भाषा की समझ तथा आरम्भिक भाषा विकास
भाषा की समझ तथा आरम्भिक भाषा विकास
प्रश्न 9. भाषा और बोली से आप क्या समझते हैं ? इनके बीच अंतर स्पष्ट कीजिए।
अथवा, “किसको भाषा कहा जाएगा और किसको बोली-यह एक सामाजिक-
राजनैतिक प्रश्न है।” इस कथन की सोदाहरण व्याख्या करें।
अथवा, भाषा और बोली में किया जाने वाला अंतर भाषा वैज्ञानिक न होकर
राजनतिक है। उदाहरण सहित समझाएँ।
उत्तर―भाषा–भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से मनुष्य बोलकर लिखकर या संकेत
कर परस्पर अपना विचार सरलता, स्पष्टता, निश्चितता तथा पूर्णता के साथ प्रकट करता है।
यह किसी एक व्यक्ति की सम्पत्ति नहीं है। समाज की उपज है। यह शब्दों से तो बनती
है, पर उसी पर खत्म नहीं होती है। शब्दों के अर्थ और कहीं नहीं, हमारे अपने ही मन में
होते हैं। हम अपने सामाजिक क्षेत्र में कुछ विचारों, कार्यों, वस्तुओं आदि का संबंध कुछ विशिष्ट
शब्दों या ध्वनियों से स्थापित कर लेते हैं। यही कारण है कि कोई बात सुनकर या पढ़कर
उसका अर्थ (भाव) हम इसीलिए समझ लेते हैं कि हम जानते हैं कि वक्ता या लेखक अपने
इन शब्दों से वही आशय प्रकट का रहा है, जो आशय आवश्यकता पड़ने पर स्वयं हम अथवा
हमारे समाज के अन्य लोग इनसे प्रकट करते आए हैं।
यों तो भाषा को हम दो रूपों में ही स्पष्टतया व्यक्त करते हैं― लिखकर अथवा बोलकर,
परन्तु सांकेतिक भाषा का भी अपना महत्व हुआ करता है। यह सांकेतिक रूप कई रूपों में
हमारे सामने आता है। उदाहरणस्वरूप―
(क) विभिन्न रंगों से संकेत कर– ट्रैफिक चौराहों पर लाल और हरे रंगों द्वारा
खास-खास बातें कही जाती हैं। लाल रंग ठहरने का और हरा रंग आगे बढ़ने की तरफ इशारा
करता है। अस्पतालों में भी रंगों का प्रयोग देखने को मिलता है। इसी तरह विभिन्न अधिकारियों
की गाड़ियों में भी रंगीन बल्बों द्वारा खास तरह की सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया जाता है।
(ख) ध्वनि-संकेत–भारी लट्ठों या वजनी सामानों को उठाने या धकेलने में ध्वनि-संकेत
दिखता है। सायरन को आवाज, भोंपू को आवाज, स्कूलों में घंटी की आवाज, अग्निशामक
यंत्रों की आवाज, इसी तरह मवेशियों या पक्षियों को कुछ कहने या समझाने के लिए हम
जान-संकेतों का प्रयोग करते हैं। यह ध्वनि-संकेत शब्दों या वाक्यों में दर्शाए नहीं जा सकते,
परन्तु इनका महत्व तो होता ही है।
(ग) आंगिक संकेत–विभिन्न अवसरों पर हम अपने विभिन्न अंगों जैसे मुख, नाक,
आँख, हाथ, ओठ, गर्दन, ऊँगली आदि द्वारा अपने मन के भाव को व्यक्त करते हैं या अभिव्यक्ति
से अवगत होते हैं। इन आंगिक संकेतों के कारण ही भाषा में अंगों से संबंधित मुहावरों का
प्रयोग दिखता है।
बोली―”बोली किसी भाषा के एक ऐसे सीमित क्षेत्रीय रूप को कहते हैं जो ध्वनि,
रूप, वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरे आदि की दृष्टि से उस भाषा के परिनिष्ठित
तथा अन्य क्षेत्रीय रूपों से भिन्न होता है, किन्तु इतना भिन्न नहीं कि अन्य रूपों के बोलनेवाले
उसे समझ न सकें, साथ ही जिसके अपने क्षेत्र में कहीं भी बोलनेवालों के उच्चारण, रूप-रचना,
वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरों आदि में कोई बहुत स्पष्ट और महत्वपूर्ण भिन्नता
नहीं होती।”
भाषा और बोली में अंतर―भाषा का क्षेत्र व्यापक हुआ करता है। इसे सामाजिक,
साहित्यिक, राजनैतिक, व्यापारिक आदि मान्यताएँ प्राप्त होती हैं, जबकि बोली को मात्र सामाजिक
मान्यता ही मिल पाती है। भाषा का अपना गठित व्याकरण हुआ करता है, परन्तु बोली का
कोई व्याकरण नहीं होता। हाँ, बोली ही भाषा को नये-नये बिम्ब, प्रतीकात्मक शब्द, मुहावरे,
लोकोक्तियाँ आदि समर्पित करती है। जब कोई बोली विकास करते-करते उक्त सभी मान्यताएँ
प्राप्त कर लेती है, तब वह बोली न रहकर भाषा का रूप धारण कर लेती है। जैसे–खड़ी
बोली हिन्दी जो पहले (द्विवेदी-युग से पूर्व) मात्र प्रांतीय भाषा या बोली मात्र थी, वह आज
भाषा ही नहीं राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त कर चुकी है।
एक बोली जब मानक भाषा बनती है और प्रतिनिधि हो जाती है तो आस-पास की बोलियों
पर उसका भारी प्रभाव पड़ता है। आज की खड़ी बोली ने ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली,
मगही आदि सभी को प्रभावित किया है। हाँ, यह भी देखा जाता है कि कभी-कभी मानक
भाषा कुछ बोलियों को बिल्कुल समाप्त भी कर देती है। एक बात और है, मानक भाषा पर
स्थानीय बोलियों का प्रभाव ही देखा जाता है।
एक उदाहरण द्वारा इसे आसानी से समझा जा सकता है :
बिहार राज्य के वेगूसराय, खगड़िया, समस्तीपुर आदि जिलों में प्रायः ऐसा बोला जाता है :
हम कह देंगे। हम नै करेंगे आदि।
भोजपुर क्षेत्र में : हमें लौक रहा है (दिखाई पड़ रहा है)। हम काम किये (हमने काम
किया)
पंजाब प्रान्त का असर : हमने जाना (हमको जाना है)।
दिल्ली-आगरा क्षेत्र में : वह कहवे था/मैं जाऊँ। मेरे को जाना है।
कानपुरी आदि क्षेत्रों में : वह गया हैगा।
एक भाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ हो सकती हैं, जबकि एक बोली में कई भाषाएँ नहीं
होती। बोली बोलनेवाले भी अपने क्षेत्र के लोगों से तो उसी बोली में बातें करते हैं, किन्तु
बाहरी लोगों से भाषा का ही प्रयोग करते हैं।
ग्रियर्सन के अनुसार भारत में 6 भाषा-परिवार, 179 भाषाएँ और 544 बोलियाँ हैं :
(क) भारोपीय परिवार : उत्तरी भारत में बोली जाने वाली भाषाएँ।
(ख) द्रविड़ परिवार : तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम।
(ग) आस्ट्रिक परिवार : संथाली, मुंडारी, हो, सवेरा, खड़िया, कोर्क, भूमिज,
गदवा, पलौक, वा, खासी, मोनख्मे, निकोवारी।
(घ) तिब्बती चीनी : लुशेइ, मेइथेइ, मारो, मिश्मा। अबोर-मिरी, अक।
(ङ) अवर्गीकृत : बुरूशास्की, अंडमानी
(च) करेन तथा मन : बर्मा की भाषा (जो अब स्वतंत्र है)
‘किसी भी सामान्य व्यक्ति से पूछकर देखिए, वह ‘अत्यधिक विश्वास से आपको भाषा
व बोली में अंतर बताने लगेगा। कहेगा, “भाषा का व्याकरण होता है, बोली का नहीं। भाषा
की लिपि होती है, बोली की नहीं। भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है जबकि बोली का स्थानीय।
भाषा मानकीकृत व परिमार्जित होती है बोली नहीं। जिसका प्रयोग साहित्य, पत्राचार, दफ्तरों,
अदालतों आदि में हो वह भाषा और जो बोलचाल के लिए इस्तेमाल हो वह बोली। भाषा
में शुद्ध अशुद्ध का प्रश्न उठता है, बोली में सब चलता है आदि आदि।”
प्रश्न 10. बच्चों की भाषा सीखने की क्षमता और भाषायी ज्ञान की समझ का
वर्णन कीजिए।
उत्तर–बच्चों की मूल प्रवृत्तियों से अनुप्रेरित व्यवहार में संशोधन सीखना (अधिगम)
ही करता है। इसकी पुष्टि बच्चों के नवीन कार्यों से होती है।
सीखने के तीन तत्व हैं―
(i) सीखना का आशय व्यवहार में परिवर्तन लाना है।
(ii) सीखना व्यवहार का नियोजित रूप है।
(iii) सीखना परिवर्तित कार्य व्यवहार में दिखाई पड़ता है।
बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा प्रत्युत्पन्न परिस्थितियाँ उसके सीखने की
प्रक्रिया का स्तर या सीखने की क्षमता का निर्धारण करती है। ई० ए० पील ने अपनी पुस्तक
‘दिस साइकोलॉजिकल वेसिस ऑफ एजुकेशन’ में सीखने पर निम्नलिखित विचार प्रस्तुत
किये―
(i) सीखना एक सहज या परवर्ती क्रिया नहीं है।
(ii) सीखने का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति या सामाजिक या जैविक अनुकूलन हो सकता है।
(iii) अनुकूल सीखने से व्यक्ति समाज स्वीकृत व्यक्ति बन सकता है जबकि प्रतिकूल
सीखने से व्यक्ति असामाजिक भी बन सकता है।
(iv) सीखना उचित और अनुचित दोनों तरह का हो सकता है।
सीखने का स्वरूप तव निर्धारित होता है जब सभी क्रियाएँ पूर्णता को प्राप्त करती है।
वास्तव में उद्दीपनों के कारण ही वालक व्यावहारिक क्रियाएँ करता है एवं अपने अर्जित अनुभव
से इन अनुक्रियाओं में परिवर्तन लाता है या इनका परिमार्जन करता है। यह परिवर्तन या परिमार्जन
ही अधिगम या सीखना कहलाता है।
भाषा सीखने की क्षमता–भाषा सीखने की क्षमता निम्नलिखित चार प्रमुख तत्वों पर
निर्भर करती है―
(i) आवश्यकता—सीखने वाले की जरूरतों और सीखने की तत्परता ही सीखने की कोटि
को निर्धारित करती है।
(ii) तत्परता–बालक की शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता तथा उसके पूर्व-अनुभव
अधिगम के लिए उसे तत्पर बनाते हैं। सीखने से उद्देश्यों की प्राप्ति में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका
रहती है।
(iii) परिस्थिति—सीखने की प्रक्रिया में सीखने की परिस्थितियों का विशेष महत्त्व है।
सीखने को विशेष परिस्थितियाँ ही सीखने का सार्थक माहौल बनाती है।
(iv) अन्तःक्रिया-बालक की जरूरतों तथा सीखने की परिस्थिति में ही अध्यापक एवं
अन्य विद्वानों के साथ अन्त:क्रिया रहता है।
भाषायी ज्ञान को समझ―बच्चों में भाषायी ज्ञान की समझ भाषा सीखने के दौरान
ही विकसित होती है। भाषा सीखने के दौरान ही वह उनका अनुप्रयोग भी करता है। बच्चा
अगर किसी से बातचीत करता है, अपने प्रश्न पूछता है या उत्तर देता है तो यह स्पष्ट है
कि उसमें भाषायी ज्ञान की समझ विकसित हो चुकी है। इसे हम एक उदाहरण के तौर पर
समझ सकते हैं―
सोनू–कहाँ जा रही हो, सोनी?
सोनी– सब्जी खरीदने। तुम कहाँ जा रहे हो ?
सोनू–घर जा रहा हूँ। तुम्हारे घरवाले कैसे हैं?
सोनी–सभी लोग ठीक हैं।
इस उदाहरण में बच्चों की भाषायी क्षमता दिखाई दे रही है। बच्चे वचन और लिंग के
अनुरूप क्रिया शब्दों का प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं। ब्रिटेन (2006), बच्चों को भाषायी
क्षमता के बारे में कहते हैं कि प्रत्येक बच्चा उस भाषा को जिस परिवेश में वह बड़ा होता
है, विश्लेषित करता है और उसकी आंतरिक गुप्त (लेटेंट) संरचना निकाल लेता है। यह गुप्त
संरचना इतनी सामान्य होती है कि वह बच्चा आजीवन इसका प्रयोग भी करता है। यह अर्थीय
और वाक्यीय दोनों प्रकार की होती है। भाषा अधिगम (सीखना) में गुप्त संरचना की खोज
सबसे महत्वपूर्ण और बोधगम्य प्रक्रिया है। बच्चा जिस तंत्र का उपयोग करता है। उसकी व्याख्या
करना, उसका विवरण देना, उसका व्याकरण लिखना उसके लिए संभव है। शब्द कोटियों
की परस्पर व्यवस्था करते हुए बच्चे बोलते हैं। इससे स्पष्ट है कि बच्चों में भाषा सीखने
की क्षमता होती है और साथ ही वे भाषा की व्याकरणीय कोटियों का सचेत ज्ञान (व्याकरणीय
ज्ञान) न होते हुए भी संदर्भ के अनुसार भाषा को समझते हैं और भाषा को सार्थक प्रयोग
करने की क्षमता रखते हैं।
प्रश्न 11. भाषा सीखने संबंधी बी एफ स्कीनर के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर–बी. एफ. स्कीनर व्यवहारवादी परिप्रेक्ष्य से जुड़े हैं। व्यवहारवादी परिप्रेक्ष्य के
अनुसार सीखने की प्रक्रिया में उद्दीपन-प्रतिक्रिया-पुनर्बलन का विशेष महत्व होता है। किसी
भी चीज को सीखने के लिए अथवा प्रतिक्रिया करने के लिए उद्दीपन की उपस्थिति अनिवार्य
है और जब बच्चे को उस प्रतिक्रिया पर किसी प्रकार का पुनर्बलन प्राप्त होता है तो सीखने
की प्रक्रिया पुष्ट होती है। इसका सीधा-सा तात्पर्य यह है कि सीखने की प्रक्रिया का मूल
वातावरण में कहीं निहित है। इस व्यवहारवादी परिप्रेक्ष्य के अनुसार बच्चे परिवेश में उपलब्ध
भाषा का अनुकरण करते हुए भाषा सीखते हैं। इस संबंध में स्कीनर ने क्रिया प्रसूत अनुबंधन
सिद्धान्त का निर्माण किया जो इस प्रकार है―
क्रिया प्रसूत अनुबंधन सिद्धान्त― क्रिया प्रसूत’ अनुबंधन जिसे अंग्रेजी में ‘अपरेण्ट
कण्डीशनिंग’ के नाम से पुकारा जाता है, प्रसिद्ध अमेरिकन मनोवैज्ञानिक प्रोफेसर बी० एफ०
स्कीनर की देन है। इस प्रकार के अनुबंधन के अन्तर्गत एक अपेक्षाकृत स्वतंत्र पर्यावरण के
संदर्भ में पुनर्बलन के समुचित अनुप्रयोग द्वारा प्राणी के व्यवहार का नियंत्रण किया जाता है।
इसमें उन अनुक्रियाओं का समह या कार्यों का सेट निहित होता है, जिन्हें लगभग एक ही
जैसे परिणामों के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है। इसके उदाहरण हैं― खाना, लिखना,
टहलना, साक्षरता, चलाना, किसी विशेष पर सोचना आदि। दूसरे शब्दों में ‘आपरेण्ट’ को व्यवहार
का समानार्थक माना जा सकता है, किन्तु यह ऐसे व्यवहार का परिसूचक नहीं है, जिससे
ज्ञात उद्दीपक के जरिए अनुक्रिया उद्दीप्त होती है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि यह किसी
पर्यावरण के सन्दर्भ में प्राणी की संक्रिया द्वारा व्यक्त होकर कुछ निश्चित परिणामों को उत्पन्न
करता है। दूसरे शब्दों में, यह उदीप्त (Elicited) न होकर उत्सर्जित (Emitted) होता है, जिसमें
किसी विशिष्ट उद्दीपक के जरिए विशिष्ट अनुक्रिया उत्पन्न होने की प्रक्रिया पर बल दिया
जाता है।
क्रिया प्रसूत अनुबंधन में प्राणी की क्रिया एवं उससे उत्पन्न (प्रसूत) परिणाम अत्यन्त
महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इसके अन्तर्गत प्राणी को सक्रिय होकर अनुक्रिया करने के प्रति बाध्य
किया जाता है और उस अनुक्रिया द्वारा प्रसृत परिणामों के अनुसार उस दृढ़ बनाया जाता है।
जैसे― घर में यदि छोटा बालक किसी नवागन्तुक के आने पर उसे नमस्ते करता है और उसके
इस व्यवहार पर यदि उसके माता-पिता उसकी प्रशंसा करते हैं, तो वह भविष्य में भी ‘नमस्ते’
करने की अनुक्रिया सीख लेता है। यहाँ यह ध्यान देना होगा कि सर्वप्रथम अनुक्रिया जैसे बालक
द्वारा ‘नमस्त’ कहना और तदुपरान्त उसका परिणाम, जैसे-माता-पिता का प्रसन्न होकर उसकी
प्रशंसा करना अत्यंत आवश्यक अवयव माने जाते हैं। इस प्रकार नई अनुक्रियाओं को ही क्रिया
प्रसूत अनुबंधन’ की संज्ञा दी जाती है। क्रिया प्रसूत अनुबंधन में प्राणी को अपनी इच्छानुसार
अनुक्रिया उत्पन्न करने की स्वतंत्रता होती है और प्रयोगकर्ता प्राणी के व्यवहार को पुनर्बलन
के प्रयोग से नियंत्रित करता है।
वास्तव में, क्रिया प्रसूत अनुबंधन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से अधिगमकर्त्ता
को विभेदक उद्दीपन (Discrimination Stimulus) की उपस्थिति या अनुपस्थिति में धनात्मक
या नकारात्मक पुनर्वलन का अनुप्रयोग करते हुए किसी अनुक्रिया को उत्पन्न करना या अवरुद्ध
करना सिखलाया जाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इसके अन्तर्गत धनात्मक
पुनर्यलन (Positive Reinforcement) जैसे—पुरस्कार, प्रशंसा, प्रोत्साहन, फल आदि को
व्यवहार संशोधन या अनुक्रिया नियंत्रण हेतु महत्वपूर्ण विधि के रूप में अपनाया जाता है।
प्रश्न 12. नोम चॉम्स्की के भाषा सीखने संबंधी सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर―नोम चॉम्स्की का जन्म 7 दिसम्बर, 1928 को अमेरिकी नगर फिलाडेल्फिया में
हुआ था। उनके पिता विलियम चॉम्स्की हिब्रू भाषा के विद्वान थे और माँ एल्सी सिमोनोफ्स्की
भी विदुषी व बाल पुस्तकों की लेखिका थी। नोम ने बचपन में ही मध्यकालीन हिब्रू व्याकरण
पर अपने पिता द्वारा लिखी पांडुलिपि पढ़ डाली, जिसने उनके भविष्य के काम की जमीन
तैयार की। सन् 1955 तक वह एनआईटी में भाषा विज्ञान पढाने लगे। यहाँ रहकर उन्होंने अपने
भाषा विज्ञान संबंधी क्रान्तिकारी सिद्धान्तों का सूत्रपात किया। चॉम्स्की उस नजरिए को चुनौती
देते हैं, जिससे हम आज भी खुद को देखते हैं। वह कहते हैं, भाषा हमारे अस्तित्व का मूल
हैं। हम हर वक्त भाषा में लीन रहते हैं। जब हम सड़क पर चल रहे होते हैं तो खुद से अपनी
बातचीत को रोकने के लिए जबर्दस्त इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ती है, क्योंकि खुद के साथ
हमारी बातचीत हमेशा चलती रहती है।
चॉम्स्की को जेनेरेटिव ग्रामर के सिद्धान्त का प्रतिपादक एवं बीसवीं सदी के भाषा विज्ञान
में सबसे बड़ा योगदानकर्ता माना जाता है। उन्होंने जब मनोविज्ञान के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक
स्कीनर के पुस्तक वर्बल बिहेवियर की आलोचना लिखी, जिसमें 1950 के दशक में व्यापक
स्वीकृत प्राप्त व्यवहारवाद के सिद्धान्त को चुनौती दी, तो इससे संज्ञानात्मक मनोविज्ञान में एक
तरह की क्रान्ति का सूत्रपात हुआ, जिससे न सिर्फ मनोविज्ञान का अध्ययन एवं शोध प्रभावित
हुआ, बल्कि भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र जैसे कई क्षेत्रों में आमूलचूल परिवर्तन आया
भाषा सीखना― चाँम्स्की बच्चों के भाषा सीखने की जन्मजात क्षमता में विश्वास रखते
हैं और यह स्वीकार करते हैं कि बच्चे इसी क्षमता के सहारे अपने परिवेश से भाषा को ग्रहण
करते हैं और विभिन्न आर्थिक संरचनाओं को आत्मसात करते हुए नए-नए वाक्य बनाते हैं।
पियाजे, चाँम्स्की और वाइगोत्सकी इसी विचारधारा का समर्थन करते हैं। लेकिन फिर भी उनके
मतों में थोड़ा बहुत अन्तर देखने को मिलता है।
चॉम्स्की के विचारानुसार भाषा केवल अनुकरण के माध्यम से नहीं सीखी जा सकती।
सीमित वाक्य सुनकर असीमित वाक्यों को बोलना ‘भाषिक अर्जन क्षमता’ द्वारा संभव है। प्रत्येक
बच्चा भाषा सीखने की क्षमता लेकर पैदा होता है। या यूँ कहे कि भाषा सीखने की क्षमता
जन्मजात होती है। इसी क्षमता के सहारे बच्चा रोज नए-नए भाषिक प्रयोग करता है। इसे
इस प्रकार समझा जा सकता है―
आगम (Input)-भाषा अर्जन क्षमता (LAD)―निर्गम (Output)
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बच्चा अपने परिवेश में जो भाषा और जिस तरह की
भाषा सुनता है उसे अपनी भाषिक क्षमता के सहारे विश्लेषित करता है। समाज से प्राप्त भाषिक
आँकड़ों के आधार पर बच्चा अपने खुद नियम बनाता है (जिसे चाँम्स्की ने लघु व्याकरण
कहा है)। इन्हीं नियमों के आधार पर वह भाषा का प्रयोग करता है।
प्रश्न 13. पियाजे के भाषा सीखने संबंधी सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर― जीन पियाजे (J. Piaje) (1896-1980)―इस सदी में स्विस (Switzerland)
निवासी मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे ने अपने शोध प्रयोगों द्वारा वाल-मनोविज्ञान सम्बन्धी
क्रान्तिकारी सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं। पियाजे ने बच्चों के मन की परतों को उधेड़ा और
उनके सीखने की प्रक्रिया की सूक्ष्म व्याख्या की है। पियाजे के क्रान्तिकारी विचारों ने शिक्षाविदों
को शिक्षाक्रम, पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण सामग्री सम्बन्धी प्रचलित अवधारणाओं में मूलभूत
परिवर्तन करने को उत्प्रेरित किया है।
बचपन और किशोरावस्था के दौरान उन्होंने ऊँचे दर्जे की बौद्धिक प्रौढ़ता का परिचय दिया।
जब वे दस वर्ष के थे तो पब्लिक पार्क में देखी गोरैया पर उनका पहला विवरणात्मक लेख छपा
था। 15 वर्ष की उम्र में जेनेवा के संग्रहालय में मोलस्क विभाग के क्यूरेटर बने। 18 वर्ष की
उम्र में नेक्टाल विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त कर ली। अगले तीन वर्षों में प्रकृति विज्ञान विषय
में डॉक्टरेट की डिग्री ली। 21 वर्ष की उम्र तक पियाजे के 20 शोध लेख प्रकाशित हो चुके
थे। पियाजे ने लगभग 40 पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें अधिकांश बालक के सीखने सम्बन्धी हैं।
प्रकृति विज्ञान के अध्ययन से मनोविज्ञान का अध्ययन–प्रकृति विज्ञान के अलावा
पियाजे ने समाजशास्त्र, धर्म एवं दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया। दर्शनशास्त्र से ही उनकी
रुचि ज्ञान-मीमांसा (एपिस्टोमोलोजी) की ओर प्रवृत्त हुई। प्राणि-विज्ञान तो पियाजे का आधार
था ही उन्होंने सोचा कि क्यों न ज्ञान-मीमांसा सम्बन्धी समस्याओं के समाधान हेतु जीव-विज्ञान
के सिद्धान्तों का उपयोग किया जाए। वस्तुतः ज्ञान-मीमांसा व प्राणि-विज्ञान के मध्य किसी
सेतु की तलाश करते-करते वे मनोविज्ञान के लोक में जा पहुंचे।
बच्चों का संज्ञानात्मक विकास― डॉक्टरेट करने के पश्चात् पियाजे मनोविज्ञान का
अध्ययन करने की इच्छा से यूरोप की प्रयोगशालाओं, क्लिनिक एवं विश्वविद्यालयों में गए।
इसी बीच कुछ अर्से तक पेरिस में अल्फ्रेड विने (Alfred Binnet) की प्रयोगशाला में उन्होंने
काम किया। फ्रेंच स्कूली बच्चों की बुद्धि परीक्षा लेते-लेते जिस बात ने उनका ध्यान खींचा,
वह थी बच्चों के गलत उत्तर। पियाजे सोचने लगे कि बच्चे गलत उत्तर क्यों देते हैं. बच्चे
सोचते कैसे हैं ? ज्ञान कैसे हासिल करते हैं ? पियाजे की इसी जिज्ञासा ने संज्ञानात्मक विकास
(Cognitive Development) के लिए महान कार्य किया और उन्हें प्रेरित किया।
पियाजे ने बच्चों की गतिविधियों का बहुत नजदीकी से बारीक अध्ययन किया। बच्चे
चाहे घरों में हो या स्कूलों में, जिन क्षणों में अत्यन्त सहज व स्वाभाविक रूप से पढ़ते-लिखते.
खेलते-खाते, पियाजे उन्हें घण्टों तक अनथक रूप से देखते रहते। विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों
की हरकतें अनवरत रूप से देखने और मिनट-दर-मिनट उनका लेखा-जोखा रखने का काम
अत्यन्त कठिन था, पर पियाजे वर्षों तक इसे अभिरुचि व आनन्दपूर्वक करते रहे। तब उन्होंने
मानव मस्तिष्क के एक सर्वथा अनुछुए क्षेत्र के सम्बन्ध में एक नई दृष्टि दुनिया के सामने
रखी, जिसे हम संज्ञानात्मक विकास (कॉग्निटिव डेवलपमेंट) के नाम से जानते हैं।
पियाजे का कहना है कि बुद्धि का विकास जन्म के साथ जुड़ा हुआ नहीं है। ज्यों-ज्यों
शरीर एवं अवयवों का विकास होता रहता है, त्यों-त्यों स्वतः बुद्धि विकसित होती रहती है।
लेकिन इस विकास के लिए उपयुक्त क्रियाएँ जरूरी हैं। बच्चा जन्म के साथ ही अंग एवं
अवयव संचालन आदि दैहिक क्रियाओं से लैस होकर आता है, वही आगे चलकर उन्हें
सोचने-विचारने का एक पूरा तन्त्र प्रदान करता है।
मानसिक विकास के चरण―बच्चे जन्म से लेकर किशोरावस्था तक किस तरीके से
सोचते हैं, इस पक्ष पर पर्याप्त खोज करने के पश्चात् पियाजे ने बच्चों के विभिन्न आयु वर्ग
के बीच उनके मानसिक विकास की क्रमिकता को देखा, परखा और उसे चार चरणों में विभाजित
किया।
पहला चरण―जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक के चरण में इन्द्रियों के जरिये बच्चा
प्राथमिक अनुभव प्राप्त करता है। बाहरी वातावरण और उसकी इन्द्रियों के बीच पारस्परिक
आदान-प्रदान होने से इस चरण में मानसिक क्रियायें घटित होती हैं। प्रारम्भ में चीजों का होना
न होना उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखता। किसी वस्तु को देखते-देखते जब वह चीज आँखों
से ओझल हो जाती है तो बच्चे के लिए उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। शैशवावस्था
में बच्चा शुद्ध तात्कालिक अनुभवों तक सीमित रहता है। इन्द्रिय एवं गतिबोध के इस प्रारम्भिक
चरण की समाप्ति तक चारों ओर के वातावरण में वह निरन्तर अनुभव करने लगता है। बगैर
भाषा के अपने अनुभवों को व्यक्त करने का इन्द्रियों के अतिरिक्त उसके पास कोई और तरीका
नहीं होता। वस्तुओं को एकटक देखता जायेगा, भूख लगेगी तो चीखेगा। इस भय में होने वाली
समस्त इन्द्रिय एवं अवयव सम्बन्धित क्रियायें ही उसकी बौद्धिक क्रियायें होगी।
दूसरा चरण (दो से सात वर्ष)― इस चरण में बच्चे की सोचने की क्षमता में परिवर्तन
आता है। अपने चारों ओर देखनेवाली चीजों के बारे में वह सोचना शुरू करता है। प्रतीकों
(Symbols) का सहारा लेने लगता है। अनेक प्रकार के प्रतीक उसकी याद्दाश्त में जुड़ते जाते
हैं। शब्दों का उच्चारण करने लगता है। कई बार तो एक ही शब्द कई वस्तुओं के लिए व्यवहार
में लाता है। अन्तःबोध के इस दूसरे चरण में बच्चे की पहचान क्षमता में परिवर्तन आने लगता
है। शब्दज्ञान में भारी वृद्धि होती है। न सिर्फ शब्दों की समझ बढ़ती है अपितु वह स्वतः उनका
प्रयोग भी करने लगता है। दो वर्ष का औसत बच्चा 200-300 शब्दों की समझ रखता है।
जबकि पाँच वर्ष की उम्र तक शब्द में 100 प्रतिशत वृद्धि देखने में आती है। दो वर्ष का
बच्चा एक या दो शब्दों का वाक्य बोलता है जबकि साल भर के अन्दर-अन्दर आठ से दस
शब्दों का वाक्य बोलने की क्षमता अर्जित कर लेता है और वह भी व्याकरण की दृष्टि से
बिल्कुल सही।
भाषा शिक्षण को लेकर इस चरण में बच्चे में जबरदस्त परिवर्तन देखा जाता है, बड़े
बुजुर्गों से बातचीत करना, छोटे-छोटे गीत गाना और इस प्रकार स्वयं को सम्प्रेषित करना बच्चा
सीखता है। उसके भाषायी विकास के लिए अभिभावक को अधिकाधिक सहायता करनी चाहिए।
इस आयु के दौरान भाषा ज्ञान में रही कमी आगे के वर्षों में भी देखने को मिलती है। इसका
यह अर्थ नहीं कि बच्चों को भाषा ज्ञान हेतु शिक्षण दिया जाये। इस उम्र के बच्चे खिलौनों
को वास्तविक मानते हैं। तरह-तरह के वे-सिर-पैर की बातें बनाते हैं, अकेले बैठे घण्टों अपने
आप से बातें करते रहते हैं। पियाजे इसे ‘कलेक्टिव मोनोलाग’ कहते हैं। ऐसे बच्चों से कहानी
सुनाने को कहें तो अनेकानेक कहानियाँ सुना देंगे। बोलते समय आप महसूस करेंगे कि वे
अपने आप में खोये हुए हैं― उनका सोचना, उनका बोलना नितान्त स्वकेन्द्रित है। दूसरे की
बातों में उनकी रुचि नहीं होती। वस्तुतः ‘कलेक्टिव मोनोलाग’ भाषिक अभ्यास की एक पद्धति
है जिसके द्वारा किसी और की प्रतीक्षा किये बगैर बच्चे स्वत: बातचीत में व्यस्त रहते हैं।
भाषिक अभिव्यक्ति की क्षमता का जहाँ तक प्रश्न है, इस चरण में बच्चे सर्वाधिक ग्राह्य रहते
हैं। वे एक ख्याली दुनिया में खोये रहते हैं, यथार्थ का उनके लिए विशेष अर्थ नहीं होता।
यही कारण है कि नाटे व चौड़े गिलास की बजाए, पतले व लम्बे गिलास में उन्हें दूध ज्यादा
नजर आयेगा और वे उसी को चुनेंगे। दूध की मात्रा को लेकर कमी-बेशी की बात आप बच्चे
को समझाना चाहेंगे तो उनकी समझ में नहीं आयेगी। इस उम्र के बच्चे की मनःस्थिति को
समझते हुए यदि आप कुछ शैक्षिक सामग्री देना चाहे तो काफी सावधानी बरतने की जरूरत है।
इस आयु वर्ग का बालक स्वच्छन्दता प्रिय और अत्यन्त कल्पनाशील होता है। यह सच
है कि उसके तर्क में निरन्तर कमी होती है पर सृजनात्मक कार्यों एवं समस्याओं के मौलिक
समाधान की दृष्टि से आत्मबोध का यह काल सर्वाधिक उर्वर काल माना जाता है। कल्पनाशीलता
की प्रचुरता बच्चों को यथार्थ की सीमाओं से मुक्त रखती है। परिणामतः वे अधिक सृजनशील
होते हैं।
तीसरा चरण (सात से ग्यारह वर्ष)–इस चरण में पियाजे के अनुसार बच्चे अधिक
व्यवहारशील एवं यथार्थ होते हैं। वे सच्चाई को समझ जाते हैं। पारिवारिक रिश्ते उनकी समझ
में आने लगते हैं तथा छोटे-छोटे गिलास व पानी के अनुपात का मर्म उन्हें समझ आने लगता
है। अब वे किसी चीज को नाप-तौल सकते हैं ताकि कोई उन्हें मूर्ख न बना सके। उन्हें स्वप्न
और वास्तविकता का फर्क तो समझ में आ जाता है पर वास्तविक स्थितियों से उन्हें क्या
निष्कर्ष निकालना चाहिए, यह समझ में नहीं आता। पाँच वर्ष के बच्चे से पूछे कि स्वप्न
क्या होता है तो बोलेगा कि वो जो बिस्तर पर लेटने पर आता है और मूवी की तरह देखा
जाता है। यही बात नौ वर्ष वाले से पूछो तो कहेगा–दिमाग के अन्दर बनने वाले मानसिक
बिम्ब को स्वप्न कहते हैं।
मूर्त क्रियाओं के इस चरण में बच्चों का सोचना-विचारना क्रमशः अभिधात्मक होने लगता
है। इस उम्र में बच्चों को स्कूल में पढ़ने भेजना अधिक लाभप्रद होता है। जहाँ उन्हें तरह-तरह
के कौशल सीखने का अवसर सुलभ होता है।
चौथा चरण (ग्यारह से सोलह वर्ष)―इस चरण में, जो किशोरावस्था के आस-पास
का समय होता है, बच्चे किसी भी विषय के सम्बन्ध में सामान्य रीति से सोचना शुरू कर
देते हैं। उनके सोचने में तर्क स्वतः आ जाता है, सम्बद्धता, क्रमबद्धता बातों की बारीकी,
छल-छन्द आदि वे समझते लगते हैं। प्रतीकात्मक शब्दों, उपमाओं व रूपकों का आशय भी
जान जाते हैं।
पियाजे के द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास के उक्त चारों चरणों में एक बात समान
रूप से सर्वत्र विद्यमान है और वह है क्रिया (एक्टीविटी)। सीखने में क्रिया आधारिक भूमिका
है। पियाजे के इन विचारों को शिक्षा की रूपरेखा बनाते समय मुख्यतया प्रत्येक कक्षा के
पाठ्यक्रम के निर्माण के समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।
प्रश्न 14. लेव वाईगोत्स्की के भाषा सीखने संबंधी सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर―लेव वाईगोत्स्की एक विचारक थे, जिन्होंने पूर्व सोवियत संघ के पहले दशकों
के दौरान काम किया था। उनका मानना था कि बच्चे व्यावहारिक अनुभव के माध्यम से
सीखते हैं, जैसे कि पियाजे ने सुझाव दिया था। हालाँकि, पियाजे के विपरीत, उन्होंने दावा
किया कि जब कोई बच्चा कोई नया काम सीखने के कगार पर होता है तब वयस्कों द्वारा
समय पर और संवेदनशील हस्तक्षेप से बच्चों को नए कार्यों (जिन्हें समीपस्थ विकास का
क्षेत्र नाम दिया गया) को सीखने में मदद मिल सकती है। इस तकनीक को स्कैफोल्डिंग
(मचान बनाना) कहा जाता है क्योंकि यह नए ज्ञान के साथ बच्चों के पास पहले से मौजूद
ज्ञान पर निर्मित होता है जिससे व्यस्क बच्चे को सीखने में मदद मिल सकती है। इसका एक
उदाहरण तब मिल सकता है जब कोई माता या पिता किसी बच्चे को ताली बजाने या पैट-ए-केक
कविता के लिए अपने हाथों को गोल-गोल घुमने में तब तक मदद करते हैं जब तक वह
खुद अपने हाथों को थपथपाना या ताली बजाना और गोल-गोल घुमाना सीख नहीं लेता है।
वाइगोत्स्की का ध्यान पूरी तरह बच्चे के विकास की पद्धति का निर्धारण करने में संस्कृति
की भूमिका पर केन्द्रित था। उन्होंने तर्क दिया कि बच्चे के सांस्कृतिक विकास में हर कार्य
दो बार प्रकट होता है। पहली बार सामाजिक स्तर पर और बाद में व्यक्तिगत स्तर पर,पहली
बार लोगों के बीच (अंतरमनोवैज्ञानिक) और उसके बाद बच्चे के भीतर (अंतरामनोवैज्ञानिक)।
यह स्वैच्छिक ध्यान, तार्किक स्मृति और अवधारणा निर्माण में समान रूप से लागू होता है।
सभी उच्च कार्यों की उत्पत्ति व्यक्तियों के बीच वास्तविक संबंधों के रूप में होती है।
वाईगोत्स्की ने महसूस किया कि विकास एक प्रक्रिया थी और उन्होंने बच्चे के विकास
में संकट की अवधियों को देखा जिस दौरान बच्चे की मानसिक क्रियाशीलता में एक गुणात्मक
परिवर्तन हुआ था।
भाषा सीखना―वाइगोत्स्की के अनुसार बच्चे की भाषा समाज के साथ सम्पर्क का
ही परिणाम है। साथ ही बच्चा अपनी भाषा के विकास के क्रम में दो तरह की बोली बोलता
है―आत्मकेन्द्रित और सामाजिक। आत्मोन्मुख भाषा के माध्यम से वह खुद से संवाद करता
है, जबकि सामाजिक भाषा के माध्यम से वह शेष सारी दुनिया से संवाद स्थापित करता है।
भाषा सीखने को प्रक्रिया में समाज की महती भूमिका पर बल देते हुए वाइगोत्स्की का
मानना है कि बच्चे अपने-अपने समुदाय के सम्पर्क में आकर भाषा सीखते हैं। इसका अर्थ
यह है कि भाषा की ध्वनियों की सार्थकता तभी है जब वह किसी वस्तु विशेष की
ओर संकेत करता है।
बच्चों और युवकों दोनों के लिए भाषा का प्रमुख संप्रेषण, सामाजिक संपर्क स्थापित
करना है। बच्चे की प्रारंभिक भाषा अनिवार्यतः सामाजिक होती है। प्रथमतः यह सार्वभौमिक
और बहुप्रकार्थी होती है। परवर्ती स्थिति में इसके प्रकार्य विभेदीकृत हो जाती है। एक निश्चित
आयु में बालक की सामाजिक भाषा अहमकेन्द्रित और संप्रेषणपरक भाषा के दो फाँकों में
स्पष्टतः विभाजित हो जाती हैं। पियाजे ने जिसे सामाजिक भाषा कहा है, उसे हम संप्रेषणपरक
कहना अधिक पसंद करते हैं। सामाजिक कहने पर यह आभास होता है कि यह पहले कुछ
और थी। हमारे दृष्टिकोण से संप्रेषणपरक और समकेंद्रित दोनों ही रूप प्रकार्य की दृष्टि से
अलग होते हुए भी सामाजिक होते हैं। समाज से सीखी गई भाषा का उपयोग बच्चा स्वयं
से बात करने हेतु कर सकता है। बच्चा अपने लिए भाषा का उपयोग करते समय अधूरे वाक्य
बोल सकता है।” वाइगोत्स्की ने सुझाव दिया था कि जब कोई बच्चा छह या सात वर्ष की
आयु में अपने लिए भाषा का प्रयोग करना बंद कर देता है तो इसका कारण यह होता है
कि भाषा का आंतरिकीकरण है और अब उसका आंतरिक भाषा के रूप में प्रयोग जारी है।”
(ब्रिटेन, 1999)। बच्चे की गतिविधियों में अपने लिए भाषा या अहमकेन्द्रित भाषा महत्वपूर्ण
भूमिका अदा करती है। चाहे वह कोई चित्र बना रहा हो, चीजों को उनकी सही संख्या से
मिला रहा हो, ब्लॉक्स को रंगों के अनुसार व्यवस्थित कर रहा हो, खेल में बैलगाड़ी को हाँक
रहा हो या किसी अपरिचित वस्तु का सामना कर रहा हो। बच्चा इस ‘अहमकेन्द्रित भाषा’
के सहारे संप्रेषण को सुधारता है।
इस प्रकार बच्चे अपने क्रियाकलापों को संयोजित करते हुए भी अपना भाषा में सुधार
करते हैं और सीखते हैं।
प्रश्न 15. भाषा अर्जन एवं भाषा सीखने में क्या अंतर है ? उदाहरण सहित स्पष्ट
करें। दोनों में शिक्षार्थियों के लिए कौन-सी भाषा अर्जन और कौन-सी सीखना और
क्यों?
उत्तर―जो भाषाएँ हमारे परिवेश में शामिल रहती है, उन्हें हम अपने आप ग्रहण या
अर्जित कर लेते हैं और जब भाषाएँ हमारे परिवेश का हिस्सा नहीं होती है, उन्हें हम विभिन्न
माध्यमों से सीखते हैं। जैसे कि हमारे यहाँ कि साधारण बोलचाल की भाषा भोजपुरी या हिन्दी
है, जिन्हें हम आसानी से अपनी परिवार, मित्र, आस-पड़ोस से ग्रहण कर लेते हैं, जबकि
कन्नड़, मलयालम, English आदि हमारे परिवेश से बाहर की भाषाएँ हैं। अत: हमें इन भाषाओं
को सीखना पड़ता है।
वास्तव में भाषा अर्जित करना और भाषा सीखना हमारे भाषा परिवेश पर निर्भर करता
है। हमारा राज्य बिहार भाषा की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध राज्य है। यहाँ अनेक भाषाएँ बोली
और समझी जाती है―भोजपुरी, अंगिका, वज्जिका, मैथिली, मगही, हिन्दी, उर्दू आदि। बिहार
का प्रत्येक बच्चा कम से कम दो-तीन भाषाओं पर तो अवश्य ही अधिकार रखता है, क्योंकि
उसके आस-पास अनेक भाषाओं का व्यवहार रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है।
भाषा अर्जन को सुगम स्थिति तब होती है, जब हमें किसी भाषा का समृद्ध परिवेश मिलता
है यानी वह भाषा हमारे आस-पास लगातार इस्तेमाल होती है। उदाहरण के तौर पर एक बच्चा
बिहार के भोजपुर जिले में रहता है। परिवेश के अनुसार वह भोजपुरी और हिन्दी को बखूबी
बोलता और समझता है। वहीं बच्चा कुछ दिनों के लिए किसी दूसरे राज्यों में जाता है, जहाँ
यहाँ की भाषा उपयोग नहीं होता है तो वहाँ वह असमंजस की स्थिति में होता है। उसे वहाँ
की बातें नहीं समझ आती और न ही वह वहाँ के किसी भी व्यक्ति को अपनी बात समझा
पाता है। लेकिन कुछ समय बिताने के बाद वह कुछ जानकार बन जाता है (इस स्थिति को
हम भाषा को सीखना कह सकते हैं) और स्वाभाविक है कि अधिक दिनों तक वहाँ रहने
पर वह वहाँ की भाषा को पूर्ण सीख लें। इस प्रकार भाषा सामाजिक वस्तु भी है और समाज
के संपर्क में आने से उसमें निरन्तर पैनापन आता है, क्योंकि अंततः भाषा का प्रयोग भी समाज
में रहकर समाज के सदस्यों के साथ किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि:
(i) भाषा समाज में रहकर अर्जित की जाती है यानी भाषा का विकास समाज में होता है।
(ii) भाषा अर्जित करना सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है।
(iii) किसी भाषा विशेष को अर्जित के लिए उस भाषा के विभिन्न संदर्भगत प्रयोगों
को सुनना बेहद जरूरी है।
(iv) संदर्भगत भाषा-प्रयोगों के कारण बच्चा उस भाषा का व्याकरण भी अनायास अर्जित
करते जाते हैं।
(v) समाज में रहते-रहते हम भाषा की सपाट अभिव्यक्ति और उसके लाक्षणिक और
व्यंजक प्रयोगों को भी बखूबी समझते हैं।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) के अनुसार, जब हम घर की भाषा और मातृभाषा
की बात करते हैं तो इसके अंतर्गत घर की भाषा, बड़े कुनबे की भाषा, आस-पड़ोस की
भाषा आदि आ जाती है, जो बच्चा स्वाभाविक रूप से अपने घर और समाज के वातावरण
से ग्रहण कर लेता है।
प्रश्न 16. ‘भाषा माध्यम के रूप में तथा विषय के रूप में इस कथन की व्याख्या
कीजिए।
उत्तर―भाषा माध्यम के रूप में, बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2008 के अनुसार,
“स्कूली शिक्षा के संदर्भ में भाषा पाठ्यचर्या का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग है। संवाद और संप्रेषण
के अनिवार्य प्राथमिक कार्यों के अतिरिक्त शिक्षण के संपूर्ण क्रियाकलापों में भाषा ही माध्यम
बनती है तथा अवधारणाओं के निर्माण एवं ज्ञान के मजन में बुनियादी भूमिका निभाती है।
हम अपने विचारों और भावों को भाषा में न केवल अभिव्यक्त करते हैं बल्कि सोचने, महसूस
करने और स्मृतियों में सहेजन भी भाषा के द्वारा ही संभव हो पाता है। विचारपूर्वक
देखें तो एक हद तक निजी और संपूर्ण रूप में सभी सामाजिक गतिविधियों का संचालन भाषा
की ही सहायता से संभव हो पाता है।…यदि किसी भाषा का प्रयोग पूरी पाठ्यचर्या में होता
है और इस कारण उसकी पढाई सारे विषयों के साथ होती है, तब भी अनुदेश की भाषा
के मुद्दे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। संविधान में उल्लिखित सिद्धांत के लिहाज
से मातृभाषा अथवा गृहभाषा को प्राथमिक स्तर तक अनुदेश की भाषा होना चाहिए।”
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) के अनुसार,”भाषा शिक्षण केवल भाषा की कक्षा
तक सीमित नहीं होता। विज्ञान, सामाजिक विज्ञान या गणित की कक्षाएँ भी एक तरह से भाषा
की ही कक्षा होती है। किसी विषय को सीखने का मतलब है, उसकी अवधारणाओं को सीखना,
उसकी शब्दावली को सीखना, उनके बारे में आलोचनात्मक ढंग से चर्चा करना और उनके
बारे में लिख सकना। कुछ विषयों को लेकर विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया जाए कि वे
अलग-अलग पुस्तकों का अध्ययन करें या उन भाषाओं में लोगों से बातचीत करें, इंटरनेट
से अंग्रेजी में सामग्री एकत्रित करें। भाषा को लेकर पाठ्यचर्या में ऐसी नीति अपनाने से स्कूल
में बहुभाषिकता को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही, भाषा की शिक्षा कुछ अनूठ अवसर उपलब्ध
कराती है।…प्राथमिक शिक्षा की दृष्टि से संपूर्ण पाठ्यचर्या के अंतर्गत भाषा शिक्षण का विशेष
महत्व है और बाद में सभी शिक्षण एक अर्थ में भाषा शिक्षण ही होता है। यह दृष्टिकोण
‘विषय के रूप में अंग्रेजी’ और माध्यम के रूप में अंग्रेजी की दूरी को पाट सकेगा। इस
तरह से हम समान स्कूल पद्धति की दिशा में प्रगति कर सकते हैं, जिसमें भाषा शिक्षण और
शिक्षण के माध्यम के रूप में भाषा के उपयोग में भेद न हो।
इन दोनों उद्धरणों में मुख्य बात यह उभरकर आती है कि विभिन्न विषयों का अध्ययन
करते समय भी हम एक प्रकार से भाषा ही सीख रहे होते हैं। हम जानते हैं कि विभिन्न
विषयों की प्रकृति और अवधारणाएँ भिन्न होती हैं, अतः उन अवधारणाओं को संप्रेषित करने
वाले शब्द या वे शब्द जो अवधारणाओं के साथ संयोजित होते हैं और जिन्हें ‘प्रयुक्ति’ कहते
हैं–भिन्न होते हैं। उदाहरण के लिए, विज्ञान विषय में ‘वायुमंडल, स्थलमंडल, जलमंडल,
जलवाष्प, मृदा, प्रकाश संश्लेषण, पादप, बल, स्त्रीकेसर, पुंकेसर, परागकण, दहन, श्वसन,
विकिरण, जीवाश्म ईंधन, अवशोषित, विलयन आदि शब्द एक विशिष्ट अवधारणा से संबद्ध
हैं। इसी प्रकार गणित विषय में त्रिभुज, आयतन, लंब, समीकरण, दंड आरेख’ आदि अवधारणाएँ
एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होती है। जब बच्चे इन विषयों को पढ़ते हैं तो ये सभी शब्द
बच्चों के शब्द भंडार का हिस्सा भी बनते हैं और बच्चे यह समझ विकसित करते हैं कि
शब्द भिन्न संदर्भो में भिन्न अर्थ संप्रेषित करते हैं। उदाहरण के लिए, गणित में प्रयुक्त होने
वाला ‘भिन्न’ शब्द किसी एक वस्तु के कितने हिस्से हैं-की अवधारणा से जुड़ा है। (1/2
एक भिन्न संख्या है जिसका अर्थ है–एक वस्तु के दो हिस्से) जबकि हिन्दी भाषा में प्रयुक्त
‘भिन्न’ शब्द अलग, अंतर होने के भाव को दर्शाता है। (कक्षा के सभी बच्चे भिन्न-भिन्न
पृष्ठभूमि से आते हैं।/श्यामा के रिबन का रंग सलमा के रिबन से भिन्न था।) इसी प्रकार
‘मिट्टी, मृदा/भूमि, जमीन, धरती का अर्थ एक ही है लेकिन वे शब्द अलग-अलग संदर्भों
में अलग रूप में इस्तेमाल होते हैं।
इतना ही नहीं विषयों को अध्ययन सामग्री पढ़ते समय बच्चे अनायास रूप से विभिन्न
प्रकार की वाक्य संरचनाओं से भी परिचित होते चलते हैं। अगर आप इतिहास विषय की
पाठ्य-पुस्तकों की भाषा पर गौर करे तो कह सकते हैं कि उनमें प्रयुक्त वाक्य संरचनाएँ प्रायः
भूतकाल से संबद्ध होती हैं, जैसे-15 अगस्त, 1947 को हिन्दुस्तान आजाद हुआ था।
देश को आजाद कराने में अनेक व्यक्तियों ने अपनी कुर्बानी दी थी।
जब विषय के अध्ययन का माध्यम बच्चों की मातृभाषा या ऐसी भाषा जिसमें बच्चे चिन्तन
करते हैं तो अवधारणाओं का बनना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है, जैसे–बिहार की स्थानीय भाषाओं
में गणित की ‘त्रिभुज’ और ‘चतुर्भुज’ की अवधारणाओं के लिए क्रमश: ‘तिनकोनिया’ और
चौखूंटा’ अधिक सहज एवं प्रचलित है। इसी तरह विज्ञान में ‘पृथक्करण’ (हवा के द्वारा) के
लिए ‘ओसाई’ एवं ‘स्त्रीकेसर’, ‘पुंकेसर’ के लिए क्रमश: ‘जायांग’, ‘पुमंग’ अधिक सहज है।
स्पष्ट है कि बच्चों के सोचने-समझने का माध्यम भी भाषा ही होती है और अनुभवों
के आधार पर वे ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में जो अवधारणाएँ बनाते हैं, उसमें भाषा की महती
भूमिका होती है।
भाषा विषय के रूप में, एक विषय के रूप में प्राय: तीन भाषाओं के अध्ययन का प्रावधान
हमारे विद्यालयों में है। ये भाषाएँ हो सकती हैं-मैथिली, भोजपुरी, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांगला
आदि। विद्यालयों में एक विषय के रूप में एक से अधिक भाषाएँ प्रायः प्रथम भाषा, द्वितीय
भाषा और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती हैं। जिसका सीधा-सा अर्थ यह है कि बच्चों
में इन भाषाओं के प्रयोग को कुशलता विकसित करना। विभिन्न स्थितियों में भाषा का प्रयोग
करने की कुशलता या क्षमता उन्हें जीवन की अनेक आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद
करती है। वे अपने जीवन में भाषा का अनेक प्रकार से प्रयोग करते हैं, जैसे-अपनी इच्छा को
प्रकट करना, किसी की राय लेना, अपना तर्क प्रस्तुत करना, किसी घटना के होने की संभावना
को व्यक्त करना, संदेह करना, कल्पना करना, अतीत की घटनाओं को प्रस्तुत करना, किसी
को समझाना आदि। भाषा की पाठ्य-पुस्तक में दिए गए पाठ बच्चों को यह अवसर देते हैं कि
वे भाषा-प्रयोग की कुशलता विकसित कर सकें।
हिन्दी के पाठ्यपुस्तक में प्रस्तुत अभ्यासों के माध्यम से बच्चों को अपनी बात कहने
का भरपूर अवसर दिया जाता है। ये अवसर दो तरीके से हैं-पहला, पाठ विशेष के सदंर्भ
में, दूसरा उसी पाठ के विषय-वस्तु से संबंधित। ऐसे इसलिए कि बच्चे निजी अनुभवों को
जोड़ते हुए बातचीत करने के विभिन्न संदर्भ प्रस्तुत कर सके। यह कोशिश की जाती है कि
बच्चे पढ़े गए पाठ को अपने निजी अनुभवों के साथ जोड़कर देख सकें और अपने अनुभवों
के आधार पर अपने भावों और विचारों को दूसरों के समक्ष आत्मविश्वास के साथ अभिव्यक्त
कर सके। भाषा की कक्षा में संवाद के अवसर से बच्चों को भाषा-विशेष की विभिन्न छटाओं
और बारीकियों से परिचित होने का अवसर भी मिलता है। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उनकी
भाषायी क्षमता में विकास होगा। एक विषय के रूप में भाषा शिक्षण का अर्थ है-भाषा के
मौखिक और लिखित प्रयोग की कुशलता में वृद्धि करना।
भाषा शिक्षण के माध्यम से वे भाषा के विभिन्न पक्षों के साथ-साथ विषयगत अवधारणाओं
को भी समझते हैं और माध्यम के रूप में बच्चे ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों की अवधारणाओं के
साथ-साथ शब्दावली, संरचनाएँ समझते हैं और यही समझ विभिन्न क्षेत्रों में सही शब्दावली
और भाषायी संरचनाओं के उचित और प्रभावी संप्रेक्षण में काम आती है।
प्रश्न 17. बच्चों में भाषा कौशलों (सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना) का विकास
करने के लिए कोई पाँच-पाँच अभ्यास बनाइए।
उत्तर―भाषा को विभिन्न पाठ्य-पुस्तकों में दिए गए अभ्यास विभिन्न भाषा कौशलों का
विकास करने के अवसर देते हैं। ये कौशल हैं– सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। सुनने
का अर्थ महज शब्दों को सुनना नहीं है बल्कि सुनी गई बात का विश्लेषण करना और उस
पर अपनी राय देना या प्रतिक्रिया देना है। सुनी गई बातों, कहानियों, कविताओं आदि को अपने
निजी जीवन से जोड़ पाना भी जरूरी है। यह जुड़ाव सुनने को सार्थकता देता है। बोलना कौशल
का अर्थ है विभिन्न संदों में विभिन्न विषयों, मुद्दों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना अपनी बात
अभिव्यक्त करना है। सुनी गई बातों को अपने शब्दों में व्यक्त करना भी बोलना कौशल का
एक महत्वपूर्ण पक्ष है। जब हम बोलते हैं तो उसमें अनेक मानसिक संक्रियाएँ शामिल होती
हैं। जैसे–विचारों को संजोना, तर्क ढूँढ़ना, विचारों की क्रमबद्धता, शब्दों और वाक्यों का चयन
इत्यादि। शुरुआती कक्षाओं में बोलने या उच्चारण की शुद्धता से अधिक महत्वपूर्ण है–
अभिव्यक्ति अभिव्यक्ति की इच्छा, अभिव्यक्त करने का आत्म-विश्वास। यदि हम बच्चों को
उनके अशुद्ध उच्चारण के लिए टोकते रहेंगे तो वे संभवत: बोलना ही छोड़ देंगे या चुप हो
जाएँगे। पढ़ने का सम्बन्ध समझने से है। लिखी या छपी सामग्री को पढ़कर अपने लिए उसका
अर्थ सुनिश्चित करना पढ़ने की अनिवार्य शर्त है। लिखना कौशल में भी अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण
है। यदि शुरुआती कक्षाओं में बच्चों के लेखन में हम वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों की तरफ ही
संकेत करते रहें तो संभव है कि बच्चों में लेखन के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाएँ। लिखना
और बोलना में एक पक्ष समान है और वह है-अभिव्यक्ति। लेकिन, बोलना में हम अभिव्यक्ति
के लिए भाषिक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं और लिखने में उन ध्वनियों के प्रतीक चिह्नों या
लिपि का। इस प्रकार, लेखन में भी वे सभी मानसिक क्रियाएँ शामिल हैं जो बोलने में शामिल
होती है। बोलने में हम अनुतान यानी उतार-चढ़ाव, बल विराम, आदि के माध्यम से कहने
को पुष्ट करते हैं वही लेखन में यह काम विभिन्न विराम चिह्नों के माध्यम से किया जाता
है। वर्तनी का ध्यान रखना केवल इसी रूप में जरूरी है कि उसकी जगह से कहीं अर्थ न
बदल जाएँ या अर्थ की संगति न बैठ पाएँ, जैसे—मेला देखने चलोगे?/मेला देखे चलोगे ?
एक ओर जरूरी बात! वह यह कि सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना एक क्रम से नहीं बल्कि
एक साथ सीख जाते हैं। जब हम बोलते है तो सुनते भी हैं और संवाद में बोलना और सुनना
साथ-साथ चलता है। इस प्रकार, पढ़ना-लिखना भी साथ-साथ घटित होता है। चारों कौशल
अन्तः सम्बन्धित है। एक कौशल का विकास दूसरे कौशल के विकास को प्रभावित करता है।
‘पढ़ना’ कौशल के विकास के लिए अभ्यास :
1. विद्यालय से घर आने-जाने के क्रम में दुकानों, साईनबोडों पर लिखे प्रचार, पेपर
में छपे विज्ञापन को देखकर पढ़े गए बिन्दुओं को जानेंगे।
2. समाचार-पत्र में छपे मुख्य समाचारों को रोज पढ़े और प्रार्थना सभा में बताएँ।
3. कक्षा में ‘रीडिंग कॉर्नर’ स्थापित किया जाएँ और बाल साहित्य से सम्बन्धित विभिन्न
पत्रिकाओं की व्यवस्था की जाएँ। बाल-साहित्य का उपयोग बच्चों को कहानी सुनाने
के लिए भी किया जा सकता है तथा बच्चों को किताब उलटने-पलटने, देखने, निहारने,
चित्रों के आध पर लिखी हुई सामग्री के बारे में अनुमान लगाने अथवा स्वयं पढ़ने
के अवसर देते रहना चाहिए।
4. कक्षा में लगे बुलेटिन बोर्ड की सामग्री भी पढ़ने की सामग्री बन सकती है। विभिन्न
कहानी-कविताओं के पोस्टर, बच्चों द्वारा बनाई गई कहानियाँ, चित्र आदि भी रोचक
पइन सामग्री के रूप में इस्तेमाल की जा सकती है।
5. कक्षा में प्रिंट समृद्ध, वातावरण बनाया जाए और इसका इस्तेमाल पढ़ने के विभिन्न
अवसर देने के लिए किया जाए।
लेखन कौशल विकास के लिए अभ्यास :
1. बच्चों को उन चीजों के बारे में लिखने के लिए कहें जो वे अपने घर में देखते हैं।
2. बच्चों को अपने विद्यालय की वे चीजें बनाने के लिए कहें जो उन्हें बेहद पसंद है।
3. बच्चे को अपने मन की वह बात लिखने के लिए कहें जो वे अपने दोस्त
से कहना चाहते हैं।
4. रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी घटनाओं को अपने-अपने शब्दों में लिखने के लिए बच्चों
को दिया जाएँ।
5. डायरी लेखन, कहानी लेखन घटनाक्रम के लेखन को बारी-बारी से लिखने को का
जाये।
सुनने के कौशल विकास के लिए अभ्यास :
1. प्रतिदिन के समाचार को सुनने का काम दिया जाएँ।
2. किसी वक्ता के वक्तव्य को सुनकर बताने का काम दिया जाएँ।
3. प्रतिदिन दादी-नानी से कहानी सुनने का काम दिया जाए।
4. दूरदर्शन/आकाशवाणी के किसी साक्षात्कार, वार्तालाप को सुनने के लिए प्रेरित किया
जाए।
5. किसी सत्संग या बड़ों की बातों को सुनने का अभ्यास।
बोलने के कौशल विकास के लिए अभ्यास :
1. प्रतिदिन के समाचार को सुनकर प्रार्थना सभा में बोलने का काम दिया जाये।
2. वर्गकक्ष में किसी कहानी को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करें।
3. आँखों देखी किसी घटना का वर्णन कराना।
4. शिक्षक दिवस, मजदूर दिवस, स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि अवसरों पर
विद्यार्थियों को बोलने का अवसर देना।
5. किसी फिल्म या टेलीविजन धारावाहिक के बारे में विभिन्न अवसरों पर बोलने का
अवसर दिया जाए।
प्रश्न 18. भाषा अर्जित करना और भाषा सीखना से आप क्या समझते हैं?
वर्णन कीजिए।
उत्तर― जो भाषाएँ हमारे परिवेश में शामिल रहती है, उन्हें हम अपने आप ग्रहण या अर्जित
कर लेते हैं और जो भाषाएँ हमारे परिवेश का हिस्सा नहीं होती है, उन्हें हम विभिन्न माध्यमों
से सीखते हैं। जैसे कि हमारे यहाँ कि साधारण बोलचाल की भाषा भोजपुरी या हिन्दी है, जिन्हें
हम आसानी से अपनी परिवार, मित्र, आस-पड़ोस से ग्रहण कर लेते हैं, जबकि कन्नड़, मलयालम,
English आदि हमारे परिवेश से बाहर की भाषाएँ हैं। अतः हमें इन भाषाओं को सीखना पड़ता है।
वास्तव में भाषा अर्जित करना और भाषा सीखना हमारे भाषा-परिवेश पर निर्भर करता
है। हमारा राज्य बिहार भाषा की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध राज्य है। यहाँ अनेक भाषाएँ बोली
और समझी जाती है—भोजपुरी, अंगिमा, वज्जिका, मैथिली, मगही, हिन्दी, उर्दू आदि। बिहार
का प्रत्येक बच्चा कम से कम दो-तीन भाषाओं पर तो अवश्य ही अधिकार रखता है, क्योंकि
उसके आस-पास अनेक भाषाओं का व्यवहार रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है।
भाषा अर्जन की सुगम स्थिति तब होती है, जब हमें किसी भाषा का समृद्ध परिवेश मिलता
है यानी वह भाषा हमारे आस-पास लगातार इस्तेमाल होती है। उदाहरण के तौर पर एक बच्चा
बिहार के भोजपुर जिले में रहता है। परिवेश के अनुसार वह भोजपुरी और हिन्दी को बखूबी
बोलता और समझता है। वहीं बच्चा कुछ दिनों के लिए किसी दूसरे राज्यों में जाता है, जहाँ
यहाँ की भाषा उपयोग नहीं होता है तो वहाँ वह असमंजस की स्थिति में होता है। उसे वहाँ
की बातें नहीं समझ आती और न ही वह वहाँ के किसी भी व्यक्ति को अपनी बात समझा
पाता है। लेकिन कुछ समय बिताने के बाद वह कुछ जानकार बन जाता है (इस स्थिति को
हम भाषा को सीखना कह सकते हैं) और स्वाभाविक है कि अधिक दिनों तक वहाँ रहने
पर वह वहाँ की भाषा को पूर्ण सीख लें। इस प्रकार भाषा सामाजिक वस्तु भी है और समाज
के संपर्क में आने से उसमें निरन्तर पैनापन आता है, क्योंकि अंततः भाषा का प्रयोग भी समाज
में रहकर समाज के सदस्यों के साथ किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि :
(i) भाषा समाज में रहकर अर्जित की जाती है यानि भाषा का विकास समाज में होता है।
(ii) भाषा अर्जित करना सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है।
(iii) किसी भाषा विशेष को अर्जित करने के लिए उस भाषा के विभिन्न संदर्भगत प्रयोगों
को सुनना बेहद जरूरी है।
(iv) संदर्भगत भाषा-प्रयोगों के कारण बच्चा उस भाषा का व्याकरण भी अनायास अर्जित
करते जाते हैं।
(v) समाज में रहते-रहते हम भाषा की सपाट अभिव्यक्ति और उसके लाक्षणिक और
व्यंजक प्रयोगों को भी बखूबी समझते हैं।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) के अनुसार, जब हम घर की भाषा और मातृभाषा
की बात करते हैं तो इसके अंतर्गत घर की भाषा, बड़े कुनबे की भाषा, आस-पड़ोस की
भाषा आदि आ जाती है, जो बच्चा स्वाभाविक रूप से अपने घर और समाज के वातावरण
से ग्रहण कर लेता है।
भाषा सीखना―भाषा सीखना अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है। भाषा का प्रवेश
जितना सरल नजर आता है, दरअसल उतना है नहीं। भाषा में कुदरती रूप से निदशित सीखना
शामिल होता रहे। इस तरह के सीखने में जन्तु सहजवृत्ति से जानता है कि उसे किस बात
पर ध्यान देना है, मगर बारीकियाँ सीखने में समय लगाना होता है। लेनबर्ग का मानना है कि
एक तयशुदा निर्णायक अवधि होती है, जिसके दौरान भाषा अर्जन संभव है। उन्होंने दावा किया था कि यह (अवधि) करीब दो वर्ष की उम्र में शुरू होती है और किशोरावस्था में समाप्त
हो जाती है। उनके अनुसार किशोरावस्था के बाद ‘भाषा अर्जन नामुमकिन है। लेकिन उनका
यह कथन दो लिहाज से गलत था। पहला कि बच्चे दो वर्ष की उम्र से बड़ी मात्रा में भाषा
अर्जित करते हैं। दो वर्ष से कम उम्र में बाएँ गोलार्द्ध में गंभीर क्षति होने पर भाषा संबंधी
स्थायी क्षति हो जाती है। दूसरा, पाश्वीकरण (यानी भाषा का विशेषीकरण बाएँ गोलार्द्ध में
होना) बहुत कम उम्र के शिशुओं में देखा गया है।
अर्थात् यदि उनके सामने भाषा की ध्वनियाँ बजाई जाएँ तो वे बाएँ गोलार्द्ध से ध्यान
देती है। यह बात काफी विस्तृत प्रयोगों से पता चली है और यह भी काफी महत्वपूर्ण है
कि नवजात शिशु भी खुद अपनी भाषा पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जिससे पता चलता है कि
वे कोख में ही इसकी लय के प्रति अनुकूलित हो चुके होते हैं। लेनवर्ग की सोच के विपरीत,
किशोरावस्था किसी विन्दु पर एकाएक शुरू नहीं होती। भाषा अर्जन 13 वर्ष की उम्र के बाद
भी चलता रह सकता है। अधिक उम्र के कुछ लोग भी भाषा सीखने में बढ़िया होते हैं। एक
और महत्वपूर्ण बात है कि शब्द भंडार का निर्माण तो ताजिन्दगी चलता रहता है। लोग अपना
शब्द भंडार (यदि संभव हुआ हो तो) 100 वर्ष की उम्र तक बढ़ा सकते हैं और यह भी
काफी महत्वपूर्ण है कि शब्द भंडार का निर्माण करीब 13 वर्ष की उम्र में शिखर पर होता
है। शोधकर्ता आजकल सरहदी अवधि की बजाए संवेदी अवधि की बात करते हैं, वह समय
जिसमें बच्चों का संपर्क भाषा से कराया जाना चाहिए, मगर यह अवधि लेनबर्ग ने जो सोचा
था उससे काफी पहले शुरू हो जाती है और देर तक जारी रहती है।
प्रश्न 19. संविधान की आठवीं अनुसूची का प्रावधान क्यों किया गया है ? इसमें
कितनी भाषाओं को शामिल किया गया है ?
उत्तर―भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले व्यक्ति रहते है। उन
भाषाओं में स्वयं के भीतर भी विविधता है। सच तो यह है कि हिंदी का भी कोई एक रूप
नहीं है। वह बहुरूपी है। हिंदी की पहचान संपर्क भाषा, राजभाषा, प्रयोजनमूलक भाषा, शिक्षायी
हिन्दी, अंतर्राष्ट्रीय भाषा, ज्ञान की भाषा, वाणिज्य-व्यवस्था की भाषा आदि के रूप में कर सकते
हैं, यहाँ का संविधान इस बात के लिए खास तौर पर सचेत रहा है कि भाषाओं के नाम पर
घमासान न मचे। भारतीय संविधान ने इस बात को सुनिश्चित किया कि विभिन्न भाषाओं को
समुचित स्थान मिले। इस संदर्भ में आठवीं अनुसूची की व्यवस्था की गई।
संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई
है, जो इस प्रकार है―
1. हिन्दी 2. उर्दू 3. असमिया 4.बंगला
5. गुजराती 6. कन्नड़ 7. कश्मीरी 8. मलयालम
9. मराठी 10. उड़िया 11. पंजाबी 12. संस्कृत
13. सिन्धी 14. तमिल 15. तेलुगू 16.कोकणी
17. मणिपुरी 18. नेपाली 19. मैथिली 20. संथाली
21. डोगरी 22. बोडो
मूल संविधान में 14 भारतीय भाषाओं को राजभाषा के रूप में चिह्नित किया गया था।
संविधान के 24वे संशोधन, 1967 ई. द्वारा सिन्धी को,77वें संशोधन 1992 ई. द्वारा मणिपुरी,
कोंकणी एवं नेपाली को तथा 92वाँ संशोधन 2003 के द्वारा मैथिली, संथाली, डोगरी एवं बोडो
भाषाओ को आठवीं अनुसूची में जोड़ा गया जिससे भाषाओं की कुल संख्या 22 हो गई है।
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