F-4

विद्यालय संस्कृति, परिवर्तन और शिक्षक विकास

विद्यालय संस्कृति, परिवर्तन और शिक्षक विकास

प्रश्न 17.पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं से आप क्या समझते हैं ? इन क्रियाओं के
उद्देश्य और महत्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा, पाठ्य सहगामी गतिविधियों (खेल, कला आदि) के बारे में बताएँ।
उत्तर―पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का अर्थ-पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ वे क्रियाएँ
हैं जो विद्यालय में पाठ्यक्रम के साथ-साथ संचालित होती हैं । ये क्रियाएँ कक्षाध्यापन का
अंग नहीं होती हैं परन्तु इन क्रियाओं में भाग लेकर विद्यार्थी अपना शारीरिक, नैतिक, सामाजिक,
चारित्रिक, बौद्धिक और सौन्दर्यात्मक तथा कलात्मक विकास करता है। ये क्रियाएँ पाठ्यक्रम
का आवश्यक अंग होती हैं। इस प्रकार पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ वे क्रियाएँ हैं जो कक्षाध्यापन
से सम्बन्धित नहीं होती हैं परन्तु इनका सम्बन्ध एक सीमा तक कक्षा के अनुभवों से होता
है और जो पाठ्यक्रम के साथ-साथ गतिशील होकर बालकों का शारीरिक, नैतिक, सामाजिक,
कलात्मक और सौन्दर्यात्मक विकास करती हुई उनके व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करती हैं।
पहले इन क्रियाओं को पाठ्यक्रमतरक्रियाएं या पाट्यान्तर क्रियाएँ या पाठ्यक्रमातिरिक्त क्रियाएँ
कहा जाता था परन्तु अब इन क्रियाओं को पाठ्यक्रम के साथ-साथ चलने के कारण पाठ्यक्रम
सहगामी क्रियाएँ या सह-पाठ्यक्रमगामी क्रियाएँ या सहपाठी क्रियाएँ भी कहते हैं।
     पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का उद्देश्य― बालकों के सन्दर्भ में पाठ्यक्रम सहगामी
क्रियाओं से जिन उद्देश्यों की प्राप्ति होती है, वे निम्नलिखित हैं―
1. छात्रों को वांछित दिशा में सामाजिक समायोजन का ज्ञान देना । सामाजिक समायोजन
सम्बन्धों के विकास पर निर्भर है।
2. सामुदायिक जीवन के विस्तृत क्षेत्रों में रुचि का विकास करना।
3. नियमित पाठ्यक्रम के द्वारा प्राप्त सम्बद्ध ज्ञान का उपयोग अतिरिक्त ढंग से कर
के लिए छात्रों को नये क्षेत्रों का ज्ञान देना ।
4. व्यवहार के उच्चतम मानों को विकसित करना ।
5. बीजभूत अभियोग्यताओं की खोज करना और छात्रों के विशेष कौशलों का विकास
करना।
6. विद्यालय, घर और समाज के बीच की दूरी को समाप्त करना ।
7. छात्रों को शारीरिक और नैतिक दृष्टि से मजबूत बनाना ।
8. छात्रों को अवकास का समय के सदुपयोग का ज्ञान देना ।
9. विद्यालय के स्तर को ऊंचा करना।
पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का महत्त्व―विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं
का महत्व निम्नलिखित दृष्टियों से है―
1. बालकों के विकास की दृष्टि से―इन क्रियाओं के द्वारा छात्रों को निम्नलिखित
लाभ प्राप्त होते हैं―
(i) शारीरिक विकास―विद्यालय में अनेक प्रकार के व्यक्तिगत और सामूहिक शारीरिक
कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, जिनसे यालकों का शारीरिक विकास प्रभावित होता
है । पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के द्वारा विभिन्न खेलों में बालकों की रुचि का विकास होता
है, वे शारीरिक क्षीणता के कारण उत्पन्न होने वाले अनेक रोगों से बचते हैं और कक्षा में
आसन्न सम्बन्धी दोष उनके भीतर उत्पन्न नहीं होते।
(ii) विश्रान्ति और मनोरंजन―ये क्रियाएँ छात्रों को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करती हैं
और उन्हें एक प्रकार की विश्रान्ति का अनुभव प्राप्त होता है।
(iii) संवेगात्मक अभिव्यक्ति―पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ बालक के संवेग-प्रशिक्षण
के लिए उपयुक्त साधन हैं। संवेगों का प्रशिक्षण निर्धारित पाठ्यक्रम के द्वारा नहीं किया जा
सकता। जो छात्र इन क्रियाओं में भाग लेते हैं वे भाग न लेने वाले छात्रों की अपेक्षा शारीरिक,
सामाजिक और सांवेगिक दृष्टि से अधिक समायोजित होते हैं।
(iv) व्यक्तित्व विकास―व्यक्तित्व गुणों का एक समन्वित रूप है जिसमें दूसरों को
प्रभावित करने वाली सभी विशेषताएँ पायी जाती हैं। विद्यालय के निर्धारित पाठ्यक्रम में
व्यक्तित्व के विशेषकों को विकसित होने के लिए उतने अवसर नहीं है जितने की पाठ्यक्रम
सहगामी क्रियाओं के द्वारा प्राप्त होते हैं।
(v) सामाजिक प्रशिक्षण―पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएं बालक के सामाजिक विकास
के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती हैं। केवल बहुत थोड़ी क्रियाओं का प्रशिक्षण कक्षा में
बालक को प्राप्त हो पाता है। शिक्षा में बढ़ते हुए प्रशिक्षण के स्थानांतरण के अवरोध के
आधार पर कहा जा सकता है कि छात्रों और छात्राओं को सामाजिक दृष्टि से सुसंगठित होने
के लिए यह आवश्यक है कि वे विद्यालय की सामाजिक क्रियाओं में भाग लें।
(vi) जनतंत्रीय दृष्टिकोण का विकास―छात्रों को जनतंत्र का कुशल नागरिक सामाजिक
विज्ञानों के शिक्षण द्वारा मात्र सैद्धान्तिक ज्ञान देकर नहीं बनाया जा सकता । पाठ्यक्रम सहगामी
क्रियाएँ विशेष रूप से छात्र स्वशासन के प्रशिक्षण के लिए छात्रों को व्यावहारिक अनुभव
के आधार पर एक साथ कार्य करने का अवसर प्रदान करती हैं, जिससे उनके भीतर नेतृत्व,
सहयोग, सहानुभूति त्याग आदि गुणों का विकास होता है।
(vii) कलात्मक प्रशिक्षण और अभिव्यक्ति―पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ संगीत
अभिनय कलादि के सम्बन्ध में भाग लेने वाले और दर्शक दोनों प्रकार के छात्र-छात्राओं को
अनुभव की दृष्टि से श्रेष्ठतम अवसर प्रदान करती हैं। विद्यालय की नाट्य समिति, संगीत-परिषद्
या कुल मिलाकर सांस्कृतिक परिषद् छात्रों को विद्यालय के विभिन्न अवसरों पर संगीत,
लोकगीत, प्रहसन, नृत्य और अभिनय आदि के लिए तैयार करती हैं, जिसमें उनके भावों का
परिष्कार होता है और उनकी अभिव्यक्ति को बल प्राप्त होता है।
(viii) नैतिक प्रशिक्षण–पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ नैतिक मूल्यों के विकास के लिए
छात्रों को अनेक ऐसे अवसर प्रदान करती हैं जिसके द्वारा व ईमानदारी, सच्चाई और उदारता,
कर्त्तव्यनिष्ठा का विकास कर सकते हैं। इसके द्वारा वे सही मार्ग का अनुसरण नैतिक आधार
पर करते हैं।
2. पाठ्यक्रम के विकास की दृष्टि से—पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ पाठ्यक्रम को पूर्णता
प्रदान करती हैं। इन क्रियाओं के द्वारा पाठ्यक्रम का विकास निम्नलिखित रूपों में होता है―
(i) ये कक्षा के अनुभवों को साकार स्वरूप प्रदान करती हैं। छात्र कक्षा में जिन अनुभवों
के कारण उत्तेजित होते हैं, उन्हें व्यवहार में व्यक्त भी करना चाहते हैं। (ii) ये क्रियाएँ छात्रों
को कक्षा में सीखने के लिए उत्प्रेरित करती हैं। (iii) कई शिक्षण-विधियाँ क्रियाओं के आधार
पर ही विकसित हुई हैं, जैसे― क्रिया-विधि, खेल-विधि आदि ।
3. विद्यालय प्रशासन की दृष्टि से― विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को यदि
उचित व्यवस्था है, तो प्रशासन सामान्य गति से कार्य करता है। इन क्रियाओं के कारण
विद्यालय-प्रशासन निम्नलिखित रूपों में प्रभावित होता है―
(i) ये क्रियाएँ छात्र समूहों और प्रशासन में लगे हुए व्यक्तियों के बीच ‘संघ-भावना’
पैदा करती हैं जिससे आपस में छात्रों के बीच स्वस्थ सम्बन्धों का निर्माण होता है।
(ii) विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को समुचित व्यवस्था के कारण छात्र अपने
अवकाश का सदुपयोग करते हैं। पुस्तकों का अध्ययन और आन्तरिक एवं बाह्य खेलों में व्यस्तता
छात्रों को अनेक गलत कार्यों से रोकती है।
4. सामाजिक सम्बन्धों की दृष्टि से-इन क्रियाओं के कारण विद्यालय और समाज
के सम्बन्धों का निर्माण दो प्रकार से होता है―
(i) क्रियाएँ अच्छे सामाजिक सम्बन्धों के लिए विद्यालय में अनेक अवसर सुलभ करती
हैं। अभिभावक-दिवस, शिक्षक-अभिभावक-संघ, साक्षरता कार्यक्रम, श्रम-सप्ताह, स्वच्छता
कार्यक्रम आदि के कारण विद्यालय का प्रवेश समाज में होता है । (ii) इन क्रियाओं के कारण
समाज को रुचि विद्यालय में पैदा होती है।
प्रश्न 18. टिप्पणी लिखें:
(i) पाठ सहगामी क्रिया कलाप
(ii) लोकतांत्रिक कक्षा
(iii) बहुकक्षीय शिक्षण
(iv) कक्षा कक्ष
उत्तर―(i) पाठ सहगामी क्रिया कलाप― पाठसहगामी क्रियाकलापों के अंतर्गत विद्यालय
भवन का निर्माण, पाठ्यपुस्तकों की उपलब्धता, उपयोग, प्रयोगशालाओं का उपयोग आदि आते
हैं। इन पाठ सहगामी क्रियाकलापों का शिक्षण प्रक्रिया में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिए,
इसका सुचारु ढंग से प्रबंधन आवश्यक होता है
     विद्यालय स्थापित करने से पूर्व उसके लिए भवन की स्थिति तथा बनावट पर ध्यान देना
नितान्त आवश्यक है। यदि विद्यालयों की स्थिति देखी जाए तो मालूम होगा कि इनमें से कई
विद्यालय ऐसी जगह बने हुए हैं, जहाँ दूषित वातावरण है। कुछ विद्यालयों की स्थिति मुख्य
सड़कों के पास होने के कारण, ध्वनि एवं वायु-प्रदूषण की समस्या वहाँ हमेशा बनी रहती
है। इन सब का प्रभाव विद्यार्थियों की शिक्षा पर पड़ता है।
     साथ ही कक्षा कक्ष का भौतिक खाका भी बदला जाना चाहिए, जिससे बच्चे छोटे समूही
में बैठ पाएँ, या बड़े घेरे में बैठकर कहानी सुन सकें, या अपना व्यक्तिगत लेखन या पठन
का काम कर सकें, या रेडियो या टी० वी० पर प्रसारित कार्यक्रम के लिए एक समूह में एक
हो पाएँ। विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों की जरूरतों के अनुसार भी बैठने की व्यवस्था
को बदला या रूपान्तरित किया जाना चाहिए । परन्तु अभी भी अधिकांश विद्यालय भारी-भरकम
लोहे की बेंचों व बड़ो मेजों पर खर्च करते हैं, जो केवल एक कतार में ही लगाई जा सकता
हैं और जो शिक्षक और श्यामपट्ट-केंद्रित सीखने की प्रणाली को बढ़ावा देती हैं। इससे भी
गम्भीर बात यह है कि इनमें बच्चों की किताबें व अन्य सामान रखने के लिए उपयुक्त जगर
नहीं होती, न ही ये इतने चौड़े होते हैं, कि टेक लगाकर बच्चा आराम से बैठ पाए।
    पाठ्यपुस्तकों के अलावा अन्य पाठ्योपयोगी पुस्तकों के अध्ययन के लिए विद्यालयका
पुस्तकालय एक आनन्ददायी स्थान के रूप में होना चाहिए । पुस्तकालय में पाठ्य-सामग्री,
सन्दर्भ पुस्तकें तथा बाल साहित्य आदि की उपलब्धता हो और साथ ही विद्यार्थियों को उन
तक पहुँच हो। अक्सर, हम विद्यालयों में पठन पाठन के संदर्भ में पुस्तकालयों की भूमिका
को नगण्य देखते हैं। पुस्तकालयों की इस स्थिति को शिक्षकों के माध्यम से ही बदला जा
सकता है। अतः विद्यालय विकास की आवश्यकता है।
    प्रयोगशालाएँ भी विद्यालय का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसका महत्व इसलिए भी है कि
विद्यार्थी यहाँ स्वयं प्रयोग करके सीखते हैं। विभिन्न विषयों में पढ़ाये जाने वाले सिद्धान्त
का विद्यार्थी प्रयोगशालाओं में व्यावहारिक पुष्टि करते हैं। इस तरह प्रयोगशालाएँ विद्यार्थियों
को ‘करके सीखने’ तथा ‘अनुभव द्वारा सीखने’ के अवसर प्रदान करती हैं। विज्ञान के अलावा
भाषा व सामाजिक विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषयों में भी शिक्षक के दृष्टिकोण से प्रयोगशालाओं
का महत्व समझा जा रहा है। प्रयोगशालाओं में बुलेटिन बोर्ड, चार्ट, मानचित्र, रेखाचित्र, फिल्म,
स्ट्रिप्स, कैसेट, परीक्षण तथा विभिन्न यंत्रों को सुरक्षित व व्यवस्थित रखने की व्यवस्था करनी
पड़ती है।
   विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए खेलों का स्थान पाठ्य सहगामी क्रियाओं में अत्यन्त
महत्वपूर्ण है। अतः विद्यालय में खेलों के प्रति भी एक संवेदनशील नजरिया होना चाहिए।
यह नजरिया तभी बनेगा जब हम विद्यालय में खेलों को प्रोत्साहित करेंगे । प्रायः खेलों को विभिन्न
विषयों के तुलना में काफी कम महत्व दिया जाता है। ऐसा होने से बच्चों में खेलों के प्रति
रुचि भी घटती जाती है, जिसका उनके सर्वांगीण विकास पर गलत प्रभाव पड़ता है।
(ii) लोकतांत्रिक कक्षा―कक्षा कक्ष की लोकतांत्रिक संकल्पना को समझने के लिए
एक छोटी गतिविधि करेंगे।
     कक्षा ऐसे विद्यार्थियों का समूह है, जिसमें प्रत्येक विद्यार्थी की सामाजिक, आर्थिक एवं
शैक्षिक पृष्ठभूमि भिन्न है। ऐसी स्थिति में सभी विद्यार्थी के बीच अधिगम की प्रक्रिया को
संचालित करना शिक्षक के लिए एक बड़ी चुनौती है। कक्षा को लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान
करने में शिक्षक के व्यवहार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है । कक्षाकक्ष के संदर्भ में लोकतंत्र
की अवधारणा को मुख्यतः दो रूपों में देखा जा सकता है।
● विद्यार्थी के संदर्भ में लोकतंत्र―इस संदर्भ लोकतंत्र से हमारा आशय यह है कि
छात्रों के बीच किसी खास वर्ग या धर्म या जाति के आधार पर कक्षा में किसी का बचाव
न हो बल्कि सभी विद्यार्थियों को समान सीखने का अवसर मिले ।
● शिक्षक के संदर्भ में लोकतंत्र―इससे हमारा तात्पर्य यह है कि शिक्षक में उन
लोकतांत्रिक भावनाओं को विकसित करना है, जिससे वह कक्षा के स्वरूप को अधिगम के
ऐसे सदन के रूप में विकसित कर सके, जिसमें वह अपने विद्यार्थियों की भावनाओं का सम्मान
करें और अधिगम प्रक्रिया को नियंत्रित न करे बल्कि उसे उचित दिशा प्रदान करता रहे।
    बाल केन्द्रित कक्षाओं का स्वरूप सदैव लोकतांत्रिक ही होता है और यदि इसका स्वरूप
परिवर्तित हुआ अर्थात् शिक्षक की भूमिका यदि कक्षा पर हावी होने लगी तो कक्षा का स्वरूप
लोकतांत्रिक न होकर शिक्षक केन्द्रित हो जाएगा। लोकतांत्रिक अधिगम प्रक्रिया में अधिगमकर्ता
मागदर्शक द्वारा सम्मानित महसूस करता है और मार्गदर्शक अधिगमकर्ता की भावनाओं का सम्मान
कर उसकी योग्यता को बढ़ाने के लिए अभिप्रेरित करते हैं।
(i) बहुकक्षीय शिक्षण―वर्तमान शैक्षिक परिवेश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षण एक बड़ी
चुनौती है। इस चुनौती के मूल में कई छोटे-छोटे कारक हैं, जो इस चुनौती की समाप्ति के
मार्ग में बाधक बन कर खड़े हैं, ऐसे ही कारकों में से एक कारक या चुनौती वैसे शिक्षकों
के समक्ष है, जो कक्षाओं की संख्या के अभाव से या शिक्षकों की संख्या के अभाव में है।
सामान्यतः ऐसे शिक्षण में गुणवता कम होत जाती है और वर्गवार पाठ्यक्रम का अध्यापन
भी नहीं हो पाता है। विद्यार्थी में भी विभिन्न वर्गों के होने के कारण आयु में अधिक विषमता
रहती है।
      बहुकक्षीय शिक्षण में प्रत्येक वर्ग के वैसे विद्यार्थियों की अनदेखी हो जाती है, जो विशेष
आवश्यकता वाले बच्चे हैं। शिक्षकों के लिए ऐसे में पाठ योजना निर्माण की एक बड़ी चुनौती
होती है, क्योंकि अधिगम का प्रकरण स्पष्ट नहीं रहता है। बहुकक्षीय शिक्षण एक ऐसी स्थिति
है, जहाँ एक शिक्षक एक ही समय में कई कक्षाओं में शिक्षण कार्य करता है। बहुकक्षीय
शिक्षण का अर्थ मुख्यतः दो रूपों में लिया जाता है ।
1. एक शिक्षक का एक समय में ही कक्षा कक्ष में एक से अधिक कक्षाओं के विद्यार्थियों
के साथ शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में संलग्न होना।
2. एक शिक्षक का एक समय में एक से अधिक कक्षा कक्ष में अलग-अलग कक्षा
के विद्यार्थियों के साथ शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में संलग्न होना।
(iv) कक्षा कक्ष―कक्षा-कक्ष का विद्यालय में अपना एक प्रमुख स्थान है, जहाँ बच्चों
को शिक्षित करने का काम अधिकृत रूप से चलता रहता है। किसी भी विद्यालय में बच्चों
का अधिकतर समय कक्षा-कक्ष के अन्दर ही व्यतीत होता है।
     सामान्य अवधारणा के अनुसार, कक्षा कक्ष एक ऐसी भौतिक व्यवस्था है, जहाँ अध्यापकों
की सहायता से विद्यार्थियों द्वारा ज्ञान सृजन का कार्य किया जाता है। भौतिक संरचना के
दृष्टिकोण से कक्षा कक्ष विद्यालय की एक सरल इकाई है, परन्तु कक्षा को मात्र भौतिक इकाई
के रूप में सीमित करके नहीं समझा जा सकता।
        जनशिक्षा के व्यापक प्रसार ने कक्षाओं में बँटी शिक्षा व्यवस्था को आवश्यक बना दिया।
आजकल प्रचलित जनशिक्षा के सन्दर्भ में कक्षा क्रम की व्यवस्था निश्चय ही सुविधाजनक
प्रतीत होती है। कक्षा क्रम से प्राप्त होने वाली सुविधा का मुख्य कारण यह है कि वर्तमान
जनशिक्षा का आधार साक्षरता और पुस्तक ज्ञान है, सामाजिक अनुभव और समझ नहीं । साक्षरता
एक नई अवधारणा है, जिसका संबंध प्रचारित ज्ञान से है। इसके विपरीत एक पुरानी धारणा
है, जिनका सन्दर्भ सामाजिक जीवन और मध्यता है । इस अर्थ में देखें तो शिक्षा क्रम आवश्यक
प्रतीत नहीं होता। उल्टे शिक्षा की कक्षाक्रम से मुक्ति समाज के अधिकाधिक लोगों की शिक्षा
के विकास में मददगार हो सकती है।
      वर्तमान शैक्षिक परिवेश में कक्षा का स्वरूप भी छात्र अधिगम को सहजता को बढ़ाने
के लिए परिवर्तित किया गया है। ऐसे में अधिगम के लिए कक्षाकक्ष को ही एकमात्र स्रोत
नहीं माना गया है, बल्कि अधिगम के लिए सबसे आवश्यक शैक्षणिक परिवेश को माना गया
है। शिक्षक अपनी सृजनात्मकता से अधिगम को और भी रोचक बना सकते हैं और किसी
विशेष पाठ के अधिगम हेतु विद्यालय परिसर या विद्यालय उद्यान को भी कक्षा कक्ष का स्वरूप
दे सकते हैं। अर्थात् सृजनात्मकता से किसी भी वैसे स्थल को कक्षा कक्ष का रूप दिया जा
सकता है, जहाँ अधिगम संभव हो अर्थात् अधिगम स्थल कक्षा कक्ष का दूसरा रूप है।
प्रश्न 19. सतत एवं व्यापक मूल्यांकन से क्या समझते हो? सतत एवं व्यापक
मूल्यांकन के उद्देश्य, क्षेत्र, उपयोगिता तथा सीमाओं का वर्णन करें।
उत्तर-―सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन―”मूल्यांकन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है,
जो शिक्षा-व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है और अंतिम रूप से शैक्षिक उद्देश्यों से सम्बन्धि
है।” ―भारतीय शिक्षा आयोग
    मूल्यांकन एक अत्यन्त व्यापक प्रक्रिया है । किसी भी प्रकार की योग्यता, कौशल, उपलब्धि
आदि को जानकारी प्राप्त करने के लिए मूलयोग्य प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है। इन
प्रविधियों को समुचित जानकारी प्रत्येक शिक्षक के लिए नितान्त आवश्यक है। मूल्यांकन
विधियाँ वे साधन हैं जिनके द्वारा अध्यापक अपने विद्यार्थी की प्रगति तथा निर्देशन की
प्रभावशीलता के बारे में सूचना प्राप्त करता है। इसमें गुणात्मक एवं संख्यात्मक तकनीकें तथा
व्यक्तिनिष्ठ वस्तुनिष्ठ विधियाँ शामिल हैं। इन विधियों की सहायता से ही विद्यार्थियों का सतत
एवं व्यापक मूल्यांकन किया जाता है। आज मूल्यांकन को सम्पूर्ण शिक्षक अधिगम प्रक्रिया
का एक अंतरिम भाग बनाने की आवश्यकता है। परम्परागत परीक्षण विधि केवल ज्ञानात्मक
पक्ष का ही मूल्यांकन करती है तथा अध्यापक और विद्यार्थियों की कोशिशें भी मुख्य रूप
से इसी भाग पर केन्द्रित रहती है। इसी के परिणामस्वरूप वर्तमान स्कूली कार्यक्रम विद्यार्थी
के व्यक्तित्व के विस्तृत क्षेत्रों के विकास की अवहेलना करते हैं। यदि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया
व्यापक एवं निरन्तर होती है तो मूल्यांकन प्रक्रिया भी व्यापक एवं निरन्तर होनी चाहिए।
1. व्यापक मूल्यांकन-विद्यार्थियों की विद्वता एवं गैर-विद्वता पक्षों से सम्बन्धित उद्देश्यों
को प्राप्ति को जानने के लिए प्रयोग की गई प्रक्रिया को व्यापक या विस्तृत मूल्यांकन प्रक्रिया
कहा जाता है। साधारणतया यह देखा जाता है कि विद्वता सम्बन्धी तत्व जैसे एक विषय
के तथ्यों, संप्रत्ययों, सिद्धांतों आदि के ज्ञान एवं सूझ-बूझ तथा चिन्तन कौशलों का ही मूल्यांकन
किया जाता है और गैर-विद्वता सम्बन्धी तत्वों को तो मूल्यांकन प्रक्रिया से बाहर कर
दिया जाता है या उन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। अतः बालक के व्यक्तित्व के
समरूप विकास का उद्देश्य अपूर्ण रह जाता है । मूल्यांकन को व्यापक बनाने के लिए इसमें
विद्वता तथा गैर-विद्वता सम्बन्धी सभी तत्वों को शामिल किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा
नीति 1986 में तथा इसके संशोधित रूप 1992 में भी यह इंगित किया गया है कि मूल्यांकन
प्रक्रिया में विद्वता तथा गैर-विद्वता क्षेत्र के सभी अधिगम अनुभवों को शामिल किया जाना
चाहिए। व्यापक मूल्यांकन प्रक्रिया में निम्न प्रकार की विविध तकनीकों का प्रयोग किया
जा सकता है―
मूल्यांकन की प्रस्तावित योजना:
पक्ष                                  क्षेत्र                          मूल्यांकन तकनीक
विद्वता सम्बन्धी        1. पाट्यक्रिया क्षेत्र              ― मौखिक परीक्षण
                                    ― ज्ञान                       ― लिखित परीक्षण
                                    ― बोध                       ― निबन्धात्मक परीक्षा
                                    ― ज्ञान का प्रयोग          ― वस्तुनिष्ठ परीक्षा
                                     ― कौशल                   ― अधिन्यास
                                     ― गृह कार्य
                              2. आदत                          ― निरीक्षण
गैर-विद्वता                ― स्वास्थ्य सम्बन्धी आदतें     ― वचत
सम्बन्धी                   ― अध्ययन आदतें                ― घटनावृत्त
                              ― कार्य सम्बन्धी आदतें         ― रिकॉर्ड
                          3. रुचियाँ                               ― दैनिक डायरी
                               ― साहित्यिक रुचियाँ           ― समाजमिति
                                ― कलात्मक रुचियाँ           ― प्रमापीकृत वस्तुनिष्ट परीक्षाएँ
                                ― वैज्ञानिक रुचियाँ             ― निर्धारण मापनी
                                ― सामाजिक रुचियाँ           ― रुचि इन्वैंटरी
                                ― निदानात्मक परीक्षाएँ
                                ― विचार-विमर्श
                         4. दृष्टिकोण                               ― अभिवृत्ति मापनी
                         5. पाठ्य सहगामी क्रियाओं           ― अध्यापक निर्मित परीक्षाएँ
                             में योगदान
                             ― साहित्यिक क्रियाएँ               ― अध्यापक निर्मित परीक्षाएं
                             ― सांस्कृतिक क्रियाएँ               ― सेमिनार
                             ― सांस्कृतिक, सामाजिक एवं     ― प्रोजेक्ट कार्य
                                 सामुदायिक सेवा क्रियाएँ         ― विचार विमर्श
इस प्रकार शिक्षण अधिगम प्रक्रिया विस्तृत होने के कारण मूल्यांकन प्रक्रिया भी व्यापक
बन जाती है।
2. सतत् या निरंतर मूल्यांकन―शिक्षा के रूप में हमारी सफलता इस बात पर निर्भर
करती है कि अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त कर लिया गया है। उद्देश्यों
की प्राप्ति की प्रगति को समय-समय पर जाँच जाना चाहिए. मूल्यांकन किया जाना चाहिए,
नहीं तो हमें यह ज्ञात नहीं होगा कि हम कहाँ जा रहे हैं
         परम्परागत परीक्षण केवल एक निश्चित समय पर ही ज्ञान एवं कौशलों की उपलब्धि
की जाँच करता है, परन्तु मूल्यांकन का नवीन संप्रत्यय माँग करता है कि विद्यार्थियों की
उपलब्धियों एवं व्यवहार परिवर्तनों का मूल्यांकन किसी निश्चित समय पर नहीं अपितु निरंतर
होना चाहिए। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की प्रत्येक क्रिया जैसे-अधिगम अनुभवों का चयन
व नियोजन, शिक्षण विधियों व तकनीकों में परिवर्तन, अध्यापक का व्यवहार, शिक्षण अधिगम
के लिए प्रदान किया गया वातावरण, शिक्षण साधन व उपकरणों का प्रयोग आदि सभी सतत्
मूल्यांकन से प्रभावित होती हैं।
             शिक्षा की राष्ट्रीय नीति दस्तावेज (1986) में भी इस बात पर बल दिया गया है कि
विद्यालय स्तर पर मूल्यांकन रचनात्मक अथवा विकासशील होना चाहिए, क्योंकि, इस स्तर
पर विद्यार्थी अधिगम की विकासात्मक अवस्था में होता है । इस समय विद्यार्थी स्वयं विकास की
रचनात्मक अवस्था में होता है, इसलिए अधिगम के सुधार पक्ष पर बल दिया जाना चाहिए।
         यदि अध्यापक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अधिगम अनुभवों में सुधार के लिए
अपनी शिक्षण विधियों में वांछनीय परिवर्तन करें तो इसके लिए निरन्तर मूल्यांकन अनिवार्य
होगा। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों के संदर्भ में विद्यार्थी की प्रगति का निर्धारण करने की दृष्टि
से उनकी अनुक्रियाओं का रिकार्ड रखना महत्वपूर्ण व उपयोगी होगा।
        राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा के संशोधित प्रारूप, 2005 में भी यह लिखा गया है कि
निरंतर और विस्तृत मूल्यांकन ही एकमात्र सार्थक मूल्यांकन पद्धति है। ध्यान इस बात पर
दिया जाना चाहिए कि किस प्रकार इसका प्रभावी ढंग से प्रयोग किया जाए।
व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के उद्देश्य―व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के अन्तर्गत
शैक्षिक तथा गैर-शैक्षिक पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है। यदि विद्यार्थी कमजोर है तो नैदानिक
मूल्यांकन और उपचारी प्रयल किए जाने चाहिए । व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के महत्वपूर्ण
उद्देश्य या प्रकार्य निम्नलिखित हैं :
1. विद्यार्थी की व्यक्तिगत योजनाओं को प्रोत्साहित करना ।
2. विद्यार्थी की प्रगति की सीमा और स्तर का निर्धारण करना।
3. प्रत्येक विद्यार्थी की शक्ति, कमजोरियों तथा उसकी आवश्यकताओं का पता लगाना ।
4. प्रभावी शिक्षा कार्यनीति तैयार करना ।
5. विद्यार्थियों की अपनी क्षमताओं व योग्यताओं की पहचान करने में सहायता करना।
6. विद्यार्थियों की पारिवारिक तथा समायोजन संबंधी समस्याओं की जानकारी प्राप्त
करना।
7. विद्यार्थी, शिक्षक तथा अभिभावकों को समय-समय पर उपलब्धि के प्रति जागरूक
बनाना।
8. विद्यार्थियों को अपनी गलतियों को सुधारने तथा अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए
प्रयासरत करना।
9. विद्यार्थियों की अभिरुचि का पता लगाना ।
10. भविष्य के लिए अध्ययन क्षेत्रों, पाठ्यक्रमों आदि के संबंध में निर्णय लेने में सहायता
करना।
11. शैक्षिक व गैर-शैक्षिक क्षेत्रों में विद्यार्थी की प्रगति संबंधी रिपोर्ट उपलब्ध कराना।
व्यापक एवं निरंतर मूल्यांकन के क्षेत्र :
1. बालक की शैक्षिक उपलब्धि ।
2. व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुण जैसे-नियमितता, उत्तरदायित्व, सहयोग, समाज-सेवा
की भावना आदि।
3. वांछनीय अभिवृत्तियाँ जैसे-समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, अध्यापक, स्कूल,
अध्ययन, राष्ट्रीय एकता आदि के प्रति दृष्टिकोण ।
4. रुचियाँ जैसे-सांस्कृतिक, कलात्मक, वैज्ञानिक, साहित्यिक इत्यादि ।
5. पाठ्य सहगामी क्रियाओं में कुशलता जैसे-खेल, स्काऊट-गाइडिंग, प्राथमिक
चिकित्सा, रेड-क्रास आदि ।
6. स्वास्थ्य स्तर जैसे-कद, बीमारियों से मुक्ति आदि ।
व्यापक तथा निरंतर मूल्यांकन के तत्त्व/तकनीक― व्यापक तथा निरंतर मूल्यांकन के
लिए विभिन्न विधियों व तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता है जैसे―
1. प्रश्नोत्तरी
2. दत्त कार्य
3. लिखित व मौखिक परीक्षण
4. क्षेत्र/प्रयोगशाला/प्रोजेक्ट कार्य
5. टर्म पेपर
6. उपस्थिति
व्यापक तथा निरंतर मूल्यांकन की उपयोगिता/लाभ―
1. यह पुस्तकालय में अध्ययन की आदतों का विकास करता है।
2. इससे बालक में आत्मविश्वास की वृद्धि होती है।
3. यह आपसी विचार-विमर्श के अवसर प्रदान करता है।
4. इसके आधार पर विद्यार्थी की भविष्य में सफलता की भविष्यवाणी की जा सकती है।
5. यह पहले से ही/प्रकरण की तैयारी को आदत का विकास करने में भी सहायता करता है।
6. इसके अन्तर्गत अपनाई जाने वाली तकनीके जैसे-सेमिनार, सामूहिक विचार-विमर्श
आदि विद्यार्थी एवं अध्यापक तथा विद्यार्थी एवं विद्यार्थी के बीच अन्त:क्रिया को
प्रोत्साहित करती है।
7. यह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया एवं प्रोजेक्ट के द्वारा निर्माणात्मक शिक्षण अधिगम
प्रक्रिया होता है।
8. उपचारात्मक कार्यक्रम एवं प्रोजेक्ट के द्वारा निर्माणात्मक शिक्षण अधिगम प्रक्रिया
को सुदृढ़ आधार प्रदान किया जा सकता है
9. इसमें बालक के ज्ञानात्मक तथा अन्य भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों को भी शामिल
किया जाता है।
10. इससे व्यक्तिनिष्ठता में कमी आती है।
11. यह समय-समय पर बालक तथा अध्यापक दोनों को प्रतिपुष्टि प्रदान करता है
12. यह नियमित रूप से विद्यार्थियों की कमजोरियों एवं शक्तियों के बारे में उपयोगी
आंकड़े प्रदान करता है।
13. यह विद्यार्थी तथा अध्यापक दोनों को ही अपने प्रयत्नों में उपयुक्त परिवर्तन के अवसर
प्रदान करता है।
14. यह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सुधार लाता है।
15. यह बालकों की व्यक्तिगत योग्यताओं को प्रोत्साहन देता है।
व्यापक तथा सतत् मूल्यांकन की हानियाँ एवं सीमाएँ:
1. यह मूल्यांकन तभी संभव है जब अध्यापक एवं विद्यार्थी के बीच मधुर सम्बन्ध हों।
2. कभी-कभी अध्यापक इसका गलत प्रयोग करते हैं और समय-समय पर विद्यार्थियों
को चेतावनी देते रहते हैं जिससे उनमें असुरक्षा की भावना आने का भय बना रहता है ।
3. अध्यापक को ऐसे मूल्यांकन के लिए प्रत्येक विद्यार्थी की भूमिका को जानना
आवश्यक होता है।
4. अध्यापक का पक्षपात इसे वस्तुनिष्ठ की अपेक्षा व्यक्तिनिष्ठ बना देता है।
5. यह बड़ी संख्या वाले कक्षा-कक्ष में संभव नहीं होता है।
6. इसमें समय तथा शक्ति का प्रयोग अधिक होता है।
ऊपर वर्णित हानियों तथा सीमाओं के बावजूद भी यह मूल्यांकन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
है। इसकी उपयोगिता को बढ़ाना अध्यापक पर निर्भर करता है। यह न केवल विद्यार्थियों
को शैक्षिक उपलब्धि की जाँच ही करता है अपितु उनमें सुधार लाने का प्रयत्न भी करता है।
प्रश्न 20. विद्यालय का प्रगति पत्रक से आप क्या समझते हैं ? शैक्षिक प्रक्रिया
के निर्धारण में विद्यालय प्रगति पत्रक की उपयोगिता समझाइए।
उत्तर―विद्यालय का प्रगति पत्रक―विद्यालय का प्रगति पत्रक विद्यालय-दर्पण के समान
है जिसमें विद्यालय से जुड़ी लगभग सारी जानकारियों को सम्मिलित किया गया है। यह प्रगति
पत्रक प्रत्येक सत्र के अंत में अर्थात् जुलाई, नवम्बर एवं मार्च में भरा जाना है।
विद्यालय प्रगति पत्रक पाँच खंड में विभक्त हैं :
(क) सामान्य जानकारी
(ख) भौतिक स्थिति
(ग) प्रबंधन एवं सामुदायिक सहभागिता
(घ) अकादमिक उपलब्धियाँ
(अ) विद्यालय की ग्रेडिंग-
(क) सामान्य जानकारी―इसके अन्तर्गत विद्यालय की सामान्य जानकारी भरा जाना है।
इसे प्रधानाध्यापक द्वारा प्रत्येक सत्र के अन्त में भरा जायेगा। विद्यालय कोड से आशय है―
डायस में विद्यालय को दिया गया कोड। इसके अतिरिक्त इसमें विद्यालय अन्य सामान्य सूचनाएँ
भरी जाती है।
(ख) भौतिक स्थिति–प्रत्येक सत्रांत में अपने विद्यालय की भौतिक स्थिति के आधार
पर प्रगति पत्रक विद्यालय के प्रधानाध्यापक द्वारा भरा जायेगा तथा श्रेणीकरण का अंक दिया
जायेगा। उदाहरणस्वरूप—शौचालय, रसोईघर, पेयजल व्यवस्था आदि से संबंधित सूचनाएँ।
प्रत्येक मानक के लिए 2 या उससे अधिक विकल्प/स्थिति दी गई हैं तथा प्रत्येक विकल्प/स्थिति
के लिए श्रेणीकरण के अंक निर्धारित हैं। विद्यालय की स्थिति के अनुसार श्रेणीकरण का प्राप्तांक
सत्रवार भरा जायेगा।
(ग) प्रबंधन एवं सामुदायिक सहभागिता―प्रबंधन एवं सामुदायिक सहभागिता के जुड़े
मानकों यथा-‘विद्यालय का समय पर खुलना, बाल संसद तथा मीना मंच का गठन, विद्यालय
अनुदान का उपयोग. विद्यालय शिक्षा समिति की बैठक की स्थिति’ आदि मानकों के लिए 2
या उससे अधिक विकल्प/स्थिति दिये गये हैं तथा प्रत्येक विकल्प/स्थिति के लिए श्रेणीकरण
के अंक निर्धारित हैं। विद्यालय की स्थिति के अनुसार श्रेणीकरण का प्राप्तांक सत्रवार भरा जायेगा।
(घ) अकादमिक उपलब्धियाँ-अकादमिक उपलब्धियों को भरने के लिए बच्चों के
प्रगति पत्रक एवं रजिस्टर की सहायता ली जायेगी। वर्ग-वार विभिन्न दक्षता प्राप्त करने वाले
बच्चों की संख्या के आधार पर श्रेणीकरण के प्राप्तांक निर्धारित हैं।
      विषयवार सीखने के स्तर हेतु प्रत्येक कक्षा के तीन-तीन विषयों भाषा, गणित एवं अंग्रेजी
में शैक्षिक दक्षता रखने वाले बच्चों की संख्या के आधार पर प्राप्तांक निर्धारित हैं। जैसे―
कक्षा-1 में 40 बच्चे नामांकित हैं एवं प्रथम सत्र के अंत में 20 बच्चों ने एक दक्षता ‘अपनी
बात समझाता है’ को प्राप्त कर लिया है तो बच्चों के प्रतिशत कॉलम में 50 प्रतिशत तथा
प्राप्तांक में 50% 10 = 5 अंक भरा जायेगा।
(ङ) विद्यालय की ग्रेडिंग―अकादमिक उपलब्धियों के कुल प्राप्तांक के लिए यदि
विद्यालय में केवल कक्षा 1 से 5 तक की कक्षाओं का संचालन होता है तो अकादमिक उपलब्धियों
के लिए अधिकतम प्राप्तांक 500 होगा। इसी प्रकार कक्षा 1 से 8 तक की कक्षाओं के संचालन
होने वाले विद्यालयों के लिए अकादमिक उपलब्धियों का अधिकतम प्राप्तांक 770 होगा। इसके
आधार पर विद्यालय के अकादमिक उपलब्धियों का आकलन किया जा सकेगा।
विद्यालयों की ग्रेडिंग भौतिक स्थिति, प्रबंधन एवं सामुदायिक सहभागिता तथा अकादमिक
उपलब्धियों में प्राप्तांक के आधार पर किया जायेगा। कुल अधिकतम प्राप्तांक कक्षा 1-5 वाले
विद्यालयों के लिए 560 तथा कक्षा 1-8 वाले विद्यालयों के लिए 830 हैं। इनमें प्राप्त अंकों
के आधार पर प्रत्येक सत्र के अंत में विद्यालयों की ग्रेडिंग की जायेगी। जैसे―
ph1,2
ग्रेडिंग के मानक: प्राप्त अंकों का प्रतिशत 90% से 100% A, 80% से 89%―B, 70% से 79%―C, 70% से कम―D.
     इस प्रकार विद्यालय प्रगति पत्रक के आधार पर विद्यालयों की ग्रेडिंग भी की जा सकेगी।
साथ ही प्रत्येक विद्यालय एवं प्रत्येक बच्चों के विकास के गति का संधारण किया जा सकेगा
एवं उसके आधार पर विद्यालय विकास योजना निर्माण को बल मिलेगा। उपरोक्त सभी कार्य
प्रधानाध्यापक की देखरेख में शिक्षकों के सहयोग से किये जायेंगे।
          यह विद्यालय प्रगति पत्रक ही विद्यालय का राज्य स्तर पर उत्कृष्ट विद्यालय के रूप में
चयन का मुख्य आधार है। इसके लिए जिन विद्यालय शिक्षा समितियों के लोगों ने अपने विद्यालय
एवं उसके आलोक में भरे गये विद्यालय प्रगति पत्रक में विद्यालय को ‘A’ ग्रेड पाता है उन्हें
संबंधित जिले के जिला शिक्षा पदाधिकारी के माध्यम से अपने विद्यालय को उत्कृष्ट होने
का दावा पेश करना होता है। राज्य स्तरीय टीम उस दावे के आलोक में उस विद्यालय के
द्वारा भरे गये प्रगति पत्रक के आधार पर उस विद्यालय का स्थलीय पर्यवेक्षण करती है तथा
दर्ज सूचनायें सही पाये जाने की स्थिति में इस विद्यालय को ‘A’ श्रेणी के विद्यालय घोषित
करने के प्रस्ताव को स्वीकृत देती है जिसके आलोक में राज्य सरकार उक्त विद्यालय को
‘A’ श्रेणी के विद्यालय घोषित करने के प्रस्ताव को स्वीकृति देती है जिसके आलोक में राज्य
सरकार उक्त विद्यालय के प्रधान शिक्षक, अध्यक्ष एवं समिति के समक्ष राज्य स्तरीय समारोह
में उक्त विद्यालय को उत्कृष्ट घोषित कर पुरस्कार एवं प्रमाण-पत्र प्रदान करती है इस क्रम
में पहली बार 2013 में राष्ट्रीय शिक्षा दिवस 11 नवम्बर के अवसर पर राज्य के 273 विद्यालय
को राज्य स्तर पर उत्कृष्ट घोपित किया गया।
         उक्त सभी प्रगति पत्रकों के माध्यम से शिक्षक समुदाय, अभिभावक एवं सभी को यह
सोचने में मदद मिलती है कि बच्चे के सीखने की प्रक्रिया किस प्रकार से चल रही है। जिन
विषयों को सीखने में बच्चों को कठिनाई हो रही है उनके लिए शिक्षक एवं अभिभावक को
क्या करने की आवश्यकता है। इसमें शिक्षकों की यह स्पष्ट दृष्टि बनती है कि कक्षायी
क्रियाकलाप में उन्हें क्या-क्या करने की आवश्यकता है। किन-किन गतिविधियों में उन्हें अपनी
बच्चों की, अभिभावकों की सहभागिता सुनिश्चित करनी है तथा किन-किन गतिविधियों का
अभिलेख करना है। उन्हें यह भी दृश्य मिलती है कि किन किन नवीन गतिविधियों का उपयोग
शिक्षण प्रक्रिया में करना पड़ेगा।
       विद्यालय प्रगति पत्रक के माधम से समुदाय अपने विद्यालय की भौतिक एवं शैक्षिक
के साथ-साथ सह शैक्षिक गतिविधियों में विद्यालय के प्रदर्शन को भी जान सकता है। इसके
माध्यम से वह अपने विद्यालय के शिक्षकों को और बेहतर करने के लिए प्रेरित कर सकता है।
प्रश्न 21. शिक्षक वृतिक विकास से क्या समझते हे। ? शिक्षक वृतिक विकास
शिक्षक की पेशागत दक्षता के संवर्धन में किस प्रकार सहायक है?
उत्तर―जीवनयापन और भरण-पोषण हेतु आय के स्रोत की जरूरत होती है। इसके
लिए व्यक्ति को किसी कार्य से जुड़ना पड़ता है। आमतौर पर व्यक्ति किसी कार्य से जुड़कर
ही आय अर्जित कर पाता है। जब वह इसी कार्य को लगातार या दिन-प्रतिदिन करता है
तो वह उस कार्य का अभ्यस्त हो जाता है। उस कार्य से उसका तादात्मय कायम हो जाता
है। यह कार्य उसका पेशा कहा जाने लगता है। समाज उसे उसी पेशे से जुड़ा हुआ मानता
है और व्यक्ति भी उसी पेशे के साथ अपनी आय अर्जित करता जाता है। यही उसको वृत्ति
कहलाती है। व्यक्ति अपनी वृत्ति के अनुकूल स्वयं को ढाल लेता है ताकि वह अपनी वृत्ति
को स्थायी कर सके और उसमें आनन्द का अनुभव करें।
      वर्तमान समय में, शिक्षा के क्षेत्र में कई नवाचारी परिवर्तन हुए हैं जिसके कारण शिक्षक
में कई कौशलों की अनिवार्यता हो गई है। उदाहरणस्वरूप, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का
विद्यालय में उपयोग को देखा जा सकता है। आवश्यकता है कि वर्तमान की आवश्यकता
एवं भविष्य की चुनौतियों को समझकर शिक्षक स्वयं में वांछित कौशलों को विकसित करता
रहे ताकि वह अपनी वृहत्त के साथ पूर्ण आनन्द लेते हुए न्याय कर सकें और गर्व कर सके ।
      नए उपागम में, शिक्षक वृत्तिक विकास को एक चिंतनशील प्रतिमान के रूप में स्वीकारा
जा रहा है। इस तरह, नए सिद्धांतों के अनुरूप शिक्षक वृत्तिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया
है जिसमें एक शिक्षक अपने कार्यों को निरन्तर विश्लेषित करता रहता है और इससे प्राप्त
अनुभवों से स्वज्ञान का संवर्धन भी करता है। इस संदर्भ में यह मान्यता है कि चिंतनशील
प्रक्रिया को अपनाने से ही एक शिक्षक स्वदृष्टिकोण को वास्तविक रूप से विकसित कर
सकता है। इस प्रकार शिक्षक वृत्तिक विकास की संकल्पना में आए नव परिवर्तनों ने शिक्षक
के अधिगम एवं कार्यों की एक नई छवि प्रस्तुत की जिसमें इसे एक सीमित व लघु प्रक्रिया
से परे एक सतत् एवं दीर्घकालिक प्रक्रिया माना गया है। वृत्तिक विकास की इस संकल्पना
में शिक्षण कौशलों के साथ-साथ एक शिक्षक के वैयक्तिक एवं सामाजिक पहलुओं को भी
उसके विकास के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है।
           शिक्षकों की वृत्तिक क्रियाएँ उनके सैद्धांतिक ज्ञान का प्रतिफल है। शिक्षकों का यही
सैद्धान्तिक ज्ञान उनके शिक्षण की वृत्ति में प्रकट होता है। वृत्तिक विकास के अन्तर्गत यह जानना
जरूरी है कि शिक्षक स्वयं से वृत्तिक उद्भव प्रक्रिया से सहभागी बनते है तथा उनके कार्यों
की अपनी जटिलता और विशेषता है । वे अपने कार्यकाल के कई चरणों से गुजरते हुए विविध
अनुभव प्राप्त करते हैं। इस दौरान वे अपने वृत्तिक कार्य को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखते
हैं। उदाहरणतः पाठ्यचर्या, पुस्तकें, शिक्षणशास्त्र कक्षागत प्रक्रियाएँ, अधिगमकर्ता की प्रकृति
समाज आदि के विषय में उनकी धारणाएँ एवं समझ प्राप्त अनुभवों के आधार पर निरन्तर विकसित
और संवर्धित होती रही है जो उनके वृत्तिक विकास के स्थाई घटक हैं।
         शिक्षक वृत्तिक विकास शिक्षण की पेशागत संवर्धन में सहायक― शिक्षक की कार्य
संस्कृति और सामजिक परिदृश्य भी उसके वृत्तिक विकास का महत्त्वपूर्ण अंग है। उन
सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा वैचारिक संदर्भो का एक शिक्षक के कार्य करने पर विशेष प्रभाव
होता है जिनसे यह जुड़ा हुआ है । साथ ही, उसके अपने मूल्य तथा कार्य संस्कृति की मान्यताओं
के मध्य होनेवाले जटिल अर्न्तसम्बन्धों का भी उसके कार्य प्रणाली पर असर पड़ता है।
        एक सामाजिक व्यवस्था में शिक्षक अपने कार्यों को निष्पादित करता है, उत्पन्न होनेवाले
समस्याओं एवं द्वन्दों का सामना करता है तथा संगठनात्मक एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्वों का
निर्वाह करता है। यहाँ वृत्तिक विकास को शिक्षक के समाजीकरण से भी जोड़कर देखा गया
है । ऐसी मान्यता है कि विद्यालयी व्यवस्था एक विशेष प्रकार के वातावरण का कार्य करती
है जिसमें सामाजिक सत्ता, अन्तर्निहित होती है तथा जो एक शिक्षक के वृत्ति को सूक्ष्मता
से प्रभावित करती है तथा उसके वृत्रिक विकास को पुष्ट करते हैं।
          शिक्षक के कार्य का व्यक्तिगत आयाम जिसमें भावनात्मक व नैतिक पक्ष भी शामिल
है, उसके ‘वृत्तिक विकास को संवर्धित करते हैं। अपने विद्यार्थियों, सहकर्मियों तथा समुदाय
के साथ प्रभावी सम्बन्ध स्थापित करने में उसके व्यक्तिगत की विशेष भूमिका होती है।
     सम्बन्धित शोधों में शिक्षक के वृत्तिक विकास को उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक अस्मिता
से जोड़कर देखा जाता है तथा यह विश्लेषित किया जाता है कि शिक्षक के विद्यालयी
कार्यकलापों पर उसके अस्मितामूलक अनुभवों का विशेष प्रभाव होता है।
            शिक्षक के व्यक्तिगत संदर्भो को वृत्तिक विकास से जोड़कर देखने पर भी बल दिया
जाता है। सामान्यतः वृत्तिक विकास के दृष्टिकोण से एक शिक्षक का व्यक्तिगत पक्ष अपेक्षित
रह जाता है।
    अध्यापकों का कार्य उनकी पूर्वमान्यताओं, मूल्यों और पूर्वानुभवों से निरन्तर प्रभावित होता
रहता है। इनके आधार पर वे सिद्धांतों को गढ़ते हैं।
प्रश्न 22. शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के महत्त्व पर प्रकाश डालें।
अथवा, प्रशिक्षण के द्वारा शिक्षकों में किन-किन गुणों का विकास होता है ? वर्णन
करें।
उत्तर―महत्त्व―प्रशिक्षण के द्वारा शिक्षकों में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है―
1. प्रशिक्षण के कारण शिक्षकों के Professional efficency में वृद्धि होती है। शिक्षकों
को नए-नए शैक्षणिक कौशल बताये जाते हैं। इन शैक्षणिक विधियों एवं शैक्षणिक
कौशलों को वे शिक्षक अपने वर्ग-कक्ष में प्रयोग करते हैं जिससे उनके व्यावसायिक
दक्षता में इजाफा होता है।
2. प्रशिक्षण के ही अन्तर्गत शिक्षकों को विभिन्न गतिविधियों एवं पाठ्येत्तर क्रियाकलापों
की जानकारी दी जाती है। प्रशिक्षण से प्राप्त जानकारियों एवं कौशलों का विद्यालय
में प्रयोग किया जाता है जिससे विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का विकास होता है। इससे
शिक्षकों के आत्मबल का विकास होता है।
3. प्रशिक्षणों में शिक्षकों को शिक्षकों के सम्बन्धित आचार-संहिता के बारे में बताया
जाता है और इसके लिए आवश्यक Tip भी दिये जाते है। इससे शिक्षक के मानवोचित
गुणों यथा ईमानदारी, चरित्र उन्नयन, नियमितता आदि का विकास होता है जिससे
वे विद्यालय तथा समाज में उन्हें सम्मानित स्थान प्राप्त होता है।
4. प्रशिक्षणों में Joyful teaching, Micro Teaching, Innovations आदि की विस्तृत
जानकारी दी जाती है और इन बिन्दुओं पर विशेप जोर दिया जाता है । आनन्दमयी
शिक्षण कौशल, सूक्ष्म शिक्षण, नवाचारी शिक्षा आदि के कारण शिक्षकों की कार्यक्षमता
में उत्तरोत्तर सुधार होता जाता है।
5. प्रशिक्षण में शिक्षकों को शैक्षिक तकनीक के विभिन्न उपागमों संचार एवं सूचना
तकनीक के माध्यम से शिक्षित किया जाता है । कम्यूटर, रेडियो, इंटरनेट आदि को
Operate करने के बारे में शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता है। इससे शिक्षकगण
शैक्षिक तकनीक में दक्ष होते हैं, उनका विकास होता है।
6. प्रशिक्षणों में पर्यावरण जागरूकता विषय पर भी जागरूक किया जाता है। पौधों के
संरक्षण, ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण, पर्यावरण के प्रति लगाव आदि के विषय में
जागरूक किया जाता है। विद्यालय में इसका प्रयोग शिक्षकों द्वारा किया जाता है
जिससे हमारा परिवेश हरा-भरा रहता है जिसकी आज माँग बड़े पैमाने पर हो रही
है। इससे शिक्षकगण भी पर्यावरण प्रेमी बनते है।
7. विभिन्न प्रशिक्षणों में शिक्षकों को विभाग के नियम, उपनियम, निर्देशों को भली-भाँति
समझाया जाता है जिससे शिक्षकगणों को नियम एवं विभागीय निर्देशों को पूरा करने
में मदद मिलती है। इससे वे समयनिष्ठ एवं कर्तव्यनिष्ठ बनते हैं।
प्रश्न 23. शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के प्रकारों का विस्तृत वर्णन करें।
उत्तर―शिक्षकों के व्यावसायिक कौशल हेतु कई प्रकर के शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम
आयोजित किए जाते हैं। प्रारंभ में, इसे सेवापूर्ण एवं सेवाकालीन प्रशिक्षण दो प्रमुख वर्गों में
विभाजित किया जाता था। परन्तु, आज शिक्षक-शिक्षा का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1980) में कहा गया है―”शिक्षक शिक्षा एक निरन्तर चलनेवाला प्रक्रिया
है तथा इसके सेवापूर्व तथा सेवाकालीन संघटक अविभाज्य है। इन दोनों के बीच कोई विभाजन
रेखा स्थापित नहीं की जानी चाहिए।
    (A) सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण― शिक्षक बनने के पहले शिक्षकों में आवश्यक दक्षता
के विकास हेतु इस प्रशिक्षण का प्रावधान है। प्राथमिक स्तर हेतु BT की व्यवस्था है तो
माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक हेतु B.Ed की व्यवस्था है। इन प्रशिक्षणों के माध्यम
से शिक्षकों को शिक्षा का इतिहास, शिक्षा का मनोविज्ञान, शिक्षा का समाजशास्त्रीय आधार
शिक्षा का दार्शनिक आधार, शिक्षा नीति, शैक्षिक तकनीकी, पर्यावरण विज्ञान, वर्ग कक्ष एवं
विद्यालय प्रबंधन, विद्यालय में पढ़ाए जानेवाले विभिन्न विषयों को विषय-वस्तु तथा वर्ग
कक्ष विनियम की तैयारी इत्यादि सिखाई जाती है। साथ ही, इन प्रशिक्षणों के माध्यम से
अधिगम संसाधनों का चयन संगठन एवं उपयोग करने की दक्षता विकसित करने का कार्य
भी होता है। छात्रों के लिए मार्गदर्शन, निर्देशन एवं परामर्श हेतु भी प्रशिक्षण दिया जाता
है। वास्तविक परिस्थिति में आकर बच्चों के बीच पाठ विनिमयन कर शिक्षण दक्षताओं
की सम्प्राप्ति संभव हो पाती है।
    सूक्ष्म शिक्षण (Micro Teaching), आनन्दमयी शिक्षा (Joy ful Learning) सृजनात्मक
एवं नवाचारी शिक्षण द्वारा भी बारी-बारी से प्रत्येक कौशलों का विकास भी इस प्रशिक्षण द्वारा
होता है। इस प्रशिक्षण के द्वारा शिक्षकों में आवश्यक अभिवृत्ति विकसित करने का भी प्रयास
किया जाता है। इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों में शिक्षकों को इस बात की भी जानकारी दी जाती
है कि बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए समुदाय के साथ बेहतर सम्बन्ध आवश्यक है।
शिक्षकों के शिक्षकीय आचार संहिता के बारे में भी जानकारी दी जाती है। समुदाय के साथ
शिक्षकों के तालमेल के बारे में भी बताया जाता है। विभिन्न प्रकार के शैक्षिक गतिविधियों
एवं शैक्षणिक कौशलों की भी जानकारी दी जाती है।
सेवापूर्व प्रशिक्षण के उद्देश्य :
1. भावी शिक्षकों को आधुनिकीकरण और सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप
में काम करने के लिए सक्षम बनाना ।
2. शिक्षकों में प्रबंधात्मक एवं संगठनात्मक कौशलों का विकास करना।
3. बच्चे अर्जित अथवा सृजित ज्ञान का उपयोग व्यावहारिक जीवन में कर सके, ऐसी
परिस्थितियाँ निर्मित करने में शिक्षकों को सक्षम बनाना ।
4. छात्रों में तार्किक विचार एवं चिंतन शक्ति के साथ-साथ समालोचनात्मक सोच
विकसित करने हेतु भावी शिक्षकों में आवश्यक दक्षताओं को विकसित करना ।
5. उभरती हुई आधुनिक चुनौतियों यथा-पर्यावरण संरक्षण, जनसंख्या, लिंगभेद इत्यादि
के प्रति संवेदनशील बनाना ।
6. समावेशी शिक्षण हेतु तैयार करना।
7. मानवाधिकार, वाल अधिकार, नारी शिक्षा एवं सुरक्षा के प्रति तैयार करना ।
8. भारतीय संविधान में जिन राष्ट्रीय मूल्यों एवं लक्ष्यों की बात कही गई है, शिक्षकों
को उन लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक के रूप में माना गया है।
सेवाकालीन प्रशिक्षण में भावी शिक्षकों में शिक्षण के लिए अनिवार्य दक्षताओं के विकास
के साथ-साथ बच्चों को समझ कर उनके विकास हेतु योजना निर्माण एवं कार्यान्वयन में
दक्ष बनाया जाता है।
     (B) सेवाकालीन शिक्षक प्रशिक्षण―शिक्षक-शिक्षा का जो प्रारूप है उसमें सेवाकाल
में शिक्षक-शिक्षा का महत्त्वपूर्ण रोल हैं। वहीं शिक्षक सफल माना जाता है जो अपना अध्ययन
चिंतन-मनन कभी भी बंद नहीं करता है। इस विधि को अपनाने वाले शिक्षकों को पाठ्यक्रमों
में होनेवाले नवीन बदलाव और शोधों को तुरन्त जानकारी हो जाती है । एक लोकप्रिय कहावत
है―”जो सीखे वहीं सिखावै।”
      सेवाकालीन कार्यक्रम उत्तरजीवित दक्षताओं के नवीनीकरण तथा टिकाऊ बनाने के लिए
आयोजित किये जाते हैं जो शिक्षकों ने वर्षों पूर्व सीखी थीं। सेवाकालीन शिक्षा को आवश्यकता
सर्वप्रथम 1949 में अनुभव की गई जब विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने कहा, “शिक्षक को
जीवन्त और अभिनव बना रहने के लिए समय-समय पर शिष्य बनाना चाहिए।”
          सेवाकालीन प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से संवारत शिक्षकों के कार्य क्षमता एवं
कुशलता में वृद्धि हेतु प्रयास किया जाता है। आज का युग ज्ञान के विस्फोट का युग है।
शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा नवीन विचारधाराओं का उदय हो रहा है जिसके कारण पूरी शिक्षण
प्रक्रिया में बदलाव आया है । इन बदलावों के मद्देनजर सेवाकालीन प्रशिक्षण की आवश्यकता
है।
      NCERT, NIEPA, NCTE, SCERT, DIET तथा शिक्षा कॉलेजों के विस्तार विभाग जैसे
संस्थान विशेष तौर पर विषय-कन्द्रित मुद्दों जैसे सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन, ग्रेडिंग व स्केलिंग,
भाषा शिक्षण में खोज अधिगम आदि पर सेवाकालीन कार्यक्रम आयोजित करते हैं। ये कार्यक्रम
अल्पावधि के होते हैं। इनका आयोजन इन संस्थाओं के माध्यम से होता है।
          प्रसार माध्यम स्रोत रेडियो तथा टेलीविजन प्रसारणों, इलेक्ट्रॉनिक तथा जन संचार जैसे
माध्यमों के प्रयोग पर जोर दिया जाता है। साईट परियोजना तथा कक्षाकक्ष 2000 इसके
उदाहरण हैं।
NGOs―लोक जुम्बिश, एकलव्य, कृष्ण मूर्ति प्रतिष्ठान वाराणसी आदि संगठन
सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रदान कर रहे हैं। हर एजेंसी अपने पूर्ण उद्देश्यों, उपलब्ध संसाधनों तथा
विशिष्ट प्रदेश के अनुरूप कार्य करता है।
         सेवाकालीन शिक्षा की अवधि― शिक्षकों को सेवाकालीन शिक्षा कब और कितने समय
तक प्राप्त होना चाहिए । इन विषय में, कोठारी कमीशन का मत है, प्रत्येक शिक्षक को अपने
सेवाकाल में प्रति पाँच वर्ष में कम-से-कम 2 या 3 माह की सेवाकालीन शिक्षा प्राप्त होनी
चाहिए। सेवा कालीन शिक्षक-शिक्षा की विधियाँ मुदालियर कमीशन द्वारा बताई गई विधियों
के अलावा इसके लिए उपदेशात्मक व्याख्यान विधि, पैनल परिचर्चा, आमने-सामने की विधियों
आदि का भी उपयोग किया जाता है
      सेवा-पूर्व तथा सेवाकालीन कार्यक्रमों को अलग-अलग नहीं समझना चाहिए क्योंकि
कर्मचारी विकास सेवा-पूर्व प्रशिक्षण के साथ ही चालू हो जाता है तथा सेवा कालीन कार्यक्रमों
द्वारा सुदृढ़ होता है। इन दोनों पद्धतियों में बदलाव’ और ‘निरन्तरता’ के तत्त्व उपस्थित रहते हैं।
सेवापूर्व शिक्षा, अधिकांश रूप से सामान्य पहलुओं की चर्चा करते हैं जबकि सेवाकालीन
कार्यक्रम कौशलों तथा दक्षताओं के नवीनीकरण और उन्नयन की व्यवस्था का प्रावधान करते हैं।
प्रश्न 24. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के बारे में
विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करें।
उत्तर―दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान 1961 ई. में NCERT (National Council
of Educational Research and Training) की स्थापना एक Autonomous, स्वायत्तशासी
संस्था के रूप में की गई। यह शिक्षा के क्षेत्र में एक केन्द्रीय एजेन्सी के रूप में कपार्य
करती है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली के श्री अरबिन्द मार्ग पर स्थित है। इसके चार क्षेत्रीय
महाविद्यालय अजमेर, मैसूर, भुवनेश्वर तथा भोपाल में है। यह शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर
का संगठन है।
        NCERT से सम्बन्धित इकाईयाँ-NCERT के अन्तर्गत विभिन्न इकाईयाँ कार्य करती
हैं। इसमें मनोविज्ञान आधारित विज्ञान शिक्षा, शिक्षक-शिक्षा, दार्शनिक आधार, क्षेत्रीय सेवा, शोध
पत्रिका तथा शैक्षिक शोध एवं नवाचारिक प्रकोष्ठ, पाठ्य पुस्तक एवं पाठ्यक्रम प्रारंभिक एवं
प्राथमिक शिक्षा, श्रव्य दृश्य शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा एवं साक्षरता, केन्द्रीय विज्ञान कार्यशाला, शैक्षिक
सर्वेक्षण इकाई, कार्यानुभव एवं व्यावसायिक शिक्षा, परीक्षा एवं मूल्यांकन, विकलांग शिक्षा, निर्देशन
और सलाह, केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थान आदि अनेक विभाग तथा अवयवी इकाइयाँ सक्रिय है।
NCERT के कार्य-NCERT का मुख्य कार्य, अपनी विभिन्न योजनाओं द्वारा
शिक्षक-शिक्षा विशेष रूप से माध्यमिक शिक्षण के स्तर को ऊपर उठाना, पाठ्यक्रमों को
विकसित और आधुनिक बनाए रखने के लिए शैक्षीय निर्देशन पुस्तिका, छात्र कार्य-पुस्तिका
और उपयुक्त करना, शिक्षक शिक्षा में विकास के लिए विस्तार कार्यक्रम और क्षेत्रीय सेवा का
विस्तार करना, परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए ठोस प्रयत्न करते हुए उसे आधिकारिक तौर
पर वस्तुनिष्ठ रूप प्रदान करना, विभिन्न विद्यालयी विषयों में शिक्षकों, विज्ञान और गणित
शिक्षा के क्षेत्र में नए कार्यक्रमों का निर्माण और क्रियान्वयन करना, जो देश में औद्योगिक
और तकनीकी विकास की दिशा में सार्थक सिद्ध हो सके आदि परिषद् के द्वारा किए गए
एवं आनेवाले दिनों में किए जाने वाले मूलभूत एवं ठोस कार्यकलाप हैं।
इसके लिए निम्नलिखित कार्यक्रमों का आयोजन इसके द्वारा किया जाता है―
1. विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा अन्य विषयों को प्रभावी बनाने के लिए उचित शिक्षण
सहायक सामग्रियों का निर्माण करना ।
2. विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान आदि के क्षेत्र में विशेषकर पाठ्यक्रम एवं शिक्षण
विधि में सुधार सामग्री के लिए शैक्षिक पाठ्यक्रम, उपकरण पाठ्य-सामग्री आदि
का निर्माण करना।
3. शोध एवं प्रतिभा खोज अध्येतावृत्तियाँ प्रदान करना ।
4. संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वास्थ्य एवं कल्याण विभाग की सहायता से शोधकार्य
संचालित करना।
5. विद्यालय भवन निर्माण में किफायत के लिए शोधकार्य करना, शैक्षिक सर्वेक्षण करना,
सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र में मानक शब्दावली निर्धारण की दिशा में ठोस प्रयत्न
करना इत्यादि।
6. शिक्षक पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, शिक्षण तकनीकी आदि के क्षेत्र में कठिनाइयों
के समाधान के लिए शोधकार्य व्यवस्थित करना ।
7. राज्य के केन्द्रों के द्वारा सेवाकालीन प्रशिक्षण, शैक्षिक नियोजन और प्रशासन के
क्षेत्र में आनेवाली समस्याओं के बारे में जानकारी हासिल करना ।
8. प्राथमिक शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा तथा साक्षरता कार्यक्रम को अग्रसारित
करना।
9. विज्ञान और गणित के शिक्षक के लिए अन्तर्राष्ट्रीय तकनीकी विकास ऐजेंसी और
UGC की मदद से ग्रीष्मकालीन कार्यक्रमों का संचालन करना।
10. प्रादेशिक शिक्षा संस्थान के अधीन ग्रीष्मकालीन पाठ्यक्रम एवं सेवाकालीन कार्यक्रम
आयोजित करना।
नियंत्रण करनेवाली इकाई― केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री की अध्यक्षता में 12
सदस्यीय समिति NCERT की नियंत्रक इकाई के रूप में कार्य करती है। इस इकाई का मुख्य
कार्य―परिषद् के कार्यों का प्रबंधन, निर्देशन और नियंत्रण नियम अधिनियम एवं प्रावधान के
अनुसार करना। परिषद के नैमित्तिक कार्यों के संचालन और प्रबंधन का कार्य निदेशन के
द्वारा संयुक्त सचिव और सचिव को सहायता से किया जाता है । परिषद की 17 क्षेत्रीय कार्यालय
इकाईयाँ भी कार्यरत हैं।
            यह विद्यालयीय शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता सुधार लिए नीति, कार्यक्रम, पाठ्यक्रम
आदि को तैयार करने और उन्हें कार्य करने के लिए; की ओर काम करती है तो दूसरी ओर
शिक्षा की दिशा में होनेवाले अनुसंधान एवं अन्वेषण को भी आगे बढ़ाने की दिशा में सार्थक
प्रयत्न करती है। इस दिशा में समय-समय पर मानव संसाधन मंत्रालय को शैक्षिक सुझाव
एवं सलाह प्रदान करते रहना भी इसका एक प्रमुख कार्य है।
     राज्य शिक्षा विभाग, विश्वविद्यालय, अन्य उच्च शिक्षा केन्द्रों आदि के साथ सामंजन्स
के साथ परिषद् कार्य करती है। क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों के माध्यम से चार वर्षीय एकीकृत
शिक्षा पाठ्यक्रम एक वर्षीय बी०एड० पाठ्यक्रम और एम०एड० पाठ्यक्रमों को परिषद् संचालित
करती है।
    स्कूली शिक्षा में शोध एवं प्रशिक्षण हेतु बेहतर समन्वय एवं कार्यान्वयन हेतु परिषद् की
निम्न प्रमुख संघटक इकाईयाँ है।
(A) राष्ट्रीय शिक्षा संस्था (N.I.T.)
(B) केन्द्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान (C.L.E.T)
(C) क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय ।
परिषद् की प्रमुख पत्रिका तथा शोध पत्रिकाएँ–इण्डियन ऐजुकेशनल रिव्यू, भारतीय
आधुनिक शिक्षा, स्कूल साईस, प्राइमरी टीचर, जर्नल ऑफ इण्डियन एजुकेशन इत्यादि ।
प्रतिभाशाली छात्रों के लिए परिषद द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिभा खोज प्रतियोगिता का आयोजन
किया जाता है। जिसमें सफल छात्रों को विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान, अभियांत्रिकी एवं
चिकित्सा विज्ञान में पी०एचडी स्तर तक अध्ययन के लिए लगातार स्कॉलरशिप दी जाती है।
वर्ग 1 से 12 तक तकरीबन समस्त विषयों के लिए पाठ्यक्रम बनाने का काम भी परिषद् के
द्वारा किया जाता है।
      शिक्षा पर नवीन राष्ट्रीय नीति, 1986 में निर्माण के बाद परिषद् द्वारा विद्यालयी शिक्षा
के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ नामक एक पुस्तिका सन् 2000 में तैयार की गई।
इस पुस्तिका में सन्दर्भ और सरोकार, प्रारम्भिक और माध्यमिक स्तर पर पाठ्यचर्या संयोजन,
उच्च माध्यमिक और व्यवस्था को प्रबंधन जैसे बेसिक क्षेत्रों पर विशेष रूपरेखा का निर्माण
एवं प्रस्ताव किया गया है।
      राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् एक ऐसी ऐजेन्सी है जो शिक्षक शिक्षण
के क्षेत्र में सामान्य और विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से कार्य कर रही है और
शिक्षा में स्तरोन्नयन के लिए वचनबद्ध प्रतीत होती है।
प्रश्न 25. राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय (NUEPA) के बारे
में विस्तृत जानकारी दें।
उत्तर―राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय (National University of
Educational Planning and Adiminstrative) शैक्षिक योजना और प्रशासन के क्षेत्र में
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा स्थापित एक केन्द्रीय संस्थान है जो
भारत ही नहीं बल्कि दक्षिणी एशिया का प्रमुख संगठन है जो शैक्षिक योजना एवं प्रबंधन
के क्षेत्र में क्षमता विकास एवं शोध कार्य में संलग्न है । शैक्षिक योजना और प्रशासन के क्षेत्र
में इसके द्वारा किए जा रहे कार्यों को देखते हुए भारत सरकार ने अगस्त, 2006 में
इसका उन्नयन करके मानद विश्वविद्यालयों का दर्जा प्रदान किया ताकि स्वयं उपाधि प्रदान
कर सके।
      अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के समान न्यूपा भारत सरकार द्वारा पूर्णतः वित्तपोषित स्वायत्त
संस्थान है। आरंभ में न्यूपा की स्थापना 1962 ई. में एशिया और प्रशांत क्षेत्र के शैक्षिक
योजनाकारों, प्रशिक्षकों एवं पर्यवेक्षकों के प्रशिक्षण हेतु एशिया क्षेत्र में यूनेस्को केन्द्र के रूप
में की गई थी जिसे 1965 ई. में एशियाई शैक्षिक योजना एवं प्रशासन संस्थान बना दिया
गया।
      चार वर्षों के बाद भारत सरकार ने इसका अधिग्रहण कर लिया और इसका नाम राष्ट्रीय
शैक्षिक योजनाकार एवं प्रशासक कॉलेज रख दिया गया। राष्ट्रीय शैक्षिक योजनाकार एवं
प्रशासक कॉलेज की बढ़ती भूमिकाओं और कार्यकलापों विशेषकर क्षमता विकास, शोध और
सरकार को दी जा रही व्यावसायिक समर्थनकारी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए 1979 ई.
में पुनः इसका नाम बदलकर NIEPA (National Institute of Education Planning and
Adminstration) कर दिया गया। इसका कार्य राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद्
को सहयोग देना है। संस्थान शैक्षिक नियोजन का कार्य करती है।
न्यूपा निम्नलिखित प्रकार के कार्य सम्पादित करती है―
1. प्रशिक्षण—यह शैक्षिक नियोजन एवं प्रबंधन, प्रशासन से सम्बन्धित सेमिनार,
कार्यशाला तथा प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करती है। यह एशिया क्षेत्र के भारतीय और
अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तियों हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रम तय करती है।
2. अनुसंधान—यह शैक्षिक नियोजन प्रशासन में अनुसंधान करती है। संस्थान के
अनुसंधान परिणामों को प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ जोड़ती हैं। नीति बनाने व नीति मूल्याँकन
हेतु सर्वेक्षण विश्लेषण अध्ययन व अनुसंधान परियोजनाएँ सम्पादित करती है।
3. नवाचार—यह शैक्षिक नियोजन एवं प्रशासन के संदर्भ में नवीन प्रयोग करना तथा
नवाचारी विधियों का प्रयोग करना जैसे―School complex एवं School Leardership
इत्यादि । शैक्षिक भ्रमण आयोजित करना जिससे उनमें अपनाई जानेवाली नवाचारी क्रियाकलापों
से नियोजकों, प्रशंसकों, विद्यालय मुख्याध्यापकों इत्यादि से अवगत कराना।
4. परामर्श सेवा― केन्द्र सरकार को समय-समय पर विभिन्न मुद्दों जैसे―नियोजन,
प्रशासन का विकेन्द्रीकरण, प्रारंभिक शिक्षा का सार्वजनीकरण, वयस्क शिक्षा, शैक्षिक कार्यक्रमों
की जाँच करना एवं मूल्याँकन करना आदि विषयों पर सलाह एवं मार्गदर्शन करना।
राज्यों एवं केन्द्रिशासित प्रदेशों को विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर के नियोजन
एवं प्रशासन सम्बन्धी परामर्श सेवा प्रदान करना।
5. प्रकाशन-शैक्षिक नियोजन एवं प्रशासन सम्बन्धी विभिन्न प्रकार के शैक्षिक एवं
अनुसंधान परक प्रकाशन करना । विद्यालय शिक्षा व उच्च शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न जर्नल,
शोध-पत्र अध्ययन प्रतिवेदन, संदर्भ पत्र इत्यादि प्रकाशित करना।
6. सहयोग―विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे-UGC, NCERT, CBSE,
IGSR, UNESCO इत्यादि संगठनों के विषय-विशेषज्ञों एवं संसाधन व्यक्तियों का प्रशिक्षण
एवं अनुसंधान में पूर्ण सहायता करना ।
        शिक्षा में गुणात्मक एवं मात्रात्मक विकास हेतु न्यूपा के शिक्षकों एवं अन्य संगठनों के
शिक्षकों एवं सदस्यों को बीच अन्तक्रिया को बढ़ावा देना इत्यादि ।
प्रश्न 26. राज्य शिक्षा शोध एवं प्रशिक्षण परिषद् (SCERT) के बारे में विस्तृत
जानकारी दें।
उत्तर―SCERT―राज्य शिक्षा शोध एवं प्रशिक्षण परिषद् (State Council of
Educational Research and Training) की स्थापना विभिन्न राज्यों में विद्यालयी शिक्षा की
गुणवत्ता में सुधार लाने हेतु की गई थीं । राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) एवं इसकी कार्ययोजना
(1992) में राज्य स्तर के उत्कृष्ट शैक्षिक संगठनों की परिकल्पना की गई थी ताकि वे राज्य
स्तर पर नोडल एजेंसी का काम करें ।
      बिहार राज्य में शिक्षा विभाग की राज्यस्तरीय संस्था SCERT, Bihar विद्यालयी शिक्षा
में गुणात्मक सुधार लाने के लिए सतत् प्रयत्नशील हैं। शैक्षिक विकास की दौड़ में राज्य
को पुनः स्थापित करने, स्कूली शिक्षा को ठोस आधार देने एवं स्वरूप प्रदान करने और विद्यार्थियों
के भविष्य को सुधारने हेतु क्रियाशीलनों एवं नवाचार गतिविधियों के माध्यम से बहुआयामी
कार्यक्रमों का सम्पादन परिषद् द्वारा सतत् रूप से किया जा रहा है ।
        परिषद् के मुख्यालय में CIET, नई दिल्ली के माध्यम से प्राप्त एडुसैट यंत्र स्थापित है।
एडुसैट के माध्यम से वर्ष 2007-08 से शिक्षा में गुणवत्ता विकास हेतु शिक्षकों एवं
शिक्षक प्रशिक्षकों को Video-Conference के माध्यम से प्रशिक्षण दिया जा रहा है ।
      इस परिषद् द्वारा राज्य में संचालित दो वर्षीय शिक्षण-प्रशिक्षण पाठ्यचर्चा एवं पाठ्क्रम
का निर्माण एवं इसके आधार पर DIES/प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय के प्राचार्यों
एवं व्याख्याताओं के प्रशिक्षण भी आयोजित किए जाते हैं।
ph3
SCERT के कार्य:
1. स्कूली शिक्षा, सतत् शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा और विशेष शिक्षा में सुधार करना ।
2. विभिन्न प्रकार के शैक्षिक अनुसंधान आयोजित करके शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाना ।
3. पूर्व- प्राथमिक शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा में निरीक्षकों को प्रशिक्षण देना।
4. शिक्षक शिक्षा में सुधार करना ।
5. पूर्व-प्राथमिक शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा में शिक्षकों को सेवाकालीन एवं
पूर्व सेवा प्रशिक्षण प्रदान करना ।
6. शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए शिक्षा पद्धति को अपग्रेड करना ।
7. शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को विस्तार सेवा प्रदान करना तथा उनमें तालमेल बनाए रखना।
8. शैक्षिक नवाचारों के लिए प्रचार करना ।
9. शैक्षिक संस्थानों के लिए शिक्षण सामग्री तैयार करना ।
10. शिक्षकों को विषय-वस्तु तथा शिक्षण-विधि में अनुसंधान करने हेतु प्रोत्साहित करना।
प्रश्न 27. संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (UNICEF) पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर―संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (UNICEF-United Nations International
Childrens Emergency Fund) की स्थापना का प्रारम्भिक उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध में नष्ट
हुए राष्ट्रों के बच्चों को खाना और स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराना था। इसकी स्थापना संयुक्त
राष्ट्र महासभा ने।। दिसम्बर, 1946 ई. में की थी। इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क में है । यूनीसेफ
को सन् 1965 ई. में उसके बेहतर कार्य के लिए ‘शान्ति के नोबल पुरस्कार’ से सम्मानित
किया गया था। सन् 1989 ई० में संगठन को “इन्दिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति पुरस्कार भी
प्रदान किया गया।
          वर्तमान में इसके 120 से अधिक शहरों में कार्यालय है। यह कुछ महत्वपूर्ण सामान
जैसे—जीवन रिक्षक टीके, HIV पीड़ित बच्चों और उनकी माताओं के लिए दवा, कुपोषण
के उपचार के लिए दवाइयाँ, आकस्मिक आश्रय के वितरण को प्राथमिकता देता है।
   यह नीतियाँ बनाता है और साथ ही यह वित्तीय और प्रशासनिक योजनाओं से जुड़े कार्यक्रमों
को स्वीकृति प्रदान करता है ।
         वर्तमान में UNICEF मुख्यतः पाँच प्राथमिकताओं पर केन्द्रित है। बच्चों का विकास,
बुनियादी शिक्षा, लिंग के आधार पर समानता, बच्चों का हिंसा से बचाव, शोषण एवं बाल-श्रम
के विरोध में बच्चों के अधिकारों के वैधानिक संघर्ष के लिए काम करता है।
    बिहार प्रान्त में भी UNICEF की मदद से विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी
योजनाएँ शिक्षा, स्वास्थ्य एवं पोषण के क्षेत्र में ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में संचालित हो रही है।
प्रश्न 28. निम्न पर टिप्पणी लिखें―
(क) प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय (PTEC)
(ख) प्रखण्ड एवं संकुल संसाधन केन्द्र (BRC and CRC)
(ग) सर्व शिक्षा अभियान (SSA)
उत्तर―(क) प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय-भारत में दो तरह के प्राथमिक
विद्यालय हैं—प्राथमिक और गैर बुनियादी । इसीलिए इन विद्यालयों के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण
देने के लिए दो प्रकार की प्रशिक्षण संस्थाएँ भी हैं―
1. प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय―इसमें उच्च विद्यालयों से प्राप्त
छात्राध्यापकों को गैर-बुनियादी स्कूलों के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है और प्रशिक्षण के बाद
उनको Senior Teachers Certificate प्रदान किया जाता है।
2. बेसिक ट्रेनिंग स्कूल–इनमें अपर प्राथमिक विद्यालयों के लिए छात्रों को प्रशिक्षण
दिया जाता है और प्रशिक्षण के बाद उनको Basic Teachers Certificate प्रदान किया
जाता है।
        दोनों तरह की संस्थाओं में प्रशिक्षण का समय एक वर्ष का है। स्वतंत्रता प्राप्ति तक
भारत में 51 PT.E.C तथा 528Normal School थे। इनमें 339Normal School परुषों के
लिए तथा 189 Normal School महिलाओं के लिए थे।
राज्य में, अध्यापक शिक्षा को बल प्रदान करने के उद्देश्य से ‘शोध और प्रशिक्षण निदेशालय
को सुदृढ़ किया गया है। इसके अन्तर्गत राज्य के प्रत्येक जिले में एक DIET कम-से-कम
प्रत्येक तीन जिला पर एक अध्यापक शिक्षा महाविद्यालय तथा राज्य के अनुसूचित जाति तथा
अल्पसंख्यक बाहुल्य प्रत्येक जिला में एक प्रखण्ड अध्यापक शिक्षा संस्थान स्थापित करने
का प्रावधान किया गया है।
       वर्तमान में राज्य में 38 जिला है जिसमें मात्र 24 जिला में ही DIET स्वीकृत हैं।
आगामी वर्षों में शेष 14 जिला में नए DIET स्थापित करने का लक्ष्य है। लगभग 9 जिलों
में DIET की स्थापना इन जिलों में संचालित प्राथमिक शिक्षण शिक्षा महाविद्यालयों से उत्क्रमण
से की जाएगी।
       (ख) प्रखण्ड एवं संकुल संसाधन केन्द्र―प्रखण्ड संसाधन केन्द्र (BRC-Block
Resource Centre) को प्राथमिक शिक्षा को और अन्य प्रशिक्षकों को सेवाकालीन प्रशिक्षण
की योजना बनाने, प्रबंधन तथा पर्यवेक्षण की योजना बनाने, प्रबंधन तथा पर्यवेक्षण करने हेतु
स्थापित किया गया था। इन केन्द्रों में प्रत्येक शिक्षायी ब्लॉक स्तर पर शिक्षा संसाधकों का
समूह स्थापित करने का कार्य किया । चूँकि ये सक्रिय प्रतिभागी होते हैं, अत: DIETs के निर्देशों
के मुताबिक मुख्य अध्यापकों, शिक्षकों, संकुल समन्वयकों, विद्यालय प्रबंधन समिति के सदस्यों
तथा गैर सरकारी संगठनों के साथ विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन भी करवाते
है। BRC, DIET तथा शिक्षकों के बीच समन्वय एवं सेतु का काम भी करते हैं।
ph4
DRC-Distric Resource Centre (जिला संसाधन केन्द्र)
BRC-Block Resource Centre (प्रखण्ड संसाधन केन्द्र)
CRC-Cluster Resource Centre (संकुल संसाधन केन्द्र)
        संकुल संसाधन केन्द्र को संकुल विशेष के अन्तर्गत आनेवाले विद्यालयों के शिक्षकों
को प्रत्यक्ष अकादमिक संसाधन केन्द्र के रूप में सहायता प्रदान करने के लिए बनाया गया
है। समान्यतः प्रत्येक संकुल में 10-15 विद्यालय तथा 40-50 शिक्षक होते हैं। CRC इस
बारे में भी सूचना उपलब्ध करवाते हैं कि किस हद तक विभागीय कार्यक्रमों को विद्यालयों
में लागू किया गया है तथा इन कार्यक्रमों को लागू करने एवं विस्तारित करने में कौन-कौन
सी बुनियादी एवं व्यवहारिक समस्याएँ आई।
    मौजूदा असमान शिक्षा प्रणाली में यह जरूरी है कि BRC तथा CRC विद्यालयों में गुणात्मक
सुधार की प्रक्रियाओं में अधिक सक्रिय एवं सकारात्मक भूमिका निभाएं ताकि शिक्षा का मौलिक
अधिकार सही मायने में व्यवहृत हो।
           (ग) सर्व शिक्षा अभियान (SSA)-SSA एक Umbrella Programme है जिसके
अन्दर बहुत सारे योजनाओं को एकीकृत किया गया है। यह राज्यों के सहयोग से चलनेवाला
शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण सार्वजनीकरण का एक महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम है। यह भारत सरकार
का कार्यक्रम है जो प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वजनीकरण पर समयबद्ध तरीके से बल प्रदान करता
है। यह प्रतिबद्धता संविधान के 8वें संशोधन से और अधिक बढ़ गई है। यह संशोधन 6-
14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। इसका
एक उद्देश्य विद्यालय में शैक्षिक वातावरण को सुखद एवं सुविधायुक्त बनाना भी है। इस
अभियान के तहत हमारे राज्य में मुख्यमंत्री समग्र विद्यालय विकास मोजना तथा अन्य मुख्यमंत्री
योजनाएँ चल रही हैं। विद्यालय को आधारभूत संरचना को मजबूत करने के साथ-साथ
बिहार
में शिक्षकों के नियोजन का भी कार्यक्रम चल रहा है।
     SSA सिर्फ शिक्षा की ही बात नहीं करता है वरन् स्त्री-पुरुष असमानता तथा
सामाजिक-विभेद को समाप्त करके प्रारंभिक शिक्षा को एक मिशन के रूप में स्थापित करता
है। यह योजना समस्त बिहार में लागू है। इस अभियान की आधार शिला तत्कालीन भारत
सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री श्री मुरली मनोहर जोशी ने रखी थीं।
प्रश्न 29. बिहार शिक्षा परियोजना (BEP) के बारे में विस्तृत जानकारी दें।
उत्तर―बिहार शिक्षा परियोजना परिषद् जो कि BEP (Bihar Education Project) के
नाम से विख्यात है। यह एक ऐसा संगठन है जो राज्य में प्रारम्भिक शिक्षा में सार्वभौमिकता
प्राप्त करने के प्रति वचनबद्ध है । इस परियोजना की आधारशिला सन् 1991 में बिहार में
प्रारम्भिक शिक्षा में गुणात्मक एवं मात्रात्मक सुधार लाने हेतु की गई थीं। BEP राज्य में
बालिकाओं, अल्पसंख्यक समुदायों, समाज के वंचित, दलित एवं पिछड़े वर्गों की सार्वभौमिक
शिक्षा पर जोर देती है।
बिहार शिक्षा परियोजना परिषद् के उद्देश्य :
1. निरक्षरता में भारी कमी लाना।
2. प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण हेतु कार्य करना ।
3. महिलाओं को समानता और नारी-शिक्षा के उन्मुखीकरण के उद्देश्यों को पूरा किया
जा सके।
4. शिक्षा की भागीदारी में विद्यार्थी और बालिकाओं के बीच खाई को पाटना।
5. शैक्षिक प्रयासों में ‘समता’ और ‘सामाजिक न्याय’ पैदा करना ।
6. विज्ञान और पर्यावरण सम्बन्धी शैक्षिक गतिविधियों पर विशेष जोर देना।
7. शिक्षा को लोगों के कार्य एवं रहन-सहन के वातावरण के साथ जोड़ना।
8. Drop outs कम करना ।
9. सार्वजनिक नामांकन बढ़ाने हेतु कार्य करना ।
10. अल्पसंख्यक समुदायों, समाज के वंचित व दलित एवं पिछड़े वर्गों की सार्वभौमिक
शिक्षा पर जोर देना।
बिहार में यह परियोजना अपने अथक प्रयास से एक पहचान बना चुका है। यह शिक्षा
के सार्वभौमिकरण की दिशा में निम्नलिखित कार्यक्रमों को संचालित करती है।
1. सर्वशिक्षा अभियान (SSA)
2. प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं की शिक्षा के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम ।
3. कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय ।
4. जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम ।
5. विद्यालय स्वच्छता और स्वास्थ्य शिक्षा ।
6. हुनर मुस्लिम बालिका सशक्तीकरण कार्यक्रम ।
प्रश्न 30. राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् (National Council of Teachers’
Education-NCTE) के उद्देश्य, संगठन एंव कार्यों का विवेचन कीजिए।
     अथवा, शिक्षक शिक्षा के विकास में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् की भूमिका
की विवेचना कीजिए।
उत्तर―राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद्― सम्पूर्ण राष्ट्र में अध्यापक शिक्षा के नियोजित
तथा समन्वित विकास को सुनिश्चित करने के लिए अध्यापक शिक्षा प्रणाली के मानक व
गुणवत्ता निर्धारण करने एवं उनकी समुचित देखभाल करने तथा अध्यापक शिक्षा परिषद् का
गठन करने का निश्चय किया।
      राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् को शिक्षक शिक्षा प्रणाली के मार्गदर्शन में सक्षम बनाने के
लिए भारत सरकार ने 1973 ई. में एक राष्ट्रीय परिषद् स्थापित करने का प्रयास शुरू किया
तथा 1976 ई. में परिषद् के एक सम्मेलन में इसके लिए उद्देश्य, संरचना आदि पर विचार
किया गया । राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के लिए 1986 में तैयार की गई योजना में
इसे संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की परिकल्पना की गई। 1988 ई. में उद्देश्य संरचना आदि
में अनेक संशोधन किए गए। राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने
के लिए सन् 1993 में एक अधिनियम बनाया गया। यह अधिनियम ‘The National Council
for Teacher Education Act, 1993′ के नाम से पुकारा जाता है। इस परिषद् का मुख्यालय
दिल्ली में स्थापित किया गया ।
        एन. सी. टी. ई. के उद्देश्य― राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् की स्थापना निम्नांकित
आवश्यकताओं और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की गई थी―
1. भारतीय विद्यालयों में पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध कराने तथा शैक्षिक गतिविधियों का
समुचित विकास करना।
2. भारतीय विद्यालयों में प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति के लिए प्रशिक्षण संस्थाओं
को नियमबद्ध व्यवस्था करना अर्थात् प्रशिक्षित अध्यापकों की अधिकता व कमी की
समस्या को दूर करने के लिए वांछित प्रावधानों की व्यवस्था करना।
3. शिक्षा का विस्तृत प्रचार-प्रसार करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर शैक्षिक संस्थाओं
एवं योजनाओं की स्थापना करना ।
4. अच्छी शिक्षा के लिए अच्छे अध्यापकों की नियुक्ति के सम्बन्ध में विशेष व्यवस्था करना ।
5. अध्यापन से पूर्व और बाद में आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था करना
इत्यादि।
      एन.सी.टी.ई. का उद्देश्य सम्पूर्ण देश में नियोजित एवं समन्वित तरीके से अध्यापक शिक्षा
सम्बन्धी नियमों और मानकों को स्थापित करना था। इसके अन्तर्गत अध्यापक शिक्षा सम्बन्धी
समस्त संस्थाएँ एवं अनुसन्धान परिषदें आती हैं। इसमें पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर प्रौढ़ शिक्षा
एवं पत्राचार व दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र भी सम्मिलित किए गए हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र में परिषद् के
कार्य को सुचारू रूप से चलाने हेतु इसको क्षेत्रीय परिषदों में विभाजित किया गया है-
1. पूर्वी क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्, भुवनेश्वर ।
2. उत्तर क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्, तिलक नगर, जयपुर ।
3. पश्चिमी क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्, भोपाल ।
4. दक्षिण क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्, बंगलौर ।
प्रत्येक क्षेत्रीय समिति के दो विभाग होते हैं-
1. अकादमिक विभाग―यह विभाग शिक्षक-प्रशिक्षक संस्थानों की मान्यता हेतु निर्धारित
मानदण्डों के आधार पर इनका निरीक्षण करता है।
2. प्रशासनिक विभाग― यह विभाग प्रशासनिक कार्यों को संचालित करता है।
राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् का ढाँचा : (प्रशासनिक व्यवस्था)
शिक्षा परिषद् की स्थापना के समय संसद ने इसके ढाँचे के सम्बन्ध में भी व्यवस्था
की है अर्थात् इसका प्रबन्धन किस प्रकार किया जाए और यह संस्था किस स्वरूप में कार्य
करेगी, इन्हीं सब तथ्यों के आधार पर इसका गठन निम्नलिखित स्वरूप में किया गया है―
1. भारत सरकार का शिक्षा मंत्री NCTE का सदस्य ।
2. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का प्रतिनिधि सदस्य ।
3. अखिल भारतीय तकनीकी परिषद् का प्रतिनिधि सदस्य ।
4. योजना आयोग का प्रतिनिधि सदस्य।
5. केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का प्रतिनिधि सदस्य ।
6. N.C.E.R.T. का प्रतिनिधि सदस्य ।
7. केन्द्रीय शिक्षा सचिव सदस्य।
8. परिषद् के अध्यक्ष की ओर से मनोनीत एक सदस्य जो सदस्य सचिव होगा।
9. प्री-प्राइमरी शिक्षा, प्राइमरी अध्यापक प्रशिक्षण, सैकण्डरी अध्यापक प्रशिक्षण,
तकनीक शिक्षा प्रशिक्षण, व्यवसायिक अध्यापक प्रशिक्षण के क्षेत्र में सरकार द्वारा
नियुक्त विशेषज्ञ सदस्य ।
10. राज्य के शिक्षा विभाग का एक-एक प्रतिनिधि सदस्य ।
इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् व्यक्तियों की टीम होती है, जो शैक्षिक विकास और
शैक्षिक योजनाओं के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में समय-समय पर वांछित नीतियों एवं नियमों
का सृजन करती है।
      राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद के निर्देश पर एक समिति का गठन राष्ट्रीय स्तर पर किया
गया जिसे यह कार्य सौंपा गया था कि वह इन चल रहे चार वर्षीय पाठ्यक्रमों की जाँच करें।
1986 की नवीन शिक्षा नीति के अनुसार आवश्यक परिवर्तन हेतु समिति ने नवीन विषय-वस्तु,
विधाओं एवं व्यूह-रचनाओं के माध्यम से पाठ्यक्रम को समुन्नत करने के सुझाव दिए।
जे.एन. कपूर तथा आर०सी० दास समितियों ने कुल मिलाकर इस चार वर्षीय पाठ्यक्रम
को सुधारने की दिशा में कई सुझाव दिए, तो निम्नांकित प्रकार से हैं―
1. राष्ट्रीय प्रतिमान के रूप में इस पाठ्यक्रम में नई शिक्षा नीति के अनुसार शिक्षक की
भूमिका को लिया जाना चाहिए।
2. चार वर्षीय पाठ्यक्रम समन्वित पाठ्यक्रम के रूप में लिया जाना चाहिए न कि तीन
वर्षीय डिग्री कोर्स +1 वर्षीय बी एड कोर्स के रूप में । वस्तुत कार्यक्रम में प्रत्येक
सोपान पर समन्वय झलकना चाहिए।
3. पाठ्यक्रम में प्रभावी भाषा, सम्प्रेषण, विभिन्न कौशल, शिक्षा तकनीकी सिद्धान्त,
मूल्यपरक शिक्षा, सामुदायिक कार्य, विकलांगों की शिक्षा, कम्प्यूटर लिटरेसी (साक्षरता)
तथा नवीन 10+2+3 प्रणाली में 10 वर्षीय पाठ्यक्रम आदि के आवश्यक तत्त्वों को
सम्मिलित किया जाना आवश्यक होगा।
4. समय की दृष्टि से सामान्य शिक्षा के लिए 15 प्रतिशत, विषय-वस्तु हेतु 60 प्रतिशत
तथा व्यावसायिक हेतु 25 प्रतिशत बँटवारा किया जा सकता है।
5. विषय-वस्तु पाठ्यक्रम का स्वरूप तथा विधियाँ इस प्रकार प्रस्तुत की जाए कि उनमें
समन्वय बना रहे।
शिक्षक शिक्षा के विकास के लिए राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् के कार्य― राज्यों
में अध्यापक की बढ़ोत्तरी के लिए उचित कदम उठाने के लिए यह परिषद् कार्य करती है।
परिषद् ने शिक्षा को विभिन्न पहलुओं से देखते हुए प्राथमिक अध्यापक शिक्षा पर विशेष ध्यान
दिया। राज्यों में प्रशिक्षित शिक्षकों में अन्तर है। विभिन्न राज्यों में यह प्रतिशत 18 प्रतिशत
से 99 प्रतिशत है। शिक्षकों की योग्यताओं में भी अन्तर है। कई शिक्षक मिडिल पास है
और कई हायर सैकेण्डरी के बाद 2 वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त है। उक्त समस्याओं को ध्यान
में रखते हुए यह परिषद् भारत सरकार और सभी राज्य सरकारों को अध्यापक शिक्षा सम्बन्धी
सभी विषयों पर सलाह देती है। अध्यापक शिक्षा में मानक कायम रखने का कार्य भी यह
परिषद् करती है। इसके साथ ही अध्यापक शिक्षा में पर्याप्त मानक आश्वस्त करने सम्बन्धी
गलत प्लान योजनाओं की प्रगति की भी यह समीक्षा करती है। इस प्रकार एन० सी० ई० टी० अनेक
कार्यों का सम्पादन कर शिक्षक शिक्षा के विकास में निम्न भूमिकाएँ निभाती है―
1. एनसीई॰टी॰ सम्पूर्ण राष्ट्र में शिक्षा के विकास के लिए विभिन्न प्रशिक्षण संस्थानों
में समन्वय स्थापित करती है।
2. शिक्षा के विकास हेतु केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा बनायी गयी योजनाओं को
लागू करती है तथा उनके कार्यों का निष्पादन करवाती है।
3. एन-सीईटी० अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायीकरण को रोकने के लिए सभी
संभव उपाय करती है तथा उसके लिए आवश्यक कार्यवाही करती है।
4. राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों
यथा―B.Ed., M.Ed., N.I.T.,S.T.C., B.S.T.C., B.Ed., MP.Ed., DP.Ed
आदि पाठ्यक्रमों के संचालन हेतु मान्यता प्रदान करती हैं। ये संस्थाएँ राज्य सरकार
तथा केन्द्र सरकार से अनुमति मिलने के पश्चात् N.C.T.E.से मान्यता प्राप्त करने
पर ही वैध मानी जाती हैं। अर्थात् N.C.T.E.की मान्यता के पश्चात् ही शिक्षक
प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों का संचालन कर पाती है।
5. राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् भारत में संचालित शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थाओं का
समय-समय पर निरीक्षण कर उनका स्तर निर्धारित करती है तथा शिक्षण-प्रशिक्षण
में गुणवत्ता बनाए रखती है।
6. शिक्षण-प्रशिक्षण संस्था के एन सोईटी० के द्वारा निर्धारित मानदण्डों के अनुरूप
नहीं पाए जाने पर संस्था की मान्यता को रद्द कर दिया जाता है।
7. राष्ट्रीय शिक्षक-शिक्षा परिषद् देश में संचालित प्रशिक्षण संस्थाओं के लिए मानकों
का निर्धारण करती है―
(क) संस्था में अध्यापकों की नियुक्ति प्रक्रिया, उनकी योग्यता, वेतन आदि से
सम्बन्धी नियमों तथा मानकों का निर्धारण करती है।
(ब) प्रशिक्षण संस्थानों में प्रवेश दिए जाने वाले प्रशिक्षणार्थियों के प्रतिशत तथा
चयन प्रक्रिया का निर्धारण करती है।
(स) विद्यालय में भौतिक संसाधनों यथा-भवन, पुस्तकालय, वातावरण, यातायात,
छात्रावास, शुल्क, तकनीकी संसाधन, लैब आदि के लिए मानकों निधारण
करती है।
8. अध्यापक शिक्षा में गुणवत्ता बनाये रखने तथा गुणवत्ता को और अधिक बढ़ाने के
लिए राज्य सरकारों तथा विश्वविद्यालयों से परामर्श कर विभिन्न शैक्षिक योजनाओं
तथा कार्यक्रमों की रूपरेखा का निर्धारण करती है।
9. एन.सी.टी.ई. अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में नवीन प्रयोग एवं शोध करवाती है। इन
शोध कार्यों का प्रकाशन भी करवाती है तथा शोधों से प्राप्त परिणामों के आधार
पर नवीन मानदण्डों को निर्धारण करती है।
10. एन. सी. टी. ई. देश में प्रशिक्षण संस्थानों के लिए शिक्षण शुल्क का निर्धारण करती है।
11. राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् निरन्तर पर्यवेक्षण तथा निर्देशन से प्रशिक्षण संस्थाओं
की जवाबदेही निश्चित करती है। ये संस्थाओं को निर्देशित कर उन्हें उत्तरदायी
बनाती है।
12. शिक्षक प्रशिक्षण प्रक्रिया में सुधार करने हेतु अनेक अनुसन्धान करवाती है तथा
प्राप्त परिणामों को शिक्षण-प्रक्रिया में गुणात्मक सुधार हेतु अपनाती है।
13. देश में शिक्षक-शिक्षा का विकास, नियन्त्रण तथा समन्वय करती है।
14. प्रशिक्षण कोर्स की समयावधि का निर्धारण करती है।
16. सेवाकालीन शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए अवसर देना ।
15. पत्राचार शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करना तथा मान्यता प्रदान करना ।
17. केन्द्र एवं राज्य सरकार की योजनाओं का निरीक्षण करना ।
18. अध्यापक शिक्षा प्रशिक्षण के सम्बन्ध में सरकार को सलाह देना ।
19. राज्य सरकारों की ओर से प्रस्तावित शैक्षिक समस्याओं एवं शैक्षिक व्यवस्था के
सम्बन्ध में सलाह देना।
प्रश्न 31. जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (DIET) के उद्देश्य, संगठन एवं कार्यों
का विवेचन कीजिए।
अथवा, “डाइट का शिक्षा स्तर उन्नत करने में योगदान” पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर―जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान (DIET)―राष्ट्र की आवश्यकतानुसार योग्य
नागरिकों के निर्माण में शिक्षक का महत्त्वपूर्ण योगदान है। एक उत्तम शिक्षक का आधार
प्रशिक्षण है; क्योंकि प्रशिक्षण शिक्षा को प्रभावी बनाता है। शिक्षा को प्रभावी बनाने तथा उसे
राष्ट्र के अनुरूप बनाने एवं उसमें उत्तरोत्तर विकास करने के लिए विभिन्न संस्थाएँ कार्य कर
रही हैं। समय-समय पर गठित आयोगों ने शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण
पर विशेष बल दिया । राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने प्राथमिक शिक्षा में नवीनता लाने के
लिए- चौदह वर्ष तक के बालक-बालिकाओं का सार्वजनिक नामांकन तथा सार्वजनिक
ठहराव पर बल दिया तथा (ii) शिक्षा की गुणवत्ता को ठोस सुधार पर विशेष बल दिया।
शिक्षण-प्रशिक्षण एक निरन्तर प्रक्रिया है, अत: 1986 नीति के दूसरे पहलू की क्रियान्वित
के लिए प्रत्येक जिला स्तर पर शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना की गई। इन्हें राष्ट्रीय
शिक्षा नीति, 1986 की अनुशंसा के आधार पर गठित जिला शिक्षा तथ प्रशिक्षण संस्थान
(डी आई ई-टी.) के अंग रूप में स्वीकार किया गया ।
      प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों तथा अनौपचारिक एवं प्रौढ़
शिक्षा में कार्य कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए सेवा पूर्व एवं सेवारत पाठ्यक्रमों के आयोजन
की सिफारिश करने वाली राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के 96 अनुच्छेद में प्रावधान किया गया
है कि-“प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों तथा औपचारिक एवं अनौपचारिक केन्द्रों के
कार्यकर्ताओं के लिए जिलास्तरीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना की जायेगी। ये
संस्थाएँ सेवापूर्व तथा सेवा अवधि में प्रशिक्षणों की व्यवस्था करेंगी। उक्त संस्थाओं के गठन
के साथ-साथ निम्नस्तरीय संस्थाएँ समाप्त कर दी जायेंगी।”
    राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उक्त निर्देशानुसार प्रत्येक राज्यों के जिलों में जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण
संस्थानों को समयबद्ध कार्यक्रमानुसार NCERT एवं SIERT के मार्गदर्शन में सन् 1988 में
स्थापित किया गया। माध्यमिक स्तर पर शिक्षक शिक्षा में सुधार लाने हेतु चुनी हुई माध्यमिक
शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् के कार्यों को
सम्पादित करने के लिए उन्नत किया जाएगा तथा 50 शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों में एडवांस
स्टडी इन एज्यूकेशन एवं 250 शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों में सुविधाओं में विस्तार के
लिए कार्यक्रम निर्धारित किया गया। वर्तमान में DIET बिहार के सभी जिलों में कार्यरत है
और इनमें S.T.C. स्थलों का भी संचालन किया जा रहा है।
    डाईट का संगठन― जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान के अन्तर्गत सत्र 1989-90 तक
बिहार के कई जिलों में प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किए गए थे। वर्तमान में राज्य के सभी
जिलों में डाईट संचालित है। जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाईट) को उपइकाईयों में
विभाजित किया गया है, जो निम्न प्रकार हैं―
1. सेवापूर्व प्राथमिक शिक्षा शिक्षक प्रशिक्षण प्रभाग।
2. सेवारत शिक्षक प्रशिक्षण क्षेत्र अन्तक्रिया, नवाचार समन्वय ।
3. योजना एवं प्रबन्ध प्रभाग ।
4. अनौपचारिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा एवं जिला सन्दर्भ इकाई प्रभाग
5. शैक्षिक प्रौद्योगिकी प्रभाग
6. पाठ्यचर्या सामग्री विकास एवं मूल्यांकन प्रभाग
7. कार्यानुभव शिक्षा प्रभाग
डाईट के पदों का विवरण―जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाईट) में योग्य व्यक्तियों
के चुनाव हेतु 1986 शिक्षा नीति के अनसार विशिष्ट चुनाव पद्धति अपनायी जाती है। बिहार
शिक्षा सेवा परिषद द्वारा शिक्षा सचिव के निर्देश पर डाईट के कर्मचारियों के चयन हेतु प्रारूप
तय किया गया जिसके अनुसार SCERT, IASE व CTE के अतिरिक्त DIET में कर्मचारियों
कं चयन हेतु प्रक्रिया निम्न प्रकार है―
(i) DIET के कुल पदों की संख्या पर राज्य में सेवारत व्यक्तियों में से आधी नियुक्तियाँ
चुनाव द्वारा की जायेंगी तथा शेष आधे पदों पर विहार शिक्षा सेवा के अधिकारियों
में से चुनाव द्वारा प्रतिनियुिक्तियों द्वारा पद-स्थापन किया जायेगा। प्रतिनियुक्ति तथा
साधी भर्ती हेतु वे ही प्रत्याशी चुने जायेंगे जो वांछित योग्यता रखते हो तथा शिक्षण
प्रशिक्षण संस्थाओं या SCERT में गत 5 वर्षों से कार्यरत हाँ। चुनाव हेतु समिति
के सदस्य शिक्षा सचिव, शिक्षा निदेशक SCERT के निदेशक विशिष्ट सचिव DOP
तथा PSC का सदस्य होंगे।
(ii) प्रतिनियुक्ति वाले व्यक्तियों की आयु 50 वर्ष से अधिक नहीं होगी तथा 35 वर्ष
से कम नहीं होगी।
(iii) प्रतिनियुक्ति हेतु उन सभी व्यक्तियों में से चुनाव किया जायेगा, जा बांछित शैक्षिक
एवं शिक्षक प्रशिक्षण योग्यता धारण करते हों, जिनका व्यक्तित्व व चरित्र उत्तम
हो, जिनमें कार्यकुशलता, बुद्धिक्षमता एवं ईमानदारी हो तथा विगत सेवा कार्य एवं
गोपनीय प्रतिवेदन सन्तोषजनक हो।
(iv) 50% पद प्रतिनियुक्ति से भरे जायेंगे, उन पर नियुक्ति 3 वर्ष के लिए होती हो
अधिकतम 5 वर्ष तक बढ़ाई जा सकेगी। ये व्यक्ति अपने विभाग से प्रतिनियुक्ति
पर होंगे और पुनः अपने विभाग में वापस जा सकेंगे।
(v) सीधी भर्ती BPSC द्वारा मुक्त चुनाव पद्धति से होगी।
(vi) निदेशक शिक्षा विभाग द्वारा सभी योग्य प्रत्याशियों की सूची तैयार कर BPSC या
चयन समिति के समक्ष प्रस्तुत की जायेगी।
प्रत्येक डाइट में निम्न प्रकार से व्यक्ति होंगे, जो जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान के
उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कार्य एवं प्रशासन करेंगे―
                                           प्रत्येक DIET में
1. प्रधानाचार्य                                   ― एक
2. उपप्रधानाचार्य                               ― एक
3. वरिष्ठ व्याख्याता                             ― छ:
4. व्याख्याता                                     ― तेरह
5. पुस्तकालयाध्यक्ष                            ― एक
6. लेखाकार                                      ― एक
7. वरिष्ठ लिपिक                                 ― दो
8. कनिष्ठ लिपिक                                ― पाँच
9. तकनीशियन
10. अन्य सहायक कर्मचारी
जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाइट) का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति,
1986 को कार्य-योजना में डाइट के उद्देश्य निम्नलिखित निर्धारित किये गये।
1. शिक्षा संस्थाओं, जिला शिक्षा बोर्ड, विद्यालय संगम (संकुल) आदि को शैक्षिक सलाह
एवं मार्ग निर्देशन देना ।
2. औपचारिक विद्यालय निकाय के अध्यापकों की सेवा पूर्व एवं सेवारत शिक्षा तथा
प्रशिक्षण व्यवस्था करना।
3. सामुदायिक कार्यकर्ता, स्वयं सेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता एवं अन्य विद्यालय से
सम्बन्धित व्यक्तियों को नवाचारों से अवगत कराना ।
4. क्रिया अनुसन्धान एवं प्रायोगिक कार्य की व्यवस्था करना ।
5. सन्दर्भ एवं अधिगम केन्द्र के रूप में प्रसार सेवा कार्यक्रम आयोजन करना।
6. प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण के कार्यक्रम एवं व्यूह रचना के लिए प्राथमिक
स्तर पर अकादमिक तथा सन्दर्भ व्यक्तियों को तैयार करना।
7. शिक्षा प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में प्राथमिक शिक्षा का गुणात्मक सुधार करना।
8. शैक्षिक प्रशासन व शैक्षिक योजनाओं का निर्माण करना ।
9. जिला स्तर की शैक्षिक योजनाओं का निर्माण करना ।
10. विद्यालय संकुल एवं जिला शिक्षा बोर्ड को शैक्षिक सहयोग देना।
11. प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालय, अनौपचारिक शिक्षा एवं प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों
हेतु मूल्यांकन केन्द्र स्थापित करना ।
12. अनौपचारिक एवं प्रौढ़ शिक्षा के अनुदेशकों व पर्यवेक्षकों की कार्यारम्भ प्रशिक्षण
का आयोजन करना।
13. प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्तर की शिक्षा संस्थाओं के प्रधानों को प्रशिक्षण देने
एवं नवाचार एवं सूक्ष्म स्तर योजना की क्रियान्विति करना ।
जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान के कार्य― डाइट संस्थाओं के कार्य और भूमिकाएँ
निम्नलिखित हैं―
1. ‘डाइट’ से भिन्न केन्द्रों पर उपयुक्त लक्ष्यगत समू के लिए उपयुक्त कार्यक्रम
चलायेंगी। यह व्यक्तियों को संसाधन उपलब्ध कराती है, उनका मार्गदर्शन करती
है तथा उनके लिए प्रभावी योजनाओं का निर्माण करती है।
2. अनौपचारिक और प्रौढ़ शिक्षा प्रारम्भिक स्तर और सतत् शिक्षा के अनुदेशक और
पर्यवेक्षकों को आधारभूत तथा सतत् प्रशिक्षण प्रदान करना एवं उन्हें सामान्य संसाधन
प्रदान करना।
3. प्रधानाध्यापक, विद्यालय, स्कूलों के प्रधान और खण्ड स्तर तक शिक्षा विभाग के
अधिकारी वर्ग को प्रशिक्षण प्रदान करना ।
4. निम्नलिखित लक्ष्यगत समूह का प्रशिक्षण करना और अभिविन्यास करना ।
5. प्रारम्भिक विद्यालयों के अध्यापक (सेवा पूर्व और सेवाकालीन दोनों)।
6. जिला शिक्षा बोर्ड (डी. बी. ई.) और ग्राम शिक्षा समितियों के सदस्य समुदाय के
नेतागण युवा और अन्य स्वयं सेवक जो शैक्षिक कार्यकर्ताओं के रूप में कार्य करना
चाहें उन्हें अवसर व संसाधन उपलब्ध कराना।
7. प्रारम्भिक और पौड़ शिक्षा के क्षेत्रों में उद्देश्यों की पूर्ति में उस जिला विशेष में
आने वाली विशिष्ट समस्याओं से निपटने के लिए कार्यवाही करना ।
8. प्रारम्भिक और प्रौढ़ शिक्षा प्रणालियों को जिले में अन्य तरीकों से अकादमिक और
संसाधन सहायता देना। इसके लिए ये तरीके अपनाये जाते हैं―
(i) विस्तार कार्य और कार्यक्षेत्र के साथ अन्योन्य क्रिया करना ।
(ii) अध्यापकों और अनुदेशकों के लिए संसाधन और अधिगम केन्द्र सेवाओं की
व्यवस्था करना।
(iii) स्थानीय रूप से उपयुक्त सामग्रियों, अध्यापन सहायक साधनों, मूल्यांकन
उपकरणों आदि का विकास करना।
(iv) प्रारम्भिक विद्यालयों और अनौपचारिक शिक्षा/प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों के लिए
मूल्यांकन केन्द्र के रूप में सेवाएँ प्रदान करना।
प्रश्न 32. पारस्परिक पाठ योजना को बदलकर ‘सीखने की योजना’ के प्रयोग के
बारे में विस्तार से चर्चा करें।
उत्तर―गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के केन्द्र में एक सजग, सक्रिय और प्रतिबद्ध शिक्षक का होना
आवश्यक है। साथ ही, यह भी जरूरी है कि वह शिक्षक स्कूली गतिविधियों के विभिन्न
आयामों को न सिर्फ समीक्षात्मक ढंग से समझें बल्कि, वह कुशलतापूर्वक इससे जुड़ी
गतिविधियों के अंजाम भी देख सकें। प्रत्येक शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम में शिक्षण-अभ्यास
उसका एक अनिवार्य हिस्सा होता है, पर ऐसा कम ही होता है कि शिक्षार्थी चिंतन को सक्रिय
रूप से शिक्षण अभ्यास का हिस्सा बनाया जाये । शिक्षण अभ्यास को शिक्षा के सिद्धान्तों,
शिक्षण-शास्त्र व शिक्षार्थी चिन्तन से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। कोशिश यह है
कि शिक्षण-अभ्यास के अनुभव शिक्षार्थी विमर्श को समझने की आधार बने तथा शिक्षायी
विमर्श, शिक्षण अभ्यास को और समीक्षात्मक बनाने में मददगार बने ।
    शिक्षण अभ्यास के क्रम में आलोचनात्मक शिक्षणशास्त्र को समझना और उसे अभ्यास
क्रम का हिस्सा बनाना पाठ्यचर्या का प्रमुख उद्देश्य है। हम शिक्षण अभ्यास के क्रम में
अपनी जिम्मेवारी (अकादमिक, शैक्षिक व सामाजिक) को शिक्षा के वृहत्तर परिणाम व
लोकतांत्रिक समाज के संदर्भ में समझें। कक्षा के भीतर की प्रक्रिया कोई पृथक् घटना नहीं
है, बल्कि, इसका गहरा जुड़ा व विभिन्न सामाजिक व ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से होता है।
कोशिश यह होनी चाहिए कि वे अनुभवों के जरिये रूढ़िवादी सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं
को तार्किक ढंग से चुनौती दे सके । इस क्रम में पाठ-योजना के पारम्परिक स्वरूप में क्रान्तिकारी
बदलाव लाने की अपेक्षा है जिसके नए स्वरूप में बालकेन्द्रित शिक्षा, लोकतांत्रिक सोंच,
आलोचनात्मक शिक्षण-शास्त्र आदि अवधारणाओं को बढ़ावा दिया जा सके। इसी संदर्भ में
यहाँ ‘पाठ-योजना’ के पारम्परिक प्रारूप के स्थान पर ‘सीखने की योजना’ के एक लचीले,
तार्किक एवं नवाचारी स्वरूप को लाया गया है।
         सीखने की योजना में कई ऐसे सवालों को उठाया गया है जिससे प्रशिक्षु शिक्षण की
प्रक्रिया तथा उसमें अपनी भूमिका को बेहतर तरीके से समझ सकें। इसके साथ-साथ नए
प्रारूप में प्रशिक्षुओं से कई अपेक्षाएँ भी हैं, जैसे—अलग-अलग नीतिगत दस्तावेजों से अपने
लर्निंग प्लान को जोड़कर देखना, अलग-अलग पाठ्यपुस्तकों से लेकर पाठ्यक्रम तक को संदर्भ
में रखकर लर्निंग प्लान को बनाना । यह लर्निग प्लान एक सुझावात्मक प्रारूप है जिसमे विषय
अथवा संदर्भ के अनुरूप बदलाव लाने की पूरी संभावना है। लेकिन, बदलाव के साथ-साथ
यह अवश्य ध्यान रखना होगा कि वे इसके आधारभूत उद्देश्यों के सापेक्ष हो । लर्निंग प्लान
के प्रभावी तरीके से बनाने के लिए जगह-जगह पर कुछ उदाहरणों, चिन्तन के बिन्दुओं, नीतिगत
दस्तावेजों के आधारभूत सिद्धान्तों आदि का जिक्र किया गया है। प्रशिक्षुओं, साधन सेवियों
मेंटरों एवं बाह्य परीक्षकों को इन्हें ध्यान में रखने की अपेक्षा है। लर्निग प्लान से तात्पर्य है-एक
कालांश के लिए सीखने-सिखाने की रूपरेखा । एक ही अध्याय अथवा इकाई में इसके कई
शीर्षकों व अवधारणाओं को लेकर कई लर्निग प्लान बनाये जा सकते हैं।
          प्रशिक्षुओं द्वारा अपने शिक्षण का स्वमूल्यांकन भी अति आवश्यक है। इसके बिना
शिक्षण अभ्यास की पूरी प्रक्रिया अधूरी है। लर्निग प्लान में स्व-मूल्यांकन के कुछ प्रमुख
विन्दुओं को दिया गया है जिन्हें अनिवार्य रूप से हर लर्निंग प्लान के क्रियान्वयन के बाद
करना है।
प्रश्न 33. सीखने की योजना प्रारूप प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
                                        LEARNING PLAN
शिक्षक/शिक्षिका का नाम:                                         तिथि:
कक्षा:                          कालांश:                  विषय:
अध्याय:                  विषयवस्तु का शीर्षक:
विषयवस्तु से संबंधित पूर्व समझ की समीक्षा :
विद्यार्थियों का विषयवस्तु से संबंधित पूर्व-समझ :
क्या जो पढ़ाये जानेवाला शीर्षक है, उससे बच्चे पहले से परिचित हैं ? क्या
विषयवस्तु के अंदर चर्चित बातें बच्चों के परिवेश या आस-पास की दुनिया
में शामिल है? कैसे या कैसे नहीं?
शिक्षक का विषयवस्तु से संबंधित पूर्व-समझ :
क्या आपने इस विषयवस्नु को पहले पढ़ा या पढ़ाया है ? क्या आप के पास
इस विषयवस्तु की पर्याप्त समय है, जिससे कि आप उये मन्त्रों को पढ़ा सकें?
स्कूली पाठ्यचर्या-पाठ्यक्रम से विषयवस्तु का संबंध :
यह विषयवस्तु इस कक्षा के पाठ्यचर्या-पाठ्यक्रम में उल्लेखित किन उद्देश्यों /
बिन्दुओं से जुड़ा हुआ है ? यह विषयवस्तु इम कक्षा के और किन-किन
विषयों। इकाइयों से जुड़ा है ? क्या यह विषयवस्तु पूर्ववत कक्षाओं के
पादयक्रम में भी शामिल है, कैसे?
विषयवस्तु के शिक्षणशास्त्रीय योजना का निर्माण:
विषयवस्तु / उप विषयवस्तु का विवरण एवं सीखने का महत्व :
पाठ में दिए अनुसार विषयवस्तु का संक्षिप्त परिचय लिखें। फिर, चिंतन-मनन
के माध्यम से यह विश्लेषण भी लिखें कि यह विषयवस्तु बच्चों को क्यों
पढ़ाया जाना चाहिए? कौन-कौन से महत्वपूर्ण ज्ञान निहित है इसमें और इससे
बच्चों के विकास के किन आयामों पर विशेष प्रभाव पड़ेगा?
सीखने-सिखाने की विधि/विधियों का शिक्षणशास्त्रीय चयन :
विषयवस्तु को पढ़ाने के लिए आप किन-किन शिक्षण-विधियों को चुनेंगे?
आपने उन्हीं विधियों को ही क्यों चुना, डीएल०एड० के विभिन्न विषयपत्रों
में दिए गए सिद्धांतों को ध्यान में रखकर विश्लेषण अवश्य लिखें।
सीखने की विधि/विधियों तथा शिक्षाशास्त्र का संक्षिप्त विवरण :
                                       योजना
शिक्षक शिक्षिका द्वारा स्वमूल्यांकन के सुझावात्मक बिन्दु :
कितने विद्यार्थियों ने सवाल पूछे ? विद्यार्थियों द्वारा पूछे गए प्रमुख सवाल क्या
थे? क्या उन सवालों के उत्तर को कक्षा में अच्छी तरह समझाया गया था,
या फिर अगली कक्षा में उनपर बात करनी होगी?
क्या जिन विद्यार्थियों को विशेष सहायता या अनुपूरक शिक्षण की जरूरत
है उनकी पहचान मैंने की?
विषयवस्तु के शिक्षण में मैंने किन शिक्षण-अधिगम सामग्रियों (टी०एल०एम०)
का प्रयोग किया? उनकी क्या उपयोगिता रही?
शिक्षण के दौरान मुझको कक्षा में क्या किमी परेशानी का सामना करना पड़ा ?
इस विषयवस्तु को यदि दुबारा पढ़ाना हो तो मैं सीखने की योजना में क्या
बदलाव करूँगा/करूँगी।
इस विषयवस्तु से संबंधित ऐसे सवाल जिन्हें अपने संस्थान के विषय-विशेषज्ञ
तथा मेंटर से चर्चा करना की अपेक्षा है।
कोई अन्य टिप्पणी :
                                               □□□

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