GJN 10th Hindi

Gujarat Board Class 10 Hindi Vyakaran पद विचार (1st Language)

Gujarat Board Class 10 Hindi Vyakaran पद विचार (1st Language)

GSEB Std 10 Hindi Vyakaran पद विचार (1st Language)

आप जानते हैं कि व्याकरणिक दृष्टि से हिन्दी पदों को पाँच प्रकारों में बाँटते हैं :

  1. संज्ञा,
  2. सर्वनाम,
  3. विशेषण,
  4. क्रिया और
  5. अव्यय

इनका परिचय पिछली कक्षाओं में कराया जा चुका है। संक्षेप में यहाँ उसका पुनरावर्तन करेंगे।

1. संज्ञा

संज्ञा की परिभाषा :
किसी वस्तु, स्थान, जाति, समूह या भाव के नाम का बोध करानेवाले शब्दों को संज्ञा कहते हैं। जैसे : अहमदाबाद, शहर, वीरता, दूध, कक्षा आदि।

संज्ञा के भेद :

  1. व्यक्तिवाचक संज्ञा : जिन शब्दों से किसी एक ही स्थान, व्यक्ति या प्राणी का बोध हो उन्हें व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे – बैजू, आगरा, हिमालय, गंगा, रामायण आदि।
  2. जातिवाचक संज्ञा : जिन शब्दों से किसी एक ही जाति के संपूर्ण प्राणियों, वस्तुओं और स्थानों आदि का बोध हो उन्हें जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे – समुद्र, वन, नगर, आदमी, गाय, लड़का, लड़की, नदी।
  3. भाववाचक संज्ञा : जिन शब्दों से प्राणियों या वस्तुओं के भाव गुण-दोष, अवस्था, धर्म, दशा आदि का बोध होता हो तो उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे : मिठास, लालिमा, शिष्टता, क्रोध, सत्य, बुढ़ापा।
  4. समुदायवाचक (समूहवाचक) संज्ञा : जिन शब्दों से अनेक व्यक्तियों के या वस्तुओं के समूह का बोध हो उन्हें समुदायवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे : सेना, कक्षा, परिवार, गुच्छा, बाली।
  5. द्रव्यवाचक संज्ञा : जिन शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थ का बोध हो उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे : पानी, लोहा, सोना, तेल, आदि।

संज्ञा शब्दों को वाक्य में प्रयोग करते समय उन्हें वाक्य के लिए ‘योग्य’ बनाते समय लिंग, वचन तथा कारक के अनुरूप उनमें परिवर्तन करना पड़ता है।

संज्ञा लिंग:

लिंग की परिभाषा : शब्द की जाति को लिंग कहते हैं। संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु की नर या मादा जाति का बोध हो, उसे व्याकरण में ‘लिंग’ कहते हैं। व्याकरणिक लिंग प्राकृतिक लिंगों से मेल खाये यह अनिवार्य नहीं है।

हिन्दी में लिंग के दो प्रकार होते हैं :

  1. पुल्लिंग : पुरुष जाति का बोध करानेवाले शब्द पुलिंग कहलाते हैं। जैसे – राजा, लड़का, शेर, बैल, भाई आदि।
  2. स्त्रीलिंग : स्त्री जाति का बोध करानेवाले शब्द स्त्रीलिंग कहलाते हैं।

कुछ बहुप्रचलित पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग शब्द : नित्य पुल्लिंग शब्द :
अखबार, अभिमान, आकाश, खिलौना, जल, चावल, दूध, दाँत, पहाड़, पेड़, जंगल, सागर आदि।

नित्य स्त्रीलिंग शब्द :

आत्मा, इज्जत, खबर, घास, थकान, पुस्तक, परीक्षा, शाम, कुर्सी, सुई, लता, कलम, डाल आदि।

वचन

वचन की परिभाषा : शब्द के जिस रूप से उसके एक या अनेक होने का बोध हो, उसे वचन कहते हैं।

वचन दो प्रकार के होते हैं :

1. एकवचन :
शब्द के जिस रूप से एक प्राणी या वस्तु का बोध हो उसे एकवचन कहते हैं।

जैसे –
लड़का, नदी, किताब, गाँव आदि।

2. बहुवचन :
शब्द के जिस रूप से अनेक प्राणियों या वस्तुओं का बोध हो उसे बहुवचन कहते हैं।

जैसे –
लड़के, नदियाँ, किताबें, गाँवें आदि।

वचन का वाक्य रचना पर प्रभाव :

लिंग की तरह ही वचन का भी विशेषण, संबंधकारक, क्रियाविशेषण और क्रिया शब्दों पर प्रभाव पड़ता है और वचन परिवर्तन होने पर इनके रूप में भी परिवर्तन हो जाता है।

जैसे –

  • बैजू नया खिलौना लाया।
  • बैजू नए खिलौने लाया।

संबंध-कारक में परिवर्तन :

  • एकवचन : जग्गू का दोस्त अच्छा है।
  • बहुवचन : जग्गू के दोस्त अच्छे है।

क्रियाविशेषण में परिवर्तन :

  • एकवचन : वह पढ़ता-पढ़ता सो गया।
  • बहुवचन : वे पढ़ते-पढ़ते सो गए।

क्रिया में परिवर्तन :

  • एकवचन : नेता ने भाषण दिया।
  • बहुवचन : नेताओं ने भाषण दिये।

एकवचन शब्दों के बहुवचन रूप :



कारक:

कारक की परिभाषा :

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों को उनका सम्बन्ध सूचित हो उस रूप को कारक कहते हैं। अर्थात् संज्ञा या सर्वनाम के आगे जब ने, को, से, में आदि विभक्तियाँ लगती हैं उन्हें कारक कहते हैं।

कारक के भेद :

हिन्दी में कारक आठ हैं। विभक्ति से बने शब्द रूप को ‘पद’ कहा जाता है। हिन्दी कारक-विभक्तियों के चिह्न निम्न हैं :

  • कर्ता – ने
  • कर्म – को
  • करण – से, द्वारा
  • सम्प्रदान – को, के, लिए
  • अपादान – से
  • सम्बन्ध – का, की, के, रा, री, रे, ना, नी, ने
  • अधिकरण – में, पर, पै
  • सम्बोधन – हे, अहो, अरे, अबे आदि।
कर्ताकारक वाक्य में जो शब्द काम करनेवाले के अर्थ में आता है उसे कर्ता कहते हैं।
कर्मकारक वाक्य में क्रिया का फल जिस शब्द पर पड़ता है, उसे कर्म कहते हैं।
करणकारक वाक्य में जिस शब्द के द्वारा क्रिया के सम्बन्ध का बोध होता है, उसे करण कहते हैं।
सम्प्रदानकारक जिसके लिए कुछ किया जाता है या जिसको कुछ दिया जाता है, इसका बोध करानेवाले शब्द को सम्प्रदानकारक कहते हैं।
अपादानकारक संज्ञा के जिस रूप में किसी वस्तु के अलगाव का बोध होता है उसे अपादानकारक कहते हैं।
सम्बन्धकारक सर्वनाम या संज्ञा के जिस रूप से अन्य किसी शब्द के साथ सम्बन्ध प्रकट होता है, उसे सम्बन्धकारक कहते हैं।
अधिकरणकारक जिस शब्द से कार्य करने की सूचना हो अर्थात् जो शब्द क्रिया का आधार सूचित करता है, उसे अधिकरणकारक कहते है।
सम्बोधनकारक जिस संकेत के द्वारा संबोधन करना, पुकारना, दुःख, हर्ष या आश्चर्य का मान प्रकट किया जाता है, उसे सम्बोधनकारक कहते हैं।

कारकों के उदाहरण :

  1. राम ने पुस्तक पढ़ी। (कर्ताकारक)
  2. बच्चे पढ़ते हैं (कर्ताकारक)
  3. स्वेता ने पुस्तक पढ़ी। (कर्ताकारक)
  4. मोहन गाँव जाता है। (कर्ताकारक)
  5. तुमने नहीं पहचाना। (कर्ताकारक)
  6. मोहन ने राम को कलम दी। (कर्मकारक)
  7. मोहन कलम से लिखता है। (करणकारक)
  8. हम आँखों से देखते हैं। (करणकारक)
  9. मोहन कलम से पत्र लिखता है।। (करणकारक)
  10. पिताजी राम के लिए किताब लाए। (सम्प्रदानकारक)
  11. ब्राह्मण को दान दिया। (सम्प्रदानकारक)
  12. बालक छत से गिर पड़ा। (अपादानकारक)
  13. मैं घर से जा रहा हूँ। (अपादानकारक)
  14. राम का भाई (संबंधकारक)
  15. राम के पिता (संबंधकारक)
  16. राम की बहन (संबंधकारक)
  17. अपना घर (संबंधकारक)
  18. अपने लोग (संबंधकारक)
  19. अपनी माँ (संबंधकारक)
  20. मेरा घर (संबंधकारक)
  21. मेरे लोग (संबंधकारक)
  22. मेरी पुस्तक (संबंधकारक)
  23. राम घर में हैं। (अधिकरणकारक)
  24. राम पेड़ पर चढ़ा। (अधिकरणकारक)
  25. हे राम (संबोधनकारक)
  26. ओ भगवान (संबोधनकारक)
  27. अरे ! मत करो (संबोधनकारक)

संज्ञा से नए शब्द रूप बनाना

भाववाचक संज्ञा बनाना :
आप जानते ही हैं कि जिस शब्द से किसी वस्तु या व्यक्ति के गुण, दशा, अवस्था, स्वभाव, भाव, व्यापार (कार्य) अथवा धर्म का बोध होता हो, उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं; जैसे – दया, ममता, बचपना, दरिद्रता, क्रोध, चढ़ाई, घबराहट, मिठास आदि।

लक्षण : भाववाचक संज्ञा की पहचान के लिए कुछ चिह्न हैं जो शब्द के अंत में प्रत्यय के रूप में जुड़े होते हैं। ये प्रत्यय हैं – ई, त्व, ता, पन, पा, हट, वट, स, क तथा व। इन प्रत्ययों के जुड़ने से बने एक-एक उदाहरण इस प्रकार हैं –

  1. भला – भलाई
  2. शिव – शिवत्व
  3. सज्जन – सज्जनता
  4. बच्चा – बचपन
  5. बूढ़ा – बुढ़ापा
  6. चिकना – चिकनाहट
  7. सजाना – सजावट
  8. मीठा – मिठास
  9. वैद्य – वैद्यक
  10. लघु- लाघव

भाववाचक संज्ञाएँ संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया से बनती हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं –

संज्ञा शब्दों से भाववाचक संज्ञा :

  1. शूर – शौर्य
  2. शिशु – शैशव, शिशुता
  3. धीरज – धैर्य
  4. मित्र – मित्रता, मैत्री
  5. ब्राह्मण – ब्राह्मणत्व
  6. दास – दासता, दासत्व
  7. ठग – ठगी
  8. गुरु – गुरुता, गुरुत्व, गौरव
  9. सखा – सखा
  10. पुरुष – पौरुष, पुरुषत्व
  11. किशोर – कैशोर्य, किशोरपन
  12. ठाकुर – ठकुराई
  13. पशु – पशुता, पशुत्व
  14. बंधु – बंधुत्व
  15. डाकू – डाका, डकैती
  16. नारी – नारीत्व
  17. साधु – साधुता, साधुत्व
  18. नर – नरत्व
  19. प्रभु – प्रभुता, प्रभुत्व
  20. भाई – भाईचार

सर्वनाम से भाववाचक संज्ञा
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विशेषण से भाववाचक संज्ञा :
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क्रिया से भाववाचक संज्ञा :
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कर्तृवाचक संज्ञा

स्वयं हल कीजिए :
उचित प्रत्यय लगाकर कर्तृवाचक संज्ञा बनाइए :
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सर्वनाम

सर्वनाम की परिभाषा : संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होनेवाले शब्दों को सर्वनाम कहते हैं। जैसे – मैं, तू, वह, आप, यह, वे कोई, कुछ, क्या, कौन, जो, आदि।

सर्वनाम के भेद : हिन्दी में सर्वनाम के 6 भेद हैं।

1. पुरुषवाचक सर्वनाम : बोलनेवाले, सुननेवाले या किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होनेवाले सर्वनामों को पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं :

  1. उत्तम पुरुष : वक्ता का लेखक अपने नाम के बदले जिस शब्द का प्रयोग करे वह उत्तम पुरुष-वाचक सर्वनाम कहलाता है। जैसे : मैं, हम।
  2. मध्यम पुरुष : वक्ता या लेखक जिस शब्द को श्रोता या पाठक के लिए प्रयोग करे, उसे मध्यम पुरुष-वाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे – तू, तुम, तेरा, तुम्हारा, आपका आदि।
  3. अन्य पुरुष : जो सर्वनाम वक्ता या लेखक द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो, उसे अन्य पुरुष-वाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे – वह, वे, उसे, उनका आदि।

2. निजवाचक सर्वनाम : जिन शब्दों से निजपन (स्वयं) का बोध होता है, उन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- स्वयं, खुद, अपना, अपने आप आदि।

3. निश्चयवाचक सर्वनाम : जो सर्वनाम पास या दूर की किसी वस्तु की ओर संकेत करते हैं उन्हें निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे – यह, वह, ये, वे आदि।

4. अनिश्चयवाचक सर्वनाम : जिन सर्वनाम शब्दों से किसी प्राणी अथवा पदार्थ का निश्चित बोध नहीं होता है उन्हें अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं : जैसे – कई, कुछ, किसी, कोई आदि।

5. संबंधवाचक सर्वनाम : जिन सर्वनाम शब्दों से एक बात का दूसरी बात से संबंध सूचित होता हो, वे संबंधवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे – जो, सो, वह आदि।

6. प्रश्नवाचक सर्वनाम : जिन सर्वनाम शब्दों से प्रश्न का बोध होता हो, उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहा जाता है। जैसे- क्या, कौन, किसे, किसको इत्यादि।

सर्वनाम शब्दों के रूपरचना :

  1. लिंग के आधार पर सर्वनामों में परिवर्तन नहीं होता। केवल संबंधकारक में लिंग के कारण मेरा-मेरी, तेरा-तेरी, तुम्हारा-तुम्हारी, उसका-उसकी, उनका-उनकी आदि रूप बनते हैं।
  2. वचन तथा कारक के आधार पर सर्वनाम में परिवर्तन होता है। जैसे – मैं, तुम, यह, वह विभक्तिरहित बहुवचनकर्ता के रूप में क्रमशः हम, तुम और वे हो जाते हैं।
  3. मैं, तुम, यह, वह के रूपों में कारक की विभक्तियाँ जोड़कर लिखी जाती हैं; जैसे – मैंने, तुमने, इसने, उसने, इसका, उसका इत्यादि। विभक्ति दुहरी होगी तो पहली जोड़ी जायगी, दूसरी नहीं। जैसे – इसके लिए, तुम्हारे द्वारा, मेरे लिए, उसके लिए आदि।

विशेषण

विशेषण की परिभाषा :

संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतानेवाले शब्दों को विशेषण कहते हैं। जैसे – सुन्दर, छोटा, ईमानदार, लाल आदि।

विशेष्य :

जिन संज्ञा या सर्वनाम शब्दों की विशेषता बताई जाती है, उन्हें विशेष्य कहते हैं। जैसे : वृक्ष पर मीठे फल लगे हैं।

विशेषण के भेद :

विशेषण के मुख्य पाँच भेद हैं :

1. गुणवाचक विशेषण :
जिस शब्द से संज्ञा या सर्वनाम के गुण दोष, रंग, आकार, दशा, स्थान, समय, दिशा आदि का ज्ञान हो उसे गुणवाचक विशेषण कहते हैं :
जैसे :

  • आलसी, अच्छा, कंजूस, सफेद
  • अच्छे लड़के पढ़ने में ध्यान देते हैं।
  • सफेद गाय खेत में चर रही है।

2. परिमाणवाचक विशेषण :
वे शब्द जो संज्ञा या सर्वनाम की मापतौल संबंधी विशेषता प्रकट करें वे परिमाणवाचक विशेषण कहलाते हैं।
जैसे :

  • थोड़ा, अधिक, सारा, किलो।
  • मैंने ज्यादा खाना खा लिया।

परिणामवाचक विशेषण के दो भेद हैं –

  1. निश्चित परिमाणवाचक विशेषण : जिन विशेषणों द्वारा किसी वस्तु के निश्चित परिमाण (माप-तौल) का पता चले वे निश्चित परिमाणवाचक विशेषण होते हैं। जैसे – पाँच लीटर, दो किलो। आज घर में पाँच लीटर दूध आया।
  2. अनिश्चित परिमाणवाचक विशेषण : जिन शब्दों से किसी वस्तु के निश्चित परिमाण का बोध न हो, वे अनिश्चित परिमाणवाचक विशेषण हैं। जैसे – कुछ, थोड़ा, ज्यादा, कम आदि। कुछ पैसे दे दो।

3. संख्यावाचक विशेषण :
जिन शब्दों से संज्ञा या सर्वनाम की संख्या का बोध हो, उन्हें संख्यावाचक विशेषण कहते हैं।

जैसे –

  • आधा लाख, पाँच हजार।
  • आधी रोटी से पेट नहीं भरता।

संख्यावाचक विशेषण के दो भेद हैं –

निश्चित संख्यावाचक : जिन विशेषणों से निश्चित संख्या का बोध होता है, उन्हें निश्चित संख्यावाचक विशेषण कहते हैं। जैसे :

  • मैंने पाँच केले खाए।

अनिश्चित संख्यावाचक : जिन विशेषणों से किसी निश्चित संख्या का बोध न हो उन्हें अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण कहते हैं। जैसे :

  • अनेक लोग भाषण सुनने गए।

4. सार्वनामिक विशेषण :

जो सर्वनाम शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त हों, उन्हें सार्वनामिक विशेषण कहते हैं। जैसे : उस लड़के को बुलाओ। किसी काम में लग जाओ। विशेषण की अवस्थाएँ : विशेषण की अधिकता या कमी की दृष्टि से तीन अवस्थाएँ होती हैं :

(1) मूलावस्था : जब विशेष्य किसी की विशेषता को सामान्य रूप से ही बताए, किसी अन्य से तुलना न हो उसे मूलावस्था कहते हैं। जैसे :

  • श्वेता चतुर विद्यार्थिनी है।

2. उत्तरावस्था : जिसके द्वारा किसी एक की विशेषता की किसी दूसरे की उसी विशेषता से तुलना की जाए, उसे उत्तरावस्था कहते हैं। जैसे :

  • सुहेल जग्गू से अधिक चतुर है।

3. उत्तमावस्था :
जिसके द्वारा व्यक्ति या वस्तु की विशेषता सबसे बढ़-चढ़ कर बताई जाए, उसे उत्तमावस्था कहते हैं। जैसे –

  • श्रेयस सभी विद्यार्थियों में चतुरतम है।

विशेषण की अवस्थाओं के कुछ शब्द रूप इस प्रकार हैं :

मूलावस्था। उत्तरावस्था उत्तमावस्था
सुन्दर सुन्दरतर सुन्दरतम
उच्च उच्चतर उच्चतम
प्राचीन प्राचीनतर प्राचीनतम
निम्न निम्नतर निम्नतम
महान महानतर महानतम
योग्य योग्यतर योग्यतम

विशेषण बनाना :

हिन्दी में कुछ शब्द मूल रूप से ही विशेषण होते हैं; जैसे – मोटा, पतला, ऊँचा, नीचा, काला, लाल, चालाक, योग्य, अयोग्य, धूर्त, प्रवीण, निपुण आदि। संस्कृत से आये कुछ प्रत्यय युक्त विशेषण शब्द हिन्दी में मूल शब्द की तरह प्रयुक्त होते हैं, जैसे – सहिष्णु, आप्त, गुप्त, दीप्त, तृप्त, ध्यात, मृत, लिप्त , व्यस्त, युक्त, दत्त, कष्ट, नष्ट, भ्रष्ट, शिष्ट, कृष्ण, पूर्ण, रूग्ण, नग्न, भिन्न, यत्न, रुद्ध, लब्ध, बुद्ध, वृद्ध, सूर, पार्थिव, कुटिल, जटिल इत्यादि।

विशेषण बनानेवाले प्रमुख हिन्दी प्रत्यय हैं – इक, इत, इन, ई, ईय, इल, ईन, ईला, निष्ठ, अनीय, मान, मती, मय। इन प्रत्ययों से बने कुछ विशेषण शब्दों की सूची नीचे दी गई है –

प्रत्यय-इक

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विशेष –
‘इक’ प्रत्यय जुड़ने पर आरंभ के स्वर में प्रायः वृद्धि होती है। यहाँ अ का आ, इ का ई, ए का ऐ, उ का ऊ तथा ओ का औ हो जाता है।

जब शब्द दो शब्दों से बना हो तो दोनों में भी वृद्धि होती है; जैसे – परलोक से पारलौकिक, अधिदेव से आधिदैविक आदि। कहीं-कहीं वृद्धि नहीं भी होती हैं; जैसे – कम से क्रमिक तथा श्रम से श्रमिक।

प्रत्यय – इत:
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विशेष : इन विशेषणों में कुछ भूतकालिक कृदंत भी हो सकते हैं; जैसे – रक्षित, मुदित, लांछित, स्थापित, सिंचित, शिक्षित, पतित आदि।

प्रत्यय – ई (संज्ञा के अलावा अव्ययों में भी लगकर विशेषण की रचना करता है।)

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कुछ अरबी-फारसी उपसर्गों से विशेषण की रचना :

  • ला – लाइलाज, लापरवाह, लापता, लावारिस
  • बे – बेईमान, बेहोश, बेकसूर, बेकाबू, बेवकूफ, बेकरार, बेचारा
  • कम – कमजोर, कम कीमत (सस्ता), कमबख्त (अथागा)
  • खुश – खुशकिस्मत, खुशदिल, खुशबू, खुशामद (चापलूस)
  • गैर – गैर कानूनी, गैर मामूली (असाधारण), गैर मुनासिब (अनुचित)
  • बद – बदइंतजामी, बदचलन, बदकिस्मत, बदज़बान, बदनाम, बदबू, बदतमीज़, बदमिज़ाज, बदसलूकी, बदहाल
  • उर्दू – ना – नाखुश, नापसंद, नाबालिग, नालायक, नामुमकिन, नाकाबिल, नाजायज

प्रत्ययों के अतिरिक्त अनेक अर्धप्रत्ययों को जोड़कर भी विशेषण बनाया जाता है।

उचित प्रत्यय लगाकर विशेषण बनाइए :
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क्रिया

जिन शब्दों से किसी काम का ‘करना’ या ‘होना’ पता चले, उन्हें क्रिया कहते हैं। क्रिया तीन प्रकार के शब्दों से बनती हैं।

  • धातुओं से – जैसे – ‘पढ़’ से पढ़ाना, ‘जा’ से जाना, ‘हँस’ से हँसना’ ‘पी’ से पीना इत्यादि
  • संज्ञा से – ‘हाथ’ से हथियाना (हाथ + आ + ना), ‘बात’ से (बात + आ + ना) बतियाना, लतियाना (लात + आ + ना) इत्यादि।
  • विशेषण से – चिकना से चिकनाना (चिकना + आ + ना), धमकी से धमकाना (धमकी + आ + ना) इत्यादि।

हिंदी की अधिकांश क्रियाएँ धातु से बनती हैं। धातु में ‘ना’ जोड़ने से क्रिया का सामान्य रूप मिलता है। क्रिया में से ‘ना’ हटा देने पर जो शब्द बचता है, वह धातु है। धातु का अर्थ है क्रिया का मूलरूप।

(A) रचना की दृष्टि से क्रियाएँ तीन प्रकार की होती हैं :

  • मूल (रूढ),
  • यौगिक और
  • पूर्व कालिक

रूढ़ क्रियाएँ :
वे हैं जो धातु से बनती हैं। धातु का अर्थ है – ‘मूल’। पढ़ना, पढ़ा, पढ़ाई, पढ़ाकू, पढ़ेगा, पढ़ाएगी आदि में मूलधातु ‘पढ़’ है, जो संस्कृत ‘पठ’ से बनी है। इसीलिए हिंदी पाठ, पाठक, पठित, आदिरूप प्रचलित हैं, जिनकी धातु ‘पठ’ है।

यौगिक क्रियाएँ :
वे क्रियाएँ जो एक से अधिक तत्त्वों से बनी होती है। जैसे – खाना से खिलाना, पढ़ना से पढ़ाना और पढ़वाना इत्यादि। यौगिक क्रियाओं के चार उपभेद हैं –

  • प्रेरणार्थक क्रियाएँ
  • संयुक्त क्रियाएँ
  • अनुकरणात्मक क्रियाएँ और
  • नाम धातु क्रियाएँ।

1. प्रेरणार्थक क्रियाएँ :
जिस क्रिया से यह पता चले कि कर्ता स्वयं कार्य न करके किसी अन्य को उसे करने की प्रेरणा देता है, उसे प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं। जैसे – व्यापारी क्लर्क से पत्र लिखवाता है। इसमें ‘लिखवाता है’ यह प्रेरणार्थक क्रिया ‘लिखवाना’ का रूप है।

प्रेरणार्थक रूप लेने पर धातु कभी-कभी परिवर्तित हो जाती है।

उदाहरण:
(क) ‘कर’ धातु का ‘करा’ – क्रिया रूप करना से कराना (प्रथम प्रेरणार्थक) ‘कर’ से ‘करवा’ – क्रियारूप करना से करवाना (द्वितीय प्रेरणार्थक)

(ख) धातु के बीच में दीर्घ स्वर हो तो ह्रस्व हो जाता है। जैसे –
काट से कटा, कटवा – क्रिया रूप करुना से कटाना, कटवाना
नाच से नचा, नचवा – क्रिया रूप नाचना से नचाना, नचवाना

(ग) ए, ऐ का हुस्व रूप-ई और ओ-औ का उ होता है।
बोल से बुला, बुलवा – क्रिया रूप बोलना से बुलाना, बुलवाना।
बैठ से बिठा, बिठवा – क्रिया रूप बैठना से बिठाना, बिठवाना।

(घ) जिन धातुओं के अंत में दीर्घ स्वर आता है, उनमें प्रायः ‘ल’ जुड़ता है।
खा से खिला, खिलवा – क्रिया रूप खाना से खिलाना, खिलवाना
पी से पिला, पिलवा – क्रिया रूप पीना से पिलाना, पिलवाना

2. संयुक्त क्रियाएँ :
जो दो या दो से अधिक क्रियाएँ मिलकर किसी पूर्ण क्रिया को बनाती हैं, तब वे संयुक्त क्रिया कहलाती हैं।
जैसे – पढ़ना और चुकना दो क्रियाओं का संयुक्त क्रियापद रूप – पढ़ चुका बनता है। इसी तरह चुकना और सकना क्रियापदों का संयुक्त रूप चुका सकना है। संयुक्त क्रिया के चार अवयव हैं – मुख्य क्रिया, संयोजी क्रिया, सहायक क्रिया और रंजक क्रिया।

कुछ प्रमुख संयुक्त क्रिया रूप इस प्रकार हैं –

  • ‘उठना’ के योग से बनी – हैरान हो उठना, परेशा हो उठता आदि
  • ‘देना’ या ‘डालना’ के योग से – लिख डालना, कर डालना, पढ़ देना, पढ़ डालना आदि।
  • ‘चाहिए’ के योग से – बोलना चाहना, देना चाहना, हँसना चाहना आदि।
  • ‘खाना-पीना’, मरना-जीना, रोना-धोना आदि पुनरुक्त। ऐसे अन्य अनेक रूप भी हैं।

3. अनुकरणात्मक क्रियाएँ :
ये किसी व्यावसायिक या काल्पनिक ध्वनि के अनुकरण में बनाई गई क्रियाएँ हैं।
जैसे –
खटखट – खटखटाना, भन भन से भनभनाना या भिनभिनाना, थरथर से थरथराना आदि।

4. नाम धातु क्रियाएँ :
जो धातुएँ ‘नाम’ (संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण) से बनती हैं, उन्हें नाम धातु कहते हैं और इनका क्रिया रूप नाम धातु क्रिया कहलाता है।

जैसे –
हाथ – हथियाना, बात-बतियाना, अपना से अपनाना, साठ से सठियाना इत्यादि।

(3) पूर्वकालिक क्रिया –
जिस क्रिया का सिद्ध होना किसी दूसरी क्रिया के सिद्ध होने के पहले पाया जाए और जो लिंग, वचन, पुरुष से प्रयुक्त न हो, उसे पूर्वकालिक क्रिया कहते हैं। जैसे – मदन पढ़कर सोता है। यहाँ पढ़ने का काम सोने के पूर्व हो चुका हैं; अत: पढ़कर पूर्वकालिक क्रिया है।

संयुक्त क्रिया के अवयव –

  1. मुख्य क्रिया – कर्ता या कर्म के मूल कार्य को मुख्य क्रिया कहते हैं। जैसे – जाने दो, खाने दो, पढ़ने दो इत्यादि में जाना, खाना और पढ़ना मुख्य क्रिया हैं।
  2. सहायक क्रिया – काल का बोध करानेवाला क्रियापद सहायक क्रिया कहलाता हैं, जैसे – मैं खाना खा चुका हूँ में खाना मुख्य क्रिया है और चुका हूँ- सहायक क्रिया।
  3. संयोजी क्रिया – जो मुख्य क्रिया के पक्ष, वृत्ति या वाच्य की सूचना प्रदान करती है, संयोजी क्रिया कहलाती हैं, जैसे – रमेश पढ़ने लगा है। इस वाक्य में ‘लगा’ कार्य के आरंभ की सूचना दे रहा है; अतः यह संयोजी क्रिया है। संयोजी क्रियाएँ कार्य की प्रगति, आरंभ, सातत्य, इच्छा, विवशता और संदेह आदि को व्यक्त करती हैं।
  4. रंजक क्रिया – ये क्रियाएँ मुख्य क्रिया के अर्थ (Mood) में और भी सौंदर्य लाती हैं, उसमें एक विशेष छवि पैदा करती हैं। जैसे – तुम यह काम कर आना। यहाँ आना क्रिया रंजक क्रिया है। आना, जाना, उठना, बैठना, लेना, देना, सकना, पड़ना, चाहना, डालना, लगना, रहना इत्यादि रंजक क्रियाएँ हैं।

क्रिया के भेद :
अर्थ के आधार पर क्रिया के दो भेद हैं –

  1. सकर्मक (Transitive),
  2. अकर्मक (Intransitive)’

(1) सकर्मक क्रियाएँ :
सकर्मक यानी कर्म-सहित। यानी इन क्रियाओं में कर्म अवश्य होता है, भले ही वाक्य में वह न दर्शाया गया हो। सकर्मक क्रिया के कार्य का फल कर्ता को छोड़कर कर्म पर पड़ता है। जैसे –

  1. बालक दूध पीता है।
  2. नौकर सब्जी लाता है।
  3. लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं।

ऊपर के वाक्यों में ‘क्या’ से प्रश्न पूछे – बालक क्या पीता है ? तो उत्तर मिलेगा ‘दूध’। इसी तरह नौकर क्या लाता है ? का उत्तर ‘सब्जी’ तथा लड़के क्या खेलते हैं का उत्तर ‘क्रिकेट’ मिलेगा। चूंकि इन वाक्यों की क्रियाओं का फल कर्म – ‘दूध’, ‘सब्जी’ और ‘क्रिकेट’ पर पड़ रहा है अतः ये क्रियाएँ सकमर्क हैं।

ध्यान रहे कि ये क्रियाएँ अकर्मक रूप में व्यवहृत होती हैं। जैसे – ‘बालक पीता है। लड़के खेल रहे हैं।’ जैसे वाक्यों में कर्म नहीं दिया गया है। अतः यह पर ये अकर्मक के रूप में है। जो क्रिया सकर्मक तथा अकर्मक दोनों रूपों में प्रयुक्त होती है, उन्हें उभयविध या द्विविध क्रियाएँ कहते हैं।

द्विकर्मक क्रियाएँ:

कुछ क्रियाओं के साथ दो कर्मों की आवश्यकता होती है। जैसे – शिक्षक ने विद्यार्थी को हिंदी पढ़ाया। यहाँ हिंदी किसको पढ़ाया तो उत्तर होगा – ‘विद्यार्थी को’, क्या पढ़ाया तो उत्तर होगा – ‘हिंदी’। इस तरह यहाँ द्विकर्मक क्रिया है। वाक्य में पदार्थवाची कर्म मुख्य कर्म है और प्राणी का बोध करानेवाले कर्म गौण। गौण कर्म के साथ को लगता है।

(2) अकर्मक क्रियाएँ :
जिन क्रियाओं में कोई कर्म नहीं होता और उनके व्यापार का फल कर्ता पर ही पड़ता है, वे अकर्मक कहलाती हैं। जैसे – विवेक हँसता है। मनन रोता है। इनमें क्रिया हँसना और रोना का फल क्रमशः विवेक तथा मनन (कर्ताओं) पर पड़ रहा है। अतः ये अकर्मक क्रियाएँ हैं।

अनेक अकर्मक क्रियाओं ऐसी है जिनका स्वर परिवर्तन अथवा कभी-कभी व्यंजन परिवर्तन करने सकर्मक रूप प्राप्त होता है। जैसे –

  • उड़ना – उड़ाना
  • रोना – रुलाना
  • टूटना – तोड़ना
  • हँसना – हँसाना
  • डूबना – डुबोना/डुबाना
  • सूखना – सुखाना

अकर्मक तथा सकर्मक क्रियाओं के भी उपभेद हैं।

क्रिया के वाच्य

वाच्य क्रिया के उस रूपांतर को कहा जाता है, जिससे कर्ता, कर्म और भाव के अनुसार क्रिया के परिवर्तन का पता चलता है। जैसे –

  • आयु फुटबाल खेलता है। कर्तृवाच्य
  • फुटबाल खेला जाता है। – कर्मवाच्य
  • रीटा से चला नहीं जाता है। – भाववाच्य

पहले वाक्य में क्रिया कर्ता आयु के अनुसार अन्य पुरुष, एकवचन, पुल्लिंग है – खेलता है।

दूसरे वाक्य में कर्म – फुटबाल के अनुसार है – खेला जाता है।

तीसरे वाक्य में क्रिया – चला नहीं जाता है से, न चल सकने का भाव व्यक्त होता है।

इस तरह वाच्य के तीन प्रकार होते हैं – कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य।

1. कर्तृवाच्य (Active Voice) :
इसमें कर्ता की प्रधानता होती है और क्रिया का सीधा और प्रधानसंबंध कर्ता से होता है। जैसे –

सकर्मक –

  • विमल एस.एम.एस. भेजता है।
  • लड़के एस.एम.एस. भेजते हैं।

अकर्मक –

  • विमल हँसता हैं।
  • लड़के हँसते हैं।

2. कर्म वाच्य (Passive Voice) :
इसमें कर्म कर्ता की स्थिति में होता है यानी कि कर्म प्रधान होता है। क्रियापद के लिंग तथा वचन कर्म के अनुसार होते हैं। जैसे –

सकर्मक –

  • विमल द्वारा एस.एम.एस. भेजा जाता है।
  • लड़कों द्वारा एस.एम.एस. भेजा जाता है।

अकर्मक –

  • विमल से हँसा जाता है।
  • लड़कों से हँसा जाता है।

3. भाववाच्य (Impersonal Voice):
इसमें कर्त्ता या कर्म के बजाय क्रिया के धातु-अर्थ की अर्थात् भाव की प्रधानता होती है। इसमें –

  • क्रिया सदैव पुल्लिंग, एक वचन, अन्य पुरुष में होती है।
  • इसमें केवल अकर्मक क्रिया के वाक्य ही हो सकते हैं, सकर्मक क्रिया के नहीं।
  • इसमें कर्म नहीं होता।
  • इसका अधिकतर प्रयोग निषेधार्थक वाक्यों में होता है।
  • कर्म न होने से क्रिया के भाव को कर्ता बना लिया जाता है। प्रधान कर्ता के साथ ‘से’ या ‘द्वारा’ लगा दिया जाता है।

कर्तृवाच्य का कर्मवाच्य में रूपांतर :

  1. कर्तृवाच्य में कर्ता के साथ यदि कोई विभक्ति लगी हो तो उसे हटाकर ‘से’, ‘द्वारा’ या ‘के द्वारा’ लगा दिया जाता है। ‘से’ और द्वारा कर्ता को उसकी भूमिका से दूर करते हैं। इस तरह कर्मवाच्य में कर्ता के बजाय कर्म को प्रधानता दी जाती है।
  2. कर्तृवाच्य की क्रिया को सामान्य भूतकाल में बदल देते हैं। इस बदले क्रिया रूप के साथ ‘जाना’ क्रिया का काल, पुरुष, वचन तथा लिंग के अनुसार जोड़ते हैं।
  3. यदि कर्म के साथ विभक्ति चिह्न है तो उसे हटा देते हैं।
  4. आवश्यकतानुसार निषेध सूचक ‘नहीं’ का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरण:

कर्तृवाच्य कर्मवाच्य
1. किसान फसल काटता है। किसान द्वारा फसल काटी जाती है।
2. वंदना पत्र लिख रही है। वंदना द्वारा पत्र लिखा जा रहा है।
3. उषा ने सफाई की। उषा द्वारा सफाई की गई।
4. नानी ने गुड़िया को कहानी सुनाई। नानी द्वारा बच्चों को कहानी सुनाई गई।
5. धोबी ने कपड़े धोए। धोबी से कपड़े धोए गए। या धोबी द्वारा कपड़े धोए गए।

हिंदी में कर्तृवाच्य को कर्मवाच्य में बदलने की अंग्रेजी व्याकरण जैसी कोई प्रक्रिया नहीं होती है। हिंदी में कुछ वाच्य केवल कर्तृरूप में ही चलते हैं और कुछ कर्मवाच्य में ही। हिंदी में ‘रावण राम द्वारा मारा गया’ जैसा वाक्य गढ़ा तो जा सकता है, पर चलता नहीं है। हिंदी की प्रकृति के अनुसार ‘राम ने रावण को मारा’ ही उचित है। हिंदी में कर्मवाच्य का प्रयोग कुछ विशेष स्थितियों में ही होता है।

जैसे –
(1) जब कर्ता अज्ञात हो या ज्ञात कर्ता का उल्लेख करने की जरूरत न हो; जैसे – कल परीक्षाफल घोषित किया जाएगा।
(2) कानूनी तथा सरकारी व्यवहार में – इस पत्र द्वारा आपको सूचित किया जाता है कि –

कर्तृवाच्य का भाववाच्य में परिवर्तन :

  1. कर्ता के आगे ‘से’ अथवा ‘के द्वारा’ लगा दें।
  2. मुख्य क्रिया को सामान्य भूतकाल एकवचन में बदलकर उसके साथ ‘जाना’ क्रिया की धातु के एकवचन, पुलिंग, अन्य पुरुष का वही काल लगा दें जो कर्तृवाच्य की क्रिया का है।
कर्तृवाच्य भाववाच्य
(1) मैं यह पुस्तक नहीं पढ़ सकूँगा। मुझसे यह पुस्तक नहीं पढ़ी जा सकेगी।
(2) गर्मियों में खूब नहाते हैं। गर्मियों में खूब नहाया जाता है।
(3) वह बैठ नहीं पाता है। उससे बैठा नहीं जाता।
(4) कुत्ते ने हड्डी नहीं खाई। कुत्ते से हड्डी नहीं खाई गई।
(5) वह लिख नहीं सका। उससे लिखा नहीं जा सका।

सारांश रूप उदाहरण –

कर्तृवाच्य कर्मवाच्य भाववाच्य
(1) राघव कविता रचता है। राघव द्वारा कविता रची जाती है।
(2) राम ने रावण को मारा। राम द्वारा रावण को मारा गया।
(3) राधिका पढ़ न सकी। राधिका से पढ़ा न जा सका।
(4) वह आ नहीं सकेगा। उससे आया नहीं जा सकेगा।
(5) बच्चे खेलेंगे। बच्चों द्वारा खेला जाएगा।

अविकारी शब्द (अव्यय तथा निपात)

शब्द के दो प्रकार होते हैं –

  1. विकारी और
  2. अविकारी।

जिन शब्दों के रूप में लिंग, वचन या कारक आदि के कारण कोई विकार या परिवर्तन न हो, उन्हें अविकारी या अव्यय कहा जाता है। जैसे –

  • यदि वह पढ़ेगा तो उत्तीर्ण हो जाएगा।
  • आप कहाँ जा रहे हो?
  • राम और लक्ष्मण सहोदर भाई नहीं थे।
  • अभी, मैं तो नहीं आ सकता।
  • रवीन्द्र धीरे-धीरे चलता है।

यहाँ पर यदि, तो, कहाँ, और, अभी, तो तथा धीरे-धीरे अव्यय हैं। अव्यय कुछ शब्दों से जुड़ने पर उन्हें भी अव्यय बना सकते हैं, जैसे – प्रतिदिन, भरपेट, यशासंभव इत्यादि।

अव्यय के भेद : अव्यय के चार भेद माने गए हैं –

  1. क्रिया-विशेषण (Adverb)
  2. संबंधबोधक (Post Position)
  3. समुच्चयबोधक (Conjunction)
  4. विस्मयादिबोधक (Interjection)

इनके अलावा एक अविकारी शब्द ‘निपात’ भी है जो अव्यय जैसा होता है। प्राचीन विवेचन में ‘नाम’, ‘आख्यात’, ‘अव्यय’ तथा ‘निपात’ का उल्लेख मिलता है। नाम से तात्पर्य – ‘संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण’, आख्यात् का तात्पर्य ‘क्रिया’ से है। अव्यय तथा निपात दोनों अविकारी शब्द हैं।

(1) क्रिया-विशेषण :
क्रिया की विशेषता बतानेवाले अव्ययों को क्रिया-विशेषण कहते हैं। अर्थ के आधार पर क्रिया-विशेषण के मुख्य चार भेद हैं –

(क) कालवाचक क्रिया-विशेषण
(ख) स्थानवाचक क्रिया-विशेषण
(ग) रीतिवाचक क्रिया-विशेषण
(घ) परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण

(क) कालवाचक क्रिया-विशेषण के उदाहरण :
उदाहरण :

  • तुरंत, अभी, अब, कल, आज, प्रात: आदि – समयबोधक (कालवाचक)
  • दिनभर, आजकल, सदैव, हमेशा, लगातार, निरंतर आदि – अवधिबोधक
  • प्रतिदिन, बारंबार, कईबार, हरबार आदि – बारंबारताबोधक

(ख) स्थानबोधक क्रिया-विशेषण के उदाहरण :

  • बाहर-भीतर, आमने-सामने, आस-पास, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे आदि – स्थितिबोधक
  • ओर, ऊपर की ओर, बाई ओर, दाई ओर, चारों ओर आदि – दिशाबोधक

(ग) रीतिवाचक क्रिया-विशेषण के उदाहरण –

  • धीरे-धीरे, ध्यान से, झट-पट, भली-भाँति इत्यादि।

(घ) परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण के उदाहरण –

  • इतना, उतना, कम, अधिक, इत्यादि – तुलनाबोधक
  • थोड़ा, कुछ, लगभग इत्यादि – न्यूनताबोधक
  • बहुत, बड़ा, भारी इत्यादि – अधिकताबोधक
  • ठीक, काफी, केवल इत्यादि – पर्याप्तताबोधक
  • क्रमशः, थोड़ा-थोड़ा इत्यादि – श्रेणीबोधक

विशेष : यद्यपि क्रिया-विशेषण अविकारी शब्द हैं किन्तु कुछ क्रिया-विशेषणों में विशेषणों की भाँति विकार (परिवर्तन) भी होता है; जैसे – अच्छा लिखा निबंध, अच्छी लिखी चिट्ठी, ताजमहल कैसा लगता है; चाँदनी कैसी चमक रही है।

(2) संबंधबोधक क्रिया-विशेषण (Post Position):
वे अव्यय जो संज्ञा या सर्वनाम से जुड़कर उनका संबंध वाक्य के दूसरे शब्दों से बताते हैं, उन्हें संबंधबाधक क्रिया-विशेषण कहते हैं।

(क) प्रयोग के आधार पर संबंधबोधक अव्यय के दो भेद हैं –

  • संबंद्ध संबंधबोधक; जैसे – धर्म के बिना, विद्यार्थी के साथ इत्यादि।
  • असंबंद्ध संबंधबोधक; जैसे – सहित, तक आदि।

(ख) व्युत्पत्ति के आधार पर संबंधबोधक अव्यय के दो भेद हैं –

  • मूल संबंद्धबोधक – पर्यन्त, समान, बिना आदि।
  • यौगिक संबंधबोधक – द्वारा, योग्य, बाहर।

(ग) अर्थबोध के आधार पर – डॉ. हरदेव बाहरी ने संबंधबोधक अव्यय के चौदह भेद माने हैं

  • कालवाचक – पहले, बाद, आगे, पश्चात्, अब तक इत्यादि।
  • स्थानवाचक – निकट, समीप, सामने, बाहर इत्यादि।
  • दिशावाचक – दायाँ-बायाँ, तरफ, ओर आदि
  • साधनवाचक – द्वारा, जरिए, सहारे, मार्फत आदि।
  • उद्देश्यवाचक – लिए, वास्ते, हेतु, निमित्त आदि।
  • व्यतिरेकवाचक – बगैर, बिना, अलावा, अतिरिक्त, सिवा आदि।
  • विनिमयवाचक- बदले, एवज, स्थान पर, जगह पर आदि।
  • साहचर्यवाचक – संग, साथ, सहित, समेत आदि।
  • सादृश्यवाचक – समान, तुल्य, बराबर आदि।
  • विरोधवाचक – विरोध, विरुद्ध, विपरीत, विलोम आदि।
  • विषयवाचक – संबंध, आश्रय, भरोसे।
  • संग्रहवाचक – भर, मात्र, अंतर्गत आदि।
  • तुलनावाचक – अपेक्षा, समक्ष, समान आदि।
  • कारणवाचक – कारण, परेशानी से, मारे आदि

संबंधबोधक और क्रिया-विशेषण में अंतर – यदि अव्यय शब्द क्रिया की विशेषता बताने के साथ अन्य किसी संज्ञा या सर्वनाम से संबंधित हो तो ‘संबंधवाचक’ कहलाता है, अन्यथा क्रिया-विशेषण। जैसे –

  • लड़का चारपाई पर बैठा है।
  • लड़का छत के ऊपर बैठा है।
  • संबंधबोधक अव्यय
  • क्रिया-विशेषण अव्यय

(3) समुच्चयबोधक या योजक अव्यय (Conjunction) :
जो अव्यय दो पदों, दो उपवाक्यों या दो वाक्यों को एकदूसरे से जोड़ते हैं, उन्हें समुच्चयबोधक अव्यय कहते हैं। जैसे – और, ताकि, किन्तु इत्यादि।

समुच्चयबोधक अव्यय के प्रमुख दो भेद हैं – समानाधिकरण समुच्चयबोधक और व्याधिकरण समुच्चयबोधक।

(क) समानाधिकरण समुच्चयबोधक – दो समान पदों, उपवाक्यों या वाक्यों को जोड़नेवाले अव्यय समानाधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय कहलाते हैं। इसके चार उपभेद माने जाते हैं –

  • संयोजक – और, तथा, एवं
  • विभाजक – या, अथवा, कि, नहीं तो
  • विरोधवाचक – परंतु, किंतु, लेकिन, वरन
  • परिमाणबोधक – अतः, इसलिए, अतएव, एतदर्थ

(ख) व्याधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय – जो अव्यय शब्द मुख्य वाक्य से एक या अनेक आश्रित वाक्यों को जोड़ते हैं, उन्हें व्याधिकरण समुच्चय बोधक अव्यय कहते हैं। जैसे – क्योंकि और किंतु आदि। व्याधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय के चार उपभेद हैं –

  • उद्देश्यवाचक – जो, कि, ताकि
  • कारणवाचक – क्योंकि, इसलिए, जो कि
  • संकेतवाचक – चाहे, तो, किंतु, परंतु
  • संकेतवाचक – अर्थात्, मानो, यानि कि

(4) विस्मयादिबोधक अव्यय (Interjection):
हर्ष, शोक, विस्मय आदि मनोभावों के प्रकट करनेवाले अव्यय ‘विस्मयादि बोधक’ अव्यय कहलाते हैं। जैसे – ओह !, वाह!, हाय !, अरे !, इत्यादि। ये अव्यय निम्नलिखित कार्य करते हैं –

  • हर्ष सूचित करना – अहा !, वाह-वाह !, शाबाश ! इत्यादि
  • शोक सूचित करना – ओह !, आह !, हाय ! आदि।
  • स्वीकार एवं संबोधन सूचित करना – अच्छा !, हाँ, जी, हाँ, ठीक ! आदि
  • तिरस्कार एवं घृणा सूचित करना – छि !, धिक !, दुर् आदि।

विद्वानों ने अर्थ के विचार से इसके सात से लेकर चौदह उपभेद माने हैं। आठ मुख्य उपभेद इस प्रकार हैं –

  • हर्षबोधक – वाह!, अच्छा !, शाबाश!
  • विस्मय (आश्चर्य) बोधक – अरे !, क्या !, क्यों !, ऐं!
  • शोकबोधक – हाय !, ओह !, आह !
  • तिरस्कारबोधक – हट-हट ! भाग-भाग ! दुर-दुर !
  • भावबोधक – (प्रशंसा, आदर, अनादर) साधु-साधु !, अजी! अबे
  • स्वीकार या अनुमोदनबोधक – हाँ !, जी हाँ !, जी!
  • संबोधनबोधक – अरे !, हे !, ओ!
  • घृणाबोधक – छिः छिः, राम-राम !

कभी-कभी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया या वाक्यांश भी विस्मयादिबोधक का कार्य करते हैं। जैसे –

  • संज्ञा – बाप रे ! अरे माई रे !, राम-राम !
  • सर्वनाम – कौन !, क्या !, आप !
  • विशेषण – सुंदर !, बहुत सुंदर !, अच्छे !
  • क्रिया – चुप!, आ गए !, भाग !
  • वाक्यांश – क्या हुआ !, मारे गए !

निपात

कुछ वैयाकरण क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक के अतिरिक्त अविकारी शब्दों का ‘निपात’ नामक एक अन्य भेद भी मानते हैं।

‘निपात’ उन अविकारी शब्दों को कहते हैं जो संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण व क्रिया विशेषण के साथ प्रयुक्त होकर उस पर बल देने, उसे सीमित करने या दूसरों के साथ मिलाने का काम करते हैं। जैसे – नहीं, मत, न, जी, हाँ, सिर्फ, मात्र, केवल, भी, ही, भर, तक, तो इत्यादि।

निपात के संबंध में विशेष बातें –

  • निपात का अपना वस्तुपरक अर्थ नहीं होता। (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया आदि की भाँति निपात का अपना अर्थ नहीं होता।)
  • निपात वाक्यांश या वाक्य को विशेष अर्थ प्रदान करते हैं।
  • सहायक शब्द के रूप में प्रयोग होने के बावजूद इन्हें वाक्य का अंग नहीं माना जाता है।
  • वाक्य में आने पर ये उसके संपूर्ण अर्थ का प्रभावित करते हैं।

निपात और अव्यय – निपात नए भाव प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होते हैं। निपात में लिंग, वचन, कारक आदि की दृष्टि से रूप-भेद नहीं होते हैं, इसलिए इसे अव्यय के अंतर्गत रखा जाता है। किंतु ‘अव्यय’ और ‘निपात’ में थोड़ा अंतर है। निपात के प्रयोग से वाक्य के अर्थ की एक नई अवधारणा बनती है। निपात का प्रयोग वाक्य में अर्थ के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थान पर हो सकता है। कुछ उदाहरण –

ही : रमण अपने स्कूल ही गया है।
रमण ही अपने स्कूल गया है।
रमण अपने ही स्कूल गया है।

भी : बच्चे फुटबॉल भी खेलते हैं।
बच्चे भी फुटबॉल खेलते हैं।
बच्चे फुटबॉल खेलते भी हैं।

तक : पवन ने खाया तक नहीं।
पवन तक ने नहीं खाया।
मेरी आवाज तक नहीं सुन रहे हो।
उसने पत्र का उत्तर तक नहीं दिया।
उसने पत्र तक का उत्तर नहीं दिया।

भर : जी भर बातें करेंगे। तुम पेटभर खा लो।
तुमने तो मिठाई छुआ भर है।

तो : तो आप आ गए।
आप तो आ गए।
आप तो आ ही गए।
अब उसे जाने तो दो।

मात्र/सिर्फ/केवल : मुझे मात्र पाँच मिनट दीजिए।
मुझे पाँच मिनट मात्र चाहिए।
वह केवल बातें करता है।

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