्नयन
कार्य उपलब्ध कराना होगा। मंद गति से सीखने वाले पर ध्यान देना जरूरी है और उसे अपनी
गति से सीखने में सहायता करनी होगी। बच्चों की तुलना एक-दूसरे से नहीं करना चाहिए।
     (vi) परिवीक्षणशक्षक को सारी कक्षा पर ध्यान रखना चाहिए । कक्षा में क्या हो रहा
है, इस पर ध्यान रखने से बच्चों में सक्रियता, सतर्कता और जागरूकता आती है।
        (vii) मूल्यांकन―सीखने की प्रक्रिया में सुधार लाने के साथ-साथ शिक्षण प्रक्रिया
गुणवत्ता के लिए मूल्यांकन आवश्यक है। इससे शिक्षकों, बच्चों और अभिभावकों को प्रतिपुष्टि
प्राप्त होती है।
      मूल्यांकन बच्चों के संज्ञानात्मक और असंज्ञानात्मक दोनों क्षेत्रों का होना चाहिए, जैसे―
ज्ञान कौशल, दक्षताएँ, सामाजिक और संवेगात्मक व्यवहार आदि का।
मूल्यांकन निरंतर होना चाहिए ताकि उपचारात्मक शिक्षण हो सके।
मूल्यांकन परीक्षा, मौखिक अवलोकन और संचित अभिलेखों द्वारा समग्रता से किया जाना
चाहिए।
मूल्यांकन में बच्चों की उपलब्धियों और समस्या क्षेत्रों (कमियों) का भी उल्लेख होना
चाहिए।
        मूल्यांकन एक बच्चे की तुलना दूसरे बच्चे के साथ करने के लिए ही नहीं की जाती
बल्कि एक बच्चे की तुलना उसके स्वयं की उपलब्धियों से की जानी चाहिए। यह बताना
आवश्यक है कि उसने कितना Progress किया है।
    (ix) स्व-मूल्यांकन―शिक्षकों के उचित मार्गदर्शन से बच्चे अपनी उपलब्धियों एवं कमियों
का स्वयं मूल्यांकन कर सकते हैं। अपनी गलतियों से सीख सकते हैं। इससे उनमें आत्म
नियंत्रण का विकास होता है।
          शिक्षार्थी केंद्रित उपागम में शिक्षार्थी का क्रियाशील होना, सक्रिय होना आवश्यक है।
मनोवैज्ञानिक ने इस बात को स्वीकारा है कि शिक्षार्थी की जितनी अधिक-से-अधिक ज्ञानेन्द्रियों
का प्रयोग सीखने में होगा, अधिगम उतना ही प्रभावी होगा। इसी सिद्धान्त के तहत Learning
by doing. by observation, by TLM, by activity की परिकल्पना की गई। इस प्रकार
शिक्षार्थी केंद्रित उपागम अधिक प्रभावी है इसे निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है―
1. इसमें प्रत्येक शिक्षार्थी को अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय सहभागिता का अवसर मिलता है।
2. यह उपागम सीखने की स्वतंत्रता पर बल देता है। इसमें ऐसी परिस्थिति पैदा की
जाती है कि शिक्षार्थी स्वत: सहजता से रुचिपूर्वक अनुक्रिया करते हैं और प्रश्नों के
उत्तर देते हैं।
3. इसमें बच्चे स्वत: अभिप्रेरित होते हैं सीखने के लिए अत: अनुशासन संबंधी समस्या
कम हो जाती है।

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