F-5

F-5 भाषा की समझ तथा आरम्भिक भाषा विकास

F-5 भाषा की समझ तथा आरम्भिक भाषा विकास

F–5                                       दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भाषा से आप क्या समझते हैं? इसकी विशेषताओं (प्रकृति) का वर्णन
कीजिए।
उत्तर―भाषा मानवीय कलाकृति हैं। समस्त प्राणिजगत में केवल मनुष्य को ही भाषा
का अमूल्य वरदान प्राप्त है। इसी के बल पर उसने भव्य संस्कृति एवं उन्नत सभ्यता का विकास
किया। भाषा मूलत: भाव-प्रकाशन का एक साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने आन्तरिक
भावों और विचारों को अभिव्यक्त करता है। अपने भावों तथा विचारों को व्यक्त करने के
लिए प्रारम्भ में मानव ने अनंक भौतिक तथा मूर्त संकेतों या प्रतीकों को अपनाया और उन्हें
ही विचार विनिमय का साधन बनाया। किन्तु सूक्ष्म अथवा अमूर्द भावनाओं की अभिव्यंजना
में संकेत तथा प्रतीक सक्षम नहीं हुए। अत: ध्वनि संकेतों की रचना की गई और उन्हीं के
माध्यम से भावग्रहण तथा भाव प्रकाशन का कार्य किया जाने लगा। उसे ही भाषा को संज्ञा
दी गई और आज भी भाषा का अर्थ ध्वनि-संकेत लिया जाता है। ध्वनि संकेतों या भावों
को स्थायी रूप देने के लिए लिपि की खोज की गई। इसलिए प्रत्येक भाषा की अपनी स्वतंत्र
लिपि होती है। हिन्दी देवनागरी लिपि में तथा अंग्रेजी रोमन लिपि में लिखी जाती है। अपनी
भावनाओं तथा विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए मानव समाज ने जिन व्यक्त वर्ण
ध्वनि संकेतों को नित्य प्रति व्यवहार के लिए स्वीकार किया, वही भाषा की संज्ञा से विभूषित
की गई। भाषा विचारों को व्यक्त करनेवाली ध्वनि, शब्दों तथा वाक्यों का एक समष्टिगत रूप
है। भाषा मानव मस्तिष्क की उपज है, दैवी सम्पदा नहीं। मनुष्य का हृदय रंगमंच पर होने
वाली क्रिया-प्रक्रियाओं, घात-प्रतिघातों आदि से उद्वेलित होता है। उसके आन्तरिक भाव-तरंग
अभिव्यक्ति पाने के लिए मचलने लगते हैं, तो वह भाव-प्रकाशन या भावग्रहण के लिए विचार
विनिमय के साधन के रूप में भाषा का प्रयोग करता है।
भाषा की परिभाषा:
1. “भाषा एक सांकेतिक साधन है।”   ― बाबूराम सक्सेना
2. “ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों का स्पष्टीकरण ही भाषा है।”   ― स्वीट
3. “भाषा संसार का नादमय चित्र है, ध्वनिमय स्वरूप है, यह विश्व की हृदय-तंत्र
की झंकार है।”      ― सुमित्रानन्दन पन्त
4. “अर्थवान् कन्ठोद्गीन ध्वनि समष्टि ही भाषा है।”  ― सुकुमार सेन
5. “मनुष्य ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा अपना विचार प्रकट करता है। मानव मस्तिष्क वस्तुतः
विचार प्रकट करने के लिए ऐसे शब्दों का निरंतर प्रयोग करता है। इस प्रकार के
कार्यकलाप को ही भाषा की संज्ञा दी जाती है।”   ― जेस्पर्सन
6. “भाषा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्चरित एवं सीमित ध्वनियों का संगठन है।”  ― क्रोचे
इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि भाषा यादृच्छिक मौलिक प्रतीकों
की व्यवस्था हैं जिसके द्वारा व्यक्ति समाज एवं संस्कृति के सदस्य होने के नाते परस्पर विचारों
एवं कार्यों का आदान-प्रदान करता है।
       भाषा का मूल तत्व ध्वनि है। प्रत्येक भाषा में कुछ मूल ध्वनियाँ मान्य है और उन ध्वनियों
को एक मान्य व्यवस्था है, जैसे—स्वर, व्यंजन, संयुक्त स्वर और व्यंजन, ध्वनियों के उच्चरित
एवं लिखित रूप आदि। भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है। समाज में ही उनका उद्भव, पल्लवन
और विकास होता है।
भाषा की सामान्य विशेषताएँ या प्रकृति― भाषा की प्रकृति, उसके विधायक तत्वों
अथवा उसके विविध अवयवों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि भाषा एक व्यवस्था
है। वह क्रमोच्चारित विभिन्न ध्वनियों की शृंखलापद रचना है। भाषा में निम्नांकित सामान्य
विशेषताएँ परिलक्षित होती है―
1. भाषा अर्जित सम्पत्ति है, पैतृक नहीं। मानव-शिशु माँ के पेट से कोई भाषा सीखकर
नहीं आता, बल्कि जिन भाषा-भाषियों के बीच उसका जन्म होता है; उसका
पालन-पोषण होता है और जो भाषा उसे सुनने को मिलती है, वही भाषा वह सीख
लेता है। यदि शिशु को मानव-समुदाय से ही अलग रखा जाए तो वह कोई भाषा
नहीं सीख सकेगा।
2. भाषा अनुकरणजन्य प्रक्रिया है। अनुकरण द्वारा ही हम भाषा सीखते हैं और यह प्रक्रिया
ही भाषा की परिवर्तनशीलता का या दूसरे शब्दों में विकास-शीलता का एक प्रमुख
कारण है। शिशु माता-पिता, भाई-बहन आदि से भाषा का व्यवहार सुनकर स्वयं
कहने का प्रयास करता है।
3. भाषा सतत् परिवर्तनशील प्रक्रिया है। भाषाई परिवर्तन ध्वनियों, शब्दों, पदबन्धों एवं
वाक्य-रचनाओं आदि सभी स्तरों पर हो सकते हैं पर यह परिवर्तन इतने परोक्ष रूप
से और इतने शनैः शनैः होते हैं कि उनका पता तत्काल नहीं चलता।
4. भाषा सामाजिक प्रक्रिया है। सामाजिक परिवेश में ही उसका जन्म और विकास अर्जन
और प्रयोग होता है। अतः वह समाज सापेक्ष है। मनुष्य स्वतंत्र सामाजिक प्राणी है
और भाषा उसकी ही कृति है। भाषा कोई दैविक प्राकृतिक अथवा सांस्कृतिक सम्पदा
नहीं हैं। वह सामाजिक परिवेश में मानव-मस्तिष्क की उपज है।
5. प्रत्येक भाषा का एक मानक रूप होता है, यद्यपि भाषा सतत् परिवर्तित होती रहती
है। विशेषतः एक विशाल भूखण्ड में प्रयुक्त होने वाली भाषा प्रयोग में भिन्नताएँ
आ जाना और भी स्वाभाविक है। इसी कारण विभिन्न भागों में उनकी ध्वनियों के
उच्चारण, शब्द एवं रूप रचना अनुमान में ही नहीं, बल्कि वाक्य संरचनाओं में भी
अंतर पाया जाता है। किन्तु भाषा का एक मानक रूप भी होता है और हमें सदा
ही इस मानक रूप का ही प्रयोग करना चाहिए।
6. भाषा का कोई अन्तिम रूप नहीं, समाज सापेक्ष होने के फलस्वरूप वह, सदैव विकास
की ओर अग्रसर होती रहती है। जो भाषाएँ बोलचाल में नहीं है, उनका तो अन्तिम
रूप निश्चित है, पर जीवित भाषाओं में तो परिवर्तन अवश्यम्भावी है। जीवन्त भाषा
का यही लक्षण है।
7. भाषा परम्परागत है और व्यक्ति उसका अर्जन कर सकता है, उत्पन्न नहीं कर सकता।
भाषा परम्परा से चली आ रही हैं। व्यक्ति उस परम्परागत भाषा का ही समाज में
अर्जन करता है।
8. प्रत्येक भाषा की संरचना दूसरी भाषा से भिन्न होता है। ध्वनि, शब्द-रूप, वाक्य, अर्थ
आदि दृष्टियों से किसी एक या अनेक स्तरों पर एक भाषा का ढाँचा दूसरी भाषा के
ढाँचे से भिन्न होगा ही, यह भिन्नता ही एक भाषा को दूसरे से पृथक् कर देती है।
9. भाषा स्थूल से सूक्ष्म एवं अपरिपक्वता से परिपक्वता की ओर विकसित होता है।
भाषा अपनी प्रारम्भिक अवस्था में सूक्ष्म भावों एवं अनुभूतियों को व्यक्त करने में
समर्थ नहीं रहती है। उसका शब्द-भंडार भी कम रहता है तथा संरचनात्मक गठन
भी शिथिल रहता है। किन्तु कालान्तर में वही भाषा समृद्धशाली हो जाती है।
10. भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर विकसित होती है। आधुनिक भाषाओं
के इतिहास एवं क्रमोत्तर विकास के शास्त्रीय अध्ययन से सिद्ध होता है कि भाषा
संयोग से वियोग की ओर अग्रसर होती है।
11. मनुष्य प्रयत्नलाधव को विशेष पसंद करता है और भाषा चूँकि मानव अर्जित सम्पत्ति
है। अतः भाषा स्वभावतः कठिनता से सरलता की ओर प्रवाहित होती है।
प्रश्न 2. प्रतीकों की वाचिक व्यवस्था के रूप में भाषा का वणन कीजिए।
अघवा, “भाषा समझ एवं सम्प्रेषण का माध्यम है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
अभवा, भाषा में वाचिक प्रतीक रचना की समझ सीखने-सीखाने की प्रक्रिया को
किस प्रकार बेहतर बना सकती है ? सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर―हम अक्सर बातचीत के क्रम में कई प्रतीकों का उपयोग करते हैं। जैसे लिख
हुई प्रतियों के याइन्डिंग को किताब लिखने की सामग्री को कलम आदि नामों से पुकारते
है। इस प्रकार हम बातचीत में अनेक प्रतीकों को वाचिक रूप से अभिव्यक्त करके सुनने
वालों को इसकी अभिव्यक्ति कराते हैं।
    भाषा की उत्पत्ति मनमाने ढंग से हुई है. जिसे यादृच्छिकता कहा जाता है। भापा को समझने
तथा इसके विकास की सही दिशा में बढ़ने के लिए इस मनमानेपन को समझना आवश्यक
होता है। हमारे सामने जब कोई अनजान वस्तु, भाव, स्थान, व्यक्ति आदि आते हैं, तो उनके
बारे में दूसरों को समझाने के लिए हम प्रतीकों (पहाड़. नदी, पेड़ आदि) का उपयोग करते
ही हम उनको कोई नाम देना चाहते हैं। इसी नाम के माध्यम से हम उसके बारे में दूसरों
को बता पाते हैं। नाम देने का काम भाषा के द्वारा लिया जाने वाले बुनियादी काम है।
        देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने अपने द्वारा संपादित पुस्तक ‘जानने की बातों में कहा
है कि अपनी बातों को दूसरे तक पहुँचाने के साधन के रूप में ध्वनि प्रतीक अन्य माध्यमों
को तुलना में अधिक कारगर है। जैसे—मान लिजिए हमने पहाड़ के लिए एक पत्थर का
टुकड़ा, नदी के लिए धागा, पेड़ के लिए कोई तिनका और इसी तरह और भी मान लेते हैं
और इसे अपने झल्ले में रखकर घर में निकल पड़ते हैं। रास्ते में एक व्यक्ति को पेड़ के
बारे में बताना चाहते हैं। इसके लिए अपने झोले से तिनका निकालने की कोशिश करते हैं,
लेकिन तिनका नहीं मिल रहा है। काफी समय तक कोशिश करने के बाद तिनका मिलता
है, लेकिन तबतक वह व्यक्ति जा चुका होता है।
       इससे स्पष्ट है कि इसके जगह पर हम ध्वनि प्रतीकों का सहारा लेते तो आसानी से
उस व्यक्ति को समझा सकते और समय भी कम लगता। अमेरिकी एडवर्ड स्पीयर (1961)
भाषाविद् ने भाषा को संप्रेषण का साधन मानने के विचार का वैकल्पिक विचार प्रस्तुत किया
है। उनका विचार है कि-“यह स्वीकार कर लेना सबसे उचित होगा कि प्राथमिक रूप से
भामा वास्तविकताओं को प्रतीकों के रूप में देखने की प्रवृत्ति को वाचिक प्रस्तुती है। वाचिक
अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुति का अर्थ है, अनुभव को जाने-पहचाने रूप में ढालकर, न कि
प्रत्यक्ष रूप से सामना करके वास्तविकता पर नियंत्रण स्थापित करने की प्रकृति।”
     भाषा का सबसे प्राथमिक कार्य वास्तविकता को प्रतीकों में ढालना है। प्रतीकों का निर्माण
मानव मन की उपज है। वह लगातार नये प्रतीकों को गढ़ता रहता है। लेंगर ने इंसान को
तेजी से गढ़ने वाले की संज्ञा दी है। उनका मानना है कि इंसान मस्तिष्क प्रतीकों की अविरल
धारा से निर्मित होता है।
   इस प्रकार हमने देखा कि भाषा प्रतीकों को वाचिक व्यवस्था है। इसके जरिए हम संसार
को समझने के लिए वाचिक प्रतीक गढ़ते हैं। इन प्रतीकों से इंसान को वह सहारा मिलता
है, जिसके माध्यम से वह ठोस चीजों से स्वतंत्र होकर उन पर विचार तथा बात कर सकते
हैं। भाषा सम्प्रेषण के माध्यम से पहले प्रतीक गढ़ने का माध्यम है। इन प्रतीकों के जरिए
विचार व्यक्त करते हुए हमारी समझ बनती है। इस प्रकार भापा सम्प्रेपण का माध्यम होने
के पहले समझ का माध्यम यानी दोनों हैं।
प्रश्न 3. ध्वनि का अर्थ और ध्वनि संरचना को समझाइए।
अथवा, ध्वनि संरचना को भाषिक संरचना का महत्वपूर्ण तथ्य कहा जाता है। स्पष्ट
कीजिए।
अथवा, भाषा की नियमबद्ध व्यवस्था में ध्वनि संरचना के महत्व को उदाहरण
सहित स्पष्ट करें। कुछ उदाहरण मातृभाषा से भी दें।
उत्तर― ध्वनि का अर्थ―ध्वनि शब्द ध्वन् धातु में इण (?) प्रत्यय जुड़ने से बना है।
ध्वनि का शाब्दिक अर्थ है―आवाज करना। आज भाषा विज्ञान में ध्वनि के लिए ‘स्वन’ शब्द
का प्रयोग किया जाता है। अन्य शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि― “ध्वनि भाषा की
सूक्ष्मतम इकाई है।” ध्वनि के बिना भाषा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सामान्य शब्दों
में हम यह भी कह सकते हैं कि भाषा की सबसे छोटी मौखिक इकाई ध्वनि है। ध्वनि के
लिखित रूप को ‘वर्ण’ कहते हैं। इसके पुनः खण्ड (टुकड़े) नहीं हो सकते। उदाहरण के
रूप में अ क् त् प् च् आदि ध्वनियाँ (लिखित रूप में वर्ण) हैं और इनके खण्ड नहीं हो
सकते।
       यों तो मानव अपने मुख से अनेक प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न कर सकता है, लेकिन
ध्वनि से हमारा अभिप्राय उच्चारण-अवयवों की सहायता से उत्पन्न की गई भाषिक ध्वनियाँ
हैं। ये ध्वनियाँ भाषा के शब्दों का निर्माण करती हैं। अन्य शब्दों में हम यह कह सकते हैं
कि सार्थक ध्वनियों के प्रयोग से ही शब्दों का निर्माण होता है। अतः ध्वनि भाषा की सबसे
छोटी इकाई कही जा सकती है, जिसके खण्ड नहीं हो सकते। कुछ विद्वान् ध्वनि तथा ध्वनि
चिह्न दोनों के लिए वर्ण का प्रयोग करते हैं। अतः ध्वनियाँ मौखिक तथा लिखित दोनों रूपों
की प्रतीक है। ध्वनियों के शुद्ध उच्चारण से शुद्ध लेखन प्रक्रिया सम्भव है।
        ध्वनि संरचना―मानव हिंदी की ध्वनि-संरचना मौलिक है। नासिक्य ध्वनि के बाद का
व्यंजन जिस वर्ण का है, उसी का पंचम वर्ण नासिक्य ध्वनि के रूप में उस व्यंजन से संयुक्त
किया जाता है, यथा―रङ्क, दण्ड, दन्त, पम्पा आदि। अब प्रयत्न लाघव तथा टंकण, मुद्रण
की सुविधा को ध्यान में रखकर अधिकतर नासिक्य ध्वनियों को अनुस्वार से ही अंकित करने
का प्रचलन बढ़ रहा है। नासिक्य ध्वनियों की पूर्णता-अपूर्णता को दर्शाने के लिए बिन्दु
(.) के साथ चंद्र-विन्दु (ँ) की व्यवस्था है, यथा―हंस और हँसना। यह हिंदी मानक भाषा
को मौलिक विशेषता है।
         ध्वनियों के संयुक्त रूपों के लेखन की संरचना के कारण उनका उच्चारण शुद्ध रूप
में हो पाता है; यथा—केन्द्रित, साम्प्रदायिक, उच्चरित आदि।
      सभी स्वर मौखिक भी होते हैं और अनुनासिक भी; जैसे—पूछ-पूँछ, ओकार-ओंकार,
टकार-टंकार। मानक हिंदी में उच्चारण को शुद्ध रूप में सुरक्षित रखने की विरल क्षमता है।
जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा जाता है।
         विदेशी भाषाओं के शब्दों को भी हिंदी में उनके मूल उच्चारण में लिखने के लिए नए
लिपि चिह्नों की व्यवस्था की गई है; यथा-नॉलेज, फरेब, दिमाग आदि।
        अन्य भाषाओं में या तो स्वर है या व्यंजन ध्वनियाँ हैं, किन्तु हिंदी में अन्तस्थ वर्ण भी
है, जो व्यंजनों में परिणित हैं, किन्तु उच्चारण को दृष्टि से अर्द्ध स्वर है, क्योंकि ये स्यों
के योग से ही निर्मित हैं; यथा―इ+ अ = य, उ + अ = व
  इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा की नियमबद्ध व्यवस्था में ध्वनि संरचना का भी महत्वपूर्ण
स्थान है।
प्रश्न 4. शब्द संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर―शब्दों के संरचना के अन्तर्गत ‘शब्दों के भेद तथा उनके प्रयोग, ‘रूपान्तर और
व्युत्पत्ति’ को समझा जाता है।
शब्द-वर्णों के सार्थक मेल को शब्द कहा जाता है। जैसे―’मन’ एक शब्द है, जिसमें
म्, अ, न और अ-ये चार ध्वनियाँ हैं। इस शब्द के दो अर्थ हुए-चित्र और एक मात्रक ।
उदाहरण-सोनू अपने मन की बात बताइए। (चित्र के अर्थ में) सभी को दो मन गहूँ दे दो।
(मात्रक के अर्थ में) शब्द अनेकार्थी होते हैं। परन्तु, जब शब्द वाक्य में प्रयुक्त होते हैं, तब
वे अर्थवाची बनकर यानी किसी खास अर्थ की बात कर ‘पद’ का रूप ग्रहण कर लेते हैं।
उपर्युक्त वाक्यों में प्रयुक्त ‘मन’ शब्द न होकर ‘पद’ बन गया है।
      भाषा का शब्द भंडार काफी विस्तृत है, जिसे वर्गीकृत करना कठिन है। फिर भी कुछ
आधारों पर इन शब्दों को अलग-अलग रूपों में रखा जाता है―
1. विकास या उद्गम की दृष्टि से शब्द भेद:
(i) तत्सम शब्द―वैसे शब्द, जो संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं में समान रूप से प्रचलित
हैं। अन्तर केवल इतना है कि संस्कृत भाषा में वे अपने विभक्ति-चिह्नों या प्रत्ययों से युक्त
होते हैं और हिन्दी में वे उनसे रहित।
संस्कृत में—कर्पूरः, फलम्, ज्येष्ठः।
हिन्दी में― कर्पूर, फल, ज्येष्ठ।
(ii) तद्भव शब्द―वैसे शब्द जो तत्सम से विकास करके बने हैं और कई रूपों में
व तत्सम के समान नजर आते हैं। जैसे—कर्पूर-कपूर, अग्नि-आग आदि।
(iii) देशज शब्द― वैसे शब्द जो विभिन्न भारतीय भाषाओं या बोलियों से हिन्दी में आ
गए हैं। इनका संस्कृत से कोई संबंध नहीं है। जैसे—बाप, बेटा, कटोरा, खिचड़ी आदि।
(iv) विदेशज शब्द―वैसे शब्द, जो न तो संस्कृत के और न ही हिन्दी या अन्य बोलियों
के अन्य विदेशी भाषाओं से हिन्दी में आ गए हैं। जैसे—स्कूल, डॉक्टर, दुकान आदि।
2. व्युत्पत्ति की दृष्टि से शब्द भेद :
(i) रूढ़ शब्द―वैसे शब्द, जो परम्परा से किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त होते आए हैं
और जिनके खोडत रूप निरर्थक होते हैं। जैसे—कमल, धन, पुस्तक आदि।
(ii) यौगिक शब्द―किसी रूढ़ शब्द में उपसर्ग, प्रत्यय या अन्य शब्द जोड़ देने पर बने
शब्द यौगिक शब्द कहलाते हैं। जैसे—रसोई + घर – रसोईघर, पाठ + शाला – पाठशाला आदि।
(iii) योगरूढ़ शब्द―वैसे शब्द जो यौगिक के समान बने हैं, परन्तु वे सामान्य अर्थ
को छोड़कर विशेषार्थ ग्रहण कर लेते हैं। जैसे—पंकज = पंकज (कीचड़ में जन्म लेने
वाला) आदि।
3. रूपान्तर की दृष्टि से शब्द भेद :
(i) विकारी शब्द―लिंग, वचन, कारक आदि के अनुसार परिवर्तित होनेवाले शब्द विकारी
शब्द कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया शब्द आते हैं।
(ii) अविकारी शब्द―सभी परिस्थिति में अपने रूप को एक समान रखनेवाले शब्द
अविकारी या अव्यय कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और
विस्मयादिबोधक आते हैं।
4.अर्थ की दृष्टि से या शब्दों में निहित शक्ति की दृष्टि से शब्द भेद:
(i) पर्यायवाची शब्द―भाषा में जिन शब्दों का अर्थ समान होता है, उन्हें ‘पर्यायवाची
शब्द’ कहते हैं। जैसे―पानी―जल, नीर।
(ii) विलोमार्थी शब्द―एक-दूसरे के विपरीत या विरोधी अर्थवाले शब्द को ही विलोमार्थी
शब्द कहते हैं। जैसे―राजा-रंक, राजा―प्रजा आदि।
(iii) अनेकार्थी शब्द―भाषा में कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो अनेक अर्थों को प्रकट करते
है। जैसे―
अर्क―इन्द्र, सूर्य, रस, अकवन
द्रव्य―वस्तु, धन आदि।
प्रश्न 5. शब्दों (पदों) से वाक्य रचना का वर्णन करें।
उत्तर―पदों से वाक्य-रचना करने में― जिनमें पदों से पदबंध रचना तथा पदों या पदबंधों
से वाक्य रचना भी सम्मिलित हैं―तीन बातें महत्वपूर्ण होती है। पदक्रम, अन्वय, अध्याहार।
पाठकम (Word Order)―पदक्रम’ का अर्थ है―’वाक्य’ में पदों के रखे जाने का
क्रम’। ‘पद’ को ‘शब्द’ कहने के कारण कुछ लोग ‘पदक्रम’ को ‘शब्दक्रम’ भी कहते हैं।
हर भाषा के वाक्य में पदों या शब्दों के अपने क्रम होते हैं। उदाहरण के लिए, अंग्रेजी में
कर्ता + क्रिया + कर्म (Ram killed Mohan) का क्रम है तो हिन्दी में कर्ता + कर्म + क्रिया
(राम ने मोहन को मारा) यहाँ हिन्दी वाक्यों में पदक्रम पर विचार किया जा रहा है। इसकी
मुख्य बातें निम्नांकित हैं―
1. कर्ता वाक्य में पहले और क्रिया प्रायः अन्त में होती है। मोहन गया, लड़का दौड़ा,
में बल देने के लिए क्रम उलट भी सकते हैं। जैसे—गया वह लड़का, पास हो चुके तुम।
2. कर्ता का विस्तार उसके पहले तथा क्रिया का विस्तार कर्ता के बाद आता है। जैसे―
राम का लड़का मोहन के गाड़ी से अपने घर गया।
3. कर्म तथा पूरक कर्ता और क्रिया के बीच में आते हैं, जैसे—राम ने पुस्तक ली। यदि
दो कर्म हो तो गौण कर्म पहले तथा मुख्य कर्म बाद में आता है। राम ने मोहन को पत्र लिखा।
कर्म तथा पूरक के विस्तार उनके पूर्व आते हैं। राम ने अपने मित्र के बेटे राजीव को बधाई
पत्र लिखा, मोहन अच्छा डॉक्टर है। बल देने के लिए कर्म पहले भी आ सकता है। पुस्तक
ले ली तुमने ?
4. विशेषण―ये प्रायः विशेष्य के पूर्व आते हैं। तेज घोड़े को इनाम मिला, अकर्मण्य
विद्यार्थी फेल हो गया,पूरक विशेषण विशेष्य के बाद आता है। राम लम्बा है, यह केवल तब
होता है जब क्रिया ‘है’, या ‘था’, ‘होगा’ आदि हो। कई विशेषण हो तो संख्यावाचक पहले
आता है। मैंने एक लम्बा काला आदमी देखा, सामान्यतः विशेषण क्रिया के पहले अवश्य
आ जाता है, किन्तु कभी-कभी क्रिया के बाद में, अर्थात् वाक्यांत में भी आता है। चाहे कुछ
भी कहो भाई, है वह सुन्दर।
5. क्रियाविशेषण―ये प्रायः कर्ता और क्रिया के बीच में आते हैं। बच्चा धीरे-धीरे खा
रहा हैं। कालबोधक क्रियाविशेषण कभी-कभी जोर देने के लिए कर्ता के पहले भी आता
है। अब मैं जा रहा हूँ― मैं अब जा रहा हूँ। स्थानबोधक की भी प्रायः यही स्थिति है। भारत
के उत्तरी भाग में कश्मीर है― कश्मीर भारत के उत्तरी भाग में है। दोनों साथ भी प्रारम्भ में
आ सकते हैं। आज उस हॉल में कवि-सम्मेलन हो रहा है। क्रियाविशेषण कर्ता और कर्म के
बीच में तो आता है। (मैं धीरे-धीरे उसे सिखा रहा हूँ, लड़का चुपके-चुपके तैयारी कर रहा
है) अपवादतः क्रियाविशेषण अन्यत्र भी आ सकता है। चलो चलँ, अब आ गए फिर यहीं ?
शीघ्र ही मैं आऊँगा― मैं आऊँगा शीघ्र ही।
6. सर्वनाम–प्रायः संज्ञा के स्थान पर आता है, किन्तु दो वातें ध्यान देने की है।
(क) सर्वनाम वाक्य में संबोधन के रूप में नहीं आता, (ख) विशेषण सर्वनाम के पहले न
आकर प्रायः बाद में आता है। वह अच्छा है, तुम मूर्ख हो! यों बोलचाल में बल देने के लिए
कभी-कभी विशेषण को सर्वनाम से पहले भी ला देते हैं। अच्छा वह है मगर …..मूर्ख तुम
हो वह नहीं। यहाँ दूसरे में बल ‘तुम’ पर है साथ ही ‘मूर्ख’ पर भी बल है। यों ऐसे प्रयोगों
में मूल वाक्य ‘वह अच्छा है’ ‘तुम मूर्ख हो’ ही होता है, अर्थात् विशेषण पूरक विधेय ही
रहता है।
7.हिन्दी में क्रिया सामान्यतः अन्त में आता हैं। मैं चला, मैं अब चला। किन्तु बल देने
के लिए वह आरम्भ में भी आ सकती हैं। चला में, चला अब में। प्रश्न में तो क्रिया प्रायः
आरम्भ में आती हैं। है भी वह यहाँ, गया भी होगा वह। आज्ञा की क्रिया बल देने के लिए
प्राय: आरम्भ में आती है। जाओ तुम-तुम जाओ। बैठो वहाँ-वहाँ बैठो, लिखो तो जरा-जरा
लिखो तो-तो जरा लिखो-तो लियो जरा। ‘चाहिए’ की भी प्रायः यही स्थिति है। चाहिए तो
था कि मुझसे मिल लेते, चाहिए तो बहुत कुछ, मगर करता कौन है?
8. प्रविशेषण तथा प्रक्रियाविशेषण―ये प्राय: विशेषण और क्रियाविशेषण के पहले
आते हैं। वह बहुत लम्बा है, घोड़ा काफी तेज भाग रहा था।
9.प्रश्नवाचक सर्वनाम तथा क्रियाविशेषण, वाक्य के प्रारंभ में (कौन आ रहा है? काहाँ
जा रहे हो?), बीच में क्रिया के पूर्व (वहाँ कौन आ रहा है? तुम कहाँ जा रहे हो?),
या कभी-कभी क्रिया की बीच (वहाँ आ कौन रहा है? तुम कहाँ जा रहे हो?) या अन्त
में (जाएगा कौन? वहाँ जाएगा कौन? जा रहे हो कहाँ? रहोगे कहाँ?) आता है। यों प्रश्नवाचक
शब्द उस शब्द के ठीक पूर्व ही प्रायः आता है, जिसके बारे में प्रश्न पूछा जाता है। कौन
आदमी आएगा? क्या चीज चाहिए ? तुम देख रहे हो ? वह कैसे जा रहा है ? इसका स्थान
बदलने से काफी अन्तर पड़ जाता है, अत: प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिए। क्या तुम लिख
रहे हो? तुम क्या लिख रहे हो? तुम लिख क्या रहे हो― तुम लिख रहे हो क्या?
10. पूर्वकालिक–क्रिया प्रायः मुख्य क्रिया के पहले आती है। मैं खाकर आया हूँ, वह
आकर आराम कर रहा है। वल देने के लिए कर्ता के पहले भी आ सकती है। चलकर तुम
देख लो। यदि कर्म हो तो प्रायः पूर्वकालिक क्रिया उपक पूर्व आती है। पंडितजी नहाकर पूजा
करते हैं। यो बल देने के लिए इसका भी उल्लंघन कर लिया जाता है। नहाकर पंडितजी पूजा
करते हैं—पंडितजी पूजा नहाकर करते हैं—पंडितजी पूजा करते हैं नहाकर।
11. सम्बोधन प्रायः वाक्य के आरम्भ में आता है। राम कहाँ चले ? मित्र, आओ, यहीं बैठें।
कभी-कभी अन्त में भी आता है। बैठो मित्र! चलो भाई! उठो मोहन, कहाँ जा रहे हो राजीव ?
12. करण कारक वाक्य में प्रायः कर्ता, कर्म के बीच में आता है। शोला ने कलम से
पत्र लिखे। बल देने के लिए यों इससे परिवर्तन भी सम्भव है। कलम से शीला ने पत्र तो
लिखा था, कलम से और खो गई है पेंसिल।
13. सम्प्रदान वल के अनुसार कर्ता के वाद तथा करुण से पहले (मोहन अपनी बहिन
के लिए डाक से साड़ी भेज रहा है) या करुण के बाद (मोहन डाक से अपनी बहिन के
लिए साड़ी भेज रहा है) आता है।
14. अपादान कारक कतां क्रिया के बीच में (लड़का छत से गिरा) अथवा कर्ता और
कर्म के बीच में (मैंने आलमारी से कपड़े निकाले) आता है। बल देने के लिए दूसरे प्रकार
के प्रयोग भी किए जाते हैं। आलमारी से मैंने कपड़े निकाले कपड़े निकाले आलमारी से
और टूट गया सन्दूक, वाह यह भी कोई बात हुई।
15. अधिकरण कारक प्रायः वाक्य के बीच में क्रिया के पहले आता है (कपड़े सन्दूक
में है, डाकू घोड़े पर है) किन्तु बल देने के लिए अन्यत्र भी आ सकता है। सन्दूक में कपड़े
हैं, तुम्हें दूँ कैसे ? घोड़े पर डाकू हैं, और आप पैदल उनका पीछा करना चाहते हैं।
16. आग्रहात्मक ‘न’ वाक्य के अन्त में आता है। ता तुम शाम की चाय पर आओगे
न? वह मेरा काम कर देगा न?
17. निषेधात्मक अव्यय प्रायः क्रिया से पहले आते हैं। मैं नहीं जा रहा हूँ। बल देने के
लिए या कोई और उपवाक्य जोड़ने के लिए अन्यत्र भी इसे रखा जा सकता है। नहीं जाऊँगा
मैं― नहीं मैं जाऊँगा, देखें क्या कर लेते हो―मैं जाऊँगा नहीं तुम चाहे कुछ भी करो।
18. समुच्चयबोधक अव्यय दो पदों, पदबंधों आदि के बीच में आता है। यदि कई को
जोड़ना हो तो प्रायः इसे अन्तिम दो के बीच में रखते हैं और पूर्ववर्ती के बीच में कॉमा देते
हैं। सुरेश, सौरभ, राजीव और गिरीश आ रहे हैं। सिपाहियों ने उसे पकड़ा, मारा और हवालात
में बन्द कर दिया।
19. ही, भी, तो, तक, भर जिस पर बल देना हो उसके बाद में आते हैं। राम ही, मैं
भी, वह तो, मोहन तक नहीं आया, वह आ भर जाए।
20. कंवल पहले आता है। केवल राम जाएगा। ‘राम केवल जाएगा’ जैसे प्रयोग कम
होते हैं।
21. मात्र’ पहले भी आता है बाद में भी। मात्र दस रुपए चाहिए—दस रुपये मात्र चाहिए।
22. विस्मयादिबोधक प्रायः आरम्भ में आते हैं। हाय! यह क्या किया; अरे! तुम आ गए।
23. क्रम की दृष्टि से भाषा की विभिन्न इकाइयों में तर्कसंगत निकटता होनी चाहिए, नहीं
तो वाक्य हास्यास्पद हो जाता है। मुझे गर्म भैंस का दूध चाहिए―मुझे भैंस का गर्म दूध चाहिए,
मरीज को एक दूध का गिलास पीने को दो― मरीज को दूध का एक गिलास पीने को दो।
प्रश्न 6. बहुभाषिकता के बौद्धिक और शिक्षण शास्त्रीय आयामों का वर्णन कीजिए।
अथवा, बहुभाषिकता के संदर्भ में त्रिभाषा-सूत्र का वर्णन कीजिए।
अथवा, त्रिभाषासूत्र में कौन-सी तीन भाषाओं को पढ़ने का प्रावधान किया गया
है ? यह किस प्रकार बहुभाषिकता से जुड़ा मसला है ?
उत्तर–बच्चे विभिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न भाषाओं (मातृभाषा, संपर्क भाषा आदि)
का सहज प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं। भाषा के क्षेत्र में किए गए शोध यह बताते हैं
कि बहुभाषिकता का संज्ञानात्मक विकास और शैक्षिक उपलब्धि से गहरा सकारात्मक रिश्ता
है। जो बच्चे सीखने के दौरान एक से अधिक भाषाओं में कुशलता का विस्तार करते हैं,
उनमें सीखने की प्रक्रिया के साथ ही रचनात्मक और सामाजिक सहिष्णुता जैसे गुणों का बेहतरीन
विकास होता है। वो भाषा बोलने वाले बच्चे न केवल अन्य भाषाओं पर अच्छा नियंत्रण रखते
हैं। बल्कि शैक्षिक स्तर पर भी ज्यादा रचनात्मक होते हैं, साथ ही उनमें ज्यादा सामाजिकता
और सहिष्णुता भी पाई गई है। वहुभाषिक बच्चे विविध सोच में ज्यादा अच्छा प्रदर्शन भी
करते हैं।
वहुभाषिकता के महत्व को समझते हुए अनेक शिक्षा आयोगों ने त्रिभाषा सूत्र की व्याख्या
की और इसे लागू करने की सिफारिश की है।
त्रिभाषा सूत्र–त्रिभाषा सूत्र के अनुसार शिक्षार्थी को निम्नलिखित भाषाएँ सीखनी होगी―
1. मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा।
2. संघ की राजभाषा अथवा संघ की सह राजभाषा (जब तक वह रहे) संघ की राजभाषा
हिन्दी है तथा सह राजभाषा अंग्रेजी है।
3. आधुनिक भारतीय भाषा अथवा विदेशी भाषा जो उपर्युक्त (1) एवं (2) के अंतर्गत
न हो तथा जो शिक्षण माध्यम के रूप में प्रयुक्त भाषा से अलग हो।
भारत एक बहुभाषी देश हैं संविधान के अनुसार भारत की 22 भाषाएँ हैं। अत: यदि कोई
व्यक्ति देश के विभिन्न भागों के व्यक्तियों के साथ अंत:क्रिया करना चाहता है तो उसके लिए
आवश्यक है कि उसे एक से अधिक भाषाओं की जानकारी हो। यदि कोई व्यक्ति केवल अपनी
मातृभाषा ही जानता है तो वह केवल अपने राज्य के व्यक्तियों से ही संप्रेषण कर सकता है।
त्रिभाषा–सूत्र में इस कमी को ध्यान में रखा गया है। अब इस सूत्र के अंतर्गत प्रत्येक
शिक्षार्थी के लिए विद्यालय में तीन भाषाएँ सीखना अपेक्षित है यानी : प्रथम भाषा (भा 1),
द्वितीय भाषा (भा 2) तथा तृतीय भाषा (भा 3).
प्रथम भाषा―हम बचपन में जो भाषा सीखते हैं, वह सामान्यतः हमारे माता-पिता, परिवार
के सदस्यों एवं हमारे आस-पास के अन्य व्यक्तियों द्वारा बोली जाती है। यह हमारी प्रथम
भाषा अथवा भा 1 के नाम से जानी जाती है। चूंकि इस भाषा को हम अच्छी तरह जानते
हैं तथा सामान्यत: प्रयोग में लाते हैं इसलिए सरकार ने यह निर्णय लिया कि प्राथमिक स्तर
पर शिक्षण का माध्यम व्यक्ति की अपनी क्षेत्रीय भाषा हो।
प्रथम भाषा किसी विशेष औपचारिक शिक्षण के बिना ही मित्रों एवं परिवार के सदस्यों
के साथ अंतःक्रिया द्वारा स्वाभाविक रूप से ग्रहण कर ली जाती है। अपनी प्रथम भाषा में प्रभावी
रूप से संप्रेषण कर सकने के बावजूद हम में से अधिसंख्य को भाषा की सभी ध्वनियों, बर्णों
अथवा उसके व्याकरण की पूरी जानकारी नहीं होती। इसका कारण यह है कि इसे हम अनौपचारिक
रूप से सीखते हैं, इसीलिए विद्यालय में प्रथम भाषा का औपचारिक शिक्षण किया जाता है।
द्वितीय भाग―शिक्षा का एक उद्देश्य है–शिक्षार्थी को विभिन्न स्थितियों के संपर्क में
लाना एवं उसमें ऐसी योग्यताओं का विकास करना जिससे वह हर संभव स्रोत से ज्ञान प्राप्त
कर सके और उसे दूसरों के साथ बाँट सके। इस दृष्टि से शिक्षार्थी के लिए यह आवश्यक
हो जाता है कि वह द्वितीय भाषा (भा 2) को सीखे, जो कि हमारे देश में सामान्यत: हिन्दी
अथवा अंग्रेजी है।
द्वितीय भाषा किसी विशिष्ट प्रयोजन, यथा―सूचनाओं को एकत्र करने एवं ज्ञान को ग्रहण
करने के लिए, सचेतन एवं सोद्देश्य से सीखी जाती है। द्वितीय भाषा की ध्वनियों, वर्णों एवं
व्याकरण को तभी सही ढंग से सीखा जा सकता है, जब उन्हें शिक्षक द्वारा सुविचारित ढ़ंग
से पढ़ाया गया हो और शिक्षार्थियों द्वारा सचेत रूप से सीखा गया हो। त्रिभाषा-सूत्र के अंतर्गत,
द्वितीय भाषा प्राथमिक विद्यालयी पाठ्यचर्या के बाद के चरण में पढ़ाई जाती है―जब बालक
ने एक भाषा अर्थात् भाषा को पहले ही अच्छी तरह सीख लिया होता है।
हम अपने दैनिक जीवन की स्थितियों में अपने भावों एवं विचारों को अभिव्यक्त करने
तथा संप्रेषण के लिए प्रथम भाषा का प्रयोग करते हैं। दूसरी ओर, निजी स्थितियों के अतिरिक्त
अन्य स्थितियों में द्वितीय भाषा का प्रयोग किया जाता है।
तृतीय भाषा―आप यह पूछ सकते उस स्थिति में क्या होता है? जब शिक्षार्थी की
प्रथम भाषा हिन्दी एवं द्वितीय भाषा अंग्रेजी होती है और कुछ स्थितियों में इनमें से कोई भी
भाषा उसकी सहायता नहीं कर सकती। उदाहरण के लिए, बालक की मातृभाषा खासी है और
वह अंग्रेजी को द्वितीय भाषा के रूप में सीखता है।
जब यह वालक बिहार के एक गाँव में जाता है, तो वहाँ संभव है कि वह उन व्यक्तियों
के साथ न तो अपनी प्रथम भाषा (खासी) और न ही द्वितीय भाषा (अंग्रेजी) में बातचीत
कर सके। क्योंकि हो सकता है कि बिहार के उस गाँव के व्यक्ति न तो खासी जानते हो
और न अंग्रेजी ही। ऐसी स्थिति में, दूसरे व्यक्तियों के साथ संप्रेषण अथवा अंत:क्रिया कठिन
हो जाती है और कभी-कभी असंभव भी। इस स्थिति में तृतीय भाषा की एक महत्वपूर्ण भूमिका
हो जाती है।
त्रिभाषा-सूत्र के अंतर्गत द्वितीय भाषा प्रारंभ करने के 1 वर्ष बाद तृतीय भाषा का शिक्षण
प्रारंभ किया जाता है। अतः तीसरी भाषा विद्यालयों के परवती चरण में पढ़ाई जाती है और
वह भी बहुत थोड़े समय के लिए, क्योंकि इसको आवश्यकता सीमित संदर्भ में होती है, अर्थात्
ऐसी सामाजिक स्थिति में जहाँ संप्रेषण में न तो बालक की प्रथम भाषा और न ही द्वितीय
भाषा उसकी सहायता करती है।
  त्रिभाषा-सूत्र भाषा के लिए कोई लक्ष्य या सीमा निर्धारित नहीं करता है, बल्कि यह तो
उस यात्रा का प्रस्थान बिन्दु मात्र है, जिसमें लगातार फैलते हुए ज्ञान की खोज और देश की
भावनात्मक एकता की तलाश है। इस तरह अपनी मूल भावना में त्रिभाषा सत्र हिन्दी भाषी
राज्यों के लिए हिन्दी, अंग्रेजी का प्रावधान प्रस्तावित करता है। लेकिन इसके प्रति प्रतिबद्धता
से ज्यादा इसका अतिक्रमण करते हुए पाया गया है कि हिन्दी, अंग्रेजी व संस्कृत की बजाय
और हिन्दी राज्य खासकर तमिलनाडु द्विभाषी सूत्र यानी तमिल और अंग्रेजी से काम चलाते
हैं। तथापि बहुत सारे राज्य त्रिभाषी सूत्र को अपनाए हुए हैं, जैसे―उड़ीसा, पश्चिम बंगाल,
महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्य।
प्रश्न 7. भाषाओं के संदर्भ में संवैधानिक अनुच्छेद ३४३-३५१ के प्रावधानों का वर्णन करें।
उत्तर―संविधान में धारा 343 से 351 तक हिन्दी के राजभाषा रूप का विश्लेषण किया
गया है। भारत में जहाँ अनेक भाषा परिवारों की भाषा बोलने वालों के बीच स्वाभाविक जनतंत्र
है, वहाँ संविधान इस बात के लिए खास तौर पर सचेत रहा कि भाषाओं के नाम पर घमासान
न मचे। भारतीय संविधान ने इस बात का सुनिश्चित किया कि विभिन्न भाषाओं को समुचित
स्थान मिले। इसी संदर्भ में आठवीं अनुसूची की व्यवस्था की गई है। जिसमें वर्तमान में 22
भारतीय भाषाओं को शामिल किया गया है।
                                                       राजभाषा
                                              [अनुच्छेद 343-351]
अनु. 343 यह उपबन्धित करता है कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी
होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिये प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का
अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। खण्ड (1) में किसी बात के होते हुए भी संविधान के प्रारम्भ में 15
वर्ष की अवधि तक संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता
रहेगा। परन्तु उक्त कालावधि में भी राष्ट्रपति आदेश द्वारा संघ के राजकीय कार्यों में से किसी
के लिए अंग्रेजी भाषा का तथा भारतीय अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय रूप के साथ-साथ देवनागरी
रूप के प्रयोग को प्राधिकृत कर सकेगा। किन्तु अनु० 343(3) यह उपबन्धित करता है कि
संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात् भी विधि द्वारा अंग्रेजी भाषा का या देवनागरी रूप
का ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबन्धित कर सकेगी जैसी कि ऐसी विधि में उल्लिखित
हो। इस निर्देश के बावजूद आज तक हिन्दी को केन्द्र राजभाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है
और अंग्रेजी का प्रयोग चल रहा है।
राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा–कभी-कभी यह कहा जाता है कि हिन्दी को संविधान
के अधीन ‘राष्ट्रीय भाषा’ के रूप में स्वीकार किया गया है। यह कथन बिल्कुल गलत है।
संविधान के अधीन किसी भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में नहीं अपनाया गया है। इसके
अधीन हिन्दी को केवल राजभापा के रूप में रखा गया है।
हिन्दी भाषा के विकास के लिए निर्देश (अनु 351)
अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाये,
उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति
का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किये बिना हिन्दुस्तानी के और आठवीं
अनुसूची में उल्लिखित भारत की अन्य भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदावली को आत्मसात्
करते हुए तथा जहाँ तक आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ तक उसके शब्द-भंडार के लिए
मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणत के रूप में अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी
समृद्धि सनिश्चित करें। अनुच्छेद 345 यह उपन्धत करता है कि राज्य का विधानमंडल विधि
द्वारा राज्य के राजकीय प्रयोजनों में से या किसी के प्रयोग के लिए उस राज्य में प्रयुक्त
होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अनेक को या हिन्दी को अंगीकार कर सकता है।
किन्तु संघ के प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होने वाली प्राधिकृत भाषा ही एक राज्य और दूसरे
राज्य के बीच में तथा किसी राज्य और संघ के बीच में संचार के लिए राजभाषा होगी।
    संसद विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की सभी कार्यवाहियों में हिन्दी
भाषा के प्रयोग किये जाने का भी उपबन्ध कर सकते हैं। संसद जब तक विधि द्वारा अन्यथा
उपबन्ध न करे, तब तक उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में सब कार्यवाहियाँ और
विधेयक, अधिनियम, आदेश, नियम, विनियम के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में होंगे। किसी
राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व-सम्मति से हिन्दी भाषा का या उस राज्य में राजकीय
प्रयोजन के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग उस राज्य में मुख्य स्थान
रखने वाले उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों के लिए प्राधिकृत कर सकेगा, लेकिन इस खण्ड
की कोई बात न्यायालयों द्वारा निर्णय, आज्ञप्ति अथवा आदेश को लागू न होगी। संविधान के
प्रारम्भ होने से 15 वर्षों की अवधि तक अनुच्छेद-348(1) में वर्णित प्रयोजनों में से किये।
के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा के लिए उपबन्ध करने वाला कोई विधेयक या संशोधन
संसद के किसी सदन में राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृत के विना न तो प्रस्थापित और न प्रस्तारित
किया जायेगा। ऐसे किसी विधेयक के पेश करने या किसी संशोधन के प्रस्तावित किये जाने
की मन्जुरी भाषा–आयोग की सिफारिशों पर तथा समिति के प्रतिवेदनों पर विचार करने के
पश्चात् ही राष्ट्रपति दंगा।
संविधान प्रत्येक राज्य पर यह कर्तव्य आरोपित करता है कि वह भाषाजात अल्पसंख्यक
वर्ग के बालकों को शिक्षा को प्राथमिक अवस्था में मातृभाषा में शिक्षा देने के लिए पर्याप्त सुविधाएँ
उपबन्धित करे। भाषाजात अल्पसंख्यक वर्गों के लिए राष्ट्रपति एक विशेष पदाधिकारी नियुक्त
करेगा जो भाषाजात अल्पसंख्यकों को दिये गये संरक्षणों से सम्बद्ध सब विषयों का अनुसंधान
करेगा और उन विषयों के सम्बन्ध में जैसा कि राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा।
    ऐसी किसी माँग पर यदि राष्ट्रपति का समाधान हो जाए कि किसी राज्य को जनसंख्या
का एक सारवान् भाग चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता
दी जाए तो वह निर्देश दे सकेगा कि ऐसी भाषा को भी उस राज्य में या उसके किसी भाग
में ऐसे प्रयोजन के लिए. जैसा कि वह उल्लिखित करे, मान्यता प्रदान की जाए।
संविधान प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह अपनी किसी शिकायत को
दूर करने के लिए संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में प्रतिवेदन दे सके।
राजभाषा आयोग (अनु. 344):
अनुच्छेद 344 राजभाषा के लिए आयोग गठित करने का उपवन्ध करता है। राष्ट्रपति
संविधान के प्रारम्भ से पाँच वर्ष की समाप्ति पर तथा तत्पश्चात् ऐसे प्रारम्भ से दस वर्ष की
समाप्ति पर, आदेश द्वारा एक आयोग गठित करेगा। यह आयोग एक सभापति और भिन्न भाषाओं
का प्रतिनिधित्व करनेवाले अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा। आयोग निम्नलिखित मामलों पर
राष्ट्रपति को अपनी सिफारिशें भेजेगा―
(क) संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी भाषा के उतरोत्तर अधिक प्रयोग के विषय में;
(ख) संघ के राजकीय प्रयोजनों में सब या किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर
निर्बन्धनों के विषय में;
(ग) उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में प्रयुक्त होने वाली भाषा
के विषय में;
(घ) संघ के किसी एक या अधिक उल्लिखित प्रयोजनों के लिए प्रयोग किये जाने वाले
अंकों के रूप में;
(ड) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच अथवा एक राज्य और दूसरे
राज्य के बीच संचार की भाषा तथा उनके प्रयोग के बारे में राष्ट्रपति द्वारा आयोग
से पृच्छा किये हुए किसी अन्य विषय पर।
खंड (2) के अन्तर्गत अपनी सिफारिश करने में आयोग भारत को औद्योगिक, सांस्कृतिक
और वैज्ञानिक उन्नति का तथा लोक सेवाओं के बारे में अहिन्दी भाषाभापी के लोगों के न्यायपूर्ण
दावों और हितों का यथासम्भव ध्यान रखेगा। तीस सदस्यों की एक समिति गठित की जायेगी
जिनमें से बीस लोकसभा के और दस राज्य सभा के सदस्य होंगे। राजभाषा―आयोग की
सिफारिशों की परीक्षा करना तथा उन पर अपनी राय का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को देना समिति
का कर्तव्य होगा। राष्ट्रपति समिति के प्रतिवेदन पर विचार करने के पश्चात् उस सारे प्रतिवेदन
के या उसके किसी भाग के अनुसार निर्देश जारी कर सकेगा।
प्रश्न 8. बहुभाषिकता बौद्धिक एवं शैक्षिक विकास में बाधक नहीं सहायक ही
सिद्ध होता है, कैसे?
अथवा, बहुभाषिकता का संज्ञानात्मक विकास और शैक्षिक उपलब्धि से गहरा संबंध
है, कैसे? विवेचित करें।
अथवा, बहुभाषिकता का क्या अर्थ है ? बहुभाषिक व्यक्ति एकभाषिक व्यक्ति
से ज्यादा व्यावहारिक होता है, कैसे?
अथवा, किसी बच्चे का बहुभाषिक होना समस्या है या सीखने का बेहतरीन साधन
है। व्याख्या करें।
अथवा, बहुभाषिकता समस्या है या भाषिक समृद्धि ? कुछ उदाहरण देते हुए अपना
तर्क दें।
उत्तर―हमलोग अपने आस-पास यह देखते हैं कि बच्चे भिन्न-भिन्न स्थितियों में
भिन्न भिन्न भाषाओं का प्रयोग करते हैं अर्थात् वे बच्चे सीखने के दौरान एक से अधिक
भाषाओं में कुशलता का विस्तार करते हैं, उनमें सीखने की प्रक्रिया के साथ ही रचनात्मक
और सामाजिक सहिष्णुता जैसे गुणों का बेहतरीन विकास होता है। दो भाषा बोलने वाले बच्चे
न केवल अन्य भाषाओं पर अच्छा नियंत्रण रखते हैं बल्कि शैक्षिक स्तर पर भी ज्यादा रचनात्मक
होते हैं। साथ ही उनमें ज्यादा सामाजिकता और सहिष्णुता भी पाई गई है। इससे यह सिद्ध
होता है कि बहुभाषिकता का संज्ञानात्मक विकास और शैक्षिक उपलब्धि से गहरा सकारात्मक
रिश्ता है। एक आधार-पत्र ‘भारतीय भाषाओं का शिक्षण’ में अनेक शोधों का उल्लेख करते
हुए बताया गया है कि भाषिक व्यवहार को विविधता-बहुभाषिक समाज में सम्प्रेषण को बाधित
करने के बजाए किस प्रकार सहायता प्रदान करती है। बहुभाषिकता में इस तथ्य पर भी विचार
किया गया है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था को दबाए रखने की बजाए बनाए रखने का भरपूर
प्रयास करना चाहिए साथ ही उसे प्रोत्साहित करने का भी भरपूर प्रयास करना चाहिए। हमारी
शिक्षा व्यवस्था ने बहुभाषिकता से मिलते आ रहे फायदों को दबाने या कमजोर करने का
काम किया है। हिन्दी भाषा में एक कहावत है—’अब पछताए होत कया, जब चिड़िया चुग
गई खेत’। अगर इस कहावत से बचना है तो हमारी शिक्षा व्यवस्था के योजनाकारों को जल्द
हो शिक्षा में भाषा के महत्व को समझते हुए उसे ऊंचा स्थान देने की पहलकदमी करनी
होगी।
बहुभाषिकता से तात्पर्य किसी देश, राज्य या क्षेत्र में बोली जाने वाले विभिन्न भाषाओं
से है। भारत क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का 7वां वड़ा देश है। इसमें 29 राज्य और 7 केन्द्रशासित
प्रदेश है, जहाँ अनेक समुदाय, धर्म और जाति के लोग निवास करते हैं जिनकी भाषाएँ
अलग-अलग है। भारत की राजभाषा हिन्दी है, लेकिन अन्य भाषाओं को बोले जाने की संख्या
भी कम नहीं हैं। हमारे संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ शामिल है। लेकिन महज
आठवों अनुसूची से हो नहीं अन्य अलग कारणों से भी भारत की बहुभाषिकता का ज्ञान मिलता
है। हमारे देश की प्रकृति ही बहुभाषिक है और इसके बहुत से उदाहरण मौजूद है। यहाँ टी-वी.
अखबार, रेडियो, दफ्तर, शिक्षा, कचहरी आदि का कामकाज एक साथ कई भाषाओं में मिलता है।
हिंदी भाषा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। संसार में किए गए भाषा सर्वेक्षण के अनुसार
विश्व में हिंदी का तीसरा स्थान है। भारत में यह लगभग 60 करोड़ लोगों की भाषा है। भारत
के हिंदी भाषी क्षेत्र, भारत के अन्य राज्यों तथा विदेशों में भी हिंदी भाषा का पर्याप्त प्रयोग
हो रहा है।
बहुभाषिक व्यक्ति एकभाषिक व्यक्ति से ज्यादा व्यावहारिक होता है, उसे एक उदाहरण
द्वारा समझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, बालक की मातृभाषा खासी है और वह अंग्रेजी
को द्वितीय भाषा के रूप में सीखता है।
जब यह बालक बिहार के एक गांव में जाता है तो यहाँ संभव है कि वह उन व्यक्तियों
के साथ न तो अपनी प्रथम भाषा (खासी) और न ही द्वितीय भाषा (अंग्रेजी) में बात कर
सकता है। क्योंकि हो सकता है कि बिहार के उस गाँव के व्यक्ति न तो खासी जानते हो
और न ही अंग्रेजी ही। ऐसी स्थिति में, दूसरे व्यक्तियों के साथ संप्रेषण अथवा अंत:क्रिया
कठिन हो जाती है और कभी-कभी असंभव भी। दरअसल बहुभाषिकता भाषा की एक संपन्न
स्थिति है। अत: इसके संदर्भ में हुए अध्ययनों ने यह साबित कर दिया कि बहुभाषिकता व्यक्तियों
के अस्मिता का निर्माण ही नहीं करती है, बल्कि वह भारत के भाषा-परिदृश्य का विशिष्ट
लक्षण भी है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बहुभाषिक व्यक्ति एकभाषिक व्यक्ति से ज्यादा
व्यावहारिक होता है।
किसी बच्चे का वहभाषिक होना सीखने का बेहतरीन साधन है। इसकी व्याख्या इस प्रकर
दी जा सकती है कि जो बच्चे सीखने के दौरान एक से अधिक भाषाओं में कुशलता का
विस्तार करते हैं उनमें सीखने की प्रक्रिया के साथ ही रचनात्मक और सामाजिक सहिष्णुता
जैसे गुणों का बेहतरीन विकास होता है। दो भाषा बोलने वाले बच्चे न केवल अन्य भाषाओं
पर अच्छा नियंत्रण रखते हैं, बल्कि शैक्षिक स्तर पर भी ज्यादा रचनात्मक होते हैं, साथ ही
उनमें ज्यादा सामाजिकता और सहिष्णुता भी पाई जाती है। भाषिक खजाने की व्यापक व्यवस्था
पर नियंत्रण उन्हें विविध प्रकार की एवं विविध स्तर की सामाजिक परिस्थितियों से कुशलतापूर्वक
जूझने में सहायक होता है। साथ ही इस बात के पक्के सबूत मिले हैं कि बहुभाषिक बच्चे
विविध सोच में ज्यादा अच्छा प्रदर्शन करते हैं। यह न केवल बच्चे की अस्मिता का निर्माण
करती है, बल्कि भारत के भापा-परिदृश्य का विशिष्ट लक्षण भी है।

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