NCERT 10 Sanskrit

NCERT Solutions for Class 10 Sanskrit Shemushi Chapter 1 शुचिपर्यावरणम्

NCERT Solutions for Class 10 Sanskrit Shemushi Chapter 1 शुचिपर्यावरणम्

Detailed, Step-by-Step NCERT Solutions for Class 10 Sanskrit Shemushi Chapter 1 शुचिपर्यावरणम् Questions and Answers were solved by Expert Teachers as per NCERT (CBSE) Book guidelines covering each topic in chapter to ensure complete preparation.

Shemushi Sanskrit Class 10 Solutions Chapter 1 शुचिपर्यावरणम्

अभ्यासः

प्रश्न 1.
अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत –

(क) कविः किमर्थं प्रकृतेः शरणम् इच्छति?
उत्तर:
नगरे (अत्र) जीवितं दुर्वहं जातं” अतः कविः प्रकृतेः शरणम् इच्छति।

(ख) कस्मात् कारणात् महानगरेषु संसरणं कठिनं वर्तते?
उत्तर:
यानानां पङक्तयः अनन्ताः अतः महान-गरेषु संसरणं कठिनं वर्तते।

(ग) अस्माकं पर्यावरणे किं किं दूषितम् अस्ति?
उत्तर:
अस्माकम् पर्यावरणे वायुमण्डल, जलं, धरातलम् च दूषितम् अस्ति।

(घ) कविः कुत्र सञ्चरणं कर्तुम् इच्छति?
उत्तर:
कविः एकान्ते कान्तारे सञ्चरणं कर्तुम् इच्छति।

(ङ) स्वस्थजीवनाय कीदृशे वातावरणे भ्रमणीयम्?
उत्तर:
स्वस्थ जीवनाय शुचि वातावरणे भ्रमणीयम्।

(च) अन्तिमे पद्यांशे कवेः का कामना अस्ति?
उत्तर:
अंतिमें पद्यांशे कवे मानवाय जीवनं कामये।

प्रश्न 2.
सन्धि/सन्धिविच्छेदं कुरुत –

(क) प्रकृतिः + ………………….. – प्रकृतिरेव
उत्तर:
प्रकृतिः + एव – प्रकृतिरेव

(ख) स्यात् + …….. + …….. – स्यान्नैव
उत्तर:
स्यात् + न + एव – स्यान्नैव

(ग) ……… + अनन्ताः – ह्यनन्ता:
उत्तर:
हि + अनन्ताः – ह्यनन्ताः

(घ) बहिः + अन्तः + जगति – …………..
उत्तर:
बहिः + अन्तः + जगति – बहिरन्तर्जगति

(ङ) ……… + नगरात् = अस्मान्नगरात्
उत्तर:
अस्मात् + नगरात् = अस्मान्नगरात्

(च) सम् + चरणम् = ……………
उत्तर:
सम् + चरणम् = सञ्चरणम्

(छ) धूमम् + मुञ्चति = …………..
उत्तर:
धूमम् + मुञ्चति = धूमं मुञ्चति

प्रश्न 3.
अधोलिखितानाम् अव्ययानां सहायतया रिक्तस्थानानि पूरयत –
भृशम्, यत्र, तत्र, अत्र, अपि, एव, सदा, बहिः

(क) इदानीं वायुमण्डलं ……………. प्रदूषितमस्ति।
उत्तर:
इदानीं वायुमण्डलं भृशम प्रदूषितमस्ति।

(ख) …………… जीवनं दुर्वहम् अस्ति।
उत्तर:
अत्र जीवनं दुर्वहम् अस्ति।

(ग) प्राकृतिक वातावरणे क्षणं सञ्चरणम् ……….. लाभदायकं भवति।
उत्तर:
प्राकृतिक वातावरणे क्षणं सञ्चरणम् अपि लाभदायक भवति।

(घ) पर्यावरणस्य संरक्षणम् ……….. प्रकृतेः आराधना।
उत्तर:
पर्यावरणस्य संरक्षणम् एव प्रकृते: आराधना।

(ङ) …………….. समयस्य सदुपयोगः करणीयः।
उत्तर:
सदा समयस्य सदुपयोगः करणीयः।

(च) भूकम्पित-समये …………….. गमनमेव उचितं भवति।
उत्तर:
भूकम्पित-समये बहिः गमनमेव उचितं भवति।

(छ) ……………….. हरीतिमा ……………… शुचि पर्यावरणम्। उत्तराणि
उत्तर:
यत्र हरीतिमा तत्र शुचि पर्यावरणम्।

प्रश्न 4.
उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखित-पदेषु प्रकृतिप्रत्ययविभाग/संयोगं कुरुत –

यथा-जातम् = जन् + क्त

(क) प्र + कृ + क्तिन्
उत्तर:
प्र + कृ + क्तिन् – प्रकृतिः

(ख) नि + सृ + क्त + टाप् = ……………..
उत्तर:
नि + सु + क्त + टाप् – निस्ता

(ग) ……………… + क्त -दुषितम
उत्तर:
दूष + क्त – दूषितम्

(घ) ……………. + ……………. – करणीयम्
उत्तर:
कृ + अनीयर – करणीयम्

(ङ) …………….. + यत् – भक्ष्यम्
उत्तर:
भक्ष् + यत् – भक्ष्यम्

(च) रम् + ……………….. + ……………… = रमणीया
उत्तर:
रम् + अनीयर + टाप = रमणीया

(छ) ………….. – वरणीया
उत्तर:
व + अनीयर + टाप – वरणीया

(ज) पिष् + ……… – पिष्टाः
उत्तर:
पिष् + क्त = पिष्टाः

प्रश्न 5.
(अ) अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदं लिखत –

(क) सलिलम्
उत्तर:
सलिलम् – जलम्

(ख) आम्रम्
उत्तर:
आम्रम् – रसालम

(ग) वनम्
उत्तर:
वनम् – अरण्यम्

(घ) शरीरम्
उत्तर:
शरीरम् – देहम्

(ङ) कुटिलम्
उत्तर:
कुटिलम् – वक्रम

(च) पाषाण:
उत्तर:
पाषाणः – प्रस्तरम्

प्रश्न 5.
(आ) अधोलिखितपदानां विलोमपदानि पाठात् चित्वा लिखत –

(क) सुकरम्
उत्तर:
सुकरम् – दुष्करम्

(ख) दूषितम्
उत्तर:
दूषितम् – शुद्धम्

(ग) गृहणन्ती
उत्तर:
गृहणन्ती – व्यजन्ती

(घ) निर्मलम्
उत्तर:
निर्मलम् – दृषितम्

(ङ) दानवाय
उत्तर:
दानवाय – देवाय

(च) सान्ता:
उत्तर:
सान्ताः – कोलहलः

प्रश्न 6.
उदाहरणमनुसृत्य पाठात् चित्वा च समस्तपदानि समासनाम च लिखत –

यथा-विग्रह पदानि समस्तपद : समासनाम

(क) मलेन सहितम् समलम् अव्ययीभाव
(ख) हरिता: च ये तरवः (तेषां)
(ग) ललिताः च याः लताः (तासाम्) ……
(घ) नवा मालिका ……………..
(ङ) धृतः सुखसन्देशः येन (तम्) ….
(च) कज्जलम् इव मलिनम् (छ) दुर्दान्तैः दशनैः
उत्तर:
समस्तपद : समासनाम
(क) समलम् : अव्यीभाव
(ख) हरिततरूणाम् : कर्मधारय
(ग) लालितलतानाम् : कर्मधारय
(घ) नवमालिका : कर्मधारय
(ङ) धृतसुखसन्देशम् : बहुब्रीहि
(च) कज्जलमलिनं : कर्मधारय
(छ) दुर्दान्तदशनै : कर्मधारय

प्रश्न 7.
रेखाङ्कित-पदमावृत्य प्रश्ननिर्माण कुरुत –

(क) शकटीयानम् कज्जलमलिन धूम मुञ्चति।
उत्तर:
शकटीयानम् कीदृशं धूमं मुञ्चति?

(ख) उद्याने पक्षिणा कलरव चेतः प्रसादयति।
उत्तर:
उद्याने केषाम् कलरवं चेतः प्रसादयति?

(ग) पाषाणीसभ्यतायां लतातरुगुल्माः प्रस्तरतले पिष्टाः सन्ति ।
उत्तर:
पाषाणीसभ्यतायां के प्रस्तरतले पिष्टाः सन्ति?

(घ) महानगरेषु वाहनानाम् अनन्ताः पङ्क्तयः धावन्ति।
उत्तर:
कुत्र वाहनानाम् अनन्ताः पङ्क्तयः धावन्ति?

(ङ) प्रकृत्याः सन्निधौ वास्तविकं सुखं विद्यते।
उत्तर:
कस्याः सन्निधौ वास्तविक सुखं विद्यते?

अन्य परीक्षा उपयोगी पटनाः

प्रश्न 1.
रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्नानिर्माण कुरूत
(रेखांकित पदों के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए।)

(क) जीवितरसहरणं नो कुर्यात्।
उत्तर:
किम् नो कुर्यात्?

(ख) माम् अस्मात् नगरात् दूर नय।
उत्तर:
माम् कस्मात् नगरात् दूरं नय?

(ग) धरातल समलं जातम्।
उत्तर:
धरातलं कीदृशम् जातम्?

(घ) वाष्पयानमाला संधावति।
उत्तर:
का संधावति?

(ङ) महानगरमध्ये कालायसचक्र भ्रमति।
उत्तर:
कुत्र कालायसचक्र भ्रमति?

प्रश्न 2.
प्रस्तुत पाठं पठित्वा अधोलिखित प्रश्नानां उत्तराणि ‘लिखत
(प्रस्तुत पाठ को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखि)

I. एकपदेन उत्तरत

(क) शतशकटीयानं कीदृशं धूम मुञ्चति?
उत्तर:
कज्जलमलिनम्

(ख) यानानां कति पङ्कतयः?
उत्तर:
अनन्ताः

(ग) भृशं दूषितं किम्?
उत्तर:
वायुमण्डलम

(घ) नगरात् दूर के नय?
उत्तर:
माम

(ङ) समीरचालिता का?
उत्तर:
कुसुमावलिः।

II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –

(क) के पिष्टाः नो भवन्तु?
उत्तर:
प्रस्तरतले लतातरुगुल्माः पिष्टाः नो भवन्तु।

(ख) बन्धो! कुत्र चल?
उत्तर:
बन्धो! खगकुल-कलरव-गुज्जित-वनदेशं चला

(ग) अत्र धरातलं कीदृशम् अभवत्?
उत्तर:
अत्र धरातलं समलम् अभवत्।

(घ) बहिरन्तर्जगति कि करणीयम्?
उत्तर:
बहिरन्तर्जगति बहु शुद्धीकरण करणीयम्?

(ङ) नामान्ते किं प्रपश्चामि?
उत्तर:
ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयः प्रपश्चामि?

योग्यताविस्तारः

समास – समसनं समासः

समास का शाब्दिक अर्थ होता है-संक्षेप। दो या दो से अधिक शब्दों के मिलने से जो नया और संक्षिप्त रूप बनता है वह समास कहलाता है। समास के मुख्यत: चार भेद हैं
1. अव्ययीभाव समास
2. तत्पुरुष
3. बहुव्रीहि
4. द्वन्द्व

1. अव्ययीभाव
इस समास में पहला पद अव्यय होता है और वही प्रधान होता है और समस्तपद अव्यय बन जाता है। यथा-निर्मक्षिकम्-मक्षिकाणाम् अभावः।।
यहा! प्रथमपद निर् है और द्वितीयपद मक्षिकम् है। यहा! मक्षिका की प्रधानता न होकर मक्षिका का अभाव प्रधान है, अतः यहा! अव्ययीभाव समास है। कुछ अन्य उदाहरण देखें

  1. उपग्रामम् – ग्रामस्य समीपे – (समीपता की प्रधानता)
  2. निर्जनम् – जनानाम् अभावः – (अभाव की प्रधानता)
  3. अनुरथम् – रथस्य पश्चात् – (पश्चात् की प्रधानता)
  4. प्रतिगृहम् – गृहं गृहं प्रति – (प्रत्येक की प्रधानता)
  5. यथाशक्ति – शक्तिम् अनतिव्य – (सीमा की प्रधानता)
  6. सचव्म् – चक्रेण सहितम् – (सहित की प्रधानता)

2. तत्पुरुष – ‘प्रायेण उत्तरपदप्रधानः तत्पुरुषः’ इस समास में प्रायः उनरपद की प्रधानता होती है और पूर्व पद उनरपद के विशेषण का कार्य करता है। समस्तपद में पूर्वपद की विभक्ति का लोप हो जाता है।
यथा- राजपुरुषः अर्थात् राजा का पुरुष। यहां! राजा की प्रधानता न होकर पुरुष की प्रधानता है।

  1. ग्रामगतः – ग्रामं गतः।
  2. शरणागतः – शरणम् आगतः।
  3. देशभक्तः – देशस्य भक्तः।
  4. सिंहभीतः – सिंहात् भीतः।
  5. भयापा: – भयम् आपाः।
  6. हरित्रातः – हरिणा त्रात:।
    तत्पुरुष समास के दो प्रमुख भेद हैं-कर्मधारय और द्विगु।

(क) कर्मधारय-इस समास में एक पद विशेष्य तथा दूसरा पद पहले पद का विशेषण होता है। विशेषण विशेष्य भाव के अतिरिक्त उपमान उपमेय भाव भी कर्मधारय समास का लक्षण है।
यथा
पीताम्बरम् – पीतं च तत् अम्बरम्।
महापुरुषः – महान् च असो पुरुषः।
कज्जलमलिनम् – कज्जलम् इव मलिनम्।
नीलकमलम् – नीलं च तत् कमलम्।
मीननयनम् – मीन इव नयनम्।
मुखकमलम् – कमलम् इव मुखम्।

(ख) द्विगु – ‘संख्यापूर्वो द्विगुः’ इस समास में पहला पद संख्यावाची होता है और समाहार (एकत्रीकरण या समूह) अर्थ की प्रधानता होती है।
यथा- त्रिभुजम् – त्रयाणां भुजानां समाहारः। इसमें पूर्वपद ‘त्रि’ संख्यावाची है।

पंचपात्रम् – पंचानां पात्राणां समाहारः।
पंचवटी – पंचानां वटानां समाहारः।
सप्तर्षिः – सप्तानां पषीणां समाहारः।
चतुर्युगम् – चतुर्णां युगानां समाहारः।

3. बहुव्रीहि – अन्यपदप्रधानः बहुब्रीहिः
इस समास में पूर्व तथा उत्तर पदों की प्रधानता न होकर किसी अन्य पद की प्रधानता होती है।
यथा
पीताम्बरः – पीतम् अम्बरम् यस्य सः (विष्णुः)।
यहा! न तो पीतम् शब्द की प्रधानता है और न अम्बरम् शब्द की अपितु पीताम्बरधारी किसी अन्य व्यक्ति (विष्णु) की प्रधानता है।
नीलकण्ठः – नीलः कण्ठः यस्य सः (शिवः)।
दशाननः – दश आननानि यस्य सः (रावण:)।
अनेककोटिसारः – अनेककोटिः सारः (धनम्) यस्य सः ।
विगलितसमृणिम् – विगलिता समृणिः यस्य तम् (पुरुषम्)।
प्रक्षालितपादम् – प्रक्षालितौ पादौ यस्य तम् (जनम्)।

4. द्वन्द्व – ‘उभयपदप्रधान: द्वन्द्वः’ इस समास में पूर्वपद और उत्तरपद दोनों को समान रूप से प्रधानता होती है। पदों के बीच में ‘च’ का प्रयोग विग्रह में होता है।
यथा
रामलक्ष्मणौ – रामश्च लक्ष्मणश्च।
पितरौ – माता च पिता च।
धर्मार्थकाममोक्षाः – धर्मश्च, अर्थश्च, कामरच, मोक्षश्च।
वसन्तग्रीष्मशिशिराः – वसन्तश्च ग्रीष्मश्च शिशिरश्च।

कविपरिचय – प्रो. हरिदत्त शर्मा इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में संस्कृत के आचार्य रहे हैं। इनके कई संस्कृत काव्य प्रकाशित हो चुके हैं। जैसे-गीतकंदलिका, त्रिपथगा, उत्कलिका, बालगीताली, आक्रन्दनम, लसल्लतिका इत्यादि। इनकी रचनाओं में समाज की विसंगतियों के प्रति आक्रोश तथा स्वस्थ वातावरण के प्रति दिशानिर्देश के भाव प्राप्त होते हैं।

Class 10 Sanskrit Shemushi Chapter 1 शुचिपर्यावरणम् Summary Translation in Hindi and English

पाठ परिचय – प्रस्तुत पाठ आधुनिक संस्कृत कवि हरिदत्त शर्मा के रचना संग्रह ‘लसल्लतिका’ से संकलित है। इसमें कवि ने महानगरों की यांत्रिक – बहुलता से बढ़ते प्रदूषण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा है कि यह लौहचक्र तन – मन का शोषक है, जिससे वायुमण्डल और भूमण्डल दोनों मलिन हो रहे हैं। कवि महानगरीय जीवन से दूर, नदी – निर्झर, वृक्षसमूह, लताकुञ्ज एवं पक्षियों से गुञ्जित वनप्रदेशों की ओर चलने की अभिलाषा व्यक्त करता है।
इस पाठ में कवि प्रत्येक मानव के स्वस्थ जीवन की कामना करता है। वह चाहता है कि सभी जगह साफ – सफाई हो एवं प्रदूषण मुक्त पृथ्वी हो।

1. दुर्वहमत्र जीवितं जातं प्रकृतिरेव शरणम्।
शुचि – पर्यावरणम्॥
महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्।
मनः शोषयत् तनुः पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्॥
दुन्तिर्दशनैरमना स्यान्नैव जनग्रसनम्। शुचि…॥1॥

अन्वयः – अत्र जीवितं दुर्वहं जातम्, प्रकृति एव शरणम् शुचिपर्यावरणम्। महानगर – मध्ये कालायसचक्रम् अनिशं चलत मनः शोषयत. तनुः पेषयत् सदा वक्र भ्रमति। अमुना। दुर्दान्ते: दर्शनेः जनग्रसन न एवं स्यात।

शब्दार्थ: – दुर्वहम् – दुष्करम् (कठिन), जातम् – अभवत् (हो गया).शरणम् – आश्रयः (सहारा), अनिशम् – अहर्निशम् (दिन – रात), कालायसचक्रम् – लौहचक्रम् (लोहे का चक्र). शोषयत् – शुष्कीकुर्वत् (सुखाते हुए). तनुः – शरीरम् (शरीर), पेषयद् – पिष्टीकुर्वत् (पीसना करते हुए), वक्रम् – कुटिलम् (टेढा), दुर्दान्तैः – भयङ्करैः (भयानक), दशनैः – दन्तैः (दाँतों से). अमुना – अनेन (इससे), जननसनम् – जनभक्षणम् (मानव का विनाश) स्यात् – भवेत (हो)।

व्याख्या – यहाँ (महानगरों में) जीवन दूभर हो गया है। अब तो प्रकृति एवं स्वच्छे पर्यावरण ही एक मात्र सहारा (आश्रय) रह गया है। महानगर में दिन – रात चलता हुआ लोहे का पहिया मन को सूखाता हुआ, शरीर को पीसता हुआ हमेशा टेढा घूम रहा है। इसलिए इसके भयंकर दाँतो से लोगो का विनाश न हो जाए भाव यह है कि यदि महानगरो में जीवित रहना है तो पर्यावरण की शरण लेनी ही पड़ेगी।

2. कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति शतशकटीयानम्।
वाष्पयानमाला संधावति वितरन्ती ध्वानम्॥
यानानां पङ्क्तयो हनन्ताः कठिनं संसरणम्।
शुचि …112॥

अन्वयः – शतशकटीयां कज्जलमलिन घूमं मुञ्चति। वास्पयान माला ध्वान वितरन्ती संधावति अत्र यानाना अनन्ताः पक्तयः कठिन संसरणम्।।

शब्दार्थ: – कज्जलमलिनम् – कज्जलेन मलिनम् (काजल – सा मलिन (काला)). धूम: – अग्निवाहः (धुओं). मुञ्चति – त्यजति (छोड़ता है) शतशकटीयानम् – शकटीयानानां शतम् (सैकड़ों मोटर गाड़ियाँ), वाष्पयानमाला – वाष्पयानानां पंक्तिः (रेलगाड़ी की पंक्ति), वितरन्ती – ददती/वितरणं कुर्वाणा (देती हुई), ध्वानम् – ध्वनिम् (कोलाहल), संसरणम्सञ्चलनम् (चलना)।

व्याख्या – सैकड़ों मोटर कारें काजल जैसा गंदा धुआँ उगल रही है। रेलगाड़ी धुआँ छोड़ती हुई दौडती है। वाहनो की बहुत लम्बी – लम्बी कतारे है, चलना भी कठिन है अर्थात बहुत बड़ा जाम लगा रहता है।

3. वायुमण्डलं भृशं दूषितं न हि निर्मलं जलम्।
कुत्सितवस्तुमिश्रितं भक्ष्यं समलं धरातलम्॥
करणीय बहिरन्तर्जगति तु बहु शुद्धीकरणम्।
शुचि…॥3॥

अन्वयः – (महानगरेषु) वायुमण्डल भृशं दूषितम् निर्मल जलं (कत्राऽपि) न हि (विधते)। भक्ष्म कुल्सित वस्तु मिश्रितम्। धरातलं समल। अन्तः बहिः च जगति बहु शुद्धी करणं तु करणीयम्।।

शब्दार्थः – भृशम् – अत्यधिकम् (बहुत), निर्मलं – स्वच्छम् (स्वच्छ), कुत्सित वस्तु – कुवस्तु (मिलावटी पदार्थ). भक्ष्यम् – खाद्य पदार्थ (खाने योग्य), समलम् – मलेन् युक्तम् (मलसहितम्)।

व्याख्या – महानगरो में वायुमण्डल अधिक प्रदूषित है। जल भी साफ (स्वच्छ) नहीं है। खाद्य पदार्थों में भी मिलावट है। धरती गंदी हो गई हैं। संसार में आन्तरिक व बाह्य शुद्धि करना आवश्यक है। भाव यह है कि हमें साफ सफाई रखनी चाहिए।

4. कञ्चित् कालं नय मामस्मान्नगरान् बहुदूरम्।
प्रपश्यामि ग्रामान्ते निर्झर – नदी – पयःपूरम्।।
एकान्ते कान्तारे क्षणमपि मे स्यात् सञ्चरणम्।
शुचि…॥4॥

अन्वयः – कञ्चित कालं माम् अस्मात् नगरात बहु दूर नया नामान्ते निर्झर – पय नदी पूरं प्रपश्यामि। एकान्ते कान्वारे में क्षणम् अपि सञ्चरणं स्यात्।।

शब्दार्थः – नय – ले चलो (नामान्ते ग्रामस्य अन्ते (गाँव की सीमा पर), पयःपूरम – जलाशयम् (तालाब). कान्तारे – अरण्ये, वने (जंगल में), सञ्चरणम् – भ्रमणम् (घूमना)।

व्याख्या – कवि कहता है कि मुझे कुछ समय के लिए इस नगर से दूर ले चलो। गाँव की सीमा पर झरने नदी तथा तालाब को देखना चाहता हूँ एकान्त वन में मैं क्षण भर के लिए हो सही मेरा भ्रमण हो जाए।
भाव यह है कि महानगर से अच्छा ग्रामीण जीवन है ऐसा बताया गया है।

5. हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया।
कुसुमावलिः समीरचालिता स्यान्मे वरणीया॥
नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम्।
शुचि…॥5॥

अन्वयः – हरित – तरूणां ललित लतानां च रमणीया माला,समीर चालिता कुसुमुमावलि में वरणीया स्यात। नवमालिका रसालं मिलिता रूचिरं संगमनम् (स्यात)।

शब्दार्थ: – हरित – तरूणां (हरित वृक्षाणाम्), हरे पेड़ों का, कुसुमावलिः – कुसुम पंक्ति (फूलो की कतारे), समीर चालिता – पवन चालिता (हवा से चलाई गई), नवमालिका – मालती (चमेली), रसालम् – आम्रम् (आम) ,संगमनम् – मेलनं (समागम)।

व्याख्या – हरे भरे वृक्षों की, सुन्दर लताओं की माला तथा पवन द्वारा चलाई गई फूलों की पंक्तियाँ मेरे द्वारा वर्णन करने योग्य है। आम के वृक्ष से लगी चमेली का भी सुन्दर .समागम हो।

6. अयि चल बन्धो! खगकुलकलरव गुजितवनवेशम्।
पुर – कलरव सम्भ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम्।
चाकचिक्यजालं नो कुर्याज्जीवितरसहरणम्।
शुचि…॥6॥

अन्वयः – अपि बन्धो। खगकुल – कलख गुञ्चित – वनदेश चल। पुस्कल एव – सम्भ्रमित जनेभ्यः धृत – सुख संदेशम्। चाकचिक्य जालं जीवित रस – हरणं नो कुर्यात! ।

शब्दार्थ: – खगकुल कलख – पक्षि समूह की ध्वनि, पुरः कलख – नगरीय कालाहल चाकचिक्य – जालं – कृत्रिम प्रभाव पूर्ण जगत नो – न (नहीं)।

व्याख्या – हे बन्धु! पक्षि समूह के द्वारा गुञ्जायमान वन प्रदेश में चलो। महानगरो के शोरगुल के परेशान लोगों के लिए सुख का संदेश ग्रहण (धारण) करा चकाचोंध से युक्त इस दुनिया में जीवन के सुख का विनाश न कर।

7. प्रस्तरतले लतातरुगुल्मा नो भवन्तु पिष्टाः।
पाषाणी सभ्यता निसर्ग स्यान्न समाविष्टा॥
मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्।
शुचि…॥7॥

अन्वयः – लता – तरन – गुल्माः प्रस्तर तले पिष्टा: न भवन्त। निसर्गे पाषाणी सभ्यता, समाविष्टा न स्यात। मानवाय जीवन कामये जीवन मरणम् न कामये।

शब्दार्थः – लतातरूगुल्मा: – लताश्च, तखश्च, गुल्माश्च (लता वृक्ष और झाड़ी), पाषाणी – पर्वतमयी (पथरीली), निसर्ग प्रकृत्याम् – प्रकृति में, कामये – अभिलष्यामि (कामना करता है।)

व्याख्या – लताएँ, वृक्ष तथा झाड़ियों पत्थरों के नीचे न पिसे। प्रकृति में पंथरीली सभ्यता न समा जाए। मानव के जीवन की कामना करता हुँ। जीवित रहते हुए मैं मौत चाहता है।

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