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RBSE Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 15 स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

RBSE Class 10 Hindi Solutions Kshitij Chapter 15 स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

RBSE Class 10 Hindi स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
कुछ पुरातनपंथी लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। द्विवेदीजी ने क्या-क्या तर्क देकर स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया?
उत्तर:
द्विवेदीजी ने निम्नलिखित तर्क देकर पुरातनपंथियों के तर्कों का विरोध कर स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया –
1. द्विवेदीजी ने कहा है कि संस्कृत के नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। उस काल में कुछ ही लोग संस्कृत बोल पाते थे। शेष शिक्षित और अशिक्षित प्राकृत ही बोलते थे, क्योंकि प्राकृत उस काल की बोलचाल की भाषा थी। यदि वह प्रचलित भाषा न होती तो बौद्धों और जैनों के हजारों ग्रन्थ प्राकृत में ही क्यों लिखें जाते? इसलिए प्राकृत भाषा बोलना अनपढ होने का प्रमाण नहीं कहा जा सकता।
2. यद्यपि प्राचीन काल में स्त्री-शिक्षा थी, लेकिन उसके होने के आज पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। गार्गी, मंडन मिश्र की पत्नी, सीता, शकुन्तला आदि उदाहरण हमारे सामने हैं, जिससे पुष्टि होती है कि ये सभी पढ़ी-लिखी थीं।
3. पुराने जमाने में स्त्रियों ने वेद-मन्त्रों की रचना की, और पद्य-रचनाएँ भी की जो उनके शिक्षित होने के प्रमाणों की ही पुष्टि है।
4. हो सकता है कि पुराने जमाने में स्त्री-शिक्षा की आवश्यकता न समझी गयी हो, पर अब तो है। हमने कई नियमों को तोड़ा है। अतः इसे भी तोड़ देना चाहिए।
5. वर्तमान शिक्षा प्रणाली दूषित है, साथ ही स्त्री-शिक्षा में सुधार एवं संशोधन की गुंजाइश है, तो भी उसे अनर्थकारी नहीं कहा जा सकता है।
प्रश्न 2.
‘स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं। कुतर्कवादियों की इस दलील का खण्डन द्विवेदीजी ने कैसे किया? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
द्विवेदीजी ने कतर्कवादियों की स्त्री-शिक्षा विरोधी दलीलों का जोरदार खण्डन करते हुए कहा है कि यदि स्त्रियों को पढ़ाने में अनर्थ होता है तो पुरुषों को भी पढ़ाने में अनर्थ होते होंगे। यदि पढ़ाई को अनर्थ का कारण मान लिया जाए तो सुशिक्षित पुरुषों द्वारा दिए जाने वाले सारे अनर्थ भी पढ़ाई के दुष्परिणाम माने जाने चाहिए। अतः उनके भी स्कूल-कॉलेज बन्द कर दिए जाने चाहिए।
स्त्रियों को पढ़ाने में अनर्थ होता है, इस सम्बन्ध में द्विवेदीजी ने तर्क देते हुए कहा है कि शकुन्तला ने दुष्यन्त को….. कटु वचन नहीं कहे। उसके वे कटुवचन उसकी शिक्षा के परिणाम नहीं थे, बल्कि उसका स्वाभाविक क्रोध था। इसी। प्रकार सीता का कथन राम के प्रति उनका स्वाभाविक क्रोध था। इसके साथ ही उन्होंने व्यंग्यपूर्ण तर्क देते हुए कहा है कि स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का छूट। ऐसी ही दलीलों और दृष्टान्तों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अनपढ़ रखकर भारत का गौरव बढ़ाना चाहते हैं।
प्रश्न 3.
द्विवेदीजी ने स्त्री-शिक्षा विरोधी कुतर्कों का खण्डन करने के लिए व्यंग्य का सहारा लिया है, जैसे ‘यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं।’ आप ऐसे अन्य अंशों को निबन्ध में से छाँटकर समझिए और लिखिए।
उत्तर:
इस निबन्ध में निम्नलिखित अंश इसी तरह के हैं –
1. जिन पण्डितों ने गाथा-सप्तशती, सेतुबंध-महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रन्थ प्राकृत में बनाए हैं, वे यदि अपढ़ और गँवार थे तो हिन्दी के प्रसिद्ध से प्रसिद्ध अखबार का सम्पादक इस जमाने में अपढ़ और गँवार कहा जा सकता है। क्योंकि वह अपने जमाने की प्रचलित भाषा में अखबार लिखता है।
2. पुराणादि में विमानों और जहाजों द्वारा की गयी यात्राओं के हवाले देखकर उनका अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं, परन्तु पुराने ग्रन्थों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मुर्ख, अनपढ और गँवार बताते हैं। इस तर्कशास्त्रज्ञाता और इस न्यायशीलता की बलिहारी। वेदों को प्रायः सभी हिन्दू ईश्वर-कृत मानते हैं। सो ईश्वर तो वेद-मन्त्रों की रचना अथवा उनका दर्शन विश्ववरा आदि स्त्रियों से करावें और हम उन्हें ककहरा पढ़ाना भी पाप समझें।
3. स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का घुट। ऐसी ही दलीलों और दृष्टान्तों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं।
4. परन्तु विक्षिप्तों, बातव्यथितों और ग्रहग्रस्तों के सिवा ऐसी दलीलें पेश करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे। शकुन्तला ने दुष्यन्त को कटुवाक्य कहकर कौनसी अस्वाभाविकता दिखाई? क्या वह यह कहती कि “आर्य पुत्र, शाबाश! बड़ा अच्छा काम किया जो मेरे साथ गान्धर्व-विवाह करके मुकर गए। नीति, पाप, सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति
प्रश्न 4.
पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना क्या उनके अनपढ़ होने का सबूत है? पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना उनके अनपढ़ होने का सबूत नहीं है, क्योंकि उस जमाने में प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी। उस समय अनेक ग्रन्थ प्राकृत भाषा में ही रचे गये। भगवान शाक्यमुनि और उनके शिष्य प्राकृत भाषा में ही धर्मोपदेश देते थे। बौद्धों और जैनों के धर्म-ग्रन्थ भी प्राकृत भाषा में ही रचे गये। उस समय संस्कृत कुछ गिने-चुने ही लोग बोलते थे, सर्वसाधारण जनों एवं स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का ही नियम था।
प्रश्न 5.
परम्परा के उन्हीं पक्षों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ाते हों तर्क-सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
द्विवेदीजी का यह कथन सत्य है। हमारी परम्परा बहुत लम्बी है और उससे कई बातें ऐसी चली आ रही हैं जिनका आज की स्थिति में महत्त्व नगण्य है। इसलिए हमें ऐसी परम्पराओं को त्याग देना चाहिए और उन्हीं परम्पराओं को स्वीकार करना चाहिए जो स्त्री-पुरुष की समानता को महत्त्व देती हों। उनमें समानता का प्रसार करती हों। तभी हम और हमारा समाज उन्नति कर सकेगा।
प्रश्न 6.
तब की शिक्षा प्रणाली और अब की शिक्षा प्रणाली में क्या अन्तर है? स्पष्ट करें।
अथवा
लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्राचीन एवं वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्या अन्तर बताया है?
अथवा
प्राचीन और नवीन शिक्षा प्रणाली में अन्तर को समझाइये।
उत्तर:
प्राचीन समय में शिक्षा प्रणाली में शिक्षा गुरुओं के आश्रमों में दी जाती थी और अध्ययन सामग्री के रटने पर बल दिया जाता था। इसलिए स्त्रियाँ शिक्षा से वंचित रह जाती थीं, क्योंकि वे आश्रमों और मन्दिरों में नहीं जा पाती थीं। आज की शिक्षा प्रणाली में नर-नारी का भेद नहीं किया जाता है। समानता के आधार पर शिक्षा व्यवस्था की प्रणाली लागू है। इसीलिए आज सह-शिक्षा का प्रचलन है।
रचना और अभिव्यक्ति –
प्रश्न 7.
महावीर प्रसाद द्विवेदी का निबन्ध उनकी दूरगामी और खुली सोच का परिचायक है, कैसे?
उत्तर:
द्विवेदीजी का दृष्टिकोण समाज-सुधार से पूरित था। उनके काल में स्त्रियों की शिक्षा पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता था, उन्हें घर-गृहस्थी के कामों में ही सीमित रखा जाता था। पुरुष वर्ग का अपना ही महत्त्व था इसलिए वह स्त्रियों पर मनमाने अत्याचार करता था। द्विवेदीजी इन अत्याचारों के विरोधी थे। इसलिए उन्होंने स्त्री-शिक्षा की वकालत की।
यह उनकी दूरगामी सोच का ही परिचय था। इसलिए उन्होंने स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा दिया और पुरातनपंथियों की एक-एक बात को सशक्त तर्क से काटा। वे चाहते थे कि भविष्य में स्त्री शिक्षा का युग शुरू हो, उसी का यह परिणाम है कि लोग स्त्री-शिक्षा के महत्त्व को समझने लगे और आज भी स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त कर ऊँचे-ऊँचे पदों पर पुरुष की बराबरी करती हुई प्रतिष्ठित होने लगी हैं। इतना ही नहीं, वे शिक्षा के हर क्षेत्र में पुरुषों पर हावी हैं।
प्रश्न 8.
द्विवेदीजी की भाषा-शैली पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर:
द्विवेदीजी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था हिन्दी भाषा का संस्कार और परिष्कार। इसलिए उन्होंने हिन्दी भाषा को व्याकरण-सम्मत बनाने, उसके रूप को निखारने, सँवारने, उसके शब्द-भण्डार को बढ़ाने और उसको सशक्त, करने का प्रशंसनीय कार्य किया। इसलिए उन्हें खडी बोली का जनक भी कहा जा सकता है। आपने गद्य के लिए नहीं बल्कि कविता के लिए खड़ी बोली को प्रोत्साहित किया। और, अन्य गद्य-लेखकों की त्रुटियों को भी इंगित किया। इसी प्रकार आपकी शैली के विविध रूप आपकी रचनाओं में प्राप्त होते हैं। आपने अपनी रचनाओं में परिचयात्मक, आलोचनात्मक, विवेचनात्मक, समास, व्यंग्यात्मक और वर्णनात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। भाषा अध्ययन
प्रश्न 9.
निम्नलिखित अनेकार्थी शब्दों को ऐसे वाक्यों में प्रयुक्त कीजिए, जिनमें उनके एकाधिक अर्थ स्पष्ट हों चाल, दल, पत्र, हरा, पर, फल, कुल।
उत्तर:
चाल-जमाने की चाल देखकर अपनी चाल बदलो। दल-जनता ने इस चुनाव में समाजवादी दल के इरादों को दल कर रख दिया। पत्र-कल के समाचार-पत्र में मेरा पत्र छपा था। हरा-मैदान में घास का हरा रंग देखकर हमारा मन भी हरा हो गया। पर-कबूतर तो पकड़ा गया, पर उसके पर सुरक्षित न रह सके। फल-ज्यादा फल खाने का फल भी अच्छा नहीं होता। कुल-सुनीता का कुल धनी है, क्योंकि उसकी कुल आय दूसरों से अच्छी है।
पाठेतर सक्रियता –
लड़कियों की शिक्षा के प्रति परिवार और समाज में जागरूकता आए-इसके लिए आप क्या-क्या करेंगे?
उत्तर:
लड़कियों की शिक्षा के प्रति परिवार और समाज में जागरूकता आए, इसके लिए हम सबसे पहले परिवार और समाज वालों से उन्हें पढ़ाने के लिए कहेंगे, फिर जागरूकता लाने के लिए रैलियाँ निकालेंगे और समाचार-पत्रों, दूरदर्शन आदि के माध्यम से स्त्री-शिक्षा का प्रचार करेंगे। लड़कियों को निःशुल्क पाठन-सामग्री देंगे तथा उन्हें आवश्यकतानुसार आर्थिक सहायता भी प्रदान करायेंगे।

RBSE Class 10 Hindi स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Important Questions and Answers

सप्रसंग व्याख्याएँ
1. बड़े शोक की बात है, आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह-सुख के नाश का कारणं समझते हैं और; लोग भी ऐसे-वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग-ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बड़े स्कूलों और शायद कॉलिजों में भी शिक्षा पाई है, जो धर्म-शास्त्र और संस्कृत के ग्रंथ साहित्य से परिचय रखते हैं, और जिनका पेशा कुशिक्षितों को सुशिक्षित करना, कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधार्मिकों को धर्मतत्त्व समझाना है।
कठिन शब्दार्थ :
  • शोक = दुःख।
  • नाश = नष्ट।
  • सुशिक्षित = अच्छे पढ़े-लिखे।
  • पेशा = कार्य, नौकरी, व्यवसाय।
  • कुशिक्षित = गलत पढ़े-लिखे।
  • कुमार्ग = गलत रास्ता।
  • गामी = चलने वाला।
  • सुमार्ग = अच्छा मार्ग।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया गया है। द्विवेदीजी ने इस प्रसंग में स्त्री-शिक्षा के विरोधी उन विद्वानों पर व्यंग्य किया है जो स्वयं सुशिक्षित हैं तथा जिनका कार्य भी शिक्षित करना रहा है।

व्याख्या – महावीर प्रसाद द्विवेदी स्त्री शिक्षा को समाज की धुरी मानते हैं। वह उन लोगों का विरोध इस लेख के माध्यम से करते हैं जो स्त्री-शिक्षा को गलत बताते हैं। उनके अनुसार बड़े दुःख की बात है कि वर्तमान में ऐसे भी लोग हैं, जो स्त्रियों को पढ़ाना, उन्हें शिक्षित करना, स्वयं के और घर के सुख का नाश का कारण मानते हैं। वे लोग ऐसे-वैसे या अनपढ़, गंवार नहीं हैं, जबकि वे लोग अच्छे पढ़े-लिखों की गिनती में आते हैं। वे लोग, जिन्होंने अच्छे-अच्छे बड़े बड़े प्रसिद्ध स्कूल, कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की है, जो धर्मशास्त्रों और संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथों की जानकारी व ज्ञान रखते हैं।

जिन लोगों का कार्य ही बुरे विचार रखने वालों को शिक्षित करना, गलत रास्ते पर चलने वालों को अपनी शिक्षा प्रदान कर सही रास्ते पर लाना तथा जो धर्म को नहीं मानने वाले नास्तिक हैं उन्हें धर्म की शिक्षा देना। कुल मिलाकर अपनी शिक्षा व ज्ञान द्वारा समाज-सुधार कार्यों में सहयोग देना। इस प्रकार के लोग जब स्त्री-शिक्षा नीति को गलत ठहराते हैं तब वाकई ही यह बड़े दुःख की बात है।
विशेष :
  1. द्विवेदीजी ने स्त्री-शिक्षा के विरोधियों के दोहरे चरित्र को प्रकट किया है।
  2. शुद्ध साहित्यिक हिन्दी का प्रयोग हुआ है। अंग्रेजी-हिन्दी संस्कृत का प्रयोग है।
2. नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने का प्रमाण नहीं। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत न बोल सकती थीं। संस्कृत न बोल सकना अपढ़ होने का सबूत है और न गँवार होने का। अच्छा तो उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतवादिनी पत्नियाँ कौनसी भाषा बोलती थीं? उनकी संस्कृत क्या कोई गँवारी संस्कृत थी। भवभूति और कालिदास आदि के नाटक जिस जमाने के हैं उस जमाने में शिक्षितों का समस्त समुदाय संस्कृत ही बोलता था, इसका प्रमाण पहले कोई दे ले तब प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को अपढ़ बताने का साहस करे।
कठिन शब्दार्थ :
  • प्राकृत = भाषा।
  • अपढ़ = बिना पढ़ा-लिखा।
  • वेदांतवादिनी = वेद पर बोलने वाली।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया गया है। इस प्रसंग में द्विवेदी ने उस बात को सिद्ध किया है कि प्राकृत भाषा बोलने वाली स्त्रियाँ अपढ़ नहीं मानी जा सकती हैं।
व्याख्या – द्विवेदीजी ने बताया कि कुछ विद्वानों की दलील है कि पुराने संस्कृत नाटकों में स्त्रियाँ शुद्ध संस्कृत नहीं बोल कर प्राकृत भाषा में बोलती हैं, इसलिए पहले के समय में भी स्त्रियों को पढ़ाने का चलन नहीं था। इस पर द्विवेदी जी कहते हैं कि पुराने नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत भाषा में बोलना उनके अनपढ़ होने का सबूत नहीं है।
उन्हें अनपढ़ कहने की बजाय यह कह सकते हैं कि वे संस्कृत नहीं बोल सकती हैं। संस्कृत नहीं बोल सकना न तो अनपढ़ होना होता है और न ही गंवार। द्विवेदीजी कहते हैं कि उत्तररामचरित में ऋषियों की पत्नियाँ जो वेदान्त दर्शन पर बोलती हैं वे कौनसी भाषा बोलती हैं। उनकी संस्कृत को हम आज क्या गँवारी संस्कृत कहेंगे? भवभूति और कालिदास के नाटक जिस समय के लिखे हुए थे उस समय शिक्षित वर्ग संस्कृत ही बोलता था; क्या इस बात का कोई सबूत है? अगर सबूत है तो ही उस समय की स्त्रियों को अनपढ़ बताने की हिम्मत करें।
साथ ही यह भी प्रमाणित करें कि उस समय की बोलचाल की भाषा प्राकृत नहीं थी। देखा जाये तो उस समय प्राकृत भाषा ही चलने के प्रमाण मिलते हैं। लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि जिस समय जिस भाषा का चलन होता है उस समय का साहित्य भी उसी भाषा में रचा जाता है।
विशेष :
  1. लेखक ने तर्क द्वारा यही बताने की कोशिश की है कि समयानुसार प्रचलित भाषा का ही प्रयोग साहित्य के विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है।
  2. शुद्ध हिन्दी का प्रयोग है। शब्दावली सरल एवं सुगम है।
3. इसका क्या सबूत है कि उस जमाने में बोलचाल की भाषा प्राकृत न थी? सबूत तो प्राकृत के चलन के ही मिलते हैं। प्राकृत यदि उस समय की प्रचलित भाषा न होती तो बौद्धों तथा जैनों के हजारों ग्रंथ उसमें क्यों लिखे जाते और भगवान शाक्य मुनि तथा उनके चेले प्राकृत ही में क्यों धर्मोपदेश देते? बौद्धों के त्रिपिटक ग्रंथ की रचना प्राकृत में किए जाने का एकमात्र कारण यही है कि उस जमाने में प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी। अतएव प्राकृत बोलना और लिखना अपढ़ और अशिक्षित होने का चिह्न नहीं। जिन पंड़ितों ने गाथा-सप्तशती, सेतुबंध महाकाव्य और कुमारपालचरित आदि ग्रंथ प्राकृत में बनाए हैं।
कठिन शब्दार्थ :
  • चलन = प्रचलित।
  • धर्मोपदेश = धर्म के उपदेश।
  • चिन्ह = निशान, प्रमाण।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया गया है। इस प्रसंग में लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है।
व्याख्या – लेखक प्राकृत भाषा में रचे गये अनेक ग्रंथों के उदाहरण द्वारा यह बताने का प्रयत्न किया है कि पुराने समय में प्राकृत बोलना अनपढ़ होने की निशानी नहीं हैं। लेखक कहते हैं कि इस बात का क्या प्रमाण है कि बोलचाल की भाषा प्राकृत नहीं थी। क्योंकि उस समय में रचित ग्रंथ सबूत के आधार पर प्राकृत भाषा के ही मिलते हैं। अगर उस समय प्राकृत भाषा प्रचलित नहीं होती तो बौद्धों तथा जैनों के हजारों ग्रंथ उसमें लिखे ही नहीं जाते। भगवान शाक्य मुनि तथा उनके चेले प्राकृत भाषा में ही धर्म के उपदेश नहीं देते।
बौद्ध के अपने प्रसिद्ध ग्रंथ त्रिपिटक की रचना प्राकृत भाषा में करने की वजह यही थी कि सभी लोगों के बोलचाल की भाषा उस समय प्राकृत थी, ताकि लोग आसानी से पढ़ लिख व समझ सकें। इसलिए इस बात से यह सिद्ध होता है कि प्राकृत बोलना और लिखना, अनपढ़ और अशिक्षित होने की निशानी नहीं मानी जा सकती है। क्योंकि इसका सबसे बड़ा प्रमाण उन विद्वानों के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं, जिन्होंने गाथा- सप्तशती, सेतुबंध-महाकाव्य और कुमारपाल चरित आदि ग्रंथ प्रांकृत में बनाए हैं।
विशेष :
  1. लेखक ने प्राकृत में रचे गए अनेक ग्रंथों के द्वारा यह सिद्ध किया है कि प्राकृत में बोलना अनपढ़ता का पर्याय नहीं है।
  2. हिन्दी-संस्कृत का प्रयोग एवं भाषा की सुघड़ता स्पष्ट है।
4. पुराने जमाने में स्त्रियों के लिए कोई विश्वविद्यालय न था। फिर नियमबद्ध प्रणाली का उल्लेख आदि पुराणों में न मिले तो क्या आश्चर्य? और, उल्लेख उसका कहीं रहा हो, पर नष्ट हो गया हो तो? पुराने जमाने में विमान उडते थे। बताइए उनके बनाने की विद्या सिखाने वाला कोई शास्त्र! बडे-बडे जहाजों पर सवार होकर लोग द्वीपान्तरों को जाते थे। दिखाइए, जहाज बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के दर्शक ग्रन्थ! पुराणादि में विमानों और जहाजों द्वारा की गई यात्राओं के हवाले देखकर उनका अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं, परन्तु पुराने ग्रन्थों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख, अपढ़ और गवार बताते हैं।
कठिन शब्दार्थ :
  • द्वीपांतर = अनेक द्वीपों पर।
  • दर्शक ग्रंथ = जानकारी देने वाली या दिखाने वाली पुस्तकें।
  • प्रगल्भ = प्रतिभावान।
  • नामोल्लेख = नाम का उल्लेख करना।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से .. लिया गया है। लेखक ने अनेक उदाहरणों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि बहुत सारे प्रमाण समयानुसार नष्ट हो जाते हैं, उसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्री-शिक्षा का विरोध पहले जमाने में भी था।
व्याख्या – द्विवेदीजी स्त्री-शिक्षा के पक्ष में तर्क देते हुए कहते हैं कि पुराने जमाने में स्त्रियों की शिक्षा के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं बने हए थे या इस तरह की नियमबद्ध शिक्षा प्रणाली का लेखा-जोखा किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिलता है तो इसमें इतने आश्चर्य की क्या बात है? पुराने जमाने में विमान उड़ते थे, हमने सुना है पर क्या उनको बनाने की विधि का कोई शास्त्र, कोई पुस्तक हमें अभी मिलती है? लोग बड़े-बड़े जहाजों पर सवार होकर व्यापार हेतु अनेक द्वीपों-महाद्वीपों पर जाते थे, उन जहाजों को बनाने की नियम प्रक्रिया क्या अब कहीं प्राप्त है? हमें पहले जमाने के ज्ञान विज्ञान पर आधारित जानकारी देने वाली कोई भी पुस्तक अब नहीं मिलती है।
पुराण-शास्त्रों में बड़े-बड़े जहाजों तथा विमानों को देखकर उनके होने की बात हम गर्व से स्वीकार करते हैं। किन्तु पुराने ग्रंथों में जब हमें विदुषी पंडिताओं के नामों का वर्णन मिलता है तब हम ये क्यों नहीं मानते कि उस समय में भी स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी विदुषी होती थीं? क्यों हम उनकी शिक्षा या अनुभव पर सवाल खड़े करते थे? इन सब बातों से पुरुष वर्ग का दोहरा चरित्र समझ में आता है। पुराने जमाने की सभी अविश्वसनीय बातों पर विश्वास करते हैं लेकिन स्त्री-शिक्षा की बात पर वे उन्हें मूर्ख, अनपढ़ और गंवार बताते हैं। ये उनकी बहुत बड़ी भूल है।
विशेष :
  1. पुराने जमाने के विमानों, जहाजों का उदाहरण देकर स्त्री-शिक्षा को भी ग्रहणीय मानने की बात रखते हैं जो कि पूर्णतः सत्य है।
  2. भाषा सरल-सहज व अर्थपूर्ण है। हिन्दी-संस्कृत मिश्रित-भाषा का प्रयोग है।
5. अत्रि की पत्नी पत्नी-धर्म पर व्याख्यान देते समय घण्टों पांडित्य प्रकट करे, गार्गी बड़े-बड़े ब्रह्मवादियों को हरा दे, मंडन मिश्र की सहधर्मचारिणी शंकराचार्य के छक्के छुड़ा दे! गजब! इससे अधिक भयंकर बात और क्या हो सकेगी! यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं। यह सारा दुराचार स्त्रियों को पढ़ाने ही का कुफल है। समझे। स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का छूट! ऐसी ही दलीलों और दृष्टान्तों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं।
कठिन शब्दार्थ :
  • अत्रि = ऋषि का नाम।
  • गार्गी = ऋषि पत्नी का नाम।
  • सहधर्मचारिणी = साथ धर्म का आचरण करने वाली।
  • दुराचार = निंदनीय आचरण।
  • कुफल = बुरा फल।
  • कालकूट = जहर, विष।
  • पीयूष = अमृत।
  • दृष्टांत = उदाहरण, मिसाल।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया गया है। लेखक ने ऋषि-पत्नियों के ज्ञान व पांडित्य प्रदर्शन के उदाहरण द्वारा स्त्री-शिक्षा पहले जमाने में भी थी, इस बात को प्रस्तुत करते हैं।
व्याख्या – लेखक उन महानुभावों की बात को गलत बताते हुए हमें बता रहे हैं कि पहले के समय में ऋषि मुनियों की विदुषी, पत्नियों ने भी अपने ज्ञान का प्रदर्शन शिक्षा के आधार पर ही किया था। जिसके उदाहरण में वे कहते हैं कि अत्रि ऋषि की पत्नी जब पत्नी-धर्म पर घंटों अपना व्याख्यान सुनाती हैं गार्गी, जो बड़े-बड़े ब्रह्म पर बात करने वालों को अपने शास्त्रार्थ से हरा देती है, मंडन मिश्र की पत्नी गुरु शंकराचार्य को अपने ज्ञान से परास्त कर देती है तो यह आश्चर्य की बात है, इससे अधिक बड़ी बात स्त्रियों की शिक्षा के विषय में और क्या हो सकती है? क्या हम इससे इन्हें।
पापी कह सकते हैं? या फिर बड़े-बड़े महापुरुषों को हराने का जो कार्य है वह अपराध की श्रेणी में आता है? लेखक बताते हैं कि अगर वे स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण नहीं करतीं तो वे ज्ञान-विधा में पूजनीय पुरुषों का मुकाबला कैसे करतीं? क्या हम इसे स्त्रियों का निंदनीय व्यवहार समझे जो उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के फलस्वरूप बुरे परिणाम के रूप में प्राप्त हुआ है? बहत सारे विद्वान मानते हैं कि पढना, शिक्षा ग्रहण करना स्त्रियों के लिए जहर के समान तथा पुरुषों के लिए अमृत के समान है।
ऐसी ही दलीलों एवं तर्कों के उदाहरण प्रस्तुत कर कुछ विद्वान हमारे भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि भारत आगे बढ़े, स्त्री-शिक्षा को महत्त्व मिले, स्त्रियाँ अन्य कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लें। इसे मनुष्य की स्वार्थ नीति के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता है।
विशेष :
  1. लेखक ने ऋषि पत्नियों की विद्वत्ता के उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया है कि स्त्रियाँ उस समय भी शिक्षा ग्रहण करती थीं और ये कोई अधर्म कार्य नहीं है। शिक्षा प्राप्त करना सभी का समान अधिकार है।
  2. भाषा शैली सारगर्भित एवं व्याख्यात्मक है।
6. मान लीजिए कि पुराने जमाने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी-लिखी न थी। न सही। उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की जरूरत न समझी गई होगी। पर अब तो है। अतएव पढ़ाना चाहिए। हमने सैकड़ों पुराने नियमों, आदेशों और प्रणालियों को तोड दिया है या नहीं? तो. चलिए. स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस परानी चाल को भी तोड़ दें। हमारी प्रार्थना तो यह है कि स्त्री-शिक्षा के विपक्षियों को क्षणभर के लिए भी इस कल्पना को अपने मन में स्थान न देना चाहिए कि पुराने जमाने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा न थी।
कठिन शब्दार्थ :
  • अतएव = इसलिए।
  • चाल = नियम, चलन।
  • विपक्षी = विरोधी।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतों का खण्डन’ से लिया गया है। इसमें लेखक सबसे स्त्री-शिक्षा पर बल देने हेतु बात कह रहे हैं।
व्याख्या – लेखक अनेक प्राचीन उदाहरणों द्वारा सिद्ध करते हैं कि स्त्रियाँ प्राचीन समय में भी शिक्षा ग्रहण करती थीं और शिक्षा ग्रहण करना कुविचारों को पालना नहीं है। मान लीजिए कि पुराने जमाने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी लिखी नहीं होगी। हो सकता है उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की जरूरत महसूस नहीं हुई होगी। पर अब तो है, वर्तमान में अपने देश की उन्नति एवं स्वयं के सर्वांगीण विकास हेतु जितनी आवश्यकता पुरुष-शिक्षा की है उतनी ही जरूरत स्त्री शिक्षा की भी है।
जब हमने अनेक पुराने नियमों, आदेशों और प्रणालियों को बदलते समय की जरूरत के अनुसार तोड़ दिया है तो फिर क्यों नहीं हम स्त्रियों को अनपढ़ रखने की इस कुटिल चाल को भी खत्म कर दें। परिवर्तन सभी क्षेत्रों में हो रहा है तो इस क्षेत्र में भी परिवर्तन क्यों नहीं करते हैं? लेखक सभी उन महानुभावों से प्रार्थना करते हैं कि वे क्षणभर के लिए भी अपने मन में इस बात को स्थान नहीं दें कि पुराने जमाने में सारी स्त्रियाँ अनपढ़ होती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा ही नहीं थी। पढ़ने वाली स्त्रियाँ तब भी पढ़ती थीं और पढ़ने पर उनके किसी तरह का निषेध नहीं था तो फिर हम क्यों नहीं पढ़ाने के नियमों को स्वीकार करें?
विशेष :
  1. लेखक ने पुराने जमाने के अनेक जटिल नियमों को अब के समय में परिवर्तित होने के उदाहरण द्वारा तर्क दिया है कि क्यों न स्त्री-शिक्षा भी हम अब अनिवार्य कर दें।
  2. वाक्य लम्बे तथा व्याख्यात्मक हैं। गूढ़ अर्थ व्यंजना है।
7. जो लोग पुराणों में पढ़ी-लिखी स्त्रियों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्द्ध का त्रेपनवाँ अध्याय पढ़ना चाहिए। उसमें रुक्मिणी-हरण की कथा है। रुक्मिणी ने जो एक लंबा-चौड़ा पत्र एकांत में लिखकर, एक ब्राह्मण के हाथ, श्रीकृष्ण को भेजा था वह तो प्राकृत में न था। उसके प्राकृत में होने का उल्लेख भागवत में तो नहीं। उसमें रुक्मिणी ने जो पांडित्य दिखाया है वह उसके अपढ़ और अल्पज्ञ होने अथवा गँवारपन का सूचक नहीं। पुराने ढंग के पक्के सनातन-धर्मावलम्बियों की दृष्टि में तो नाटकों की अपेक्षा भागवत का महत्त्व बहुत ही अधिक होना चाहिए। इस दशा में यदि उनमें से कोई यह कहे कि सभी प्राक्कालीन स्त्रियाँ अपढ़ होती थीं तो उसकी बात पर विश्वास करने की जरूरत नहीं। भागवत की बात यदि पुराणकार या कवि की कल्पना मानी जाए तो नाटकों की बात उससे भी गई-बीती समझी जानी चाहिए।
कठिन शब्दार्थ :
  • पुराण = धर्मशास्त्र।
  • उत्तरार्द्ध = बाद का।
  • त्रेपनवाँ = तिरेपन (53)।
  • हरण = अपहरण।
  • अल्पज्ञ = कम ज्ञान रखने वाला।
  • सूचक = निशानी।
  • सनातन = सदा से चली आ रही।
  • प्राक्कालीन = पुरानी।
  • गई बीती = बिल्कुल बेकार बात।
  • हवाला = सबूत, प्रमाण।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया है। इसमें लेखक ने भागवत के अध्याय द्वारा सिद्ध किया है कि रुकमणि पढ़ी-लिखी थी और भागवत का महत्त्व किसी भी प्रकार के नाटक से बहुत अधिक है।
व्याख्या – लेखक उन दकियानूसी विचारों वाले लोगों पर व्यंग्य करते हैं कि जो लोग पुराणों में स्त्री के पढ़े-लिखे या शिक्षित होने का प्रमाण माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के बाद का तिरेपनवाँ (53) अध्याय (पाठ) पढ़ना चाहिए जिसमें रुकमणि के कृष्ण द्वारा अपहरण की कथा का वृत्तांत है। रुकमणि ने एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखकर, एक ब्राह्मण के साथ श्रीकृष्ण को भेजा था, कि वे उन्हें यहाँ से आकर ले जाएँ। उस पत्र में प्राकृत भाषा नहीं थी। वह पत्र प्राकृत में लिखा गया ऐसा कोई वर्णन भागवत ग्रंथ में नहीं मिलता है।
उस पत्र में रुकमणि की जो शिक्षा-दीक्षा दिखाई देती है, उससे उसके अशिक्षित, कम ज्ञान रखने वाली या गँवारपना की कोई निशानी या बात नहीं दिखाई देती है। पुराने विचारों के जो सदियों से धर्म के सहारे अपनी बात सिद्ध करते हैं उनकी दृष्टि में नाटकों की अपेक्ष बहुत ही अधिक माना जाना चाहिए, क्योंकि भागवत धर्म ग्रंथ के नाम पर शीर्ष स्थान रखता है।
अगर ऐसी स्थिति में भी उनमें से कोई या कहता है कि पुरानी स्त्रियाँ अनपढ़, अशिक्षित होती थीं, तो उनकी बात पर विश्वास करने की किसी को जरूरत नहीं है। लेखक कहते हैं कि भागवत का ज्ञान यदि पुराणकारों या कवि की कल्पना की उपज मानी जा सकती है तो फिर नाटकों की बात तो उससे भी ज्यादा बेकार है। लेखक का आशय है कि भागवत उच्च कोटि का धर्म ग्रंथ है जिसको सभी मानते हैं फिर उसमें लिखित सभी बातें भी बिना तर्क के मानी जानी चाहिए।
विशेष :
  1. लेखक ने श्रीभागवत ग्रंथ के आधार पर स्त्री-शिक्षा पर बल दिया है।
  2. वाक्य लम्बे व दीर्घ हैं। अर्थ की व्यंजना बहुत गहरे तक है।
8. स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ यदि पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझना चाहिए। बम के गोले फेंकना, नर-हत्या करना, डाके डालना, चोरियाँ करना, घूस लेना ये सब यदि पढ़ने-लिखने ही का परिणाम हो तो सारे कॉलिज, स्कूल और पाठशालाएँ बन्द हो जानी चाहिए।
परन्तु विक्षिप्तों, बातव्यथितों और ग्रहग्नस्तों के सिवा ऐसी दलीलें पेश करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे। शकुंतला ने दुष्यन्त को कटु वाक्य कहकर कौनसी अस्वाभाविकता दिखाई? क्या वह यह कहती कि “आर्य पुत्र, शाबाश! बड़ा अच्छा काम किया जो मेरे साथ गान्धर्व-विवाह करके मुकर गए। नीति, न्याय, सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं!” पत्नी पर घोर से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी आशा रखते हैं वे मनुष्य स्वभाव का किंचित् भी ज्ञान नहीं रखते।
कठिन शब्दार्थ :
  • विक्षिप्त = पागल, होश खो देना।
  • बातव्यथितों = बात-बात पर दुःखी होना।
  • ग्रहग्रस्त = पाप ग्रह से प्रभावित।
  • मुकरना = मना करना।
  • किंचित् = थोड़ा-सा भी।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया गया है। लेखक ने इसमें बताया है कि स्त्रियों द्वारा अनर्थ करना उनकी शिक्षा के कारण है तो फिर शिक्षित पुरुषों द्वारा किया गया अनर्थ का कारण क्या है?
व्याख्या – लेखक कहते हैं कि बहुत विद्वानों का ये कहना है कि स्त्री शिक्षा प्राप्त कर निंदनीय कार्य व अनर्थ को बढ़ावा देती है तो अगर शिक्षा उन्हें इस बात के लिए प्रेरित करती है तो शिक्षित पुरुषों द्वारा किया गया अनर्थ भी उनकी विद्या एवं शिक्षा का ही परिणाम माना जाना चाहिए। बम के गोले फेंकना, इंसानों की हत्या करना, डाका डालना, चोरी करना, झूठ बोलना, घूस-धोखा देना-ये सभी अगर पढ़ने-लिखने का परिणामा हैं तो फिर सब जगह स्कूल, कॉलेज, पाठशालाएँ सभी बन्द हो जाने चाहिए।
लेकिन जो पागल हैं, पापग्रहों से ग्रस्त हैं, छोटी-छोटी बातों से दुःखी हो जाते हैं वे ही व्यक्ति स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं, उनके अलावा और कोई नहीं है। कुछ लोगों ने नाटक में शकुन्तला द्वारा दुष्यन्त को कठोर वचन कहने पर उसके कटु व्यवहार को शिक्षा का प्रभाव बताया, तो इसमें शकुन्तला ने कौनसी गलत बात कही या गलत व्यवहार किया? क्या वे यह कहती कि आर्यपुत्र! आपने गंधर्व-विवाह करके, भरी सभा में सबके समक्ष विवाह-बंधन से न कर दिया। यह बहुत अच्छा कार्य है आपका।
आप तो नीति-नियम, न्याय, सद्-व्यवहार व धर्म के पर्याय हैं। शकुन्तला को क्या ऐसा कहना चाहिए था? लेखक कहते हैं जो व्यक्ति अपनी पत्नी पर बड़े से बड़ा अत्याचार करके पत्नी के शांत एवं कोमल व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, वे मनुष्य-स्वभाव का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं रखते हैं। अगर हम पशु के साथ भी गलत व्यवहार करें तो हमें प्रतिफल में उसकी आक्रामकता झेलनी पड़ती है। फिर स्त्री से पशुओं से भी निम्न व्यवहार की आशा क्यों रखते हैं?
विशेष :
1. लेखक ने समाज के उन लोगों को आईना दिखाने का प्रयत्न किया है जो शिक्षा को स्त्रियों के कटु व्यवहार का कारण मानते हैं।
9. पढ़ने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके। अनर्थ का बीज उसमें हरगिज नहीं। अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं। अपढ़ों और पढ़े-लिखों, दोनों से। अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे व्यक्ति विशेष का चाल-चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं। अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए।
जो लोग यह कहते हैं कि पुराने जमाने में यहाँ स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी वे या तो इतिहास से अभिज्ञता नहीं रखते या जान-बूझकर लोगों को धोखा देते हैं। समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दण्डनीय हैं। क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है समाज की उन्नति में बाधा डालना है।

कठिन शब्दार्थ :

  • दुराचार = बुरा आचरण, निन्दनीय व्यवहार।
  • मुमानियत = रोक, मनाही।
  • अभिज्ञता = जानकारी, ज्ञान, निपुणता, कुशलता।
  • दंडनीय = दंड के योग्य।
  • अपकार = अहित।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया गया है। लेखक शिक्षा का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि शिक्षा प्राप्त करना सभी के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य होना चाहिए। शिक्षा कभी भी किसी गलत कार्य करने को प्रेरित नहीं करती है।

व्याख्या – लेखक कहते हैं कि पढ़ने-लिखने में या ज्ञान प्राप्त करने में ऐसी कोई बात नहीं है जिससे किसी का अनर्थ हो या नुकसान हो। अनर्थ करने का ज्ञान, शिक्षा में बिल्कुल नहीं है वरन् शिक्षा हमें सही-गलत का ज्ञान देती है। अनर्थ कभी स्त्री-पुरुष देखकर नहीं होता है वह पुरुषों द्वारा भी होता है और पढ़े-लिखों से भी होता है। अनर्थ के लिए हम शिक्षा का दोषी नहीं मान सकते हैं। अनर्थ, बुरे आचरण और पापकार्यों में लिप्त लोगों द्वारा होते हैं, वे व्यक्ति-विशेष के चाल-चलन, कार्य-व्यवहार पर आधारित होते हैं। लेखक कहते हैं कि स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए।

जो लोग तर्क देते हैं कि पराने जमाने में स्त्रियाँ नहीं पढती थीं अथवा उनके पढने पर रोक या मनाही थी तो वे व्यक्ति निःसन्देह ही इतिहास के बातों की जानकारी या ज्ञान नहीं रखते हैं। या फिर जान-बूझकर अतर्क-पूर्ण बातें करके लोगों को धोखा देते हैं, उन्हें भ्रमित करते हैं। समाज की उन्नति में ऐसे लोग दंड के पात्र हैं। क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखना, आगे नहीं बढ़ने देना, उनका अहित चाहना, अपराध की श्रेणी में आता है। स्त्री और पुरुष दोनों ही उन्नत समाज की धुरी हैं। दोनों की प्रगति से ही समाज व देश की उन्नति एवं विकास संभव है।
विशेष :
  1. लेखक ने तर्कों द्वारा स्पष्ट किया है कि स्त्री भी शिक्षा के लिए उतनी ही हकदार है जितने कि पुरुष। जो व्यक्ति इस बात का विरोध करते हैं वे समाज की उन्नति में बाधक हैं।
  2. लम्बे तर्कपूर्ण वाक्य हैं, सारगर्भित व्यंजना है।
10. ‘शिक्षा’ बहुत व्यापक शब्द है। उसमें सीखने योग्य अनेक विषयों का समावेश हो सकता है। पढ़ना लिखना भी उसी के अन्तर्गत है। इस देश की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अच्छी नहीं। इस कारण यदि कोई स्त्रियों को पढ़ाना अनर्थकारी समझे तो उसे उस प्रणाली का संशोधन करना या कराना चाहिए, खुद पढ़ने लिखने को दोष न देना चाहिए। आप खुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा की प्रणाली का संशोधन कीजिए। उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए, कितना पढ़ाना चाहिए, किस तरह की शिक्षा देना चाहिए और कहाँ पर देना चाहिए – घर में या स्कूल में – इन सब बातों पर बहस कीजिए, विचार कीजिए, जी में आवे सो कीजिए; पर परमेश्वर के लिए यह न कहिए कि स्वयं पढ़ने-लिखने में कोई दोष है-वह अनर्थकर है।
कठिन शब्दार्थ :
  • व्यापक = बहुत बड़ा।
  • संशोधन = सुधार।
  • राय = सलाह।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने यही निवेदन किया है कि शिक्षा-प्रणाली में अगर दोष है, तो उसे दूर कीजिए, पर स्त्री को शिक्षा से वंचित मत कीजिए।
व्याख्या – लेखक शिक्षा के विषय में कहते हैं कि शिक्षा बहुत बड़े अर्थ वाला शब्द है। शिक्षा से हमें सभी तरह का ज्ञान प्राप्त होता है, जो व्यक्ति, समाज, देश के सर्वांगीण विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इसमें सीखने योग्य सभी विषयों को शामिल किया जा सकता है और पढ़ाना-लिखना उसी शिक्षा के अन्तर्गत आता है।
इस देश की शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं यह कह कर अगर कोई स्त्री को पढ़ाना अनर्थकारी समझता है तो उसे चाहिए कि उसे शिक्षा प्रणाली में सुधार या संशोधन करना चाहिए ना कि स्वयं न्यायकर्ता बन कर शिक्षा को दोष नहीं देना चाहिए। ऐसे लोगों से लेखक लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा प्रणाली में सुधार कीजिए।
स्त्रियों व लड़कियों को क्या पढ़ाना है, कितना पढ़ाना है, कैसा पढ़ाना है? किस तरह की शिक्षा उन्हें देनी चाहिए, कहाँ पर देनी चाहिए, घर में या स्कूल में इन सब बातों पर खूब बहस कीजिए, विचार कीजिए कि प्रणाली में दोष हो सकता है शिक्षा में नहीं। जो आपके मन में आए, वह कीजिए; पर ईश्वर के लिए यह मत कहिए-कि, स्वयं पढ़ने-लिखने में कोई दोष है-शिक्षा अनर्थकार है। क्योंकि शिक्षा कभी अनर्थकारी नहीं होती बल्कि अच्छे-बुरे में फर्क करना सिखाती है।
विशेष :
  1. लेखक ने शिक्षा प्रणाली में त्रुटियों के निराकरण पर बल दिया है साथ ही शिक्षा के हितकारी स्वरूप की समीक्षा की है।
  2. भाषा शैली सरल-सहज व व्याख्यात्मक है। दीर्घ वाक्य विन्यास तथा अर्थपूर्ण है।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’ निबन्ध का मूल विषय क्या है?
उत्तर:
इस निबन्ध का मूल विषय स्त्री शिक्षा को बढ़ाना तथा शिक्षा के अर्थकारी स्वरूप को प्रकट करना है।
प्रश्न 2.
द्विवेदीजी ने यह लेख पहले किस पत्रिका में किस नाम से छापा था?
उत्तर:
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने यह लेख सन् 1914 में सरस्वती पत्रिका में ‘पढ़े-लिखों का पांडित्य’ शीर्षक से छापा था।
प्रश्न 3.
नाटकों में प्राकृत बोलने को अनपढ़ होने का पर्याय मानने पर लेखक द्वारा क्या तर्क दिया गया था?
उत्तर:
उस जमाने में नाटकों की रचना करते समय प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी, समाज में प्राकृत का ही चलन था।
प्रश्न 4.
‘उस जमाने में प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी’ पंक्ति को लेखक ने कैसे समझाया?
उत्तर:
लेखक ने उस जमाने में लिखे गये बौद्धों व जैनों के ग्रंथों के आधार पर बताया कि वे सब प्राकृत भाषा में लिखे गए थे।
प्रश्न 5.
पुराणों में स्त्री शिक्षा का उल्लेख क्यों नहीं मिलता है?
उत्तर:
उस काल में स्त्रियों के लिए अलग से विश्वविद्यालय नहीं थे या फिर स्त्री-शिक्षा के साक्ष्य नष्ट हो गए हों, ऐसा हो सकता है।
प्रश्न 6.
निबन्ध के अनुसार पुराने जमाने में स्त्री-शिक्षा की क्या स्थिति थी?
उत्तर:
अत्रि ऋषि की पत्नी, मंडन मिश्र की पत्नी, गार्गी, रुकमणि इन सब उदाहरणों से पता चलता है कि ये सब पढ़ी-लिखी, शिक्षित और विदुषी थीं।
प्रश्न 7.
समाज की दृष्टि में कैसे लोग दंडनीय हैं?
उत्तर:
जो लोग अहित की भावना से स्त्रियों को अनपढ़ रखने की बात कह कर समाज को धोखा देते हैं, वे दंड के पात्र हैं।
प्रश्न.8.
‘शिक्षा’ बहत व्यापक शब्द है। कैसे? समझाइये।
उत्तर:
शिक्षा में सीखने योग्य सभी विषयों को शामिल किया जा सकता है और पढ़ना-लिखना उसी के अन्तर्गत आता है।
प्रश्न 9.
‘शिक्षा अनर्थकर है।’ यह किस प्रवृत्ति की ओर इंगित करता है?
उत्तर:
यह व्यक्ति के अभिमान को इंगित करता है। जो गृह-सुख का नाश करने वाला कथन तथा सौलह आने मिथ्या वाक्य है।
प्रश्न 10.
प्राकृत भाषा में लिखित किन्हीं दो ग्रंथों के नाम लिखिए।
उत्तर:
  1. गाथासप्तशती
  2. कुमारपालचरित।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने स्त्री-शिक्षा का महत्त्व बताया है। वर्तमान में आप स्त्री-शिक्षा में कौन कौन-सी बाधाएँ महसूस करते हैं? अनुभव के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
वर्तमान में स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में अनेक बाधाएँ हैं। कुछ रूढ़िवादी लोग स्त्रियों को गृहस्थी की सीमा में रखना चाहते हैं, वे उन्हें अधिक शिक्षित नहीं देखना चाहते हैं। शिक्षा-सुविधाएँ कम हैं, समानता का व्यवहार नहीं किया जाता है, नव-जागरण के अनुरूप शिक्षा-पद्धति का अभाव है, रूढ़िवादी सोच अधिक है।
प्रश्न 2.
‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ पाठ के आधार पर बताइये कि स्त्री को पढ़ाने के विरोधी क्या-क्या कुतर्क देते हैं?
उत्तर:
स्त्री को पढ़ाने के विरोधी यह तर्क देते हैं कि स्त्री को पढ़ाना उसके तथा गृह-सुख के नाश का कारण है। स्त्री को पढ़ाना अनर्थकारी और उसमें अभिमान का उत्पादक है। शकुन्तला द्वारा दुष्यन्त को कटु वचन कहा जाना शिक्षित होने का ही दुष्परिणाम है।
प्रश्न 3.
महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार किस बात पर विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है?
उत्तर:
द्विवेदीजी के अनुसार इस बात पर विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है कि पुराने जमाने में सभी स्त्रियाँ अनपढ़ होती थी, क्योंकि उस समय भी स्त्रियाँ शिक्षित होती थीं। इस बात के अनेक प्रमाण हैं।
प्रश्न 4.
द्विवेदीजी के अनुसार स्त्री-शिक्षा का विरोध कौन कर सकते हैं?
उत्तर:
द्विवेदीजी के अनुसार स्त्री-शिक्षा का विरोध वे ही व्यक्ति कर सकते हैं, जो पागल, बात-व्यथित और ग्रहग्रस्त हैं, अर्थात् जिनकी बुद्धि कम है, जो पुरुषप्रधान प्रवृत्ति के अहं से व्यथित हैं, या जिन पर किसी दुष्ट ग्रह का कोप है।
प्रश्न 5.
“स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होता है।” लेखक ने इस संबंध में क्या तर्क दिया है?
उत्तर:
लेखक ने अपनी असहमति देते हए कहा है कि शिक्षा का अनर्थ से कोई संबंध नहीं है। अनर्थ तो पंढे लिखे पुरुषों से भी होता है। अनर्थ शिक्षितों एवं अशिक्षितों दोनों से हो जाता है। यह स्त्री-शिक्षा से ही नहीं होता है।
प्रश्न 6.
सीता ने लक्ष्मण के माध्यम से राम को क्या कहकर अपमानित किया?
उत्तर:
सीता ने लक्ष्मण के माध्यम से राम को यह कहकर अपमानित किया कि जरा उस राजा से यह कह देना कि मैंने तो तुम्हारी आँखों के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता साबित कर दी है, जिस पर भी लोगों के मुख से निकला मिथ्यावाद सुनकर तुमने मुझे त्याग दिया है।
प्रश्न 9.
कोई बात वेद-विरोधी होने पर ईश्वर-विरोधी क्यों मान ली जाती है?
उत्तर:
ऐसा माना जाता है कि वेदों की रचना ईश्वर ने की तथा स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन वर्जित है। परन्तु स्त्रियों को वेद न पढ़ने-पढ़ाने की बात वास्तव में ईश्वर का ही विरोध करती है। इसलिए उस बात को ईश्वर-विरोधी मान लिया जाता है।
प्रश्न 8.
लेखक ने किसे ‘पापी पढ़ने का अपराध’ कहा है और क्यों?
उत्तर:
लेखक ने व्यंग्य रूप में स्त्रियों द्वारा पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करना, उन्हें शास्त्रार्थ में हराना ‘पापी पढ़ने का अपराध’ कहकर उन पुरुषों पर चोट की है जो स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं।
प्रश्न 9.
“यह सारा दुराचार स्त्रियों के पढ़ाने का ही कुफल है।” कथन के माध्यम से लेखक ने किन पर व्यंग्य किया है?
उत्तर:
लेखक ने कथन के माध्यम से उन अहंकारी पुरुषों पर व्यंग्य किया है जो स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं। यदि कोई स्त्री किसी पुरुष को तर्क में हरा देती है तो वे इसे स्त्री-शिक्षा का दुराचार और कुफल मानते हैं।
प्रश्न 10.
लेखक ने सुशिक्षितजनों के किस व्यवहार पर चिंता व्यक्त की?
उत्तर:
लेखक ने सुशिक्षितजनों के हिंसक और भ्रष्ट व्यवहार पर चिंता प्रकट की है, क्योंकि ये लोग ही हत्या करने, गोले फेंकने, डाका डालने, चोरी करने, रिश्वत लेने और व्यभिचार करने में लिप्त होते हैं।
प्रश्न 11.
“स्त्रियों का पढ़ना अनिवार्य है।” इस कथन के पक्ष में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
स्त्रियों को पढ़ना अनिवार्य होना चाहिए, तभी नर-नारी में समानता संभव हो सकेगी। तभी स्त्रियाँ अपने बच्चों को शिक्षित, सुसंस्कृत एवं समझदार बना सकेंगी और घर-परिवार का संचालन एवं सामाजिक चेतना का निर्वाह भी सूझ-बूझ के साथ कर सकेंगी।
प्रश्न 12.
“आज की शिक्षा में यदि दोष है तो उसे अनर्थकारी नहीं माना जाना चाहिए।” लेखक ने इस संबंध में क्या सुझाव दिए हैं?
उत्तर:
लेखक का मानना है कि शिक्षा अनर्थकारी नहीं होती। यदि शिक्षा प्रणाली में दोष है तो सुधार कर लेना चाहिए। सुधार की दृष्टि से उस पर बहस होनी चाहिए। उसमें संशोधन किया जाना चाहिए और स्त्रियों को बराबर का अवसर दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 13.
शिक्षा-सुधार की दृष्टि से आप शिक्षा-प्रणाली में मुख्य रूप से क्या परिवर्तन करना चाहेंगे?
उत्तर:
शिक्षा-सुधार की दृष्टि से हम चाहेंगे कि शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो नर-नारी को समान मानकर उन्हें उनकी रुचियों के अनुसार पढ़ने का अवसर दे। उसमें रोजगार के अवसर ही नहीं, सदाचरण, स्वावलम्बन, दायित्वबोध, सामाजिकता एवं नैतिकता पर भी ध्यान दिया जाए।
प्रश्न 14.
प्राचीन काल और आज की स्त्री-शिक्षा के समर्थन में लेखकीय विचार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखक का मानना है कि प्राचीनकाल में भी स्त्रियाँ सुशिक्षित थीं। यदि किसी के दुराग्रह से यह मान भी लिया जाए कि उस काल की स्त्रियाँ अशिक्षित थीं, तो भी हमें आज के बारे में सोचकर उनके लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए।
प्रश्न 15.
‘प्राचीनकाल में भारत में नारी-शिक्षा का प्रचलन था’ इस सम्बन्ध में लेखक द्वारा दिए गये दो प्रमाणों को लिखिए।
उत्तर:
प्राचीन काल में स्त्री-शिक्षा प्रचलन के संबंध में अनेक प्रमाण दिए गये हैं। उनमें से पहला प्रमाण यह है कि गार्गी ने शास्त्रार्थ में बड़े-बड़े ब्रह्मवादियों को और मण्डन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को हरा दिया था। दूसरा प्रमाण है रुक्मणी द्वारा श्रीकृष्ण को लिखा गया पत्र।
प्रश्न 16.
‘उस काल में प्राकृत जनसाधारण की भाषा थी।’ इस सम्बन्ध में लेखक ने क्या-क्या प्रमाण दिए हैं? एक प्रमाण लिखिए।
उत्तर:
उस काल में प्राकत जनसाधारण की भाषा थी। अनेक प्रमाणों के बीच एक प्रमाण यह है कि महात्मा बुद्ध अपने प्रवचन प्राकृत में ही नहीं करते थे बल्कि बौद्ध धर्म के ग्रन्थ त्रिपिटक की रचना प्राकृत में ही हुई। जैनों के हजारों ग्रन्थ प्राकृत में ही लिखे गये।
प्रश्न 17.
“प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का चिह्न नहीं है।” इस कथन की सार्थकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
लेखक ने बतलाया है कि प्राकृत बोलना अनपढ़ होने का चिह्न नहीं है। उस काल में प्राकृत बोलने का प्रचलन था और प्राकृत में ही ग्रन्थों की रचना होती थी। इस बात के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं कि प्राकृत बौद्धों और जनों के समय की प्रचलित भाषा थी, तभी तो उस भाषा में हजारों ग्रन्थों की रचना की गयी।
प्रश्न 18.
“आज की शिक्षा में यदि दोष हैं तो उसे अनर्थकारी नहीं माना जा सकता।” इस सम्बन्ध में लेखक ने क्या सुझाव दिए हैं? लिखिए।
उत्तर:
लेखक का मानना है कि यदि वर्तमान शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है, तो उसमें संशोधन करना चाहिए। विद्यार्थियों को क्या पढ़ाना चाहिए, कितना पढ़ाना चाहिए और किस तरह की शिक्षा देनी चाहिए, इन बातों पर बहस होनी चाहिए। इस तरह देश एवं समाज के अनुकूल सुधार होना चाहिए। लेकिन स्त्रियों के लिए शिक्षा व्यवस्था बन्द करने की बात नहीं होनी चाहिए। शिक्षा को किसी भी स्थिति में अनर्थकारी नहीं कहा जाना चाहिए, क्योंकि वह कभी भी अनर्थकारी नहीं होती है।
प्रश्न 19.
‘स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन’ नामक निबन्ध का सन्देश स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस निबंध में लेखन ने स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खण्डन करते हुए जोरदार शब्दों में कहा है कि प्राचीन काल में भारत में स्त्री-शिक्षा प्रचलित थी, इसलिए गार्गी, अत्रि-पत्नी, विश्ववारा, मंडन मिश्र की पत्नी आदि अनेक विदुषी स्त्रियाँ हुईं। आज के युग में स्त्री-शिक्षा की अति आवश्यकता है। पुरातनपंथी एवं रूढ़िवादी लोग चाहे जितने भी कुतर्क दें, उनका विरोध कर स्त्री-शिक्षा का प्रसार होना चाहिए। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में अपेक्षित संशोधन कर लेना चाहिए, लेकिन विरोध नहीं करना चाहिए।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
प्रस्तुत निबन्ध स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’ का सार संक्षिप्त रूप में वर्णित कीजिए।
उत्तर:
महावीर प्रसाद द्विवेदी का लिखा हुआ निबन्ध ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’ में द्विवेदीजी ने तथाकथित उन विरोधी लोगों के कुतर्कों का जवाब दिया है, जो स्त्री शिक्षा के पक्ष में नहीं हैं। इस निबन्ध का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। पुराने जमाने में स्त्रियों को पढ़ाना-लिखाना, मृह-सुख के नाश का कारण माना जाता था।
बड़े-बड़े विद्वान तथा धर्म-शास्त्रों के ज्ञाता भी स्त्री-शिक्षा के विरोध में तर्क देते थे। उनका मानना था कि पुराने संस्कृत नाटकों की महिलाएँ संस्कृत न बोल कर प्राकृत में बोलती थीं, जो कि जन समुदाय की भाषा है, अतः वे पुरातन काल से ही गँवार एवं अनपढ़ थीं। दूसरी बात कि शकन्तला जैसी नारियाँ ही शिक्षित होकर भी अपने पति को कट-वचन कहती हैं जो शिक्षित होने का ही कुपरिणाम है। लेखक ने बताया कि प्राकृत बोलना, अशिक्षित होने का सूचक नहीं है क्योंकि उस समय प्राकृत का चलन था।
अनेक धर्म ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखे गए थे। स्त्रियों की शिक्षा अनर्थकारी है तो फिर पुरुषों द्वारा किये गए अनेक अमानवीय कार्य भी उनकी शिक्षा की देन मानी जानी चाहिए। शकुन्तला द्वारा कटुवचन कहने के पीछे उनका दुःख था न कि उनकी शिक्षा। अंत में लेखक ने यही कहा है कि पढ़ने-लिखने में कोई बुराई नहीं है, अनर्थ-दुराचार व्यक्ति के स्वयं के आचरण हैं, शिक्षा के परिणाम नहीं। स्त्रियों को साक्षर बनाने से परिवार, समाज व देश का ही भला होगा। विद्वानों को चाहिए कि वह स्त्री-शिक्षा पर रोक न लगाकर, शिक्षा-प्रणाली में सुधार करने की कोशिश करें।
प्रश्न 2.
‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’ निबन्ध में शिक्षा के महत्त्व पर वर्णित विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शिक्षा को व्यापक अर्थ से अभिहित किया है। उनके अनुसार सीखने योग्य सभी विषयों का समावेश शिक्षा के अन्तर्गत किया जा सकता है। पढ़ने-लिखने या शिक्षा ग्रहण करने में कोई ऐसी बात नहीं है जिससे किसी प्रकार का अनर्थ होता है। शिक्षा में अनर्थ का बीज नहीं होता है। अनर्थ, पापाचार और दुराचार दोनों से हो सकता है। अनर्थ पढ़े-लिखों से और अनपढ़ों से दोनों से हो सकता है।
अपने प्रति हुए अन्याय के लिए कटु वाक्य कहना सर्वथा स्वाभाविक प्रक्रिया होती है न कि शिक्षा का कुफल। शिक्षा मनुष्य मात्र को जीवन स्तर ऊँचा उठाने का सलीका, बुद्धि, व्यावहारिक ज्ञान, कौशल, चातुर्य एवं प्रबन्धन के गुर सिखाती है। शिक्षा को ग्रहण करके ही व्यक्ति समाज और देश की उन्नति में योगदान दे सकता है। शिक्षित व्यक्ति, शिक्षित परिवार, शिक्षित समाज व शिक्षित देश ही समृद्ध एवं खुशहाल रह सकता है।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न –
प्रश्न 1.
महावीर प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर:
महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ। वे हिन्दी के पहले व्यवस्थित सम्पादक, भाषावैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्त्ववेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, वैज्ञानिक चिंतन के लेखक एवं स्थापक, समालोचक और अनुवादक थे। उनकी प्रमुख कृतियाँ-रसज्ञरंजन, साहित्य-सीकर, साहित्य-संदर्भ, अद्भुत आलाप (निबंध-संग्रह)। द्विवेदीजी ने हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार किया।
व्याकरण और वर्तनी के नियम स्थिर किएं। खड़ी बोली हिन्दी को स्थापित किया। स्वाधीनता की चेतना को विकसित करने के लिए स्वदेशी चिंतन को व्यापक बनाया। सरस्वती पत्रिका के माध्यम से पत्रकारिता का श्रेष्ठ स्वरूप सामने रखा। सम्पूर्ण जीवन साहित्य को समर्पित करते हुए सन् 1938 में उनका निधन हो गया।

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन Summary in Hindi

 

लेखक-परिचय :

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1864 में ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण स्कूली शिक्षा पूरी कर उन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली थी। बाद में उन्होंने उस नौकरी से इस्तीफा देकर सन् 1903 में प्रसिद्ध हिन्दी मासिक पत्रिका सरस्वती का सम्पादन शुरू किया और सन् 1920 तक इस सम्पादक कार्य से जुड़े रहे।

सन् 1938 में उनका देहान्त हो गया। – द्विवेदीजी हिन्दी के पहले व्यवस्थित सम्पादक, भाषा वैज्ञानिक, इतिहासकार, पुरातत्त्ववेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, वैज्ञानिक चिन्तन एवं लेखन के स्थापक, समालोचक और अनुवादक थे। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – ‘रसज्ञ रंजन’, ‘साहित्य-सीकर’, ‘साहित्य-सन्दर्भ अद्भुत आलाप’ (निबन्ध-संग्रह); इसके साथ ही द्विवेदी काव्यमाला में उनकी कविताएँ हैं। उनका सम्पूर्ण साहित्य महावीर द्विवेदी रचनावली’ के पन्द्रह खण्डों में प्रकाशित है।

पाठ-परिचय :

लेखक ने इस निबन्ध में स्त्री-शिक्षा का विरोध करने वाले लोगों की डटकर खबर ली है और उनके द्वारा स्त्री-शिक्षा के विरोध में दिए जाने वाले तर्कों का खण्डन किया है। उनका मानना है कि संस्कृत के नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अनपढ़ होने का प्रमाण नहीं है। यह तो माना जा सकता है कि संस्कृत नाटकों में स्त्री-पात्र संस्कृत नहीं बोल सकती थी, लेकिन संस्कृत न बोल पाना उनके अनपढ़ होने की निशानी नहीं है। इसके साथ ही उस समय प्राकृत का चलन था, अतः प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को अनपढ़ नहीं कहा जा सकता है।

स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में तर्क देते हुए लेखक ने गार्गी, मण्डन मिश्र की पत्नी, रुक्मणी आदि के उदाहरण देते हुए बताया है कि ये स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी ही नहीं थीं बल्कि विदुषी भी थीं। इसलिए जो लोग स्त्री-शिक्षा का विरोध करते हैं वे समाज की उन्नति में बाधा डालने के अपराधी हैं। लेखक का मानना है कि शिक्षा बहुत व्यापक है। उसमें सीखने योग्य अनेक विषय हो सकते हैं। अन्त में लेखक निवेदन करता है कि यदि प्रचलित शिक्षा में दोष है तो उस पर बहस होनी चाहिए और उसमें संशोधन होना चाहिए, किन्तु उसे अनर्थकारी नहीं मानना चाहिए और न स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा की जानी चाहिए।

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