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Haryana Board 9th Class Hindi Vyakaran वर्तनी

Haryana Board 9th Class Hindi Vyakaran वर्तनी

HBSE 9th Class Hindi Vyakaran वर्तनी

वर्तनी

प्रश्न 1. हिन्दी वर्तनी का अर्थ बताते हुए उसकी परिभाषा और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘वर्तनी’ लिपि का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। वर्तनी का शाब्दिक अर्थ है-अक्षर-विन्यास, अक्षरन्यास, अक्षरी, वर्णन्यास आदि। “भाषिक ध्वनियों के लिए निर्धारित प्रतीक चिह्नों (लिपि वर्णो) के सार्थक, व्यवस्थित और व्यावहारिक अनुपयोग का आधारतत्त्व वर्तनी ही है।” वस्तुतः भाषा-लिपि-वर्तनी परस्पर पूर्णतः सम्बद्ध हैं। लिपि भाषा को दृश्य रूप देती है। भाषा के शब्दों, पदों, वाक्यों, वाक्यांशों का सही, शुद्ध उच्चरित और लिखित रूप उपयुक्त एवं संगत वर्तनी पर निर्भर करता है। सार में का जा सकता है, “शब्द के शुद्ध लेखन को वर्तनी कहते हैं।” डॉ० नरेश मिश्र ने वर्तनी की वैज्ञानिक परिभाषा देते हुए लिखा है, “शब्द के विभिन्न वर्गों की क्रमशः शुद्ध रूप में की जाने वाली प्रयोगव्यवस्था को वर्तनी कहते हैं।”

यहाँ कुछ शब्दों के उदाहरण से वर्तनी के स्वरूप को समझा जा सकता है-‘पाट’ और ‘पाठ’, ‘काल’ और ‘खाल’, ‘जरा’ और ‘ज़रा’, ‘अवधि’ और ‘अवधी’, ‘सुत’ और ‘सूत’ शब्द कुछ विशेष पदार्थों-प्रयोजनों के संवाहक शब्द हैं जिनका समावेश हिन्दी भाषा के अन्तर्गत है। प्, आ, ट, ठ, क्, ल, ज्, जू, इ (ि), ई (ी), उ ु(), ऊ (ू) आदि प्रतीक चिह्नों अर्थात् विशेष लिपि (देवनागरी) के माध्यम से ये साकार रूप में प्रत्यक्ष हो पाए हैं। किन्तु भाषिक रूपों के लिखित स्वरूप की सार्थकता अथवा संगति या उपयुक्तता सही वर्तनी के माध्यम से ही सम्भव है। यदि इस संगति या व्यवस्था में छोटी-सी भी भूल हो जाए या तनिक-सा उल्ट-फेर हो जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है; जैसे ‘अध्यापक पाट पढ़ाता है। वाक्य के ‘पाट’ शब्द में ‘ठ’ के स्थान पर ‘ट’ के आने से प्रयोजनीय अर्थ स्पष्ट नहीं होता। इसका कारण देवनागरी लिपि को सही वर्तनी में प्रयुक्त न किया जाना है। इस प्रकार लिपि और वर्तनी में अन्तःसम्बन्ध है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी भाषा में पारिभाषिक शब्दों में तो एकरूपता का होना और भी आवश्यक है। आज ज्ञान-विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण किया जा रहा है। ऐसे शब्दों की वर्तनी पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

स्वरूप: प्रयोजनमूलक हिन्दी के शब्दों की वर्तनी की शुद्धता के लिए निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है-
1. हलन्त:
हिन्दी के परम्परागत तत्सम शब्दों में से अनेक शब्द व्यंजनान्त हो गए हैं अर्थात् उन शब्दों का अन्तिम अक्षर व्यंजन हो गया है; जैसे महान्, विद्वान्, भगवान् आदि। हिन्दी में अनेक व्यंजनान्त शब्द हैं, किन्तु उनमें हलन्त का प्रयोग नहीं किया जाता जैसे काम, नाम, राम, घनश्याम, मन, तन, धन आदि। इसी प्रकार पारिभाषिक शब्दों के व्यंजन होने पर भी उनमें हलन्त का प्रयोग नहीं किया जाता। उसी प्रकार परिभाषिक शब्दों के व्यंजनान्त होने पर उनमें हलन्त का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए; उदाहरणार्थ-
कमान – (Command)
प्रसार – (Expansion)
निगम – (Corporation)
जोखिम – (Risk)
अवमूल्यन – (Devaluation)
ग्राहक – (Client)
किन्तु संस्कृत शब्दों में आज भी हलन्त का प्रयोग किया जाता है; यथा-अभिवाक्, श्रीमन्, अभिषद् आदि।

2. अनुस्वार बिन्दु (ं):
हिन्दी में अनुस्वार का प्रयोग प्रायः पाँच वर्गों के अन्तिम वर्णों (ङ्, ञ, ण, न, म्) के अर्ध रूप के लिए किया जाता है। ऐसा करने से लेखन एवं मुद्रण में सरलता एवं एकरूपता का समावेश होता है। आज मानक हिन्दी में अनुस्वार के इसी रूप का प्रयोग किया जा रहा है-
ङ्- अंग, काव्यांग, रंगशाला, पतंग आदि।
ञ्- मंजन, मंचन, कुंजी आदि।
ण- टंडन, कंगन, बंटन आदि।
न्- हिंदी, बिंदी, चिंदी, पंत आदि।
म्- पंप, संभावना, संबंध आदि।
पारिभाषिक शब्दावली में भी यही मानक पद्धति अपनानी चाहिए-
ङ् – अङक पत्र (कवर्ग-ङ्) – अंक पत्र (Mark sheet)
रङ्गशाला (कवर्ग-ङ्) – रंगशाला (Theatre)

३ – बञ्जर (चवर्ग-ज्) – बंजर (Barren)
सर्व कुञ्जी (चवर्ग-ञ्) – सर्वकुंजी (Master Key)

ण् – बण्टन (टवर्ग-ण) – बंटन (Distribution)
भण्डारण (टवर्ग-ण) – भंडारण (Storage)

न्- अन्तरिम (तवर्ग-न) – अंतरिम (Interim)
(टवर्ग-न्) संदर्भ – (Context)

म्- आलम्ब (पवर्ग-म) – आलंब (Support)
प्रकाश स्तम्भ (पवर्ग-म्) – प्रकाश स्तम्भ (Light house)
कम्प्यूटर (पवर्ग-म्) – कम्प्यूटर (Computer)

किंतु जब कोई अर्ध नासिक्य व्यंजन उसी नासिक्य व्यंजन के पूर्ण रूप से पहले लगाया जाता है तो उसे अनुस्वार (-) में न लिखकर उसके मूल नासिक्य के अर्ध रूप में ही लिखा जाना चाहिए; यथा-सम्मेलन, सम्मति, अन्न आदि।

3. अनुनासिकता/अर्धचन्द्राकार (ँ):
जिस ध्वनि के उच्चारण में निश्वास मुख और नासिका से एक साथ निकले, उसे अनुनासिक ध्वनि (ँ) कहते हैं; जैसे चाँद, साँप, आँख आदि। आज सर्वत्र सरलीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। भाषा के क्षेत्र में भी इसके प्रयोग किए जा रहे हैं। अनुनासिक (ँ) के लिए अनुस्वार (-) का प्रयोग किया जाने लगा है, किन्तु इससे अर्थ की अभिव्यक्ति में रुकावट पड़ती है; जैसे हंस (पक्षी), हँस (हँसना), यदि दोनों को हंस-हंस लिख दिया जाए तो अर्थबोध अस्पष्ट हो जाएगा। मैं हंस रहा हूँ। इस वाक्य में हंस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

4. संयुक्त वर्ण-रचना:
हिन्दी एक ऐसी भाषा है जिसमें पूर्ण एवं अर्ध दोनों प्रकार के वर्गों का प्रयोग समान रूप से होता है। वर्णों की अर्ध-रूप रचना के लिए निम्नांकित आधार अपनाए जाने चाहिएं-
(i) जिन वर्णों के दाहिनी ओर खड़ी पाई होती है उसे हटा देना चाहिए। इससे वह अर्ध व्यंजन बन जाता है। इससे ही संयुक्त अक्षरों का निर्माण भी होता है; जैसे-

(ii) जिन व्यंजनों के दाहिनी ओर अर्ध पाई हो तो उसे हटा देने से वह अर्धवर्ण बन जाता है; यथा-

(iii) जिन व्यंजनों में पाई का प्रयोग नहीं किया जाता; जैसे ट, ड, ढ आदि। इन व्यंजनों के अर्धरूप बनाने के लिए हलन्त का प्रयोग किया जाता है; यथा-

5. रकार के प्रमुख चार रूप-हिन्दी में रकार के चार रूप मिलते हैं-

इस संबंध में भाषा-वैज्ञानिकों का मत है कि ‘र’ के इन सभी रूपों के स्थान पर स्वतन्त्र वर्ण ‘र’ का ही प्रयोग होना चाहिए। भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के लिए यह सुझाव उपयोगी है, किन्तु प्रयोजनमूलक हिन्दी में इन चारों रूपों को पूर्ववत् अपनाना चाहिए।

उदाहरणार्थ ये शब्द देखिए-ट्रक, परस्पर, पार्ट, क्रय, अनिवार्य आदि। अर्ध ‘र’ वर्ण (.) को शब्द में जहाँ उच्चारण किया जाए, उसके आगे वाले पूर्ण वर्ण या अक्षर पर लगाना चाहिए; जैसे स्वीकार्य, अनिवार्य, पार्ट, वर्क्स आदि।

यहाँ ‘अनिवार्य’ में र् का उच्चारण ‘वा’ के बाद होता है, इसलिए ‘य’ में लगी ‘आ’ की मात्रा-‘I’ पर लगाया गया है। ‘वर्क्स’ में र् का उच्चारण ‘क’ के पूर्व होता है किन्तु ‘क’ र के आगे होने पर भी आधा अर्थात् स्वरविहीन है, इसलिए ‘स’ पर लगाया गया है।

6. य-श्रुति:
हिन्दी स्वर प्रधान भाषा है। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के निर्देशानुसार जिन शब्दों में ‘य’ ध्वनि क्षीण हो और उनमें ‘ई’ अथवा ‘ए’ सुनाई दे, तो उनमें स्वर रूप अपनाना चाहिए; यथा
अशुद्ध – शुद्ध
नयी – नई
मिठायी – मिठाई
लिये – लिए
आयिये – आइए
शब्द के मूल रूप होने पर स्वरात्मक परिवर्तन नहीं किया जाए; यथा-स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि।

7. क्रिया पद:
हिन्दी में क्रिया पदों तथा सहायक क्रियाओं को अलग-अलग करके लिखा जाता है ‘मैं महाविद्यालय जा रहा था।’ इस वाक्य में ‘जा रहा था’ क्रिया पद है। इसमें ‘जा’ मूल क्रिया है और ‘रहा था’ सहायक क्रिया है। यहाँ इनको अलग-अलग करके लिखा गया है। ‘मैं पत्र लिखता हूँ।’ इस वाक्य में ‘लिखता हूँ क्रिया पद है। ‘लिखता’ मूल क्रिया तथा ‘हूँ’ सहायक क्रिया है जिन्हें अलग-अलग लिखा गया है।

8. विभक्ति चिह्न:
हिन्दी भाषा में विभक्ति चिह्न अर्थ तत्त्व से अलग लिखे जाते हैं; यथा-
राम ने पत्र लिखा।
आपने एक पुस्तक पढ़ी।
विद्यार्थी ने पुस्तक देखी।
इन वाक्यों में कर्ता राम, आप, विद्यार्थी आदि से अलग ‘ने’ विभक्ति चिह्न का प्रयोग किया गया है।

9. अंग्रेजी की ‘ऑ’ ध्वनि का प्रयोग:
आज हिन्दी में अंग्रेजी के अनेक शब्द अपनाए जा रहे हैं। उनके शुद्ध रूप को अपनाने के लिए हमें ॉ (ऑ) ध्वनि चिह्न को भी हिन्दी के ध्वनि चिह्नों में स्थान दे देना चाहिए। ऐसा करने से इन शब्दों का शुद्ध उच्चारण एवं लेखन सम्भव हो सकेगा। उदाहरणार्थ ये शब्द देखिए
डॉक्टर – Doctor
कॉलेज – College
ऑपरेशन – Operation
बॉक्स – Box
उपर्युक्त शब्दों में उच्चारित ऑ (आ और ओ) से भिन्न, किन्तु उनके मध्यवर्ती स्वर हैं।

10. पुनरुक्ति:
जब भाव विशेष पर बल देने के लिए एक शब्द को दो या अधिक बार प्रयुक्त किया जाता है, उसे पुनरुक्ति कहते हैं। ऐसी स्थिति में कभी-कभी योजक (-) के साथ अंक-2 (दो) लिखा जाता है; जैसे चलते-चलते, रोते-रोते, बार-बार। ऐसा लिखना वैज्ञानिक पद्धति के अनुकूल नहीं है। इसे चलते-दो, रोते-दो तथा बार-दो पढ़ा जा सकता है। अतः पुनरुक्ति में सर्वत्र एक शब्द को दो बार लिखना चाहिए; जैसे मुझे बार-बार प्यास लग रही है।
वह चलते-चलते गिर पड़ा।
गीता रोते-रोते गा रही थी।

11. योजक चिहून:
योजक अंग्रेजी के ‘हाइफन’ का हिन्दी पर्यायवाची है। द्वन्द्व समास के दोनों पदों के बीच में योजक (-) चिह्न का प्रयोग करना नितान्त आवश्यक है; जैसे माता-पिता, दाल-रोटी, अमीरी-गरीबी, पढ़ना-लिखना आदि।

क्योंकि हिन्दी भाषा अत्यधिक लोगों द्वारा बोली जाती है और उसका क्षेत्र भी बहुत विस्तृत है। इसलिए हिन्दी भाषा के उच्चारण व कहीं-कहीं रूप में भी विविधता दिखाई देती है। वातावरण व मानसिक भिन्नता के कारण ऐसा होना स्वाभाविक है, किन्तु प्रयोजनमूलक हिन्दी में ऐसी भिन्नता उचित नहीं है। उसमें सर्वत्र वर्तनी के मानक रूप को ही अपनाना चाहिए। कम्प्यूटर में प्रयुक्त होने वाली प्रयोजनमूलक हिन्दी के लिए तो यह और भी जरूरी हो जाता है। अतः प्रयोजनमूलक हिन्दी में उसके मानक रूप को अपनाने से उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मान मिलेगा और उसे समझना भी सरल हो जाएगा।

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