हिन्दी का शिक्षणशास्त्र–1
हिन्दी का शिक्षणशास्त्र–1
हिन्दी का शिक्षणशास्त्र–1
(प्राथमिक स्तर)
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम क्यों है?
उत्तर–जहाँ तक शिक्षा के माध्यम की बात है, लगभग सभी स्वतंत्र देशों में शिक्षा का
माध्यम वहाँ की मातृभाषाएँ ही हैं। जिन देशों में एक से अधिक मातृभाषाएँ हैं, उन देशों
में वहाँ की राष्ट्रभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया गया है। इसके कुछ देश अपवाद
भी है. जैसे हमारा देश भारत । ध्यातव्य है कि जिन देशों की मातृभाषा और राष्ट्रभाषा एक
ही है और वही वहाँ की शिक्षा का माध्यम है, उन देशों में शिक्षा की प्रगति बहुत तेजी से
हुई है और उन देशों ने अपना विकास भी तेजी से किया है। यहाँ मातृभाषा को ही शिक्षा
का माध्यम बनाने के पीछे निम्नलिखित तथ्य है―
(i) मातृभाषा अभिव्यक्ति एवं विचार-विनिमय का सरलतम साधन होती है और इस
पर बच्चों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इसके माध्यम से अध्ययन-अध्यापन
की क्रिया बड़े सरल और सहज रूप में चलती है।
(ii) मातृभाषा के माध्यम से अध्ययन करते समय बच्चों को स्वतंत्र चिन्तन और स्वतंत्र
अभिव्यक्ति के अवसर मिलते हैं। उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास भी होता है।
(iii) मातृभाषा के माध्यम से बच्चे सामाजिक व्यवहार और सामाजिक अन्त:क्रिया करते
हैं। शिक्षण प्रक्रिया में सामाजिक व्यवहार एवं सामाजिक अन्तःक्रिया का बड़ा
महत्व है।
(iv) अपनी मातृभाषा के प्रति बच्चों में एक आदर भाव होता है। माता और मातृभूमि
के समान मातृभाषा भी वन्दनीय है। उसके स्थान पर यदि किसी अन्य भाषा को
शिक्षा का माध्यम बनाते हैं तो उनकी भावना पर कुठाराघात होता है।
प्रश्न 2. हिन्दी भाषा के मानक स्वरूप को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर―मानक हिन्दी का निम्नलिखित स्वरूप है―
में ,
1. भाषा का मानकीकरण―हिन्दी में वे समस्त गुण विद्यमान हैं, जो एक राष्ट्रभाषा
में होने चाहिए। इसका क्षेत्र विशाल है। इसके अन्तर्गत मैथिली, मगही, भोजपुरी, अवधि,
बुन्देलखण्डी, छत्तीसगढ़ी, ब्रज एवं राजधानी आदि जनपदीय भाषाएँ सम्मिलित है।
हिन्दी ही सम्पूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँध सकती है और जितना अधिक हिन्दी
का प्रचार एवं प्रसार अहिन्दी राज्यों में किया जायेगा, उतनी ही शीघ्र राष्ट्र को एकता के सूत्र
में बाँधा जा सकेगा। आज भारत में जो विघटनकारी तत्व उमड़ रहे हैं, उसका एकमात्र कारण
यह है कि हमने अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को उतना गौरव नहीं दिया, जो उसे मिलना चाहिये था।
2. हिन्दी का मानक स्वरूप―वह भाषा जो देश के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाती
है और जिसमें किसी राष्ट्र विशेष के निवासी परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, राष्ट्रभाषा
कहलाती है।
हिन्दी में राष्ट्रभाषा बनने का क्षमता है, क्योंकि देश की अधिकांश जनता उसको बोलती
और समझती है। संविधान बनने से पूर्व भी हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा थी और संविधान में
भी उसको राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा गया है । कारण स्पष्ट है-चेन्नई, हैदराबाद, बंगलुरू,
मैसूर, त्रिवेन्द्रम, औरंगाबाद, पूना, मुम्बई, अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत, पुरी, कोलकाता, भुवनेश्वर,
कटक, चण्डीगढ़, जालन्धर एवं श्रीनगर आदि देश के किसी कोने में चले जाइये, हिन्दी को
बोलने और समझने वाले व्यक्ति सभी जगह मिल जायेंगे।
प्रश्न 3. भाषा के मानकीकरण की क्या आवश्यकता है?
उत्तर―किसी समाज तथा राष्ट्र के स्थायित्व और एकीकरण के लिए एक ऐसी भाषा
की आवश्यकता होती है, जिसमें क्षेत्रीय विस्तार, व्यापकता, सामान्यीकरण एवं राष्ट्रीय स्तर
पर सार्वभौमिकता का गुण विद्यमान हो, जो साहित्य लेखन के लिए उपयुक्त हो, जिसकी
अपनी लिपि हो, जो ज्ञान के स्थायित्व और उसके संग्रहण में समर्थ हो, जो पूर्णतया भाव
संम्प्रेषण में समर्थ हो, जिसमें संरचनात्मक एकरूपता हो । उसके उच्चारण, वर्तनीगत एवं अर्थगत
रूप सर्वत्र समान हो तथा जिसका एक व्याकरणिक ढाँचा हो, जिससे कि क्षेत्रीय भिन्नता के
रहते हुए भी नागरिक परस्पर विचार विनिमय कर सकें । जो नागरिकों के लिए प्रतिष्ठा का
सूचक हो तथा जो सामाजिक एवं राजनैतिक अस्मिता की रक्षा करने में सक्षम हो । यह सभी
तभी सम्भव है, जब उस राष्ट्र के निवासी उस भाषा के मानकीकरण के लिए प्रयास करें।
वहाँ की सत्ता ऐसी मानक शब्दावली एवं नियमावली के निर्माण के लिए तत्पर हो, जो विज्ञान
हो या भूगोल, अर्थशास्त्र हो या समाजशास्त्र सभी विषयों के साथ सहसम्बन्ध स्थापित कर
सकें तथा उसे समग्रतः करने में समर्थ हो। इस प्रकार भाषा के मानकीकरण की
आवश्यकता महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 4. भारत में बहुभाषिता की आवश्यकता क्यों बतायी गयी ?
उत्तर―भारत एक बहुभाषी देश है। हमारे देश में अनेक भाषाएँ व बोलियाँ बोली जाती
हैं। संविधान द्वारा 22 भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है। इनमें से कई भाषाएँ स्कूलों
में पढ़ाई भी जाती हैं। मातृभाषाएँ स्कूलों में माध्यम के रूप में प्रयुक्त की जाती हैं।
भाषा की इतनी विविधता के बावजूद भी कई भाषिक व सांस्कृतिक तत्त्व भारत को
एक ही भाषिक एवं सामाजिक भाषिक क्षेत्र के रूप में बाँधते हैं। हमारे देश में सामाजिक
सौहार्द्रता को बढ़ाने के लिए, एक-दूसरे की भाषा व संस्कृति को सम्मान देना आवश्यक है।
भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यथासंभव मातृभाषा के अलावा देश को अन्य भाषाओं
को भी सीखने का प्रयत्न करना चाहिए। बहुभाषिकता, संज्ञानात्मक विकास व शैक्षणिक विकास
के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 5. भाषायी कौशल के प्रमुख रूप कौन से हैं ?
उत्तर―भाषायी कौशल के दो प्रमुख रूप निम्न हैं―
1. वार्तालाप― बोलने की शक्ति विकसित करने के लिए अध्यापक उनके घर के
विषय में वार्तालाप करता है, उनसे उनके खिलौनों के विषय में, माता-पिता तथा पड़ोसियों
के विषय में पूछताछ करता है। पशुओं, पक्षियों के विषय में साधारण बातचीत करता
है। बालक जिस विद्यालय में पढ़ता है, उसके भवन, उपवन, प्रारंभिक कृषि, बागवानी
आदि कार्यों के विपय में वातालाप करता है। छात्रों को आपस में वार्तालाप करने के
लिए प्रेरणा प्रदान करता है।
2. व्याख्यान― आत्माभिव्यंजना का यह प्रारंभिक रूप आगे चलकर बालक को कुशल
वक्ता बना देता है। किसी भी प्रजातांत्रिक राष्ट्र को ऐसे नागरिकों की आवश्यकता होती है,
जो अपने विचारों को बोलकर दूसरों के प्रति स्पष्ट कर सके। नेतृत्व प्राप्त करने के लिए
अन्य क्षमताओं के साथ-साथ भाषण-शक्ति भी परमावश्यक होती है।
प्रश्न 6. भाषा कौशलों के विकास में मातृभाषा किस प्रकार मदद करती है?
अथवा, माँ की भाषा (मातृभाषा) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा, हिन्दी शिक्षण में मातृभाषा का महत्व बताएँ।
उत्तर―किसी बच्चे/बच्ची के व्यक्तित्व निर्माण में मातृभाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता
है। भाषा के इस रूप को बच्चे/बच्ची अपने माता-पिता, परिजनों से सुनकर और उस माहौल
में रहकर अनायास ही सीख जाते हैं। वे जब स्कूल जाते/जाती हैं, तब उनके पास इस भाषा
का समृद्ध संसार होता है। साथ ही स्कूल की भाषा का भी एक रूप होता है। कुल मिलाकर
उनके पास अनेक भाषाओं का संसार होता है। इसे समाज की बहुभाषिक स्थिति कह सकते
हैं। दरअसल बहुभाषिकता भारतीय समाज के भाषा बोध की रचनात्मक सच्चाई है। वह हमारी
परम्परा और संस्कृति का अभिन्न अंग है। बच्चे/बच्ची की मौलिकता एवं सहज रचनाशक्ति
को सामने लाना हिंदी भाषा शिक्षक का प्राथमिक दायित्व है। लिहाजा आत्मीय माहौल बनाना
उसका जिम्मेदारी है। इस माहौल में ही विभिन्न भाषाई कौशलों का विकास संभव है। कहना
न होगा हिंदी शिक्षण का दायरा इतना व्यापक होना चाहिए कि उसमें उल्लिखित सारे सरोकार
शामिल हो । भाषा बच्चे बच्ची के रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है, यह समझें बिना स्कूल
में हिंदी शिक्षण कि कोई अवधारणा नहीं बन सकती।
प्रश्न 7. वाचन कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर―मनुष्य अपने उच्चारण अवयवों से वाणी का उच्चारण करता है तथा दूसरों के
द्वारा किए गए उच्चारण को सुनता है। इस आधार पर वाचन मुख्य रूप से दो प्रकार का
होता है।
1. मौन वाचन–मनुष्य के द्वारा किए गए वाचन को अन्य लोग न सुन सकें या लिखित
भाषा के ध्वनि रहित वाचन को मौन वाचन कहते हैं।
2. सस्वर वाचन-जब मनुष्य अपने द्वारा किए गए वाचन को अन्य लोगों को सुनाता
है अर्थात् ध्वनि युक्त वाचन करता है, तो उसे सस्वर वाचन कहते हैं। लिपि प्रतीकों को
वाणी प्रदान कर अर्थ ग्रहण करना ही सस्वर वाचन है।
सस्वर वाचन के भी दो भेद हैं—(क) व्यक्तिगत वाचन तथा (ख) सामूहिक वाचन
या समवेत वाचन।
कक्षा शिक्षण की दृष्टि से सस्वर वाचन के तीन भेद हैं―
(1) आदर्श वाचन शिक्षक द्वारा कक्षा में किए गए व्यक्तिगत वाचन को आदर्श वाचन
कहते हैं।
(ii) अनुकरण वाचन-कक्षा में विद्यार्थियों द्वारा किए गए व्यक्तिगत वाचन या सामूहिक
वाचन को अनुकरण वाचन कहते हैं।
(iii) सामूहिक वाचन या समवेत वाचन कक्षा में जब दो या दो से अधिक छात्र
साथ-साथ वाचन करते हैं, तो उसे समवेत वाचन कहते हैं।
प्रश्न 8. वाचन की किन्हीं तीन विशेषताओं को बताएँ।
उत्तर–वाचन की तीन विशेषताएँ निम्न हैं―
1. वाचन की मधुरता व्यक्ति को समाज में स्थान दिलाती है—दिन प्रतिदिन के जीवन
निर्वाह तथा व्यवहार मैं वाचन का विशेष महत्व है। मधुर वाचन से व्यक्ति सामाजिक क्षेत्र
में स्थान बना लेता है। पं. मदनमोहन मालवीय जी की वाणी में यही गुण थे, जिससे उनका
वाचन जादू के समान कार्य करता था।
2. वाचन ही भाषा को पूर्णता प्रदान करता है लिखित भाषा को सीखने के लिए
वाचन की आवश्यकता होती है। अक्षरों को सिखाने के लिए अक्षर की ध्वनि के उच्चारण
की सहायता ली जाती है। वाचन के अभाव में भाषा का ज्ञान अधूरा माना जाता है। गूंगा
तथा बधिर व्यक्ति लिखना सीख लेता है, परन्तु वह बोल नहीं सकता है। उसके लिए भाषा
का ज्ञान बिना वाचन के अधूरा ही रहता है और वह सन भी नहीं सकता है।
3. वाचन शिक्षा की प्रक्रिया के संचालन का साधन है― शिक्षा की प्रक्रिया का संचालन
सभी शिक्षण स्तरों (पूर्व प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमक एवं उच्च माध्यमिक) पर वाचन
के माध्यम से ही किया जाता है। बिना वाचन के शिक्षा प्रक्रिया का संचालन संभव नहीं
है। इसके बिना मनुष्य का विकास भी अवरुद्ध हो जाता है।
प्रश्न 9.सुनने-बोलने की विविध प्रकार की सामग्रियों को बताएँ ।
उत्तर―सुनने बोलने की विविध प्रकार की सामग्री निम्न स्थितियों में उपलब्ध हो सकती है―
(क) कक्षा-स्थिति।
(ख) कक्षेत्तर स्थिति।
(ग) आकाशवाणी प्रसारण आदि ।
इस स्तर पर श्रव्य सामग्री इस प्रकार हो सकती है―
(क) लिखित:
(i) सस्वर वाचन–पाठ्य-पुस्तकीय सामग्री-
(i) गद्यावतरण का सस्वर वाचन, (ii) कविता पाठ ।
(ii) पाठ्य-पुस्तकेत्तर सामग्री―निबन्ध पाठ, आलोचना पाठ आदि ।
(ख) कथित
(i) वार्तालाप
(ii) वादविवाद
(iii) चर्चा (परिचर्चा, पैनलचर्चा, दलचर्चा आदि)
(iv) भाषण, प्रवचन आदि ।
(v) संवाद (नाट्यंश, एकांकी नाटक आदि)
(vi) वर्णन एवं विवरण
(vii) आशु भाषण
प्रश्न 10. मौखिक भाषा का महत्व संक्षेप में बताएँ।
उत्तर―मौखिक भाषा का महत्व निम्न हैं :
(i) मौखिक भाषा सरलता तथा शीघ्रता से समझी जा सकती है।
(ii) बालक पहले मौखिक भाषा ही सीखता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी बालक
अधिकांश बातें अनुकरण द्वारा सीखते हैं और मौखिक भाषा अनुकरण प्रधान
होती है।
(iii) बालक को लिखने-पढ़ने से पूर्व मौखिक भाषा का अभ्यास कराना परमावश्यक
है। भाषाओं का प्रारम्भ वास्तव में कान और जिह्वा से हुआ है। सर्वप्रथम व्यक्ति
ने परस्पर वार्तालाप या बोलना, चलना सीखा, लिखना और बाद में पढ़ना सीखा।
अतः भाषण कला में बालकों को पहले वार्तालाप में चतुर किया जाता है।
(iv) व्यावहारिक जीवन में मौखिक भाषा का जितना प्रयोग होता है, उतना लिखित भाषा
का नहीं । बहुत-सी बातें मौखिक भाषा द्वारा जितनी जल्दी स्पष्ट की जाती हैं, उतनी
लिखित भाषा द्वारा नहीं।
(v) मौखिक भाषा द्वारा ही व्यक्तियों के सम्बन्धों को मधुर बनाया जा सकता है। मनु
सामाजिक प्राणी होने के नाते दूसरों के सुख में सुख का अनुभव करता है एवं
दुःख में हाथ बँटाकर दुखी व्यक्ति को सांत्वना देता है। इस प्रकार मौखिक भाषा
द्वारा एक-दूसरे के समक्ष अपने विचारों को प्रकट करना सामाजिक सम्बन्धों को
दृढ़ करता है
प्रश्न 11. हिन्दी शिक्षक को बच्चों में किन-किन गतिविधियों के माध्यम से अनैतिक
अभिव्यक्तियों के समस्या का निदान कर सकते हैं?
उत्तर―कक्षा में हिन्दी शिक्षक बच्चों में मौखिक अभिव्यक्तियों के विकास के लिए कुछ
गतिविधियों भी करा सकते हैं। जैसे-आशुभाषण, जिसमें बच्चों को दिए गए विषय पर तत्काल
अपने विचार प्रस्तुत करने होते हैं। इसे रोचक बनाने के लिए ऐसे मनोरंजक विषय रखे जा
सकते हैं, जिससे बच्चे आनंद लेते हुए बोल व सुन पाएँ जैसे ‘अगर मुझे अलादीहन का चिराग
मिल जाए’, ‘अगर मैं जादूगर होता’, ‘अगर मैं जोकर होता’ आदि । दूसरी गतिविधि है,
वाद-विवाद । इसमें बच्चों को किसी विषय के पक्ष या विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत कारने
होते हैं और विपक्षी विचारों के सामने ऐसे मजबूत तर्क रखने होते हैं, जिससे वक्ता अपनी
वात से ज्यादा से ज्यादा श्रोताओं को प्रभावित करे एवं उनको सहमत कर पाए । जैसे-‘उद्योग :
वरदान या अभिशाप’, ‘फास्टफूड बनाम स्वास्थ्य’ । इस तरह की गतिविधियाँ सभी कक्षा के
बच्चों के साथ की जा सकती है। इनके द्वारा बच्चों को ऐसे अवसर मिलते हैं, जिससे कि
वे विचारों व बोलने में संबंध बैठा पाते हैं, उन्हें व्यवस्थित क्रम में जमाते हैं तथा तर्क के
साथ अपने अनुभवों को जोड़ते हुए प्रभावी वक्ता एवं कुशल श्रोता बनते हैं।
इसके लिए अध्यापक को शुरू से ही बच्चों में धैर्यपूर्वक सुनने तथा दूसरों के विचारों
का सम्मान करने की आदत विकसित करनी चाहिए।
प्रश्न 12. सस्वर वाचन और मौन वचन में क्या अन्तर है?
उत्तर:
क्र.सं. सस्वर वाचन मौन वाचन
1. सस्वर वाचन में शुद्ध अक्षरोच्चारण का मौन वाचन में अक्षरोच्चारण के लिए कोई
विशेष महत्व है । अवसर नहीं होता, परन्तु छात्र को मनन एवं
चिन्तन करना पड़ता है।
2. सस्वर वाचन में ध्वनियों का बोध, मौन वाचन मन ही मन में बिना किसी प्रकार
उच्चारण की शुद्धता, उपयुक्त बलाघात, की उच्चारण ध्वनि के ध्यानपूर्वक अध्ययन
स्पष्टता, वाचन, प्रवाह, स्वर में है।
उतार-चढ़ाव तथा रसात्मकता की
प्रधानता होती है।
3. सस्वर वाचन वैयक्तिक तथा सामूहिक मौन वाचन को दोनों प्रकार से किया जा
दोनों ही प्रकार से हो सकता है। सकता है।
4. सस्वर वाचन में शरीर की सभी वाक् मौन वाचन में वाणी, जिह्वा और ओप्ठ आदि
इन्द्रियों क्रियाशील रहती है। का सहारा नहीं लिया जाता।
5. सस्वर वाचन प्राथमिक कक्षाओं के मौन वाचन माध्यमिक या उच्च कक्षाओं के
लिए अधिक उपयुक्त है। लिए अधिक उपयोगी है।
प्रश्न 13. प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति पर छात्र से पठन की क्या अपेक्षाएँ होती
है ?
उत्तर–प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति पर छात्र से पठन की अपेक्षाएँ-
(i) चित्र पठन–चित्रों में निहित वस्तुओं और क्रियाओं को ध्यानपूर्वक देखना
(चित्रावलोकन) और उन पर क्या, क्यों, कैसे आदि प्रश्नों के उत्तर देना। चित्रों में निहित
भाव को समझना । चित्राकृति के माध्यम से भापात्मक और चिन्तनात्मक प्रक्रिया
अपनाना।
(ii) शब्द पठन–चित्र से शब्द को और शब्द से चित्र को पहचानना,शब्दगत वर्णों को
पहचानना, वर्णाकृति का विश्लेषण करना, शब्द का अर्थ जानना, सस्वर उच्चारण करना (सस्वर
बाचन), सीखते हुए वर्णों और मात्राओं में निर्मित नये शब्दों को पढ़ना, वाक्यों को पढ़ना ।
(iii) शाब्दिक पठन―शब्दों और वाक्यों के अर्थ को समझना, शब्दों में वर्ण परिवर्तन
की बात समझना, वाक्यों में शब्द के प्रासंगिक अर्थ को समझना । पटित सामग्री की जानकारी
प्राप्त करना।
(iv) वर्ण पठन–वणों का विश्लेषण शब्द या वाक्य में कर सकना,वों को प्रभावशीलता
अर्थ की दृष्टि से समझना, वर्गों के अनुसार उच्चारण कर सकना, अर्थ के प्रसंग में वर्ण
ध्वनि को पहचानना, ध्वनि का विश्लेषण करना।
पशन 14. पठन कौशल विकास के लिए शिक्षक कौन-कौन-सी कार्य या क्रियाएँ
कर सकता है?
उत्तर―पठन कौशल विकास हेतु क्रियाकलाप–पठन में कुशलता निरंतर अभ्यास
करने से आती है। पढ़ने की सफलता इसी में है कि छात्र पढ़कर स्वयं अर्थग्रहण कर लें,
केन्द्रीय भाव समझ सकें । पठन कौशल विकास हेतु, शिक्षक निम्नांकित कार्य या क्रियाएँ
कर सकते हैं―
(क) आदर्श पठन–शिक्षक आदर्श पठन, प्रभावपूर्ण, शूद्र उच्चारण व हावभाव के
साथ पढे़।
(ख) अनुकरण पाठ―छात्रों से अनुकरण पाठ हेतु सस्वर पठन का निर्देश दे । शिक्षक
छात्रों के सस्वर पठन के समय उनके उच्चारण पर ध्यान रखें। अशुद्ध उच्चारित शब्द को
श्यामपट्ट पर लिखे तथा उसी समय शुद्ध उच्चारण का अभ्यास कराये।
(ग) अभ्यास कार्य―
(i) शब्दाकृति में विभेद नहीं कर सके या अर्थ व उच्चारण का अंतर न समझ सके
तो शिक्षक ऐसे शब्दों की तालिका बनाकर उसका अभ्यास कराए, जैसे—दिन-दीन,
बुरा-बूरा, एक-ऐक्य, वन-बन, ङल-लड़, ढप-पढ़ आदि ।
(ii) समान शब्दों के युग्म को साथ-साथ पढ़ना सिखाया जाय, जैसे-साथ-साथ,
दिनों-दिन, कल-मल, पल-फल, लोटा-लौटा आदि ।
(iii) छात्रों को पाठ्यपुस्तक के अतिरिक्त-समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, घटनाएँ, कहानियों की
विशेषताएँ आदि पढ़ने को प्रोत्साहित करे ।
(iv) बाल गीत, अभिनयात्मक बाल कविताएँ आदि का हावभाव के अनुसार पठन ।
(v) अर्थग्रहण करते हुए पठन की क्षमता के विकास हेतु-प्रश्न करना ।
(vi) शब्दकोश देखने का अभ्यास ।
(vii) प्रतियोगिताएं कराई जायें-गद्य पठन, कविता पठन आदि ।
(viii) प्रारंभिक कक्षाओं के पठन की सामग्री की व्यवस्था-पठन सामग्री मोटे अक्षर, रंगीन
चित्र, छोटे-छोटे वाक्य, सरल शब्दावली होनी चाहिए।
प्रश्न 15. पठन कौशल विकास के लिए शिक्षक को छात्रों में कौन-कौन सी
गतिविधियाँ करानी चाहिए?
उत्तर―बच्चों में पठन कौशल विकास की गतिविधियाँ-बच्चों में पठन कौशल
विकास के लिए शिक्षक को विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ करानी चाहिए। मुख्य गतिविधियाँ
निम्न प्रकार हो सकती है―
(i) सर्वप्रथम शिक्षक का छात्रों के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार होना चाहिए। शिक्षक
धैर्यवान, आशावान और सहदय हो, यह आवश्यक है।
(ii) प्रारम्भ में पठन सामग्री रंगीन व सुरुचि पूर्ण रखी जाय और चित्र सामग्री के सहयोग
से काल्पनिक वार्तालाप, चित्रों को देखकर संभावित प्रश्नोत्तर तथा संवाद करें। दो,
तीन चित्रों में पूर्ण होने वाली सामग्री प्रस्तुत कर ठनका क्रमिक पठन किया जाए।
(iii) पठन के प्रारंभ में मात्रा रहित दो तीन अक्षरों वाले शब्दों का पठन फिर मात्र वाले
छोटे-छोटे शब्दों का पठन करावें।
(iv) चित्र वर्णन, घटना की पूर्ति तथा अपूर्ण कहानी को पूर्ण कराना। प्रारंभ में वर्णनात्मक
कहानी, पशु-पक्षियों को रोचक कहानी पड़ने को दी जाए। बाद में कक्षा स्तर के
अनुकूल कहानियाँ पढ़ने को कहा जाए। महापुरुषों की चित्रमय जीवनी पढ़ने को
दी जाए।
(v) पठन कौशल विकास के लिए शिक्षक संवाद पाठ, जीवनी, छात्रों के सम्मुख पढ़े
और सौरांश प्रस्तुत करें। बाद में छात्र तदनुसार पठन करें।
(vi) धीरे-धीरे बालों में स्वाध्याय की आदत डाली जाय ताकि वे खाली समय में रोचक
ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ने में रुचि ले सकें।
प्रश्न 16. पठनक्रिया के आधारभूत तत्वों की विवेचना कीजिए।
उत्तर―पठन सम्बन्धी आधारभूत तत्व-शारीरिक अवयवों की सम्मिलित क्रिया पठन
शिक्षण में होती रहती है। पठन क्रिया में निम्नांकित अंग सक्रिय रहते हैं, जो पठन सम्बन्धी
आधारभूत तत्व हैं। ये निम्न हैं:
1.आसन एवं मुद्रा―पठन की प्रारंभिक अवस्था में इस पर पूरा ध्यान दिया जाना अपेक्षित
है। सीधी कमर, आँखों से एक फुट दूरी पर पठन सामग्री, पीछे प्रकाश, ठीक से अंगुलियों का
संचालन आदि आसन मुद्रा के अन्तर्गत हैं। पढ़ने के समय संयत और सौम्य मुद्रा होनी चाहिए।
2. वाक्यंत्र/ध्वनि से संबंधित― अनावश्यक जोर से बोलना या मंद स्वर में बोलना,
आरोह-अवरोह, स्वाराघात, लयताल से सम्बन्धित उच्चारण आदि का भी ध्यान रखना चाहिए।
3. विराम और दृष्टि केन्द्र–पठन क्रिया मुख्यतः नेत्रों का विषय है। पठन क्रिया में
नेत्रों की गति नियमित रूप से अग्रसर होती है। हमारे नेत्र एक अक्षर को न देखकर शब्द
समूहों को एक साथ देखते हैं और झटक के साथ एक शब्द समूह से दूसरे शब्द समूह पर
दृष्टि उछलती हुई आगे बढ़ती है। दृष्टि पहले एक शब्द स्थल पर जमती है, जिसे दृष्टि
बिन्दु या दृष्टि केन्द्र कहते हैं। दो दृष्टि केन्द्रों के बीच की दूरी को दृष्टि विराम कहते
हैं। धारावाहिक पठन के लिए लम्बे दृष्टि विराम की आवश्यकता है, इससे पठन गति अपने
आप बढ़ जाती है।
4. लय― अन्वितियों को ध्यान में रखकर पदों या पदबन्धों को एक प्रवाह में पढ़ने
से लय बनती है। शब्द को खण्ड करके पढ़ें तो पठन लय में बाधा पड़ती है। पठन में
लय होने से अर्थग्रहण होता है। अतः पठन क्रिया में लय का महत्व विशेष है।
5. गति–लय की तरह ही गति का भी पठन प्रक्रिया में विशेष महत्व है। इसका प्रभाव
अर्थग्रहण पर पड़ता है। पठन की सुचारु गति से कार्य की सहजता बढ़ती है। पठन में दक्षता
अर्थात् अर्थग्रहण में दक्षता । पठन मंदगति से होगा, तो अर्थ ग्रहण भी मंद गति से होगा।
प्रश्न 17. पठन कौशल में बाल साहित्य की भूमिका की संक्षेप में समीक्षा को।
उत्तर―बच्चों के बचपन में अर्थात् जब उम्र 7-8 वर्ष की रही होगी। कॉमिक्स (बाल
साहित्य) पढ़ने की दिवानगी हद पार कर जाती थी। कोई नई कॉमिक्स आई नहीं कि उसे
हर हाल में पढ़ लेने की होड़ दोस्तों के बीच मच जाती थी। एक बार हाथ लगी नहीं कि
उसे आद्योपांत पढ़े बिना चैन नहीं मिलता था। हमारे माता-पिता, अभिभावकगण इसे समय
और पैसे की बरबादी ही समझते थे, अतः प्राय: कॉमिक्स खरीदने से परहेज ही करते थे।
अत: अपम यार-दोस्तों के साथ कॉमिक्स की लेन-देन हुआ करती थी। कॉमिक्स-लाइब्रेरी
की सदस्यता प्राप्त की जाती थी। क्यों इतने अच्छे लगते थे वे? आखिर क्या हुआ करता
था उन रंग-बिरंगी पत्रिकाओं में? चंदामामा, नंदन, चंपक आदि पत्रिकाओं की कहानियों में
हमलोग खोए रहते थे। चाचा चौधरी, साबू, छोटू-लम्बू, मोटू पतलू, राम-रहीम, विक्रम,बेताल,
तेनालीराम, गोनू झा, अकबर-बीरबल, ‘अमर चित्र कथा’ के विभिन्न पात्र एक लम्बी फैहरिस्त
है। उन पात्रों की जो अपनी सूझ-बूझ, बहादुरी, साहस, हास-परिहास इत्यादि से हमारा मनोरंजन
करते थे। ये बाल साहित्य क्या सिर्फ मनोरंजन करते थे या इससे बढ़कर कुछ और? जब
शिक्षक के नजरिए से देखेंगे तो महसूस करेंगे कि इनसे न केवल हमारा मनोरंजन हुआ बल्कि
हमारी भाषाई क्षमता के विकास में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। जितनी अधिक सामग्री
हम पढ़े उतना ही हमारे पढ़ने का अभ्यास हुआ, हमारी भाषाई क्षमता बढ़ी, हमारी जानकारी
बड़ी और हममें मानवीय गुणों का भी विकास हुआ।
प्रश्न 18. सस्वर पठन और मौन पठन में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
सस्वर पठन मौन पठन
1. सस्वर पठन दो प्रकार से किया जाता 1. मौन पठन भी दो प्रकार से किया जाता
है-शिक्षक के द्वारा आदर्श पठन तथा है मगर छात्र द्वारा गंभीर पठन तथा द्रुत
छात्र द्वारा अनुकरण पठन । पठन।
2. सस्वर पठन में उच्चारण व पठन सम्बन्धी 2. मौन पठन में इनका जाँचा जाना संदिग्ध
अशुद्धियाँ आसानी से जाँची जा सकती
है।
3. सस्वर पठन में छात्रों की थकान शीघ्र 3. मौन पठन में थकान नहीं होती है
होने लगती हैं, क्योंकि इसमें वाक् यंत्रों क्योंकि इसमें वाक् यंत्रों का उपयोग नहीं
पर अधिक जोर पड़ता है। होता।
प्रश्न 19. ‘पाठ्यपुस्तकों में दिए गए चित्र बच्चों को विषय-वस्तु से जुड़ने में मदद
करते हैं’, कथन पर अपने विचार स्पष्ट कीजिए।
अथवा, “चित्र बच्चों में अमूर्त संकल्पनाओं को मूर्त रूप देने में मदद करते हैं’,
कथन की पुष्टि कीजिए।
अथवा, हिन्दी भाषा में पाठ्यपुस्तकें किस प्रकार उद्देश्यों को प्राप्त करने में
महत्वपूर्ण स्थान रखती है?
उत्तर–पाठ्यपुस्तक में दिए गए चित्र बच्चों को विषय-वस्तु से जुड़ने में मदद करते
हैं। साथ ही वे विषय-वस्तु एवं अवधारणाओं का भी विस्तार करते हैं। कई बार पाठ्यपुस्तक
के कागज की गुणवत्ता इतनी खराब होती है कि एक पन्ने पर छपा चित्र या मुद्रित सामग्री
दुसरे पन्ने पर दिखाई देती है जिससे चित्रों को स्पष्टता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हिंदी भाषा
की पाठ्यपुस्तक ‘अंकुर भाग-2 में दिया गया चित्रपठन, कौआ और लोमड़ी’ ऐसे ही पाठ
है, जहाँ चित्रों के अवलोकन और उस पर बातचीत करने की भरपूर गुंजाइश है और हिंदी
भाषा शिक्षण का उद्देश्य भी तो यही है। चित्रों के सहारे कथा या विषय-वस्तु आगे भी
बढ़ती है। कई बार सब कुछ कह देने तथा लिख देने की अपेक्षा चित्रों के माध्यम से कई
बातें संप्रेषित की जा सकती है। चित्र अमूर्त संकल्पनाओं को मूर्त रूप देने में मदद करते
हैं। अत: हिंदी भाषा की पाठ्यपुस्तकों में आपको रंगीन और विस्तृत चित्र देखने को मिलते
हैं। इन चित्रों को भी हिंदी भाषा सीखने-सिखाने के अनेक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए
इस्तेमाल किया जा सकता है। इस प्रकार हिंदी भाषा की पाठ्यपुस्तके उद्देश्यों को प्राप्त
करने में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। जरूरत इस बात की है कि शिक्षक इनके निर्माण के
उद्देश्यों, इनमें निहित नजरिए और इनमें शामिल अभ्यासों के विविध प्रयोगों को समझें और
इनका सृजनात्मक प्रयोग करें।
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