F-6

शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य

शिक्षा में जेण्डर एवं समावेशी परिप्रेक्ष्य

प्रश्न 15.लैंगिक भूमिकाओं के निर्धारण में परिवारों की भूमिका की चर्चा करें।
उत्तर― विद्वानों ने परिवार को मानव-जाति के आत्म संरक्षण, वंशवर्धन और जातीय जीवन
के सातत्व की निरन्तरता बनाये रखने का प्रमुख साधन माना है और मानव जीवन का सबसे
सुखद एवं संतोषप्रद आश्रय भी परिवार को हो कहा है। परिवार के अस्तित्व के अभाव में
समाज का अस्तित्व ही असम्भव है क्योंकि परिवार में हो व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक
और नैतिक मनोबल प्राप्त होता है। मनुष्य के सामाजिक जीवन को आधारशिला भी परिवार
ही है। परिवार को मानव समाज का अत्यंत महत्त्वपूर्ण समूह भी माना जाता है। यही नहीं
यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समिति तथा एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्था भी मानी गयी है।
     भारत में हिन्दू परिवार का ढाँचा सदैव मूलक रहा है जिनमें प्रथाओं एवं परम्पराओं को
महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। हिन्दू-परिवारों में अधिकतर भावना प्रधान परिवार होते हैं और
पारिवारिक सम्बन्ध आदर्श मूल्यों से ओत-प्रोत होते हैं जैसे—पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध,
पिता-पुत्र के बीच सम्बन्ध, भाई-बहन के सम्बन्ध आदि सभी सामाजिक मूल्यों के संवाहक
होते हैं।
      हिन्दू परिवारों की प्रमुख विशेषताएँ―हिन्दू परिवार की प्रमुख विशेषताएँ इस
प्रकार हैं―
(i) हिन्दू परिवार में विवाह को जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध माना जाता है और विवाह
को परिवार का अनिवार्य अंग माना जाता है।
(ii) हिन्दू परिवार में संयुक्त परिवार प्रथा का प्रचलन है।
(iii) हिन्दू परिवार में अतिथि सत्कार को प्रमुख स्थान दिया गया है। अतिथि की देवता
से तुलना की जाती है।
(iv) हिन्दू परिवार के सभी सदस्य कर्त्तव्यपरायण होते हैं।
(v) हिन्दू परिवार में शास्त्रीय नियमों की अधिकता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य को
व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से इन शास्त्रीय नियमों का पालन करना होता है।
(vi) परिवार के सभी सदस्यों का बन्धन भावनात्मक होता है।
(vii) हिन्दू परिवार के सभी सदस्यों को उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साधन में समुचित
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अवसर प्राप्त होता है।
(viii) हिन्दू परिवारों में स्त्रियों को विशेष स्थान दिया गया है।
(ix) हिन्दू परिवारों का प्रमुख आधार धर्म तथा आध्यात्मिकता को माना गया है, भोग
और भौतिकता को नहीं।
(x) हिन्दू परिवार में प्रेम एवं सदभावना का बोलबाला रहता है।
अतः हिन्दू परिवार एक सुव्यवस्थित संगठन माना जाता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के
कार्य-क्षेत्र एवं अधिकार को निश्चिताकया गया हलोकन अनेक सामाजिक कुप्रथाओं के
कारण नारी की दैवीय स्थिति दासी की स्थिति में बदल गयी है। यदि परिवार में महिला को
इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है तो परिवारों से मिलकर जो संगठन समाज के नाम से बनता
है उसमें भी नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान स्वत: ही प्राप्त हो जाना चाहिए।
प्रश्न 16. जेण्डर अस्मिता और समाजीकरण की प्रक्रिया में मीडिया की भूमिका
का वर्णन करें।
      अथवा, ‘समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका जनसंचार के संदर्भ में।’
इस कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर―समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका जनसंचार के संदर्भ में―
वर्तमान युग सूचना और प्रौद्योगिक का है जिसकी प्रमुख देन सूचनाओं के प्रेक्षण में जनसंचार
के साधनों का आगमन है। जनसंचार के साधनों का महत्त्व किसी एक क्षेत्र तथा स्थान विशेष
या व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं रह गया है, अपतुि इन साधनों ने सम्पूर्ण विश्व के व्यक्तियों
को परिवार की भाँति साथ-साथ खड़ा कर दिया है। जनसंचार के साधनों का शिक्षा की
दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि इसके द्वारा कम व्यय और समय में सूचनाओं तथा ज्ञान
का आदान-प्रदान दूर-दराज के लोगों तक किया जाना सम्भव हो रहा है। जनसंचार दो शब्दों
से मिलकर बना है।
             ‘जन’ + ‘संचार’ = लोगों के मध्य आदान-प्रदान करने वाला अभिकरण ।
अंग्रेजी में जनसंचार को ‘Mass Media’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है।
सामान्यतः जनसंचार से तात्पर्य ऐसे अभिकरण से है जिसके द्वारा विविध प्रकार की
सूचनाओं का आदान-प्रदान दूर-दूर स्थित लोगों के साथ किया जाता है। जनसंचार के विषय
में कुछ परिभाषाएँ दृष्टव्य हैं―
        सूरी के अनुसार, “संचार सूचना, आदर्शों एवं अभिवृत्तियों का एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति
तक पहुँचाने की कला संचार है।”
       डॉ. गाकुलचन्द्र पाण्डेय के अनुसार, “संचार सूचना व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप से
सूचनाओं का प्रेषण एवं एकीकरण है।”
         जनसंचार के साधनों की विशेषताएं निम्न प्रकार हैं―
(i) सूचनाओं तथा ज्ञान के आदान-प्रदान में सहायक ।
(ii) देश को, धर्म को, जाति को तथा लिंगीय भेदभावों की सीमा से परे ।
(iii) इसके अन्तर्गत सूचनाओं का प्रेक्षण तथा स्वीकरण दोनों आता है।
(iv) एक साथ विशाल जनसमूह से अन्त:क्रिया तथा सूचनाओं का आदान-प्रदान ।
(v) सूचना के साथ-साथ जन-जागरूकता लाने की विशेषतायुक्त ।
समाज तथा समाजीकरण में लिंग की भूमिका के सशक्तीकरण के साधन के रूप
में जनसंचार के कार्य तथा भूमिका―जनसंचार के साधनों से कोई भी क्षेत्र तथा समस्या
अछूती नहीं है, अपितु इन साधनों ने दीन-हीन व्यक्तियों, पिछड़ी जातियों, अक्षमतायुक्त तथा
हाशिये पर खड़े लोगों की शिक्षा हेतु व्यापक प्रचार-प्रचार तथा कार्यक्रम तैयार कर उनको
समानान्तर धारा में लाने के लिए प्रयास किये हैं और ये प्रयास अविराम गति से चल रहे
हैं। हम यह भली प्रकार जानते हैं कि लिंग अर्थात् लड़का-लड़की के आधार पर भेदभाव,
ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित सभी व्यक्तियों में व्याप्त है, क्योंकि यह हमारी
मानसिकता बन चुकी है कि अगर कुछ भी लेना-देना हो या न हो, बेटी के जन्म की बात
सुनते ही अनजान व्यक्तियों के चेहरे पर भी उदासी आ जाती है। ऐसे समाज में सहज ही
परिकल्पना की जा सकती है कि लड़कियों को सुदृढ़ता और सशक्तीकरण की क्या स्थिति
होगी। समाजीकरण तो समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का होता है, परन्तु स्त्री-पुरुष के
समाजीकरण में लैंगिक भेदभाव का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। वर्तमान में सरकार
द्वारा प्रायोजित तथा नैतिक सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए जनसंचार के साधन
जागरूकता लाकर लैंगिक भेदभावों को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। इस दिशा में जनसंचार
के साधनों के कार्यों तथा भूमिका का संक्षिप्त लेखा-जोखा निम्न प्रकार है―
(i) मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान प्रदान करना।
(ii) स्त्रियों के लिए विशेष कार्यक्रमों का प्रसारण तथा मुद्रित साधन अलग से स्तम्भ
प्रकाशित करते हैं।
(iii) स्त्री संवाद के द्वारा स्त्रियों की समस्याओं से लोगों को अवगत कराकर उनके प्रति
संवेदना जागृत करने का कार्य।
(iv) स्त्रियों के प्रति हो रहे अपराधों से सम्बन्धित खबरों और स्थलों तथा अपराधियों
को चिह्नित कर सावधान करना, जिससे महिलाओं का सशक्तीकरण और समाजीकरण
हो रहा है।
(v) लैंगिक दुर्व्यवहार, घेरलू हिंसा, लिंगीय असमानता आदि से सम्बोधित खवरों और
उनके लिए बनाए गए कानूनी प्रावधानों से लोगों को अवगत कराकर स्त्रियों की
समाजीकरण की गति को तीव्र करना।
(vi) जनसंचार के साधनों के पास विशाल जन-समूह की ताकत होती है, अतः यह
किसी भी प्रकार के लैंगिक असमानतापूर्ण व्यवहार और हिंसा से न्याय प्रदान करने
में दबाव बनाता है, जिससे इनसे दबंगों और असामाजिक तथा स्त्रियों के अधिकारों
का हनन करने वाले डरते हैं।
(vii) ये माध्यम स्त्री शिक्षा के महत्त्व और सरकार द्वारा किए गए प्रावधानों से लोगों
को अवगत कराते हैं जिससे इनका समाजीकरण और सशक्तकीरण होता है।
(viii) ये माध्यम शिखर पर पहुँचने वाली महिलाओं के जीवन, कार्यों, संघर्ष तथा परिवार
के साथ को दिखाते हैं जिससे अन्य लोग प्रेरणा ग्रहण कर इनकी सुदृढ़ता और
समाज में सम्मान दिलाने हेतु आगे आते हैं।
(ix) बालिकाओं तथा स्त्रियों में ये साधान लेखों, कहानियों, कविता, खबर, कथा,
डॉक्यूमेण्ट्री, धारावाहिक आदि के द्वारा उत्साह भरते हैं जिससे उनमें हीन
मनोवैज्ञानिकता का अन्त होता है और आत्मविश्वास जागृत होता है।
(x) महिलाओं को उनके अधिकारों तथा स्वतंत्रता से परिचित कराते हैं जिससे वे
समाजीकरण में सक्रिय भूमिका निभाकर अपने सशक्तीकरण की राह तय करती हैं।
(xi) जनसंचार के साधनों द्वारा लैंगिक मुद्दों पर खुली बहस तथा परिचर्चा का आयोजन
किया जाता है जिससे जागरूकता आती है।
(xii) जनसंचार के साधन सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलन्द करते हैं जिससे
भी लिंगीय सशक्तीकरण तथा समाजीकरण में वृद्धि होती है।
(xiii) जनसंचार के साधनों द्वारा समय-समय पर घटते लिंगानुपात तथा उससे उत्पन्न होने
वाली समस्याओं से अवगत कराया जाता है। आंकड़ों का प्रस्तुतीकरण किया जाता
है। इससे भी जन-जागरूकता आती हैं तथा लिंगीय सुदृढ़ता और उनके समाजीकरण
में सहायता प्राप्त होती है।
प्रश्न 17. शिक्षक की परिवर्तनकारी एवं जेण्डर संवेदनशील भूमिका को रेखांकित करें।
उत्तर―शिक्षक चुनौतीपूर्ण लिंग की समानता और उनकी भूमिका के सशक्तीकरण में
महत्वपूर्ण है। शिक्षक शिक्षा के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्रभावी है। यह बात शिक्षा
की ‘द्विमुखी’ और ‘त्रिमुखी प्रक्रिया के द्वारा भी प्रमाणित होती है।
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उपर्युक्त द्विमुखी तथा त्रिमुखी प्रक्रिया के अन्तर्गत शिक्षक का स्थान महत्वपूर्ण रूप में
देखा जा सकता है। शिक्षा प्रदान करने में शिक्षक का स्थान सर्वोपरि है क्योंकि यदि शिक्षक
नहीं होगा तो पाठ्यक्रम चाहे जितना भी प्रभावी हो,वह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में कभी
सफल नहीं हो सकता। लिंग के प्रति असमानतापूर्ण व्यवहार वर्षों से चला आ रहा है। यह
शिक्षक का परम कर्त्तव्य है और उनसे यह अपेक्षा है कि वह विद्यालयी वातावरण को असमानता
से मुक्त करें।
          शिक्षक विद्यार्थियों के लिए role model होता है। यदि वह स्वयं भी स्त्रियों के प्रति
आदर और सम्मान का भाव रखता है तो वह छात्रों के समक्ष आदर्श स्थापित कर पायेगा
और विद्यार्थीगण उसका अनुकरण करेंगे । शिक्षक का दृष्टिकोण व्यापक तथा उदार होना चाहिए
तभी वह लिंगीय पक्षपात से दूर होगा और लिंगीय समानता को सुनिश्चित कर सकेंगा।
     शिक्षकों को पाठ्यसहगामी क्रियाओं के आयोजन तथा सामूहिक क्रियाकलापों पर अत्यधिक
बल देना चाहिए । इससे छात्र-छात्राएँ साथ-साथ कार्य करेंगे और एक-दूसरे के गुणों से परिचित
होंगे। शिक्षकों से अपेक्षा है कि वे जेण्डर पक्षपात की हानियों से अवगत करायें और बतायें
कि जेण्डर समानता कैसे स्थापित हो सकती है। लिंग की समानता के प्रभावी भूमिका के
निर्वहन हेतु समाज से सहयोग लेना चाहिए। शिक्षक को शिक्षक कार्य का सम्पादन केवल
नौकरी करने के भाव के कारण ही नहीं करना चाहिए अपितु राष्ट्र-निर्माण और आदर्श नागरिकों
के विकास के लिए भी किया जाना चाहिए । शिक्षकों को लिंग की समानता एवं सम्बन्धित
कानूनी प्रावधानों से परिचित कराया जाना चाहिए। शिक्षक का भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में
अटूट विश्वास होना चाहिए और उनका आधार भी जनतांत्रिक होनी चाहिए। इससे किसी
भी तरह का भेदभाव और असमानता नहीं होगी। शिक्षकों को बालकों की भाँति बालिकाओं
में भी नेतृत्व क्षमता का विकास करना चाहिए। शिक्षक को लिंग की समानता और सकारात्मक
भूमिका के प्रस्तुतीकरण के लिए जागरूकता लानी चाहिए।
         शिक्षक का यह परम कर्त्तव्य है कि वह प्रयासरत रहें कि विद्यालय में किसी भी आधार
पर भेदभाव और पक्षपात नहीं रहे तथा बालकों में सामूहिकता की भावना का विकास हो।
सहशिक्षा के द्वारा बालकों तथा बालिकाओं के मन में प्रारम्भ से ही स्वस्थ दृष्टिकोण, सहयोग
और आदर की प्रवृत्ति का विकास होता है। शिक्षकगण यह प्रयास करते हैं कि विद्यालय
में प्रेम तथा भ्रातृत्व आदि गुणों का विकास किया जाये और विद्यार्थियों में सामूहिकता की
भावना विकसित किया जाये।
      लिंगीय आधार पर शिक्षक को टीका-टिप्पणी और भेदभाव नहीं करना चाहिए और यही
सीख बालकों को भी देनी चाहिए। यौन जीवन की मूल प्रक्रियाओं की विषयों जानकारी प्रदान
करनी चाहिए। पाठ्यक्रम में प्रजनन तथा शरीर विज्ञानादि के ज्ञान को सम्मिलित किया जाता
है, अतः शिक्षक को प्रभावपूर्ण ज्ञान प्रदान करना चाहिए। बालक तथा बालिकाओं के साथ
समान व्यवहार करना चाहिए तथा समानतापूर्ण व्यवहार को सीख देनी चाहिए ताकि परस्पर
सहयोग की भावना विकसित हो सके । लिंगीयहीनता बोधक व्यवहार तथा शब्दावली का प्रयोग
नहीं करना चाहिए।
     विद्यार्थियों में स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए तथा खेलकूद को समुचित
व्यवस्था की जानी चाहिए। बालक-बालिकाओं में अन्त:क्रिया तथा सहयोग को प्रोत्साहन दिया
आना चाहिए । शरीर विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ यौन विषयी प्रश्नों के उत्तर तथा समस्याओं
के समाधानों का प्रस्तुतीकरण किया जाना चाहिए । पुरुपत्व तथा स्त्रीत्व का समुचित निर्देशन
होना चाहिए । कार्यशालाओं, प्रश्नोत्तर तथा अन्य मनोरंजनात्मक क्रियाओं द्वारा ज्ञान प्रदान करना
चाहिए। आत्मसंयम की प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए। यौन सम्बन्धों में स्वच्छा नहीं अपितु
उत्तरदायित्व का बोध हो, यह सिखाना चाहिए। यौन सम्बन्ध, विचार और भारतीय समाज
की मान्यताओं से अवगत कराना चाहिए।
    बालिकाओं के प्रति अभद्र व्यवहार एवं आचरण तथा भाषायी प्रयोग न करने की सीख
देनी चाहिए। विवाह तथा परिवार के महत्त्व से अवगत कराना चाहिए।
        शिक्षक को मनोवैज्ञानिकता का ज्ञान आवश्यक हो तथा उनका सन्तुलित व्यक्तित्व होना
चाहिए। शिक्षक में नेतृत्व की क्षमता उच्च शैक्षिक पृष्ठभूमि तथा योग्यता, व्यक्तिगत समायोजन
तथा वृत्तिक समर्पण का होना भी नितान्त आवश्यक है। शिक्षक का अच्छा स्वास्थ्य, निष्ठावान,
उत्तरदायित्व के बोध से युक्त तथा नैतिक आचरण वाला होना भी जरूरी है। शिक्षक को
प्रभावी निर्देशन तथा परामर्श हेतु अन्य अभिकरणों के साथ तालमेल स्थापित करना चाहिए।
उचित प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए । कार्यशालाओं इत्यादि
के आयोजन द्वारा समय-समय शिक्षकों को प्रभावी निर्देशन तथा परामर्श के लिए नए तरीकों
से अवगत कराना चाहिए। इस सम्बन्ध में शिक्षक को जेण्डर संवेदनशील होना चाहिए तथा
इस हेतु भावी शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे सकारात्मक लैंगिक झुकाव
और यौन व्यवहारों को नियंत्रित करने की क्षमता का विकास किया जा सके।
प्रश्न 18. स्वतंत्र भारत में, लैंगिक विषमताओं को कम करने के लिए क्या प्रयास
किए गए हैं?
अथवा, आधुनिक भारत में लैंगिक समानता की स्थिति का उल्लेख कीजिए।
उत्तर―आधुनिक भारत में लैंगिक समानता पर हाल ही में श्री चतरसिंह मेहता द्वारा
प्रकाशित लेख, ‘मानव विकास और महिलाएँ’ महत्त्वपूर्ण है । श्री सिंह ने लिखा है कि, “विश्व
में लगभग आधी आबादी महिलाओं की है, पर उन्हें पुरुषों के समान अवसर प्राप्त नहीं हैं।
विश्व के गरीबों में 70% और निरक्षरों में दो-तिहाई महिलाएं ही हैं। वे केवल 14 प्रतिशत
प्रशासनिक पदों पर हैं और 10 प्रतिशत संसद विधानसभा सदस्य हैं। कानूनी दृष्टि से यह
असमानता है। उन्हें पुरुषों से अधिक समय काम करना पड़ता है और उनके अधिकांश कार्य
की कोई कीमत ही नहीं आंकी जाती।”
     सन् 1990 में यू. एन. डी. पी. द्वारा प्रकाशित ‘ह्युमन डवलपमेन्ट रिपोर्ट’ ने व्यक्ति को,
विशेष रूप से महिलाओं को विकास के क्षेत्र में लाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
इस रिपोर्ट में 174 देशों के मानव संसाधन विकास के विभिन्न पहलुओं पर तथ्यात्मक सूचना
देकर देशों को वरीयता में प्रस्तुत किया गया है और पहली बार लिंग आधारित विकास सूचकांक
भी प्रस्तुत किया है। इनमें विभिन्न महत्त्वपूर्ण बिन्दु उजागर हुए हैं।
     (A) भारत में लैंगिक विषमताएँ―भारत में विभिन्न स्तरों पर विद्यमान लैंगिक विषमताएँ
इस प्रकार हैं―
         (1) महिलाओं के साथ कानूनी भेदभाव एवं अत्याचार―विश्व में महिला व पुरुष
के मध्य अन्य मुख्य असमानता का कारण, समाज में महिलाओं का निम्न स्तर माना गया
है, जिसमें वैधानिक भेदभाव और महिलाओं के प्रति अत्याचार एवं हिंसा को भी सम्मिलित
किया गया है। महिलाओं के अधिकार एवं भेदभाव की समाप्ति हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ के
द्वारा 1979 में एक वार्टर जारी किया गया था, परन्तु अभी तक 41 सदस्य देशों के द्वारा
इस पर हस्ताक्षर तक नहीं किए गए हैं, केवल 6 ने हस्ताक्षर तो किए हैं, परन्तु इसका अनुमोदन
तक नहीं किया है तथा 43 ने यह अनुमोदन कुछ शतों के साथ किया है। इस प्रकार 90
देशों में महिला समानता के सभी पहलुओं को स्वीकार नहीं किया गया और न ही उनका
परित्याग किया गया है।
          (2) महिलाओं की आय की गणना का अभाव―विश्व में, महिलाओं की आय बहुत
कम आंकी जाती है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि महिलाओं की आय लगभग 11 लाख
करोड़ डॉलर का काम अंकन होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि लगाया गया पुरुषों
से महिलाओं को अधिक समय काम करना पड़ता है। वास्तविक स्थिति यह है कि औद्योगिक
देशों में पुरुष का 2/3 समय आय वाले कामों में लगता है और 1/3 समय बिना आय के
कामों में लगता है जबकि महिलाओं की स्थिति इससे बिल्कुल विपरीत होती है। इसी प्रकार
विकासशील देशों में पुरुषों का 3/4 समय आय वाले कामों में लगाया है, जबकि महिलाओं
का अधिकांश या सारा ही समय घर के कार्यों एवं बच्चों का लालन-पालन में, जिसका कोई
मूल्य नहीं लगाया जाता। यदि बिना मूल्य के कार्य को भी आय में परिवर्तित कर लिया जाये,
तो महिलाओं की आय पुरुषों की आय से ज्यादा अथवा उनके समान हो हो तो जाएगी।
ऐसा करने से परम्परा से चली आ रही मान्यताओं में थोड़ा अन्तर तो आएगा, परन्तु सम्पत्ति
के अधिकार, तलाक से समझौते और बैंक के ऋणों के लिए साक्ष्य आदि क्षेत्रों में व्यापक
परिवर्तन आएगा। महिलाओं की इस अदृश्य आय को आँकड़ों में परिवर्तित किए जाने पर
राष्ट्रीय नीतियाँ भी प्रभावित होंगी जिससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।
        (3) आर्थिक क्षेत्र में धीमी गति के कारण लैंगिक असमानता–विश्व में यद्यपि शिक्षा
एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की सुविधाओं का विस्तार काफी तेजी से हुआ है,
परन्तु महिला आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति बहुत धीमी है। आज भी सम्पूर्ण विश्व
में 130 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं, जिनमें 70 प्रतिशत महिलाएँ
हैं। यह प्रतिशत श्रम-बाजार और परिवार में उनको निम्न स्थिति के कारण है। यद्यपि महिलाओं
को साक्षरता दर में दो-तिहाई की वृद्धि हुई है, फिर भी श्रमिकों में इनकी वृद्धि केवल 4
प्रतिशत ही हुई है। बैंकों से भी उन्हें बहुत कम संख्या पर ऋण दिया जाता है, क्योंकि ऋणाधार
के लिए कोई सम्पत्ति उनके नाम ही नहीं होती है। 55 देशों से जो तथ्य उपलब्ध हुए है,
उनके अनुसार, महिलाओं को मजदूरी पुरुषों की तुलना में तीन-चौथाई राशि ही दी जाती है
जबकि सभी स्थानों पर महिलाएं अधिक संख्या में बेरोजगार होती हैं। इन 55 देशों में कोई
भी महिला संसद सदस्य नहीं है और है भी तो केवल 5 प्रतिशत से कम । इन विकसित
देशों में गरीव देश भी है, जैसे भूयन और इथियोपिया, और उच्च आय वाले भी हैं, जैसे―ग्रीस,
कुवैत, कोरिया, गणतंत्र और सिंगापुर आदि। इन सभी देशों में लैंगिक समानता अवश्य ही
अब भी विद्यमान है।
           महिला-शक्ति-माप―मानव विज्ञान में मानव-विकास सूचकांक के अन्तर्गत पहली बार
महिला-शक्ति-माप (जेन्डर एम्पावरमेंट मेजर) निर्धारित किया गया है और
महिला-विकास-सूचकांक (जेन्डर डवलपमेन्ट इन्डेक्स) में महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और
जीवन-स्तर को सम्मिलित किया गया है, वहाँ महिला शक्ति-माप में महिलाओं की राजनीतिक
जीवन में होने वाली भागीदारी और व्यवसायों में उनके स्तर और आय को भी सम्मिलित
कर मापा जाता है। इसके अतिरिक्त, इन मापों में महिलाओं की परिवार एवं समुदाय के
निर्णयों में भागीदारी को भी शामिल किया जा सकता था, परन्तु ‘मानव विकास रिपोर्ट, 1995
में इस माप में केवल तीन मानदण्ड ही सम्मिलित किए गए हैं। रिपोर्ट में विश्व के भारत
सहित 116 देशों की स्थिति प्रस्तुत की गयी है। बाल्टिक सागर के देश, जैसे–स्वीडन, नार्वे,
फिनलैण्ड और डेनमार्क महिला-शक्ति-माप में संसार में सबसे ऊँची स्थिति में हैं, जबकि
इसके अन्तर्गत भारत का 116 देशों में 101वाँ स्थान है। अभी कुछ समय पूर्व ही पंचायती
राज संस्थाओं में भी 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित कर देने से भी निश्चय
ही महिलाओं की भारत में स्थिति में पर्याप्त हुआ है और अब संसद में भी 33% आरक्षण
की माँग की जा रही है।
          (4) महिलाओं को सर्वत्र असमान अवसर-प्राप्ति-भारतीय समाज में महिलाओं की
पुरुषों के समान अवसर प्राप्त नहीं हैं। महिला और पुरुषों दोनों में प्रकृति द्वारा ज्ञान, व्यवहार,
प्रकृति आदि आवश्यक स्थितियों में परिवर्तन हुआ है। पुरुष ही लैंगिक समानता में मुख्य
भूमिका निभाता है। लगभग सभी समाजों में पुरुष जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना निर्णय
सर्वोपरि रखता है। अतः इसमें यह आवश्यक है कि महिला-पुरुष में लैंगिक समानता पर
आपसी समझ एवं संयुक्त सहयोग की भावना हो । वस्तुतः पुरुष को ऐसी ही जिम्मेदारी महिला
को भी सौंपनी चाहिए कि महिला-पुरुष जीवन साथी के रूप में निजी एवं सार्वजनिक जीवन
में भी एक समान है। इससे लैंगिक समानता में सुधार होगा तथा परिवार एवं सामाजिक जीवन
के आनन्द में वृद्धि होगी। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि विश्व के सभी देशों में लैंगिक समानता
पर सुधार कार्य नहीं किया जा रहा है।
              (5) अत्यधिक प्रयासों के बावजूद समानता दूर नहीं― विश्व में यद्यपि हर देश ने
महिलाओं की स्थिति सुधारने के भरपूर प्रयास किए हैं, परन्तु अभी भी इन देशों में काफी
अधिक असमानता विद्यमान है। यद्यपि शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में पिछले दशकों में पुरुष
महिला असमानता में काफी कमी आयो है, किन्तु यह प्रगति कई क्षेत्रों और देशों में समानता
नहीं रखती । अध्ययन के अनुसार पिछले दो दशकों में महिलाओं की औसत आय पुरुषों की
तुलना में 20 प्रतिशत बढ़ी है। महिला स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली जन्म-दर भी प्रति
महिला 1970-75 में जो 4.7 थी, किन्तु सन् 1990-95 में 3.0 हो गयी हैं इसी प्रकार 1980
में लगभग चौथाई दम्पत्ति गर्भनिरोधक साधनों का उपयोग करते थे, किन्तु उनकी संख्या 1990
में आधी हो गयी थी। इसके अतिरिक्त विकासशील देशों में भी महिला साक्षरता 1970 व
1990 के बीच दुगुनी हो गयी थी। महिलाओं की साक्षरता एवं बालिकाओं की स्कूल जाने
की संख्या 1970 से 1990 तक दुगनी हो गयी है और जो पुरुषों की वृद्धि से काफी अधिक
है। विकासशील देशों में भी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में छात्राओं की संख्या 1970
में पुरुषों से आधी जनसंख्या महिलाओं की थी, जो 2002 में 75 प्रतिशत तक हो गयी थी।
32 देशों में तो महिलाओं की संख्या पुरुषों से उच्च शिक्षा में काफी अधिक हो गयी है।
इस प्रकार लैंगिक समानता में समानता का कोई लक्षण दिखायी नहीं दिया।
        (6) लैंगिक असमानता और राष्ट्रीय आय–विश्व में प्रायः आय महिला-पुरुष लैंगिक
समानता के लिए महत्त्वपूर्ण घटक माने गए हैं। विश्व के कई गरीब देशों द्वारा महिला साक्षरता
दर में वृद्धि करने में सफलता प्राप्त की गयी है। वर्तमान आय कम होते हुए भी राजनीतिक
प्रतिबद्धता के कारण ही चीन, श्रीलंका और जिम्बाब्वे में महिला साक्षरता दर 70 प्रतिशत से
अधिक प्राप्त कर ली है। यदि मानव-विकास सूचकांक की तुलना आय स्तर से की जाए
हो ज्ञात होगा कि महिला असमानता दूर करने के लिए उच्च आय का होना आवश्यक नहीं
है। प्रमाणस्वरूप चीन का महिला-विकास-सूचकांक सऊदी अरब से 10 क्रमांक ऊपर है,
जबकि चीन की प्रति व्यक्ति आय सऊदी अरब का केवल पाँचवाँ भाग ही है। इसी प्रकार
थाईलैण्ड स्पेन से महिला-विकास-सूचकांक में सबसे ऊँचा है, जबकि आय केवल आधी
ही है। सीरिया और पोलैण्ड की आय लगभग समान है, पर पोलैण्ड का महिला विकास
सूचकांक सीरिया से 50 क्रम ऊपर ही है।
समाज में महिलाओं के प्रति मानसिक एवं शारीरिक हिंसा जन्म से मृत्यु तक समान
रूप से होती रहती है। कुछ देशों में तो गर्भ में ही लिंग की जाँच कर ली जाती है और
यदि स्त्रीलिंग है, तो गर्भपात कराना आवश्यक रूप से करा दिया जाता है। जागरूकता के
कारण ही अब भारत में यह अपराध की श्रेणी में गिना जाता है। यही नहीं कनाडा, नीदरलैण्ड,
न्यूजीलैण्ड, नार्वे, और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों में एक-तिहाइ बाच्चियों एवं
किशोरियों के साथ यौन दुर्व्यवहार किया जाता है। इसी प्रकार एशिया में अनुमानतः 10 लाख
बालिकाओं को जबरन वेश्यावृत्ति के लिए प्रेरित किया जाता है। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ
है कि चिली, मैक्सिको, पापुओ, न्यूगिनी और कोरियाई आदि देशों में गणतंत्र में दो-तिहाई
विवाहित युवतियों के साथ परिवार में हिंसात्मक व्यवहार किया जाता है। एक सर्वे के अनुसार,
जर्मनी में अनुमानतः चालीस लाख महिलाएँ इस प्रकार की हिंसा का शिकार होती हैं। एक
अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ है कि कनाडा, न्यूजीलैण्ड, ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका
में 6 में से एक महिला के साथ जीवन में एक बार बलात्कार अवश्य होता है। महिलाओं
की जितनी भी हत्यायें होती हैं, उनमें बांग्लादेश, ब्राजील, कीनिया, पापुआ, न्यूगिनी और
थाईलैण्ड आदि देशों में आधी से भी अधिक महिलाओं की हत्या वर्तमान या भूतपूर्व पतियों
द्वारा की जाती है। महिलाओं की आत्महत्या का अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और संयुक्त राज्य
अमेरिका जैसे देशों में सबसे बड़ा कारण वैवाहिक झगड़े एवं घरेलू हिंसा होती है।
         (B) भारत में लैंगिक विषमताएँ कम करने के लिए प्रयास–विश्व में महिलाओं की
स्थिति सुधारने हेतु एक रिपोर्ट में निम्नांकित पाँच सूत्री कार्यक्रम प्रस्तावित किए गए हैं―
         (1) राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरुषों एवं विशेषकर महिलाओं के लिए आर्थिक
एवं राजनीतिक क्षेत्र में अवसर बढ़ाने के लिए प्रयल किए जाने चाहिए । कोपनहेगन में सामाजिक
शिखर सम्मेलन महिलाओं के सम्बन्ध के विषय में सिफारिश की गयी थी कि विकासशील
देशों को मानव विकास कार्यक्रमों के लिए अपने बजट की 20 प्रतिशत राशि मानव संसाधन
विकास, जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी, परिवार कल्याण व पोषाहार आदि कार्यक्रमों
के लिए चिह्नित कर देना चाहिए । इसी प्रकार गरीब लोगों को स्वरोजगार के लिए ऋण सुविधा
मिलनी चाहिए।” प्रसन्नता की बात यह है कि भारत में उदारीकरण की नीति के बाद सामाजिक
क्षेत्रों में व्यय की राशि में व्यापक वृद्धि की गयी है।
         (2) वैधानिक समानता के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अगले दस वर्ष तक
भरपूर प्रयत्न किये जाने का प्रस्ताव है। इसके अनुसार महिलाओं को वैधानिक सहायता उपलब्ध
करायी जाए एवं विधिक ज्ञान के प्रसार के लिए कार्य भी पूरे किए जाने चाहिए। राष्ट्रीय
स्तर पर एक महिला आयोग की स्थापना भी हो । सभी महिलाओं के प्रति अत्याचार को
युद्ध-अपराध की तरह अपराध माना जाकर अन्तर्राष्ट्रीय अधिकरण के द्वारा उसका निर्णय किया
जाना चाहिए।
      (3) विश्व में महिलाओं की आर्थिक एवं संस्थागत सहायता में वृद्धि की जानी चाहिए।
इसमें माता के प्रसूति अवकाश में वृद्धि की जाए और साथ में पिता को भी यह अवकाश
प्रदान किया जाए । जापान द्वारा सन् 1992 से यह व्यवस्था की गयी है। संयुक्त राज्य अमेरिका
में भी यह व्यवस्था की गयी है, परन्तु बिना वेतन अवकाश दिया जाता है। बाल्टिक सागर
के अनेक देशों में छोटे बच्चों के लालन-पालन के लिए पिता के अवकाश की भी व्यवस्था
की गयी है। सम्पत्ति एवं उत्तराधिकार के कानूनों में भी परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव
किया जाए तथा उनके लिए उचित व्यवस्था की जाए।
    (4) सन् 1990 में महिलाओं के स्तर के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र संघ आयोग ने सिफारिश
की थी कि राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं का हिस्सा कम-से-कम 30 प्रतिशत होना चाहिए।
किन्तु अभी तक विश्व में बहुत ही कम देश इस लक्ष्य तक पहुँचे हैं। संसद व मंत्रिमंडल
में इस लक्ष्य तक पहुँचने एवं प्राप्त करने वाले देश डेनमार्क, फिनलैण्ड, नीदरलैण्ड, नार्वे,
सेसल्स और स्वीडन ही हैं। प्राप्त विवरण के अनुसार 15 देशों ने यह लक्ष्य प्राप्त किया
है और नगरपालिका क्षेत्र में कुल 8 देशों ने ही भारत में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं
के लिए 33 प्रतिशत स्थान सुरक्षित करके इस ओर, पहल की गयी है, जिससे महिलायें सशक्त
एवं समानता की ओर अग्रसर होने का प्रयास करें।
      (5) विश्व में सार्वजनिक शिक्षा, प्रजनन, स्वास्थ्य और महिलाओं के लिए ऋण की
सुविधा में वृद्धि की जानी चाहिए, ताकि महिलाओं के समानता के अवसरों को बढ़ाया जा
सके। इन क्षेत्रों में भी महिलाओं के लिए कई प्रकार के बाधक तत्त्व हैं, जिनको दूर करने
के लिए सरकार को व्यापक रूप में प्रयत्न करने चाहिए, ताकि विश्व में महिलाओं को पूर्ण
समानता मिल सके।
          वर्तमान में विश्व 21वीं शताब्दी में प्रविष्ट हो चुका है। इस नयी विश्व-व्यवस्था में
महिला और पुरुषों के समान अवसरों में उन्नति की जा सकती है। वस्तुतः जब तक इस
विश्व में महिलाओं की आधी आबादी इस विश्व स्तर की त्रासदी से मुक्त होकर पुरुषों के
समान अवसर युक्त जीवनयापन नहीं कर सकेगी, तब तक विश्व में महिला विकास का सपना
नितान्त अधूरा ही रहेगा। अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार ही हर क्षेत्र में महिलाओं
को जब समान अवसर प्राप्त होंगे, तभी महिलाओं को सही एवं श्रेष्ठ विकास होगा। महिला
विकास के सम्बन्ध में यद्यपि विश्व में और विशेषकर भारत में पिछले वर्षों में काफी प्रयत्न
हुए हैं, पर अभी बहुत कुछ करना शेष है। इसीलिए भारत में संसद एवं विधान सभाओं
में 33% आरक्षण की माँग महिलाओं द्वारा की गयी है ताकि महिलाएँ स्व-विकास की सीढ़ियाँ
स्वयं चढ़ें और जीवन के सभी क्षेत्रों में सफल हों।
                                                □□□

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