प्राचीन भारत

इतिहास का निर्माण और उसके स्रोत | History and its sources

इतिहास का निर्माण और उसके स्रोत | History and its sources

इतिहास का निर्माण और उसके स्रोत

भौतिक अवशेष

पुरातत्त्व की विधियाँ हमें प्राचीन, मध्य और आधुनिक काल के इतिहास में पाए जाने वाले भौतिक अवशेषों को ढूंढने में मदद करती हैं। भारत एवं अन्य देशों में, पुरातत्त्व
का इस्तेमाल प्रागैतिहास और प्राचीन इतिहास के अध्ययन में किया जाता है। प्रागैतिहास का
सम्बन्ध उस काल से है जिसके कोई लिखित प्रमाण नहीं हैं और इतिहास मुख्यतः लिखित
सामग्री पर आधारित है। प्रागैतिहासिक स्थल कई मायनों में ऐतिहासिक स्थल से अलग
होते हैं। सामान्यतः, ऐसे स्थल मुख्य आवासीय अवशेष के रूप में नहीं होते बल्कि मनुष्य,
पादप और जीव-जन्तुओं के जीवाश्म के रूप में होते हैं। ये पठार और पहाड़ों के ढलान पर,
नदी के किनारों और उँचाई पर पाए जाते हैं जो विविध वनस्पति और जीवों से युक्त होते हैं।
इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण यह है कि पाषाण-युग के कई पत्थरों के औजार भी इन स्थलों
पर पाए गए हैं। औजार, पौधे, जानवर और मनुष्यों के अवशेष हिमपूर्व युग के जलवायु
की स्थितियों को दर्शाते हैं। हालाँकि ई.पू. तीसरी सहस्राब्दि के मध्य तक भारत में सिन्धु
संस्कृति में लिखावट के होने के प्रमाण मिलते हैं लेकिन उसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका
है या उसकी व्याख्या अभी तक सम्भव नहीं हुई है। इस प्रकार, हड़प्पा के लोग लिखना
तो जानते थे, लेकिन उनकी संस्कृति को आद्य ऐतिहासिक काल (Proto Historic) में
रखा गया। यही हाल ताम्रयुग (chalcolithic) या ताम्रपाषाण युग की संस्कृति का है, जहाँ
लोग लिखना नहीं जानते थे। भारत में पढ़ी जाने वाली लिखावट ई.पू. तीसरी शताब्दी में
अशोक के शिलालेखों से मिलती है जो उस समय के ऐतिहासिक निर्माण का ठोस और
मजबूत साक्ष्य प्रस्तुत करती है। हालाँकि अशोक से पूर्व के काल में वैदिक और उत्तर वैदिक
साहित्यिक स्रोतों के बावजूद, इतिहासकारों के लिए पुरातत्वशास्त्र महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।
प्राचीन भारतीय समाज ने ढेरों भौतिक अवशेष छोड़े हुए हैं। दक्षिण भारत के पाषाण
मन्दिर और पूर्वी भारत के ईटों वाले मठ आज भी हमें अतीत के विशाल भवन निर्माण
प्रक्रियाओं की याद दिलाते हैं। हालाँकि, इन अवशेषों का बहुत बड़ा भाग (टीलों और
खण्डहरों) ढेर के रूप में पूरे भारत में दबा हुआ पड़ा है। ये कई प्रकार के हो सकते हैं;
एकल सांस्कृतिक, प्रधान सांस्कृतिक और बहु-सांस्कृतिक। एकल सांस्कृतिक टीले या
खण्डहर मुख्यतः एक तरह की संस्कृति को प्रस्तुत करते हैं। कुछ टीले या खण्डहर केवल
पेण्टेड ग्रे वेयर संस्कृति को दर्शाते हैं, कुछ सातवाहनों और कुषाणों की संस्कृति को। प्रधान
सांस्कृतिक टीले या खण्डहरों में, प्रधानता तो एक संस्कृति की होती है लेकिन उसमें दूसरी
संस्कृति भी पाई जाती है। बहु-सांस्कृतिक टीलों या खण्डहरों में कई महत्त्वपूर्ण संस्कृतियों
को देखा जा सकता है जहाँ कदाचित एक संस्कृति दूसरी संस्कृति पर व्याप्त है। रामायण और
महाभारत के मामले में इन अवशेषों या खण्डहरों की परत-दर-परत खुदाई करके उन चीजों
के जरिए उस वक्त की संस्कृति व अन्य पहलुओं को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
किसी अवशेष या खण्डहर की खुदाई लम्बवत् या समतल रूप में हो सकती है।
लम्बवत् खुदाई का अर्थ है लम्बाईनुमा खुदाई जिससे संस्कृति के काल का पता लगाया
जा सके; यह मुख्यत: उस स्थल के कुछ हिस्सों तक सीमित होता है। समतल खुदाई का
तात्पर्य है पूरे अवशेष या खण्डहर की खुदाई या इसके अधिकतम हिस्से की खुदाई। इस
विधि से पुरातत्ववेत्ता को एक कालखण्ड विशेष में किसी जगह की सम्पूर्ण संस्कृति का
अनुमान लग जाता है।
चूँकि ज्यादातर स्थलों की खुदाई लम्बवत् हुई है, इसलिए वे उस समय की भौतिक
संस्कृति के सही ऐतिहासिक समय को बताते हैं। महँगा होने के कारण, समतल खुदाई
बहुत कम होती है। जिस कारण से ऐसी खुदाई के जरिए प्राचीन भारत के कई काल का
सम्पूर्ण या पर्याप्त भौतिक जीवन की रूपरेखा उभर कर सामने नहीं आ पाती। इन टीलों या
खण्डहरों की खुदाई से प्राप्त प्राचीन अवशेषों को विभिन्न अनुपात में संरक्षित किया गया
है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और उत्तर पश्चिमी भारत के सूखे और शुष्क जलवायु
में ये प्राचीन साक्ष्य अच्छी स्थिति में पाए जाते हैं, लेकिन मध्य गंगा के आद्र जलवायु वाले
समतल मैदानों और डेल्टा प्रदेशों के मध्य में लोहे की वस्तुओं का क्षरण हुआ है और कच्चे
मकानों या संरचनाओं की पहचान मुश्किल हो गई है। सिर्फ ज्यादा पकी हुई ईंट और पत्थर
से निर्मित वस्तुएँ ही गंगा के आद्र जलवायु वाले समतल मैदानों में सुरक्षित पाई जा सकी हैं।
खुदाई के माध्यम से ई.पू. 6000 में बलूचिस्तान में लोगों द्वारा निर्मित गाँव सामने आए हैं।
ई.पू. दूसरी सहस्राब्दि में गंगा के समतल मैदानों में विकसित भौतिक संरचनाएँ भी सामने
आई हैं। इससे लोगों के रहवासों, जहाँ वे बसते थे उसका पता चलता है। साथ ही मिट्टी के
बर्तनों, उनके रेशेदार खाने और उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए औजारों का भी पता चलता
है। दक्षिण भारत के कुछ लोग जिन्हें उनके औजारों, हथियारों और सामग्रियों के साथ
बड़े-बड़े पत्थरों के बीच दफनाया गया, उसकी भी जानकारी मिलती है। इन संरचनाओं
को मेगालिथ कहा जाता है हालाँकि कुछ मेगालिथ इस श्रेणी में नहीं आते। इनकी खुदाई से
लोहयुगीन से आगे के दक्कनी लोगों के जीवन के बारे में पता चलता है। वह विज्ञान जिसके
जरिए हमें सिलसिलेवार और सुनियोजित रूप में पुराने खण्डहरों और चट्टानों को खोदकर
लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है, उसे हम पुरातत्वशास्त्र कहते हैं।
इस काल को निश्चित करने की कई विधियाँ हैं। उनमें रेडियोकार्बन डेटिंग सबसे
महत्त्वपूर्ण विधि है। रेडियोकार्बन या कार्बन-14 (C14) रेडियो-सक्रिय (आइसोटोप) कार्बन
है, जो प्रत्येक जीवित वस्तुओं में पाया जाता है। यह अन्य रेडियो-सक्रिय पदार्थ की तरह
ही समान रूप से विघटित होता है। किसी जीवित वस्तु में हवा और भोजन द्वारा C14 के
अवशोषित हो जाने के कारण C14 का विघटन कम होता है। हालाँकि, जीवित वस्तुओं के
निष्प्राण होने पर C14 घटकों का विघटन समान अनुपात में जारी रहता है और तब हवा व
भोजन द्वारा वह अवशोषित नहीं होता।
प्राचीन वस्तुओं में विद्यमान रेडियोकार्बन में हुए क्षरण की माप के जरिए उसके
होने के समय का निर्धारण किया जाता है। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि रेडियोकार्बन
का विघटन समान रूप से होता है। सर्वविदित है कि रेडियोकार्बन का अर्धजीवन काल
5568 वर्षों का होता है। किसी रेडियोकार्बन वस्तु के अर्धजीवन काल का तात्पर्य उस
अन्तराल से है जिसमें वस्तु में विद्यमान रेडियोकार्बन सक्रिय तत्वों का ह्रास हुआ है।
इस प्रकार, किसी वस्तु का अस्तित्व यदि 5568 वर्ष पहले समाप्त हो गया, तो उसमें
विद्यमान C14 पदार्थ का अस्तित्व-काल आधा हो जाएगा और कोई वस्तु 11,136 वर्ष
पहले समाप्त हुई हो तो उसमें विद्यमान C14 घटकों का अस्तित्व-काल एक चौथाई हो
जाएगा। लेकिन इस विधि के द्वारा 70,000 साल पुरानी वस्तुओं का काल निर्धारण नहीं
किया जा सकता है।
जलवायु और वनस्पति के इतिहास की जानकारी पौधों के अवशेषों, विशेषकर पराग
के परीक्षण से हासिल की जाती है। इस आधार पर कहा जाता है कि ई.पू. सात हजार
से छह हजार तक में राजस्थान और कश्मीर में कृषि होती थी। धातु की कलाकृतियों के
स्वभाव एवं घटक के साथ-साथ उन खादानों और धातु तकनीक के विकास का वैज्ञानिक
रूप से विश्लेषण किया जाता है, जिससे धातु निकाले जाते थे। जानवरों की हड्डियों के
परीक्षण से जानवरों के इस्तेमाल और पालतू होने की जानकारी मिल जाती थी। इतना ही
नहीं, पुरातत्त्वशास्त्र मृदा संग्रह करता है जिसमें ठोस अवशेष पाए जाते हैं। हालाँकि, मोटे
तौर पर ई.पू. तीन हजार तक प्रागैतिहास के सम्पूर्ण अध्ययन के लिए मिट्टी और चट्टानों
के इतिहास का अध्ययन आवश्यक है। यह भूगर्भशास्त्र द्वारा प्राप्त होता है। इसी तरह
पौधों और जीवों की दुनिया भी धीरे-धीरे बदलती रहती है। उनका इतिहास जीव विज्ञान
अध्ययन से प्राप्त होता है। मानव इतिहास को समझना न तो मिट्टी, पौधों और जानवरों को
समझे बिना सम्भव है, न ही दूसरी तरफ मानव के बीच के निरन्तर सम्बन्धों को समझे
बिना सम्भव नहीं है। भूगर्भीय और जैविकीय प्रगति न केवल प्रागैतिहास बल्कि इतिहास
को भी समझने में सहायता प्रदान करती है। पुरातात्त्विक अवशेषों के मद्देनजर, पृथ्वी की
उत्पत्ति के साथ शुरू होने वाले इतिहास के कुल समय के पैमाने का 98 प्रतिशत से अधिक
का अध्ययन करने के लिए भूवैज्ञानिक और जैविक अध्ययन महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में
कार्य करते हैं।

सिक्के

हालाँकि बहुत बड़ी संख्या में सिक्कों और शिलालेखों को सतह पर पाया गया है, उनमें से
बहुत तो खुदाई के दौरान भी पाए गए हैं। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहा जाता है।
आजकल की तरह, प्राचीन भारतीय मुद्रा कागज निर्मित नहीं थी बल्कि धातु के सिक्के के
रूप में थी। प्राचीन सिक्के धातु से बनाए जाते थे। वे ताम्बे, चाँदी, सोने और सीसे से बनाए
जाते थे। जली हुई मिट्टी से बनने वाले सिक्के और उन्हें बनाने वाले ढाँचों की खोज भी बड़ी
तादात में की गई, उनमें से ज्यादातर का सम्बन्ध कुषाण काल से है, जो कि पहले तीन ईसा
सदी से है। गुप्त काल के बाद इस तरह के ढाँचे का उपयोग लगभग समाप्त हो चुका था।
चूँकि प्राचीन समय में आधुनिक बैंकिंग प्रणाली की तरह कुछ भी नहीं था, लोग मिट्टी
के बर्तन और पीतल के बर्तनों में धन इकट्ठा किया करते थे और उनको बहुमूल्य चीजों
के रूप में रखते थे ताकि वे जरूरत के समय उसका इस्तेमाल कर सकें। भारत के विभिन्न
हिस्सों में सिक्कों के ऐसे कई ढेर पाए गए हैं, जिनमें केवल भारतीय ही नहीं, रोमन
साम्राज्य जैसे विदेशों में ढाले गए सिक्के भी थे। वे मुख्यत: कोलकाता, पटना, लखनऊ,
दिल्ली, जयपुर, मुम्बई और चेन्नई के संग्रहालयों में संरक्षित हैं। कई भारतीय सिक्के नेपाल,
बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संग्रहालयों में है। विदित है कि लम्बे समय
तक भारत पर ब्रिटेन ने शासन किया; फलस्वरूप वे कई भारतीय सिक्कों को भारत से
बाहर ब्रिटेन के निजी और सार्वजानिक संग्रहों और संग्रहालयों में ले जाने में सफल रहे।
प्रमुख वंशों के सिक्कों की सूची तैयार की गई है और उन्हें प्रकाशित भी किया गया है।
हमारे भारत में यह सूची कोलकाता के भारतीय संग्रहालय और लन्दन के ब्रिटिश संग्रहालय
इत्यादि जगहों पर है। फिर भी बहुत बड़ी संख्या में ऐसे सिक्के हैं जिसकी सूची तैयार कर
प्रकाशित की जानी है।
प्राचीनतम सिक्कों में कुछ प्रतीक होते थे लेकिन बाद के सिक्के राजाओं और देवताओं
के आकार-प्रकार के साथ-साथ उनके नाम और तारीखों का भी उल्लेख करते हैं। जहाँ वे
पाए जाते हैं, उससे उनके संचरण के क्षेत्र का संकेत मिलता है। इस सबने हमें कई सत्तारूढ़
राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण करने में सक्षम बना दिया है, खासकर इण्डो-यूनानियों
के जो उत्तर अफगानिस्तान से भारत आए थे और यहाँ दूसरी और ई.पू. पहली शताब्दी
तक शासन किया, हम उनके बारे में भी इसी आधार पर जानकारी हासिल कर पाए हैं।
सिक्कों का इस्तेमाल विभिन्न उद्देश्यों मसलन दान, भुगतान और विनिमय के माध्यम के
रूप में किया जाता था। ये उस वक्त के आर्थिक इतिहास के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं।
शासकों की अनुमति से व्यापारियों एवं सुनारों के समूह द्वारा कुछ सिक्के जारी किए गए
थे। इससे पता चलता है कि उन दिनों शिल्प और वाणिज्य महत्वपूर्ण हो चुके थे। सिक्कों
ने उन दिनों लेन-देन में बड़े पैमाने पर मदद की और व्यापार में योगदान दिया। सर्वाधिक
बड़ी संख्या में भारतीय सिक्के मौर्य काल के बाद के काल में मिलते हैं। ये शीशा, पोटीन,
ताम्बा, काँस्य, चाँदी और सोने के बने होते थे। गुप्त काल में सबसे ज्यादा सोने के सिक्के
जारी किए गए। इससे यह स्पष्ट होता है कि मौयों के बाद खासकर गुप्त काल में व्यापार
और वाणिज्य में बड़े पैमाने पर विकास हुआ। हालाँकि, उत्तर-गुप्त काल के कुछ ही सिक्के
पाए गए हैं, जो उस काल के व्यापर और वाणिज्य के पतन को दर्शाते हैं।
वे सिक्के राजा एवं देवताओं और धार्मिक प्रतीकों तथा किंवदन्तियो को दर्शाते हैं, जो
उस समय के शिल्प और धर्म पर प्रकाश डालते हैं।
सिक्कों के रूप में कौड़ी का भी इस्तेमाल होता था, मगर उसकी क्रय-शक्ति कम थी।
यह उत्तर-गुप्त काल में भारी मात्रा में पाई जाती थी। लेकिन हो सकता है इसका इस्तेमाल
पहले भी होता रहा हो।

शिलालेख (Inscription)

सिक्कों की तुलना में शिलालेख कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनके अध्ययन को पुरालेख
(एपिग्राफी) कहा जाता है और शिलालेखों एवं अन्य पुराने अभिलेखों में प्रयुक्त पुराने लेखों
के अध्ययन को पैलियोग्राफी कहा जाता है। मुहरों, पत्थर के खम्भों, चट्टानों, ताम्बें के
गोलों, मन्दिर की दीवारों, लकड़ी के पट्टों, ईंटों या छवियों पर ये अभिलेख उत्कीर्ण किए
जाते थे।
पूरे भारत में सबसे पहले पत्थर पर अभिलेख दर्ज किए गए थे। हालाँकि, क्रिश्चियन
युग की प्रारम्भिक शताब्दियों में इस प्रयोजन के लिए ताम्बे की पत्थर का इस्तेमाल किया
जाता था। फिर भी पत्थर पर शिलालेख का उत्कीर्णन दक्षिण भारत में बड़े पैमाने पर जारी
रहा। स्थाई दस्तावेज के रूप में उस क्षेत्र में भी मन्दिरों की दीवारों पर दर्ज शिलालेख बड़ी
संख्या में देखने को मिलते हैं।
सिक्कों की तरह, शिलालेख देश के विभिन्न संग्रहालयों में संरक्षित हैं लेकिन सबसे
बड़ी संख्या में यह मैसूर के मुख्य पुरालेखविद के कार्यालय में सुरक्षित है। सबसे
प्राचीन शिलालेख ई.पू. तीसरी शताब्दी में प्राकृत में लिखा गया था। उत्कीर्ण लेखों के
माध्यम के रूप में संस्कृत दूसरी शताब्दी ईस्वी में अपनाई गई और इसका व्यापक
इस्तेमाल चौथी और पाँचवीं शताब्दी में शुरू हुआ, लेकिन प्राकृत का इस्तेमाल फिर भी
चलन में था। नौवीं और दसवीं शताब्दियों में क्षेत्रीय भाषाओं में शिलालेखों का प्रचलन
प्रारम्भ हुआ। मौर्य काल, उत्तर-मौर्य काल और गुप्त काल के इतिहास से सम्बन्धित
अधिकांश शिलालेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित हुई है, जिन्हें भारतीय अभिलेख
कोश’ (Corpus Inscriptionum Indicarum) कहा जाता है, लेकिन गुप्त काल के
बाद के शिलालेख इस तरह व्यवस्थित रूप से बहुत कम संकलित पाए जाते हैं। दक्षिण
भारत के मामले में शिलालेखों की भौगोलिक सूची प्रकाशित की गई है। अभी भी 50,000
अभिलेखों का प्रकाशन नहीं हो पाया है, जिनमे से ज्यादतर दक्षिण भारत में हैं।
हड़प्पा के शिलालेख, जिसे आज भी समझने की जरूरत है। ऐसा लगता है कि इन्हें
चित्रलिपि में लिखा गया है। जिसमें चित्रों के रूप में विचारों और वस्तुओं को अभिव्यक्त
किया गया था। अशोक के अधिकतर शिलालेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण किए गए थे जो
बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में भी उत्कीर्ण हुए हैं जो दाएँ से
बाएँ लिखी जाती थी। हालाँकि, उत्तर-पश्चिमी भाग को छोड़कर भारत भर में लगभग सभी
जगह ब्राह्मी लिपि ही प्रचलित थी। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अशोक के शिलालेख
लिखने के लिए ग्रीक और आर्मेइक लिपियों का भी इस्तेमाल होता था। लेकिन गुप्त काल
के अन्त तक ब्राह्मी मुख्य लिपि बनी रही। ब्राह्मी लिपि एवं उसकी भिन्नताओं में महारत
हासिल किया हुआ कोई भी पुरातत्ववेत्ता सातवीं शताब्दी तक के भारतीय शिलालेखों को
आसानी से समझ सकता है। लेकिन बाद के दिनों में यह भी पता चला कि इस लिपि में
क्षेत्रीय विविधता बहुत हैं।
लगभग 2500 ई.पू. में पाई गई हड़प्पा की मुहरों के शिलालेख को कुछ विद्वान
प्रतीकात्मक मानते हैं। भारतीय इतिहास में ईरानी शिलालेख को सबसे पहले पढ़ा गया।
इनका सम्बन्ध ई.पू. छठी-पाँचवीं शताब्दी से है और ये ईरान में पाए जाते हैं। वे प्राचीन
इण्डो-इरानियन और सेमेटिक भाषा की कीलाकार (Cuneiform/कुनेइफॉर्म) लिपि में भी
दिखाई देते हैं। इनमें हिन्दू या सिन्धु क्षेत्र में ईरान की विजय का वर्णन है। जाहिर है भारत में
सबसे प्राचीन और पठनीय शिलालेख अशोक के हैं। वे आम तौर पर ई.पू. तीसरी शताब्दी
में ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में लिखे जाते थे। ये मौर्य इतिहास और अशोक की
उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हैं। चौदहवीं शताब्दी में फिरोज शाह तुगलक को दो अशोक
स्तम्भ मिले, एक मेरठ में और दूसरा हरियाणा के टोपरा नामक स्थान पर। इन शिलालेखों
को वे दिल्ली ले आए और अपने साम्राज्य के विद्वानों से इन शिलालेखों को पढ़कर
समझाने को कहा लेकिन वे विद्वान इसे पढ़ने में विफल रहे। ऐसी ही कठिनाइयों का सामना
ब्रिटिशों को भी करना पड़ा; जब उन्होंने अठारहवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में अशोक के
शिलालेखों की खोज की। इन शिलालेखों में लिखे हुए को पहली बार सन् 1837 में जेम्स
प्रिंसिप ने समझाया, जो बंगाल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी में एक प्रशासनिक अधिकारी थे।
हमारे पास विभिन्न प्रकार के शिलालेख हैं। उनमें से कुछ शाही आदेश के रूप में हैं
तो कुछ सामान्य लोगों को सामाजिक, धार्मिक और प्रशासनिक मामलों के सम्बन्ध में
शाही निर्णय के रूप में। अशोक के शिलालेख इसी श्रेणी के हैं। दूसरे शिलालेखों में बौद्ध,
जैन, वैष्णव और शैव जैसे धर्मानुयायियों की उपासनाओं जैसी बातें हैं। ये सब भक्ति के
स्मारक के रूप में स्तम्भों, पत्थरों, मन्दिरों या चित्रों में दिखाई देते हैं। जबकि अन्य प्रकार
के शिलालेख राजाओं और विजेताओं के गुणों और उपलब्धियों की प्रशंसा करते हैं और
उनकी पराजय या कमजोरियों की अनदेखी करते हैं। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तम्भ के
शिलालेख इसी श्रेणी के हैं। हमारे पास दान-कर्म के ढेर सारे रिकॉर्ड किए गए दस्तावेज
हैं जो विशेष रूप से धार्मिक उद्देश्यों से दर्ज किए जाते थे। पैसे, मवेशियों, भूमि आदि का
दान न केवल राजाओं और राजकुमारों द्वारा होता था बल्कि कारीगरों और व्यापारियों द्वारा
भी होता था।
प्राचीन भारत में भूमि व्यवस्था और प्रशासन सम्बन्धी अध्ययन के लिए मुख्य रूप
से उस दौर के प्रमुखों और राजकुमारों द्वारा बनाए गए भूमि अनुदानों के दस्तावेज़ बड़े
महत्वपूर्ण हैं। ये ज्यादातर तांबे की बनी पर्चेनुमा चद्दरों पर उत्कीर्ण थे। वे भिक्षुओं,
पुजारियों, मन्दिरों, मठों, जागीरदारों और अधिकारियों को अनुदान स्वरूप प्रदत्त भूमि,
राजस्व और गाँवों के दस्तावेज़ हैं। वे सभी भाषाओं में लिखे गए थे, जिनमें प्राकृत, संस्कृत,
तमिल और तेलुगु शामिल थे।

साहित्यिक स्रोत

यद्यपि प्राचीन भारतीय ई.पू. 2500 के आस-पास लिखने के कौशल से परिचित थे, हमारी
सबसे प्राचीन पाण्डुलिपियाँ चौथी शताब्दी से अधिक पुरानी नहीं हैं और वे मध्य एशिया में
पाई जाती हैं। भारत में, वे भोज-पत्रों और ताड़-पत्रों पर लिखे गए थे। लेकिन मध्य एशिया
में जहाँ भारत की प्राकृत भाषा पहुँच चुकी थी, पाण्डुलिपियाँ भेंड़ के चमड़े और लकड़ियों
के पाटों पर भी लिखी गई थीं। इन लेखों को अभिलेख (inscriptions) कहा जाता है
लेकिन वे पाण्डुलिपियों के समान हैं; जब प्रिंटिंग का ज्ञान नहीं था तो पाण्डुलिपियाँ बहुत
मूल्यवान थीं। हालाँकि पुरानी संस्कृत की पाण्डुलिपियाँ भारत भर में मिलती हैं, ये ज्यादातर
दक्षिण भारत, कश्मीर और नेपाल से सम्बन्धित हैं। वर्तमान में सभी अभिलेख संग्रहालयों
में संरक्षित हैं और पाण्डुलिपियाँ पुस्तकालयों में रखी गई हैं।
ज्यादातर प्राचीन पुस्तकों में धार्मिक विषय शामिल हैं। हिन्दू धार्मिक साहित्य में वेद,
रामायण और महाभारत, पुराण जैसे ग्रन्थ शामिल हैं। वे प्राचीन काल की सामाजिक और
सांस्कृतिक स्थितियों पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं लेकिन समय और स्थान के संदर्भ में
उनका उपयोग करना मुश्किल है। ऋग्वेद को ई.पू. 1500-1000 का कहा जा सकता है,
हालाँकि अथर्ववेद, यजुर्वेद, ब्राह्मणों, अरण्यकों और उपनिषद जैसे ग्रन्थों का काल मोटे
तौर पर ई.पू. 1000-500 का माना जाता है। लगभग हर वैदिक पाठ में प्रक्षेपण होते हैं, जो
आम तौर पर शुरुआत में या फिर अन्त में दिखाई देते हैं; मध्य में ऐसा शायद ही कभी होता
हो। ऋगवेद में मुख्य रूप से प्रार्थनाएँ होती हैं, जबकि बाद के वैदिक ग्रन्थों में प्रार्थनाओं
के साथ-साथ अनुष्ठान, जादू और पौराणिक कहानियाँ भी शामिल हुईं। हालाँकि, उपनिषदों
में तो दार्शनिक चिन्तन भी है।
वैदिक ग्रन्थों को समझने के लिए वेदांग या वेदों के अंगों का अध्ययन करना आवश्यक
था। ये वेदांग हैं-ध्वनिशास्त्र (शिक्षा), अनुष्ठान (कल्प), व्याकरण, व्युत्पत्ति (निरुक्त),
छंद और खगोलशास्त्र (ज्योतिष) साथ ही इन सभी विषयों के इर्द-गिर्द ढेर सारे साहित्य
रचे गए। वे सब गद्य में उपदेशों के रूप में लिखे गए थे। किसी प्रतिबोध या प्रत्यक्ष ज्ञान के
विषय को संक्षिप्तता के कारण सूत्र कहा जाता था। इस लेखन का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण
ई.पू. 450 के आस-पास पाणिनि द्वारा लिखा गया व्याकरण है। व्याकरण के नियमों का
वर्णन करते हुए पाणिनि ने समाज, अर्थव्यवस्था और उस समय की संस्कृति पर अमूल्य
प्रकाश डाला है।
माना जाता है कि सन् 400 के आस-पास तक अन्तत: दोनों महाकाव्य और प्रमुख पुराण
संकलित हो गए। महाकाव्यों में व्यास रचित महाभारत ज्यादा पुराना है और इसमें लगभग ई.पू.
दसवीं शताब्दी से ईसा की चौथी शताब्दी तक के मामलों की स्थिति का वर्णन प्रतीत होती
है। मूल रूप से इसे जय काव्य अर्थात् विजय की गाथा कहा गया था। इसमें 8800 श्लोक
शामिल थे। बाद में श्लोकों की संख्या बढ़कर 24,000 हो गई और इसे भारत कहा जाने लगा
क्योंकि इसमें भारत की सबसे पुरानी वैदिक जनजातियों में से एक वंश भरत-वंश की कहानियाँ
शामिल की गई थीं। अन्तिम संकलन में श्लोकों की संख्या बढ़कर 1,00,000 हो गई और
यह ग्रन्थ महाभारत या शत्सहस्री संहिता नाम से ख्यात हुआ। इसमें कथात्मक, वर्णनात्मक
और उपदेशात्मक सामग्री शामिल है। कौरव-पाण्डव संघर्ष से सम्बन्धित मुख्य कथा बाद
के वैदिक काल से सम्बन्धित हो सकती है। वर्णनात्मक वाला हिस्सा उत्तर वैदिक काल का
हो सकता है और उपदेशपूर्ण अंशों का सम्बन्ध सामान्यत: उत्तर-मौर्य और गुप्त काल से है।
इसी प्रकार वाल्मीकि रचित रामायण में मूल रूप से 6000 श्लोक शामिल थे, जिन्हें 12,000
तक बढ़ाया गया था और अन्तत: यह संख्या बढ़कर 24,000 तक आ गई। हालाँकि यह
महाभारत महाकाव्य की तुलना में अधिक सारगर्भित है, इसके बावजूद इसके उपदेशात्मक
भाग हैं जिन्हें बाद में जोड़ा गया था। रामायण की रचना ई.पू. पाँचवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई
थी। उसके बाद यह पाँच चरणों से होकर गुजरा और पाँचवे चरण तक यह बारहवीं शताब्दी
का काल हो चला। कुल मिलाकर, इस ग्रन्थ की रचना महाभारत के बाद हुई प्रतीत होती है।
उत्तर वैदिक काल के धार्मिक क्रिया-कलापों के साहित्य का विपुल संग्रह हमें उपलब्ध
है। राजकुमारों एवं तीनों वर्गों के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा निर्मित भव्य सार्वजनिक अवदान
व श्रौतसूत्रों के आधार पर किए गए कई भव्य शाही राज्याभिषेक समारोह सम्पन्न होते
थे। इसी प्रकार गृह्यसूत्र के अनुसार जन्म, नामकरण, उपनयन संस्कार, विवाह, अन्त्येष्ठि
आदि सम्पन्न किए जाते थे। श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र दोनों का सम्बन्ध ई.पू. 600-300 तक
का है। यहाँ सुल्वसूत्रों का भी उल्लेख किया जा सकता है, जिसमें बलि देने के स्थान के
निर्धारण व निर्माण की भिन्न-भिन्न माप के बारे में बताया गया है। वे ज्यामितिय और गणित
के अध्ययन की शुरुआत को दर्शाते हैं।
जैनों और बौद्धों के धार्मिक ग्रन्थों में ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं के उल्लेख
मिलते हैं। प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा में लिखे गए थे जो मगध या दक्षिण बिहार में
बोली जाती थी और जो मुख्यत: प्राकृत भाषा का ही एक रूप थी। अन्ततः इनका संकलन
ई.पू. पहली शताब्दी में श्रीलंका में हुआ लेकिन इसके धर्म विधान से सम्बद्ध हिस्सों में बुद्ध
के समय में जो भारतीय शासन की स्थिति थी उसे रेखांकित किया गया है। ये हमें न केवल
बुद्ध के जीवन के बारे में बताते हैं बल्कि उनके समकालीन कुछ शाही लोगों के बारे में भी
बताते हैं जो मगध, उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश पर शासन करते थे। धर्म विधान से
इतर मामलों से सम्बद्ध साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण और रोचक हिस्सों में गौतम बुद्ध के
पिछले जन्मों की कहानियों का वर्णन किया गया है। माना जाता था कि गौतम के रूप में
पैदा होने से पहले, बुद्ध ने 550 से अधिक बार जन्म लिया था। इनमे से उन्होंने कई बार
पशुओं के रूप में भी जन्म लिया था। प्रत्येक जन्म की कहानी को जातक कहा जाता है
जो कि लोककथाओं के रूप में है। ये जातक कथाएँ ई.पू. पाँचवीं से ई.पू. दूसरी शताब्दी
के बीच की अवधि के सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर विशिष्ट प्रकाश डालती हैं। ये
बौद्ध-काल की राजनीतिक घटनाओं के लिए प्रासंगिक संदर्भ भी प्रदान करती हैं।
जैन ग्रन्थ प्राकृत में लिखे गए थे और अन्तत: गुजरात में इन्हें छठी शताब्दी में वल्लभी
में संकलित किया गया था। उनमें ऐसे कई अंश हैं जो महावीर कालीन पूर्वी उत्तर प्रदेश
और बिहार के राजनीतिक इतिहास को पुनर्गठित करने में हमारी मदद करते हैं। जैन ग्रन्थों
में व्यापार और व्यापारियों का सन्दर्भ बार-बार आता है।
हमारे पास धर्मनिरपेक्ष साहित्य का बड़ा भंडार है। इस कोटि में सामाजिक विधान
के ग्रन्थ आते हैं, जिन्हें धर्मसूत्र और स्मृति ग्रन्थ कहा जाता है। टीकाओं के साथ इसे
ही धर्मशास्त्र कहते हैं। धर्मसूत्रों का संकलन ई.पू. 500-200 में किया गया और प्रमुख
स्मृतियों को ईसा की शुरुआती छह शताब्दियों में संहिताबद्ध किया गया। उनमें भिन्न-भिन्न
वर्णों के कर्तव्यों के साथ-साथ राजाओं और उनके अधिकारियों के कर्तव्यों का
किया जाता था। उनमें विवाह के विधानों के साथ-साथ सम्पति रखने, बेचने और पुश्तैनी
निर्धारण
बनाने के कानून-कायदे भी निर्धारित थे। उनमें चोरी, हमले, हत्या और व्यभिचार जैसे
अपराधों के लिए दण्ड भी निर्धारित किए गए थे।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक महत्वपूर्ण कानून की पुस्तक है। इसे कुल पन्द्रह खण्डों
में विभाजित किया गया है, जिनमें से खण्ड 2 और 3 अपेक्षाकृत अधिक पुराने माने जा
सकते हैं और ये कई लोगों द्वारा लिखे गए प्रतीत होते हैं। इस ग्रन्थ को अन्तिम रूप तो
ईसवी सन् के शुरुआत में दिया गया लेकिन इसके प्रारम्भिक अंशों से मौर्य काल के समाज
और अर्थव्यवस्था की स्थिति का पता चलता है। यह पुस्तक प्राचीन भारतीय राजनीति और
अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए समृद्ध सामग्री प्रदान करती है।
गैर-धार्मिक ग्रन्थों में इतिहास की संरचना निर्मित करने हेतु व्याकरण के ग्रन्थ बहुत
महत्वपूर्ण हैं। इसकी शुरुआत पाणिनि के अष्टाध्यायी से हुई। पाणिनि इस उपमहाद्वीप के
उत्तर-पश्चिमी भाग में रहते थे। उनका उल्लेख पाली ग्रन्थों में नहीं है, जो मुख्यत: बिहार और
उत्तर प्रदेश में मिलते हैं। पाणिनि के समय के भारत के बारे में लिखने वाले वी.एस. अग्रवाल
पाणिनि का काल लगभग ई.पू. 450 बताते हैं। उनके अनुसार, मौर्य-पूर्व जनपद या प्रादेशिक
राज्यों के बारे में पाणिनि से अधिक जानकारी किसी अन्य ग्रन्थ से नहीं मिलती है। ई.पू. 150 में
पतंजलि द्वारा पाणिनि पर की गई टीका से उत्तर-मौर्य काल की बहुमूल्य जानकारी मिलती है।
हमारे पास भास, शूद्रक, कालिदास और बाणभट्ट के ग्रन्थ भी हैं। साहित्यिक महत्व
के अलावा, उन ग्रन्थों में रचनाकारों ने उस दौर की स्थितियों का भी वर्णन किया है,
जिस दौर का वे लेखन कर रहे थे। कालिदास ने काव्य और नाटक की रचना की।
अभिज्ञानशाकुन्तलम उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति है। महान सृजनात्मक ग्रन्थों के
अलावा, उनके लेखन में हमें गुप्त काल के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की
झलक भी मिलती है।
संस्कृत स्रोतों के अतिरिक्त, हमारे पास संगम साहित्य कोष में सबसे पहले तमिल
ग्रन्थ हैं। यह साहित्य उस दौर के प्रमुखों और राजाओं द्वारा संरक्षित कॉलेजों में एकत्रित हुए
कवियों द्वारा तीन-चार शताब्दियों में तैयार किया गया था। इस तरह के कॉलेजों को संगम
कहा जाता था और इन विद्वत सभाओं में निर्मित साहित्य को संगम साहित्य के नाम से जाना
जाता था। इस पूरे संकलन के संग्रह को ईसवी सन् के शुरुआती चार सदियों में तैयार माना
जाता है, हालाँकि वास्तविक रूप से ये छठी शताब्दी तक ही पूरी तरह से तैयार हो पाए।
संगम साहित्य में एटूट्टकोई शीर्षक से आठ संकलनों में लगभग 30,000 पंक्तियों
की कविताएँ शामिल हैं। कविताओं को सौ-सौ के समूहों में इकट्ठा किया गया है; जैसे
पुराणनुरु (बाहर की चार सौ)। इनके दो मुख्य समूह हैं पति किल कन्नक्कु (अठारह
निचले संग्रह) और पटुप्पटु (दस गाने)। इनमें पहले वाला स्वभावत: दूसरे से अधिक
प्राचीन माना जाता है, अतः इसकी ऐतिहासिक महत्ता भी अधिक है। संगम ग्रन्थों में कई
परतें हैं लेकिन वर्तमान में इन्हें शैली और सामग्री के आधार पर स्थापित नहीं किया जा
सकता। जैसा कि बाद में दर्शाया गया है कि उन्हें सामाजिक विकास के विभिन्न चरणों के
आधार पर ही समझा जा सकता है।
संगम ग्रन्थ वैदिक ग्रन्थों से काफी भिन्न होते हैं, विशेष रूप से ऋगवेद से। उन्हें धार्मिक
साहित्य नहीं माना जाता। उनमें विभिन्न नायक-नायिकाओं की प्रशंसा में कई कवियों द्वारा
लिखी गई छोटी-बड़ी कविताएँ होती थीं; जो स्वभावतः धर्मनिरपेक्ष होती थीं। वे बहुत प्राचीन
गीत नहीं थे लेकिन उच्च गुणवत्ता वाले साहित्य जरूर थे। कई कविताओं में योद्धा या प्रमुख
या राजा के नाम का उल्लेख है और उसके सैन्य कारनामों के बारे में विस्तार से वर्णन है।
इनमें कवियों और योद्धाओं को दिए गए उपहारों की प्रशंसा की गई है। ये कविताएँ दरबारों
में पढ़ी भी गई होंगी। इनकी तुलना होमरिक युग की कविताओं से की गई है क्योंकि इन
दोनों में योद्धाओं और युद्ध के युग का वर्णन मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इन ग्रन्थों
का उपयोग उतना सहायक सिद्ध नहीं होता है। शायद कविता में उल्लिखित नाम, शीर्षक,
राजवंश, प्रदेश, युद्ध और इस तरह के अन्य हिस्से आंशिक रूप से वास्तविक हों। संगम
ग्रन्थों में पहली और दूसरी शताब्दियों के लेखन में दान-दाताओं के रूप में वर्णित कुछ चेरा
राजाओं के उल्लेख मिलते हैं।
संगम ग्रन्थों में कावेरीपत्तनम सहित कई बस्तियों का उल्लेख है। कावेरीपत्तनम का
समृद्ध अस्तित्व अब पुरातात्विक रूप से भी स्थापित हो चुका है। इन ग्रन्थों में इसका भी
उल्लेख है कि यवन स्वयं अपने जहाजों में आते थे, सोने देकर काली मिर्च खरीदते थे और
स्थानीय लोगों के लिए शराब और दासियों की आपूर्ति करते थे। इस व्यापार की पुष्टि न
केवल लैटिन और यूनानी लेखन से होती है बल्कि पुरातात्विक अभिलेख से भी होती है।
संगम साहित्य, ईसवी सन् के प्रारम्भिक सदियों में तमिलनाडु के समुद्र के किनारे के क्षेत्रों
में रहने वाले लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के बारे में जानने का
एक प्रमुख स्रोत है। व्यापार एवं वाणिज्य के बारे में इसके उल्लेख की पुष्टि विदेशी सन्दर्भो
एवं पुरातात्विक खोजों से भी हो चुकी है।

विदेशी सन्दर्भ

विदेशी सन्दर्भो के साक्ष्य से भी स्वदेशी साहित्य की पुष्टि की जा सकती है। भारत आए
ग्रीक, रोमन और चीनी यात्री अथवा धर्मान्तरित आगन्तुकों ने जो जैसा देखा, उसका वैसा
ही लिखित वर्णन यहाँ छोड़ गए। गौरतलब है कि भारतीय स्रोतों में एलेक्जेण्डर के आक्रमण
का कोई उल्लेख नहीं है; उसके भारतीय शोषण के इतिहास का पुनर्गठन हमें पूरी तरह
यूनानी स्रोतों के आधार पर ही करना होगा।
ग्रीक लेखकों ने सन्द्रकोत्तस का उल्लेख किया है, जो ई.पू. 326 में भारत पर आक्रमण
करने वाले एलेक्जेण्डर के समकालीन थे। राजकुमार सन्द्रकोत्तस का समय ई.पू. 322
में निर्धारित हुआ है, उनकी पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ की जाती है। प्राचीन भारत
के कालक्रम निर्धारण में यह पहचान मुख्य आधार का काम करती है। चन्द्रगुप्त मौर्य की
अदालत में आए मेगस्थनीज के इण्डिका को केवल परवर्ती काल के पुराने लेखकों द्वारा
टुकड़ों में उद्धृत अंश के आधार पर ही संरक्षित किया गया है। इन अंशों का एक साथ पाठ
करने पर न केवल मौर्य प्रशासन की प्रणाली के बारे में, बल्कि मौर्य काल के सामाजिक
वर्गों और आर्थिक गतिविधियों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। जिस तरह से
प्राचीन इतिहास के बहुत से लेखन अतिरंजना से भरे हैं उसी तरह इण्डिका भी भ्रामकता
और अतिरंजना से मुक्त नहीं है।।
पहली और दूसरी शताब्दियों के ग्रीक और रोमन इतिहास में कई भारतीय बन्दरगाहों
और भारत एवं रोमन साम्राज्य के बीच व्यापार की वस्तुओं का उल्लेख है। ग्रीक में लिखे
गए दोनों ग्रन्थ पेरिप्लस ऑफ द रिथ्रियन सी और टॉलेमी ज ज्योग्राफी से प्राचीन भूगोल
और वाणिज्य के अध्ययन हेतु मूल्यवान व महत्वपूर्ण आँकड़े मिलते हैं। इनमें पहली कृति
की प्रतिलिपि का समय सन् 80-115 माना जाता है, जबकि दूसरी का समय सन् 150
निर्धारित हुआ है। अज्ञात लेखक द्वारा लिखित कृति ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ में
लाल समुद्र, फारस की खाड़ी और भारतीय महासागर में रोमन व्यापार का वर्णन मिलता
है। लैटिन में लिखित प्लाईनी की कृति नैचुरलिस हिस्टोरिया पहली सदी से सम्बद्ध है और
इसमें भारत-इटली के बीच व्यापार का वर्णन है।
भारत पर लिखने वाले अन्तिम ग्रीक-रोमन विद्वान को कोस्मोस इण्डिकोप्लेस्ट्स कहा
जाता था। वे मिस्र के हेलेनिस्टिक संस्कृति के केन्द्र एलेक्जेण्ड्रिया के थे। उनके द्वारा
लगभग 550 में लिखित क्रिस्चियन टोपोग्राफी में भारत और श्रीलंका में ईसाइयों के बारे में
विवरण है तथा उसमें घोड़ों के व्यापार का भी उल्लेख है।
चीनी यात्रियों में फाहियान और व्हेनत्सांग का उल्लेख किया जा सकता है। वे दोनों
बौद्ध थे। वे बौद्ध धर्मस्थलों का दौरा करने एवं बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिए इस
देश में आए थे। फाहियान पाँचवीं शताब्दी के शुरुआत में और व्हेनत्सांग सातवीं सदी के
लगभग मध्य में आये थे। फाहियान ने गुप्त काल में भारत की सामाजिक, धार्मिक और
आर्थिक स्थितियों का वर्णन किया है और व्हेनत्सांग ने हर्ष-काल के भारत की स्थिति का
वर्णन किया है।

ग्राम चित्र

उत्सवों, त्योहारों और पूजाओं के दौरान हुए सामुदायिक क्रिया-कलाप के अवशेष प्राचीन
समय के कबीलाई समाज के समानतावादी चरित्र को दर्शाते हैं। कबीले और जाति के प्रति
वफादारी अभी तक बरकरार है। अनुष्ठानों के प्रचलन से हमें प्राचीन सामुदायिक जीवन,
परिवार एवं विवाह संस्था की जानकारी मिलती है। उच्च जाति के लोग गाय को नहीं दूहते,
हल भी नहीं चलाते। शारीरिक श्रम के प्रति उनकी अवमानना अस्पृश्यता को बढ़ावा देती
है। असमानता की यह अवधारणा केवल जातियों तक ही सीमित नहीं है, वह स्त्री-पुरुष के
पारस्परिक सम्बन्ध को भी रेखांकित करती है। सन् 1930 तक बिहार के ग्रामीण इलाकों
में सती-प्रथा प्रचलित थी। इस प्रकार सार्वभौमिक मताधिकार के बावजूद समाज में व्याप्त
भेद-भाव प्राचीन भारतीय समाज की प्रकृति को रेखांकित करता है। ग्रामीण रीति-रिवाजों
और जाति के पूर्वाग्रहों द्वारा हमारे प्राचीन राजनीति और समाज पर शासन करने वाले कई
धर्मशास्त्रीय नियमों को स्पष्ट किया गया है।

प्राकृतिक विज्ञान

प्राचीन भारत की इतिहास-निर्मिति के लिए सामाजिक विज्ञान के खोजों का उपयोग करीब
तीस साल पहले शुरू हुआ। हाल में प्राकृतिक विज्ञानों का उपयोग भी शुरू हुआ है। प्राचीन
भारत के अध्ययन के लिए रसायन शास्त्र, भूविज्ञान और जीव विज्ञान से प्राप्त साक्ष्य
प्रासंगिक हो गए हैं।

इतिहास बोध

प्राचीन भारतीयों में इतिहास बोध के अभाव का आरोप लगाया जाता रहा है। स्पष्ट है कि
प्राचीन समय में उन्होंने न तो आज की तरह इतिहास लिखा, न ही यूनानियों की तरह का
इतिहास लिखा। किन्तु पुराणों में हमारे पास एक तरह का इतिहास है, जिसकी संख्या अठारह
है (अठारह एक परम्परागत शब्द था)। हालाँकि विश्वकोशीय सामग्री के रूप में पुराणों से
गुप्त काल के शुरुआती शासन के वंशवादी इतिहास की जानकारी तो मिलती है। उनमें घटना
स्थलों और कभी-कभी घटनाओं के कारणों एवं प्रभावों का भी उल्लेख मिलता है। इन
घटनाओं का जिक्र भविष्यत् काल में है, हालाँकि वे घटनाएँ बहुत पहले घट चुकी थीं। पुराणों
के लेखक वैचारिक परिवर्तन से अनभिज्ञ नहीं थे, यही इतिहास का सार है। पुराण चार युगों
की बात करते हैं, जिन्हें कृत्, त्रेता, द्वापर और कलि कहते हैं। प्रत्येक काल पिछले काल की
तुलना में बदतर माना गया है और हमेशा युग परिवर्तन के बाद नैतिक मूल्यों एवं सामाजिक
व्यवस्थाओं में अवमूल्यन को देखा गया है। इतिहास के महत्वपूर्ण समय और स्थान को
प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। कहा जाता है कि स्थान एवं काल के बदलते क्रम में धर्म,
अधर्म में और अधर्म, धर्म में बदल जाता है। प्राचीन भारत में कई युगों की शुरुआत हुई, जिनके
अनुसार घटनाओं को दर्ज किया गया। ई.पू. 57-58 में विक्रम संवत शुरू हुआ, सन् 78 में
शक संवत और सन् 319 में गुप्त काल शुरू हुआ। इन अभिलेखों व रचनाओं में घटनाओं
का उल्लेख समय और स्थान के सन्दर्भ में ही होता है। ई.पू. तीसरी शताब्दी के अशोक के
शिलालेखों से महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ज्ञान प्राप्त होता है। अशोक ने सैंतीस साल तक शासन
किया। उनके शिलालेखों में आठवें से सत्ताइसवें शासकीय वर्ष तक हुई घटनाओं को दर्ज
किया गया है। अभी तक केवल नौ शासकीय वर्षों से सम्बन्धित घटनाओं को ही खोजा जा
सका है। भविष्य की खोज उसके शासनकाल के बाकी बचे हुए वर्षों से सम्बन्धित घटनाओं
पर प्रकाश डाल सकेगी। इसी तरह, कलिंग के खारवेल (ई.पू. पहली सदी) के जीवनकाल में
घटित बड़ी संख्या की घटनाएँ हाथीगुंफा शिलालेख में वर्ष वार दर्ज की गई हैं।
भारतीय लेखकों के जीवनीपरक लेखनों में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सन्दर्भ रहते हैं,
सातवीं शताब्दी में बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। इस
अर्ध-जीवनीपरक रचना की शानदार शैली बाद के जीवनी लेखकों के लिए एक बड़ी
चुनौती बन गई। इसमें हर्षवर्धन के शुरुआती काल का वर्णन है। अतिशयोक्ति में ही सही,
किन्तु इसमें हर्ष के समय के दरबारी जीवन तथा सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का उत्कृष्ट
उदाहरण मौजूद है। बाद में कई अन्य चरित्र और जीवनियां लिखी गयी। सन्ध्याकार नन्दी
रचित रामचरित (बारहवीं शताब्दी) में कैवर्त किसानों और पाल वंश के राजकुमार रामपाल
के बीच हुए संघर्ष की कहानी का वर्णन किया है, जिसमें रामपाल की जीत हुई। बिल्हण
के विक्रमांकदेवचरित में उनके संरक्षक, कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य VI (सन्
1076-1127) की उपलब्धियों का बखान है। यहाँ तक कि बारहवीं-तेरहवीं शताब्दियों
में गुजरात के कुछ व्यापारियों की जीवनी (चरित) भी लिखी गई थी। दक्षिण भारत में भी
इसी तरह के ऐतिहासिक कृतियों की रचना हुई होंगी, किन्तु अभी तक उधर से ऐसी एक
ही रचना प्राप्त हो सकी है। इसे मुशिका वंश कहते हैं, जो ग्यारहवीं शताब्दी में अतुल द्वारा
लिखा गया। इसमे उत्तरी केरल पर शासन करने वाले मुशिका वंश का विवरण है। हालाँकि,
प्राचीनतम ऐतिहासिक लेखन का सबसे बेहतरीन उदाहरण बारहवीं शताब्दी में कल्हण
रचित राजतरंगिनी या द स्ट्रीम ऑफ किंग्स है। यह कश्मीर के राजाओं के आत्मकथाओं
की एक श्रृंखला है और जैसा कि आज इतिहास की समझ है उस लिहाज से इसे ऐतिहासिक
लेखन की विशेषताओं से सम्पन्न कृति माना जा सकता है।

इतिहास का निर्माण

अब तक कई स्थलों, प्रागैतिहासिक, प्रोटो-ऐतिहासिक और ऐतिहासिक उत्खनन किए गए
हैं लेकिन प्राचीन भारतीय इतिहास की मुख्यधारा में कोई प्रमाण नहीं मिलते। प्रागैतिहासिक
और प्रोटो-ऐतिहासिक पुरातत्व के परिणामों को ध्यान में रखे बिना भारत में सामाजिक
विकास के चरणों को ठीक से समझा नहीं जा सकता, ऐतिहासिक पुरातत्व की बात नहीं
की जा सकती। यद्यपि प्राचीन ऐतिहासिक काल से सम्बन्धित लगभग 200 जगहों पर
खुदाई की गई, फिर भी सर्वेक्षण अध्ययनों में प्राचीन काल की सामाजिक, आर्थिक और
सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के अध्ययन में उनकी प्रासंगिकता पर पर्याप्त विचार नहीं किया गया
है। प्राचीन भारत के ग्रामीण और शहरी पहलुओं के सन्दर्भ में ऐसा अवश्य किया जाना
चाहिए। यद्यपि अब तक बड़े पैमाने पर बौद्ध और कुछ ब्राह्मणिक स्थलों के महत्व पर
प्रकाश डाला गया है लेकिन सामाजिक और आर्थिक विकास के संदर्भ में हमे धार्मिक
इतिहास को देना चाहिए।
प्राचीन इतिहास का निर्माण अब तक मुख्य रूप से साहित्यिक स्रोतों, विदेशी एवं
स्वदेशी सन्दर्भो के आधार पर किया गया है। सिक्के और शिलालेख कुछ भूमिका निभाते हैं
लेकिन विवरणात्मक पाठ का अधिक महत्व होता है। अब तो नए तरीके भी अपनाए जाने
चाहिए। ऐतिहासिक ज्ञान बढ़ता रहता है। पाठों/ग्रन्थों की तिथियों एवं वस्तुनिष्ठता के बारे
में हमें अधिक गम्भीरता से बात करनी चाहिए। पुरातात्त्विक साक्ष्य के सन्दर्भ में ग्रन्थों की
जाँच करते हुए ऐसा किया जा सकता है। शुरू-शुरू में, पुरातत्वविद लिखित ग्रन्थों से प्रेरित
रहते थे इसलिए वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों में उल्लिखित कई जगहों की खुदाई भी करवाई।
खुदाई की परिणतियाँ हमेशा ग्रन्थों के सन्दर्भो की पुष्टि नहीं करती थीं; बावजूद इसके
यह बेहद समृद्ध ऐतिहासिक जानकारी थी। हालाँकि कई क्षेत्रों के उत्खननों की पूरी रिपोर्ट
अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है, किन्तु पुरातात्त्विक निष्कर्षों के सन्दर्भ में ग्रन्थों की जाँच
करना उचित होगा।
ऋग्वेद के समय अध्ययन हेतु हमें गान्धार के कब्रों की संस्कृति
(Gandhar grave culture) का जायजा लेना होगा जिसमें ई.पू. दूसरी सहस्राब्दि में
घोड़े का इस्तेमाल और मृतकों का अन्तिम संस्कार किया जाता था। हमें एक ओर पेण्टेड
ग्रे वेयर और दूसरे प्रकार के पुरातात्विक खोजों और दूसरे अन्य वैदिक युग के बीच एक
सह-सम्बन्ध स्थापित करना होगा। इसी प्रकार, प्रारम्भिक पाली ग्रन्थों को नॉर्दर्न ब्लैक
पोलिश्ड वेयर (एनबीपीडब्ल्यू) पुरातत्व से सम्बन्धित होना चाहिए। जो प्रायद्वीपीय भारत में
शिलालेखों और शुरुआत के महापाषाण पुरातत्व से जुड़े हुए हैं। पुराणों से प्राप्त लंबे वंश-
वृक्ष की तुलना में पुरातत्व के साक्ष्य को अधिक महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। अयोध्या
के राम का काल लगभग ई.पू. 2000 तय करने हेतु पुराणिक परम्परा का इस्तेमाल किया
जा सकता है लेकिन अयोध्या में खुदाई एवं व्यापक अन्वेषण से उस अवधि के आस-पास
की पुराणों में जो इंसानी बसावट है उसकी किसी भी बात से पुष्टि नहीं होती है। इसी तरह
कृष्ण यद्यपि महाभारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन ई.पू. 200 से सन् 300 के
बीच मथुरा से प्राप्त प्राचीनतम शिलालेख और मूर्तिकला के अवशेषों से ऐसी किसी बात
की पुष्टि नहीं होती है। इस तरह की कठिनाइयों को देखते हुए, रामायण और महाभारत
पर आधारित महाकाव्य युग के विचारों को त्याग दिया जाना चाहिए, हालाँकि अतीत में
इसने प्राचीन भारत के अधिकांश सर्वेक्षण संस्करणों में एक अध्याय का निर्माण किया था।
रामायण और महाभारत दोनों में सामाजिक विकास के कई चरणों का बेशक पता लगाया जा
सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि महाकाव्यों का रिश्ता सामाजिक विकास के किसी एक
समय से नहीं होता। हम यह जानते हैं कि वे कई संस्करणों की यात्रा कर वहाँ पहुँचते हैं।
इसके अलावा, साहित्यिक परम्पराओं और पुरालेख सामग्री के आधार पर, वर्धमान महावीर
और गौतम बुद्ध का समय आम तौर पर ई.पू. छठी शताब्दी बताया जाता है, लेकिन
जिन शहरों में वे गए वे पुरातात्त्विक रूप से ई.पू. 400 से अधिक पुराने नहीं हैं और इसलिए
इन महान व्यक्तित्वों की परम्परा-आधारित तिथियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
ग्रन्थों की तुलना में कालानुक्रमिक और तर्कसंगत आधार पर पुरातत्व, शिलालेख और
सिक्के अधिक महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि, पाणिनी और पतंजलि के व्याकरण सम्बन्धी कार्यों
में लगभग निर्धारित तिथियाँ दर्ज हैं। ये मिथकों और किंवदन्तियों से अपेक्षाकृत मुक्त हैं।
इसलिए ये सिक्कों, शिलालेखों और उत्खनन की तरह ही महत्वपूर्ण हैं।
अब तक इस आधार पर कई शिलालेख खारिज किए जा चुके हैं कि इतिहास में उनकी
अहमियत बहुत कम है। ‘ऐतिहासिक मूल्य’ को राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में
आवश्यक जानकारी के रूप में लिया जाता है। हालाँकि, शाही शिलालेख में अतिशयोक्ति
होती है। अशोक के शिलालेखों में लाखों जैसे लिखे गए शब्द ऐसे ही लगते हैं। यह मनुष्यों
और जानवरों पर लागू होता है और कलिंग युद्ध में मारे गए लोगों की संख्या और उन्हें
पाटलिपुत्र लाए जाने के कथन के आधार पर सन्देह पैदा होता है। समुद्रगुप्त और राजा चन्द्र
के शिलालेख में भी अतिरंजना है। इन अतिशयोक्तियों के बावजूद, पुराणिक परम्पराओं की
तुलना में शिलालेख निश्चित रूप से अधिक विश्वसनीय हैं। पुराणों का उपयोग हालाँकि
सातवाहनों की उत्पत्ति को पीछे धकेलने के लिए किया जाता है। शिलालेखों में इसे
ई.पू. पहली शताब्दी का बताया गया है। शिलालेख किसी राजा के शासनकाल, उसकी
विजय और उसके विस्तार का संकेत देते हैं। लेकिन साथ ही साथ वे राजनीति, समाज,
अर्थव्यवस्था और धर्म के विकास को भी उजागर करते हैं। इसलिए यह अध्ययन पुरातत्व
का केवल राजनीतिक या धार्मिक इतिहास के लिए अभिलेखों का उपयोग नहीं करता है।
पुरालेख में दर्ज भूमि अनुदान केवल वंश-वृक्ष और उनकी जीत की सूचियों के लिए ही
महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि उत्तर-गुप्त काल में हुए नए राज्यों के उदय, सामाजिक और
कृषि संरचना में परिवर्तन आदि के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इसी तरह, सिक्कों को केवल
भारतीय-यूनानी, शक, सातवाहन और कुषाण के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए ही नहीं
बल्कि व्यापार और शहरी जीवन के इतिहास के लिए भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
सारांशत: ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के लिए ग्रन्थों, सिक्कों, शिलालेखों, पुरातत्व आदि से
प्राप्त सामग्रियों का सावधानी पूर्वक संग्रह आवश्यक है। हमने देखा कि यह स्रोतों के सापेक्ष
महत्व की समस्या को बढ़ाता है। इस प्रकार, महाकाव्यों और पुराणों में पाए जाने वाले
पौराणिक कथाओं से सिक्कों, शिलालेख और पुरातत्व को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
पौराणिक कथाएँ प्रमुख मानदण्डों का समर्थन कर सकती हैं, सामाजिक प्रथाओं को मान्य
कर सकती हैं और जातियों एवं अन्य सामाजिक समूहों की सुविधाओं-असुविधाओं को
उचित ठहरा सकती हैं, किन्तु उनमें वर्णित घटनाओं को सच नहीं माना जा सकता। प्राचीन
समय से अभी तक प्रचलित प्रथाओं से भी हम प्राचीन काल को समझ सकते हैं। ग्रामीण
जीवन और आदिम जनजीवन के अध्ययन से प्राप्त अन्तर्दृष्टि प्राचीन इतिहास के निर्माण में
मूल्यवान धरोहर की तरह है। कोई व्यवस्थित ऐतिहासिक पुनर्निर्मिति अन्य प्राचीन समाजों में
हुए विकास की अनदेखी नहीं कर सकता। तुलनात्मक दृष्टिकोण प्राचीन भारत में ‘दुर्लभ’
या अनोखेपन’ के अवलोकन को दूर कर सकता है और उन प्रवृत्तियों को खोज कर बाहर
ला सकता है जो प्राचीन भारत से दूसरे देशों के अतीत के समाजों के साथ मेल खाती हैं।
हम दुनिया के अन्य भागों में लोगों के साथ भारतीय सम्बन्धों के बारे में जानने के लिए
मानव आनुवंशिक अनुसन्धान के परिणामों का भी उपयोग कर सकते हैं। आनुवंशिकता
और पीढ़ीगत विरासतीय गुणों का वैज्ञानिक अध्ययन जातीय मिलन, जनसंख्या के फैलाव
और संस्कृति के प्रसार को दर्शाता है।

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