प्रथम विश्व युद्ध : कारण एवं परिणाम | First World War- 1914-18
प्रथम विश्व युद्ध : कारण एवं परिणाम | First World War- 1914-18
प्रथम विश्व युद्ध से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य
- प्रथम विश्वयुद्ध 4 वर्ष तक चला।
- 37 देशों ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया।
- प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण ऑस्ट्रिया के राजकुमार फर्डिंनेंड की हत्या था।
- ऑस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में हुई।
- प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान दुनिया मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र दो खेमों में बंट गई।
- धुरी राष्ट्रों का नेतृत्व जर्मनी के अलावा ऑस्ट्रिया, हंगरी और इटली जैसे देशों ने भी किया।
- मित्र राष्ट्रों में इंगलैंड, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस तथा फ्रांस थे।
- गुप्त संधियों की प्रणाली का जनक बिस्मार्क था
- ऑस्ट्रिया, जर्मनी और इटली के बीच त्रिगुट का निर्माण 1882 ई. में हुआ।
- सर्बिया की गुप्त क्रांतिकारी संस्था काला हाथ थी।
- रूस-जापान युद्ध का अंत अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्टा से हुआ।
- मोरक्को संकट 1906 ई. में सामने आया।
- प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी ने रूस पर 1 अगस्त 1914 ई. में आक्रमण किया।
- जर्मनी ने फ्रांस पर हमला 3 अगस्त 1914 ई. में किया।
- इंग्लैंड प्रथम विश्व युद्ध में 8 अगस्त 1914 ई. को शामिल हुआ।
- प्रथम विश्वयुद्ध के समय अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन थे।
- जर्मनी के यू बोट द्वारा इंगलैंड लूसीतानिया नामक जहाज को डुबोने के बाद अमेरिका प्रथम विश्ववयुद्ध में शामिल हुआ, क्योंकि लूसीतानिया जहाज पर मरने वाले 1153 लोगों में 128 व्यक्ति अमेरिकी थे।
- इटली मित्र राष्ट्र की तरफ से प्रथम विश्वयुद्ध में 26 अप्रैल 1915 ई. में शामिल हुआ।
- प्रथम विश्वयुद्ध 11 नवंबर 1918 ई. में खत्म हुआ।
- पेरिस शांति सम्मेलन 18 जून 1919 ई. में हुआ।
- पेरिस शांति सम्मेलन में 27 देशों ने भाग लिया।
- वर्साय की संधि जर्मनी और मित्र राष्ट्रों के बीच (28 जून 1919 ई.) हुई।
- युद्ध के हर्जाने के रूप में जर्मनी से 6 अरब 50 करोड़ की राशि की मांग की गई थी।
- अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रथम विश्वयुद्ध का सबसे बड़ा योगदान राष्ट्रसंघ की स्थापना था।
प्रथम विश्वयुद्ध के बहुत से कारण उत्तरदायी थे, जिनका विवरण हमने इस पॉस्ट में किया है। यह युद्ध 28 जुलाई 1914 को प्रारंभ हुआ था। तथा प्रथम महायुद्ध का अंत 11 नवंबर, 1918 हुआ था।प्रथम विश्व युद्ध को ग्रेट वार अथवा ग्लोबल वार भी कहा जाता है. उस समय ऐसा माना गया कि इस युद्ध के बाद सारे युद्ध ख़त्म हो जायेंगे, अतः इसे ‘वॉर टू एंड आल वार्स’ भी कहा गया. किन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं और इस युद्ध के कुछ सालों बाद द्वितीय विश्व युद्ध भी हुआ. इसे ग्रेट वार इसलिए कहा गया है कि इस समय तक इससे बड़ा युद्ध नहीं हुआ था.जिसमे मरने वालों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख थी. इस आंकड़े में एक करोड़ दस लाख सिपाही और लगभग 60 लाख आम नागरिक मारे गये. इस युद्ध में ज़ख़्मी लोगों की संख्या 2 करोड़ थी.
प्रथम विश्व युद्ध के कारण (First World War Reason in hindi)
प्रथम विश्व युद्ध के चार मुख्य कारण हैं. इन कारणों को MAIN के रूप में याद रखा जाता है. इस शब्द में M मिलिट्रीज्म, A अलायन्स सिस्टम, I इम्पेरिअलिस्म और N नेशनलिज्म के लिए आया है.
प्रथम विश्वयुद्ध, विश्व स्तर पर लड़ा जाने वाला प्रथम प्रलयंकारी युद्ध था. इसमें विश्व के लगभग सभी प्रभावशाली राष्ट्रों ने भाग लिया. यह युद्ध मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड, फ्रांस, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, इटली, रूमानिया तथा उनके सहयोगी राष्ट्रों) और केंद्रीय शक्तियों (जर्मनी, ऑस्ट्रिया – हंगरी, तुर्की, बुल्गारिया इत्यादि) के बीच हुआ. प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय और केंद्रीय शक्तियों की पराजय हुई.
प्रथम विश्वयुद्ध के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे | इनमे निम्न्न्लिखित महत्वपूर्ण हैं:-
युरोपीय शक्ति – संतुलन का बिगड़ना-
- 1871 में जर्मनी के एकीकरण के पूर्व युरोपीय राजनीती में जर्मनी की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं थी, परन्तु बिस्मार्क के नेतृत्व में एक शक्तिशाली जर्मन राष्ट्र का उदय हुआ. इससे युरोपीय शक्ति – संतुलन गड़बड़ा गया. इंग्लैंड और फ्रांस के लिए जर्मनी एक चुनौती बन गया. इससे युरोपीय राष्ट्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ी.
गुप्त संधिया एवं गुटों का निर्माण-
- जर्मनी के एकीकरण के पश्चात वहां के चांसलर बिस्मार्क ने अपने देश को युरोपीय राजनीती में प्रभावशाली बनाने के लिए तथा फ्रांस को यूरोप की राजनीती में मित्रविहीन बनाए रखने के लिए गुप्त संधियों की नीतियाँ अपनायीं. उसने ऑस्ट्रिया- हंगरी (1879) के साथ द्वैत संधि (Dual Alliance) की. रूस (1881 और 1887) के साथ भी मैत्री संधि की गयी. इंग्लैंड के साथ भी बिस्मार्क ने मैत्रीवत सम्बन्ध बनाये. 1882 में उसने इटली और ऑस्ट्रिया के साथ मैत्री संधि की. फलस्वरूप , यूरोप में एक नए गुट का निर्माण हुआ जिसे त्रिगुट संधि (Triple Alliance) कहा जाता है. इसमें जर्मनी , ऑस्ट्रिया- हंगरी एवं इटली सम्मिलित थे. इंगलैंड और फ्रांस इस गुट से अलग रहे
जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता-
- जर्मनी एवं फ्रांस के मध्य पुरानी दुश्मनी थी. जर्मनी के एकीकरण के दौरान बिस्मार्क ने फ्रांस के धनी प्रदेश अल्सेस- लौरेन पर अधिकार कर लिया था. मोरक्को में भी फ़्रांसिसी हितो को क्षति पहुचाई गयी थी. इसलीये फ्रांस का जनमत जर्मनी के विरुद्ध था. फ्रांस सदैव जर्मनी को नीचा दिखलाने के प्रयास में लगा रहता था. दूसरी ओर जर्मनी भी फ्रांस को शक्तिहीन बनाये रखना चाहता था. इसलिए जर्मनी ने फ्रांस को मित्रविहीन बनाये रखने के लिए त्रिगुट समझौते किया| बदले में फ्रांस ने भी जर्मनी के विरुद्ध अपने सहयोगी राष्ट्रों का गुट बना लिया. प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता इतनी बढ़ गयी की इसने युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया.
जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता-
जर्मनी एवं फ्रांस के मध्य पुरानी दुश्मनी थी. जर्मनी के एकीकरण के दौरान बिस्मार्क ने फ्रांस के धनी प्रदेश अल्सेस- लौरेन पर अधिकार कर लिया था. मोरक्को में भी फ़्रांसिसी हितो को क्षति पहुचाई गयी थी. इसलीये फ्रांस का जनमत जर्मनी के विरुद्ध था. फ्रांस सदैव जर्मनी को नीचा दिखलाने के प्रयास में लगा रहता था. दूसरी ओर जर्मनी भी फ्रांस को शक्तिहीन बनाये रखना चाहता था. इसलिए जर्मनी ने फ्रांस को मित्रविहीन बनाये रखने के लिए त्रिगुट समझौते किया| बदले में फ्रांस ने भी जर्मनी के विरुद्ध अपने सहयोगी राष्ट्रों का गुट बना लिया. प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता इतनी बढ़ गयी की इसने युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया.
साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा
- साम्राज्यवादी देशों का साम्राज्य विस्तार के लिए आपसी प्रतिद्वंदिता एवं हितों की टकराहट प्रथम विश्वयुद्ध का मूल कारण माना जा सकता है.
- औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप कल-कारखानों को चलाने के लिए कच्चा माल एवं कारखानों में उत्पादित वस्तुओं की खपत के लिए बाजार की आवश्यकता पड़ी. फलस्वरुप साम्राज्यवादी शक्तियों इंग्लैंड फ्रांस और रूस ने एशिया और अफ्रीका में अपने-अपने उपनिवेश बनाकर उन पर अधिकार कर लिए थे.
- जर्मनी और इटली जब बाद में उपनिवेशवादी दौड़ में सम्मिलित हुए तो उन के विस्तार के लिए बहुत कम संभावना थी. अतः इन देशों ने उपनिवेशवादी विस्तार की एक नई नीति अपनाई. यह नीति थी दूसरे राष्ट्रों के उपनिवेशों पर बलपूर्वक अधिकार कर अपनी स्थिति सुदृढ़ करने की.
- प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने के पूर्व तक जर्मनी की आर्थिक एवं औद्योगिक स्थिति अत्यंत सुदृढ़ हो चुकी थी. अतः जर्मन सम्राट धरती पर और सूर्य के नीचे जर्मनी को समुचित स्थान दिलाने के लिए व्यग्र हो उठा. उसकी थल सेना तो मजबूत थी ही अब वह एक मजबूत जहाजी बेड़ा का निर्माण कर अपने साम्राज्य का विकास तथा इंग्लैंड के समुद्र पर स्वामित्व को चुनौती देने के प्रयास में लग गया.
- 1911 में आंग्ल जर्मन नाविक प्रतिस्पर्धा के परिणाम स्वरुप अगादिर का संकट उत्पन्न हो गया. इसे सुलझाने का प्रयास किया गया परंतु यह विफल हो गया. 1912 में जर्मनी में एक विशाल जहाज इमपरेटर बनाया गया जो उस समय का सबसे बड़ा जहाज था.फलतः जर्मनी और इंग्लैंड में वैमनस्य एवं प्रतिस्पर्धा बढ़ गई.
- इसी प्रकार मोरक्को तथा बोस्निया संकट ने इंग्लैंड और जर्मनी की प्रतिस्पर्धा को और बढ़ावा दिया.
- अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए जब पतनशील तुर्की साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से जर्मनी ने वर्लीन बगदाद रेल मार्ग योजना बनाई तो इंग्लैंड फ्रांस और रूस ने इसका विरोध किया. इससे कटुता बढ़ी.
सैन्यवाद
- सैन्यीकरण दरअसल गप्त समझौतों की प्रणाली से सीधे जुड़ा हुआ था एवं युद्ध का दूसरा महत्वपणं कारण था। बड़ी संख्या में सेनाएं रखना दरअसल क्रांति के दौरान फ्रांस से शुरू हुआ था और बाद के दिनों में नैपोलियन के आधीन बढ़ता गया। जर्मनी के एकीकरण के दौरान विम्माकं ने इस नीति का प्रभावशाली ढंग से विस्तार एवं विकास किया। 1870 के फ्रैंको-प्रशियन यद्ध के बाद सभी महाशक्तियों ने अधिक से अधिक मात्रा में सैनिक एवं समुद्री हथियार बढ़ाने आरंभ कर दिए। हथियारों की यह दौड़ सुरक्षा के नाम पर तीव्र की जा रही थी। इसके कारण राष्ट्रों के बीच भय एवं शंका का वातावरण बन गया। यदि किसी एक । देश ने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ायी अथवा किसी विशेष स्थान पर रेलवे लाइन बिछाने का कार्य किया तो उसके पड़ोसी देश तरंत डरकर वही कार्य स्वयं करने लगते। यह सिलसिला निरंतर चलता रहा एवं प्रतिदिन हथियारों का जमाव बढ़ता गया। यह कार्य 1912-13 के बालकान युद्धों के बाद और भी तेज हो गया। ऐंग्लो-जर्मन समुद्री शत्रुता भी युद्ध का एक कारण बना।सैन्यीकरण के फलस्वरूप थल एवं समुद्री सेना कार्य हेतु मानवीय संसाधनों के रूप में कार्यकर्ताओं की एक बड़ी संख्या भी आवश्यक थी जो कि मनोवैज्ञानिक रूप से शीघ्र युद्ध की “अनिवार्यता’ में ढाले जाते थे। इन लोगों के लिए युद्ध शीघ्र पदोन्नति एवं महत्व के दरवाजे खोलने वाला था। ऐसा नहीं है कि वे अपने नीजि स्वार्थों के लिए ही युद्ध चाहते थे, फिर भी युद्ध की सारी तैयारी को व्यवहार में लाने के अवसर की चाह ने अपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य ही छोड़ा होगा।
राष्ट्रवाद
- युद्ध का अन्य महत्वपूर्ण कारण पूरे यूरोप में चलने वाली राष्ट्रवाद की लहर थी। यह राष्ट्रवाद दरअसल फ्रांसीसी क्रांति की देन थी। इटली एवं जर्मनी ने अपने-अपने देशों में राष्ट्रवाद के अभतपर्व उद्भव को एक मजबत राजनैतिक शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया। इटली एवं जर्मनी का एकीकरण इसीलिए संभव हो सका क्योंकि कैवर (Cavour) एवं बिस्मार्क राष्ट्रवादी चेतना उभारने में सफल रहे थे। साथ ही इसी प्रक्रिया में लोगों के अंदर जातीय गर्व की भावना का भी विकास होने लगा। और वे अपने देशों को शेष देशों से ऊपर एवं बेहतर समझने लगे जिसके कारण उनका शेष देशों, विशेषकर पड़ोसी देशों के साथ अहंकारपूर्ण व्यवहार दिखाना स्वाभाविक ही था।राष्ट्रवादी भावना की अति ने राष्ट्रों के बीच पहले से बनी हई खाई को और गहरा कर दिया। उदाहरण के लिए जर्मनी एवं ब्रिटेन जैसे राष्ट्रों के बीच बढ़ी हयी शत्रता के पीछे इस अति राष्ट्रवादी चेतना का काफी बड़ा हाथ रहा। इसके परिणामस्वरूप इन राष्ट्रों के बीच थल एवं जल सैन्यीकरण की होड़ और तेज हो गयी। इसी आक्रामक राष्ट्रवादी भावना के कारण एशिया, अफ्रीका एवं बालकान में अपने-अपने स्वार्थों को लेकर यूरोपीय शक्तियाँ आपस में एक दूसरे से टकरा रही थीं। फ्रांसीसी जनता की इसी आक्रामक राष्ट्रवादी भावना के कारण ही उनके अंदर अल्सस एवं लोरेन की क्षति को लेकर बदले की भावना बनी रही, जिसने फ्रांस को जर्मनी का सबसे बडा शत्र बना दिया। 1886 के बाद फ्रांस एवं जर्मनी के संबंध निरंतर तनावपूर्ण बने रहे। नैपोलियन III के साथ वह पीड़ित राष्ट्रीय जनमत था जो प्रशिया की शक्ति के प्रति ईष्या की भावना में और भी कटता ला रहा था। अंधी राष्ट्रवादिता के उभार के परिणामस्वरूप 1870 में फ्रैंको-प्रशियन युद्ध छिड़ा एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में लोकप्रिय पागलपन का एक नया दौर शुरू हुआ। इसी दौरान अधरी इटली का भी नारा उठा जो कि आस्ट्रिया से इतालवी भाषी वेरिस्ते एवं तिनों जिले हड़पने की इटली राष्ट्रवादी आकाक्षां की अभिव्यक्ति थी। इसके लिए इटली ने जर्मनी से सहयोग मांगा।।जार साम्राज्य के पश्चिम में विद्रोही राष्ट्र विद्यमान थे। 1870 के बाद पोल एवं यूकरेनियाई, लिथनियाई एवं फिन जातियाँ जार साम्राज्य से मक्त होने के जबरदस्त प्रयास कर रही थीं। इन राष्ट्रों के प्रति रूस की नीति, विशेषकर अलेक्जेंडर III के आधीन 1881-1894 के दौरान, इनके रूसीकरण का जोरदार प्रयास रहा। जिसके नतीजे में इन राष्ट्रीय समूहों के सबसे अधिक देशभक्त तत्व रूसी सामाजिक क्रांतिकारियों की ओर आकर्षित हए जिन्होंने तुरंत ही पूरे क्षेत्र में संबंध स्थापित कर लिए। इन स्थानीय आंदोलनों में कट्टरवादी भावनाएँ निहित थीं जो कि इस दौरान अपने उत्थान पर थीं।
अंततोगत्वा, असंतुष्ट बालकान जनता की असंतष्ट राष्ट्रीय आकाक्षांओं ने बालकान प्रायद्वीप को बारूद का ढेर बना दिया जिसने पूरे यूरोप को तुरंत ही अपनी आग के घेरे में ले लिया। वास्तव में युद्ध की ओर धकलने वाली तमाम घटनाओं के पीछे राष्ट्रवाद की ही प्रेरक भावना थी।
अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अभाव
प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो साम्राज्यवाद सैन्यवाद और उग्र राष्ट्रवाद पर नियंत्रण लगाकर विभिन्न राष्ट्रों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखें. प्रत्येक राष्ट्र स्वतंत्र रुप से अपनी मनमानी कर रहा था इससे यूरोप राजनीति में एक प्रकार की अराजक स्थिति व्याप्त गई.
जनमत एवं समाचार पत्र
प्रथम विश्वयुद्ध के लिए तत्कालीन जनमत भी कम उत्तरदाई नहीं था. प्रत्येक देश के राजनीतिज्ञ दार्शनिक और लेखक अपने लेखों में युद्ध की वकालत कर रहे थे. पूंजीपति वर्ग भी अपने स्वार्थ में युद्ध का समर्थक बन गया युद्धोन्मुखी जनमत तैयार करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका समाचार पत्रों की थी. प्रत्येक देश का समाचार पत्र दूसरे राष्ट्र के विरोध में झूठा और भड़काऊ लेख प्रकाशित करता था. इससे विभिन्न राष्ट्रों एवं वहां की जनता में कटुता उत्पन्न हुई. समाचार पत्रों के झूठे प्रचार ने यूरोप का वातावरण विषाक्त कर युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया.
तत्कालीन कारण
प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बना ऑस्ट्रिया की युवराज आर्क ड्यूक फ्रांसिस फर्डिनेंड की बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में हत्या. 28 जून 1914 को एक आतंकवादी संगठन काला हाथ से संबंध सर्व प्रजाति के एक बोस्नियाई युवक ने राजकुमार और उनकी पत्नी की गोली मारकर हत्या कर दी. इससे सारा यूरोप स्तब्ध हो गया. ऑस्ट्रिया ने इस घटना के लिए सर्विया को उत्तरदाई माना. ऑस्ट्रिया ने सर्बिया को धमकी दी कि वह 48 घंटे के अंदर इस संबंध में स्थिति स्पष्ट करें तथा आतंकवादियों का दमन करे. सर्बिया ने ऑस्ट्रिया की मांगों को ठुकरा दिया. परिणामस्वरूप 28 जुलाई 1914 को ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. इसके साथ ही अन्य राष्ट्र भी अपने अपने गुटों के समर्थन में युद्ध में सम्मिलित हो गए. इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हुआ.
प्रथम विश्वयुद्ध का उत्तरदायित्व
- प्रथम विश्वयुद्ध का उत्तरदायित्व किस पर था यह निश्चित करना कठिन है. युद्ध में सम्मिलित कोई भी पक्ष युद्ध के लिए अपने को उत्तरदाई नहीं मानता था .इसके विपरीत सभी का तर्क था कि उन्होंने शांति व्यवस्था बनाए रखने की चेष्टा की परंतु शत्रु राष्ट्र की नीतियों के कारण युद्ध हुआ. वर्साय संधि की एक धारा में यह उल्लेख किया गया था कि युद्ध के लिए उत्तरदाई जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्र थे. यह मित्र राष्ट्रों का एक पक्षीय निर्णय था.
- वस्तुतः प्रथम विश्वयुद्ध के लिए सभी राष्ट्र उत्तरदाई थे सिर्फ जर्मनी ही इसके लिए जवाब देह नहीं था. सर्बिया ने ऑस्ट्रिया की जायज़ मांगों को ठुकराकर युद्ध का आरंभ करवा दिया. ऑस्ट्रिया ने युद्ध की घोषणा कर रूस को सैनिक कार्रवाई के लिए बाध्य कर दिया.
- सर्बिया के प्रश्न पर रूस ने भी जल्दबाजी की. सर्बिया की समस्या को कूटनीतिक स्तर पर हल करने की विपरीत उसने इसका समाधान सैनिक कार्यवाही द्वारा करने का निर्णय किया. जर्मनी की मजबूरी यह थी कि वह अपने मित्र राष्ट्र ऑस्ट्रिया का साथ नहीं छोड़ सकता था. रूस, फ्रांस और इंग्लैंड जर्मनी के घोर शत्रु थे. रूस द्वारा सैनिक कार्यवाही आरंभ होने पर जर्मनी शांत बैठा नहीं रह सकता था.
- फ्रांस और रूस पर नियंत्रण रखना उसके लिए आवश्यक था. फ्रांस ने अपनी ओर से रूस को रोकने का प्रयास नहीं किया. बल्कि इसके विपरीत ऑस्ट्रिया विरोधी अभियान में रूस को पूरा समर्थन देने का आश्वासन दिया. इससे सर्विया जैसा छोटा राष्ट्र ऑस्ट्रिया, जर्मनी से युद्ध करने को तत्पर हो उठा.
- इंग्लैंड ने भी युद्ध की स्थिति को टालने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया. उसने अपने सहयोगी राष्ट्रों को भी युद्ध से अलग रहने के लिए नहीं कहा. फलतः दोनों गुटों के राष्ट्र युद्ध में सम्मिलित होते गए. कोई यह अनुमान नहीं लगा सका की एक छोटा युद्ध विश्व युद्ध में परिणत हो जाएगा.
इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध के लिए सभी राष्ट्र उत्तरदायी थे इसके लिए किसी एक राष्ट्र को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है.
प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख घटनाएं
युद्ध का आरंभिक चरण
- 28 जुलाई 1914 को ऑस्ट्रिया द्वारा सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा होते ही युद्ध का बिगुल बज गया. रूस ने सर्बिया के समर्थन में और जर्मनी ने ऑस्ट्रिया के समर्थन में सैनिक कारवाई आरंभ कर दी. रूस के समर्थन में इंग्लैंड और फ्रांस आ गए. जापान ने भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. जर्मन सेना बेल्जियम को रौंदते हुए फ्रांस की राजधानी पेरिस के निकट पहुंच गई. इसी समय जर्मनी और ऑस्ट्रिया पर रूसी आक्रमण हुआ. इससे जर्मनी ने अपनी सेना की एक टुकड़ी पूर्वी मोर्चे पर रूस के प्रसार को रोकने के लिए भेज दिया. इससे फ्रांस सुरक्षित हो गया और पेरिस नगरी बच गई. पश्चिम एशिया में फिलिस्तीन, मेसोपोटामिया और अरब राष्ट्रों में तुर्की और जर्मनी के विरुद्ध अभियान हुए. सुदूरपूर्व में जापान ने जर्मनी अधिकृत क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया.इंग्लैंड तथा फ्रांस ने अफ्रीका के अधिकांश जर्मन उपनिवेशों पर अधिकार कर लिया.
संयुक्त राज्य अमेरिका का युद्ध में सम्मिलित होना
- 1917 तक संयुक्त राज्य अमेरिका मित्र राष्ट्रों से सहानुभूति रखते हुए भी युद्ध में तथस्त रहा. 1915 में जर्मनी के एक ब्रिटिश जहाज लुसितानिया को डुबो दिया जिससे अमेरिकी यात्री भी सवार थे. इस घटना के बाद अमेरिका शांत नहीं रह सका. उसने 6 अप्रैल 1917 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. अमेरिका द्वारा युद्ध में शामिल होने से युद्ध का पासा पलट गया.
सोवियत संघ का युद्ध से अलग होना-
- 1917 में जहां अमेरिका युद्ध में शामिल हुआ, वहीं सोवियत संघ युद्ध से अलग हो गया. 1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद लेनिन के नेतृत्व वाली सरकार ने युद्ध से अलग होने का निर्णय ले लिया. सोवियत संघ ने जर्मनी से संधि कर ली और युद्ध से अलग हो गया
युद्ध का निर्णायक चरण-
- अप्रैल 1917 में अमेरिका प्रथम विश्व युद्ध में सम्मिलित हुआ. इसके साथ ही घटनाचक्र तेजी से चला. केंद्रीय शक्तियों की पराजय और मित्र राष्ट्रों की विजय की श्रृंखला आरंभ हुई. बाध्य होकर अक्टूबर-नवंबर 1918 में क्रमशः तुर्की और ऑस्ट्रिया ने आत्मसमर्पण कर दिया. जर्मनी अकेला पड़ गया. युद्ध में पराजय और आर्थिक संकट से जर्मनी में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई. इस स्थिति में जर्मन सम्राट कैज़र विलियम द्वितीय को गद्दी त्यागनी पड़ी. वह भाग कर हालैंड चला गया. जर्मनी में वेमर गणतंत्र की स्थापना हुई. नई सरकार ने 11 नवंबर 1918 को युद्धविराम के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किया. इसके साथ ही प्रलयंकारी प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हुआ.
प्रथम विश्वयुद्ध की विशेषताएं-
1914-18 के युद्ध को अनेक कारणों से प्रथम विश्वयुद्ध कहा जाता है| इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित थी-
- यह प्रथम युद्ध था जिसमें विश्व के लगभग सभी शक्तिशाली राष्ट्रों ने भाग लिया| यह यूरोप तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि एशिया अफ्रीका और सुदूर पूर्व में भी लड़ा गया ऐसा व्यापक युद्ध पहली बार हुआ था| इसलिए 1914 -18 का युद्ध प्रथम विश्वयुद्ध कहलाया
- यह युद्ध जमीन के अतिरिक्त आकाश और समुद्र में भी लड़ा गया
- इस युद्ध में नय मारक और विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों एवं युद्ध के अन्य साधनों का उपयोग किया गया था| इसमें मशीन गन तथा तरल अग्नि का पहली बार व्यवहार किया गया बम बरसाने के लिए हवाई जहाज का उपयोग किया गया इंग्लैंड में टैंक और जर्मनी ने यू बोट पनडुब्बियों का बड़े स्तर पर व्यवहार किया|
- प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिकों के अतिरिक्त सामान्य जनता ने भी सहायक सेना के रूप में युद्ध में भाग लिया|
- इस युद्ध में सैनिकों और नागरिकों का जितने बड़े स्तर पर संहार हुआ वैसा पहले के किसी युद्ध में नहीं हुआ था
- इस युद्ध में स्पष्ट रूप से यह दिखा दिया कि वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरुपयोग मानवता के लिए कितना घातक हो सकता है.
इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध को विश्व इतिहास में एक युगांतकारी घटना माना जा सकता है.
पेरिस शांति सम्मेलन
- इसमें गुप्त संधियों को समाप्त करने,
- समुद्र की स्वतंत्रता को बनाए रखने,
- आर्थिक प्रतिबंधों को समाप्त करने,
- अस्त्र-शस्त्रों को कम करने,
- शांति स्थापना के लिए विभिन्न राष्ट्रों का संगठन बनाने,
- रूसी क्षेत्र को मुक्त करने फ्रांस को अल्सेस- लॉरेन देने,
- सर्बिया को समुद्र तक मार्ग देने,
- तुर्की साम्राज्य के गैर तुर्कों को स्वायत्त शासन का अधिकार देने,
- स्वतंत्र पोलैंड का निर्माण, करने जैसे सुझाव दिए गए.
सेंट जर्मेन की संधि –
1919 के द्वारा ऑस्ट्रिया को अपना औद्योगिक क्षेत्र बोहेमिया तथा मोराविया चेकोस्लोवाकिया को बोस्निया और हर्जेगोविना सर्बिया को देना पड़ा. इसके साथ मांटिनिग्रो को मिलाकर युगों स्लोवाकिया का निर्माण किया गया. पोलैंड का पुनर्गठन हुआ. ऑस्ट्रिया का कुछ क्षेत्र इटली को भी दिया गया.
त्रियानो की संधि 1920 के अनुसार स्लोवाकिया तथा रुथेनिया, चेकोस्लोवाकिया को दिया गया. युगोस्लाविया तथा रोमानिया को भी अनेक क्षेत्र दिए गए. इन संधियों के परिणामस्वरुप ऑस्ट्रिया हंगरी की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति अत्यंत दुर्बल हो गई.
निऊली की संधि 1919 ने बुल्गेरिया का अनेक क्षेत्र यूनान, युगोस्लाविया और रोमानिया को दे दिया.
सेवर्स की संधि 1920 के द्वारा ऑटोमन साम्राज्य विखंडित कर दिया गया. इसके अनेक क्षेत्र यूनान और इटली को दे दिए गए. फ्रांस को सीरिया तथा पैलेस्तीन, इराक और ट्रांसजॉर्डन को ब्रिटिश मैंडेट के अंतर्गत कर दिया गया. इससे तुर्की में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी. इन सभी संधियों में सबसे अधिक व्यापक और प्रभावशाली वर्साय की संधि 1919 थी जो जर्मनी के साथ की गई
वर्साय की संधि
इस संधि में 440 धाराएं थी. इसने जर्मनी को राजनीतिक सैनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से पंगु बना दिया. संधि के मुख्य प्रावधान अग्रलिखित थे —-
- जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्रों को युद्ध के लिए दोषी मानकर उनकी घोर निंदा की गई. साथ ही, मित्र राष्ट्रों को युद्ध में जो क्षति उठानी पड़ी थी उसके लिए हर्जाना देने का भार जर्मनी पर थोपा गया.
- 1870 में जर्मनी द्वारा फ्रांस के विजित अलसेस और लॉरेन प्रांत फ्रांस को वापस दे दिए गए. इसके अतिरिक्त जर्मनी का सार प्रदेश जो लोहे और कोयले की खानों से भरा था, 15 वर्षों के लिए फ्रांस को दिया गया.
- जर्मनी की पूर्वी सीमा पर का अधिकांश भाग पोलैंड को दे दिया गया. समुद्र तट तक पोलैंड को पहुंचने के लिए जर्मनी के बीचोबीच एक विस्तृत भू भाग निकालकर पोलैंड को दिया गया. यह क्षेत्र पोलिस गलियारा कहलाया.
- डाजिंग और मेमेल बंदरगाह राष्ट्र संघ के अधीन कर दिए गए. कुल मिलाकर जर्मनी को अपने 13 प्रतिशत भू-भाग और 10% आबादी से हाथ धोना पड़ा.
- जर्मनी के निरस्त्रीकरण की व्यवस्था की गई. जर्मन सेना की अधिकतम सीमा एक लाख निश्चित की गई. युद्ध उपयोगी सामानों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
- जर्मनी के सभी नौसैनिक जहाज जप्त कर उसे सिर्फ छह युद्ध पोत रखने का अधिकार दिया गया. पनडुब्बियों और वायुयान रखने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.
- राइन नदी के बाएं किनारे पर 31 मिल तक के भू भाग का पूर्ण असैनिकीकरण कर इसे 15 वर्षों के लिए मित्र राष्ट्रों के नियंत्रण में दे दिया गया.
- जर्मनी के सारे उपनिवेश मित्र राष्ट्रों ने आपस में बांट लिए. दक्षिण पश्चिम अफ्रीका और पूर्वी अफ्रीका की उपनिवेशों को इंग्लैंड, बेल्जियम, पुर्तगाल और दक्षिण अफ्रीका को दे दिया गया. तोगोलैंड और कैमरून पर फ्रांस में अधिकार कर लिया. प्रशांत महासागर क्षेत्र तथा चीन के जर्मन अधिकृत क्षेत्र जापान को मिले.
वर्साय की संधि जर्मनी के लिए अत्यंत कठोर और अपमानजनक थी. इसकी शर्तें विजय राष्ट्रों द्वारा एक विजित राष्ट्र पर जबरदस्ती और धमकी देकर लादी गई थी. जर्मनी ने इसे विवशता में स्वीकार किया उसने इस संधि को अन्यायपूर्ण कहा जर्मनी को संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश किया गया. चूँकि उसने स्वेच्छा से इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया. इसलिए वर्साय की संधि को आरोपित संधि कहते हैं जर्मन नागरिक इसे कभी स्वीकार नहीं कर सके. संधि के विरुद्ध जर्मनी में प्रबल जनमत बन गया. हिटलर और नाजी दल ने वर्साय की संधि के विरुद्ध जनमत को अपने पक्ष में कर सत्ता हथिया ली. शासन में आते ही उसने संधि की व्यवस्था को नकार कर अपनी शक्ति बढ़ानी आरंभ कर दी इसकी परिणति द्वितीय विश्व युद्ध में हुई इसलिए कहा जाता है कि वर्साय की संधि में द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज निहित थे
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम
आप देखेंगे कि 1914 का युद्ध कई मामलों में मानवीय इतिहास में अनोखा रहा है। इससे पहले भी यरोपीय देशों के बीच यद्ध होते रहे थे जिनमें कई देश शामिल होते थे। किंत यह युद्ध अत्यधिक संगठित देशों के बीच का टकराव था। जिनके पास संपूर्ण आधुनिक । टेकनालॉजी के संसाधन मौजद थे और आक्रमण एवं रक्षा के सभी दाँव पेंच उन्हें मालम थे। यह प्रथम युद्ध था जिमके पनपने एवं सुदृढ़ होने में पूरे 19वीं शताब्दी का समय लगा था। युद्ध में शामिल शक्तियों ने इस यद्ध में पूरी निष्ठा एवं उत्तेजना के साथ हिस्सा लिया क्योंकि उनका विश्वास था कि यह युद्ध ऊँचे आदर्शों एवं अस्तित्व में बने रहने के लिए लड़ा जा रहा था।
यह युद्ध जल, थल एवं आकाश में सभी तरीकों से लड़ा.गया था। युद्ध में नये आर्थिक संसाधन और यहाँ तक मनोवैज्ञानिक यद्ध नीति का भी उपयोग किया गया क्योंकि यद्ध में शामिल देशों का विश्वास था कि यह युद्ध जनयुद्ध था। यह युद्ध जनसमूहों के बीच का युद्ध था केवल सेनाओं और जनसेनाओं के बीच का नहीं। युद्ध तुरंत ऐसी स्थिति में पहुंच गया। जहाँ सेनाओं अथवा नेताओं के लिये यह बहुत मुश्किल हो गया था कि वे इसके भविष्य पर नियंत्रण रख सकें। स्वाभाविक ही था कि ऐसे युद्ध के दूरगामी परिणाम होते। यहाँ हम उनमें से कुछ परिणामों पर विचार करेंगे
मानव जीवन की क्षति
युद्ध के दौरान मानव जीवन और भौतिक संपदा के रूप में काफी बड़ा नुकसान हुआ। लाखों जाने गयीं। सबसे अधिक नकमान रूप का हआ और वहाँ मरने वालों की संख्या बीस लाख तक पहुँच गयी थी। इसी प्रकार जर्मनी के भी लगभग बीस लाख लोग मारे गये, फ्रांस और उसके उपनिवेशों को मिलाकर तेरह लाख के आसपास लोग मारे गए और ऐसी ही कछ स्थिति आस्ट्रिया की भी रही। ब्रिटेन के भी लगभग दस लाख लोगों ने अपनी जाने गँवायीं। अमरीका के लगभग एक लाख लोग इस यद्ध में मारे गये। कल मिलाकर लगभग एक करोड़ लोगों ने अपनी जानें गँवायीं और इनमें से अधिकतर चालीस वर्ष से भी कम आय के थे। इस संख्या के दगने लोग घायल हए और अधिकांश हमेशा के लिए अपंग हो गये। एक फ्रांसीसी अनमान के अनसार 1914 और 1917 के बीच हर मीनट एक फ्रांसीसी अपनी जान गँवाता रहा।
निश्चित रूप से मरने की ये दर किसी भी यूरोपीय युद्ध में नहीं देखी गयी थी। इतनी बड़ी संख्या में मानव-जीवन के नकमान ने लिग और आय दोनों स्तरों पर जनसंख्या की संरचना को बुरी तरह प्रभावित किया। महिलाओं में जान का नुकसान कम हआ था। इस प्रकार जहाँ 1911 में ब्रिटेन में प्रति 1000 पुरुष पर 1067 महिलायें थीं. 1921 में ये अनपान प्रति 1000 परुष 1093 महिलायें पर हो गया। इस परिवर्तन के कारण समाज में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का उभरना स्वाभाविक ही था।
सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन
उन सभी देशों में जहाँ नारी उत्थान आंदोलन 1914 के पहले शरू हो चुका था, यद्ध के कारण उनमें काफी तेजी आ गयी। 1918 में ब्रिटेन में तीस वर्ष से ऊपर की महिलाओं को संसदीय चनाव में मत देने का अधिकार प्राप्त हो गया। ऐसा इसलिए हआ क्योंकि यद्ध के लिए संपूर्ण राष्ट्रीय प्रयास की आवश्यकता थी और आधुनिक युद्ध में असैनिक जन समूहों में उत्साहवर्धन और औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना उतना ही महत्वपूर्ण बन चुका था जितना कि सैनिकों को लेकर यद्ध करना।
महिलाओं ने सभी गतिविधिओं में भाग लिया। फैक्ट्रियों में काम किया, दकानों, दफ्तरों एवं स्वैच्छिक सेवाओं में भाग लिया तथा अस्पतालों और स्कलों को चलाया। उन्होंने परुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और उनके समक्ष । बराबरी का दावा पेश किया। उनके लिये अब उद्योगों और व्यापारों में काम करना आसान हो गया था क्योंकि काम के परंपरागत तरीके अब समाप्त कर दिये गये थे। युद्ध क्षेत्र में बराबर के सहयोगी होने के कारण समाज के अंदर वर्ग और धन के बंधन काफी हद तक कमजोर पड़ गये थे। सामाजिक मल्यों में भी काफी बड़ा परिवर्तन आया और यद्ध से फायदा उठाने वाले लोग समाज के अंदर विशेष रूप से नफरत की निगाह से देखे जाने लगे।
यूरोप में हुए पिछले युद्धों के मुकाबले में इस युद्ध की लागत में अद्भुत रूप से बढ़ोतरी हई-नेपोलियन के साथ 20 वर्ष के युद्ध में ब्रिटेन के ऋण में आठ गना बढ़ोतरी हुई जबकि 1914 से 1918 के बीच यह ऋण बारह गुना हो गया। ऐसा अनुमान है कि युद्ध में शामिल देशों का लगभग 1860 खरब (186 बिलियन) डालर का नकसान हआ। इतनी बड़ी धनराशि ध्वंसकारी कार्यों में लगने से निश्चित रूप से मानवीय कार्यों, चाहे वह शिक्षा हो अथवा स्वास्थ्य या कोई अन्य कार्य, का काफी बड़ा नुकसान हुआ क्योंकि यही धन इन कार्यों में भी लगाया जा सकता था। युद्ध से पूर्व विश्व व्यापार को बढ़ावा देने वाले सारे प्रयास बुरी तरह प्रभावित हुए।
यह आर्थिक उथल-पुथल युद्ध का सबसे अधिक चिन्ताजनक परिणाम रही। यद्ध ने यूरोप की औद्योगिक प्रभसत्ता समाप्त कर दी और चार वर्ष के बाद जब यरोप ने इस झटके से उभर कर फिर से इस क्षेत्र में हाथ डाला तो बाकी देशों से स्वयं को काफी पीछे पाया। अमरीका ने निर्यात में काफी प्रगति की और दक्षिण अमरीका एवं भारत में काफी स्थानीय उद्योग पनपे। जापान ने कपड़ा व्यापार में प्रवेश किया और चीन, भारत और दक्षिणी अमरीका के बाजार माल से भर दिए। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का नक्शा एकदम बदल गया। जब यूरोपीय नेताओं ने सामान्य स्थिति बनाने का आह्वान किया, जिसका अर्थ 1913 की विश्व स्थिति में जाना था, तो उनके विचार में यह नहीं आया कि आधुनिक युद्ध भी एक प्रकार की क्रांति है और 1913 का विश्व इतिहास का उसी प्रकार से हिस्सा बन । चका था जिस प्रकार हैब्सबर्ग एवं रोमानोफ साम्राज्य इतिहास का हिस्सा थे। जैसा कि कहा जा चुका है, युद्ध के बाद के सभी आर्थिक नारे किसी न किसी रूप में यूरोप को विश्वयुद्ध से पहले के स्तर पर लाने से संबंधित जैसे, पुनर्निर्माण, क्षतिपूर्ति, पूर्ववत् संबंध, युद्ध ऋणों के भुगतान और सोने स्तर को पूर्ववत् बनाना आदि।
युद्ध के बाद के दौर में बालकान में राष्ट्रवाद की जड़े इतनी मजबूत हो चुकी थी कि वे एक संतुलित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से कम स्तर रखने वाले किसी भी समाधान के विरुद्ध हिंसात्मक । रुख अपना रहे थे, नए-नए औद्योगिक राष्ट्र अपनी रक्षा के लिए प्रयासरत् थे जबकि-पुराने औद्योगिक केंद्र नए विरोधियों के मकाबले में अपनी टी हुई अर्थव्यवस्था की सुरक्षा चाहते थे।
फ्रांस को अल्सेस (Alsaece), एवं लोरेन (Larraine) उसके साथ बने रहने तथा 15 वर्षों तक सार (Saar) कोयला खदानों को पूर्ण रूप से प्राप्त कर लेने के कारण आर्थिक पुनर्निर्माण में काफी सहायता मिली। किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी आर्थिक समस्याएँ भी थीं जो केवल जर्मनी द्वारा क्षतिपूर्ति करने से नहीं सुलझ सकती थीं। उदाहरण के लिए बेल्जियम के महत्वपूर्ण रेलमार्ग 2400 मील की रेल पटरी ध्वस्त हो जाने के कारण बर्बाद हो गए थे और युद्ध के अंत तक केवल 20 लोकोमोटिव देश में बचे थे, इसकी 51 स्टील मिलों से आधी से अधिक विल्कुल तबाह हो गयीं और शेष बुरी तरह प्रभावित हुईं; दरअसल इस प्रकार का नुकसान प्रत्येक राष्ट्र को हुआ था। पुनर्निर्माण के आरंभिक चरण वास्तव में काफी दुष्कर थे क्योंकि अपंग सैनिकों के लिए काम उपलब्ध कराना, बेघर हुए लोगों को घर उपलब्ध कराना, उद्योगों को सामान्य गति देना सरल कार्य न था।
जनतांत्रिक आदर्श
अपनी तमाम तबाहियों के बावजूद युद्ध के परिणामस्वरूप जनतांत्रिक आदर्श एवं विचार भी उभरे जो कि युद्ध के पूर्व जनमानस के लिए अपरिचित संकल्पनाएँ थीं: युद्ध की घोषणा विश्व को जनतांत्रिक मूल्यों के लिए सुरक्षित बनाने के लिए की गयी थीं। स्वाभाविक ही था कि नएनए स्वतंत्र राष्ट्र अपने देश में जनतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए तत्पर थे। एके के बाद एक देश प्रजातांत्रिक संविधान तैयार करते जा रहे थे। स्वयं जर्मनी ने इस दिशा में पहल करते हुए वीमर (Weimar) गणराज्य की स्थापना में आज तक का सबसे संपूर्ण जनतांत्रिक संविधान लिखा। इस संविधान का आधार ब्रिटेन, स्विटजरलैंड, फ्रांस एवं अमरीकी प्रजातंत्र थे।
किन्तु नए प्रजातंत्र का सबसे कमजोर पक्ष यह था कि यह उस सामाजिक ढांचे पर लादा जा रहा था जो कि आश्चर्यजनक रूप से बहुत ही कम परिवर्तित हुआ था। जनसमूहों को एक सूत्र में बाँधने में केवल एक ही सामान्य भावना थी और वह थी अपने राष्ट्र की हार एवं सहयोगी राष्ट्रों द्वारा शांति के शर्तों के विरुद्ध लौकिक राष्ट्रीय रोष। नयी सत्ता देर तक नहीं. टिक सकती थीं क्योंकि उसमें प्रजातांत्रिक आधारों पर प्रशासन चलाने की संरचनात्मक योग्यता नहीं थी।
इसी प्रकार अन्य यूरोपीय राष्ट्रों में जहाँ भी प्रजातंत्र की नींव पड़ी, अपने अधूरे स्वरूप के कारण उनकी स्थिति डाँवाडोल रही। यद्ध के बाद थोड़े समय के लिए परे यरोप में प्रजातांत्रिक मूल्य फैले। युद्ध ने पूरे विश्व को इस भावना से ओत-प्रोत किया। किन्तु शीघ्र ही ऐसा महसूस किया गया कि संसदीय प्रणाली की सरकारों ने पश्चिमी राजनैतिक मूल्य उन राष्ट्रों पर थोप रहे थे जिन्हें स्वराज्य का थोड़ा बहुत ही ज्ञान था और कुछ के पास बिल्कुल नहीं था। युद्ध के द्वारा उभरी राष्ट्रवादी भावना का चरमसीमा पर पहुँचना इन प्रयोगों के लिए उत्तरदायी था किन्त पश्चिम का सामाजिक एवं आर्थिक जीवन अभी भी इतना अधिक प्रगति नहीं कर सका था जिसके कारण इस प्रक्रिया में कठिनाई हो रही थी। यरोपीय शक्तियों के उपनिवेशों में भी स्वराज्य एवं स्वतंत्रता प्राप्त करने की भावना जोर पकड़ रही थी।
1919 का पेरिस सम्मेलन
1815 की विएना कांग्रेस की अपेक्षा 1919 का पेरिस सम्मेलन का स्वरूप अधिक प्रतिनिधि बोधक था। राजाओं की जगह अधिकतर देशों के प्रधान मंत्री एवं विदेश मंत्री अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। केवल राष्ट्रपति बुडरोन विल्सन एवं किंग एलबर्ट इसके अपवाद थे। कुल बत्तीस राष्ट्रों ने इस सम्मेलन में प्रतिनिधित्व किया। सम्मेलन ने जो कुछ भी सफलता अर्जित की उसमें समय, स्थान प्रतिनिधि संघटन, संगठन एवं सम्मेलन की कार्यवाही की प्रक्रिया आदि सभी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
जहाँ तक समय का प्रश्न है, यह सम्मेलन जर्मनी के साथ युद्ध विराम पर समझौता करने के नौ हफ्ते बाद रखा गया। ऐसा करते हुए अमरीका एवं ब्रिटेन की आंतरिक राजनैतिक स्थिति भी ध्यान में रखी गयी थी। राष्ट्रपति विल्सन ने स्वयं सम्मेलन में हिस्सा लेने का निश्चय । किया जिसके कारण दिसंबर में उनके द्वारा कांग्रेस में “संघीय राष्ट्र” संदेश पारित करने तक सम्मेलन नहीं किया जा सका। ब्रिटेन में भी लॉयड जार्ज सम्मेलन से पूर्व चुनाव करवाना चाहते थे जो कि मध्य दिसंबर में पूरे हुए। विजय के उल्लास में “कैसर (Kaiser) को फाँसी दो”, “जर्मनी क्षतिपूर्ति करो” और “वीरो की मातृभूमि” जैसे नारे उठे। चुनाव परिणामों से हाउस ऑफ कॉमन्स के स्वरूप में भारी परिवर्तन आया क्योंकि “संसद में ऐसी कठोर मद्रा वाले लोगों का प्रवेश हुआ जैसे कि उन्होंने युद्ध में महत्वपूर्ण कार्य किए हों।” चुनाव के समय को देखते हुए इसके परिणाम आश्चर्यजनक न थे।
सम्मेलन स्थल का चुनाव भी काफी सोच-विचार कर किया गया था। आरंभ में विएना में सम्मेलन करने का सझाव आया था लेकिन राष्ट्रपति विल्सन ने पेरिस को प्राथमिकता दी जहाँ कि भारी संख्या में अमरीकी सेनाएँ तैनात थी। यह सांकेतिक भी हो सकता था क्योंकि 1871 में वर्साइल्स में हॉल ऑफ मिरर के समक्ष प्रथम जर्मन साम्राज्य की घोषणा की जा चकी थी इसके अतिरिक्त प्रधान मंत्री जार्ज क्लिमेंस्य (George Clemencoy) जोकि सम्मेलन में सबसे अनुभवी नेता थे और स्वाभाविक रूप से सम्मेलन की अध्यक्षता करने वाले थे, को सेडन (Sedan) का पूरी तरह स्मरण था जबकि फ्रैंको-प्रशियन युद्ध में फ्रांस की हार हुई थीं और इसे ध्यान में रखते हुए सम्मेलन का स्थान पेरिस चुनना उस हार का जवाब हो सकता था।
सम्मेलन प्रतिनिधियों का चुनाव और भी अधिक महत्वपूर्ण था। इसमें केवल सहयोगी मित्र राष्ट्रों का ही प्रतिनिधित्व नहीं था बल्कि “संबद्ध शक्तियाँ” भी इसमें प्रतिनिधित्व कर रही थीं। युद्ध के अंतिम दिनों में मुख्यतः इस उद्देश्य से कई देश युद्ध में शामिल हो गए थे कि वे अंतिम समझौते में हिस्सेदारी कर सकें। जिन तीन मख्य पक्षों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला था वे थे : गैर संबद्ध शक्तियाँ, रूसी जोकि अभी भी गह यद्ध एवं हस्तक्षेप के यैद्ध का सामना कर रहे थे और भूतपूर्व शत्रु, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, बुलगारिया और तुर्की, इन शक्तियों की अनुपस्थिति भविष्य की परिस्थितियों की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। विशेष रूप से जर्मनी की अनुपस्थिति से डिकटाट (Dictat) (जो कि उस पर लादी गयी व्यवस्था थी और जिसके लिए न तो जर्मनी अपने को उत्तरदायी समझता था और न ही उसके लिए जर्मनी की दृष्टि में कोई सम्मान था) के रूप में यूरोप को शांति प्राप्त हुई थी। समझौते की प्रक्रिया में यह कदम सबसे ज्यादा कमजोर पक्ष सिद्ध हुआ।
अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद, पेरिस सम्मेलन विश्व में किसी भी मौके पर हुआ सबसे बड़ा एवं महत्वपर्ण सम्मेलन था, सम्मेलन में 32 प्रतिनिधि मण्डल शामिल थे जोकि विश्व की तीन चौथाई जनसंख्या का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। किन्तु क्योंकि स्वयं युद्ध बड़ी शक्तियों के बीच का यद्ध था इसलिए इस मौके पर भी सारा नियंत्रण दस लोगों की एक समिति के हाथ में था। इस समिति में पाँच बड़े राष्ट्र; अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली एवं जापान के दो दो सदस्य शामिल थे। शीघ्र ही जापान ने कार्यवाही में रुचि लेना बंद कर दिया और अलग-थलग रहा। अप्रैल 1919 के अंत तक इटली ने भी हाथ खींच लिया और अंततः विख्यात “तीन बड़े राष्ट्र” सारी कार्यवाही चलाते रहे।
जैसा कि आप जानते हैं कि इंन “तीन बड़े राष्ट्रों” का प्रतिनिधित्व अमरीकी राष्ट्रपति ‘विल्सन’, फ्रांसीसी प्रधान मंत्री क्लीमेंस्य एवं ब्रिटेन के प्रधान मंत्री लॉयड जार्ज कर रहे थे। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि सम्मेलन अंततः दो विरोधी हितों वाले व्यक्तियों के बीच समझौता था। विल्सन आदर्शवादी थे और प्रजातंत्र तथा लीग ऑफ नेशन्स के प्रति कटिबद्ध थे। दूसरी ओर क्लीमेंस्यू पुरानी परंपरा के यथार्थवादी थे और जर्मनी, जोकि फ्रांस की सुरक्षा पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाए हुए था, के प्रति द्वेष की भावना से ओत-प्रोत थे।
इस प्रकार सम्मेलन आदर्शवाद एवं यथार्थवाद के मूल्यों के बीच टकराव के रूप में परिवर्तित हो गया। इसके अतिरिक्त, सभी राष्ट्रों एवं अधिकतर राजनेताओं के अंतद्वंद्व की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सम्मेलन का स्वरूप वैसा ही था जैसा कि 1919 के दौर में लोगों की मानसिकता बन चकी थी। सम्मेलन एक ओर आशा एवं आदर्शों एवं दूसरी ओर उत्पीडित जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में प्रतिशोध एवं प्रतिकार की भावना के तनावों के बीच घिरी हुई थी। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसी पृष्ठभूमि के संदर्भ में यह सम्मेलन संतोषजनक परिणाम क्यों नहीं दे सका। ऐसी परिस्थिति में जहाँ लचीलापन आवश्यक था वहाँ सम्मेलन ने कठोर रुख अपनाया और जहाँ कठोरता एवं दृढ़ता की आवश्यकता थी वहाँ कमजोरी सामने आई।
इतिहासकार डेविड थामसन (David Thamson) के शब्दों में “इतिहास में पेरिस सम्मेलन एक स्पष्ट असफलता का प्रतीक है, लेकिन यह असफलता मानव बद्धि की असफलता और अंशतः सांगठनिक एवं कार्यविधियात्मक असफलता थी। इसका कारण अति यथार्थवाद अथवा आदर्शवाद की कमी नहीं बल्कि दोनों का गलत इस्तेमाल था।”
नया शक्ति संतुलन
जैसा कि आपने पहले पढ़ा है, महायुद्ध केवल युद्ध ही नहीं था बल्कि जीवन के हर पहल में एक क्रांति थी। सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में भयानक उथल-पथल की भाँति ही विश्व में शक्ति संतुलन के अस्थायी पुनर्वितरण की समस्या भी थी। इस यद्ध के परिणामस्वरूप प्राने रूम, आस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी एवं तकी साम्राज्या का गजनीतक एवं सैनिक पतन हो चुका था। युद्ध से पर्व के जर्मनी एवं आस्ट्रिया का प्रभत्व एक समय के लिए समाप्त हो गया। शांति के संस्थापकों का बनियादी उद्देश्य यह निश्चित करना था कि जर्मनी पर नियंत्रण रखा जा सके और सैनिक रूप में उसे कमजोर किया जा सके। राष्ट्रीय गठन, आर्थिक उपयुक्तता एवं सैन्य सुरक्षा से संबंधित उभरती हुई नयी वातविकताओं की दृष्टि से पूर्वी एवं मध्य यूरोप का नए सिरे से नक्शा तैयार करने की भी एक समस्या थी।
जर्मनी को कमजोर बनाने के लिए कई उपाय किए गए। जर्मन सेनाओं को उनके द्वारा प्राप्त किए गए संपूर्ण भ-भागों से हट जाने का निर्देश दिया गया। अल्पेस एवं लोरेन फ्रांस को दोबारा प्राप्त हो गए। जर्मनी को राइन नदी (Rhine) के बाएँ किनारे को किलाबंद करने की अनुमति नहीं थी। उसकी सेना की संख्या घटाकर 100,000 कर दी गयी और हथियारों के । उत्पादन पर पाबंदी लगा दी गयी। इसी प्रकार की कार्यवादी नौसेना एवं उपनिवेशों के संदर्भ में भी की गयी। जर्मन नौसेना दस हजार टन के 6 लड़ाक जहाज 12 नाशक जहाज एवं 12 पनडुब्बी नावों से अधिक नहीं रख सकती थी। सबमैरीन जहाज रखने की उन्हें अनुमति नहीं थी। उन्हें उपनिवेशों पर से अपने सारे अधिकार समाप्त करने थे। एक निर्देश के तहत जर्मन साम्राज्य सहयोगी शक्तियों के बीच उस समय उनके द्वाग अधिकृत क्षेत्रों के आधार पर बाँटा गया। बाद में लीग ऑफ नेशन्स को इन क्षेत्रों में प्रशासन की निगरानी की जिम्मेदारी सौंपी गयी।
दूसरी महत्वपूर्ण समस्या, जैसा कि बताया जा चुका है, पूर्वी यूरोप के पुनर्गठन की थी, पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों के समक्ष “पूर्वी प्रश्न’ बड़े लंबे समय से बना हुआ था। महायुद्ध ने इस समस्या को और भी अधिक बढ़ा दिया। पुराने आस्ट्रियाई माम्राज्य पर इटली एवं पूर्वी यूरोप में उभरे नए राष्ट्रों को अपने अधिकतर क्षेत्र सौंप देने के लिए दबाव डाला गया। हैब्सवर्ग का दसरा आधा भाग और भी कठोर बर्ताव का शिकार बना। इसका सबसे अधिक फायदा सर्बिया को हुआ जो कि युगोस्लाविया के नए दक्षिणी स्लाव राज्य में परिवर्तित हुआ।
स्वयं तुर्की युद्ध में हार के परिणामस्वरूप आंतरिक राजनैतिक उथल-पुथल के दौर से गुजरा। मुस्तफा कमाल ने सेवरज़ (Sevreg) संधि जो कि तुर्की एवं सहयोगी शक्तियों के बीच हुई थी, के विरुद्ध राष्ट्रवादी उथल-पुथल को नेतृत्व प्रदान किया। इस दबाव के कारण 1923 में “लाजेन संधि” के नाम से एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए गए। कमाल ने अरब बाहुल्य प्रदेशों पर से सारे दावे वापस ले लिए और तर्की राज्य के इस्लामी आधार को त्याग दिया।
मुस्तफा कमाल की अध्यक्षता में एक नए तुर्की गणराज्य की स्थापना हुयी, जैसा कि आप समझ सकते हैं, पूर्वी यूरोप के इस पुनर्गठन ने लगभग उतनी ही समस्याओं को जन्म दिया जितनी समस्याओं का इसने समाधान प्रस्तत किया। इससे कई मध्यम शक्तियों का जन्म हुआ जैसे पोलैंड, रूमानिया व यूगोस्लाविया। इससे अरब राष्ट्रीयता और फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्र बनाने की आशाओं को बढ़ावा मिला जिससे कई जटिलतायें पैदा हुयीं जो अभी भी अंतर्राष्ट्रीय तनाव का कारण हैं। इस पनर्गठन से अल्पसंख्यकों के अधिकारों और उनकी रक्षा की नयी समस्या सामने आयीं।
पूर्वी यूरोप का यह पूरा पुनर्गठन दरअसल यूरोप में बोलशेविक विचारों के फैलने के डर को देखते हुए किया गया था। इतिहासकार डेविड थॉमसन के शब्दों में :
“फिनलैंड से लेकर पोलैंड एवं रूमानिया तक पूर्वी राज्यों को अधिक से अधिक विस्तृत एवं मजबूत बनाने के जोरदार प्रयास जारी थे जिससे कि यह क्षेत्र कयनिज्म के ज्वार को आगे न बढ़ने देने में रक्षा पंक्ति रूप में, उसके प्रभाव में रुकावट डालने वाले क्षेत्र के रूप में कार्य कर सकें।”
अंतर्राष्ट्रीय साधन
लीग ऑफ नेशन्स का गठन “शक्ति की राजनीति” की पुरानी प्रणाली के विकल्प के रूप में अंतर्राष्ट्रीय संस्था तैयार करने के उद्देश्य से किया गया था। यह संस्था झगड़ों के शांतिपूर्ण समाधान का साधन थी जिसने पुरानी गुप्त कूटनीतिज्ञता एवं स्वतंत्र गठबंधनों और शक्ति संतलन के प्रयासों की परानी प्रणाली का विकल्प प्रस्तुत किया। आप जानते हैं कि 1914 में यूरोपीय संदर्भ में विश्व की परिस्थितियाँ कितनी असामान्य थी। ये परिस्थितियाँ “अंतर्राष्ट्रीय अराजकता” के रूप में व्याख्यायित की जाती हैं, हालाँकि यह स्थिति अर्ध-अराजक थी जबकि औपनिवेशिक, राजवंशीय एवं राष्ट्रीय झगड़ों ने पूरे यूरोप को युद्ध की भयानक आग में झोंक दिया।
लीग ऑफ नेशन्स की योजना राष्ट्रपति विल्सन ने बड़े उत्साह के साथ प्रस्तुत की। अंततः यह योजना ब्रिटेन एवं फ्रांस के प्रस्तावों को शामिल करके संशोधित की गयी। एक तरह से लीग यूरोप की एकबद्धता की संकल्पना का विस्तृत रूप में पुनर्प्रस्तुतीकरण था जोकि अब विश्व की एकबद्धता की संकल्पना के रूप में था। दूसरी ओर लीग में कछ नयापन एवं । भिन्नता भी थी क्योंकि इसके अंतर्गत प्रत्येक सहभागी को सभी झगड़ों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने तथा किसी भी आक्रमण की स्थिति जिम्मेदारी की भागीदारी की शपथ लेनी थी।
लीग किसी भी रूप में सरकार तो नहीं थी लेकिन सरकारों द्वारा शांति स्थापित करने में सहयोगी के तौर पर इस्तेमाल की जा सकती थी। ऐसा प्रकट होता है कि यह संस्था काफी अर्थपूर्ण एवं समीचीन थी लेकिन यद्धोपरांत विश्व के संदर्भ में केवल कछ ही मान्यताओं की दृष्टि ने इसे सफलता मिली। इसकी मख्य मान्यता यह थी कि सभी सरकारें शांति चाहेंगी जो कि मारकाट एवं बर्बादी के विरुद्ध पनपी भावनाओं के संदर्भ में एक औचित्यपर्ण मान्यता थी।
यह मान्यता इस दृष्टि से और भी औचित्यपूर्ण लगती थी और जैसा कि पिछले पृष्ठों पर आपने पढ़ा है कि प्रजातांत्रिक सरकारों की संख्या बढ़ रही थी और ये प्रजातांत्रिक सरकारें पिछली नौकरशाहियां एवं राजवंशी साम्राज्यों के मकाबले में अधिक शांतिप्रिय स्वरूप की थीं। लेकिन जैमा कि बताया जा चुका हैं कि यह प्रजातांत्रिक संविधान कमजोर सिद्ध हुआ और प्रजातात्रिक आदर्शों को अपनाने में इनकी रुचि थोड़े ही समय तक रही। ऐसी आशा कि संतप्ट राष्ट्रवाद अब शांति की ओर मड़ेगा तरंत ही गलत सिद्ध हो गयी। इस प्रकार इन मान्यताओं के द्रष्टिकोण से लीग ऑफ नेशन्स को मजबूत स्थायित्व और आवश्यक कार्यशक्ति प्राप्त न हो सकी।
अमरीका का लीग का मदम्य बनने में असफलता और जर्मनी और रूस के लीग से बाहर होने …के कारण लीग केवल समझौतों के लिए आधार ही तैयार कर सकी। जापान ने भी केवल नाममात्र के लिए सांच दिखाई। केवल ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल, फ्रांस एवं इटली ही इसके सदस्य थे। इटली ने भी शीघ्र ही अपने फासीवादी नेता मसोलिनी की आक्रमक नीति के तहत लीग की अवहेलना कर दी। लीग शांति स्थापित करने के अपने मख्य उद्देश्य में असफल रही, यद्यपि कि कछ छोटे-मोटे झगड़े सलझाने में इसे सफलता अवश्य मिली। जब भी राष्ट्रों ने ईमानदारी के साथ समाधान के प्रावधान के समक्ष झगड़े प्रस्तत किए, लीग ने सफलता पायी। लीग ने आलैंड (Aaland) द्वीप से संबधित फिनलैंड और स्वीडेन के झगड़े का समाधान प्रस्तुत करने में सफलता अर्जित की। तीन मौकों पर लीग ने झगड़ा ग्रसित बालकान क्षेत्र में सफलतापूर्वक हस्तक्षेप किया। इसने ईराक एवं तुर्की के सीमा संबंधित झगड़े भी सुलझाए।
जैसा कि बताया जा चुका है कि लीग के पास अपने निर्णय लागू करने के प्रभावशाली साधन नहीं थे और इसलिए जहाँ भी बड़ी शक्तियों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ वहाँ लीग शांति स्थापित करने में सफल न हो सकी।
लीग की दो महत्वपूर्ण सहयोगी संस्थाएँ इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस और इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन (आई. एल. ओ.) थी। पहली संस्था का कार्य राष्ट्रों के झगड़े निपटाना था और दसरी संस्था श्रम से संबंधित समस्याओं में हस्तक्षेप करती थी। आज के संदर्भ में ये दोनों संस्थाएँ संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन्स) की संरचना का महत्वपूर्ण भाग है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रथम विश्वयुद्ध के कुछ सुखद परिणाम हुए परंतु अधिकांश परिणाम दुखदाई ही थे
प्रथम विश्व युद्ध में भारत का प्रदर्शन (First World War Indian Army)
प्रथम विश्व युद्ध में लगभग 13 लाख भारतीय ब्रिटिश आर्मी की तरफ़ से लड़ रहे थे. ये भारतीय सैनिक फ्रांस, इराक, ईजिप्ट आदि जगहों पर लडे, जिसमे लगभग 50,000 सैनिकों को शहादत मिली. तीसरे एंग्लो अफ़ग़ान वार और प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में इंडिया गेट का निर्माण किया गया.
प्रथम विश्वयुद्ध और भारत
जब यह युद्ध आरम्भ हुआ था उस समय भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था। यह काल भारतीय राष्ट्रवाद का परिपक्वता काल था। किन्तु अधिकतर जनता गुलामी की मानसिकता से ग्रसित थी। भारत की जनता, ब्रिटेन के दुश्मन को अपना दुश्मन मानती थी। उस समय तक सरकार को ‘माई-बाप’ समझने की प्रवृत्ति थी और इसलिए जो भी सहयोग ब्रिटेन की भारत सरकार ने चाहा वो भारत के लोगों ने दिया। भारत की ओर से लड़ने गए अधिकतर सैनिक इसे अपनी स्वामीभक्ति का ही हिस्सा मानते थे। जिस भी मोर्चे पर उन्हें लड़ने के लिए भेजा गया वहां वो जी-जान से लड़े। इस युद्ध में ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटेमिया (इराक) की लड़ाई से लेकर पश्चिम यूरोप, पूर्वी एशिया के कई मोर्चे पर और मिस्र तक जा कर भारतीय जवान लड़े।
कुल 8 लाख भारतीय सैनिक इस युद्ध में लड़े जिसमें कुल 47746 सैनिक मारे गये और 65000 घायल हुए। इस युद्ध के कारण भारत की अर्थव्यवस्था लगभग दिवालिया हो गयी थी।
महात्मा गांधी ने भी इस युद्ध में भारतीय सैनिकों को भेजने के लिए अभियान चलाया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस युद्ध में ब्रिटेन को समर्थन ने ब्रिटिश चिन्तकों को भी चौंका दिया था। भारत के नेताओं को आशा थी कि युद्ध में ब्रिटेन के समर्थन से खुश होकर अंग्रेज भारत को इनाम के रूप में स्वतंत्रता दे देंगे या कम से कम स्वशासन का अधिकार देंगे किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उलटे अंग्रेज़ों ने जलियाँवाला बाग नरसंहार जैसे घिनौने कृत्य से भारत के मुँह पर तमाचा मारा।
युद्ध के लिए गांव-गांव शहर-शहर अभियान चला। लोगों ने भारी चन्दा भी जुटाया और इसके साथ ही बड़ी तादाद में युवा सेना में भर्ती हुए। सेना में अधिकतर जवान खुशी-खुशी शामिल हुए लेकिन जहां लोगों ने आनाकानी की वहां ब्रिटिश सरकार ने जोर जबरदस्ती से भी काम लिया। बहुत से जवानों को जबरन सेना में भर्ती कर जंग के मोर्चे पर भेजा गया। इतना ही नहीं, सेना के अन्दर भी उनके साथ भेदभाव किया जाता था। राशन से लेकर वेतन भत्ते और दूसरी सुविधाओं के मामले में वे ब्रिटिश सैनिकों से नीचे रखे जाते थे। एक ब्रिटिश सिपाही के खर्चे में कई-कई भारतीय सैनिक रखे जा सकते थे। जलियांवाला बाग कांड के लिए कुख्यात ब्रिटिश अधिकारी जनरल ओ डायर इस युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों को भर्ती करने की मुहिम की जिम्मेदारी निभा रहा था। अब इसे भारत की गरीबी कहिए, स्वामीभक्ति या फिर मजबूरी, लेकिन भारतीय सैनिकों ने लड़ना जारी रखा और इस भेदभाव का असर कभी अपनी सेवाओं पर नहीं पड़ने दिया।
प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की भागेदारी के प्रति राष्ट्रवादियों का प्रत्युत्तर तीन अलग-अलग प्रकार का था-
- (१) उदारवादियों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन ताज के प्रति निष्ठा का कार्य समझा तथा उसे पूर्ण समर्थन दिया।
- (२) उग्रवादियों, (जिनमें तिलक भी सम्मिलित थे) ने भी युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया क्योंकि उन्हें आशा थी कि युद्ध के पश्चात ब्रिटेन भारत में स्वशासन के सम्बन्ध में ठोस कदम उठाएगा।
- (३) जबकि क्रांतिकारियों का मानना था कि यह युद्ध ब्रिटेन के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करने का अच्छा अवसर है तथा उन्हें इस सुअवसर का लाभ उठाकर साम्राज्यवादी सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहिए। (हिन्दू-जर्मन षडयन्त्र तथा ग़दर राज्य-क्रांति देखें)
इस युद्ध में भारतीय सिपाही सम्पूर्ण विश्व में अलग-अलग लड़ाईयों में लड़े। भारत ने युद्ध के प्रयासों में जनशक्ति और सामग्री दोनों रूप से भरपूर योगदान किया। भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम , एडीन, अरब, पूर्वी अफ्रीका, गाली पोली, मिस्र, मेसोपेाटामिया, फिलिस्तीन, पर्सिया और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्व में विभिन्न लड़ाई के मैदानों में बड़े पराक्रम के साथ लड़े। गढ़वाल राईफल्स रेजिमेण्ट के दो सिपाहियों को इंग्लैंड का उच्चतम पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था।
1915 के आरम्भ में भारतीय सैनिकों को पहले आराम दिया गया, लेकिन जल्द ही उनकी युद्ध में वापसी हुई। युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने 9200 भारतीय सैनिकों को वीरता पदकों से सम्मानित किया। सरकार ने इस विश्वयुद्ध में शहीद हुए 74 हजार भारतीय सैनिकों की याद में दिल्ली में 1921 में इंडिया गेट की आधारशिला रखी। यह 1931 में बनकर तैयार हुआ। इसमें 13,300 हजार से ज्यादा सैनिकों के नाम हैं।
इस युद्ध में भारत से 1.72 लाख जानवर भेजे गए। इनमें घोड़े, खच्चर, टट्टू, ऊंट, बैल और दूध देने वाले मवेशी शामिल थे। इनमें 8970 खच्चर और टट्टू ऐसे भी थे, जिन्हें बाहर से भारत लाकर प्रशिक्षित किया गया था और फिर युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में भेजा जाता था।
युद्ध के शुरुआती दौर में जर्मनी नहीं चाहता था कि भारत इसमें शामिल हो। युद्ध आरम्भ होने के पहले जर्मनों ने पूरी कोशिश की थी कि भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया जा सके। बहुत से लोगों का विचार था कि यदि ब्रिटेन युद्ध में लग गया तो भारत के क्रान्तिकारी इस अवसर का लाभ उठाकर देश से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने में सफल हो जाएंगे। किन्तु इसके उल्टा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का मत था स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए इस समय ब्रिटेन की सहायता की जानी चाहिए। और जब 4 अगस्त को युद्ध आरम्भ हुआ तो ब्रिटेन भारत के नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया। रियासतों के राजाओं ने इस युद्ध में दिल खोलकर ब्रिटेन की आर्थिक और सैनिक सहायता की।
प्रथम विश्वयुद्ध को ‘लोकतंत्र की लड़ाई’ भी कहा जा रहा था। ब्रिटेन ने तो आधिकारिक तौर पर ऐलान किया था कि यह युद्ध लोकतंत्र के लिए लड़ा जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन भी यही चाहते थे। उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए 14 सूत्री मांग रखी थी। इसी कारण बहुत से उपनिवेश आजादी की उम्मीद में इस लड़ाई में इन देशों का साथ दे रहे थे। भारत में तो यह भावना बहुत मजबूत थी। इस कारण सैनिकों के जाने का समर्थन भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े नेता भी कर रहे थे। उन्हें झटका तब लगा जब युद्ध खत्म होने पर ब्रिटेन ने इस बारे में बात करने से साफ पल्ला झाड़ लिया। जब रॉलैट एक्ट आया, जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ, युद्ध के तुरन्त बाद 1919 में ही गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट आया तो भारतीय नेताओं को बड़ी निराशा हुई।
इस युद्ध के बाद भारत को भले ही आजादी ना मिली हो लेकिन आजादी के लिए आन्दोलन में तेजी जरूर आ गई। भारत के नेताओं को अब ब्रिटेन पर से भरोसा उठ गया था। ब्रिटेन और फ्रांस ने सिर्फ उपनिवेशों को ही धोखा नहीं दिया बल्कि इस महायुद्ध में उनका साथ देने वाले देशों के साथ भी उन्होंने कोई अच्छा व्यवहार नहीं किया। ओर देश के प्रतीत उन्होने अपना बलिदान दिया ओर देश को स्वाभिमान दिया ऑर देश को गुलाम होने से बचा लिया ऑर लोकतन्त्र ऑर विश्व मे यह युद्द प्रथम विश्व युद्द के नाम से जाना जाता है