F-6 शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य
F-6 शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य
F―6 शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. समावेशी शिक्षा के संदर्भ में सर्वशिक्षा आभियान की भूमिका पर प्रकाश डालें।
उत्तर―समावेशी शिक्षा के सन्दर्भ में सर्वशिक्षा अभियान की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
है। यह अभियान एक ऐसा ऐतिहासिक प्रयास है जिसका उद्देश्य राज्यों की भागेदारी से समयबद्ध
समेकित प्रयास द्वारा प्राथमिक शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त
करना है। इस अभियान से देश भर में गुणात्मक प्राथमिक शिक्षा की माँग को पूरा करने का
समेकित प्रयास है। यह आधारभूत शिक्षा के माध्यम से समानता व सामाजिक न्याय के लक्ष्य
को प्राप्त करने का एक सफल प्रयास है। यह देश भर में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा देने
को राजनैतिक इच्छा की अभिव्यक्ति है। यह अभियान केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारों के
बीच भागीदारी है। सर्वशिक्षा अभियान केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारों के बीच भागीदारी
है। सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत उन बालकों को जो मानसिक रूप से मंद एवं अल्पबुद्धि
के हैं उनको समावेशी स्कूल में सहज एवं सजग होकर थोड़ा अधिक प्रयत्न करके पढ़ाया
अर्थात् शिक्षित किया जा सकता है।
प्रश्न 2. पूर्ण समावेश प्रतिमान पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर–पूर्ण समावेशन प्रतिमान–समावेशी शिक्षा का यह प्रतिमान बच्चों को कक्षा में
अनुदेशन तथा सहयोग प्रदान करने से सम्बन्धित है । इस हेतु एक विशिष्ट अध्यापक की व्यवस्था की गई है। यह विशिष्ट अध्यापक अपनी विधि एवं सहायक सामग्री के साथ कक्षा-कक्ष
में प्रवेश करता है। उक्त अध्यापक बच्चों को सामाजिक अध्ययन की कक्षा में, सामाजिक
अध्ययन पढ़ता है तथा हिन्दी की कक्षा में हिन्दी सीखने में मदद करता है। कहने का भाव
यह है कि यह विशिष्ट अध्यापक बच्चे की विषयवार सीखाने में सहायता करता है, वह न
केवल बच्चों का वरन् समावेशन में शामिल सामान्य अध्यापकों को भी सहयोग करता है।
हालाँकि यह विशिष्ट अध्यापक अनुदेशन के सामान्य अध्यापकों की मदद करता है फिर बच्चे
की पूरी जिम्मेदारी अध्यापक की होती है। ऐसा सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि एक बाधित
बालक का पूरा-पूरा रिकॉर्ड सामान्य अध्यापक के पास ही होती है। उसके पास इस बात
की पूरी-पूरी सूचना होती है कि बच्चा एक नियमित अन्तराल पर किस हद तक उन्नति एवं
प्रगति कर रहा है। इस विशिष्ट अध्यापक के साथ मिलकर सामान्य अध्यापक कुछ नवीन
नीतियाँ निर्धारित करता है तथा पुरानी नीतियों में परिवर्तन कर सकता है। इस प्रतिमान के
अन्तर्गत बालक को प्रत्यक्ष अनुदेशन के साथ-साथ स्वतन्त्र रूप से पढ़ने का अवसर भी प्रदान
किया जाता है।
प्रश्न 3. समावेशी-चक्र प्रतिमान पर प्रकाश डालें।
उत्तर―समावेशी-चक्र प्रतिमान–समावेशी शिक्षा का यह एक अति महत्त्वूपर्ण प्रतिमान
है। जिसमें बच्चे के व्यक्तिपरक ज्ञान की ओर ध्यान दिया जाता है। यह प्रतिमान अत्यधिक
व्यक्तिपरक है। समावेशी शिक्षा के इस प्रतिमान को बहुत छोटे बच्चों (आठ वर्ष की आयु
तक) हेतु प्रयोग में लाया जाता है । लेकिन इसमें ऐसे विकल्प हैं जिसमें बच्चों को अवस्थान
हो सकता है। इस प्रतिमान को अनेक परिस्थितियों में प्रयोग में लाया जा सकता है। इस
प्रतिमान का मुख्य आधार शिक्षकों, अभिभावकों तथा शिक्षा से सम्बन्धित अन्य व्यक्तियों को
सहभागिता हैं, किन्तु तकनीक कक्षा, परिस्थितियों’ के अनुरूप परिवर्तित हो सकती है। इस
प्रतिमान में बच्चों के सामाजिक, भावनात्मक एवं पारस्परिक सम्बन्धों के कौशलों पर
अधिकाधिक बल दिया जाता है । यह प्रतिमान इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि सभी
बालकों द्वारा समावेश का पूरा-पूरा लाभ उठाया जाए । इस प्रतिमान का मुख्य ध्येय सामाजिक
उत्थान है। इसमें बालकों को साथ-साथ काम करने के लिए प्रेरित किया जाता है, ताकि
बच्चों की अपनी प्रतिभाओं एवं योग्यताओं को पहचानने और उन्हें विकसित करने के अवसर
प्राप्त हो सकें। इस प्रतिमान का मुख्य आधार गतिशील सहभागिता है। इस प्रतिमान के
तहत बच्चे तभी अधिगम कर पाते हैं, जब तक आत्म-निर्देशित हो, अधिगम एवं क्रिया करने
सम्बन्धी, उन्हें निर्देश प्रदान किए जाए, तथा उन्हें अपने शिक्षकों का चुनाव करने का अवसर
प्रदान किया जाए।
प्रश्न 4. अपंग बच्चों की पहचान आप कैसे करेंगे?
उत्तर–पहचान―अपंग बच्चों की पहचान अन्य असमर्थियों की अपेक्षा आसान होती
है। श्रवण बाधितों और दृष्टि बाधितों की पहचान अपेक्षाकृत कठिन होती है। अपंग बच्चों
में भी कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जिनकी समस्या साधारण होती है और उन्हें हम अनदेखा भी
कर देते है।।
अपंग बच्चों की पहचान के लिए हम निम्नलिखित चेक लिस्ट का प्रयोग कर सकते
है―
(i) ऐसे बच्चों का गति नियंत्रण और समन्वय बहुत ही निम्न स्तर का होता है।
(ii) ये बच्चे बार-बार गिरते है।।
(iii) ये बच्चे शारीरिक अभ्यास के दौरान दर्द के चिह्न प्रदर्शित करते हैं।
(iv) ये अजीब ढंग से या एक ही अंग से चलते हैं।
प्रश्न 5. मन्द बुद्धि या मानसिक रूप से पिछड़े बालक किसे कहते हैं ?
उत्तर―कुछ बालक मानसिक रूप से उप-सामान्य होते हैं। ऐसे उप-सामान्य बालक
कक्षा में अध्यापक शिक्षा कार्य को समझने में असमर्थ होते हैं, या आसानी से सक्षम नहीं
हो पाते। ऐसे बालकों को मन्द-बुद्धि बच्चों की श्रेणी में रखा जाता है। यह एक वैज्ञानिक
तथ्य है कि ऐसे बालकों की और विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
बालकों को उनके बुद्धिलब्धि के आधार पर ही वर्गीकृत किया जाता है। टरमन के
अनुसार 70 से कम बुद्धिलब्धि वाले बालक ‘मन्द-बुद्धि का प्रदर्शन करते हैं और अपनी आयु
के स्तर के अनुसार किसी कार्य को करने में असमर्थ होते हैं। इस दोष का परिणाम यह
होता है कि उनमें कई प्रकार हनन्थयाँ पैदा हो जाती हैं। मन्द-बुद्धि बालक हर ओर
से उपेक्षित रहते हैं।
मानसिक रूप से पिछड़े ऐसे बालक संवेगात्मक स्थिरता, सामाजिक परिपक्वता तथा
बौद्धिक प्रवीणता में भी पिछड़े रहते हैं। कई बार ऐसे बच्चे शारीरिक रूप से तो परिपक्व
हो जाते हैं लेकिन उनका सामाजिक संवेगात्मक व्यवहार उनकी आयु के बच्चों से बहुत पिछड़ा
हुआ होता है।
आईजेंक के अनुसार, ‘मानसिक क्षमताओं की अपूर्ण एवं अपर्याप्त सामान्य विकास’
ही मानसिक मन्द-बुद्धिता कहलाता है।’
पेज के अनुसार, ‘मानसिक मन्द-बुद्धिता मानसिक विकास की उप-सामान्य स्थिति
जो बच्चे में जन्म के समय विद्यमान होती है या प्रारंभिक बाल्यकाल में पैदा हो जाती है।
इसकी मुख्य विशेषता है सीमित बौद्धिक और सामाजिक अपर्याप्तता ।’
हेक के अनुसार, ‘मन्द-बुद्धि बालक वे हैं जो किसी कार्य को करने में इसलिए असमर्थ
होते हैं क्योंकि उनमें मानसिक परिपक्वता की कमी होती है।
प्रश्न 6. विशिष्ट बच्चों का सामान्य स्कूलों में समावेशन आज की पुकार है। स्पष्ट
करें।
उत्तर–सामान्य स्कूलों में विशिष्ट यच्चों का समावेश आज के समय की पुकार है।
विशिष्ट बच्चे भारत के सभी क्षेत्रों में भारी संख्या में देखने को मिलते है। समावेश की नीति
को अपनाएँ बिना हम 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से शिक्षित करने के
अभियान को सफल नहीं बना सकते। बिना किसी भेदभाव के सब बच्चों के लिए राजकीय
और माध्यम बनाकर एक विस्तृत शिक्षा नीति के अन्तर्गत शिक्षा प्रदान की जाए । उन विशेष
स्कूलों को जिनमें कुछ विशेष प्रकार के क्षतियुक्त बच्चों की शिक्षा के लिए प्रावधान है अभी
चलने दिया जाए परन्तु, सरकार, कल्याणकारी संगठन तथा परोपकारी व्यक्ति ऐसे स्कूलों को
जो समावेश विचार धारा को सफल बनाने के लिए कार्यरत है, उपयुक्त सहायता देकर प्रेरित
करते रहना चाहिए। समावेशित शिक्षा के पर्यावरण में काम करने के लिए कक्षा अध्यापकों
विषय अध्यापकों तथा विद्यालय के अन्य व्यक्तियों को जिनका बच्चों को शिक्षित करने से
सम्बन्ध है, पूर्व सेवाकालीन तथा सेवाकालीन अध्यापक शिक्षा द्वारा आवश्यक ज्ञान, कौशल
और अनुकुल मनोवृत्ति से सुसज्जित किया जाए । क्षतिग्रस्त बच्चों की आवश्यकताओं को पुरा
करने के लिए, उन्हें निर्देशन एवं परामर्श देने के लिए, समावेशित पर्यावरण में कार्यरत अध्यापकों
तथा विद्यार्थियों के लिए वांछित सहायक सेवाएँ तथा विशेष शिक्षा के अध्यापक विशेषज्ञ,
विशेष कक्षा सामग्री, सहायक सामग्री, उपकरण और अनुकुल रूपान्तरित पर्यावरण उपलब्ध
होने चाहिए।
प्रश्न 7. बालिकाओं की शिक्षा के बारे में समाज की मानसिकता एवं पूर्वाग्रहों
पर संक्षिप्त चर्चा करें।
उत्तर–प्राचीन भारत में महिलाओं को पुरुषों के बरावर शैक्षिक सुविधाएँ उपलब्ध थीं,
उस युग में अनेक महिला विदूषियाँ इस बात का प्रमाण है। किन्तु कालान्तर में बाल विवाह,
पर्दा प्रथा आदि अनेक सामाजिक कुप्रथाओं के कारण महिला शिक्षा के मार्ग में अनेक बाधाएँ
आई और इस क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ पूर्ण रूप से पिछड़ गई । स्वतंत्रता प्राप्ति
के समय तक यद्यपि राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमती
ऐनीबेसेन्ट जैसे समाज सुधारकों ने इस क्षेत्र में सुधार हेतु काफी प्रयास किए, महात्मा गाँधी
ने भी महिला शिक्षा पर काफी जोर दिया। किन्तु उस समय तक महिला शिक्षा का प्रसार
बहुत ही कम था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सरकार ने इस ओर ध्यान दिया और इसमें
सुधार हेतु विभिन्न आयोगों का गठन किया जिन्होंने कई महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए । इन सुझावों
के आधार पर कार्य करने एवं महिला शिक्षा को प्रोत्साहित करने में स्वाधीनता के बाद महिला
शिक्षा में काफी प्रगति हुई। महिला शिक्षा का महत्त्व पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट करते
हुए कहा है कि, “एक लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा है किन्तु एक लड़की की
शिक्षा सम्पूर्ण परिवार की शिक्षा है।”
प्रश्न 8. क्या विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को विद्यालय में नामांकन करा लेना
समावेशीकरण है?
उत्तर―विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को केवल विद्यालय में नामांकन करा लेना ही
समावेशीकरण नहीं है क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि विशेष आवश्कयकता वाले बालक
को सामान्य विद्यालय में अलग बैठा दिया जाता है जिससे उनकी शिक्षा पूर्ण नहीं हो पाती
है। इसलिए इन विशेष आवश्यकता वाले बालकों को पूर्ण शिक्षा सही ढंग से देने के लिए
ही समावेशीकरण की प्रक्रिया अपनाई गई है। समावेशीकरण शिक्षा की ऐसी प्रक्रिया है जो
विशेष आवश्यकता वाले प्रत्येक बच्चों को उच्चतम सीमा तक विद्यालय और कक्षा में जहाँ
वह पढ़ना चाहे, उन्हें वैसी सुविधा उपलब्ध कराता है। समावेशीकरण का मुख्य उद्देश्य ही
विशेष आवश्यकता वाले बालकों का सर्वांगीण विकास करना है।
प्रश्न 9. पितृसतात्मक परिवार की विशेषताएँ लिखें।
उत्तर–पितृसत्तात्मक परिवार की विशेषताएँ―पितृसत्तात्मक परिवार को निम्नांकित
विशेषताओं को ओर संकेत किया जा सकता है―
(1) पिता परिवार की सम्पत्ति का पूर्ण स्वामी होता है।
(2) उत्तराधिकारी पिता द्वारा ही निश्चित किया जाता है। परिवार को सन्तान अपने पिता
के नाम से ही जानी जाती है।
(3) सन्तानें केवल अपने पिता की संपत्ति पर ही अधिकार रखती हैं। माता से संबद्ध
परिवार की सम्पत्ति पर उनका कोई अधिकार नहीं होता।
(4) पितृसत्तात्मक परिवार पितृस्थानीय भी होते हैं, अर्थात् वधू विवाह के पश्चात् अपने
पति के घर रहती है। भारत में अधिकांश परिवार पितृसत्तात्मक, पितृवंशीय एवं
पितृस्थानीय ही होते हैं।
(5) परिवार के सन्दर्भ में समस्त सामाजिक एवं पारिवारिक पद तथा उपाधियाँ पुत्र को
ही प्राप्त होती हैं। सामान्य रूप से पिता के उपरान्त बड़े पुत्र को ही सत्ता प्राप्त
होती है।
(6) पितृसत्तात्मक परिवार में सभी सन्तानों को पिता के वंश का नाम मिलता है, न कि
माता के वंश का अर्थात् ये परिवार पितृवंशीय होते हैं।
(7) पितृसत्तात्मक परिवार पितृस्थानीय भी होते हैं, अर्थात् सभी बच्चे अपने पिता के
स्थान पर रहते हैं।
प्रश्न 10. अशक्तता (विकलांगता) के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर―अशक्तता के प्रकार एवं उनके प्रभाव :
(i) चलन अशक्तता―बच्चों में हड्डी के जोड़ों और माँसपेशियों से संबंधित
समस्याएँ इस कोटि में आती है। इससे उनमें चलने-फिरने में कठिनाई आती है। सीखने
में कोई कठिनाई नहीं होती है पर उचित शिक्षण विधि के अभाव में वे संकोची हो जाते
है।
(ii) दृष्टि अशक्तता–कुछ बच्चे पूर्णतः दृष्टिहीन और कुछ अंशतः दृष्टिहीन बच्चे
पाए जाते हैं। पूर्णतः दृष्टिहीन बच्चों को बिल्कुल दिखाई नहीं देने के कारण उनके लिए
ब्रेल लिपि का उपयोग किया जाता है।
(iii) श्रवणक्षीणता―श्रवणक्षीणता वाले बच्चों में श्रवण इन्द्रियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती
है। उनके बोलने और भाषा विकास में कठिनाई आती है। कान से कम सुनाई पड़ता है।
(iv) मानसिक मंदता―मानसिक रूप से मंद बच्चा बुद्धि और व्यवहार दोनो में
औसत से कम होता है। वह बहुत धीरे सीखता है। मानसिक मंदता को हम दो वर्गों
में विभाजित करते हैं। अल्पमंदता शिक्षणीय) और मध्यम मंदता (प्रशिक्षणीय)
(v) अधिगम अशक्तता―इससे पीड़ित बच्चे पढ़ने, लिखने और गणित में बार-
बार गलती करते है, जैसे―’ब’ और ‘व’,’6′ और ‘9’ म अन्तर नहीं कर पाते। परन्तु
बुद्धि में ये औसत या अधिक ही होते है। मानसिक रूप से मंद भी नहीं होते। इनमें
प्रमस्तिष्कीय अप्रक्रिया, संवेगात्मक या व्यवहारात्मक विकास हो सकता है।
प्रश्न 11. लैंगिक संकल्पना क्या है? यौन एवं लिंग के आधार पर लैंगिक
विभेद को समझाए।
उत्तर―लिंग के आधार पर समाज दो वगा में बँटा हुआ है―महिला और पुरुष।
दोनों में असमानता स्वाभाविक है, परन्तु दोनों के बीच सामाजिक विभेद भी बने रहते
है। आधुनिक युग में महिला और पुरुष के बीच लिंग के आधार पर विभेद एक सामाजिक
समस्या बनी हुई है। सही बात तो यह है कि पुरुष तथा नारी समाजरूपी गाड़ी के दो
पहिए है। इसलिए, किसी भी समाज के समुचित विकास के लिए पुरुष तथा नारी टोनों
को ही समान रूप से उन्नति आवश्यक है। दोनों के पारस्परिक सहयोग पर ही समाज के
निर्माण की सफलता निर्भर करती है। सम्पूर्ण समाज का लगभग 48.46 प्रतिशत स्त्रियाँ है।
प्रश्न 12. लिंग भेद की स्थिति को दूर करने के लिए भारत सरकार र
उठाए गए कुछ कदमों की संक्षिप्त में चर्चा करें।
उत्तर―यह ज्ञात है कि भारत में लिंगभेद व्यापक रूप से फैला हुआ है, जो एक
समस्या के रूप में विकराल रूप धारण करता जा रहा है। इन समस्याओं के महत्व को
समझते हुए केन्द्रीय सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों ने इस भेदभाव पर नियंत्रण के लिए
कुछ कड़े कदम उठाए है। कुछ राज्य सरकारों (जैसे महाराष्ट्र) ने भ्रूण की पहचान संबधी
परीक्षणों पर रोक लगा दी है। अन्य राज्यों (जैसे तमिलनाडु) ने लड़की होने पर आर्थिक
अनुदान देने का प्रावधान किया है। कुछ अन्य राज्यों ने उच्च विद्यालय तक या उच्चतर
शिक्षा के लिए लड़कियों से कोई भी शिक्षण शुल्क नहीं लिए जाने का निर्णय किया है।
यद्यपि उपर्युक्त कदम सराहनीय है, परन्तु ये प्रावधान पर्याप्त नहीं हैं। स्त्रियों के महत्व
के संबंध में लोगों को जागृत किया जाना आवश्यक है। शिक्षक भी लड़कियों के साथ
जुड़ी कुछ गलत अवधारणाओं को दूर करने के लिए काफी कुछ कर सकते है।
प्रश्न 13.क्या लड़का या लड़की पैदा होने के पीछे माता को उत्तरदायी ठहराया
जा सकता है ? अपने उत्तर की संतुष्टि वैज्ञानिक आधार पर करें।
उत्तर―आमतौर पर यह देखा गया है कि भारतीय परिवारों में ऐसी महिला जो
पुत्रियों को जन्म देती है, को हेय दृष्टि से देखा जाता है एवं उन्हें परिवार का वंशज
पुत्र के रूप में न दे पाने का दोषी ठहराया जाता है। वस्तुतः इस धारणा के पीछे भारतीय
समाज की युगों से चली आ रही पुत्र प्राप्ति की लालसा, जो वंश को बढ़ाने वाला माना
गया है, को देखा जा सकता है। परन्तु वैज्ञानिक आधार उपर्युक्त अवधारणा को झुठलात
हुए नजर आते है। इस बात को युग्मनज निर्माण की प्रक्रिया के माध्यम से समझा जा
सकता है। वैज्ञानिक आधार पर पुत्र के जन्म के लिए पिता ही पूरी तरह उत्तरदायी है।
प्रश्न 14.लैंगिक भेदभाव से आप क्या समझते हैं ? लैंगिक भेदभाव के संकेत
के तथ्यों को बताइए।
उत्तर―लिंग (स्वी और पुरुष) के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को लैंगिक
भेदभाव कहते हैं। हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है जिसमें पुरानी रूढ़िवादिता के
अनुसार यह समझा जाता है कि नारियों का दायित्व घर के अन्दर के सारे कामकाज
करने की है तथा घर के बाहर के सारे कार्य पुरुषों के लिए है। लेकिन आज के परिदृश्य
के अनुसार यह विचार अनुचित है।
हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। औरतों के साथ कई तरह के भेदभाव होते
हैं। इस बात का संकेत निम्न तथ्यों से मिलता है:
1. महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 65 फीसदी है जबकि पुरुष में 82
फीसदी। यद्यपि स्कूली शिक्षा में कई जगह लड़कियाँ अव्वल रही है फिर भी उच्च शिक्षा
प्राप्त करनेवाली लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही कम है। इस संदर्भ के लिए माता-पिता
के नजरिये में भी फर्क है। माता-पिता की मानसिकता बेटों पर अधिक खर्च करने की
होती है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा में लड़कियों की संख्या सीमित है।
2. शिक्षा में लड़कियों के इसी पिछड़ेपन के कारण अब भी ऊँची तनख्वाह वाले
और ऊँचे पदों पर पहुंँचने वाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है।
3. यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार एक औरत औसतन रोजाना साढ़े सात घंटे से
ज्यादा काम करती है, जबकि एक मर्द औसतन रोज छः घंटे ही काम करता है। फिर
भी पुरुषों द्वारा किया गया काम ही ज्यादा दिखाई पड़ता है, क्योंकि उससे आमदनी होती
है। हालाँकि औरतें भी ढेर सारे ऐसे काम करती है जिससे प्रत्यक्ष रूप से आमदनी होती
है लेकिन इनका ज्यादातर काम घर के चहार दीवारी के अंदर होती है। इसके लिए उन्हें
पैसा नहीं मिलता इसलिए औरतों का काम दिखाई नहीं देता।
4. लैंगिक पूर्वाग्रह का काला पक्ष बड़ा दुखदायी है जब भारत के अनेक हिस्से में
माँ-बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है। लड़की को जन्म लेने से पहले हत्या कर
देने की प्रवृत्ति इसी मानसिकता का परिणाम है।
प्रश्न 15. नारी की समाज में दयनीय स्थिति के कारणों का वर्णन कीजिए
उत्तर―नारी की समाज में दयनीय स्थिति के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी
माने जाते हैं:
(i) नारी समुदाय में शिक्षा का अभाव रहा है। इससे समाज में अंधविश्वास बढ़ा।
शिक्षा के क्षेत्र में अब भी महिलाएँ पुरुषों से पीछे हैं। 2011 की जनगणना के
अनुसार, जहाँ 82.14 प्रतिशत पुरुष शिक्षित है वहीं 65.46 प्रतिशत महिलाएँ
ही साक्षर हैं।
(ii) पर्दा प्रथा से भी नारियों का बहुत बड़ा अहित हुआ है।
(iii) सती प्रथा तथा बाल विवाह से भी उन्हें काफी हानि हुई है
(iv) दहेज की प्रथा से समाज में लड़कों के मुकाबले लड़कियाँ भार प्रतीत होने लगी।
देश के बहुत-से भागों में अँगरेजी शासन के प्रारंभिक दिनों में तो लड़कियों
के जन्म लेते ही उनकी हत्या करने की प्रथा शुरू हो गई थी।
(v) जनसंख्या की दृष्टि से भी स्त्री-पुरुष में विभेद बना हुआ है। पुरुषों की तुलना
में स्त्रियों की संख्या कम है। जहाँ 1901 में भारत में एक हजार पुरुष पर 972
स्त्रियाँ थीं, वहीं 2011 में एक हजार पुरुष पर नारियों की संख्या 943 है। केरल
एवं पुदुचेरी को छोड़कर भारत के सभी राज्यों में लगभग यही स्थिति है।
(vi) उच्च मातृ-मृत्यु दर, स्त्रीभ्रूण-हत्या, स्त्री-शिशु का गर्भपात, पुरुषप्रधान
समाज, स्त्री-शिशु की अवहेलना के कारण भी लिंग असमानता की समस्या
बनी हुई है।
प्रश्न 16. महिलाओं को सशक्त बनाने में शिक्षक की भूमिका का वर्णन
कीजिए।
उत्तर―एक शिक्षक के लिए यह बड़ी चुनौती हो सकती है कि लड़कियाँ विद्यालय
में आएँ, सीखें तथा सकारात्मक आत्मधारणा युक्त आत्मविश्वासी व्यक्तियों के रूप में
योगदान दे सकें। फिर भी एक शिक्षक लड़कियों की शिक्षा के समान अवसरों की उपलब्धि
के लिए निम्न कदम उठा सकता है:
1. अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित कर उन्हें लड़कियों की शिक्षा के महत्व से अवगत
कराकर उन्हें जागरूक बनाना।
2. महिलामंडलो, ग्राम पंचायतों तथा गैर-सरकारी संगठनों के सहयोग से लड़कियों
के अधिक से अधिक नामांकन हेतु विशेष अभियान चलाना।
3. अपनी कक्षा/विद्यालय में पढ़ रही लड़कियों में से उन लड़किया की पहचान करना,
जिनकी बीच में ही विद्यालय छोड़ देने की संभावना हो।
4. विद्यालय/कक्षा में निम्न स्तरीय उपलब्धि वाली लड़कियों के लिए उपचारात्मक
कक्षाओं की व्यवस्था करना।
5. कक्षा प्रक्रियाओं के दौरान शिक्षक द्वारा लड़कों तथा लड़कियों के बीच भेदभावपूर्ण
व्यवहार न करना।
प्रश्न 17. बाल श्रमिकों हेतु किये गये शैक्षिक प्रावधान बताइए।
उत्तर–बाल श्रमिकों के लिए शैक्षिक प्रावधान― राष्ट्रीय शिक्षा नीति―शिक्षा
आयोग 1964-66 तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 तथा 1992 में ऐसे बच्चों की शिक्षा
पर विचार किया गया तथा अनेक उपाय सुझाए गए हैं। इस संदर्भ में निम्न संस्तुतियाँ
की गई है―
1. बाल श्रमिको की औपचारिक शिक्षा के लिए सायंकालीन/रात्रि स्कूलों का प्रावधान
करना।
2. पत्राचार शिक्षा की व्यवस्था करना।
3. अंशकालिक शिक्षा के लिए प्रबन्ध करना।
4.मुक्त विद्यालय खोलना।
5. अनौपचारिक शिक्षा केन्द्र स्थापित करना।
बाल श्रमिक कानूनों का पालन―यद्यपि इस दिशा में सरकार ने कई कानून बनाए
हुए हैं, परन्तु फिर भी बाल श्रमिकों की दशा में विशेष सुधार नहीं आया है। बच्चों से
दिन-रात काम कराया जा रहा है तथा उनका शोषण भी किया जा रहा है। समाज को
इस सम्बन्ध में अपने उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक होना चाहिए । सरकार को भी कड़ा
रुख अपनाना चाहिए। तभी सही अर्थों में जनतंत्र के मूल्य की रक्षा की जा सकेगी। बाल
श्रमिक व्यवस्था सभ्य समाज में अभिशाप है। इसे समाप्त करना ही होगा।
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