Gujarat Board Class 10 Hindi Rachana विचार-विस्तार
Gujarat Board Class 10 Hindi Rachana विचार-विस्तार
GSEB Std 10 Hindi Rachana विचार-विस्तार
प्रश्नपत्र में पद्यांशों का भावार्थ स्पष्ट करने के बारे में एक प्रश्न रहता है। इसमें दो अपठित पद्यांश दिए जाते हैं और उनमें से किसी एक का भावार्थ स्पष्ट करने के लिए कहा जाता है।
पद्यांशों का भावार्थ स्पष्ट करते समय ध्यान में रखने योग्य बातें:
- पद्यांश का अर्थ भलीभांति समझ लीजिए।
- पद्यांश का सरल अर्थ और लक्ष्यार्थ क्रमशः स्पष्ट कीजिए।
- भावार्थ को स्पष्ट करते समय उचित दृष्टांत या उदाहरण, अवतरण आदि का प्रयोग कीजिए।
अंत में एक-दो वाक्य में पंक्ति के तात्पर्य का उल्लेख कीजिए। - भावार्थ सरल भाषा में लिखना चाहिए। कहीं भी पुनरावर्तन नहीं करना चाहिए। वर्तनी, भाषाशुद्धि, विरामचिहनों का प्रयोग आदि बातों पर ध्यान देना चाहिए।
भावार्थ स्पष्टीकरण / विचार-विस्तार के नमूने
निम्नलिखित पद्यांशों का भावार्थ स्पष्ट कीजिए :
प्रश्न 1.
भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुष्प लीला-स्थल कहाँ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ। सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है।
उत्तर :
कवि के हृदय में अपने देश के प्रति अत्यंत प्रेम और सम्मान का भाव है। अपने देश के गौरवमय अतीत की याद दिलाते हुए वह कहता है कि भारतवर्ष एक ऐसा देश है जिस पर सारी वसुंधरा गर्व करती है। प्रकृति के रमणीय दृश्य देखकर मन में निर्मल भाव जाग्रत होते हैं। अपनी ऊँचाई के लिए विश्व-प्रसिद्ध हिमालय पर्वत इस देश के उत्तर में फैला हुआ है। नदियों में सर्वोत्तम गंगा की पवित्र जलधारा इस देश में ही बहती है। आज तक के इतिहास को देखा जाए तो सभ्यता और संस्कृति का सर्वोच्च उत्कर्ष इस देश में ही हुआ है। यह ऋषियों के तप और ज्ञान की भूमि है। विश्व का अन्य कोई भी देश श्रेष्ठता में भारतवर्ष की बराबरी नहीं कर सकता।
प्रश्न 2.
मन ही पूजा मन ही धूप।
मन ही सेॐ सहज सरूप।।
पूजा अरचा न जानूं तेरी।
कह रैदास कवन गति मेरी।।
उत्तर :
धूप, दीप, फूल, चंदन आदि पूजा के बाहरी उपकरण हैं। मूर्तिपूजक भक्त भगवान की पूजा में इन उपकरणों को आवश्यक मानकर इनका उपयोग करते हैं। परंतु ज्ञानी या निर्गुण उपासक इन बाहरी उपकरणों को महत्त्व नहीं देते। वे मानसिक पूजा को महत्त्व देते हैं जिसमें मन ही सबकुछ है। वे मन को एकाग्र करके परमात्मा के निराकार रूप का ध्यान करते हैं और इसी को पूजा मानते हैं। भक्त रैदास तो भगवान का भक्त होने का दावा भी नहीं करते। उन्हें तो इसी बात की चिंता है कि मरने के बाद पता नहीं उनकी क्या गति होगी, क्योंकि वे भगवान का पूजन-अर्चन कुछ भी नहीं जानते! जिस पूजा में केवल बाह्य उपकरण हों और मन न हो, वह पूजा नहीं, पाखंड है। मन से की गई पूजा ही सच्ची पूजा है।
प्रश्न 3.
अपनी पहुँच बिचारिकै, करतब करिये दौर।
ते ते पांव पसारिये, जेती लांबी सौर।।
उत्तर :
प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता की एक सीमा होती है। व्यक्ति को अपनी क्षमता की सीमा को समझकर ही काम करना चाहिए। अपनी शक्ति से अधिक काम करने का परिणाम अच्छा नहीं होता। पैर उतने ही फैलाने चाहिए, जितनी चादर की लंबाई हो। चादर की लंबाई से अधिक पैर फैलाने पर या तो चादर फट जाएगी या पैर चादर के बाहर रहेंगे। इसी तरह हमें उतना ही काम करना चाहिए जितनी हममें शक्ति या योग्यता हो। जिस तरह चादर की लंबाई से अधिक पैर फैलाना मूर्खता है, उसी तरह अपनी सामर्थ्य का विचार किए बिना किसी कार्य में लग जाना भी सरासर नादानी है। ऐसी नादानी बाद में पश्चात्ताप का कारण बनती है।
प्रश्न 4.
नीच निचाई नहि तजै सज्जन हू के संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि, बिनु विष भए न भुजंग।।
उत्तर :
प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक मूल स्वभाव होता है। वह कहीं भी रहे, अपने उस स्वभाव का परिचय दिए बिना नहीं रहता। दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता कभी नहीं छोड़ सकता। वह सज्जन के साथ रहे तो भी सज्जन नहीं बन सकता। वन में विषधारी सौप चंदन के वृक्ष से लिपटे रहते हैं, फिर भी वे अपने विष का त्याग नहीं करते। साधारणतः माना जाता है कि संग का असर पड़ता है, परंतु यह संपूर्ण सत्य नहीं है। दुष्ट, झूठे, बेईमान और चोर व्यक्ति सत्पुरुषों के साथ रहकर भी अपने दुर्गुण से छुटकारा नहीं पाते। इसलिए चोर को पुजारी बना दिया तो मंदिर में भी वह चोरी करना नहीं भूलेगा।
प्रश्न 5.
कहते है सब शास्त्र कमाओ, रोटी जान बचाकर पर संकट में प्राण बचाओ सारी शक्ति लगाकर।
उत्तर :
जीवित रहने के लिए भोजन जरूरी है। भोजन से शरीर को पुष्टि मिलती है और काम करने, कमाने की शक्ति आती है। लेकिन जब भोजन पाने के लिए जान गंवाने का मौका आ जाए तो-भोजन का लोभ छोड़कर जान बचाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए।
कहते हैं कि जान है तो जहान है। जीवन सुरक्षित है तो भोजन फिर मिल सकता है, पर जीवन नष्ट हो जाने पर वह दुबारा नहीं मिल सकता। इसलिए भोजन पाने के लिए जान खतरे में डालना बुद्धिमानी नहीं है। यही शास्त्रों की शिक्षा है।
निम्नलिखित विचार-विस्तार लिखिए :
प्रश्न 1.
नर जो करनी करे तो नारायण बन जाय।
उत्तर :
मनुष्य के जीवन में ‘करनी’ अर्थात् ‘कर्म’ का बड़ा महत्त्व है। मनुष्य के कर्म ही समाज में उसकी श्रेणी निर्धारित करते हैं। नीच कर्म करनेवाला अधम और श्रेष्ठ कर्म करनेवाला व्यक्ति उत्तम माना जाता है। हम राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, नानक आदि को भगवान मानते हैं, क्योंकि उन सबने अच्छे कर्म किए थे। इन्होंने लोगों की भलाई में अपना सारा जीवन लगा दिया। परोपकार ही इनके जीवन का ध्येय था। इन महापुरुषों के सत्कर्मों ने ही इन्हें महान बना दिया कि लोग उन्हें भगवान मानने लगे और उनकी पूजा करने लगे। इस प्रकार नारायण की तरह पूज्य और वंदनीय बनने के लिए मनुष्य को सच्चरित्र और कर्तव्यनिष्ठ बनना चाहिए।
प्रश्न 2.
सच्चा मित्र जीवन की औषधि है।
उत्तर :
औषधि शरीर को रोगों से मुक्त करती है। तरह-तरह की बीमारियां भी औषधियों से दूर होती है। इसी प्रकार सच्चा मित्र व्यक्ति के जीवन के रोग दूर करता है। वह उसकी बुरी आदतें छुड़ाता है। जब व्यक्ति निराश होकर धैर्य खो बैठता है, तब सच्चा मित्र उसे आशा बंधाता है और जीने का साहस देता है। कर्तव्य-पथ से भटके हुए व्यक्ति को सही मार्ग पर लानेवाला उसका सच्चा मित्र ही होता है। सच्चा मित्र संकट में व्यक्ति की रक्षा करता है। इस प्रकार सच्चा मित्र हर तरह से व्यक्ति के जीवन को स्वस्थ और सुखी रखने का प्रयत्न करता है, इसलिए उसे जीवन की औषधि कहा गया।
प्रश्न 3.
कर भला, होगा भला।
उत्तर :
कहते हैं कि जैसी करनी, वैसी भरनी। जैसा हम करेंगे, वैसा ही पाएंगे। आम के बीज बोएंगे तो आम के मोठे स्वादिष्ट फल मिलेंगे और बबूल बोएंगे तो काँटे मिलेंगे। देने और पाने की यह शाश्वत परम्परा है, इसलिए यदि हम किसी का भला करेंगे तो निश्चित रूप से हमारा भी भला होगा। भलाई का बीज कभी व्यर्थ नहीं जाता। यदि हमने भलाई का बीज बोया है तो हमें उसके वृक्ष से भलाई के फल ही मिलेंगे। चौंटी ने शिकारी के पैर में काटकर तोते की जान बचाई, तो तोते ने उसे डूबने से बचाया। एक ग्रीक गुलाम ने सिंह के पैर से काँटा निकालकर उसे राहत दी तो सिंह ने उस पर आक्रमण न करके उसे गुलामी के जीवन से मुक्त करवा दिया। इस प्रकार की हुई भलाई, भलाई के रूप में ही वापस आती है।
प्रश्न 4.
बसीकरन एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।
उत्तर :
लोगों को प्रभावित करके उन्हें वशीभूत करने की इच्छा का होना स्वाभाविक है। वशीकरण के अनेक मंत्र हैं, परंतु कवि हमें उसके लिए एक बहुत ही सरल मंत्र देता है। वह कहता है कि यदि तुम लोगों को अपने वश में करना चाहते हो तो कठोर वाणी बोलना छोड़ दो। व्यवहार में वाणी का बहुत महत्त्व है। मधुर वाणी सबको अच्छी लगती है। ऐसी वाणी बोलनेवाला सबका प्रिय होता है। उसके वचनों पर मुग्ध होकर सब अपने आप उसके वशीभूत हो जाते हैं। इसके विपरीत कटु वचन बोलनेवाले को कोई पसंद नहीं करता। सब उससे दूर भागते हैं, सचमुच मीठी वाणी बोलना वशीकरण का सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, उपाय है।
प्रश्न 5.
जो बीत गई सो बात गई।
उत्तर :
इसमें संदेह नहीं कि बीता हुआ समय मनुष्य के मन पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाता है, परंतु उस छाप का क्या महत्त्व है! भूतकाल की बीती बातों की जुगाली करने से कोई लाभ नहीं होता। बीती बातों पर अधिक सोचने से हमारी मानसिक शक्तियां क्षीण हो जाती हैं। हम अपनी क्रियाशक्ति खो देते हैं। पुरानी असफलताओं को याद करने से भविष्य भी अंधकारमय दिखने लगता है। सामने कर्तव्य पड़े होते हैं, पर उन्हें करने का उत्साह नहीं रहता। इसलिए बीती बातों को भूल जाने में ही भलाई है। पुरानी शत्रुता, पुरानी कडवाहटें दिमाग से निकाल दें और वर्तमान में चैन से जीने की कोशिश करें। हम आशा का आंचल थामकर मन में नया उत्साह लाएं। इससे हम एक नए जीवन का अनुभव करेंगे। इसलिए ‘जो बीत गई सो बात गई’ उक्ति का यही आशय है कि हम विगत के सूखे-मुरझाए फूलों को फेंककर अनागत के पुष्यों की सुगंध का आनंद लें।
प्रश्न 6.
मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है।
उत्तर :
भाग्यवादी लोग मानते हैं कि व्यक्ति को उनके भाग्य के विधान के अनुसार फल मिलता है। भाग्य में सुख लिखा है तो सुख मिलेगा और दुःख लिखा है तो दुःख ही मिलेगा। भाग्यवादी व्यक्ति भाग्य के भरोसे बैठकर अपना जीवन बरबाद करते रहते हैं। वे उद्योग करते ही नहीं, क्योंकि वे मानते हैं कि भाग्य के बिना उद्योग भी फलीभूत नहीं होगा। परंतु पुरुषार्थी व्यक्ति अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करता है।
वह अपनी जन्मपत्री लेकर ज्योतिषियों के दरवाजे नहीं खटखटाता। वह अपनी योजना के अनुसार काम करता है। वह कभी समय नहीं गंवाता। उसकी कर्मनिष्ठा सदैव उसे प्रेरणा देती रहती है। वह हमेशा आगे बढ़ने के प्रयत्न में लगा रहता है। जमशेदजी टाटा, जुगलकिशोर बिड़ला, डॉ. हामी भाभा, मोतीलाल नेहरू, चॉमस अल्वा एडिसन जैसे व्यक्तियों ने अथक परिश्रम करके धन और यश कमाया। उन्होंने साबित कर दिया मनुष्य का भाग्य उसके हाथ की रेखाओं में नहीं, बल्कि उसके हाथों में होता है, उसके आत्मविश्वास में होता है। वह चाहे तो पुरुषार्थ करके स्वयं अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है।