शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य
शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य
प्रश्न 8. समावेशी विद्यालय की अवधारणा, आवश्यकता, उद्देश्य तथा समावेशी
विद्यालय के लिए ढाँचागत सुविधाओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर―समावेशी विद्यालय की अवधारणा―बालक का घर से निकलकर विद्यालय
में आगमन होता है। इसके अन्तर्गत बालक पारिवारिक परिवेश से बाहर निकलकर विद्यालय
में प्रवेश करता है तथा प्रवेश के उपरान्त बालक का भावनात्मक, बौद्धिक एवं मानसिक विकास
सुनिश्चित किया जाता है। बालक को विद्यालय में विभिन्न कौशलों को सीखने के लिए शारीरिक
व मानसिक रूप में तैयार किया जाता है।
May के अनुसार, “समावेशी विद्यालय वह गुण है जो कि बच्चे को सामान्य विद्यालय
पाठयक्रम में सफलतापूर्वक भाग लेने में सहायता करती है।”
समावेशी विद्यालय बालकों को विभिन्न आवश्यकताओं को समझते हुए उचित पाठ्यक्रम
एवं कौशलों के माध्यम से शिक्षा प्रदान कराते हैं तथा उचित वातावरण एवं सुविधाओं का
ध्यान रखते हुए उनको उनकी योग्यता के अनुसार विभिन्न शिक्षण विधियाँ उपलब्ध कराते
है तथा विशिष्ट बालकों को विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रम प्रदान करने के लिए उचित शिक्षण
प्रबन्धन कराते हैं ताकि साकारात्मक वातावरण पैदा हो।
समावेशी विद्यालय की आवश्यकता–समावेशी विद्यालय की आवश्यकता निम्न प्रकार
से है:
1. इन विद्यालयों में समावेशी बालकों में स्वाभिमान की भावना जाग्रत होती है।
2. बालकों में अपनत्व की भावना का विकास होता है।
3. समावेशी विद्यालयों में समावेशी शिक्षा की भावना का विकास करती है।
4. समावेशी विद्यालयों में विशिष्ट बालक विभिन्न कौशलों को सीखते हैं।
5. इन विद्यालयों में विशिष्ट बालक अपने अन्दर की प्रतिभा को निकाल पाते हैं।
6. बालक आत्मनिर्भर बनते हैं।
समावेशी विद्यालय के उद्देश्य― समावेशी विद्यालय के निम्नलिखित उद्देश्य हैं―
1. समावेशी बालकों को आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी बनाना।
2. विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा बालकों की अन्तः क्षमता को बाहर निकालना।
3. विभिन्न कौशलों का ज्ञान होना।
4. विद्यालयों में बालकों का मानसिक सन्तुलन ठीक रखना।
5. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों में विद्यमान हीन भावना को दूर करना।
समावेशी विद्यालय के लिए ढाँचागत सुविधाएँ–समावेशी विद्यालयों में विशेष
सुविधाओं की आवश्यकता होती हैं। वे निम्नलिखित है
1. शिक्षण विधियाँ―न्यून बौद्धिक क्षमता तथा विषय इकाई के मूल सिद्धान्तों की
अज्ञानता के कारण पिछड़े बालक सामान्य रूप से प्रचलित शिक्षण विधियों जैसे-व्याख्यान,
व्याख्यान प्रदर्शन आदि से सीखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। अतः इनके शिक्षण के
लिए इन विधियों में पर्याप्त परिभर्जन की आवश्यकता होती है। इन्हें स्कूल सामग्री और प्रत्यक्ष
अनुभवों की सहायता लेकर तथा विषय-वस्तु की छोटी-छोटी इकाइयों में बाँटकर सरल तरीकों
से पढ़ाया जाना चाहिए। पढ़ाई गई इकाइयों की बार-बार पुनरावृत्ति व अभ्यास भी बहुत
आवश्यकतानुसार उपयोग करना चाहिए तथा उन्हें सीखने के लिए प्रोत्साहित करते रहना चाहिए।
सांवेगिक अथवा अन्य कारणों से पिछड़ जाने वाले बालकों के लिए अभिनय, प्रोजेक्ट
विधि,खेल विधि आदि नवीन शिक्षण विधियों का प्रयोग इस उपचारात्मक शिक्षण में विशेष
महत्त्व रखता है।
2. विशिष्ट पाठ्यक्रम― सामान्य रूप से पाठ्यक्रम का निर्धारण औसत क्षमता वाले
बालकों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए किया जाना चाहिए। विशेष रूप से बौद्धिक
न्यूनता वाले वालक इस पाठ्यक्रम को कुशलता के साथ पूर्ण करने में असफल रहते है।
अत: उनके लिए सरल एवं छोटे पाठ्यक्रम का जो उनको अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं,
क्षमताओं व रुचियों के अनुरूप हो, निर्धारण करना उपयोगी रहता है। इन बालकों को विद्वान
बनाने के स्थान पर उपयोगी नागरिक एवं कुशल कार्यकर्ता बनाना इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य
होना चाहिए तथा काष्ठ शिल्प,गृहशिल्प, पुस्तक शिल्प आदि को इनके पाठ्यक्रम में समावेशित
किया जाना चाहिए।
3. उपचार सुविधा― विकलांग बालकों के लिए समय-समय पर अपने विद्यालयों में
उपचारात्मक कैम्प की व्यवस्था करनी चाहिए तथा अध्यापक व दूसरे छात्रों को ऐसे बालकों
का सहयोग करना चाहिए तथा विद्यालय के नियम इन बालकों के लिए लचीले होने चाहिए।
4. देखभाल―शारीरिक रूप से पीड़ित बालकों को कई कारणों से दूसरों पर निर्भर रहना
पड़ता है। विद्यालय को शारीरिक दोषों को दूर करवाने के लिए उचित इलाज कराने की व्यवस्था
करनी चाहिए तथा ऐसे शिक्षकों को प्रशिक्षण देना चाहिए जो ऐसे बालकों की उचित देखभाल
कर सकें।
5. विशेष विद्यालय―समावेशी बालकों के लिए विशेष विद्यालयों की व्यवस्था करना
न्यायोचित रहता है, क्योंकि उनकी अक्षमता इस स्तर की होती है कि वे सामान्य रूप से प्रयोग
में आनेवाली शिक्षण सामग्री द्वारा शिक्षित नहीं किए जा सकते हैं। इसके लिए उन्हें विशिष्ट
प्रकार के शिक्षण, प्रशिक्षण, पाठ्य-सामग्री तथा सहायक उपकरणों की आवश्यकता होती है
जिन्हें सामान्य विद्यालयों में उपलब्ध कराना असम्भव है। इसके लिए इनको अपने स्वयं के
कार्यों को भली प्रकार कर सकने के प्रशिक्षण उपलब्ध कराना चाहिए ताकि स्वावलम्बी बन
सकें।
6. समय-सारणी―ऐसे बालक प्रायः अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते
तथा सामान्य बालकों के साथ प्रगति में असमर्थता का अनुभव करते हैं। अतः इनके लिए
समय-सारणी का निर्धारण पृथक रूप से किया जाना उचित रहता है। यह समय-सारणी लचीली
होनी चाहिए तथा उसमें पीरियड्स छोटे होने चाहिए। सम्भव है कि ये बालक कभी किसी
विषय विशेष समस्या को समझने व सीखने में सामान्य से अधिक समय ले लें अथवा कभी
किसी विषय को निर्धारित पीरियड में पढ़ने में अरुचि दिखाएँ । इसके अतिरिक्त समय-सारणी
बनाते समय इन बालकों की आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न पाठ्येत्तर व पाट्यान्तर क्रियाओं
को भी उचित महत्त्व, स्थान व समय मिलें, इसका ध्यान रखना चाहिए।
7. विशेष अध्यापक―विद्यालयों में विशिष्ट बालकों के लिए विशेष कक्षाओं, विशिष्ट
पाठ्यक्रम व परिमार्जित शिक्षण विधियों को अपनाने का उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है
जबकि शिक्षक इन सब परिवर्तनों को प्रभावी व सफल रूप दे सकें । ऐसा शिक्षक अधिक
व्यावहारिक व अनुभवी होना चाहिए। उसे बाल मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान हो बालकों
की विशिष्ट कमियों व कठिनाइयों को समझने की क्षमता व रुचि रखता हो तथा उसमें
पर्याप्त धैर्यशक्ति हो ताकि वह बालकों के लगातार असफल होने पर भी अपने आपको
निरन्तर सफलता के प्रयास के क्रम में लगाएँ रखें। पिछड़े बालकों को जिसे प्रोत्साहन,
प्रशंसा, लगातार सहायता व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की अत्यधिक आवश्यकता होती है, एक
कुशल शिक्षक ही प्रगति के मार्ग पर स्थायित्व के साथ ला सकता है। इसके अतिरिक्त
पिछड़े बालकों के शिक्षण में अत्यधिक आवश्यकता है कि शिक्षण के द्वारा अपनायी गई
शिक्षण-विधि बाल-केन्द्रित हो।
8. पाठ्यान्तर क्रियाएँ, विविध अनुभव तथा वर्गीकृत पाठ्यक्रम―विद्यालयों में
पाठ्यान्तर क्रियाओं की उचित व्यवस्था का न होना प्राय: सामान्य व उच्च प्रतिभा सम्पन्न
बालकों में भी शिक्षा के प्रति अरुचि उत्पन्न कर देता है। उच्च प्रतिभा सम्पन्न बालक की
अपनी विशेष क्षमताओं व जिज्ञासाओं को सन्तुष्टि के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो
पाते हैं, जैसे पुस्तकालय में उनके स्तर की ज्ञानवर्धक अथवा स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने
वाली पुस्तका का अभाव, खेल कक्ष में खेल सामग्री की पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होना,
शैक्षिक उद्देश्य के परिभ्रमण व पिकनिक की व्यवस्था का न होना आदि। इन्हीं सब कारणों
से ये बालक कुण्ठित हो जाते हैं, शिक्षा के प्रति अरुचि दिखाते हैं और अपनी क्षमताओं के
अनुरूप उपलब्धि का प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। अतः इनके लिए विशिष्ट पाठ्यक्रम के अतिरिक्त
खेलकूद, मनोरंजन व पुस्तकालय आदि के उचित व्यवस्था का होना अत्यावश्यक है। साथ
ही, बालकों का उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप अभिनय, नृत्य, संगीत, कला व
नेतृत्व प्रदर्शन के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। सम्भव हो तो इन्हें अभिव्यक्त कलाओं
का भी प्रशिक्षण प्रदान किया जाए। इसके अतिरिक्त इन बालकों को अपनी विशिष्ट क्षमताओं,
रुचियों, आयु व बौद्धिक स्तर के अनुरूप वर्कशॉप प्रशिक्षण, विभिन्न हस्तकलाओं का प्रशिक्षण,
व्यावसायिक प्रशिक्षण, ऑनर्स पाठ्यक्रम, एन सी सी०, सुरक्षा नियमों, प्राथमिक चिकित्सा
प्रशिक्षण आदि भी प्रदान किए जा सकते हैं। यह व्यवस्था बालकों में इन कलाओं में दक्षता
व प्रशिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ उनमें निश्चित रूप से शिक्षा के प्रति उचित दृष्टिकोण
उत्पन्न करने में सहायक होगी।
9. परीक्षा प्रणाली―कभी-कभी दोषपूर्ण परीक्षा-प्रणाली भी बालकों के पिछड़ेपन के
लिए उत्तरदायी होती है। जैसे―सभी प्रश्न-पत्रों का पूर्ण रूप से आत्मनिष्ठ होना, परीक्षा में
पाठ्यक्रम से बाहर की विषयवस्तु पर प्रश्न पूछ लेना, प्रश्नपत्र की भाषा अस्पष्ट होना, बालक
को प्रत्युत्तर देने के लिए पर्याप्त समय न मिल पाना, परीक्षकों द्वारा उत्तर-पुस्तिका के मूल्यांकन
से लापरवाही बरतना तथा सभी बालकों के लिए समान मानकों का निर्धारण कर देना आदि ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पिछड़ापन, समान आयु वर्ग व समान क्षमताओं वाले बालकों की उपलब्धि
के आधार पर आका जाना चाहिए न कि कक्षा के सभी विभिन्न आयु वर्गों व क्षमताओं वाले
बालकों की उपलब्धि के आधार पर । अतः परीक्षकों को चाहिए कि पिछड़े वर्ग की शैक्षिक
उपलब्धि की परीक्षा लेते समय इन सब बातों का ध्यान रखें, प्रश्न-पत्रों को अधिक वस्तुनिष्ठ
बनाएँ, सरल भाषा का प्रयाग करें तथा प्रश्नपत्र में उन सभी पाठ्यांशों से प्रश्न पूछे जिसको
वह कक्षा में पढ़ चुके हैं। प्रायः कुछ धीमी गति से सीखने व प्रत्युत्तर देने वाले बालक प्रश्न-पत्र
पूरा करने में सामान्य से अधिक समय लेते हैं। अतः समय का निर्धारण इन बालकों की
गति को ध्यान में रखते हुए करें। साथ ही, इन बालकों के मूल्यांकन में प्राप्तांकों के अतिरिक्त
उनके शैक्षिक व व्यक्तिगत इतिहास, आलेख, प्रगति आख्यान, सामूहिक आलेख आदि का
समावेश रखना चाहिए।
प्रश्न 9. समावेशी शिक्षा में कौन-कौन सी बाधाएँ हैं ? उल्लेख कीजिए।
उत्तर―विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को भाव-भंगिमा (हाव-भाव) की दृष्टि से
तिरस्कृत समझा जाता है। यहाँ तक कि बालक के माता-पिता (अभिभावकों) ऐसे बालकों
के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। अक्सर ऐसा देखने में आता है कि माता-पिता यहाँ
तक कह देते है कि यह बालक हमारे से किस जन्म का बदला लेने के लिए पैदा हुआ है।
यह तो हमारे लिए सारी उम्र का बोझ है। इन बालकों के लिए अधिकांश माता-पिता ही
संवेगात्मक दृष्टि से सकारात्मक न होकर उनकी अपेक्षा करते हैं। हाव-भाव की दृष्टि से
विशेष आवश्यकता वाले बालकों को बेइज्जत किया जाता है और इनको घृणा की दृष्टि से
देखा जाता है। ऐसे बालकों का जन्म उन्हें दुःखदायी महसूस होता है। माता-पिता में ऐसे
बालकों के जन्म के बाद असंतोष की भावना बनी रहती है। माता-पिता समझते हैं कि यह
बालक उम्रभर उनको कष्ट देगा। कुछ माता-पिता अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को
पसन्द ही नहीं करते और समय-समय पर उनकी निन्दा और अपमान करते हैं जिसका सीधा
प्रभाव बालक पर नकारात्मक दृष्टि से बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है और बालक में हीनता
की भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगती है जब माता-पिता के आपसी सम्बन्ध ठीक नहीं होते
है तो ऐसे बालक के जन्म के लिए एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं और वे स्वयं आक्रामक
व शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं तो वे अपने बालक को तिरस्कृत रूप में देखने लगते हैं। यदि
ऐसे बालक माता-पिता के व्यक्तिगत जीवन में बाधा बनते हैं तो माता-पिता बच्चों का तिरस्कार
करने लगते हैं।
जब किसी बालक के किसी अंग में विकार आ जाता है तो भी माता-पिता अन्य बच्चों
की अपेक्षा उस बालक का तिरस्कार करते हैं। अन्य बच्चों एवं विशेष आवश्यकता वाले
बच्चों के प्रति भेदभाव किया जाता है। ऐसे विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के रिश्तेदार उनको
दया की दृष्टि से अवश्य देखते हैं। लेकिन, इन बालकों को सहयोग देने से परहेज करते
हैं। आमतौर पर विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को परिवार पर बोझ माना जाता है । अभिभावक
यह समझते हैं कि उन्हें जीवनभर ऐसे बच्चों की परवरिश करनी होगी और ये अपने पैर पर
खड़े नहीं हो सकते । इस प्रकार की विचारधारा के चलते इनकी शिक्षा, प्रशिक्षण , आजीविका
कमाने योग्य बनाने और इनके पुनर्वास के लिए कोई विशेष काम अभी तक नहीं हो पाया
है। कालान्तर में उनकी शिक्षा के प्रयास अवश्य किए गए परन्तु विकलांग बालकों को सामान्य
बालकों से पूर्ण रूप से भिन्न माना गया। इस अलगाववादी दृष्टिकोण के कारण यह विचार
पनपा कि विशिष्ट बालक सामान्य स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करने में समर्थ नहीं है अर्थात् अयोग्य
हैं। यही कारण है कि बाद में ऐसे बालकों की शिक्षा के लिए अलग से विशेष संस्थाएँ
खोली गई। इतना होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि विशेष आवश्यकता वाले बालकों
की दशा और दिशा में बहुत सकारात्मक वांछनीय सुधार हो गए हैं और उनको सामान्य बालकों
की तरह परिवार से, समाज से और सामान्य स्कूलों से प्यार, दुलार और सम्मान नहीं मिलता है।
समावेशी शिक्षा में दूसरी प्रमुख बाधा है-सामाजिक वातावरण जो विशेष आवश्यकता
वाले बालकों के लिए अनुकूल न होकर प्रतिकूल होता है। समाज के अधिकांश लोग ऐसे
बालकों के प्रति दया और सहानुभूति के भाव तो अवश्य प्रकट करते हैं लेकिन जब इन बालकों
के साथ सहयोग करने का सवाल खड़ा होता है तो वे शिष्टाचार ढंग से पीछे हट जाने का
प्रयास करते हैं। आज भी समाज के लोगों का दृष्टिकोण इन बालकों के प्रति नकारात्मक
वे आज भी अपंग बालकों को हीनभावना से देखते हैं। इन बालकों को दया का पात्र
दानयोग्य, सहानुभूति इच्छुक और हँसी-मजाक का पात्र बना लिया जाता है। कुछ लोग तो
इन बालकों को संवेदनशील न समझ कर के ऐसी धारणा रखते हैं कि ये बालक अपने मजबूरियों
के कारण सब कुछ सहन कर लेंगे। इन बालकों को अपनी अक्षमता के कारण और समाज
की अवहेलना के कारण सामाजिक क्रियाकलापों और गतिविधियों से दूर रहना पड़ता है जिससे
उनके समाजीकरण की प्रक्रिया में बाधा आती है।
भारतीय समाज का बन्द समाज अधिकतर गाँवों में निवास करता है। बन्द समाज के
लोग अन्धविश्वासी, रूढ़िवादी और संकीर्ण विचार रखते हैं और वे अपने रीति रिवाजों, पारम्परिक
परिपाटियों को त्यागने का कदापि भी प्रयास नहीं करते । इस समाज के लोग अपने बालकों
को समावेशित स्कूल में भेजने के लिए तैयार नहीं होते क्योंकि जब वे अपने सामान्य बालकों
को प्राथमिक शिक्षा के पूरा किए बिना स्कूल से हटा लेते हैं तो उनसे यह आशा कैसे रखी
जा सकती है कि वे अपने विशेष आवश्यकता वाले बालकों को पढ़ने-लिखने के लिए स्कूल
भेज देंगे। इस बन्द समाज के लोगों की विचारधारा के चलते आज भी हम 6 वर्ष से 14
वर्ष के बालकों की प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित नहीं करवा सकें। इस समाज के लोग
उदार विचारों से ही वंचित नहीं है बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी बहुत कमजोर हैं। इन्हीं कारणों
से आज भी हम अपव्यय और अवरोधन की समस्या का पूरी तरह से समाधान नहीं कर पाए
हैं। इन लोगों में आज भी लड़के और लड़की के बीच भेदभाव की भावना घर किए हुए
है। इस प्रकार के समाज के लोगों से यह आशा नहीं की जा सकती कि विद्यालय में अपने
बालकों को भेजने में सक्रिय रूप से योगदान देंगे।
खुले समाज से सम्बन्ध रखने वाले लोगों से कुछ अंशों तक समावेशी स्कूल, की शिक्षा
में सफलता मिल सकती है लेकिन पर्याप्त रूप से अभी सम्भव नहीं है। शहर के सरकारी
स्कूलों में तो सरकार सक्रिय रूप से समावेशी शिक्षा को सुनिश्चित करने का आश्वासन दे
सकती है, लेकिन गैर सरकारी स्कूलों को समावेशी स्कूल में परिवर्तित करना असंभव तो
नहीं, परन्तु कठिन बहुत है। शहरों में सामान्य स्कूलों में समावेशी व्यवस्थाएँ देकर विरोध
करेंगे। उनका यह तर्क है कि हमारे सामान्य वालकों को सुचारू रूप से होनेवाली शिक्षण
प्रक्रिया में कमी आएगी। उनकी इस धारणा के चलते वे अपने सामान्य बालकों को स्कूल
से हटा लेंगे और किसी अन्य स्कूल में अपने बालको का प्रवेश कराने का प्रयास करेंगे जहाँ
समावेशन नहीं है। इस प्रकार से देखें तो समावेशी शिक्षा को सामाजिक बाधाओं का सामना
करना पड़ेगा।
प्रश्न 10. समावेशी में विशेष आवश्यकता वाले के सीखने के लिए शिक्षा का व्यवस्था
पर प्रकाश डालें।
उत्तर―समावेशी विद्यालयों में विशेष सुविधाओं की आवश्यकता होती है। वे निम्नलिखित
है―
1. विशेष विद्यालय–समावेशी वालकों के लिए विशेष विद्यालयों की व्यवस्था करना
न्यायोचित रहता है क्योंकि उनकी अक्षमता इस स्तर की कमी होती है कि वे सामान्य रूप
से प्रयोग में आनेवाली शिक्षण सामग्री द्वारा शिक्षित नहीं किये जा सकते है । इसके लिए उन्हें
विशिष्टि प्रकार के शिक्षण, प्रशिक्षण, पाठ्य-सामग्री तथा सहायक उपकरणों की आवश्यकता
होती है, जिन्हें सामान्य विद्यालयों में उपलब्ध कराना असंभव है। इसके लिए इनके आपने
स्वयं को कार्यों को भली प्रकार कर सकने के प्रशिक्षण उपलब्ध कराना चाहिए ताकि स्वालम्बी
बन सकें।
2. देखभाल―शारीरिक रूप से पीड़ित बालकों को कई कारणों से दूसरों पर निर्भर
रहना पड़ता है। इसके विद्यालय को शारीरिक दोषों को दूर करवाने के लिए उचित इलाज
कराने की व्यवस्था करायी जानी चाहिए तथा ऐसे शिक्षकों को प्रशिक्षण देने चाहिए जो ऐसे
बालकों की उचित देखभाल कर सकें।
3. उपचार सुविधा― विकलांग बालकों को समय-समय पर अपने विद्यालयों में
उपचारात्मक कैम्प की व्यवस्था करनी चाहिए तथा अध्यापक व दूसरे छात्रों को ऐसे बालकों
का सहयोग करना चाहिए तथा विद्यालय के नियम इन बालकों के लिए लचीले होना चाहिए।
4. विशिष्ट पाठ्यक्रम― सामान्य रूप से पाठ्यक्रम की निर्धारण औसत क्षमता वाले
बालकों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए किया जाना चाहिए। पिछड़े यालक (विशेष
रूप से बौद्धिक न्यूनता वाले बालक) इस पाठ्यक्रम को कुशलता के साथ पूर्ण करने में असफल
रहते हैं। अतः उनके लिए सरल एवं छोटे पाठ्यक्रम का, जो उनकी अपनी व्यक्तिगत
आवश्यकताओं, क्षमताओं व रुचियों के अनुरूप हो, निर्धारण काना उपयोगी रहता है। इन
बालकों को विद्वान बनाने के स्थान पर उपयोगी नागरिक व कुशल कार्यकर्ता बनाना इस
पाठ्यक्रम का उद्देश्य होना चाहिए तथा काष्ठ शिल्प, गृह शिल्प, पुस्तक शिल्प आदि को इनके
पाठ्यक्रम में समावेशित किया जाना चाहिए।
5. शिक्षण विधियाँ―न्यून बौद्धिक क्षमता अथवा विषय इकाई के मूल सिद्धांतों की
अज्ञानता के कारण पिछड़े बालक सामान्य रूप से प्रचलित शिक्षण विधियों, जैसे—व्याख्यान,
व्याख्यान प्रदर्शन आदि से सीखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। अतः इनके शिक्षकों को
लिए इन विधियों में पर्याप्त परिमार्जन की आवश्यकता होती है। इन्हें स्थूल सामगी और प्रत्यक्ष
कक्ष अनुभवों की सहायता लेकर तथा विषय-वस्तु की छोटी-छोटी इकाईयों में बाँटकर सरल
तरीकों से पढ़ाया जाना चाहिए। पढ़ाई गई इकाईयों की बार-बार पुनरावृत्ति व अभ्यास भी
बहुत आवश्यक होता है। दृश्य-श्रव्य समाग्री का आवश्यकतानुसार उपयोग करना चाहिए तथा
उन्हें सीखने के लिए प्रोत्साहित करने रहना चाहिए। सावंगिक अथवा अन्य कारणों से पिछड़
जाने वाले बालकों के लिए अभिनय, प्रोजेक्ट विधि, खेल विधि आदि नवीन शिक्षण विधियों
का प्रयोग इस उपचारात्मक शिक्षण में विशेष महत्व रखता है।
6. विशेष अध्यापक―विद्यालयों में विशिष्ट बालकों के लिए विशेष कक्षाओं, विशिष्ट
पाठ्यक्रम व परिमार्जित शिक्षण विधियों को अपनाने का उद्देश्य तभी पूर्ण हो सकता है जबकि
शिक्षक इन सब परिवर्तनों को प्रभावी व सफल रूप दे सके । ऐसे शिक्षक अधिक व्यवहारिक
अनुभवी होना चाहिए। उसे बाल मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान हो, बालकों की विशिष्ट कमियाँ
कठिनाइयों को समझने की क्षमता व रुचि रखता हो तथा उसके पर्याप्त धैर्य शक्ति हो
ताकि वह बालक के लगातार असफल होने पर भी अपने आपको निरन्तर सफलता के प्रयास
के क्रम में लगाये रखे पिछड़े बालकों को जिसे प्रोत्साहन, प्रशंसा लगातार सहायता व
सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की अत्यधिक आवश्यकता होती है, एक कुशल शिक्षक ही प्रगति के
मार्ग पर स्थायिौत्व के साथ ला सकता है। इसके अतिरिक्त पिछड़े बालकों के शिक्षण में
अत्यधिक आवश्यक है कि शिक्षण के द्वारा अपनाई गई शिक्षक बाल केन्द्रित हो।
7. पाट्यान्तर क्रियाएँ, विविध अनुभव तथा वर्गीकृत पाठ्यक्रम―विद्यालयों में
पाठ्यान्तर क्रियाओं की उचित व्यवस्था का न होना प्राय: सामान्य व उच्च प्रतिभा सम्पन्न
बालकों में भी शिक्षा के प्रति अरुचि उत्पन्न कर देता है। उच्च प्रतिभा सम्पन्न बालक की
अपनी विशेष क्षमताओं व जिज्ञासाओं की सन्तुष्टि के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो
पाते है, जैसे पुस्तकालय में उनके स्तर को ज्ञानवर्धक अथवा स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने
वाली पुस्तकों का अभाव, खेल कक्ष में खेल सामग्री का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होना
शैक्षिक उद्देश्यों के परिभ्रमण व पिकनिक की व्यवस्था का ना होना आदि । इन्हीं सब कारनों
से ये बालक कुण्ठित हो जाते है; शिक्षा के प्रति अरुचित दिखाते हैं और अपनी क्षमताओं
के अनुरूप उपलब्धि का प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। अतः इनके लिए विशिष्ट पाठ्यक्रम के
अतिरिक्त खेलकूद, मनोरंजन व पुस्तकालय आदि की उचित व्यवस्था का होना आवश्यक
है। साथ ही बालकों का उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप अभिनय, नृत्य, संगीत,
कला व नेतृत्व प्रदर्शन के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए। संभव हो तो उन्हें अभिव्यक्त
कलाओं का भी प्रशिक्षण प्रदान किया जाए। इसके अतिरिक्त इन बालकों को अपनी विशिष्ट
क्षमताओं, रुचियों, आयु व बौद्धिक स्तर के अनुरूप वर्कशाप प्रशिक्षण विभिन्न हस्तकलाओं
का प्रशिक्षण, व्यावसायिक प्रशिक्षण, ऑनर्स पाठ्यक्रम, एन सी सी., सुरक्षा नियमों, प्राथमिक
चिकित्सा प्रशिक्षण आदि भी प्रदान किये जा सकते हैं। यह व्यवस्था बालकों में इन कलाओं
में दक्षता व प्रशिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ उनमें निश्चित रूप से, शिक्षा के प्रति उचित
दृष्टिकोण उत्पन्न करने में सहायक होगी।
8. समय-सारणी―ऐसे बालक प्रायः अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते
तथा सामान्य बालकों के साथ प्रगति में असमर्थता का अनुभव करते हैं। अतः इनके लिए
समय-सारणी का निर्धारिण पृथक रूप से किया जाना उचित रहता है। यह समय-सारणी लचीले
होनी चाहिए तथा उससे पीरियड्स छोटे होने चाहिए। संभव है कि ये बालक भी किसी विषय
विशेष समस्या को समझने व सौखने में सामान्य से अधिक लेल अथवा कभी किसी विषय
को निर्धारित पीडियड में पढ़ने में अरुचि दिखायें। इसके अतिरिक्त समय-सारणी बनाते समय
इन बालकों को आवश्यकताओं के अनुरूप पाठ्येत्तर व पाट्यान्तर क्रियाओं को भी उचित
महत्त्व, स्थान व समय मिलें इसका ध्यान रखना चाहिए।
9. परीक्षा प्रणाली―कभी-कभी दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली भी बालकों के पिछड़ेपन के
लिए उत्तरदायी होती है। जैसे―सभी प्रश्न-पत्रों का पूर्ण रूप से आत्मनिष्ठ होना, परीक्षा में
पाठ्यक्रम से बाहर को विषयवस्तु पर प्रश्न पूछ लेना, प्रश्न-पत्र को भाषा का अस्पष्ट होना,
बालक को प्रत्युत्तर देने के लिए पर्याप्त समय न मिल पाना, परीक्षकों द्वारा उत्तर-पुस्तिका के
मुल्यंकन से लापरवाही बरतरना तथा सभी बालकों के लिए समान मानकों का निर्धारण कर
देना आदि । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पिछड़ापन समान आयु वर्ग व समान क्षमताओं वाले बालकों
का उपलब्धि के आधार पर आंका जाना चाहिए न कि कक्षा के सभी विभिन्न आयु वर्गों
व क्षमताओं वाले बालकों की उपलब्धि के आधार पर । अतः परीक्षकों को चाहिए कि पिछड़े
वर्ग की शैक्षिक उपलब्धि परीक्षा लेते समय इन बस वातों रख, प्रश्न-पत्रो को अधिक वस्तुनिष्ठ
बनाये, सरल भाषा का प्रयोग कर तथा प्रश्न-पत्र में उन सभी पाठ्यांशों से प्रश्न पूछें जिनकों
वह कक्षा में पढ़ा चुके हैं। प्रायः कुछ धीमी गति से सीखने व प्रत्युत्तर देने वाले बालक
प्रश्न-प्रत्र का पूरा करने में सामान्य से अधिक समय लेते हैं। अत: समय का निर्धारण इन
बालकों की गति को ध्यान में रखते हुए करें। साथ ही इल बालकों के मूल्यकांन में प्राप्तांकों
के अतिरिक्त उनके शैक्षिक व व्यक्तिगत इतिहास, एनेकडोट्ल आलेख, प्रगति, आख्या सामूहिक
आलेख आदि का समावेश रहना चाहिए।
परीक्षण प्रणाली व मूल्यांकन के तरीकों में परिमार्जन के अतिरिक्त पिछड़े बालकों की
उपलब्धि को बढ़ाने के लिए परीक्षाफल को शीघ्र घोषित करना चाहिए तथा सफल व असफल
दोनों की वर्गों के बालकों को किसी-न-किसी रूप में प्रोत्साहित करते रहना चाहिए और फीडबैक
पुरस्कार तथा प्रलोभन आदि का प्रयोग करना चाहिए।
10. निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था―सही विषयों व अन्य क्रियाओं का चुनाव न कर
सकने के कारण भी बहुत से बालक उस क्षेत्र में लगातार असफल होते जाते हैं। अत: विद्यालयों
निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था भी उपचारात्मक व निवारक दोनों दृष्टिकोणों से आवश्यक है
जिससे कि बालक अपनी क्षमताओं, रुचियों, अभिवृत्ति के अनुरूप ही विभिन्न विषयों, खेलों
व अन्य क्रियाओं का चयन कर सकें।
11.अनुभवी शिक्षा मनोवैज्ञानिक की सहायता लेना-मनोवैज्ञानिक कारणों से पिछड़े
बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में अनुभवी शिक्षा मनोवैज्ञानिकों की सेवाएँ भी काफी मूल्यवान
सिद्ध हो सकती है। ये मनोवैज्ञानिक अध्यापकों व मातप-पिता का बालक के व्यक्तित्व व
शिक्षा सम्बन्धी ऐसे तथ्यों से परिचित करवाने वमें सहायक होते हैं जो उनके पिछड़ेपन के
पूर्ण या आंशिक रूप से जिम्मेदार होते हैं । वस्तुतः प्रत्येक उच्चतर विद्यालय में समावेशी बालकों
के सर्वांगीण विकास हेतु विद्यालयीन परामर्शदताओं अथवा विद्यालयीन मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति
आवश्यक प्रतीत होती है जो उनको कमियों एवं कमजोरियों को समझा कर उनका निरकारण
कर उचित मार्गदर्शन कर सकें।
प्रश्न 11. लिंग की अवधारणा को स्पष्ट करें।
अथवा, जेण्डर पक्षपात से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर―संसार में प्रायः सभी प्राणियों का आविर्भाव दो रूपों में हुआ है―स्त्री और पुरुष ।
मनुष्य की भी उत्पत्ति दो रूपों में हो पाई है―स्त्री और पुरुष जिसे प्रायः स्त्रीलिंग और पुल्लिग
कहते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों के शारीरिक संरचना, उनकी अभिलाषाओं, मनोवृत्तियों, रुचियाँ,
कार्यकलापों इत्यादि में अन्तर दृष्टिगोचर होता है। लिंग के माध्यम से ही स्त्री या पुरुष का
निर्धारण किया जाता है।
पिता के गुणसूत्र में XY दोनों पाया जाता है जबकि माता में केवल XX गुणसूत्र ही
मौजूद होते हैं । पिता Y और माता X दोनों का गुणसूत्र XX मिलने से कन्या सन्तान का जन्म
होता है। जबकि पिता (X) और माता (X) दोनों के गुणसत्र XY के मिलने से पुरुष संतान
का जन्म होता है। लिंग के निर्धारण में जैविक तत्वों को ही महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है,
परन्तु, इस हेतु महिला या पुरुष किसी की इच्छा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
लिंग की परिभाषा―फेमिनिस्ट विद्वानों के अनुसार, “लिंग को स्त्री-पुरुष विभेद के
सामाजिक संगठन अथवा स्त्री-पुरुष के मध्य असमान सम्बन्धों की व्यवस्था के रूप में
परिभाषित किया जा सकता है।
सुप्रसिद्ध विचारक पेपनेक के अनुसार, “लिंग स्त्री तथा पुरुप से सम्बन्धित है जो
स्त्री-पुरुष की भूमिकाओं को सांस्कृतिक आधार पर परिभाषित करने का प्रयास करता है एवं
स्त्री-पुरुष के विशेषाधिकारों से सम्बन्धित है। सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक आधार पर लिंग
सामान्यतया शक्ति सम्बन्धों का कार्य तथा असमानता का सामाजिक संगठन है।
परिभाषा―लिंग निर्धारण शरीर की ऐच्छिक क्रिया का परिणाम न होकर अनैच्छिक है।
उस हेतु घरों में प्रायः महिलाओं को दोष दिया जाता रहा है। कन्या संतान के लिए माँ या
सास प्राय: बेटी एवं पतोह को ही इसका जिम्मेवार मानती है। पुरुष या कन्या संतान के लिए
किसी को दोष नहीं लगाया जा सकता है, विज्ञान ने इसको सिद्ध कर दिया है। पुरुष तथा
कन्या संतान के लिए हमारे गुणसूत्र, जैविक कारक ही जिम्मेवार हैं, इस पर किसी का बस
नहीं चलता।
जेण्डर पक्षपात से आशय बालक तथा बालिकाओं के मध्य व्याप्त लैंगिक असमानता
से है। बालक और बालिकाओं में पक्षपात उनके लैंगिक असमानता के कारण ही है। प्रायः
बालकों के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, उनके स्वास्थ्य, जीवन सुरक्षा, प्रतिष्ठा आदि पर
बालिकाओं की तुलना में ज्यादा ध्यान दिया जाता है। प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म में ऐसी
मान्यता है कि बिना पुत्र के अन्तेष्टि संस्कार के कोई मुक्त नहीं हो सकता। दूसरी ओर
बालिकाओं को हरेक ढंग से सुरक्षा करनी पड़ती है और उन्हें दान-दहेज देकर दूसरे यहाँ
विदा करना पड़ता है। बालकों को खानदान का गौरव एवं परिवार का चिराग एवं विभिन्न
पापों से मुक्त करनेवाला माना जाता है, उन्हें ज्यादा प्रश्रय दिया जाता है, बालिकाओं को नही।
लिंगीय पक्षपात के मद्देनजर ही गर्भस्थ शिशु के लिंग का निर्धारण अल्ट्साउण्ड के
माध्यम से भारी पैमाने पर किया जाता है और पुल्लिग नहीं होने पर बालिकाओं को भ्रूणावस्था
में ही खत्म कर दिया जाता है। जन्म हो जाने के बाद भी बालिकाओं को तरह-तरह की
हीनता का शिकार होना पड़ता है, ताने सुनने पढ़ते हैं। पढ़ने-लिखने में भी कई तरह की
असमानताएँ दृष्टिगोचर होती है। UNESCO की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष एक
करोड़ तीस लाख कन्या भ्रूणों की हत्या कर दी जाती है।
लैंगिक असमानता सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक रही है, इसके रूप भिन्न हैं।
सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना के अनुसार लैंगिक असमानता व्यवहार में भेदभाव दर्शाती है।
अमर्त्य सेन ने लैंगिक असमानता के सात स्वरूपों का उल्लेख किया है―
1. मृत्यु संख्या असमानता–विश्व के कई देशों में स्त्रियों की मृत्युदर पुरुषों की तुलना
में अधिक है। इसके पीछे भी सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों को उत्तरदायी कहा जा सकता
है। पुरुषों को जनसंख्या अधिक होना और स्त्रियों की मृत्यु-दर अधिक होना, स्त्री-पुरुषों के
बीच लिंग आधारित भेदभाव को प्रकट करता है।
2. जन्म सम्बन्धी असमानता―जेन्डर पक्षपात का दूसरा स्वरूप जन्म से सम्बन्ध रखता
है। यदि जन्म से पूर्व गर्भ में ही यह ज्ञात हो जायें कि लड़की पैदा होगी तो कई लोग भ्रूण
हत्या करवा देते हैं। घटती बालिकाओं की संख्या इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि लैंगिक
भेदभाव जन्म से भी सम्बन्ध रखता है।
3.आधारभूत सुविधाओं में पक्षपात―कई देशों में स्त्रियों को आधारभूत सुविधाओं
से वंचित किया जाता है अथवा उन पर सामाजिक परम्पराओं के अनुसार पाबन्दी लगाई जाती
है। उदाहरणार्थ―स्त्रियों को शिक्षा देने से वंचित रखना, स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान नहीं देना
आदि।
4.विशेष अवसरों की उपलब्धता में पक्षपात―स्त्रियों के लिए समाज में पुरुषों के
समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाना जेन्डर पक्षपात का एक उल्लेखनीय स्वरूप है। जैसे―
राजनीति के क्षेत्र में अभी तक स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अवसर नहीं मिले हैं।
5. व्यावसायिक पक्षपात―समाज में एक सोच यह है कि जिस तरह के काम पुरूष
करते हैं, उन कार्यों को स्त्रियाँ नहीं कर सकती है। स्त्रियों के कार्य को मोटे रूप में गृहक्षेत्र
के कार्य माने जाते हैं जबकि पुरुष द्वारा किये जानवाले कार्यों को सार्वजनिक क्षेत्रों के कार्य
कहा जाता है।
6. स्वामित्व पर आधारित पक्षपात―कई समाजों में चल-अचल सम्पति का स्वामित्व
केवल पुरुषों के पास ही रहता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होनेवाली सम्पत्ति
भी लैंगिक आधार पर पुरुष को ही प्राप्त होती है।
7.घरेल कार्यों में पक्षपात―यह एक सामान्य धारणा है कि घर के कार्य स्त्री के द्वारा
किये जायेंगे और बाहर के कार्य पुरुष द्वारा किये जायेंगे। भारतीय समाज में यह देखा गया
है कि आदिवासी और निम्न जाति की स्त्रियाँ तो खेतों, जंगलों. खानों और कारखानों में काम
करती है, लेकिन, मध्यमवर्गी परिवारों में बड़ी संख्या में स्त्रियाँ घर का कामकाज ही करती
रही है।
सामाजिक मानकों के अनुसार स्त्रियों के प्रति असमानता का व्यवहार किया जाता है।
लैंगिक मुद्दे के अर्थ का सारांश यही है कि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं व्यवहार की असमानता
की शिकार स्त्रियाँ हैं। पुरुष स्त्री के भेदभावपूर्ण सम्बन्धों में जैवकीय अन्तर को सामाजिक
अन्तर का वैध आधार माना जाता है, वे जैवकीय नहीं हैं। इनका सृजन समाज करता है। इसका
परिणाम पुरुष और स्त्री के भेदभाव की समस्या के रूप में होता है। इसी को वर्तमान में
जेण्डर पक्षपात के रूप में समझा जा सकता है। पितृसत्तात्मक वैचारिकी के आधार पर भारतीय
समाज में जेण्डर पक्षपात को देखा जाता है। पुरुष के प्रभुत्ववाली इस व्यवस्था में स्त्रियाँ अक्सर
शोषण का शिकार होती हैं। इसके अलावा इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि स्त्रियाँ
स्वयं भी सक्रिय रूप से इस विचारधारा में विश्वास करती हैं और इसे लागू भी करती हैं
कि पुरुष उच्च हैं और स्त्रियाँ निम्न हैं।
प्रश्न 12. पितृसत्ता से आप क्या समझते हैं? पितृसता के अन्तर्गत पुरुषों और
महिलाओं को दिए गए अधिकारों और कर्तव्यों की विस्तृत विवेचना करें।
उत्तर―समाजशास्त्र के विद्वानों ने पितृसता को प्राचीन काल से चली आ रही एक
सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत पिता या कोई
अन्य पुरुष एक परिवार में शामिल समस्त सदस्यों की परिवार की सम्पति व परिवार के अन्य
साधनों पर अपना सम्पूर्ण स्वामित्व रखता है। परिवार की सभी वस्तुओं पर पूर्ण स्वामित्व रखने
वाले इस पुरुष को ही ‘परिवार का मुखिया’ कहा जाता था, या ‘परिवार के मुखिया’ के
नाम से संबोधित किया जाता था। प्रत्येक वंश का नाम पुरुषों के नाम से ही चलता है। इस
प्रकार समाज के उद्भव काल से ही पितृसता या पुरुष प्रधान समाज का प्रचलन रहा है और
प्रत्येक समाज में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को प्रमुखता प्राप्त होती रही है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था
के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही यह मान्यता रही है कि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत
महिलाओं को पुरुषों की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना चाहिए और पूर्णरूप से उसके अधीन
रहना चाहिए।
प्रत्येक समाज में पारिवारिक व्यवस्था के अन्तर्गत परिवार में निवास करने वाली महिलाओं
को भी पुरुष की सम्पति के रूप में स्वीकार किया जाता है। महिलाओं के सम्बन्ध में अनेक
ऐसे निर्णय सदैव पुरुषों द्वारा ही लिये जाते रहे हैं, जिन पर निर्णय लेने का अधिकार नैतिक
रूप से महिलाओं को ही प्राप्त होना चाहिए था। जैसे-पुत्री का विवाह किसके साथ किया
जाए, यह निर्णय लेने का अधिकार प्रारम्भ से लेकर आज तक सामान्य परिवारों में पिता या
पिता की अनुपस्थिति में बड़े भाई या परिवार के किसी पुरुष सदस्य, ताऊ, चाचा आदि के
पास सुरक्षित है। बदलते हुए समाज के साथ इस स्थिति में परिवर्तन आया है। किन्तु 60 प्रतिशत
परिवारों में आज भी वही स्थिति विद्यमान है। इस प्रश्न जैसे और भी अनेक सामाजिक प्रश्न
है जिनके समाधान का अधिकार सिर्फ परिवार के पुरुषों या बुर्जुगों के पास सुरक्षित है। ऐसे
निर्णय में महिलाओं का योगदान प्रायः बहुत कम ही रहता है। विश्व के सभी क्षेत्रों और धर्मों
में पितृसत्तात्मक व्यवस्था आज भी लाग है और महिलाओं के सम्बन्ध में लगभग समान
दृष्टिकोण है। विश्व में जितने धर्म प्रचलित है, उन सभी धर्मों के अपने-अपने कानूनी प्रावधान
है, जैसे हिन्दू कानून, मुस्लिम शरियत, ईसाई कानून आदि। इन सभी धर्मों के कानूनों के अन्तर्गत
विवाह सम्बन्धी, तलाक, भरण-पोषण सम्बन्धी और सम्पति सम्बन्धी अधिकारों का स्पष्ट
उल्लेख किया गया है। सभी कानूनों में किये गये प्रावधानों के अन्तर्गत पुरुषों व महिलाओं
के बीच भेदभाव स्पष्ट दिखाई देता है। प्रत्येक धर्म में परिवार के मामलों में महिलाएँ से
संबंध प्रकरणों में शासकीय कानूनों से अधिक सामाजिक व्यवस्था के प्रावधानों को अधिक
महत्त्व दिया गया है। यदि हम इन अधिकारों व कर्तव्यों का अवलोकन करें तो पाते हैं कि
पुरुषों को दिए गए अधिकारों का पक्ष महिलाओं को दिए गए अधिकारों की तुलना में अधिक
मजबूत और भारी है। यदि यह कहा जाए कि महिलाएँ के हिस्से में सिर्फ कर्तव्य ही आये
हैं, अधिकार नहीं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
समाज द्वारा पुरुषों को दिए गए अधिकार―पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत पुरुषों
को जो अधिकार सौंपे गये हैं, वे निम्नांकित हैं―
(i) पुरुषों को स्वतंत्रतापूर्वक कहीं भी आने-जाने का अधिकार दिया गया है।
(ii) पुरुषों को परिवार का मुखिया कहलाने का अधिकार प्राप्त है। प्रत्येक सामाजिक
धार्मिक व्यवस्था में पिता की मृत्यु के बाद परिवार के ज्येष्ठ पुत्र को ही परिवार
का मुखिया बनने का अधिकार प्राप्त होता है।
(iii) पुरुष ही परिवार का मुखिया होने के नाते परिवार सम्बन्धी सभी निर्णय स्वतंत्रतापूर्वक
लेते हैं।
(iv) परिवार की सम्पूर्ण सम्पति पर पुरुषों का नियंत्रण रहता है। परिवार के पुरुष मुखिया
को राय के बिना परिवार की संपति में से कुछ भी परिवार के किसी सदस्य को
नहीं दिया जा सकता।
(v) परिवार का वंश मुखिया के नाम पर ही चलाया जाता है। यदि परिवार के मुखिया
की मृत्यु भी हो तो प्रायः यही कहा जाता है कि यह परिवार ‘अमुक’ का है।
समाज ने महिलाओं को भी समाज का सदस्य होने के नाते कुछ अधिकार प्रदान किए
हैं जैसे―
(i) परिवार के पुरुष मुखिया द्वारा निश्चित व्यक्ति से विवाह के पश्चात शारीरिक सम्बन्ध
बनाने की स्वतंत्रता।
(ii) विवाह के पश्चात माँ बनने का अधिकार।
समाज द्वारा पुरुषों व महिलाओं को सौंपे गये कर्त्तव्य― समाज ने समाज में रहने
वाले पुरुषों को कुछ कर्त्तव्य भी सौपें हैं, जो निम्नानुसार हैं―
(i) प्रत्येक परिवार के पुरुष मुखिया को यह कर्त्तव्य सौंपा गया है कि वह अपने परिवार
की सम्पूर्ण रूप से सुरक्षा का दायित्व संभाले।
(ii) सम्पूर्ण परिवार के भरण-पोषण की समुचित व्यवस्था करें।
(iii) घर के बाहर से किए जानेवाले सम्पूर्ण कार्य पूर्ण करने का दायित्व पुरुषों को ही
दिया गया है।
समाज ने समाज में निवास करने वाली महिलाओं को निम्नांकित कर्त्तव्य सौंपे हैं―
(i) एक महिला की परिवार के मुखिया की राय से किसी व्यक्ति के साथ विवाह होने
के बाद उस महिला का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह जीवन भर उस निश्चित
व्यक्ति को अपना ईश्वर माने और उसे हर संभव प्रयासों से प्रसन्न रखने का प्रयास करे।
(ii) परिवार के बुजुर्ग पुरुषों और महिलाएँ की सम्पूर्ण सेवा का दायित्व भी महिलाओं
को ही सौंपा गया है क्योंकि वे घर में ही रहती हैं।
महिलाओं
(iii) वंश को आगे बढ़ाने के लिए भी महिलाओं को बच्चा पैदा करने का कर्त्तव्य निभाना
पड़ता है। यदि कोई महिला पुत्र को जन्म नहीं दे पाती है तो परिवार के अन्य
सदस्य उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं।
(iv) परिवार की जो महिलाएँ किसी भी बच्चे को जन्म देने में असमर्थ रहती है उन्हें
बाँझ कहकर अपमानित किया जाता है और प्रातः काल उनका मुख देखना पाप
समझा जाता है।
(v) परिवार को नियोजित बनाए रखने का दायित्व भी सामान्यतः महिलाओं को ही सौंपा
जाता है, पुरुषों को इस दायित्व से सदैव मुक्त रखा जाता है।
(vi) परिवार में सम्पन्न किए जाने वाले समस्त सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों का
पालन करने का कर्त्तव्य भी महिलाओं को ही पूर्ण करना होता है।
(vii) परिवार के सम्पूर्ण घरेलू कार्य कुशलता के साथ पूर्ण करने का दायित्व भी महिलाओं
का ही हैं।
समाज ने समाज में रहने वाले पुरुषों व महिलाओं को जो अधिकार व कर्त्तव्य सौंपे हैं,
यदि समीक्षात्मक दृष्टि से उनका विवेचन किया जाए तो उनमें हमें भारी भेदभाव दिखाई पड़ता
है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में अनेक ऐसे प्रावधान हैं जो नैतिक सामाजिक व्यवस्था के पूर्णत:
अनुकूल हैं किन्तु फिर भी महिलाओं पर एक भारी अंकुश है। समाज में विधवा विवाह आज
भी हेय समझा जाता है। यदि कोई विधवा विवाह कर लेती हैं तो उसे दुष्चरित्र समझा जाता
है और हेय दृष्टि से देखा जाता है। उसके परिवारजन भी उससे सम्बन्ध रखने में संकोच
का अनुभव करते हैं। प्रायः शादी-शुदा लड़कियों से यह अपेक्षा की जाती है। इस प्रकार
पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक महिला का अपनी कोख पर भी कोई अधिकार नहीं रहता।
अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि महिला की कोख को भी पुरुष समाज द्वारा बनाए गए
नियमों के अनुरूप चलना पड़ता है।
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में धर्म
ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परिवार में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक सन्तान को यह पाठ
पढ़ाया जाता है कि इस परिवार के सर्वमान्य ‘पिताजी’ ही है, वही हमारे पालनकर्ता है, क्योंकि
उनके द्वारा किए जा रहे धनार्जन से ही परिवार का भरण-पोषण होता है। परिवार के पुरुष बुजुर्गों
की आज्ञाओं का पालन करना, उनका सभी दृष्टियों से सम्मान करना परिवार का धर्म बन गया ।
इस प्रकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था समाज के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान तक सार्वभौमिक पारिवारिक
व्यवस्था के रूप में सदैव विद्यमान रही है और पुरुष की शक्ति और सता को इस व्यवस्था
ने सदैव सशक्त और प्रबल बनाए रखने का प्रयास किया है। संक्षेप में यदि कहा दिया जाए
कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था हमारी संस्कृति बन गई है तो कोई गलत नहीं होगा।
प्रश्न 13. लिंग-भेद की अवधारणा की व्याख्या कीजिए। आधुनिक भारतीय समाज
में इसकी क्या स्थिति है ? स्पष्ट कीजिए।
अथवा, लिंग-भेद से आप क्या समझते हैं ? आधुनिक भारतीय समाज में इसके
स्वरुप की व्याख्या कीजिए।
उत्तर―पृथ्वी पर ईश्वर द्वारा उत्पन्न जीवों में सर्वश्रेष्ठ कृति और अभिव्यक्ति मानव
रूप में विद्यमान है और उसकी यह महान् कृति स्त्री एवं पुरुष दो रूपों में अभिव्यक्त
होती है। यही नहीं, इन दोनों में सम्पूर्ण रूप से समानता न होकर समाजशास्त्रीय विचारकों
के शब्दों में लैंगिक विषमता कहलाती है। इसी विषमता को लिंग-भेद के रूप में व्यक्त
किया जाता है।
लिंग-भेद का आशय―मानव की यह लैंगिक विषमता उसके सम्पूर्ण अस्तित्व का कारण
ही नहीं है, अपितु इसी आधार पर मानव की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की नींव भी
रखी हुई है। इसी लैंगिक विषमता ने ही पुरुषों एवं स्त्रियों में जैविक विशेषताओं के साथ-साथ
अन्य शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को न केवल जन्म दिया है,
अपितु उनको विकसित भी किया है। स्त्री एवं पुरुषों की इन व्यक्तिगत विशेषताओ ने ही
उनके व्यक्तिगत व्यवहारों के साथ-साथ उनके द्वारा निर्मित समाज के अन्तर्गत सामाजिक
व्यवहारों, सामाजिक क्रियाओं एवं सामाजिक घटनाओं को भी घटित होने का अवसर प्रदान
किया है और सामाजिक सम्बन्धों को भी विकसित किया है । इस सम्बन्ध में मैकाइवर एवं
पेज ने लिखा है कि, “सामाजिक सम्बन्धों का यह जाल ही मानव समाज कहलाता है।”
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि मानव समाज का अस्तित्व स्त्री-पुरुषों की इस लैंगिक विषमता
पर ही निर्भर है, जिन्होंने स्त्री एवं पुरुषों की अन्य विषमताओं को जन्म दिया है और जिसमें
मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति का विकास भी सम्भव हुआ है।
प्राचीन एवं नवीन समाजों एवं संस्कृतियों के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन करने से
इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इस लैंगिक विषमता ने ही स्त्री को वह क्षमता प्रदान की
जिसने न केवल मनुष्य को जन्म दिया अपितु मानव सभ्यता एवं संस्कृति के विकास को
भो जन्म देकर आगे बढ़ाया। यही नहीं, पुरुषों ने सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में नारी
को पूर्ण सहयोग भी दिया।
अतः स्पष्ट है कि पुरुषों एवं स्त्रियों की विभिन्न क्षमताओं, योग्यताओं, कार्यों तथा व्यवहार
सम्बन्धों में एक विशिष्ट अन्तर है और यह अन्तर ही उनमें पारस्परिक सहयोग बनकर समाज
के संगठन का कारण बना और जब-जब समय एवं परिस्थितियों से प्रभावित होकर इन
विषमताओं ने विरोध एवं संघर्ष का रूप धारण किया तब-तब मानव समाज का विघटन हुआ
और मानवीय संस्कृति का हास ही हुआ। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मानवीय सभ्यता एवं
संस्कृति के विकास के मूल में स्त्री एवं पुरुषों की यह लैंगिक विषमता ही है, जो विभिन्न
युगों के समय एवं कालजन्य परिस्थितियों से निरन्तर प्रभावित होती आई है और यह आज
भी आधुनिक रूप में वर्तमान समाज में विद्यमान है
आधुनिक समाज में लैंगिक विषमता का स्वरूप―आधुनिक युग में समाजशास्त्र के
विकास के साथ-साथ अनेक समाजशास्त्रियों ने स्त्रियों की आधुनिक समाज में वर्तमान
परिस्थितियों एवं वैचारिक क्षमताओं का मूल्यांकन करते हुए एक निष्कर्ष यह भी निकला है
कि “स्त्रियों ने ही सबसे पहले सभ्यता एवं संस्कृति की नींव डाली थी।” उनके इन अध्ययनों
का आधार स्त्री-पुरुषों में व्याप्त लैंगिक विषमता ही रही है, जो विभिन्न युगों एवं कालजन्य
परिस्थितियों से प्रभावित होकर आज के समाज के वर्तमान स्वरूप में विद्यमान है। वस्तुतः
स्त्रियों को विभिन्न योग्यताएँ एवं क्षमताएँ प्राचीन काल से ही मनुष्य की प्रधानता को प्रभावित
करती रही हैं और मानवीय समाज का स्वरूप पुरुष प्रधान समाज के रूप में प्रायः विकसित
हुआ है। यद्यपि मातृसत्तात्मक समाजों का भी विकास हुआ, किन्तु पितृसत्तात्मक समाज के
विकास को ही अधिकांश वृद्धि का अवसर मिला। यही कारण है कि अधिकांश रूप से
विश्व के विकसित समाज पितृसत्तात्मक समाज के रूप में ही विकसित हुए।
भारतीय समाज भी प्राचीन काल से पितृसत्तात्मक समाज के रूप में विकसित हुआ है,
जबकि स्त्रियों को भी इस समाज का आवश्यक अंग माना जाता रहा है, लेकिन यह नहीं
कहा जा सकता कि स्त्रियों को भी कभी पुरुषों के समान समझा गया होगा या पुरुषों के
समान ही उनको भी उन्नति के समान अवसर मिले होंगे । यही कारण है कि स्त्रियों की सामाजिक
स्थिति यदि प्राचीन काल से ही अच्छी थी तो मध्यकाल से निम्न स्तर को प्राप्त हो गई थी
और ब्रिटिश काल में भी भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति निम्न स्तर की ही बनी रही।
19वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से आरम्भ होकर जो भारतीय पुनर्जागरण
काल प्रारम्भ हुआ उसके प्रभाव से भारतीय नारी के उत्थान की ओर समाज का ध्यान गया
और स्वतंत्रता प्राप्त होते ही भारतीय सरकार द्वारा भारतीय नारी के उत्थान में न केवल पिछली
शताब्दी में किए गए सुधारों को आगे बढ़ाया गया अपितु भारतीय नारी को पुरुष के समान
ही संवैधानिक दर्जा देकर नारी कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न किए गए।
भारतीय समाज में लिंग-भेद की वर्तमान स्थिति—यद्यपि भारत सरकार ने लैंगिक
विषमता को दूर करने के अनेक प्रयास किए हैं, लेकिन आज भी पूर्ण रूप से स्त्रियों की
सामाजिक स्थिति पुरुषों के समान नहीं हुई है, क्योंकि स्त्रियों के साथ आज भी भेद-भावपूर्ण
व्यवहार, उनका शोषण, अपमान तथा प्रताड़ना आदि पुरुषों द्वारा व्यापक रूप से करना जारी
है। आधुनिक भारत के इस समाज में स्त्रियों के समानता सम्बन्धी विचारों को गंभीरता से
नहीं लिया जाता है । उनको आज भी पुरुषों से नीचा ही समझा जाता है। आज भी कार्यालयों
में अधिकारियों द्वारा स्त्रियों का शारीरिक एवं मानसिक शोषण किया जाता है। सार्वजनिक
स्थानों पर भी नारी का शोषण किया जाता है। आधुनिक भारत में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का
ज्ञान प्राप्त करने पर यह पता चलता है कि इनमें वही पक्ष प्रभावशाली होता है, जिसका व्यक्तित्व
सबल होता है। वास्तविकता यह है कि आधुनिक युग में भी स्त्रियों पर पुरुष अपना प्रभुत्व
जमाना चाहता है, लेकिन कुछ मामलों में स्त्री भी पुरुषों को नियंत्रित करती देखी गई है।
भारतीय संस्कृति के प्रारंभिक युग में पुरुषों ने महिलाओं पर सामूहिक नियंत्रण स्थापित
किया था और उन्हें अपने से निम्न स्तर प्रदान किया था। लेकिन जैसे-जैसे सभ्यता संस्कृति
का विकास हुआ वैसे-वैसे स्त्री की स्थिति में व्यापक परिवर्तन हुआ। यही कारण है कि
पिछले दशकों में भारतीय महिला आन्दोलनों को सामाजिक एवं राजनैतिक समानताओं की
प्रतिबद्धता द्वारा व्यापक रूप से प्रभावित किया गया था।
प्रत्येक काल में स्त्रियों के साथ भेदभाव का कारण उनमें व्याप्त लैंगिक विषमता ही
रहा है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि आज भारतीय महिलाएँ संसद में 33% आरक्षण
की माँग कर रही हैं लेकिन लैंगिक विषमता के कारण ही ‘महिला आरक्षण बिल’ पारित नहीं
हो पा रहा है और उनको आज का पुरुष प्रधान समाज सदैव गिराता रहा है।
प्रश्न 14. जेण्डर अस्मिता और समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में परिवार की
भूमिका का विस्तृत वर्णन करें।
उत्तर―मानव के समाजीकरण की प्रक्रिया बड़ी लम्बी एवं जटिल है। इस कार्य में अनेक
संस्थाओं एवं समूहों का योगदान होता है। ये संस्थाएं समय-समय पर विभिन्न वातें सिखाती
है। कभी तो ये दूसरे की पूरक एवं सहयोगी होती है तो कभी परस्पर स्वतंत्र एवं संघर्षकारी।
बच्चे का समाजीकरण करने में अनेक प्राथमिक संस्थाओं, जैसे–परिवार, पड़ोस, मित्र मंडली,
नातेदारी समूह तथा द्वैतीयक संस्थाओं जैसे विद्यालय, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक,
सांस्कृतिक एवं व्यावसायिक संगठनों, आदि का योगदान होता है। व्यक्ति इन संस्थाओं समूहों
से जितना अनुकूलन करता है, समाजीकरण भी उतना ही सफल माना जाता है।
समाजीकरण करनेवाली संस्थाओं में परिवार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि बालक परिवार
में ही जन्म लेता है और सर्वप्रथम परिवार के सदस्यों के ही सम्पर्क में आता है। समय और
महत्त्व की दृष्टि से परिवार समाजीकरण करनेवाली प्राथमिक संस्था है। बच्चा आदि मूल परिवार
का सदस्य है तो उसे चार प्रकार की भूमिकाओं का ज्ञान होता है। ये है पति-पत्नी, पुत्र-भाई
और पुत्री-बहन। चूँकि परिवार एक सार्वभौमिक संस्था है अत: विश्व के सभी समाजों में
समाजीकरण की यह आधारभूत संस्था है। जेल्डिच ने 56 समाजों का मानवशास्त्री अध्ययन
करके समाजीकरण में माता एवं पिता की भूमिका का पता लगाया। सभी समाजों में पिता ‘साधक
नेतृत्व’ और माता भावात्मक नेतृत्व प्रदान करत हा साधका नेता के रूप में पिता ही खेत एवं
व्यवसाय का मालिक होता है। सभी शिकायतें उसी के पास आती है। वही उनका निर्णय करता
है और बच्चों को दंड देता है, उन्हें अनुशासन एवं नियंत्रण में रखता है। परिवार में माता बच्चे
के लिए भावात्मक भूमिका निभाती है। वही परिवार में मध्यस्थता करती है, समझौता करने
का कार्य करती है और वैमनस्य को दूर करती है। माता का व्यवहार बच्चे के प्रति स्नेहमय,
घनिष्ठ, हितैषी और भावपूर्ण होता है। वह उदार एवं दंड न देनेवाली होती है। सभी समाजों
में पत्नी पति से भावात्मक दृष्टि से बढ़कर होती है। पुत्र सदेव पिता के समान और पूत्री माँ
के समान बनना चाहती है। इस प्रकार बच्चे पर माता-पिता का सर्वाधिक प्रभाव होता है।
परिवार के अन्य सदस्यों एवं भाई-बहनों का भी बच्चे से समाजीकरण पर गहरा प्रभाव
पड़ता है। सदस्यों के पारस्परिक प्रेम, त्याग, अधिकार, सहयोग सेवा, कर्तव्यनिष्ठा आदि से
बच्चे में भी सदगुण जन्म लेते हैं। परिवार में आय. लिंग एवं पद की दृष्टि से विभिन्न प्रकार
के व्यक्ति होते हैं जिसके सम्पर्क से बच्चा उनके आचरणों का अनुकरण करता है। वह माँ-बहन
तथा पिता-भाई में लिंग भेद होने से विषम लिगियों के प्रति समाज में प्रचलित व्यवहारों एवं
मूल्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार से परिवार में छोटों के प्रति अधिकारों का एवं छोटे बड़ों
के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं जिसे बच्चा भी ग्रहण करता है। परिवार का सहयोग
एवं भावात्मक पर्यावरण बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अनेक
महापुरुषों के उदाहरणों से स्पष्ट है कि उनके महान बनने में परिवार का प्रमुख हाथ रहा
है। परिवार में बच्चा जो सीखता है उसे पुनः गुड़िया के खेल के दौरान प्रकट करता है। माता-पिता
जब उसकी क्रियाओं को अनुरूप पाते हैं तो उसे स्नेह से पुरस्कृत करते हैं, पुरस्कार एवं दंड
के आधार पर बच्चा उचित एवं अनुचित में भेद करना सीखता है, उसमें नैतिकता का भाव
पैदा होता है और वह सही कार्यों को ग्रहण करता है। वह उसके जीवन को स्थायी पुंजी
होती है। परिवार के सदस्यों में से ही वह किसी को अपना आदर्श चुन लेता है और अपने
व्यवहार को उसी प्रकार बनाने का प्रयास करता है। भाषा का प्रयोग भी बच्चा परिवार में
ही सीखता है। परिवार में भिन्न-भिन्न स्वभाव एवं रुचि वाले व्यक्ति होते हैं, बच्चा सभी
के साथ अनुकूलन करना सीखता है। अनुकूलन के दौरान उसमें सहिष्णुता का गुण पैदा होता
है। परिवार में छोटा होने के कारण शिशु को दूसरों के व्यवहारों को सहन करना पड़ता है।
जिससे सहनशीलता पैदा होती है, जो एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक गुण है। उसे बड़ों के आज्ञा
का पालन करना पड़ता है। इससे उसमें आज्ञाकारिता का गुण पैदा होता है। परिवार में ही
बच्चा खान-पान, अभिवादन करने, पूजा-पाठ एवं आचरण के अन्य नियमों को सिखाता है।
पारिवारिक आदर्श और मूल्य बच्चे के भी आदर्श बन जाते हैं। परिवार ही उसे आदर्श नागरिकता
का पाठ पढ़ाता है। वही उसमें प्रेम, त्याग, बलिदान, दया, क्षमा, सहिष्णुता, आज्ञाकारिता,
अनुकूलन आदि गुण भरता है। अत: कहा जाता है कि परिवार शिशु की प्रथम पाठशाला है।
बच्चा परिवार की ही प्रतिरूप होता है। किन्तु परिवार का बच्चे के समाजीकरण पर विपरीत
प्रभाव भी पड़ता है। यदि परिवार विघटित है माता-पिता में अनबन एवं तनावपूर्ण सम्बन्ध
है, माता-पिता या भाई-बहन अपराधी व्यवहारों में संलग्न है तो बच्चे पर विपरीत प्रभाव पाड़ता
है। बाल-अपराध एवं अपराध से सम्बन्धित अनेक अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि
माता-पिता व भाई-बहन अपराधी है तो बच्चा उनसे अपराधी प्रवृत्ति शीघ्र सीख लेता है। कई
अपराधी विघटित परिवारों के सदस्य पाये गये जिन्हें बचपन में माता-पिता का स्नेह नहीं मिल
सका और जिनको शिक्षा-दीक्षा उचित प्रकार से नहीं हुई। टरमन का तो मत है कि केवल
वे ही बच्चे विवाह को सुखपूर्ण बना सकते हैं जिनके माता-पिता का पारिवारिक जीवन
सुखी था। असंयमी व झगड़ालू माता-पिता का बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पति-पत्नी
की एक-दूसरे के प्रति अनुदारता, घृणा अथवा असहयोग का बच्चों पर अस्वास्थ्यकर प्रभाव
पड़ता है। अधिक दण्ड देने पर बच्चे भयभीत, विरोधी एवं विद्रोही हो जाते हैं। अधिक स्नेह
से भी बच्चे बिगड़ जाते हैं। माता-पिता और परिवारजनों के सामाजिक-राजनीतिक और
आर्थिक
विचारों का भी बच्चे के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। दरिद्र व आर्थिक दृष्टि से असुरक्षित
परिवार में व्यक्ति घुटन व वेदना महसूस करता है। संक्षेप में परिवार का परिवेश वालक के
व्यक्तित्व निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसके विचारों, दृष्टिकोणों, आदर्शों एवं मूल्यों पर
परिवार की छाप अमिट होती है। यही कारण है कि व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार की
भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है।