RBSE Solution for Class 10 Hindi क्षितिज Chapter 15 ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से
RBSE Solution for Class 10 Hindi क्षितिज Chapter 15 ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से
Rajasthan Board RBSE Class 10 Hindi क्षितिज Chapter 15 ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
उर्वशी कृति को कौन-सा पुरस्कार मिला?
(क) साहित्य अकादमी
(ख) भारतीय ज्ञानपीठ
(ग) व्यास सम्मान
(घ) मूर्तिदेवी सम्मान
प्रश्न 2.
“तुम्हारी निन्दा वही करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है” यह किस महापुरुष का कथन है
(क) ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
(ख) नीत्से
(ग) दिवाकर
(घ) गाँधी
उत्तर:
1. (ख)
2. (क)
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 3.
कवि (लेखक) ने ईर्ष्या की बेटी का क्या नाम दिया है?
उत्तर:
लेखक ने ईष्र्या की बेटी का नाम निन्दा रखा है।
प्रश्न 4.
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने क्या सूत्र दिया है ?
उत्तर:
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का सूत्र है-”तुम्हारी निन्दा वही करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है।”
प्रश्न 5.
नीत्से ने ईष्र्यालु लोगों के जलने का क्या कारण बताया है?
उत्तर:
नीत्से ने बताया है कि किसी के महान गुणों के कारण ही ईष्र्यालु लोग उससे जलते हैं।
प्रश्न 6.
ईष्र्या सबसे पहले किसको जलाती है?
उत्तर:
ईर्ष्या सबसे पहले उसी मनुष्य को जलाती है जिसके मन में वह पैदा होती है। ईर्ष्यालु स्वयं ही ईर्ष्या का शिकार होता है।
प्रश्न 7.
पाठ के अनुसार किसी मनुष्य की उन्नति कब सम्भव है?
उत्तर:
पाठ के अनुसार मनुष्य की उन्नति तब सम्भव है जब वह अपने अभावों को जाने तथा उनकी पूर्ति रचनात्मक तरीके से करे।
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 8.
लेखक के पड़ोसी वकील के मन में कौन-सा दाह है?
उत्तर:
लेखक के पड़ोसी वकील खाते-पीते, भरे-पूरे परिवार वाले हैं। नौकर हैं, दोस्त हैं परन्तु वह सुखी नहीं हैं। उनको अपने पड़ोसी बीमा एजेन्ट की मोटर गाड़ी, मासिक आमदनी तथा तड़क-भड़क भरी जीवन शैली देखकर जलन होती है। सोचते हैं काश ये चीजें उनके पास भी होती
प्रश्न 9.
ईष्र्यालु लोगों से बचने के लिए नीत्से ने क्या उपाय बताया है?
उत्तर:
नीत्से ने कहा है कि ईर्ष्यालु लोगों से बचने का उपाय यह है कि विज्ञापन और प्रदर्शन से दूर एकान्त में रहा जाय। अमर और महान आदर्शों को निर्माण बाजार में रहकर नहीं होता। आदर्शों को जन्म देने वाले महापुरुष यश और प्रचार से दूर रहते हैं। निन्दकों से दूर रहकर ही उनसे बचा जा सकता है।
प्रश्न 10.
लेखक ने ईर्ष्यालु व्यक्ति के क्या लक्षण बताये हैं?
उत्तर:
ईष्र्यालु मनुष्य दूसरों की अच्छाइयों तथा उपलब्धियों को देखकर जलते हैं। उनको अपने पास की चीजों में आनन्द नहीं आता है। वे ईर्ष्या की आग में स्वयं ही जलते हैं। ईर्ष्यालु मनुष्य विष की चलती-फिरती गठरी के समान होते हैं तथा पूरे समाज को प्रदूषित करते हैं।
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 11.
‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ रचना का मूल भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखित निबन्ध है, जो उनकी ‘अर्द्ध नारीश्वर’ पुस्तक से लिया गया है। इस निबन्ध में मानव चरित्र की भयानक बुराई ईष्र्या के बारे में बताया गया है।
लेखक ने ईष्र्यालु मनुष्य के मनोविज्ञान का विचारपूर्ण विवेचन किया है। ईष्र्यालु मनुष्य को अपने पास की चीजों के उपभोग में आनन्द नहीं आता। वह दूसरों को प्राप्त वस्तुओं को देखता है और यह सोचकर जलता है कि ये वस्तुएँ उसके पास क्यों नहीं हैं।
ईष्र्यालु मनुष्य अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति के गुणों के कारण उसकी निन्दा करता है। वह समझता है कि निंदा करने से वह गिर जायेगा तथा उसका स्थान उसे अनायास प्राप्त हो जायेगा। किन्तु ऐसा होता नहीं है।
उन्नति अपने सद्गुणों और चरित्र के विकास से ही होती है। अपनी कमियों को जानकर उनको दूर करने तथा स्वयं को प्राप्त वस्तुओं में ही सुख पाने से ही ईष्र्या की प्रवृत्ति से छुटकारा मिलता है।
प्रश्न 12.
‘चिन्ता को लोग चिता कहते हैं।’ के समर्थन में अपनी बात रखते हुए स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
दिनकर जी ने ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध में ईर्ष्या और चिन्ता की तुलना की है। दोनों ही जलाती हैं।किन्तु चिन्ता से मनुष्य तथा ईष्र्या से समाज प्रभावित होता है। चिन्ता को चिता कहते हैं। इस कथन का लाक्षणिक अर्थ यह है कि जिस प्रकार चिता में रखी वस्तु जल जाती है, उसी प्रकार चिन्ता में पड़ा मनुष्य दु:खी और पीड़ित होता है।
चिंता एक ऐसा मनोभाव है जो आदमी को समस्त सुख-चैन छीन लेता है। जब आदमी को किसी प्रकार की चिन्ता हो जाती है तो वह बेचैन हो उठता है।संसार की किसी भी चीज से उसको आनन्द नहीं आता। उस चिन्ता से मुक्त हुए बिना वह आराम से सो भी नहीं पाता।
मेरे एक परिचित हैं। उनकी पुत्री विवाह योग्य है। उसकी आयु बढ़ रही है। उनके पास विवाह के लिए धन नहीं है। जहाँ भी जाते हैं, धन की बात उठती है। इससे उनकी चिन्ता बढ़ती जा रही है। न खाना अच्छा लगता है, न नींद आती है। स्वास्थ्य गिरता जा रहा है। इससे पता चलता है कि चिन्ता को चिता क्यों कहा जाता है।
प्रश्न 13.
निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) ईष्र्या की बेटी का नाम निन्दा है……………… मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊँगा।
(ख) चिन्ता को लोग चिता कहते हैं………………..वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुंठित बना डालती है।
उत्तर:
उपर्युक्त के लिए गद्यांश-2 व 4 का अवलोकन कीजिए।
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 अन्य महत्वपूर्ण प्रोत्तर
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
1. ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध दिनकर की किस पुस्तक से लिया गया है?
(क) कुरुक्षेत्र
(ब) अर्द्धनारीश्वर
(ग) रश्मिरथी
(घ) उर्वशी
2. ईष्र्यालु मनुष्य
(क) दूसरों को प्राप्त वस्तुओं को देखकर प्रसन्न होता है।
(ख) अपने पास उपलब्ध वस्तुओं से प्रसन्न होता है
(ग) दूसरों को उपलब्ध वस्तुओं के कारण उनसे जलता है।
(घ) अपनी चीजों से ही संतुष्ट रहता है।
3. ईष्र्या की बेटी का नाम है
(अ) द्वेष
(ब) निन्दा
(ग) घृणा
(घ) पीड़ा।
4. ईष्र्या का काम है
(अ) आनन्द देना
(ब) पीड़ा देना
(स) खुशी देना
(घ) जलाना।
5. “जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं”-में ‘सुकर्म’ शब्द है
(क) प्रशंसापूर्ण
(ख) निन्दापूर्ण
(ग) अर्थपूर्ण
(घ) व्यंग्यपूर्ण
6 “पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता”कब ?
(क) जब मनुष्य के मन में ईष्र्या उत्पन्न होती है।
(ख) जब मनुष्य का मन अशान्त होता है।
(ग) जब मनुष्य बीमार होता है।
(घ) जब मनुष्य को बैंक से अपना ही पैसा नहीं मिलता।
7. जब ईष्र्या प्रेरणा देती है तो उसका यह कार्य होता है
(क) विध्वंसात्मक
(ख) विचारात्मक
(ग) रचनात्मक
(घ) विनाशात्मक।
8. “तुम्हारी निन्दा वही करेगा जिसकी तुमने भलाई की है”-इस सूत्र को कहने वाले हैं
(क) नीत्से
(ख) स्वामी विवेकानन्द
(ग) स्वामी रामकृष्ण परमहंस
(घ) ईश्वरचन्द्र विद्यासागर।
9. बड़ी हस्तियों की निन्दा करना ठीक मानते हैं
(क) जिनका दिल छेटा है
(ख) जिनकी दृष्टि संकीर्ण है।
(ग) जिनका दिल छोटा है और दृष्टि संकीर्ण है।
(घ) जिनका मस्तिष्क विचारशून्य है।
10. निन्दा करने वालों द्वारा बड़े लोगों द्वारा उत्तर में मौन रहने को समझा जाता है, उनका
(क) बड़प्पन
ख) छोटापन
(ग) असमर्थता
(घ) अहंकार।
11. ईष्र्या से बचने का उपाय है
(क) निन्दा करना
(ख) मौन रहना
(ग) मानसिक अनुशासन
(घ) बचने के लिए धन देना।
उत्तर:
1. (ख)
2. (ग)
3. (ख)
4. (घ)
5. (घ)
6. (क)
7. (ग)
8. (घ)
9. (ग)
10. (घ)
11. (ग)
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
ईष्र्या से बचने का उपाय क्या है?
उत्तर:
ईष्र्या से बचने का उपाय अपने अभावों का पता लगाना तथा उनको दूर करने का प्रयत्न करना है।
प्रश्न 2.
भारत सरकार ने रामधारी सिंह दिनकर को किस सम्मान से अलंकृत किया है?
उत्तर:
भारत सरकार ने रामधारी सिंह दिनकर को ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया है।
प्रश्न 3.
‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’, का वण्र्य विषय क्या है ?
उत्तर:
‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ का वर्ण्य विषय मानव चरित्र का भयावह दोष ईष्र्या है।
प्रश्न 4.
ईष्र्यालु मंनुष्य किससे आनन्दित नहीं होता है?
उत्तर:
ईष्र्यालु मनुष्य स्वयं की उपलब्धियों से आनन्दित नहीं होता।
प्रश्न 5.
ईर्ष्यालु मनुष्य किस कारण जलता है?
उत्तर:
ईष्र्यालु मनुष्य यह देखकर दूसरों से जलता है कि जो चीजें उनके पास हैं, वे उसके पास क्यों नहीं हैं।
प्रश्न 6.
ईष्र्यालु मनुष्य बड़ों की निन्दा क्यों करता है?
उत्तर:
ईर्ष्यालु मनुष्य समझता है कि निन्दा करने से बड़ों का पतन हो जायेगा और उनका स्थान उसको अनायास ही मिल जायेगा।
प्रश्न 7.
मनुष्य की उन्नति किस प्रकार होती है?
उत्तर:
मनुष्य की उन्नति अपने चरित्र को निर्मल बनाने तथा गुणों का विकास करने से होती है। प्रश्न 8. ईष्र्या का क्या काम है तथा वह अपना काम कहाँ से आरम्भ करती है ?
उत्तर:
ईष्र्या का काम जलाना है। सबसे पहले वह उसी को जलाती है जिसके मन में वह पैदा होती है।
प्रश्न 9.
चिन्ता को क्या कहा जाता है तथा क्यों?
उत्तर:
चिन्ता को चिता कहा जाता है क्योंकि चिता के समान चिन्ता भी जलाती है।
प्रश्न 10.
चिन्तादग्ध मनुष्य समाज की दया का पात्र क्यों है?
उत्तर:
चिन्तादग्ध मनुष्य समाज की दया का पात्र है क्योंकि समाज की दया से ही वह चिन्ता से बच सकता है।
प्रश्न 11.
चिन्ता तथा ईष्र्या में कौन अधिक बुरी है?
उत्तर:
चिन्ता और ईष्र्या में ईर्ष्या अधिक बुरी है। चिन्ता से केवल व्यक्ति प्रभावित होता है किन्तु ईष्र्या से पूरा समाज दूषित होता है।
प्रश्न 12.
ईष्र्यालु मनुष्य का सबसे बड़ा पुरस्कार क्या है?
उत्तर:
निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को बेधना और दूसरों पर हँसना ही ईर्ष्यालु मनुष्य का सबसे बड़ा पुरस्कार है
प्रश्न 13.
ईष्र्या लाभदायक कब होती है?
उत्तर:
जब ईर्ष्या से प्राप्त प्रेरणा रचनात्मक होती है और ईर्ष्यालु के दोष दूर करने में सहायक होती है तब वह लाभदायक होती है।
प्रश्न 14.
नीत्से ने मक्खियाँ किनको बताया है?
उत्तर:
नीत्से ने निन्दकों को मक्खियाँ बताया है।
प्रश्न 15.
ईष्र्यालु लोगों से बचने का उपाय क्या है?
उत्तर:
यश और प्रदर्शन से दूर एकान्त में रहकर ईर्ष्यालु लोगों से बचा जा सकता है।
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘ईष्र्या तू न गई मेरे मन से’ किस गद्य विधा की रचना है ? इसमें रचनाकार का कौन-सा रूप प्रकट हुआ है?
उत्तर:
ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध व्यंग्य नामक गद्य विधा की रचना है। यह निबन्ध प्रसिद्ध रचनाकार रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखा गया है। इसमें मानव मन के विकार ईष्र्या का विचारपूर्ण विवेचन हुआ है। इसमें दिनकर जी एक सशक्त गद्यकार के रूप में हमारे सामने आये हैं।
प्रश्न 2.
‘ईष्र्या’ क्या है ?
इस तरह के विषयों पर निबन्ध लिखने के लिए दिनकर जी से पूर्व कौन-से निबन्धकार प्रसिद्ध हैं?
उत्तर:
‘ईष्य’ मानव के मन का विकार है। ईर्ष्या, तू ने गई मेरे मन से’ दिनकर जी का मनोविकार सम्बन्धी प्रसिद्ध निबन्ध है। दिनकर से पूर्व मनोविकारों पर निबन्ध लेखन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कर चुके हैं। उनके मनोविकार सम्बन्धी निबन्ध ‘चिन्तामणि’ में संकलित हैं।
प्रश्न 3.
‘ईष्र्या, तु न गई मेरे मन से’ निबन्ध की विषयवस्तु का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
‘ईष्र्या, तु न गई मेरे मन से’ निबन्ध में लेखक ने मानव-मन के विकार ईष्र्या’ का विचारपूर्ण विवेचन किया है। इस निबन्ध में ईष्र्या की उत्पत्ति के कारण, उससे व्यक्ति और समाज को होने वाली हानि तथा ईष्र्या से मुक्त होने के उपाय के बारे में बताया गया है। इसमें ईष्र्यालु मनुष्य की प्रकृति तथा ईष्र्या से सम्बन्धित अन्य दुर्गुणों का भी उल्लेख हुआ है।
प्रश्न 4.
ईष्र्या तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध का आरम्भ किस उदाहरण से किया गया है तथा क्यों?
उत्तर:
‘ईष्र्या’, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध का आरम्भ लेखक ने अपने पड़ोसी वकील साहब के उदाहरण से किया है। लेखक उनके उदाहरण द्वारा ईष्र्यालु मनुष्य की प्रकृति का ज्ञान कराना चाहता है। वकील साहब खाते-पीते परिवार के हैं। उनकी पत्नी मधुर भाषिणी हैं, बाल-बच्चे हैं, सेवा-टहल करने वाले नौकर हैं।
वह दोस्तों को खिलाते-पिलाते हैं और सभा-सोसाइटी में भी जाते हैं परन्तु वह सुखी नहीं हैं। उनको अपने पड़ोसी बीमा एजेंट की मोटर गाड़ी, तड़क-भड़कंपूर्ण जीवन शैली तथा सम्पन्नता से ईष्र्या होती है। ईष्र्यालु मनुष्य को अपने पास की चीजों में आनन्द नहीं आता। वह दूसरों की चीजों को देखकर जलता रहता है।
प्रश्न 5.
‘ईष्र्या का यही अनोखा वरदान है’-कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘ईष्र्या’ मनुष्य का एक दुर्गुण है। इसका एक विचित्र लक्षण है। ईष्र्यालु मनुष्य स्वयं को प्राप्त संसाधनों को देखकर आनन्दित नहीं होता। उसकी दृष्टि दूसरों को प्राप्त सुख-सुविधा और संसाधनों पर रहती है। वह उनको देखकर दूसरों से जलता है। वह सोचता है कि ये सभी चीजें उसके पास क्यों नहीं हुईं ? इस प्रकार की सोच के कारण उसको अपने पास की चीजों से भी सुख नहीं मिलता।
प्रश्न 6.
यदि आपके पड़ोसी भी बीमा एजेंट जैसे कोई सज्जन होते तो उनका वैभव और जीवन शैली देखकर आप क्या करते ? सोचकर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
यदि मेरे पड़ोस में बीमा एजेंट जैसे कोई सज्जन होते, जो मोटर गाड़ी, तड़क-भड़कपूर्ण जीवन शैली और सम्पन्नता का जीवन जी रहे होते, तो मैं उनसे प्रभावित होता। मैं मन में उनसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता। मैं यह सोचकर मन में नहीं जलता कि ऐसा वैभव मेरे पास क्यों नहीं हुआ। मैं अपने व्यवसाय में और अधिक परिश्रम करता तथा अधिक धनोपार्जन करके सुख-सुविधाएँ प्राप्त करता।
प्रश्न 7.
“सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है।” कथन किसके बारे में है ? वह ऐसा क्यों करता है ?
उत्तर:
जिस मनुष्य के मन में ईष्र्या उत्पन्न हो जाती है, उसका चरित्र भयंकर हो जाता है। वह रचनात्मक विचारों से दूर हो जाता है। उसके मन में विध्वंसात्मक विचार ही आते हैं। कुछ बनाने के बजाय वह बिगाड़ने में लगा रहता है। वह दूसरों की वस्तुओं को देखकर ईष्र्या में पड़कर जलता रहता है, दूसरों की निन्दा करता है, परन्तु परिश्रम करके अपने अभावों को दूर नहीं करता वह स्वयं को प्राप्त चीजों से भी आनन्द नहीं उठाता।
प्रश्न 8.
‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध में क्या आप पाठकों के लिए कोई संदेश पाते हैं ? यदि हाँ तो वह क्या है ?
उत्तर:
‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध में मनुष्य के ईष्र्या नामक दुर्गुण के लक्षण, उससे होने वाली हानि तथा बचने के उपायों के बारे में बताया गया है। ईर्ष्या से बचने के लिए ईष्र्यालु व्यक्ति को अपने अभावों का पता करके उनकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका अपनाना चाहिए।
अप्रत्यक्ष रूप से इस निबन्ध में पाठकों के लिए भी एक संदेश निहित है। लेखक बताना चाहता है कि जीवन में उन्नति करने के लिए हमको अपने अन्दर सद्गुण उत्पन्न करने चाहिए और अपने चरित्र का विकास करना चाहिए। अभावों की पूर्ति के लिए हमको कोई रचनात्मक तरीका अपनाना चाहिए।’
प्रश्न 9.
ईष्र्या की बेटी किसको बताया गया है तथा क्यों ?
उत्तर:
निन्दा को ईर्ष्या की बेटी बताया गया है। मनुष्य के मन में किसी अन्य व्यक्ति की उपलब्धियों को देखकर उसके प्रति ईर्ष्या का भाव जन्म लेता है। ईर्ष्या के कारण वह उस व्यक्ति से जलता है और फिर उसकी बुराई करने में लग जाता है। पहले ईष्र्या पैदा होती है और उसी के कारण बाद में निन्दा की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। ईष्र्या से उत्पन्न होने के कारण निन्दा को उसकी बेटी कहा गया है।
प्रश्न 10.
मनुष्य के पतन का कारण क्या है ? आप अपने जीवन में पतन से किस प्रकार बचेंगे ?
उत्तर:
किसी के द्वारा निन्दा करने से किसी मनुष्य का पतन नहीं होता। पतन का कारण उसका अपना आचरण होता है। सद्गुणों के नष्ट होने से मनुष्य का पतन होता है। हम अपने चरित्र का विकास करके पतन से बच सकते हैं। हमें अपने अन्दर सद्गुण उत्पन्न करने चाहिए तथा अवगुणों से दूर रहना चाहिए। इस तरह अपने आचरण एवं व्यवहार को निर्मल बनाकर हम पतन से अपनी रक्षा कर सकते हैं।
प्रश्न 11.
“ईर्ष्या का काम जलाना है मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है।” इस कथन के आधार पर ईर्ष्या के मनोविज्ञान पर विचार कीजिए।
उत्तर:
ईर्ष्या मनुष्य के मन को एक दोष है। वह मानव का दुर्गुण है। इस मनोविकारे का लक्षण यह है कि दूसरों के गुण, संसाधन आदि देखकर यह किसी के मन में जन्म लेता है। ईर्ष्यालु स्वयं को प्राप्त वस्तुओं में सुख नहीं पाता उसे तो दूसरों की उपलब्धियाँ सताती और दुखी करती हैं।
इस कारण वह मन ही मन उनसे जलने लगता है। ईर्ष्या की यह जलन उसको स्वयं ही सहनी पड़ती है। ईष्र्यालु दूसरों की निन्दा करके उनको नीचे गिराना तथा उनका स्थान पाना चाहता है, परन्तु ऐसा होता नहीं है।
प्रश्न 12.
“वे निन्दा करने में संयम और शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज उनका स्थान कहाँ होता।”-इस कथन के आधार पर समझाइये कि निन्दा करने से बचना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
निन्दक किसी की निन्दा करने में प्रवृत्त होता है तो उसमें अपनी पूरी शक्ति लगा देता है। इस कार्य से वह स्वयं को रोक नहीं पाता। वह अपनी शक्ति और संयम को दुरुपयोग करता है। इससे उसी को हानि होती है।
वह अपनी शक्ति का उपयोग अपनी प्रगति और उत्थान के कार्यों में नहीं कर पाता। वह अपने लाभ की बातें न सोचकर दूसरों को हानि पहुँचाने के बारे में सोचता है। इस प्रकार निन्दा कर्म में लीन रहने के कारण वह अपना ही अहित करता है। अतः जीवन में उन्नति करने के लिए निन्दा से बचना आवश्यक है।
प्रश्न 13.
चिन्ता को चिता के समान कहने का क्या कारण है ?
उत्तर:
चिन्ता को चिता कहा जाता है। चिता में तेज आग जलाती है। उसमें गिरी हुई प्रत्येक चीज जलकर नष्ट हो जाती है। जब मनुष्य किसी भयानक चिन्ता में पड़ जाता है तो उसके मन का सुख-चैन नष्ट हो जाता है। इससे उसको शारीरिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। उसका जीवन ही खराब हो जाता है।
प्रश्न 14.
मृत्यु किस बात की तुलना में अच्छी है? क्या आप भी ऐसा ही मानते हैं?
उत्तर:
लेखक का कहना है कि ईष्र्या करने के कारण ईष्र्यालु व्यक्ति के मौलिक गुण नष्ट हो जाते हैं। गुणों के बिना जीवित रहना ठीक नहीं है। इस प्रकार के जीवन की तुलना में मृत्यु को वरण करना कहीं ज्यादा अच्छा है।
लेखक को यह विचार अनुचित नहीं है। गुणों से रहित जीवन न जीवित रहने वाले के लिए लाभदायक है और न देश, जाति और समाज के लिए ही हितकर होता है। अतः मैं इस सम्बन्ध में लेखक के मत का समर्थक हैं।
प्रश्न 15.
राक्षस को हँसी और दैत्यों को आनन्द किन बातों में आते हैं? आपके मत में मनुष्यों को हँसी कब आती है तथा आनन्द किन बातों से प्राप्त होता है?
उत्तर:
राक्षस दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर हँसते हैं। दैत्यों को भी दूसरों को सताने में आनन्द मिलता है। निन्दा के बाण से प्रतिद्वंद्वियों को बेधने का आनन्द ऐसा ही है। इसके विपरीत मनुष्यों को किसी के साथ अच्छा व्यवहार करके, उसको प्रसन्न करने में हँसी आती है। मनुष्य परोपकार करके आनन्दित होते हैं। परहित सर्वश्रेष्ठ मानव धर्म है। उससे ही मनुष्य प्रसन्न और आनन्दित होता है।
प्रश्न 16.
ईष्र्या को मनुष्य का दुर्गुण कहा जाता है। क्या आपकी दृष्टि में उससे मनुष्य को कोई लाभ भी हो सकता है? पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
ईर्ष्या मनुष्य का एक दुर्गुण है। किन्तु ईष्र्या का एक पक्ष ऐसा भी है जो मेरी दृष्टि में मनुष्य के लिए लाभदायक हो सकता है। जब मनुष्य अपने अभावों पर गम्भीरता से सोचता है और उनको दूर करने का कोई रचनात्मक तरीका अपनाता है तो ईर्ष्या लाभदायक होती है।
हर आदमी, हर दल, हर जाति अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान बनना चाहता है। ईष्र्या का सकारात्मक पक्ष ऐसा करने में उसका सहायक सिद्ध होता है। वह मनुष्य को अपनी कमियों को दूर करने तथा अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान बनने की प्रेरणा देता है।
प्रश्न 17.
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर किस तजुर्बे से होकर गुजरे? उन्होंने अपना तजुर्बा किन शब्दों में प्रकट किया?
उत्तर:
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एक विद्वान महापुरुष थे। वह लोगों का सदा हित करते थे और उनको लाभ ही पहुँचाते थे। उन्होंने अनुभव किया कि कुछ लोग उनकी निन्दा करते थे तथा उनसे ईर्ष्या का भाव रखते थे। उन्होंने अपना तजुर्बा प्रकट करते हुए कहा-तुम्हारी निन्दा वही करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है।
प्रश्न 18.
नीत्से ने बाजार की मक्खियाँ किनको कहा है तथा क्यों?
उत्तर:
नीत्से ने अपने निन्दकों को बाजार की मक्खियाँ कहा है। जिस प्रकार बाजार में मक्खियाँ खाने-पीने की चीजों पर भिनभिनाती रहती हैं, उसी प्रकार निन्दा करने वाले नीत्से की निन्दा में लगे रहते थे। वे सामने तो उसकी प्रशंसा करते थे परन्तु पीठ पीछे बुराई करते थे। उनका ध्यान हर समय नीत्से की ओर ही रहता था। अपने गुणों के कारण नीत्से सदा उनकी निन्दा के पात्र बने रहते थे।
प्रश्न 19.
निन्दकों के सम्बन्ध में नीत्से तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के विचारों में क्या समानता है? उनके सम्बन्ध में आप भी अपना मत व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
नीत्से तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के विचार निन्दकों के सम्बन्ध में समान हैं। दोनों मानते हैं कि निन्दक संकीर्ण दृष्टिकोण वाले होते हैं। वे अनुदार होते हैं। जो उनके साथ प्रेम और उदारता का व्यवहार करता है, उसी की निन्दा करते हैं।
अपनी भलाई करने वालों की निन्दा करने से भी वे नहीं चूकते। वे उपकार के बदले अपकार करते हैं। मेरा मत है कि निन्दक उसी की निन्दा करता है जिसको वह जानता है तथा जिसने कभी कठिन वक्त में उसका साथ दिया है।
प्रश्न 20.
कोई गुणी मनुष्य ही निन्दा का पात्र क्यों बनता है? क्या बुरे और गुणरहित मनुष्य की भी निन्दा होती है? इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
अपने गुणों के कारण ही गुणी मनुष्य निन्दा के पात्र बनते हैं। उनके श्रेष्ठ गुणों के कारण ही निन्दक उनसे ईष्र्या करते हैं। वे समझते हैं कि निन्दा करने से वे छोटे हो जायेंगे और उनका स्थान अनायास ही उनको प्राप्त हो जायेगा। बुरे और गुणहीन पुरुष निन्दा के पात्र नहीं होते। उनमें ऐसा कुछ होता ही नहीं है जो निन्दकों को जलाये मेरा विचार है कि उनको नीचे गिराने की बात भी अर्थहीन होती है।
प्रश्न 21.
नीत्से ने ईष्र्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय बताया है?
उत्तर:
नीत्से ने ईष्र्यालु लोगों की प्रकृति का वर्णन किया है साथ ही उनसे बचने का उपाय भी बताया है। भीड़भाड़ वाले स्थान को छोड़कर एकान्त में जाना भी ईष्र्यालु लोगों से बचाता है। अमर और महान निर्माण एकान्त में रहकर ही हो सकता है, शोरगुल और भीड़भाड़ में नहीं। विज्ञापन और प्रचार से दूर रहकर ही अमर कृति रची जा सकती है। नये मूल्यों का निर्माण भी एकान्त में तथा प्रशंसा से दूर रहकर ही होता है।
प्रश्न 22.
ईष्र्यालु मनुष्य ईष्र्या की प्रवृत्ति से कैसे मुक्त हो सकता है ?
उत्तर:
ईष्र्यालु मनुष्य मानसिक अनुशासन द्वारा ईर्ष्या से मुक्त हो सकता है। उसको यह पता करना चाहिए कि वे कौन-से अभाव हैं जिनके कारण उसमें दूसरों से ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई है। उनके बारे में जानने के बाद कमी पूरा करने का कोई रचनात्मक तरीका तलाश करना चाहिए। जब उसके मन में यह जिज्ञासा आयेगी, तभी उसके मन से ईर्ष्या की भावना दूर होगी।
प्रश्न 23.
दिनकर जी ने ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक निबन्ध में कुछ सूक्तियों का प्रयोग किया गया है। पाठ में प्रयुक्त सूक्तियाँ छाँटकर लिखिए।
उत्तर:
ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध में दिनकर जी ने कुछ सूक्तियों का प्रयोग किया है। कुछ सूक्तियाँ नीचे दी। जा रही हैं
1. ईष्र्या का यही अनोखा वरदान है।
2. ईष्र्या की बेटी का नाम निन्दा है।
3. ईष्र्या का काम जलाना है।
4. चिन्ता को लोग चिता कहते हैं।
5. चिन्तादग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है।
6. ईष्र्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है।
प्रश्न 24.
ईष्र्या, द्वेष और निन्दा के लक्षण बताइए। .
उत्तर:
ईर्ष्या, द्वेष और निन्दा मनोविकार हैं। ये मनुष्य के मन के भाव हैं। इनके लक्षण निम्नलिखित हैंईष्र्या-जब मनुष्य किसी को साधन-सम्पन्न देखकर उससे जलता है, तो उसके इस भाव को ईर्ष्या कहते हैं। ईर्ष्या के कारण उसको अपने पास की चीजों से आनन्द नहीं आता लेकिन दूसरों की चीजों को देखकर जलन होती है।
द्वेष—ईष्र्या से मिलता-जुलता भाव है। दूसरों की प्रगति देखकरे अकारण जलन होना द्वेष है।निन्दा-किसी व्यक्ति का गुण और समृद्धि आदि देखकर उसकी बुराई करना निन्दा कहलाता है। निन्दा के पात्र सभी | होते हैं। निन्दा का कोई भी कारण हो सकता है।
प्रश्न 25.
“अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है।” ऐसा कौन करता है तथा क्यों करता है?
उत्तर:
जिसके मन में ईर्ष्या घर बना लेती है वह व्यक्ति अपने अभावों पर ध्यान नहीं देता वह अभावों से मुक्त होने तथा अपनी उन्नति करने का प्रयत्न भी नहीं करता। वह तो बस दूसरों की उपलब्धियों को देख-देखकर जलता है, उनकी निन्दा करता है तथा उनको हानि पहुँचाने में लगा रहता है। ईष्र्या के कारण उसका चरित्र कुंठित हो जाता है।
प्रश्न 26.
‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक से ईष्र्या की कौन-सी प्रमुख विशेषता प्रकट होती है ?अथवा ईष्र्या को सम्बोधित करके उससे कहना—‘तू न गई मेरे मन से’ ईष्र्या की किस विशेषता को व्यक्त करता है?
उत्तर:
दिनकर द्वारा इस निबन्ध में ईर्ष्या को सम्बोधित किया गया है और उससे ‘तू न गई मेरे मन से कहा गया है। लेखक ने इस शीर्षक द्वारा मानव के मनोविकार ईर्ष्या के प्रबल प्रभावशाली होने का उल्लेख किया है।
ईष्र्या एक ऐसा शक्तिशाली मनोविकार है, जो एक बार मनुष्य के मन में पैदा होकर उसका पीछा नहीं छोड़ता। बहुत प्रयास करने पर भी उससे छुटकारा नहीं मिलता।
RBSE Class 10 Hindi Chapter 15 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध के आधार पर ईष्र्या के लक्षणों के बारे में बताइए। उससे मुक्ति प्राप्त करने के उपायों का भी उल्लेख कीजिए।अथवा ईष्र्या की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए?
उत्तर:
मानव के मन में अनेक विकार होते हैं। ईष्र्या उनमें से एक शक्तिशाली मनोविकार है। जब किसी मनुष्य के मन में ईष्र्या उत्पन्न होती है तब वह जीवन के सुखों से दूर हो जाता है। ईश्वर ने उसको जो सुख-सुविधाएँ प्रदान की हैं, उनमें उसको कोई आनन्द नहीं आता। उसकी दृष्टि सदा दूसरों की उपलब्धियों का पीछा करती रहती है।
वह दूसरों को प्राप्त संसाधनों को देखता है तो उसकी छाती पर साँप लोटने लगता है। वह सोचता है कि ये सभी संसाधन उसके क्यों नहीं हुए।वह यही सोचकर दूसरे मनुष्यों से जलने लगता है।इस जलने को ही ईर्ष्या कहते हैं। ईर्ष्या का अनोखापन यह है कि ईर्ष्यालु को अपनी उपलब्धियाँ सुख नहीं देतीं, दूसरों की उपलब्धियाँ उसे दु:ख देती हैं।
ईर्ष्या की आग जिसके मन में पैदा होती है, वही उसमें जलता है।ईष्र्या की प्रवृत्ति से बचने के लिए व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को यह पता लगाना चाहिए कि उसके जीवन में ऐसे कौन से अभाव हैं जिनके कारण वह अन्य लोगों से ईष्र्या करता है। इन अभावों की पूर्ति उसे रचनात्मक ढंग से करनी चाहिए। तभी वह ईष्र्या की भावना से मुक्त हो सकेगा।
प्रश्न 2.
निबन्ध ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से स्वाभाविक मानवीय कमजोरियों पर दृष्टिपात कराने में समर्थ है-इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
‘ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ रामधारी सिंह दिनकर द्वारा मानव मनोविकार के सम्बन्ध में लिखा हुआ निबन्ध है। इस निबन्ध में लेखक ने मनुष्य के मन के ईष्र्या नामक विकार पर विचार किया है। ईर्ष्या मनुष्य के मन की स्वाभाविक कमजोरी है। ईर्ष्या से जुड़ी हुई कुछ अन्य कमजोरियाँ निन्दा, द्वेष आदि हैं। ईष्र्यालु मनुष्य अपने पास उपलब्ध संसाधनों से सुख न पाकर दूसरों के संसाधनों को पाने की लालसा में पड़ा रहता है।
उनको न पाकर वह दूसरों से जलता है। वह उनसे द्वेष मानता है तथा उनकी निन्दा करता है। ईर्ष्या के कारण ही निन्दा की आदत उत्पन्न होती है। दिनकर ने मनुष्य के मन की ईष्र्या, द्वेष, निन्दा आदि कमजोरियों का सफल विवेचन इस निबन्ध में किया है।
इसका भाव पक्ष अत्यन्त प्रभावशाली तथा सशक्त है। इन मनोविकारों के मानवे मन से उत्पन्न होने के कारण उनके लक्षणों और परिणाम आदि का मनोवैज्ञानिक विवेचन सफलतापूर्वक इस निबन्ध में हुआ है।
भाव ही नहीं भाषा में भी लेखक के उद्देश्य को सफल बनाने में पूरा योगदान किया है। लेखक ने तत्सम शब्दों के साथ उर्दू (गुबार, दिल, बनिस्बत, जहर आदि), अंग्रेजी (ग्रामोफोन) आदि भाषाओं के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया है।
मुहावरों (गुबार निकालना, सिर खुजलाना आदि) के प्रयोग ने भाषा की शक्ति तथा प्रभाव में वृद्धि की है। इससे मानवीय दुर्बलताओं के प्रति सही-सही दृष्टिकोण विकसित होता है।
प्रश्न 3.
ईष्र्या मनुष्य के मन का एक शक्तिशाली मनोविकार है। क्या आपकी दृष्टि में कोई अन्य मनोविकार भी इतना ही शक्तिशाली है?
उत्तर:
ईष्र्या मनुष्य के मन को एक शक्तिशाली विकार है। ईष्र्या की भावना जब किसी के मन में पैदा होती है तब वह उससे इस तरह जकड़ जाता है कि उससे मुक्त नहीं हो पाता। ईष्र्या के साथ ही निन्दा, द्वेष आदि बुराइयाँ भी उसको घेर लेती हैं। निन्दा, द्वेष आदि मनोविकार ईष्र्या की कार्य-सम्पन्नता में सहायक होते हैं तथा उसकी शक्ति को बढ़ाते हैं।
हमारी दृष्टि में ईष्र्या के समान ही शक्तिशाली एक अन्य मनोविकार क्रोध है। यह ईष्र्या के समान ही नहीं ईष्र्या से भी अधिक प्रबल है।जब मनुष्य को क्रोध आता है तो उसका विवेक नष्ट हो जाता है। क्रोध के आवेग में वह उचित-अनुचित का विचार न करके जो कहता-करता है उसके वे कार्य मनुष्यता के अन्तर्गत नहीं आते।
क्रोध में आकर वह तेज आवाज में अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करके बोलता है, चीजों को फेंकता है, तोड़ता-फोड़ता है तथा अपने विरोधी के साथ मारपीट भी करता है। कभी क्रोधवश वह दूसरे की हत्या तक कर देता है। बाद में अपने काम पर पछताता भी है परन्तु पछतावे से कुछ लाभ नहीं होता।
प्रश्न 4.
ईष्र्या और निन्दा में क्या सम्बन्ध है ? यदि ईष्र्या न होती तो निन्दा का क्या होता ? सोचकर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
ईर्ष्या के कारण ही निन्दा उत्पन्न होती है। निन्दा को ईर्ष्या की बेटी कहा जाता है। जब मनुष्य के मन में ईर्ष्या का उदय होता है तो उसके बाद ही निन्दा भी उत्पन्न होती है। ईष्र्यालु मनुष्य निन्दक भी होता है।
वह दूसरों को जब साधन सम्पन्न देखता है, तो सोचता है कि ये साधसम्पन्नता उसके पास क्यों नहीं है? इस कारण वह उनसे जलता है और उनकी बुराई करता है। बुराई करना ही निन्दा है।इससे स्पष्ट है कि पहले ईष्र्या उत्पन्न होती है तथा ईष्र्या से निन्दा की प्रवृत्ति पैदा होती है।
यदि ईष्र्या न होती तो निन्दा भी न होती। यदि मनुष्य किसी से ईर्ष्या नहीं करेगा तो उसकी निन्दा करने की आवश्यकता भी उसे नहीं होगी। न वह किसी के सद्गुणों को देखकर जलेगा और न किसी की बुराई करेगी।
जब मनुष्यअपने पास किसी वस्तु के न होने पर उसको पाने के लिए श्रम करता है और सकारात्मक कदम उठाता है तो उसके मन में ईष्र्या पैदा नहीं होती और निन्दा की भावना भी जन्म नहीं लेती।
प्रश्न 5.
दिनकर एक सशक्त गद्यकार हैं। ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध के आधार पर सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
रामधारी सिंह दिनकर एक महान लेखक तथा प्रसिद्ध कवि हैं। उनके खण्डकाव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान प्राप्त है। उनके महाकाव्य ‘उर्वशी’ को ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। मैथिलीशरण गुप्त के बाद वे राष्ट्रकवि रह चुके हैं।दिनकर जी एक महान कवि ही नहीं सफल गद्यकोर भी हैं।
‘संस्कृति के चार अध्याय’ तथा ‘भारतीय संस्कृति की। एकता’ में भारतीय संस्कृति की विशेषताओं पर विचार किया गया है। ‘अर्द्धनारीश्वर’ में उनके निबंध संकलित हैं।’शुद्ध कविता की खोज में उनका सफल समालोचक स्वरूप दिखाई देता है।‘ईष्र्या, तू ने गई मेरे मन से’ दिनकर जी का मनोविकार सम्बन्धी निबन्ध है।
इस निबन्ध में लेखक ने मानव मन की कमजोरियों ईष्र्या, द्वेष, निन्दा आदि का विवेचन किया है। मनोविकार सम्बन्धी यह निबन्ध आचार्य शुक्ल के द्वारा रचित निबंधों के समय से ही महत्वपूर्ण है।दिनकर एक सफल निबन्धकार और समालोचक हैं।वह एक सशक्त गद्यकार हैं। उनकी भाषा विषयानुकूल, तत्सम शब्द प्रधान तथा बोधगम्य है।
उसमें अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों तथा मुहावरों का प्रयोग भी हुआ है। दिनकर ने वर्णनात्मक तथा विवेचनात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। बीच में व्यंग्य शैली भी प्रयुक्त हुई है। प्रस्तुत निबन्ध में सूक्ति कथन के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। भाषा शैली तथा वर्क्स विषय पर उनका पूर्णाधिकार है।
प्रश्न 6.
चिन्ता से जले हुए और ईष्र्या से जले हुए मनुष्यों में से लेखक की सहानुभूति किसके प्रति है तथा क्यों ? यदि ऐसे दो आदमी आपको मिलें तो आपकी दया का पात्र कौन होगा ?
उत्तर:
चिन्ता में जले हुए तथा ईष्र्या से जले-भुने मनुष्यों में से लेखक की सहानुभूति चिन्ताग्रस्त व्यक्ति के साथ है, जिसको किसी प्रबल चिन्ता ने जकड़ लिया है, उसका जीवन ही खराब हो जाता है। उसको सोते-बैठते कभी शान्ति नहीं मिलती। रात-दिन चिन्ता में पड़ा रहता है। चिन्ताग्रस्त रहने से उसका मन ही नहीं तन भी प्रभावित होता है।
उसका स्वास्थ्य गिरने लगता है और रोग उसको घेर लेते हैं।उसकी ऐसी दशा देखकर ही लेखक ने कहा है-“चिन्तादग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है।”लेखक की सहानुभूति चिन्ताग्रस्त व्यक्ति के प्रति है।चिन्ता में पड़ा मनुष्य किसी को हानि नहीं पहुँचाता। वह किसी की बुराई भी नहीं करता। वह तो स्वयं ही पीड़ित होता है।
इसके विपरीत ईष्र्याग्रस्त मनुष्य अपने पास के साधनों से आनन्दित न होकर दूसरों के वैभव आदि को देखकर जलता हैतथा उसकी निन्दा करता है। वह अपने कार्यों और स्वभाव से समाज को प्रदूषित करता है। अपनी उन्नति पर ध्यान न देकर वह दूसरों को हानि पहुँचाता है।यदि ऐसे दो आदमी मेरे सम्पर्क में आयेंगे तो निश्चय ही मैं चिन्तादग्ध मनुष्य की सहायता करूंगी। वही मेरी दया का पात्र होगा।
प्रश्न 7.
‘निन्दा’ नामक मनोविकार का परिचय देते हुए उसके बारे में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
‘निन्दा’ मनुष्य के मन का एक विकार है। यह ईर्ष्या के समान ही उसका एक दुर्गुण है। ईष्र्या से ग्रस्त व्यक्ति दूसरों की उपलब्धियों से जल-भुन कर उसकी निन्दा के जल से अपनी जलन शान्त करना चाहता है। वह महान् पुरुषों तथा गुणीजनों की बुराई करके समझता है कि ऐसा करने से वे पतित तथा वह उन्नत हो जायेगी।
बुराई करने की इस आदत को ही निन्दा कहते हैं।किसी के गुण ही उसकी निन्दा का कारण बनते हैं परन्तु यह आवश्यक नहीं है।निन्दा से कोई नहीं बचता।निन्दक मौन रहने वाले, बहुत बोलने वाले तथा न कम और न ज्यादा बोलने वाले (मितभाषी)-सभी की निन्दा समान भाव से करता। है।
प्रसिद्ध कवि कबीर निन्दक को दोषों को परिमार्जक का दर्जा देते हैं तथा उसको अपने पास ही रहने देने की सलाह देते हैं। (निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय ।) निश्चय ही निन्दा सुनकर अपनी भूलों को सुधारने वालों के लिए निन्दा लाभदायक ही होती है। मेरा मानना है कि निन्दा से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
लेखक परिचय
प्रश्न 1.
लेखक रामधारी सिंह दिनकर के जीवन तथा साहित्यिक क्रियाकलापों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
जीवन-परिचय-रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 1908 ई. में बिहार में मुंगेर जिले के सिमरिया घाट नामक गाँव में हुआ था। आपके पिता किसान थे। आपने पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. आनर्स किया। आपने प्रधानाचार्य, उपनिदेशक, हिन्दी विभागाध्यक्ष, कुलपति, आकाशवाणी के निदेशक और हिन्दी समिति के सलाहकार के रूप में कार्य किया। आप राज्यसभा के सदस्य रहे। 1974 ई. में आपका देहावसान हो गया।
साहित्यिक परिचय-दिनकर हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि हैं। मैथिलीशरण गुप्त के बाद उनको राष्ट्रकवि का गौरव प्राप्त हुआ है। गद्य पर भी आपका पद्य के समान अधिकार है। आप श्रेष्ठ कवि, निबन्धकार तथा समालोचक हैं। आपकी साहित्य सेवा के लिए आपको ‘पद्मभूषण’, साहित्य अकादमी तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
कृतियाँ-पद्य-कुरुक्षेत्र, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, रश्मिरथी इत्यादि। गद्य-संस्कृति के चार अध्याय, भारतीय संस्कृति की एकता, अर्धनारीश्वर, शुद्ध कविता की खोज इत्यादि।
पाठ-सार
प्रश्न 2.
‘ईष्र्या तू न गई मेरे मन से’ पाठ का सारांश लिखिए।
उत्तर-
पाठ-परिचय-ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से’ निबन्ध में दिनकर जी ने मनुष्य के मन के भयावह दोष ईर्ष्या के सम्बन्ध में बताया है। इसमें ईर्ष्यालु व्यक्ति के चरित्र पर मनोवैज्ञानिक तरीके से प्रकाश डाला गया है। ईर्ष्यालु मनुष्य अपनी उपलब्धियों पर प्रसन्न न होकर दूसरों की उपलब्धियों से चिढ़ता और उससे ईर्ष्या करता है। मानसिक अनुशासन से ही ईर्ष्या की आदत से मुक्ति मिल सकती है। यह निबन्ध दिनकर की ‘अर्द्धनारीश्वर’ पुस्तक से संकलित है।
ईष्र्यालु व्यक्ति का मनोविज्ञान-ईष्र्या मनुष्य के मन का एक भाव है। ईष्र्यालु मनुष्य स्वयं की उपलब्धियों से आनन्दित नहीं होता। उसको दूसरों की उपलब्धियों को देखकर कष्ट होता है। अच्छे मित्र, मृदुभाषिणी पत्नी, बाल-बच्चों वाला भरा-पूरा परिवार, आज्ञाकारी सेवक होते हुए भी लेखक के पड़ोसी वकील साहब खुश नहीं हैं। उनको अपने पड़ोसी बीमा एजेन्ट के बारे में मोटर, मासिक आय और तड़क-भड़क देखकर ईर्ष्या होती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपने अभाव तथा दूसरे को समृद्धि पर सोचते-सोचते अपनी उन्नति का विचार छोड़ दूसरों के विनाश में लग जाता है।
ईष्र्या और निन्दा-ईर्ष्या से निन्दा की प्रवृत्ति का जन्म होता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरे की निन्दा करके उसे छोटा और नीचा बताना चाहता है। ईष्र्या के कारण वह मन ही मन जलता रहता है। उसका मन द्वेष से भरा रहता है। निन्दा करने वाले को अपनी बात सुनने वाले की तलाश रहती है। अवसर मिलते ही वह निन्दा कर्म आरम्भ कर देता है। वह दूसरों की प्रगति से चिन्तित हो उठता है।
चिंता की चिता-चिंता चिता के समान है। किसी प्रबल चिंता से ग्रस्त व्यक्ति जीवनभर स्वयं जलता रहता है। वह दया का पात्र है किन्तु ईष्र्यालु व्यक्ति सामाजिक वातावरण को दूषित करता है। ईष्र्या मनुष्य के मौलिक गुणों को नष्ट कर देती है। ईष्र्यालु व्यक्ति को दूसरों की निन्दा करके जो आनन्द मिलता है, वह राक्षस का आनन्द है।
ईष्र्या का लाभ-ईष्र्या का लाभदायक पक्ष भी है। यदि ईर्ष्या से दूसरों की उन्नति देखकर स्वयं को आगे बढ़ाने की प्रेरणा मिले तो ईष्र्या रचनात्मक और लाभदायक हो सकती है। परन्तु ईर्ष्यालु मनुष्य की सोच ऐसी नहीं होती।
महापुरुष और निन्दक-ईष्र्यालु मनुष्यों की निन्दा से महापुरुष भी नहीं बचे हैं। वे सामने उनकी प्रशंसा करते हैं किन्तु पीठ पीछे निन्दा करने से नहीं चूकते। ईर्ष्यालु अपना उपकार करने वाले की भी निन्दा करता है। उनका दिल तथा दृष्टिकोण छोटा होता है तथा बड़ों की बुराई करना वे उचित मानते हैं। बड़ों के प्रेम, उदारता और भलमनसाहत के व्यवहार का उत्तरे ईर्ष्यालु उनको उनसे घृणा करके देते हैं। निन्दक को उत्तर न देकर चुप रहने को भी ईष्र्यालु महापुरुषों का अहंकार मानते हैं। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा नीत्से भी निन्दा से नहीं बच सके हैं।
ईष्र्या से बचाव-मानसिक अनुशासन ही ईर्ष्या से बचा सकता है। ईर्ष्यालु को विचार करके पता लगाना चाहिए कि अपने किस अभाव के कारण वह ईष्र्यालु बन गया है। यह मालूम होने के बाद उसको उस अभाव की पूर्ति के रचनात्मक उपाय करने चाहिए। जिस दिन ईष्र्यालु व्यक्ति के मन में यह जिज्ञासा पैदा होगी उसी दिन से उसका ईष्र्या करने का स्वभाव बदल जायेगा।
पाठ के कठिन शब्द और उनके अर्थ।
(पृष्ठ सं. 83)
खाने पीने में अच्छे = खाने पीने का अभाव न होना। मृदुभाषिणी = मीठी बोली बोलने वाली। दाह = जलन। दरअसल = वास्तव में। वैभव = धन-सम्पत्ति। तड़क-भड़क = शान-शौकत। ईष्र्या = दूसरों की प्रगति से जलने की भावना। दंश = डंक, चुभन। वेदना = पीड़ा। उपवन = उद्यान; सुखी जीवन। निमग्न रहना = डूबे रहना। अभाव = कमी। सृष्टि = रचना, निर्माण प्रक्रिया = तरीका, ढंग। उद्यम = प्रयत्न, उद्योग। निन्दा = बुराई करना। निन्दक = दूसरों की बुराई करने वाला। आँखों में गिरना = सम्मान कम होना। अनायास = बिना प्रयास। सदगुण = अच्छाइयाँ, आदतें और विचार। ह्रास = हानि होना, घटना। निर्मल = स्वच्छ, दोषहीन। विकास = वृद्धि। द्वेष = दूसरों की उन्नति से जलना। साकार मूर्ति = सजीव स्वरूप। फिक्र = चिंता।
(पृष्ठ सं. 84)
दिल का गुबार निकालना = मन में छिपी बुराई करने की इच्छा को प्रकट करना, निंदा, बुराई करना। श्रोता = सुनने वाला। ग्रामोफोन = एक यंत्र जिससे रिकार्ड की हुई बातें गीत आदि सुनते हैं। काण्ड = घटना। कल्याण = भलाई। ध्येय = लक्ष्य। सुकर्म = अच्छा काम (निन्दा के लिए व्यंग्य)। संयम = आत्मनियंत्रण। अपव्यय = अनुचित उपयोग। प्रचंड = प्रबल, शक्तिशाली। बदतर = ज्यादा बुरी। मौलिक = जन्मजात। कुंठित = निस्तेज, प्रभावहीन। बनिस्बत = तुलना में। चिंतादग्ध = चिंता से जलने वाला। पात्रे = अधिकारी। दूषित = अस्वच्छ। प्रत्युत = अपितु। बाधा = विघ्न, रुकावट। उदय होना = प्रकट होना। मद्धिम-सा = धीमा, कम प्रभावशाली। बाण = तीर। प्रतिद्वन्द्वी = विरोधी। बेधकर = घायल करके। पुरस्कार = इनाम। दैत्य = दुष्ट पक्ष = पहलू। समकक्ष = समान स्थिति वाला। प्रेरणा = कुछ करने की उत्तेजना।। रचनात्मक = निर्माण करने वाली। अक्सर = प्रायः। समकालीन = अपने समय से सम्बन्धित। शरीफ = सज्जन। सिर खुजलाना = जानने का प्रयत्न करना। फलाँ = अमुक। कदर = प्रकार।
(पृष्ठ सं. 85)
पाक-साफ = पवित्र, दोषरहित। दुर्भावना = बुरा विचार। पीछे पड़ना = परेशान करना। एब = दोष। तजुर्बा = अनुभव। गुजरे = निकले। तजुर्बे से गुजरे = अनुभव किया। सूत्र = आदर्श वाक्य। कूचा = गली। ठहाका लगाना = हँसना। यार = मित्र। अकारण = बिना वजह। प्रशंसा = तारीफ। खुद = स्वयं। दृष्टि = निगाह। संकीर्ण = कम चौड़ी, छोटी। हस्तियाँ = मनुष्य। प्रीति = प्रेम। भलमनसाहत = भलाई। बर्ताव = व्यवहार। अपकार = बुराई। दरअसल = वास्तव में। चुप्पी साधना = मौन रहना। अहंकार = घमंड। धरातल = स्तर। धरातल पर उतरकर = समान बनकर। भागीदार = हिस्सेदार। निचोड़कर = तत्व अथवा सार ग्रहण कर। बाजार का सुयश = प्रचार। मूल्य = आदर्श। शोहरत = यश, प्रशंसा।
(पृष्ठ सं. 86)
मानसिक = मन सम्बन्धी। अनुशासन = नियंत्रण। फालतू = बेकार। अभाव = कमी। पूर्ति = पूरा करना। तरीका = ढंग, उपाय। जिज्ञासा = जानने की इच्छा।
महत्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या।
1. ईष्र्या का यही अनोखा वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईष्र्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाती जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता है जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते हैं। देश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईष्र्यालु मनुष्य करें भी तो क्या ? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी ही पड़ती है।
(पृष्ठ सं. 83)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘ई, तू ने गई मेरे मन से’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। लेखक ने मनुष्य के मनोविकार ईर्ष्या की विशेषताओं तथा लक्षणों का उल्लेख करते हुए उसे आदमी का एक दुर्गुण निरूपित किया है। ईष्र्याग्रस्त व्यक्ति स्वयं को प्राप्त वस्तुओं से सुखी नहीं। होता। वह दूसरों को प्राप्त चीजों से दुखी होता है।
व्याख्या-लेखक कहता है कि ईष्र्या की यही विचित्र देन है कि वह मनुष्य को पराई उपलब्धियों को देखकर दु:खी होना सिखाती है। जिस मनुष्य के मन में ईष्र्या का भाव उत्पन्न हो जाता है, उसको उन चीजों की प्राप्ति से खुशी नहीं मिलती, जो उसके पास होती हैं। अपनी उपलब्धियों पर वह प्रसन्न नहीं होता। वह दूसरों की उपलब्धियों से दुखी होता है। जो चीजें दूसरों के पास होती हैं उनसे वह दुःखी होता है। वह अपनी तुलना दूसरों से करता है। वह सोचता है कि ये चीजें उसके पास क्यों नहीं हैं। यह कमी उसके मन में चुभने लगती है। इस चुभन से पैदा होने वाली जलन को सहना अच्छा नहीं है। परन्तु ईष्र्यालु व्यक्ति इस जलन को सहने को विवश होता है। दूसरों के पास की चीजों को देखकर दु:खी होना उसकी आदत बन। जाती है। विवश होकर उसको यह पीड़ा सहनी ही पड़ती है।
विशेष-
(i) ईर्ष्या दूसरों के गुणों, यश, सम्पत्ति, वैभव, सम्मान आदि को देखकर होती है।
(ii) मनुष्य अपने पास वैसी ही अथवा उनसे श्रेष्ठ चीजों के होने पर भी प्रसन्न नहीं होता है।
(iii) इस लक्षण को लेखक ने ईष्र्या का विचित्र वरदान कहा है।
(iv) ईष्र्या की भावना का मनोविज्ञान के अनुसार विवेचन हुआ है।
(v) भाषा तत्समप्रधान तथा बोधगम्य है। शैली विवेचनात्मक है।
2. ईर्ष्या की बेटी का नाम निन्दा है, जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है वही बुरे किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों की निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जाएँगे और जो स्थान है। उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊँगा। मगर ऐसा न ‘आज तक हुआ है और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कही जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा गुणों का विकास करे।
(पृष्ठ सं. 83)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। लेखक कहता है कि मनुष्य ईश्वर से प्राप्त वस्तुओं का आनन्द न उठाकर उन चीजों के लिए दु:खी होता है जो उसको प्राप्त नहीं हुई हैं। वह अपने अभावों पर हर समय विचार करता है और कष्ट उठाता है। किसी मनुष्य को अपने से अधिक गुणी और सम्पन्न देखकर वह उससे जलता है तथा उसकी बुराई करता है।
व्याख्या-लेखक कहता है कि निन्दा ईष्र्या की बेटी है। आशय यह है कि ईर्ष्या से ही निन्दा का जन्म होता है। जो व्यक्ति ईष्र्याग्रस्त होता है, उसको दूसरों की बुराई करने की आदत बन जाती है। इसी को निन्दा करना कहते हैं। वह समझता है कि किसी की निन्दा करके वह उसके दोस्तों अथवा जनता की दृष्टि में उसका सम्मान कम कर देगा। उनका सम्मान घटेगा तो वह सम्मान बिना किसी प्रयास के उसको प्राप्त हो जायेगा। उसकी ऐसी सोच लेखक की दृष्टि में ठीक नहीं है। ऐसा कभी पहले नहीं हुआ है और आगे भी नहीं होगा। दूसरों को गिराकर कोई भी मनुष्य आगे नहीं बढ़ सकता। दूसरी बात यह है कि किसी के द्वारा बुराई करने से कोई नीचे नहीं गिरता। अपने अच्छे गुणों को त्यागने के कारण ही मनुष्य दूसरों की दृष्टि में नीचे गिरता है। इसी तरह कोई मनुष्य दूसरों की बुराई करने से ऊपर नहीं उठता। उन्नति का सम्बन्ध श्रेष्ठ गुण और पवित्र चरित्र से होता है। मनुष्य अपने चरित्र तथा गुणों का विकास करके ही उन्नति कर सकता है, किसी गुणवान मनुष्य की बुराई करके नहीं।
विशेष-
(i) ईष्र्या से निन्दा की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।
(ii) श्रेष्ठ और गुणी लोगों की निन्दा करके कोई मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता।
(iii) भाषा सरल, विषयानुकूल और सजीव है।
(iv) शैली विवेचनात्मक है। सूक्ति कथन शैली को भी अपनाया गया है, जैसे- ”ईष्र्या की बेटी का नाम निन्दा है।”
3. ईष्र्या का काम जलाना है मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं मानो विश्व कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। अगर जरा अपने इतिहास को देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है, तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में संयम और शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज उनका स्थान कहाँ होता।
(पृष्ठसं. 83-84)
संदर्भ व प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक निबंध से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। दिनकर जी ने ईष्र्या के दुर्गुण की विवेचना की है। ईर्ष्या का भाव मन में उत्पन्न होने पर मनुष्य दूसरों के पास उपलब्ध वस्तुओं को देखकर जलने लगता है। इस जलन की पीड़ा भी वह स्वयं ही सहता है।
व्याख्या-ईर्ष्या की प्रवृत्ति पर विचार करते हुए लेखक कहता है कि जलाना ईर्ष्या का काम है। सबसे पहले वह उसी मनुष्य को जलाती है जिसके मन में वह पैदा होती है। कुछ लोगों को ईर्ष्या करने की आदत बन जाती है। वे हर समय ईष्र्या-द्वेष की बातें करते रहते हैं। उनको ऐसे लोगों की तलाश करने की चिन्ता रहती है जो उनकी द्वेषभरी बातों को सुन सके और उनको अपने मन में भरी बुराइयों को बाहर निकालने तथा दूसरों की निन्दा करने का मौका मिल सके। वे ईष्र्या-द्वेष की जीती-जागती उनकी प्रतिमा होते हैं। लेखक याद दिलाता है कि ऐसे अनेक लोगों को हमें भी जानते होंगे। ऐसे ईष्र्यालु मनुष्यों को जैसे ही अपनी बातें सुनने वाला कोई व्यक्ति मिलता है, वे परनिन्दा का प्रवचन शुरू कर देते हैं। वे उसकी बुराई करते हुए एक-एक घटना को चतुराई के साथ सुनाते हैं। वे ऐसा प्रकट करते हैं जैसे कि उसकी बुराई करके वे संसार की भलाई का कोई श्रेष्ठ काम कर रहे हों। लेखक चाहता है कि हम उनके जीवन का इतिहास देखें और यह जानने का प्रयत्न करें कि जब से उन्होंने परनिन्दा करने का यह सत्कर्म शुरू किया है, उन्होंने अपने जीवन में कितनी उन्नति की है अथवा वे पतन की ओर बढ़े हैं। स्पष्टतया वह इससे जीवन में कोई प्रगति नहीं कर सके हैं। यदि वे दूसरों की बुराई करने से स्वयं को बचाते और अपनी शक्ति इसमें नष्ट न करते तो निश्चय ही वे अपने जीवन में बहुत प्रगति करते।
विशेष-
(i) दूसरों की निन्दा करने से मनुष्य को आगे बढ़ने में सहायता नहीं मिलती बल्कि उसका पतन ही होता है।
(ii) ईष्र्या की आग में खुद ईष्र्यालु ही जलता है।
(iii) भाषा सरल तथा विषयानुकूल है।
(iv) शैली विचार-विश्लेषणात्मक है। उसमें वार्तालाप शैली का पुट है।
4. चिन्ता को लोग चिता कहते हैं। जिसे किसी प्रचंड चिंता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की जिन्दगी ही खराब हो जाती है, किन्तु ईष्र्या शायद फिर चिन्ता से भी बदतर चीज है क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुंठित बना डालती है।। मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ है बनिस्बत इसके कि हमें अपने गुणों को कुंठित बनाकर जीना पड़े, चिंतादग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है, किन्तु ईष्र्या से जल-भुना आदमी जहर की चलती-फिरती गठरी के समान है जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।
ईष्र्या मनुष्य का चारित्रिक दोष नहीं है। प्रत्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पड़ती है। जब भी मनुष्य के हृदय में ईष्र्या का उदय होता है, सामने का सुख उसे मद्धिम-सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं मानो वे देखने के योग्य ही नहीं हों।
(पृष्ठ सं. 84)
संदर्भ व प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। यह निबन्ध उनकी प्रसिद्ध रचना ‘अर्द्ध-नारीश्वर’ में संकलित है।
लेखक ने मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाले ईष्र्या नामक विकार का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। उसने ईष्र्या को एक ऐसी आग बताया है जो ईष्र्यालु को ही जलाती है। उसने ईर्ष्या की तुलना चिन्ता से की है तथा उसको चिन्ता से भी भयानक और कष्टप्रद बताया है।
व्याख्या-लेखक दिनकर कहते हैं कि चिन्ता को चिता कहा जाता है। चिता में पड़ी वस्तु कुछ ही देर में भस्म हो जाती है। किसी मनुष्य के मन में जब कोई प्रबल चिन्ता उत्पन्न होती है, तो वह भयानक प्रभाव से बच नहीं पाता और उसके जीवन का सुख नष्ट हो जाता है। चिन्ता उसके जीवन को खराब कर देती है। चिन्ता से भी ज्यादा बुरी ईर्ष्या होती है। ईर्ष्या के कारण मनुष्य के चरित्र के जन्मजात गुण नष्ट हो जाते हैं और वह बुराइयों में फंस जाता है।
किसी व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो जायें और वह बुराइयों के फेर में पड़ जाये, इससे तो उसका मरना ज्यादा अच्छा है। चिन्ता में पड़े हुए मनुष्य को समाज से दया पाने का अधिकार है। समाज को उसे चिन्तामुक्त करने की दया दिखानी भी चाहिए। किन्तु ईष्र्यालु व्यक्ति पर दया करने की आवश्यकता नहीं है। ईष्र्याग्रस्त व्यक्ति किसी विषपूर्ण चलती-फिरती गठरी जैसा होता है। वह जहाँ भी जाता है अपने दुर्गुण से सामाजिक वातावरण को दूषित कर देता है।
लेखक ने ईष्र्या को मनुष्य के चरित्र को बुराई नहीं माना है। ईष्र्या मनुष्य को जीवन का आनन्द नहीं उठाने देती। जब किसी के मन में ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होती है तो उसे अपने पास की चीजें सुखदायक नहीं लगतीं। उनसे सुख मिलना बन्द हो जाता है। उसे न पक्षियों की चहचहाहट मीठी लगती है न फूल सुन्दर और सुगंधित प्रतीत होते हैं। वे उसके देखने योग्य भी नहीं लगते।।
विशेष-
(i) चिन्ता और ईर्ष्या की तुलना की गई है।
(ii) ईर्ष्या को चिन्ता से भी ज्यादा हानिकारक बताया गया है।
(iii) चिन्ता व्यक्ति को तथा ईष्य समाज को प्रभावित करती है।
(iv) भाषा बोधगम्य है तथा शब्द-चयन में सजगता देखी जा सकती है।
(iv) शैली विवेचनात्मक हैं।
5. ईष्र्या का एक पक्ष सचमुच ही लाभदायक हो सकता है जिसके अधीन हर आदमी, हर जाति, और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वन्द्वी का समकक्ष बनाना चाहता है, किन्तु यह तभी सम्भव है जबकि ईष्र्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो।
अक्सर तो ऐसा ही होता है कि ईष्र्यालु व्यक्ति यह महसूस करता है कि कोई चीज है जो उसके भीतर नहीं है। कोई वस्तु है जो दूसरों के पास है, किन्तु वह यह नहीं समझ पाता कि इस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है, जबकि ये लोग भी अपने आप से शायद वैसे ही असंतुष्ट हों।
(पृष्ठ सं. 84)
संदर्भ व प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक निबन्ध से उधृत है। इसके लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। दिनकर जी ने ईष्र्या को मनुष्य का एक ऐसा दुर्गुण बताया है जो उसको जीवन के आनन्द से वंचित कर देता है। ईर्ष्या एक ऐसी आग है जो उसी को जलाती है जिसके हृदय में वह उत्पन्न होती है। अत: उससे बचकर मनुष्य को अपने चरित्र और सद्गुणों का विकास करना चाहिए।
व्याख्या-लेखक ने ईष्र्या को मनुष्य का एक दोष तथा उसको हानि पहुँचाने वाला दुर्गुण बताया है किन्तु यह भी माना है कि ईष्र्या का एक पक्ष ऐसा भी होता है जो मनुष्य को लाभ पहुँचा सकता है। ईर्ष्या प्रत्येक मनुष्य, जाति तथा दल को अपने प्रतियोगी के समान बनने और आगे बढ़ने में सहायक हो सकती है। यह ईर्ष्या का प्रेरणास्पद स्वरूप है। यदि यह प्रेरणा रचनात्मक हो तो यह दुर्गुण भी मनुष्य के लिए हितकारी हो सकता है।
प्रायः मनुष्य के मन में जब ईष्र्या उत्पन्न होती है, तो वह सोचता है कि कुछ है जो उसके पास नहीं है। कोई चीज है जो दूसरों के पास है और वह उससे वंचित है। उस वस्तु को वह किस तरह प्राप्त करे यह बात वह नहीं समझ पाता। इस कारण उसके मन में क्रोध उत्पन्न होता है और वह अपने किसी पड़ोसी, दोस्त अथवा किसी समकालीन मनुष्य को अपने से श्रेष्ठ मान लेता है और उससे जलने लगता है। उसको यह पता ही नहीं होता कि जिनको श्रेष्ठ मानकर वह जल रहा है वे अपने आप से उसकी ही तरह असंतुष्ट हो सकते हैं।
विशेष-
(i) भाषा बोधगम्य है। प्रायः तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है।
(ii) शैली विवेचनात्मक है।
(iii) ईष्र्या यदि रचनात्मक प्रेरणा दे सके तो वह लाभदायक हो सकती है।
(iv) अपने अभावों से मुक्त होने के स्थान पर मनुष्य दूसरों की उपलब्धियों को देखकर उनसे जलने लगता है।
6. और नीत्से जब इस कूचे से होकर निकला, तब उसने जोरों का एक ठहाका लगाया और कहा कि “यार, ये तो बाजार की मक्खियाँ हैं, जो अकारण हमारे चारों ओर भिनभिनाया करती हैं।”
ये सामने प्रशंसा और पीठ पीछे निन्दा किया करते हैं। हम इनके दिमाग में बैठे हुए हैं, ये मक्खियाँ हमें भूल नहीं सकतीं और चूँकि ये हमारे बारे में सोचा करती हैं, इसलिए ये हमसे डरती हैं और हम पर शंका भी करती
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संदर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक रामधारी सिंह दिनकर हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों के श्रेष्ठ कार्यों को देखकर जलता है। महापुरुष भी उसकी इस आदत के शिकार होते हैं। इसका अनुभव ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा नीत्से को भी हुआ था। ये दोनों महान पुरुष भी निन्दकों से बच नहीं सके थे।
व्याख्या-लेखक कहता है कि जब नीत्से को ईष्र्यालु मनुष्यों की निन्दा करने की प्रवृत्ति का अनुभव हुआ तो वह जोर से हँसा। उसने निन्दकों को अपने आसपास बिना कारण भिनभिनाने वाली बाजार की मक्खियाँ बताया। मक्खियों से नीत्से का तात्पर्य उन लोगों से है जो बिना किसी वजह के उसकी निन्दा करते तथा उससे जलते थे।
नीत्से के निन्दक उसके सामने उसकी तारीफ करते थे तथा पीठ पीछे उसकी बुराई करते थे। उनके दिमाग में हर समय नीत्से और उसके काम बने रहते थे। वे सदा उनके बारे में सोचा करते थे। वे कभी भी उनको भुला नहीं पाते थे। नीत्से तथा उसके श्रेष्ठ कार्यों और प्राप्तियों के बारे में सोच-सोचकर ही वे उससे भयभीत रहने के साथ शंकित भी रहते थे।
विशेष-
(i) नीत्से के अनुसार निन्दक महापुरुषों के बारे में निरन्तर सोचते हैं, उनसे डरते हैं तथा सशंकित भी रहते हैं।
(ii) महापुरुषों के गुण तथा कार्य ही उनकी निन्दा और बुराई का कारण बनते हैं।
(iii) भाषा ‘कूचे’, ‘यार’, ‘दिमाग’ आदि उर्दू शब्दों तथा ‘ठहाका लगाने’ मुहावरे के कारण सशक्त और प्रभावशाली है।
(iv) शैली विचारात्मक है।
7. जिनका दिल छोटा है, और दृष्टि संकीर्ण है, वे मानते हैं कि जितनी भी बड़ी हस्तियाँ हैं, उनकी निन्दा ठीक है और जब हम प्रीति, उदारता एवं भलमनसाहत का बर्ताव करते हैं, तब भी वे यही समझते हैं कि हम उनसे घृणा कर रहे हैं और हम चाहे उनका जितना उपकार करें, बदले में हमें अपकार ही मिलेगा।
दरअसल हम जो उनकी निन्दा का जवाब न देकर चुप्पी साधे रहते हैं, उसे भी वे हमारा अहंकार समझते हैं। खुशी तो उन्हें तभी हो सकती है, जब हम उनके धरातल पर उतरकर उनके छोटेपन के भागीदार बन जाएँ।
(पृष्ठ सं. 85)
संदर्भ व प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित निबन्ध से लिया गया है। इस निबन्ध का शीर्षक है ‘‘ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से।”
लेखक ने बताया है कि महापुरुष अपने श्रेष्ठ कार्यों तथा प्राप्तियों के कारण लोगों की निन्दा और द्वेषपूर्ण आलोचना के शिकार होते हैं। उनकी श्रेष्ठता को स्वयं प्राप्त न कर सकने की पीड़ा निन्दकों के मन में उनके प्रति जलन का भाव पैदा कर देती है। नीत्से का यही अनुभव है।
व्याख्या-नीत्से ने स्वीकार किया है कि कुछ लोगों का मन छोटा और दृष्टि संकुचित होती है। उनका दृष्टिकोण विशाल और उदार नहीं होता। उनकी सोच यह होती है कि महान पुरुषों की निन्दा करना अनुचित नहीं है। महान पुरुष उन लोगों के साथ प्रेम, उदारता और भलाई का व्यवहार करते हैं। वे उनके साथ भले आदमी की तरह पेश आते हैं। इस कारण वे समझते हैं कि महान पुरुष उनसे घृणा करते हैं। महापुरुष उनका कितना भी भला करें परन्तु उनकी भलाई का बदला लोग उनसे दुर्व्यवहार तथा उनका बुरा करके ही देते हैं।
वास्तविक बात यह है कि महापुरुष निन्दकों द्वारा की गई अपनी बुराई का उत्तर नहीं देते हैं। वे मौन और चुप बने रहते हैं। निन्दकों को इसमें महापुरुषों का घमण्ड दिखाई देता है। उनको प्रसन्नता तो तब होगी जब महापुरुष भी उनके समान ही निचले स्तर का आचरण करें और उनके समान ही छोटापन और अनुदारता दिखायें। अपने उदार और उच्च आचार-व्यवहार के कारण वे निन्दकों की जलन और बुराई के शिकार होते हैं।
विशेष-
(i) भाषा में विषयानुकूल शब्द-चयन हुआ है तथा वह बोधगम्य है।
(ii) शैली विवेचनात्मक है।
(iii) लेखक ने नीत्से के अनुभवों का सार प्रस्तुत किया है।
(iv) महापुरुषों की शांति और चुप्पी को उनका घमंड समझा जाता है और उनकी निन्दा की जाती है।
8. ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है। जो व्यक्ति ईष्र्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारे में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईष्र्यालु बन गया है, उसकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है। जिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा आएगी, उसी दिन से वह ईष्र्या करना कम कर देगा।
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संदर्भ व प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित निबन्ध से लिया गया है। इस निबन्ध का शीर्षक है ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से।’
लेखक ने ईष्र्या की विवेचना की है तथा उसको मनुष्य का एक दुर्गुण बताया है। उसने ईर्ष्यालु लोगों से दूर रहने की सलाह दी है। निबन्ध की इन अन्तिम पंक्तियों में लेखक ने ईष्र्याग्रस्त लोगों को सलाह दी है कि वे अपने अभावों से मुक्त हों, तभी ईर्ष्या करने की भावना से छूट सकेंगे।
व्याख्या-दिनकर जी बता रहे हैं कि ईर्ष्या से बचने के लिए मन को अनुशासित तथा नियंत्रित रखना आवश्यक है। ईष्र्यालु स्वभाव के मनुष्य को अनावश्यक बातें नहीं सोचनी चाहिए। उसको अपनी ऐसी आदत को बदलना चाहिए। उसको अपनी कमियों पर विचार करना चाहिए। उसको मालूम करना चाहिए कि किन चीजों की कमी के कारण उसको ईष्र्या करने की आदत बन गई है। उन कमियों को दूर करने का ढंग भी उसको पता होना चाहिए। यह ढंग सकारात्मक तथा रचनात्मक होना चाहिए। अपने अभावों को जानने की इच्छा जिस दिन उसके मन में उत्पन्न होगी, उसी दिन से उसकी ईष्र्या करने की आदत भी कम होने लगेगी।
विशेष-
(i) भाषा विषयानुकूल है। वह तत्सम शब्द प्रधान, सरल तथा बोधगम्य है।
(ii) विवेचनात्मक शैली है। ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है’ में सूक्ति कथन शैली का प्रयोग हुआ है।
(iii) लेखक ने स्वयं सोचने तथा अपनी कमियों को दूर करने का सुझाव दिया है।
(iv) वह अनावश्यक बातें सोचने से बचने को भी कह रहा है।