MP 11th Hindi

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-12)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-12)

MP Board Class 11th Special Hindi स्वाति लेखक परिचय (Chapter 1-12)

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
[2008, 09, 13, 17]

  • जीवन-परिचय

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 11 अक्टूबर, सन् 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के अगोना ग्राम में हुआ था। आपके पिता पं. चन्द्रबलि शुक्ल सुपरवाइजर कानूनगो थे। शुक्लजी ने एफ. ए. (इण्टर) तक की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा समाप्ति पर जीविकोपार्जन के लिए मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के शिक्षक हो गये। इस समय तक इनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। जब नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ नाम से शब्दकोश के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया, तब शुक्लजी मात्र छब्बीस वर्ष की अवस्था में उसके सहायक सम्पादक नियुक्त किये गये। उसके बाद हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में आप हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गये। सन् 1937 में आप वहाँ हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हो गये। 2 फरवरी, सन् 1940 को आपका निधन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

आचार्य शुक्लजी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे कवि, निबन्धकार, आलोचक, सम्पादक तथा अनुवादक अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं। आपने “हिन्दी शब्द सागर” और “नागरी प्रचारिणी पत्रिका” का सम्पादन किया। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन में हिन्दी को उच्चकोटि के निबन्ध, वैज्ञानिक समालोचनाएँ, साहित्यिक ग्रन्थ एवं सरल कविताएँ प्रदान की। शुक्ल जी ने हिन्दी में समालोचना और निबन्ध कला का उच्च आदर्श स्थापित किया। उनसे पहले की समालोचनाओं में गुण-दोष विवेचन की ही प्रधानता थी। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग की व्याख्यात्मक आलोचना-पद्धति की नींव डाली और जायसी, तुलसी तथा सूर के काव्यों पर उत्कृष्ट व्याख्यात्मक आलोचनाएँ लिखीं। आपने करुणा, उत्साह, क्रोध, श्रद्धा और भक्ति आदि मनोविकारों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। उनके निबन्ध ‘चिन्तामणि’ नामक पुस्तक में संग्रहीत हैं। ‘चिन्तामणि’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नामक गवेषणापूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा, जिस पर हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग ने पुरस्कार प्रदान किया।

  • रचनाएँ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रमुख रचनाएँ अग्र प्रकार हैं

  1. निबन्ध-संग्रह-चिन्तामणि, विचार-वीथी।
  2. आलोचना-त्रिवेणी, रस-मीमांसा।
  3. इतिहास-हिन्दी साहित्य का इतिहास।
  • वर्ण्य विषय

साहित्य के समस्त क्षेत्रों को स्पर्श करने वाली शुक्लजी की प्रतिभा समालोचना एवं निबन्ध के क्षेत्र में भी प्रखरता के साथ परिलक्षित होती है। निबन्ध एवं आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में शुक्लजी ने लोक मंगल एवं नैतिक आदर्श को प्रमुख स्थान दिया है। निबन्ध-रचना के क्षेत्र में उन्होंने सामाजिक उपयोगिता से सम्बन्धित मानव-मनोभावों पर सुन्दर निबन्ध लिखे। शुक्लजी ने मनोभावों सम्बन्धी निबन्धों के साथ ही समीक्षात्मक एवं सैद्धान्तिक निबन्धों की भी रचना की।

  • भाषा

आचार्य शुक्लजी की भाषा परिष्कृत, प्रौढ़ एवं साहित्यिक खड़ी बोली है। इस भाषा में सौष्ठव है तथा उसमें गम्भीर विवेचन की अपूर्व शक्ति है। शुक्लजी की भाषा में व्यर्थका शब्दाडम्बर नहीं मिलता। भाव और विषय के अनुकूल होने के कारण वह सर्वथा सजीव और स्वाभाविक है। गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में भाषा अपेक्षाकृत क्लिष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है। वाक्य-विन्यास भी कुछ लम्बे हैं। सामान्य विचारों के विवेचन में भाषा सरल एवं व्यावहारिक है। कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग से उसमें सरसता आ गयी है। शुक्लजी की भाषा व्यवस्थित तथा पूर्ण व्याकरण सम्मत है तथा उसमें कहीं भी शिथिलता देखने को नहीं मिलती। भाषा की इसी कसावट के कारण उसमें समास शक्ति पायी जाती है तथा कहीं-कहीं तो भाषा सूक्तिमयी बन गयी है–“बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।”

  • शैली

शुक्लजी अपनी शैली के स्वयं निर्माता थे। उनकी शैली समास के रूप से प्रारम्भ होकर व्यास शैली के रूप में समाप्त होती है अर्थात् एक विचार को सूत्र रूप में कहकर फिर उसकी व्याख्या कर देते हैं। मुख्य रूप से शुक्लजी की शैली चार प्रकार की है-

  1. समीक्षात्मक शैली-शुक्लजी ने व्यावहारिक, समीक्षात्मक एवं समालोचनात्मक निबन्धों में इस शैली का प्रयोग किया है। इस शैली में वाक्य छोटे, संयत एवं गम्भीर हैं। इसमें विषय का प्रतिपादन सरलता के साथ इस प्रकार किया गया है कि सहज ही हृदयंगम हो जाता है।
  2. गवेषणात्मक-अनुसन्धानपरक तथा सैद्धान्तिक समीक्षा सम्बन्धी तथा तथ्यों के विश्लेषण-निरूपण में शुक्लजी ने इस शैली का प्रयोग किया है। यह शैली गम्भीर तथा कुछ सीमा तक दुरूह है। शब्द-विन्यास क्लिष्ट तथा वाक्य-विन्यास जटिल है। यह शैली सामान्य पाठकों के लिए बोधगम्य नहीं है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली में वाक्य कहीं छोटे तथा कहीं लम्बे हैं तथा भाषा कुछ-कुछ अलंकारिक हो गयी है। इसमें भावनाओं का धाराप्रवाह रूप मिलता है।
  4. हास्य-विनोद एवं व्यंग्य प्रधान शैली-इस शैली के दर्शन मनोविकारों तथा समीक्षात्मक निबन्धों में यत्र-तत्र ही होते हैं, क्योंकि हास्य तथा व्यंग्य शुक्लजी के निबन्धों का मुख्य विषय नहीं है, फिर भी इस शैली के प्रयोग से निबन्धों में रोचकता आ गयी है।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा साहित्य की अनेक विधाओं में सृजन किया। लेकिन उनकी विशेष ख्याति निबन्धकार, समालोचक तथा इतिहासकार के रूप में है। उन्होंने हिन्दी में वैज्ञानिक आलोचना-प्रणाली को जन्म दिया, निबन्ध-साहित्य को समृद्ध किया तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए एक आधार प्रदान किया। शुक्लजी की भाषा तथा शैली आने वाले साहित्यकारों के लिए आदर्श रूप है। वे युग प्रवर्तक निबन्धकार हैं।

2. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
[2008, 10, 14, 16]

  • जीवन-परिचय

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त, सन् 1907 में बलिया जिले के दुबे का छपरा नामक ग्राम में हुआ था। द्विवेदी जी के पिता का नाम अनमोल दुबे तथा माता का नाम ज्योतिकली देवी था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। द्विवेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई और वहाँ से उन्होंने सन् 1920 में मिडिल की परीक्षा पास की। इसके बाद कुल-परम्परा के अनुसार संस्कृत का अध्ययन करने के लिए आप काशी गये। काशी विश्वविद्यालय से साहित्य एवं ज्योतिष में आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर के बाद अस्वस्थ हो जाने के कारण आप बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण न कर सके।

सन् 1940 ई. में हिन्दी एवं संस्कृत के अध्यापक के रूप में आप शान्ति निकेतन गये। यहाँ लगभग 20 वर्ष तक हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे। आपने महाकवि रवीन्द्र के संसर्ग में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का विकास किया। आपने विश्वभारती’ का सम्पादन भी किया।

सन् 1949 ई. में लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि प्रदान की। सन् 1956 ई. में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष बने। आपने पंजाब विश्वविद्यालय में भी हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद को सुशोभित किया। हिन्दी साहित्य की सेवा करते-करते 19 मई, 1979 को यह दैदीप्यमान नक्षत्र सदैव के लिए विलीन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

आचार्य द्विवेदी जन्मजात प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। कविता के क्षेत्र में दिशा निर्देशन व्योमकेश शास्त्री से प्राप्त किया। शनैः-शनैः इनकी प्रतिभा प्रखर होने लगी। रवीन्द्रनाथ के बंगला साहित्य से आप विशेषतः प्रभावित हुए। उनका एक शब्द तथा वाक्य उनके लिए अमूल्य सिद्ध हुआ। निबन्धकार, इतिहास लेखक, उपन्यासकार, शोधकर्ता के रूप में आप हिन्दी साहित्य में विशेष रूप से जाने-पहचाने जाते हैं। आप एक सफल आलोचक थे। सिद्ध, जैन एवं अपभ्रंश साहित्य को आपने उजागर किया है। उनके उपन्यास तथा निबन्ध शैली, भावों तथा विचारों की दृष्टि से नूतनता तथा गहनता से ओत-प्रोत हैं। आपने ‘हिन्दी-संस्थान’ के उपाध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया है। ‘कबीर’ नामक रचना पर आपको मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ मिला। भारत सरकार ने आपकी साहित्यिक उपलब्धियों को ध्यान में रखकर सन् 1950 में ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से भी सम्मानित किया। ‘सूर साहित्य’ पर आपको इन्दौर साहित्य समिति ने स्वर्ण पदक’ प्रदान किया था। आपने भक्ति साहित्य पर उच्चकोटि के समीक्षक ग्रन्थों की रचना की तथा ‘अभिनव भारती’ ग्रन्थमाला का सराहनीय सम्पादन किया है।

  • रचनाएँ

आचार्य द्विवेदी जी ने साहित्य की विविध विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी। उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- .

  1. आलोचना साहित्य-‘सूर-साहित्य’,’हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘कबीर’, ‘सूरदास और उनका काव्य’, ‘हमारी साहित्य समस्याएँ’, ‘साहित्य का धर्म’, ‘नख दर्पण में हिन्दी कविता’, “हिन्दी साहित्य’,’समीक्षा साहित्य’ आदि।
  2. उपन्यास-‘चारुचन्द्र लेख’, ‘अनामदास का पोथा’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ तथा पुनर्नवा’।
  3. निबन्ध- विचार और वितर्क’, ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पना’, ‘साहित्य के साथी’, ‘कुटज’, ‘कल्पलता’, आदि।
  4. शोध सम्बन्धी साहित्य-‘नाथ सम्प्रदाय’, ‘मध्यकालीन धर्म साधना’, ‘हिन्दी साहित्य का अदिकाल’, ‘प्राचीन भारत का कला विकास’ आदि।
  5. अनूदित साहित्य-‘प्रबन्ध चिन्तामणि’, ‘लाल कनेर’, ‘मेरा बचपन’, ‘पुरातन प्रबन्ध संग्रह’, ‘प्रबन्ध कोष’ आदि आपकी अनूदित रचनाएँ हैं।।
  • वर्ण्य विषय

बहुमुखी प्रतिभा के धनी द्विवेदी जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में विविध प्रकार से साहित्य की रचना की है। आलोचना, निबन्ध, उपन्यास, अन्वेषण आदि रचनात्मक विधाओं के अतिरिक्त आपने अनुवाद के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है। आपके निबन्धों में साहित्य तथा संस्कृति का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है। आपके साहित्य में भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट देखी जा सकती हैं। ललित निबन्धों में इनकी विशेषताएँ हैं कि अपनी विद्वता की स्थायी छाप पाठक के हृदय पर छोड़ते हैं।

  • भाषा

आचार्य द्विवेदी जी ने सरल, सुस्थिर, संयत एवं बोधगम्य भाषा का प्रयोग किया है। सामान्यत: वे तत्सम प्रधान, शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं। भाव और विषय के अनुसार इनकी भाषा का रूप बदलता रहता है। उन्होंने निबन्धों की भाषा में संस्कृत शब्दों को ही प्राथमिकता दी है। संस्कृत शब्दावली की प्रचुरता के कारण कहीं-कहीं क्लिष्टता भी आ गयी है। सामान्यतः उसमें स्पष्टता और प्रवाह बना रहा है। द्विवेदी जी ने व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें उर्दू, अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग है। इनकी भाषा में ‘देशज’ और ‘स्थानीय’ बोलचाल के शब्दों का भी प्रयोग है, लेकिन मुहावरों का कम ही प्रयोग हुआ है।

  • शैली

द्विवेदी जी एक महान् शैलीकार थे। उनकी शैली में विभिन्नता, विविधता है। उनकी शैली चुस्त और गठी हुई है। द्विवेदी जी के साहित्य को शैली की दृष्टि से हम निम्नलिखित रूपों में विभाजित कर सकते हैं

  1. गवेषणात्मक शैली-यह द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। उनकी आलोचनात्मक एवं विचारात्मक रचनाएँ इस शैली में लिखी गयी हैं। इसमें स्वाभाविकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। इस शैली में उनकी संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा की प्रधानता रहती है।
  2. आलोचनात्मक शैली-आलोचनात्मक रचनाएँ तथा ‘कबीर’, ‘सूर साहित्य’ जैसी व्यावहारिक आलोचना की रचनाएँ इस शैली में हैं। इस शैली की भाषा संस्कृत-प्रधान और स्पष्टवादिता से पूर्ण है।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग द्विवेदी जी ने वैयक्तिक और ललित निबन्धों में किया है। भावुकता, माधुर्य और प्रवाह शैली की विशेषताएँ हैं।
  4. व्यंग्यात्मक शैली-द्विवेदी जी के निबन्धों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सुन्दर और सफल प्रयोग हुआ है। उनके व्यंग्य सार्थक होते हैं। इस शैली में भाषा प्रवाहमय तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों से युक्त है। इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी की रचनाओं में अनेक स्थलों पर उद्धरण, व्याख्यात्मक, व्यास एवं सूक्ति शैलियों के भी दर्शन होते हैं।
  • साहित्य में स्थान

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उच्चकोटि के विद्वान, निबन्धकार, उपन्यासकार, सबल समीक्षक, साहित्य-इतिहासकार के रूप में अपार श्रद्धा के पात्र थे। उनके निबन्धों में विचारों की गम्भीरता, विषय की स्पष्टता तथा विश्लेषण की सूक्ष्मता मिलती है। आधुनिक हिन्दी आलोचकों एवं निबन्धकारों में आपका महत्त्वपूर्ण स्थान है। निश्चय ही वे हिन्दी गद्य साहित्य की महान् विभूति थे।

3. डॉ. विद्यानिवास मिश्र
[2008, 09, 11, 12]

  • जीवन-परिचय

विख्यात निबन्धकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का जन्म गोरखपुर जिले के पकड़डीहा ग्राम में 14 जनवरी, 1926 में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम में ही अर्जित कर आप उच्च शिक्षा के अध्ययन हेतु इलाहाबाद चले गये। वहाँ संस्कृत में एम. ए. करने के पश्चात् गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। कुछ समय तक आपने उत्तर प्रदेश तथा विध्य प्रदेश के सूचना विभागों में कार्य किया। इसके बाद गोरखपुर तथा आगरा विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। आप क. मुं. हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विद्यापीठ, आगरा के निदेशक रहे। काशी विद्यापीठ तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयों के कुलपति नियुक्त हुए। भारत सरकार ने आपको पद्म भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। एक दुर्घटना में 14 फरवरी, 2005 को आपका निधन हो गया।

  • साहित्य-सेवा

प्रारम्भ से ही साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न विद्यानिवास मिश्र ने विविध प्रकार से हिन्दी साहित्य की सेवा की। साहित्य सृजन के साथ-साथ आप नवभारत टाइम्स समाचार पत्र के प्रधान सम्पादक रहे। आपने ‘साहित्य अमृत’ पत्रिका का सम्पादन किया। मिश्र जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, काशी नागरी प्रचारिणी सभा एवं नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा आदि हिन्दी सेवी संस्थाओं से जुड़े रहे। आपने अमेरिका के वर्कले विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। अन्तिम समय तक आप साहित्य सेवा में संलग्न रहे।

  • रचनाएँ

विद्यानिवास मिश्र का साहित्य बहुआयामी है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. निबन्ध संग्रह-‘चितवन की छाँह’, कदम की फूली डाल’, ‘तुम चन्दन हम पानी’, ‘आँगन का पंछी और बनजारा मन’,’तमाल के झरोखे से’, ‘मैंने सिल पहुँचाई’, ‘हल्दी, दूब और अक्षत’, वसंत आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं’, ‘कंटीले तारों के आर पार’ आदि।
  2. आलोचना-साहित्य की चेतना।।
  3. संस्मरण-अमरकंटक की सालती स्मृति।

इसके अतिरिक्त ‘पानी की पुकार’ (कविता संग्रह), ‘रीति विज्ञान’, हिन्दी शब्द सम्पदा आदि आपकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

  • वये विषय

विद्यानिवास मिश्र ने शिक्षा, भाषा, राष्ट्रीयता, धर्म, जीवन आदि विषयों पर निबन्धों की रचना की है। इन निबन्धों में शास्त्र-ज्ञान तथा लोक जीवन का मणिकांचन योग दिखाई देता है। इनके निबन्धों में लोक जीवन तथा ग्रामीण समाज मुखरित हो उठा है। आपने स्थान-स्थान पर पौराणिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक सन्दर्भ देकर विषय को समझाने का स्तुत्य प्रयास किया है।
आपने भावात्मक, विचारात्मक, समीक्षात्मक, संस्मरणात्मक आदि विविध प्रकार के निबन्ध लिखे हैं।

  • भाषा

मिश्र जी की भाषा में विषय के अनुसार विविधता परिलक्षित होती है। आपकी तत्सम प्रधान खड़ी बोली में तद्भव, विदेशी एवं देशज शब्दों को आवश्यकतानुसार अपनाया गया है। भाषा की ताजगी, उक्तियों का चमत्कार, भंगिमाओं की सुसज्जा ने आपके निबन्धों में सम्प्रेषणीयता का अद्भुत गुण पैदा कर दिया है। मिश्र जी भाषा के कुशल पारखी हैं। इसीलिए जिस स्थान पर जो शब्द आना चाहिए वही प्रयोग हुआ है।

• शैली
मिश्र जी ने विषयानुरूप शैली के विविध रूप अपनाये हैं

  1. भावात्मक शैली-मिश्र जी के ललित निबन्धों में इस शैली का प्रयोग हुआ है। भावुकता से परिपूर्ण होकर आप पाठक को अपने साथ बहाए ले जाते हैं। उसमें यत्र-तत्र गद्य काव्य का सा आनन्द अनुभव होता है।
  2. विचारात्मक शैली-विचार प्रधान गूढ़ गम्भीर विषय का विवेचन इस शैली में किया गया है। इस शैली के वाक्य कुछ लम्बे हो गए हैं किन्तु उनमें स्पष्टता का गुण विद्यमान रहता है।
  3. समीक्षात्मक शैली-आलोचनात्मक रचनाओं में इस शैली के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा तत्सम प्रधान शुद्ध साहित्यिक हो गई है।
  4. विश्लेषणात्मक शैली-विषय का विश्लेषण करते समय इस शैली का प्रयोग किया गया है। इस शैली की भाषा सरल, सुबोध तथा स्पष्ट होती है।
  5. उद्धरण शैली-मिश्र जी अपनी बात को स्पष्ट करने तथा पुष्ट करने के लिए शास्त्र आदि से उद्धरण देना नहीं भूलते हैं। लोक जीवन के उदाहरण देकर आप कथन को सहज सम्प्रेष्य बना देते हैं।

इसके अतिरिक्त व्यंग्यात्मक, वर्णनात्मक, चित्रात्मक आदि शैलियों का प्रयोग मिश्र जी की रचनाओं में हुआ है।

  • साहित्य में स्थान

मिश्र जी के व्यक्तिपरक निबन्धों में ललित अनुभूति के साथ लोक जीवन के अनुभव मिलकर एक नवीन गरिमा का सृजन करते हैं। व्यक्ति व्यंजक निबन्धों के लेखक के रूप में मिश्र जी की छवि अद्वितीय है। निबन्धकार, समीक्षक, भाषाविद् एवं विचारक के रूप में मिश्र जी की हिन्दी जगत् में एक विशिष्ट पहचान रही है।

4. श्रीराम परिहार
[2008]

  • जीवन-परिचय

ललित निबन्धकार डॉ. श्रीराम परिहार का जन्म 16 जनवरी, 1952 को मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले के केकरिया ग्राम में हुआ। आपको अपने किसान पिता श्री देवाजी परिहार का भरपूर प्यार मिला। आपकी माता जी श्रीमती लखूदेवी से आपको लोक संस्कारों और लोकगीतों के सरस वातावरण का आनन्द प्राप्त हुआ। गाँव में प्रकृति के उन्मुक्त परिवेश में ही आपका बचपन पुष्ट हुआ। आपने स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वर्तमान में मध्य प्रदेश शासन की उच्च शिक्षा महाविद्यालयीन सेवा में कार्य कर रहे हैं। आप श्री नीलकण्ठेश्वर महाविद्यालय, खण्डवा में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक एवं अध्यक्ष पद सँभाले हुए हैं।

  • साहित्य-सेवा

गाँव के मनोरम प्राकृतिक परिवेश में माता के लोक गीतों तथा लोक-संस्कारों से प्रभावित श्रीराम परिहार की प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति गहरी रुचि रही है। लोक संस्कृति में रचे-बसे परिहार के लेखन पर भी इसका प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। आपकी सेवाओं को ध्यान में रखकर अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है। आप वागीश्वरी पुरस्कार, ईसुरी पुरस्कार, दुष्यन्त कुमार राष्ट्रीय अलंकरण जैसे सम्मानों से अलंकृत हो चुके हैं।

  • रचनाएँ

अब तक आपकी 11 रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा लगभग पचास शोध आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. ललित निबन्ध संग्रह-‘आँच अलाब की’, ‘अँधेरे में उम्मीद’, ‘धूप का अवसाद’, ‘बजे तो बंसी गूंजे तो शंख’, ‘ठिठके पल पाँखुरी पर’, ‘रसवन्ती बोलो तो’, ‘झरते फूल हरसिंगार के’, ‘हंसा कहो पुरातन बात’।
  2. समीक्षा-रचनात्मकता और उत्तर परम्परा।
  3. लोक साहित्य-कहे जनसिंगा।
  4. नवगीत संग्रह-चौकस रहना है।
  5. सम्पादन-‘अक्षत’ पत्रिका का सम्पादन।
  • वर्ण्य विषय

भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी आस्था रखने वाले श्रीराम परिहार के साहित्य में लोक जीवन एवं लोक-संस्कारों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मिलती है। आपने अतीत एवं वर्तमान के विविध संदर्भो को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। आप विषय से अन्तरंगता रखते हुए लिखते हैं। यही कारण है कि पाठक उसके साथ बँधा हुआ रहता है।

  • भाषा

श्रीराम परिहार की भाषा तत्सम प्रधान खड़ी बोली है जिसमें तद्भव, देशज एवं विदेशी शब्दों को भी यथास्थान लिया गया है। वाक्य रचना सहज एवं सरल है। लक्षणा एवं व्यंजना के पुट भी स्थान-स्थान पर देखे जा सकते हैं। भाषा में दुरूहता या उबाऊपन का नितान्त अभाव है। आपकी भाषा में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता विद्यमान है।

  • शैली

परिहार जी ने प्रमुखतः ललित शैली को अपनाया है। उनकी शैली के विविध रूप निम्न प्रकार हैं

  1. भावात्मक शैली-श्रीराम परिहार सांस्कृतिक भावानुभूतियों से परिपूर्ण रचनाकार हैं। लालित्य से युक्त आपके निबन्धों में ललित शैली का प्रयोग हुआ है। आपकी रचनाओं में भाव प्रधानं स्थलों पर भावात्मक शैली का सौन्दर्य देखा जा सकता है।
  2. आलंकारिक शैली-परिहार जी अपने निबन्धों में अवसर के अनुरूप अलंकारों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग करते हैं। आपकी आलंकारिक शैली में पाठक के हृदय का स्पर्श करने की भी शक्ति मौजूद है।
  3. चित्रात्मक शैली-श्रीराम परिहार शब्द-चित्र उकेरने में बड़े चतुर हैं। इस शैली के रचित अंश पाठक के मनपटल पर चित्र अंकित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त तरंग शैली, प्रवाह शैली, समीक्षात्मक आदि शैली रूप भी आपकी रचनाओं में उपलब्ध हैं।
  • साहित्य में स्थान

परिहार जी ने अपनी लेखनी की क्षमता से हिन्दी साहित्य को अनूठी रचनाएँ प्रदान की हैं। वर्तमान के ललित निबन्धकारों में आपका सम्मानजनक स्थान है। हिन्दी साहित्य को आपसे अनेक अपेक्षाएँ हैं।

5. जयशंकर प्रसाद
[2008, 09, 14]

  • जीवन-परिचय

युग-प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी के प्रसिद्ध सुघनी साहू नामक वैश्य परिवार में 30 जनवरी, सन् 1889 ई. को हुआ था। उनके पिता का नाम देवीप्रसाद था। प्रसाद जी की बाल्यावस्था में ही उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। सत्रह वर्ष की अवस्था में बड़े भाई की भी मृत्यु हो गयी। इस कारण सारे परिवार का बोझ इन पर ही आ पड़ा। पिता की मृत्यु के बाद गृह-कलह आरम्भ हुआ तथा पैत्रिक व्यवसाय को इतनी अधिक हानि पहुँची कि वैभव सम्पन्न सुघनी साहू परिवार ऋण के भार से दब गया।

प्रसाद जी की प्रतिभा इन सभी संकटों के बीच भी अपना आलोक फैलाने लगी। प्रसाद जी ने साहस, आत्मविश्वास, योग्यता तथा लगन के साथ अपने गिरे हुए व्यवसाय को सँभाला। अपने परिवार को प्रतिष्ठा प्रदान की तथा लाखों रुपये के ऋण से भार-मुक्त हुए। प्रसाद जी ने अपने घर पर ही वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन, संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी, फारसी का गहन अध्ययन किया। इन्होंने तीन शादियाँ की, किन्तु तीनों ही पत्नियों की असमय मृत्यु हो गयी। 15 नवम्बर, सन् 1937 में 48 वर्ष की अल्प आयु में ही यह सरस्वती-पुत्र इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गया।

  • साहित्य-सेवा

प्रसाद जी को बाल्यकाल से ही कविता से प्रेम था। उनके साहित्यिक जीवन में साधु का सा मौन विद्यमान था। प्रारम्भ में वे ‘कलाधर’ नाम से ब्रजभाषा में कविताएँ करते थे। बाद में उन्होंने खड़ी बोली में रचनाएँ की। प्रसाद जी ने सन् 1906 में हिन्दी साहित्य के सृजन का कार्य प्रारम्भ किया। उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। प्रसाद जी ‘इन्दु’ नामक मासिक-पत्र में निरन्तर रचनाएँ प्रकाशित कराते रहे। प्रसाद जी ने नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, मुक्तक काव्य एवं प्रबन्ध काव्य सभी रूपों में हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि की। आपने गम्भीर निबन्ध लिखकर अपने गहन अध्ययन, पाण्डित्य और सूक्ष्म विवेचन-शक्ति का परिचय दिया।

  • रचनाएँ

प्रसाद जी ने अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में विविध विषयों पर ग्रन्थ लिखे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. निबन्ध-‘काव्यकला और अन्य निबन्ध।’ इन निबन्धों में प्रसाद जी का साहित्य सम्बन्धी दृष्टिकोण और गम्भीर चिन्तक रूप प्रकट हुआ है।
  2. कहानी-संग्रह-प्रसाद जी की कहानियाँ-प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी तथा इन्द्रजाल कहानी संग्रहों में संकलित हैं। आपकी पुरस्कार, आकाशदीप, ममता आदि अनेक प्रसिद्ध कहानियाँ हैं।
  3. नाटक-प्रसाद जी ने स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, राज्यश्री, जनमेजय का नागयज्ञ आदि ऐतिहासिक नाटकों की रचना की है।
  4. उपन्यास-कंकाल, तितली तथा इरावती (अधूरा) प्रसिद्ध उपन्यास हैं।
  5. काव्य-कामायनी महाकाव्य प्रसाद जी की सर्वश्रेष्ठ रचना है। लहर, आँसू, झरना आदि आपकी अन्य काव्य कृतियाँ हैं।
  • वर्य विषय

प्रसाद जी की प्रतिभा बहुआयामी थी। उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास, मानवीय मूल्य, ग्रामांचल आदि को अपनी लेखनी का विषय बनाया। उनकी नूतन व्यवस्थाएँ तथा अद्भुत विवेचनाएँ गहन विचारशीलता को उजागर करती हैं। आपने इतिहास तथा दर्शन का मधुर समन्वय किया है। मानव मनोवृत्तियों का सफल चित्रण उनके साहित्य की विशेषता है। भावों तथा कल्पना के योग से उन्होंने मोहक शब्द चित्र उकेरे हैं। नारी के प्रति सहानुभूति का भाव, राष्ट्रीयता, दार्शनिकता, प्रेम और सौन्दर्य आपके काव्य के प्रमुख तत्त्व हैं।

  • भाषा

सामान्यतःप्रसाद जी की भाषा शुद्ध एवं संस्कृतनिष्ठ है। उनकी भाषा में तत्सम शब्दावली का बाहुल्य है। संस्कृत शब्द होने के कारण कहीं-कहीं भाषा में क्लिष्टता आ गयी है, किन्तु स्वाभाविकता तथा प्रवाह भाषा में सदैव बना रहता है। एक-एक शब्द मोती की भाँति जड़ा हुआ है। खड़ी बोली में लालित्य और मधुरता लाने का श्रेय प्रसाद जी को ही है। भाषा भावों के अनुकूल है। ‘मुहावरों’ और ‘कहावतों’ को आवश्यकतानुसार साहित्यिक रूप देकर अपनाया गया है। प्रसाद जी की भाषा प्रांजल, प्रौढ़ और परिमार्जित है। विचारों की प्रौढ़ता, भाषा का प्रवाह, सुन्दर शब्द चयन, काव्योचित लालित्य, अर्थ गाम्भीर्य आदि उनकी भाषा की प्रमुख विशेषताएँ हैं। आपकी भाषा प्रसाद गुण युक्त है।

  • शैली

प्रसाद जी ने निबन्ध, कहानी आदि में विविध शैलियाँ अपनायी हैं-

  1. भावात्मक शैली-प्रसाद जी एक भावुक कवि थे। इसलिए गद्य में भी जहाँ कहीं भावपूर्ण स्थल आये हैं, वहाँ उनकी शैली भावात्मक है।
  2. चित्रात्मक शैली-प्रसाद जी ने जहाँ वस्तुओं, स्थानों और व्यक्तियों के शब्द चित्र उपस्थित किये हैं, वहाँ उनकी शैली चित्रात्मक हो गयी है।
  3. आलंकारिक शैली-कवि हृदय प्रसाद जी गद्य में भी अलंकारों का सहज प्रयोग किये बिना नहीं रहे हैं। अतः जहाँ अलंकार आये हैं, वहाँ उनकी शैली आलंकारिक हो गयी है। उनकी अलंकारपूर्ण शैली ने काव्यात्मक सौन्दर्य और सरसता की सृष्टि की है।
  4. संवाद शैली-प्रसाद जी ने उपन्यास, कहानी और नाटकों में संवाद शैली का प्रयोग किया है। नाटकों में ‘प्रसाद’ के संवाद अति प्रवाहपूर्ण हैं। उनके संवाद पात्रानुकूल एवं सरस हैं।
  5. वर्णनात्मक शैली-प्रसाद जी ने उपन्यास, कहानी आदि में जहाँ घटनाओं, वस्तुओं और व्यक्तियों का वर्णन किया है, वहाँ उनकी शैली वर्णनात्मक है। इस शैली में वाक्य छोटे हैं और भाषा सरल है।
  • साहित्य में स्थान

प्रसाद जी एक ऐसे पारस थे, जिसके स्पर्श से हिन्दी की अनेक विधाएँ कंचन बन गयीं। वे हिन्दी के मूर्धन्य कवि, नाटककार, उपन्यासकार, अद्वितीय कहानीकार एवं श्रेष्ठ निबन्धकार थे। प्रसाद जैसे महान् कलाकार को पाकर हिन्दी गौरवान्वित हो गयी और हिन्दी साहित्य प्रसाद के प्रसाद को पाकर धन्य हो उठा।

6. मालती जोशी
[2011, 15]

  • जीवन-परिचय

मालती जोशी का जन्म 4 जून, 1934 ई. को महाराष्ट्र के औरंगाबाद नगर के मध्यमवर्गीय मराठी परिवार में हुआ। आपने प्रारम्भिक तथा माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्नातक किया और एम. ए. (हिन्दी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्य सृजन का स्तुत्य कार्य किया। आपकी प्रारम्भ से ही साहित्यिक अभिरुचि रही। किशोरावस्था से ही कवि सम्मेलनों में आप बहुत चर्चित कवयित्री रहीं। कवयित्री, बाल साहित्यकार, कहानीकार आदि रूपों में आपने ख्याति प्राप्त की। आपकी रचनाएँ मराठी, कन्नड़, गुजराती तथा अंग्रेजी में अनूदित हुई हैं। आपको साहित्यकार के रूप में अनेक पुरस्कार, सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। रेडियो तथा दूरदर्शन पर आपकी कहानियों के नाट्य रूपान्तर प्रसारित होते रहे हैं। आप आज भी साहित्य सजन में संलग्न हैं।

  • साहित्य-सेवा

साहित्यिक रुचि सम्पन्न मालती जोशी ने प्रारम्भ में कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ के माध्यम से लोकप्रियता अर्जित की। तत्पश्चात् आपने बाल साहित्य, कहानी लेखन में पदार्पण किया। सन् 1969 में आपने बच्चों के लिए लिखना प्रारम्भ किया और खूब ख्याति प्राप्त की। आपकी प्रथम रचना सन् 1971 में ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई। तब से अब तक यह क्रम निरन्तर चलता आ रहा है।

  • रचनाएँ

मालती जोशी का लेखन बहुआयामी है। आपने मराठी तथा हिन्दी दोनों में साहित्य सर्जना की है। कवि, बाल साहित्य तथा कहानीकार के रूप में आपकी एक विशिष्ट पहचान है। श्रीमती जोशी की अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आपकी हिन्दी तथा मराठी साहित्य की 32 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो मराठी कला संग्रह, दो उपन्यास, पाँच बाल कथा संग्रह, एक गीत संग्रह तथा शेष कहानी संग्रह हैं। श्रीमती जोशी के प्रमुख कहानी संग्रह-‘पाषाण युग’,’तेरा घर मेरा घर’, ‘पिया पीर न जानी’, ‘मोरी रंग दीनी चुनरिया’, ‘बाबुल का घर’ एवं ‘महकते रिश्ते’ हैं।

  • वर्ण्य विषय

भारतीयता में रची बसी मालती जोशी की कहानियों का संसार भी भारतीय परिवारों का जीवंत परिवेश रहा है। आपने जन-जीवन के विविध पक्षों को अपनी कहानियों में उभारा है। घर-परिवार के पारस्परिक सम्बन्ध, व्यवहार, स्वरूप आदि को आधार बनाकर सुश्री जोशी ने आनी बात कहने का सटीक प्रयास किया है। आधुनिक युग के बदलते परिवेश के कारण उभरने वाली परेशानियों को आपने सशक्त अभिव्यक्ति दी है। आपने मध्यमवर्गीय परिवारों की मानवीय संवेदनाओं और नारी मन के सूक्ष्म-स्पन्दनों को स्वाभाविकता के साथ प्रस्तुत किया है।

  • भाषा

श्रीमती मालती जोशी की भाषा आडम्बरों से मुक्त सहजता एवं संवेदनशीलता से परिपूर्ण है। आपकी भाषा में मुख्यतः तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु आवश्यकता के अनुसार तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों को भी स्थान मिला है। यत्र-तत्र लक्षणा और व्यंजना का पुट पाठक के मानस का स्पर्श करता है। मुहावरे, अलंकार आदि का प्रयोग भाषा को अधिक सम्प्रेषणीय बनाने में सहयोगी रहा है। वाक्य रचना सरल एवं सुस्पष्ट है।

  • शैली

मालती जोशी की कहानियों में विभिन्न शैली रूपों का प्रयोग हुआ है

  1. संवाद शैली-पात्रों के पारस्परिक कथोपकथनों के माध्यम से जब कहानी का विकास होता है तब संवाद शैली होती है। इस शैली के प्रयोग से आपकी कहानियों में सजीवता, स्वाभाविकता तथा प्रभावशीलता आ गई है।
  2. वर्णनात्मक शैली-जहाँ-जहाँ वर्णनों का सहारा लिया गया है, वहाँ वर्णनात्मक शैली है। श्रीमती जोशी की कहानियों में इस शैली का पर्याप्त प्रयोग हुआ है।
  3. विश्लेषणात्मक शैली-सुश्री जोशी की कहानियों में स्थान-स्थान पर विश्लेषण का सहारा लिया गया वहाँ यह शैली परिलक्षित होती है।

इसके अतिरिक्त आपने आत्मकथात्मक, भावात्मक, विवेचनात्मक, चित्रात्मक, आलंकारिक शैली रूपों का प्रयोग अपनी कहानियों में आवश्यकतानुसार किया है।

  • साहित्य में स्थान

अनुभूति और अभिव्यक्ति के विशिष्ट कौशल के कारण मालती जोशी की पहचान हिन्दी कहानीकारों में अलग ही है। आधुनिक युग के संवेदनशील कहानीकारों में उन्हें बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। वर्तमान कथाकारों में उनका विशिष्ट स्थान है।

7. विष्णु प्रभाकर

  • जीवन-परिचय

एकांकी कला के क्षेत्र में नवीनता का संचार करने वाले विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, सन् 1912 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के अन्तर्गत मीरनपुर नामक ग्राम में हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा मुजफ्फरनगर में ही सम्पन्न हुई। आपने बी. ए. की परीक्षा पंजाब विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की। हिन्दी की प्रभाकर परीक्षा उत्तर्ण करने पर आपके नाम के साथ ‘प्रभाकर’ स्थायी रूप से जुड़ गया। आपने आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र पर ड्रामा प्रोड्यूसर के रूप में कार्य किया है। आज भी आप साहित्य सृजन में संलग्न हैं।

  • साहित्य-सेवा

विष्णु प्रभाकर वर्षों तक आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र पर ड्रामा प्रोड्यूसर रहे। इसलिए आपकी नाट्य कला में विकास एवं परिष्कार होता गया। आपने पर्याप्त मात्रा में रेडियो रूपक लिखे। आपने बाल भारती’ पत्रिका का सफल सम्पादन किया।

  • रचनाएँ

बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न प्रभाकर जी ने नाट्य साहित्य के अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रावृत, निबन्ध, बाल-साहित्य आदि का विपुल साहित्य सृजित किया है। ‘इन्सान संघर्ष के बाद’, ‘प्रकाश और परछाई’, ‘गीत और गोली’, ‘स्वाधीनता संग्राम’, ‘ऊँचा पर्वत गहरा सागर’, ‘मेरे श्रेष्ठ रंग एकांकी’ आदि आपके उल्लेखनीय एकांकी संग्रह हैं।

  • वर्ण्य विषय

विषय वस्तु की दृष्टि से आपके एकांकी इस प्रकार विभक्त किए जा सकते हैं

  1. सामाजिक-‘बन्धन मुक्त पाप’, ‘इन्सान’, ‘साहस’, ‘वीर पूजा’, ‘नया समाज’, ‘नये पुराने’, ‘प्रतिशोध’, ‘देवताओं की घाटी’ आदि।
  2. मनोवैज्ञानिक-‘ममता का विष’, भावना और संस्कार’,’जज का फैसला’, हत्या के बाद’ आदि।
  3. राजनीतिक-‘हमारा स्वाधीनता संग्राम’, ‘क्रान्ति’, ‘काँग्रेसमैन बनो’ आदि।
  4. पौराणिक-‘जन्माष्टमी’, ‘नहुष का पतन’, ‘शिवरात्रि’, ‘गंगा की गाथा’,’कंस मर्दन’, ‘सम्भवामि युगे-युगे’ आदि।
  5. हास्य व्यंग्य प्रधान-‘मूर्ख’, ‘पुस्तक कीट’, कार्यक्रम’, ‘प्रो. लाल’ आदि।

इसके अतिरिक्त ‘नया कश्मीर’, ‘पंचायत’ आदि विविध विषयक एकांकी आपने लिखे हैं।

  • भाषा

प्रभाकर जी की भाषा सरल, सुबोध साहित्यिक खड़ी बोली है। तत्सम प्रधान भाषा में तद्भव, विदेशी तथा देशज शब्दों का प्रयोग भी आवश्यकतानुसार किया गया है। वाक्य संरचना सुस्पष्ट एवं सुगठित है। भाषा विषय एवं पात्रों के अनुरूप बदलती चलती है। आपकी भाषा में सम्प्रेषण की अपूर्व क्षमता है।

  • शैली

विष्णु प्रभाकर की शैली के अन्यान्य रूप देखे जा सकते हैं

  1. संवाद शैली-आपने संवाद शैली का बड़ा प्रभावी प्रयोग अपने एकांकियों में किया है। संवाद संक्षिप्त तथा चुटीले होते हैं। पात्र एवं विषय के अनुरूप उनके रूप बदलते रहते हैं।
  2. व्यंग्यात्मक शैली-प्रभाकर जी के एकांकियों में व्यंग्य के बड़े ही सटीक पुट देखे जा सकते हैं। उनके व्यंग्य पाठकों के हृदय पर स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं।
  3. भावात्मक शैली-इस शैली का प्रयोग भाव प्रबल स्थलों पर देखा जा सकता है। अतिशय भावुकता से परिपूर्ण इस शैली में सम्प्रेषणीयता निरन्तर बनी रहती है।

इसके अतिरिक्त आपकी शैली पर रेडियो रूपक शैली का पर्याप्त प्रभाव देखा जा सकता है।

  • साहित्य में स्थान

राष्ट्रीय चेतना और समाज-सुधार को अपने नाट्य साहित्य का विषय बनाने वाले विष्णु प्रभाकर ने ब्रिटिश शासन के कोप के कारण नौकरी छोड़कर लेखन को ही जीविका का साधन बनाया। बहुविध रचनाकार प्रभाकर जी का वर्तमान हिन्दी रचनाकारों में सम्मानजनक स्थान है।

8. जगदीश चन्द्र माथुर। [2010, 16]

  • जीवन-परिचय

जगदीश चन्द्र माथुर का जन्म 16 जुलाई, 1917 को उत्तर प्रदेश के खुर्जा नगर में हुआ। शिक्षक पिता से प्राप्त संस्कारों ने आपको लेखन की प्रेरणा दी। आपने हाईस्कूल स्तर के अध्ययन काल से ही नाटक लिखना, अभिनय करना, मंच व्यवस्था आदि में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया था। आपने प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आप आई. ए. एस. की परीक्षा में बैठे और सफल हुए। आई. ए. एस. अधिकारी के रूप में आपने अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। आपने बिहार राज्य के शिक्षा सचिव, तिरहुत डिवीजन के कमिश्नर, आकाशवाणी के महानिदेशक, सूचना और प्रसारण मंत्रालय के संयुक्त सचिव, कृषि मंत्रालय के संयुक्त सचिव आदि राजकीय पदों पर कार्य किया। वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर कार्य करते हुए भी ये साहित्य-सर्जन में संलग्न रहे। 14 मई, 1978 को आप इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गये।

  • साहित्य-सेवा

प्रारम्भ से ही अभिनय के प्रति आकर्षण होने के कारण आपका नाटकों के प्रति विशेष जुड़ाव रहा। विद्यार्थी जीवन से ही आपका लेखन प्रारम्भ हो गया था। प्रयाग विश्वविद्यालय में आपके प्रयास से ही रंगमंच पर अभिनीत होने वाले हिन्दी नाटकों की प्रस्तुतियों को गति प्राप्त हुई। आपका प्रथम एकांकी ‘मेरी बाँसुरी’ विश्वविद्यालय के ‘म्योर होस्टल’ के मंच पर अभिनीत हुआ। आकाशवाणी के महानिदेशक तथा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के अध्यक्ष पदों पर रहते हुए आपने साहित्य सृजन के साथ-साथ नाट्य विधाओं के विकास का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। आप केन्द्रीय गृह मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार रहे।

  • रचनाएँ

जगदीश चन्द्र माथुर का प्रथम एकांकी ‘मेरी बाँसुरी’ सन् 1936 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। सन् 1937 से 1943 तक लिखे गये एकांकी ‘भोर का तारा’ संग्रह में प्रकाशित हुए। इसमें पाँच एकांकी संकलित हैं। फिर तो लेखन और प्रकाशन क्रम चलता रहा। आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं एकांकी संग्रह-‘भोर का तारा’ एवं ‘ओ मेरे सपने’।

अन्य प्रमुख एकांकी-‘कोणार्क’,
‘शारदीया’, ‘बन्दी’ आदि।
चरित्र निबन्ध-‘दस तस्वीरें।
इसके अतिरिक्त ‘बोलते क्षण’
आदि रचनाएँ भी हिन्दी जगत् में चर्चित रही हैं।

  • वर्ण्य विषय

भावभूमि की दृष्टि से आपके एकांकी ऐतिहासिक और सामाजिक हैं। आपने इतिहास के पृष्ठों से चयनित गौरवपूर्ण चरित्रों और मानवीय संवेदनाओं को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। सामाजिक एकांकियों में आपने आधुनिक सभ्य समाज की मानवीय दुर्बलताओं और नैतिक खोखलेपन का सफल चित्रण किया है। रूढ़ियों और पुरातनता पर आपने करारे प्रहार किए हैं। समाज की विसंगतियों को उजागर करते हुए आपने मानव समाज को सोचने के लिए विवश कर सराहनीय कार्य किया है।

  • भाषा

जगदीश चन्द्र माथुर ने सरल, सुबोध खड़ी बोली में साहित्य रचना की है। विषय, पात्र तथा अवसर के अनुरूप शब्दावली एवं मुहावरों आदि का प्रयोग करने में आप कुशल हैं। पात्रों के संवादों में चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करने की पूर्ण क्षमता है। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित रचनाओं की भाषा तत्सम प्रधान है तथा सामाजिक एकांकियों में व्यावहारिक खड़ी बोली को अपनाया है। आपकी भाषा में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है।

  • शैली

माथुर जी की शैली के प्रमुख रूप इस प्रकार हैं

  1. संवाद शैली-माथुर जी ने अपनी नाट्य कृतियों में इस शैली का प्रयोग किया है। संवाद विषय के अनुसार दीर्घ एवं लघु आकार के लिखे गये हैं। पात्र के अनुरूप कथन आपके एकांकियों की विशेषता है।
  2. व्यंग्य शैली-आपने अपने एकांकियों में व्यंग्य शैली के बड़े प्रभावी प्रयोग किए हैं। इस शैली की विशेषता यह है कि पाठक व्यंग्य को भूल नहीं पाता है।
  3. यथार्थवादी शैली-माथुर जी ने अपने एकांकियों में यथार्थवादी शैली में अनेक समस्याओं का सजीव चित्रण किया है। वे इन समस्याओं के व्यावहारिक समाधान भी प्रस्तुत करते हैं।
  • साहित्य में स्थान

जगदीश चन्द्र माथुर को रंगमंच का बड़ा व्यापक ज्ञान था, यही कारण था कि आपके सभी एकांकी अभिनेय हैं। मात्रा की दृष्टि से भले ही विपुल साहित्य का सृजन आपने न किया हो किन्तु गुणवत्ता के आधार पर हिन्दी नाट्य साहित्य में आपका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

9. हरिशंकर परसाई
[2008, 09, 12, 13, 15, 17]

  • जीवन-परिचय

हिन्दी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म का मध्य प्रदेश में इटारसी के निकट जमानी नामक ग्राम में 22 अगस्त, 1924 को हुआ था। आपने स्नातक स्तर तक की शिक्षा इटारसी में ही प्राप्त की तत्पश्चात् नागपुर विश्वविद्यालय से एम. ए. हिन्दी की परीक्षा उत्तीर्ण की। कुछ वर्षों तक आपने अध्यापन कार्य किया। परसाई जी की बाल्यावस्था से ही लेखन में अभिरुचि थी। अध्यापन से उनके लेखन में बाधा उत्पन्न होती थी, अतः अध्यापक पद से त्यागपत्र देकर साहित्य साधना को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। जीवन पर्यन्त साहित्य सेवा करने वाले परसाई जी का 10 अगस्त, 1995 को देहावसान हो गया।

  • साहित्य-सेवा

समाज तथा व्यक्ति की विभिन्न विसंगतियों पर व्यंग्य प्रहार करने वाले हरिशंकर परसाई ने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक पत्रिका का सम्पादन एवं प्रकाशन किया, किन्तु अर्थाभाव के कारण वह पत्रिका बन्द कर देनी पड़ी। फिर आप साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ आदि पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित रूप से लिखने में व्यस्त रहे। आपके व्यंग्य, निबन्ध आदि निरन्तर प्रकाशित होते रहते थे।

  • रचनाएँ

हरिशंकर परसाई की रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. व्यंग्य संग्रह-तब की बात और थी’, ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, ‘पगडण्डियों का जमाना’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘शिकायत मुझे भी है’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘सुनौ भाई साधौ’ और ‘अन्त में’।
  2. कहानी संग्रह-‘हँसते हैं रोते हैं’, ‘जैसे उनके दिन फिरे’।
  3. उपन्यास-‘रानी नागमती की कहानी’, ‘तट की खोज’।
  • वर्ण्य विषय

हरिशंकर परसाई मूलत: व्यंग्य लेखक थे। समाज तथा जीवन की विसंगतियों. विडम्बनाओं आदि का सूक्ष्म निरीक्षण कर आपने प्रभावी व्यंग्य लिखे हैं। आपका मन्तव्य उपहास या खिल्ली उड़ाना नहीं है अपितु व्यंग्य द्वारा रचनात्मक सुधार के सूत्र सुझाने का रहा है। समाज राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि की अव्यवस्था, कुटिलता, विद्रूपता आदि पर आपने करारे प्रहार किए हैं। भ्रष्टाचार, नैतिकता, रिश्वतखोरी, कुत्सित मनोवृत्तियों को उजागर करने की अद्भुत कला के धनी परसाई जी की जीवन दृष्टि सर्जनात्मक रही है।

  • भाषा

परसाई जी की भाषा सरल, सुबोध होते हुए भी तीखे प्रहार करने में सक्षम है। आपकी भाषा में फक्कड़पन और जिन्दादिली का पुट सर्वत्र दिखाई देता है। विषय के अनुरूप नपे-तुले शब्दों में अभिव्यक्त आपके व्यंग्य पाठक पर स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। आपने तत्सम, तद्भव, विदेशी तथा देशज सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है। आप लक्षणा एवं व्यंजना के सहारे मूल भाव को सम्प्रेषित करने की कला में पारंगत हैं।

  • शैली

हरिशंकर परसाई की रचनाओं में विषयानुरूप शैली के विविध रूपों का प्रयोग हुआ है।

  1. व्यंग्यात्मक शैली-परसाई जी की व्यंग्य रचनाओं में इस शैली की प्रधानता है। जीवन की विविध प्रकार की विसंगतियों पर करारे प्रहार करने में यह शैली सफल रही है। सामाजिक पाखण्डों, रूढ़ियों, कुरीतियों, राजनीतिक छल-प्रपंचों आदि पर आपके द्वारा प्रभावी व्यंग्य लिखे गये हैं।
  2. वर्णनात्मक शैली-किसी वस्तु, व्यक्ति या घटना को प्रस्तुत करने के लिए परसाई जी ने इस शैली का प्रयोग किया है। इसकी मिश्रित शब्दावली युक्त भाषा में वाक्य प्रायः छोटे ही . प्रयोग किये गये हैं।
  3. उद्धरण शैली-हरिशंकर परसाई अपने कथन की पुष्टि के लिए उद्धरण शैली का सहारा लेते हैं। गद्य तथा पद्य दोनों प्रकार के उद्धरणों का प्रयोग उन्होंने किया है। इस शैली से प्रभावशीलता की वृद्धि होती है।
  4. सूत्र शैली-हरिशंकर परसाई ने सूत्रात्मक कथनों के द्वारा कथ्य को रोचक बनाया है। आवश्यकतानुसार ये उक्तियाँ तीखी अथवा उपदेशात्मक प्रकार की होती हैं।
  • साहित्य में स्थान

सूक्ष्म निरीक्षण-दृष्टि तथा सशक्त अभिव्यक्ति के धनी हरिशंकर परसाई ने हिन्दी व्यंग्य साहित्य को सम्पन्न करने का प्रशंसनीय कार्य किया है। आपने सटीक व्यंग्यों के द्वारा समाज, राष्ट्रीयता, मानवता के उत्थान का महान कार्य किया है। व्यंग्य को अद्भुत अन्दाज में प्रस्तुत करने वाले हरिशंकर परसाई जी हिन्दी जगत् में चिर स्मरणीय रहेंगे।

10. महादेवी वर्मा
[2008, 09]

  • जीवन-परिचय

आधुनिक युग की मीरा महादेवी जी का जन्म 26 मार्च, सन् 1907 को फर्रुखाबाद में एक सम्भ्रान्त कायस्थ परिवार में हुआ था। आपके पिता गोविन्द प्रसाद, भागलपुर विद्यालय में प्रधानाचार्य थे। इनकी माता हेमरानी देवी विदुषी और भक्त महिला थीं। वे मीरा, कबीर आदि के पद गाती थीं और कविता भी करती थीं। आपको अपनी माँ से कविता, साहित्य तथा भक्ति की प्रेरणा प्राप्त हुई।

महादेवी जी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में हुई। इन्होंने घर पर संगीत और चित्रकला की शिक्षा प्राप्त की। इनका विवाह ग्यारह वर्ष की अवस्था में डॉ. स्वरूपनारायण वर्मा के साथ हुआ। श्वसुर के विरोध से शिक्षा में विघ्न पड़ गया। उनके देहावसान के बाद पुन: शिक्षा प्रारम्भ करके संस्कृत विषय में एम. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, अनेक वर्षों तक प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या रहीं, जहाँ से सन् 1965 ई. में अवकाश ग्रहण किया। हिन्दी साहित्य की ये महादेवी 11 सितम्बर, 1987 ई. को स्वर्ग सिधार गयीं।

  • साहित्य सेवा

कल्पना लोक में विचरण करने वाली महादेवी वर्मा जीवन के यथार्थ के उतने ही निकट थीं, जितना कि एक महामानव होता है। महादेवी जी की बचपन से ही काव्य के प्रति रुचि रही। उस समय की प्रसिद्ध नारी पत्रिका ‘चाँद’ में उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ छपी। बाद में उन्होंने ‘चाँद’ का सम्पादन भी किया। भावपूर्ण कविताओं ने आपको छायावाद की प्रमुख कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

महादेवी के गद्य में पर दुःख, कातरता, आत्मीयता, समाज में अन्याय के प्रति दुःख और चिन्ता के दर्शन होते हैं। महादेवी जी ने सहस्रों वर्षों से उपेक्षित नारी के शिवरूप को उभारा है और नारी को अपना वास्तविक रूप पहचानने के लिए प्रेरित किया है। साहित्यिक उपलब्धियों के कारण आप उत्तर प्रदेश विधान परिषद् की सदस्या भी मनोनीत की गयीं। भारत के राष्ट्रपति ने आपको पद्मश्री’ की उपाधि से सम्मानित किया। आपको ‘सेक्सरिया’ तथा ‘मंगलाप्रसाद पुरस्कार’ भी प्राप्त हुए हैं। कुमायूँ विश्वविद्यालय ने 1975 ई. में अपने प्रथम दीक्षान्त समारोह में आपको डी. लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित किया। आपने प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ नामक संस्था तथा देहरादून में ‘उत्तरायण’ नामक साहित्यिक आश्रम स्थापित किया।

  • रचनाएँ

आपने गद्य-पद्य दोनों में ही सफलतापूर्वक रचनाएँ की हैं। महादेवी जी की प्रमुख गद्य रचनाएँ हैं

  1. निबन्ध संग्रह-‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, ‘क्षणदा’, ‘साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध’।
  2. आलोचना-‘हिन्दी का विवेचनात्मक गद्य।’
  3. संस्मरण और रेखाचित्र-अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी और मेरा परिवार।
  4. सम्पादन-‘चाँद’ मासिक पत्रिका और ‘आधुनिक कवि’ नामक काव्य-संग्रह का आपने कुशलता एवं विद्वतापूर्वक सम्पादन किया।
  • वर्ण्य विषय

वेदना की अमर गायिका महादेवी जी के गद्य में विचार एवं भाव ने व्यापक रूप धारण कर लिया। उनके निबन्धों में विचार प्रधानता दिखाई देती है तो समीक्षा में गहन अनुभूतिपरक चिन्तन उभरकर आया है। उनके रेखाचित्र और संस्मरणों में आत्मीयता, सहजता तथा सरलता की अजस्त्रधारा प्रवाहित है। आपके साहित्य में पशु-पक्षियों, सेवकों के सम्बन्ध में लिखे गए संस्मरण हिन्दी की बहुमूल्य धरोहर हैं। नारी के प्रति आपके हृदय में अपार सहानुभूति रही है।

  • भाषा

महादेवी जी की गद्य-भाषा संस्कृत गर्भित, शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है। आपकी भाषा संस्कृतनिष्ठ होते हुए भी सरस, माधुर्ययुक्त और प्रवाहपूर्ण है। भाव, भाषा और संगीत की त्रिवेणी के संगम पर उनके गद्य का निर्माण हुआ है। उनका शब्द चयन उत्कृष्ट, भावानुकूल है। भाषा में तल्लीनता और तन्मयता के दर्शन होते हैं।

महादेवी जी की चित्रोपम भाषा में उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, विरोधाभास जैसे अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। आपकी भाषा में मुहावरों और कहावतों का सटीक प्रयोग मिलता है। भावुकता, विदग्धता, मधुरता तथा लालित्य आपकी भाषा के विशेष गुण हैं। एक-एक शब्द बोलता-सा प्रतीत होता है।

  • शैली

महादेवी जी की गद्य-शैली के प्रमुख रूप निम्नांकित हैं-

  1. भावात्मक शैली-महादेवी जी की यह शैली उनके रेखाचित्र में मिलती है। महादेवी जी का कवि हृदय अपनी सम्पूर्ण भाव चेतना के साथ गद्य पर छाया रहता है। आलंकारिक सौन्दर्य, सरलता, भावों की सुकुमारता ने इस शैली को आकर्षक बना दिया है। इनमें महादेवी जी का कोमल हृदय झाँकता दिखायी देता है।
  2. वर्णनात्मक शैली-वर्णनात्मक शैली का प्रयोग वर्णन-प्रधान निबन्धों में हुआ है। वर्णनात्मक शैली सरल और व्यावहारिक है। भाषा सरल होते हुए भी शुद्ध, परिमार्जित और परिष्कृत है। वाक्य छोटे होते हैं, वर्णन में सजीवता और प्रवाह है।।
  3. चित्रात्मक शैली-आपने चित्रात्मक शैली का सफल प्रयोग किया है। पाठक के सामने शब्दों के द्वारा व्यक्ति या वस्तु का चित्र सा उपस्थित हो जाता है। इस शैली की भाषा चित्रात्मक एवं लाक्षणिक है।
  4. विवेचनात्मक शैली-महादेवी जी ने आलोचनात्मक निबन्धों में इस शैली को अपनाया है। इस शैली की भाषा दुरूह और संस्कृतनिष्ठ है, परन्तु उसमें सुबोधता और स्पष्टता सर्वत्र विद्यमान है।
  5. व्यंग्यात्मक शैली-महादेवी जी कभी-कभी शिष्ट-हास्य और तीखे व्यंग्य भी कर देती हैं। जहाँ वे तीखे व्यंग्य करती हैं, वहाँ उनकी शैली व्यंग्यात्मक हो गयी है। आपके व्यंग्यों में सुधार की भावना, करुण और शिष्ट-हास्य का समन्वय है। महादेवी जी की शैली में कल्पना, सजीवता, भाषा-चमत्कार इत्यादि एक साथ देखे जा सकते हैं।

इसके अतिरिक्त उनकी गद्य-रचनाओं में कहीं-कहीं सूक्ति शैली, उद्धरण शैली और आत्माभिव्यंजक शैली के भी दर्शन होते हैं।

  • साहित्य में स्थान

आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा का हिन्दी साहित्य मे महत्त्वपूर्ण स्थान है। आपकी रचनाओं में नारी हृदय की शाश्वत वेदना का बड़ा ही मार्मिक चित्रण मिलता है। महादेवी वर्मा ने गद्य में दरिद्र जीवन का सुन्दर चित्रण किया है। इसमें आपकी उन विद्रोही भावनाओं के दर्शन होते हैं, जो समाज के प्रति हृदय में उठती रहती हैं। हिन्दी को उनकी अभूतपूर्व देन सजीव रेखाचित्र हैं। उनकी बहुमुखी साधना कवयित्री, रेखाचित्रकार, निबन्ध लेखिका और आलोचक के रूप में सर्वविदित है।

11. महात्मा गाँधी

  • जीवन-परिचय

सत्य व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबन्दर नगर, काठियावाड़ में हुआ था। आपके पिता का नाम करमचन्द तथा माता का नाम पुतलीबाई था। आपका बचपन का नाम मोहनदास था। आपका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। आपके पिता राजकोट के दीवान थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में पूरी हुई। 13 वर्ष की अवस्था में आपका विवाह कस्तूरबा से हुआ। उच्च शिक्षा के लिए आप इंग्लैण्ड गए और बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। भारत आकर आपने वकालत शुरू की। एक मुकदमे के सिलसिले में आपको अफ्रीका जाना पड़ा। वहाँ भारतीयों तथा अपने साथ गोरों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार का अहिंसा द्वारा आपने विरोध किया। दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्ष रहकर आप 1915 में भारत लौटे। गोपाल कृष्ण गोखले के सम्पर्क में आकर आपने राजनीति में प्रवेश किया। आपने असहयोग व सत्याग्रह के द्वारा ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ने पर मजबूर किया। आपने भारतीयों को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर जोर दिया। आप निम्न वर्ग व नारी उत्थान तथा साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रबल पक्षधर थे। शिक्षा व घरेलू धन्धों को आप भारतीयों के लिए अनिवार्य मानते थे। आपने मई 1915 में साबरमती आश्रम की स्थापना की। 15 अगस्त, 1947 को आपके नेतृत्व में लड़ी गई स्वतन्त्रता की लम्बी लड़ाई के बाद भारत आजाद हुआ। 30 जनवरी, 1948 को भारत माता का यह अमर सपूत चिरनिद्रा में सो गया।

  • साहित्य-सेवा

गाँधीजी मूलतः एक साहित्यकार न होकर एक राजनीतिक व्यक्तित्व थे। अत: उनकी रचनाएँ भी राजनीति से सम्बन्धित रहीं। आपने 1903 में डरबन, अफ्रीका में बहुभाषी साप्ताहिक-पत्र ‘इण्डियन ओपीनियन’ निकाला। भारत आकर आपने ‘हरिजन’ तथा ‘यंग इण्डिया’ नामक पत्र निकाले। आपने ‘हिन्दू स्वराज्य’, ‘सर्वोदय’ (रस्किन की अनटु दि लास्ट पुस्तक का अनुवाद) तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर अत्याचारों का वर्णन करने वाली पुस्तक ‘हरि पुस्तिका’ लिखी। आपने गुजराती में ‘नवजीवन’ नामक पुस्तक निकाली। ‘सत्य के प्रयोग’ आत्मकथा लिखकर आपने साहित्य की सेवा की।

  • रचनाएँ

महात्मा गाँधी की रचनाएँ इस प्रकार हैं

  1. आत्मकथा-‘सत्य के प्रयोग’।
  2. अनुवाद-‘हिन्द स्वराज्य’ तथा ‘सर्वोदय’।
  3. पत्र-‘हरिजन’, ‘यंग इण्डिया’, ‘इण्डियन ओपीनियन’।
  4. अन्य पुस्तक-‘नवजीवन’, ‘हरि पुस्तिका’।
  • वर्ण्य विषय

महात्मा गाँधी मूलतः एक बैरिस्टर थे। इस कारण तर्क करना उनकी फितरत थी। देश, समाज तथा जीवन की विसंगतियों, विडम्बनाओं आदि का सूक्ष्म निरीक्षण कर आपने प्रभावी लेख लिखे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर अत्याचार देखकर गाँधीजी राजनीति में आये थे। समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि की अव्यवस्था तथा विद्रूपता देखकर आपने उस पर प्रहार किये। नारी व निम्न वर्गका उत्थान, साम्प्रदायिक सद्भाव, किसानों की समस्या, ब्रिटिश सरकार के अत्याचार आदि आपके वर्ण्य विषय थे। देश को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाना आपका मुख्य उद्देश्य था।

  • भाषा

गुजराती मातृभाषा तथा अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम होने पर भी आपने खड़ी बोली हिन्दी में भी लिखा जिसमें संस्कृत शब्दों की अधिकता के कारण क्लिष्टता आ गई है। फिर भी भाषा में सरलता तथा बोधगम्यता मिलती है। आपकी भाषा दर्शन जैसे विषयों में गम्भीर हो गई है। कहीं-कहीं सूत्र ही गद्यांश बन गए हैं। वाक्य लघु हैं।

  • शैली

युग पुरुष महात्मा गाँधी की रचनाओं में भाव, विचार, व्याख्या आदि का मिला-जुला रूप मिलता है। आपके व्यक्तित्व में संस्कार, अध्ययन, अनुशीलन, रुचि व प्रवृत्ति के जो तत्त्व हैं, उन्होंने शैली को रक्षात्मक बना दिया है।

  1. वर्णनात्मक शैली-राजनेता होने के कारण बापू अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए इस शैली को अपनाते हैं।
  2. उद्धरण शैली-अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए गाँधीजी उदाहरण देते हैं तथा व्याख्या करते हैं। इसके लिए वह गीता से उदाहरण देते हैं।
  3. ओजपूर्ण शैली-ब्रिटिश सरकार के विरोध में लिखते समय उनकी भाषा में ओज था, अपने अधिकारों की माँग थी।
  4. सूत्रात्मक शैली-इस शैली में अत्यन्त लघु वाक्यों का प्रयोग है, जैसे-“

अद्वितीय उपाय है कर्म के फल का त्याग”,
“जहाँ देह है वहाँ कर्म तो है ही।”
इन सूत्रों में गीता का सार आ जाता है।

अनुवादों में भी नपी-तुली भाषा व शब्द हैं। मुहावरे व कहावतों का संक्षिप्त प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।

  • साहित्य में स्थान

महात्मा गाँधी निबन्धकार, अनुवादक, सम्पादक, आत्मकथा लेखक तथा कुशल वक्ता थे। इस कारण उनका साहित्य में विशेष स्थान है। हिन्दी के विचार प्रधान निबन्धों के क्षेत्र में आपकी देन अनुपम है।

12. श्रीधर पराड़कर

  • जीवन-परिचय

मध्य प्रदेश के ग्वालियर नामक शहर के निवासी श्रीधर पराड़कर का जन्म 15 मार्च, 1954 को हुआ था। आपके पिताजी का नाम गोविन्द राव पराड़कर और माता का नाम श्रीमती इन्दिरा बाई पराड़कर है। श्रीधर पराड़कर ने वाणिज्य विषय के साथ स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात् अपने एकाउंटेंट जनरल कार्यालय में लेखा परीक्षक के रूप में शासकीय सेवा के साथ अपने कैरियर की शुरुआत की। परन्तु रक्त में प्रवाहित देशभक्ति की भावना और हृदय में आकण्ठ राष्ट्रप्रेम के वशीभूत श्रीधर पराड़कर ने 1986 में शासकीय सेवा से निवृत्ति लेकर अपना जीवन राष्ट्रोत्थान के लिए न्यौछावर कर दिया। श्रीधर पराड़कर का व्यक्तित्व आकर्षक है। वे सात्विक ऊर्जा के स्रोत भी हैं। आपके चेहरे पर सदैव विद्यमान रहने वाली बाल सुलभ मुस्कान सम्पर्क में आये व्यक्ति का भी तनाव समाप्त करने में सक्षम है।

  • साहित्य-सेवा

राष्ट्रीय आन-बान-शान और सम्मान को अपनी ओजस्वी कलम से नई धार देने वाले श्रीधर पराड़कर अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री एवं देश के प्रख्यात साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति और मूल्यों तथा राष्ट्रप्रेम की अलख जगा रहे श्रीधर पराड़कर ने इंग्लैण्ड, श्रीलंका आदि देशों की यात्रा के साथ-साथ भारत में अनेक स्थानों, जैसे-जौनसार (उत्तराखण्ड), लाहौल स्पीति और झाबुआ के वनांचल में साहित्य संवर्धन यात्राएँ की, ताकि लेखक अनुभूत साहित्य का सृजन कर सकें।

  • रचनाएँ

आपने अनेक लोकप्रिय पुस्तकों की रचना कर हिन्दी साहित्य की अद्भुत सेवा की है। आपकी प्रमुख रचनाएँ/पुस्तक निम्नवत हैं-

  1. जीवन-चरित्र—’राष्ट्रनिष्ठ खण्डोबल्लाल,”अप्रतिम क्रांतिदृष्टा भगतसिंह’, ‘रानी दुर्गावती’, माँ सारदा, कर्मयोगी बाबा साहेब आप्टे’, ‘बाला साहेब देवरस’, ‘राष्ट्रसंत तुकडोजी’, ‘1857 के प्रतिसाद,”अद्भुत संत स्वामी रामतीर्थ’, ‘सिद्धयोगी उत्तम स्वामी’ आदि।”
  2. अनुवाद—दत्तोपंत ठेगड़ी की पुस्तक ‘सामाजिक क्रांति की यात्रा और डॉ. आम्बेडकर’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया।
  3. अन्य पुस्तकें ‘ज्योति जला निज प्राणों की’ तथा ‘मध्य भारत की संघ गाथा’ आदि।
  • वर्ण्य विषय

राष्ट्रीय स्वाभिमान के अनन्य नायक एवं भारतीय संस्कृति तथा मूल्यों के वाहक श्रीधर पराड़कर की पुस्तकों में राष्ट्रप्रेम प्रमुख रूप से वर्णित विषय रहा है। उनकी पुस्तकों में मनुष्यों के उच्च विचारों के भाव भी परिलक्षित होते हैं। सामाजिक चेतना के स्वर उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। आपने सदैव साहित्य में सद्विचारों को प्रोत्साहन प्रदान करने का कार्य किया है।

  • भाषा

श्रीधर पराड़कर की भाषा विशुद्ध रूप से हिन्दी है। उन्होंने अपनी रचनाओं में सरल, सहज एवं बोधगम्य भाषा का उपयोग किया है। भाषा की क्लिष्टता एवं दुरहता से दूर रहते हुए आपने पाठक की भाषा को ही अपनी साहित्य-भाषा के रूप में चुना है। सम्भवतया इसी कारण प्रत्येक पाठक वर्ग के लिये आपकी पुस्तकें सुग्राह्य हैं।

  • शैली

श्रीधर पराड़कर जी मूलतः वाणिज्य के छात्र रहे हैं। भाषा पर उनकी समझ एवं पकड़ किसी उपाधि से अर्जित ज्ञान की वजह से न होकर जीवन के स्वयं के अनुभवों से अर्जित ज्ञान पर आधारित है।

मुख्य रूप से उनकी शैली वर्णनात्मक, उद्धरण एवं ओजपूर्ण है। कहीं-कहीं उनकी पुस्तकों में चित्रात्मक एवं विवेचनात्मक शैली की झलक भी देखने को मिलती है।

  • साहित्य में स्थान

श्रीधर पराड़कर की पुस्तकें हमारे भीतर राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक संवेदनाओं का संचार करती हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को दृष्टिपथ पर रखकर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान (मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार) द्वारा उन्हें भारतीय विद्या (इन्डोलॉजी) में लेखन के लिए प्रतिष्ठित ‘विवेकानन्द पुरस्कार’ प्रदान किया गया। साथ ही, आपको तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा ‘हिन्दी सेवी सम्मान 2015’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।

सम्पूर्ण अध्याय पर आधारित महत्वपूर्ण वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  • बहु-विकल्पीय प्रश्न

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म हुआ था
(i) सन् 1884 में, (i) सन् 1894 में, (ii) सन् 1904 में, (iv) सन् 1880 में।

2. पारिवारिक मर्यादा का उत्कृष्ट उदाहरण मिलता है
(i) गीता में, (ii) रामचरितमानस में, (iii) महाभारत में, (iv) कामायनी में।

3. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचना है
(i) चित्रलेखा, (ii) चिन्तामणि, (ii) अशोक के फूल, (iv) पथ के साथी।

4. जयशंकर प्रसाद का जन्म स्थान है
(i) इलाहाबाद, (ii) सागर, (iii) उज्जै न, (iv) वाराणसी।

5. ‘गीत और गोली’ के रचनाकार हैं
(i) विष्णु प्रभाकर, (ii) पं. कमलापति त्रिपाठी, (iii) हरिशंकर परसाई, (iv) श्रीराम परिहार।

6. कराची में बनारसी ने विद्यानिवास मिश्र से कहा था
(i) मातृभूमि को प्रणाम कहें, (ii) भारतमाता को सलाम कहें, (iii) गंगा और गंगा के कछार से मेरा सलाम कहें, (iv) भारतवासियों को मेरा सलाम कहें।

7. महात्मा गाँधी के राजनीतिक गुरु थे
(i) गोपाल कृष्ण गोखले, (ii) आचार्य विनोबा भावे, (iii) पं. जवाहर लाल नेहरू, (iv) सीमान्त गाँधी।

8. श्रीधर पराड़कर यहाँ के निवासी हैं [2008]
(i) कलकत्ता, (ii) कानपुर, (iii) ग्वालियर, (iv) भोपाल।
उत्तर-
1. (i),
2. (ii),
3. (iii),
4. (iv),
5. (i),
6. (iii),
7. (i),
8. (iii)।

  • रिक्त स्थान पूर्ति

1. हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म ……… में हुआ था।
2. ‘कुटुज’ ………’ की रचना है। [2013]
3. विद्यानिवास मिश्र के एक निबन्ध संग्रह का नाम ……..”
4. जयशंकर प्रसाद का जन्म स्थान ……… है।
5. जगदीशचन्द्र माथुर प्रसिद्ध …………. हैं। [2009]
6. ‘तेरा घर मेरा घर’ की लेखिका ………. हैं।
7. महादेवी वर्मा का निधन ……… में हआ था।
8. विद्यानिवास मिश्र ……… निबन्धकार हैं। [2009]
9. महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर …………. को हुआ था।
10. गुजराती में प्रकाशित ‘नवजीवन’ नामक पुस्तक के लेखक …….. थे।
11. श्रीधर पराड़कर ने ……… विषय में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की।
उत्तर-
1. सन् 1907,
2. हजारी प्रसाद द्विवेदी,
3. चितवन की छाँह,
4. वाराणसी (उ. प्र.),
5. एकांकीकार,
6.मालती जोशी,
7. सन् 1987,
8. ललित,
9. 1869,
10. महात्मा गाँधी,
11. वाणिज्य।

  • सत्य असत्य

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एक कवि थे। [2014]
2. विद्यानिवास का निधन सन् 2005 में हुआ था।
3. महादेवी वर्मा श्रेष्ठ उपन्यासकार हैं।
4. हरिशंकर परसाई व्यंग्यकार थे। [2015]
5. श्रीराम परिहार का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ है।
6. प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। [2011]
7. महात्मा गाँधी द्वारा लिखित पुस्तक ‘सर्वोदय’ रस्किन की ‘अन टू दि लास्ट’ का अनुवाद
8. ‘राष्ट्रनिष्ठ खण्डोबल्लाल’ श्रीधर पराड़कर द्वारा लिखित पुस्तक है।
उत्तर-
1. असत्य,
2. सत्य,
3. असत्य,
4. सत्य,
5. असत्य,
6. सत्य,
7. सत्य,
8. सत्य।

  • जोड़ी मिलाइए

1. व्यंग्यकार [2009] – (क) शिकायत मुझे भी है
2. हरिशंकर परसाई [2009] – (ख) हरिशंकर परसाई
3. मर्यादा [2014] – (ग) आकाशदीप
4. जयशंकर प्रसाद – (घ) विष्णु प्रभाकर
5. रामचन्द्र शुक्ल – (ङ) महादेवी वर्मा
6. वेदना की अमर गायिका [2009] – (च) चिन्तामणि [2016]
7. महादेवी वर्मा [2017] – (छ) आधुनिक मीरा
उत्तर-
1.→ (ख),
2. → (क),
3. → (घ),
4.→ (ग),
5.→ (च),
6. → (ङ),
7. → (छ)।

  • एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म स्थान कहाँ है?
2. ‘बेईमानी की परत’ के लेखक कौन हैं?
3. श्रीराम परिहार के एक निबन्ध का नाम लिखिए।
4. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक निबन्ध संग्रह का नाम लिखिए।
5. जयशंकर प्रसाद का जन्म किस वर्ष में हुआ था?
6. महादेवी वर्मा का जन्म स्थान कहाँ है?
7. गाँधीजी द्वारा 1930 में डरबन, दक्षिण अफ्रीका में निकाले गये बहभाषी साप्ताहिक-पत्र का क्या नाम था?
8. श्रीधर पराड़कर की माताजी का नाम क्या है?
उत्तर-
1. अगोना (उ. प्र.),
2. हरिशंकर परसाई,
3. धूप का अवसाद,
4. कुटज,
5. सन् 1889,
6. फर्रुखाबाद,
7. इण्डियन ओपीनियन,
8. श्रीमती इन्दिरा बाई पराड़कर।

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