प्रश्न 1.
शहनाई की दुनिया में डुमराँव को क्यों याद किया जाता है?
उत्तर:
शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शहनाई बजाने के लिए जिस रीड का प्रयोग किया जाता है, वह डुमराँव में सोन नदी के किनारे ही पाई जाती है। इसके साथ ही डुमराँव प्रसिद्ध शहनाई कादक बिस्मिल्ला खाँ का जन्म-स्थान भी है।
प्रश्न 2.
बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक क्यों कहा गया है?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उनकी शहनाई से हमेशा ही मंगलध्वनि निकलती रही। वे काशी के विश्वनाथ, बालाजी मन्दिर में अनेक मांगलिक उत्सव-पर्यों पर शहनाई बजाते थे। इसके साथ ही उनसे बढ़कर और दूसरा सुरीला शहनाई वादक नहीं हुआ है।
प्रश्न 3.
सुषिर-वाद्यों से क्या अभिप्राय है? शहनाई को ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि क्यों दी गई होगी?
उत्तर:
सुषिर-वाद्यों से अभिप्राय है – मुँह से फूंककर बजाए जाने वाले वाद्य। यह वाद्य छेद वाले और अन्दर से खोखली या पोली नली वाले होते हैं। जैसे – बाँसुरी, शहनाई, नागस्वरम्, बीन आदि। नाड़ी या रीड से युक्त वाद्यों को ‘नय’ कहा जाता है। शहनाई की ध्वनि सबसे मधुर होने से इसे ‘शाहनेय’ अर्थात् सुषिर वाद्यों में ‘शाह’ की उपाधि दी, गयी, क्योंकि यह वाद्य सभी सुषिर वाद्यों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
प्रश्न 4.
आशय स्पष्ट कीजिए
(क) ‘फटा सर न बख्शें। लंगिया का क्या है.आज फटी है. तो कल सी जाएगी।
(ख) ‘मेरे मालिक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह अनगढ़ आँसू निकल आएँ।’
उत्तर:
(क) आशय-जब एक दिन बिस्मिल्ला खाँ की एक शिष्या ने उन्हें फटा तहमद पहनकर आने वाले लोगों से मिलते देखकर कहा कि बाबा यह फटा तहमद न पहना करो। तब उन्होंने कपड़ों की महत्ता न देते हुए सुर की महत्ता दर्शायी। वे खुदा से यही माँगते थे कि उन्हें फटा सुर न देना। उनका स्वर ठीक (मधुर) ही रखना। फटा कपड़ा तो सिल सकता है पर फटा सुर नहीं सिला जा सकता। उससे तो बदनामी ही मिलती है।
(ख) आशय-बिस्मिल्ला खाँ खुदा से याचना करते थे कि वह उन्हें शहनाईवादन में एक ऐसा सच्चा स्वर प्रदान कर दे, जो अपने मार्मिक प्रभाव से सुनने वालों की आँखों में सहज आनन्द की अनुभूति करा दे और उनकी आँखों से आँसू टपकने लगें। अर्थात् सुनने वाले उनकी शहनाई को सुनकर गद्गद हो उठे।
प्रश्न 5.
काशी में हो रहे कौन से परिवर्तन बिस्मिल्ला खाँ को व्यथित करते थे?
उत्तर:
काशी में पुरानी परम्पराएँ लुप्त हो रही थीं। खान-पान की पुरानी चीजें (देशी घी से बनी कचौड़ी जलेबी) बेचने वाले व मलाई-बर्फ वाले वहाँ से चले गये थे; न ही अब संगीत, साहित्य और अदब का वैसा मान रह गया था। हिन्दुओं और मुसलमानों का पहला जैसा मेल-जोल नहीं रहा। इसके साथ ही संगीतकारी का वैसा मान भी.. नहीं रहा। ये सभी बातें बिस्मिल्ला खाँ को व्यथित करती थीं।
प्रश्न 6.
पाठ में आए किन प्रसंगों के आधार पर आप कह सकते हैं कि
(क) बिस्मिल्ला खाँ मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
(ख) वे वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इंसान थे।
उत्तर:
(क) बिस्मिल्ला खाँ हिन्दू और मुसलमानों की मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे। एक ओर वे सच्चे मुसलमान थे। वे मुस्लिम धर्म के सभी त्योहारों और उत्सवों को पूरी श्रद्धा के साथ मनाते थे। पाँचों समय की नमाज श्रद्धा के साथ अदा करते थे। मुहर्रम भी बड़ी श्रद्धा से मनाते थे। मुहर्रम की आठवीं तारीख को वे पैदल चलते, नौहा बजाते थे। इसके साथ ही वे काशी विश्वनाथ और बालाजी के मन्दिर में शहनाई बजाते थे। गंगा के प्रति सच्ची श्रद्धा रखते थे। काशी से बाहर रहते हुए भी विश्वनाथ व बालाजी के मन्दिर की ओर मुँह करके प्रणाम किया करते थे। इसलिए वे मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
(ख) बिस्मिल्ला खाँ एक सच्चे इंसान थे। उन्होंने कभी धार्मिक कट्टरता तथा तंगदिली नहीं दिखाई। उन्होंने काशी में रहते हुए जहाँ काशी की परम्पराओं को निभाया वहीं मुसलमान होते हुए अपने धर्म की परम्पराओं का भी सहजता के साथ निर्वहन किया। उन्होंने खुदा से हमेशा ही सुर माँगा। यद्यपि वे जीवन में फटेहाल रहे लेकिन उन्होंने खुदा से अपने लिए धन नहीं माँगा। ‘भारतरत्न’ आदि सर्वोच्च सम्मान पाक रहे।
प्रश्न 7.
बिस्मिल्ला खाँ के जीवन से जुड़ी उन घटनाओं और व्यक्तियों का उल्लेख करें, जिन्होंने उनकी संगीत साधना को समृद्ध किया।
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ के संगीत-जीवन को निम्नलिखित परम्पराओं और लोगों ने समृद्ध करने में अपना सहयोग दिया रसूलन बाई और बतूलन बाई की गायिकी ने उन्हें संगीत की ओर आकर्षित किया, क्योंकि जब भी वे बालाजी के मंदिर जाते थे, तब रास्ते में गुजरते समय उन्हें तरह-तरह के बोल, ठुमरी, टप्पे, दादरा आदि सुनने को मिलते थे। जिससे उनके मन में संगीत के प्रति ललक जगी।
बाद में वे अपने नाना को मधुर स्वर में शहनाई बजाते देखते थे तो उनकी शहनाई को खोजा करते थे। मामूजान अलीबख्श जब शहनाई बजाते-बजाते सम पर आते थे तो बिस्मिल्ला खाँ धड़ से एक पत्थर जमीन पर मारा करते थे। इस प्रकार उन्होंने संगीत में दाद देना सीखा। इसके साथ ही वे कुलसुम की कचौड़ी तलने की कला में भी संगीत का आरोह-अवरोह देखा करते थे। अभिनेत्री सुलोचना की फिल्मों ने भी उनकी साधना को समृद्ध किया।
रचना और अभिव्यक्ति –
प्रश्न 8.
बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की कौन-कौनसी विशेषताओं ने आपको प्रभावित किया?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व में समायी अनेक विशेषताओं में से निम्नलिखित विशेषताओं ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया
1. धार्मिक सौहार्द-बिस्मिल्ला खाँ हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल थे। वे सच्चे मुसलमान के रूप में पाँचों बार की नमाज श्रद्धा के साथ अदा करते थे, तीज-त्योहारों को बखूबी निभाते थे। मुहर्रम तो वे पूरे दस दिन तक शोक से मनाते थे। साथ ही वे बाबा विश्वनाथ और बालाजी के मन्दिर में नित्य शहनाई वादन करते थे और हिन्दुओं की पावन नदी गंगा को ‘मैया’ कहा करते थे।
2. खुदा के प्रति आस्थावान-बिस्मिल्ला खाँ खुदा के प्रति आस्थावान थे। पाँचों बार की नमाज पढ़ना उनका नियमित कार्य था। वे नमाज पढ़ते समय खुदा से सच्चे सुर की याचना किया करते थे। इसके साथ ही वे अपनी शहनाई की प्रशंसा को खुदा को ही समर्पित करते थे। वे कहा करते थे कि हे खुदा, फटा सुर न बख्शे। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जायेगी।
3. सरलता और सादगी-बिस्मिल्ला खाँ बेमिसाल शहनाई वादक थे। इसीलिए भारत के अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियाँ दीं। उन्हें ‘भारतरत्न’ प्राप्त हुआ। फिर भी उन्हें गर्व और अभिमान छू नहीं गया था। वे सरलता, सादगी और गरीबी की जिंदगी जीते रहे।
4. रसिक और विनोदी स्वभाव-बिस्मिल्ला खाँ बचपन से ही रसिक स्वभाव के थे। वे रसूलन बाई और बतूलन बाई की गायिकी के रसिया थे। जवानी में वे कुलसुम हलवाइन और अभिनेत्री सुलोचना के भी रसिया बने। वे जलेबी और कचौड़ी के भी शौकीन थे। वे बात भी करने में चतुर थे। जब उनकी शिष्या ने ‘भारतरत्न’ का हवाला देकर उन्हें फटी तहमद न पहनने के लिए कहा तो फट से बोले-“ई भारतरत्न शहनईया पर मिला है, लुंगिया पर नहीं।”
प्रश्न 9.
मुहर्रम से बिस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव को अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
मुहर्रम से बिस्मिल्ला ख़ाँ के जुड़ाव को बताइए।
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ आस्था-भावना से मुहर्रम में भाग लेते थे। वे मुहर्रम के दस दिनों तक शोक मनाते थे। इन दिनों वे किसी प्रकार का मंगल वाद्य नहीं बजाते थे और न कोई राग-रागिनी बजाते थे। इसके साथ ही दालमंडी से चलने वाले मुहर्रम के जुलूस में पूरे उत्साह के साथ आठ किलोमीटर रोते हुए नौहा बजाते हुए चलते थे।
प्रश्न 10.
‘बिस्मिल्ला खाँ कला के अनन्य उपासक थे।’ तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ संगीत-कला के अनन्य उपासक थे। वे शहनाई बजाने की कला में प्रवीण थे। उन्होंने अस्सी वर्ष तक लगातार शहनाई बजाई। वे शहनाई वादन में बेजोड़ थे। वे गंगा-तट पर बैठकर घंटों रियाज करते थे। वे अपनी कला को ईश्वर की उपासना मानते थे। वे इसके विकास के लिए खुदा से सुर बखाने की माँग करते थे। इसके साथ ही वे अपने पर झल्लाते भी थे, क्योंकि उनके अनुसार उन्हें अब तक शहनाई को सही ढंग से बजाना क्यों नहीं आया? इससे स्पष्ट होता है कि वे सच्चे कला उपासक थे।
भाषा अध्ययन –
प्रश्न 11.
निम्नलिखित मिश्र वाक्यों के उपवाक्य छाँटकर भेद भी लिखिए
(क) यह जरूर है कि शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं।
(ख) रीड अन्दर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूंका जाता है।
(ग) रीड नरकट से बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है।
(घ) उनको यकीन है, कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा।
(ङ) हिरन अपनी ही महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है जिसकी गमक उसी में समाई है।
(च) खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा को अपने भीतर जिंदा रखा।
उत्तर:
(क) (i) यह जरूर है। (प्रधान उपवाक्य)
(ii) शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। (संज्ञा उपवाक्य)
(ख) (i) रीड अन्दर से पोली होती है। (प्रधान उपवाक्य)
(ii) जिसके सहारे शहनाई को फूंका जाता है। (विशेषण उपवाक्य)
(ग) (i) रीड नरकट से बनाई जाती है। (प्रधान उपवाक्य)
(ii) जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। (विशेषण उपवाक्य)
(घ) (i) उनको यकीन है। (प्रधान उपवाक्य)
(ii) कभी खुदा यूँ ही मेहरबान होगा। (संज्ञा उपवाक्य)
(ङ) (i) हिरन अपनी ही महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है। (प्रधान उपवाक्य)
(ii) जिसकी गमक उसी में समाई है। (विशेषण उपवाक्य)
(च) (i) खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है। (प्रधान उपवाक्य)
(ii) पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा को अपने भीतर जिन्दा रखा। (संज्ञा उपवाक्य)
प्रश्न 12.
निम्नलिखित वाक्यों को मिश्रित वाक्यों में बदलिए
(क) इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं।
(ख) काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत परम्परा है।
(ग) धत् ! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नहीं।
(घ) काशी का नायाब हीरा हमेशा से दो कौमों को एक होकर आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा।
उत्तर:
(क) यही एक बालसुलभ हँसी है जिसमें कई यादें बंद हैं।
(ख) काशी में संगीत आयोजन की एक ऐसी परम्परा है जो प्राचीन और अद्भुत है।
(ग) धत् ! पगली यह भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं मिला।
(घ) यह काशी का नायाब हीरा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होकर आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा।
पाठेतर सक्रियता –
कल्पना कीजिए कि आपके विद्यालय में किसी प्रसिद्ध संगीतकार के शहनाई वादन का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम की सूचना देते हुए बुलेटिन बोर्ड के लिए नोटिस बनाइए।
उत्तर:
नोटिस
शाला के सभी शिक्षार्थियों को सूचित किया जाता है कि शनिवार, दिनांक पाँच नवम्बर, 20XX को विद्यालय के ‘तुलसी सभागार’ में सायं 5 बजे से 8 बजे तक ‘शहनाई वादन’ का कार्यक्रम आयोजित किया जायेगा। इस अवसर पर भारत के जाने-माने शहनाई वादक उस्ताद अलीखाँ शहनाई वादन करेंगे। सभी छात्र एवं शिक्षक महानुभाव इस कार्यक्रम में आमन्त्रित हैं।
आपसे अनुरोध है कि समय से दस मिनट पूर्व अपना स्थान ग्रहण कर लें।
संयोजक
सांस्कृतिक समिति
आप अपने मनपसन्द संगीतकार के बारे में एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर:
मेरे मनपसन्द संगीतकार हैं – जयपुर के प्रसिद्ध वीणावादक पं. विश्वमोहन भट्ट। इनका वीणावादन सर्वोत्कष्ट कलापर्ण माना जाता है और देश-विदेश में इनकी कला की विशेष ख्याति है। पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए हैं। इनका वीणा-वादन सुनने से स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति होती है।
हमारे साहित्य, कला, संगीत और नृत्य को समृद्ध करने में काशी (आज के वाराणसी) के योगदान पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी कक्षा में इसकी चर्चा करें।
काशी का नाम आते ही हमारी आँखों के सामने काशी की बहुत-सी चीजें उभरने लगती हैं, वे कौन कौनसी हैं?
उत्तर:
बनारसी साड़ी, बनारसी आम, बनारसी पान आदि। इनके साथ ही काशी संस्कृति, कला, शिल्प, साहित्य और विद्वत्ता का केन्द्र रहा है। इनसे जुड़ी चीजों के साथ ही गंगा के किनारे बने सुन्दर घाट, बाबा विश्वनाथ और बालाजी का मन्दिर आदि भी याद आने लगते हैं।
सप्रसंग व्याख्याएँ
1. अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5-6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल काशी में आ गया है। इमराँवं का इतिहास में कोई स्थान बनता हो, ऐसा नहीं लगा कभी भी। पर यह जरूर है कि शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है। रीड अन्दर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूंका जाता है। रीड, नरकट (एक प्रकार की घास) से बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। इतनी ही महत्ता है इस समयं डुमराँव की जिसके कारण शहनाई जैसा वाद्य बजता है। फिर अमीरुद्दीन जो हम सबके प्रिय हैं, अपने उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब हैं। उनका जन्म-स्थान भी डमराँव ही हैं।
कठिन शब्दार्थ :
- डुमराँव = गाँव का नाम।
- रीड = एक प्रकार की घास।
- महत्ता = महत्त्व।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र का लिखा हुआ व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में लेखक ने प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का परिचय दिया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि अमीरुद्दीन, जो कि बिस्मिल्ला खाँ के बचपन का नाम था, का जन्म गाँव इमराव बिहार में हुआ था। इनका परिवार संगीत-प्रेमी था। 5-6 साल की उम्र में भी ये, काशी अपने नाना के घर आ गए थे। इतिहास में कभी डुमराँव गाँव का नाम दर्ज होगा, पहले कभी किसी ने ऐसा नहीं सोचा था। परन्तु यह बात अवश्य थी कि डुमराँव और शहनाई वादन का अवश्य गहरा संबंध था।
शहनाई बजाने के लिए जिस रीड घास का प्रयोग किया जाता था वह घास डुमराँव गाँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारे पर पाई जाती थी। रीड घास अन्दर से खोखली होती थी, जिसके सहारे शहनाई को फूंका जाता था। डुमराँव गाँव का महत्त्व इसी घास के कारण था। अब इस गाँव में अमीरुददीन, जो कि हमारे प्रिय बिस्मिल्ला खाँ है उनका जन्म भी डुमराँव गाँव में हुआ तथा उनकी शहनाई वादन के कारण पूरे विश्व में डुमराँव गाँव शहनाई के गाँव के नाम से जाना जाता है।
विशेष :
- लेखक ने प्रसिद्ध शहनाई वादक के गाँव की विशेषता के दो कारण बताए हैं रीड़ घास के कारण तथा बिस्मिल्ला खाँ के कारण।
- भाषा शैली सरल-सहज है। प्रवाहमयता भाषा का गुण है।
2. वही काशी है। वही पुराना बालाजी का मन्दिर जहाँ बिस्मिल्ला खाँ को नौबतखाने रियाज़ के लिए जाना पड़ता है। मगर एक रास्ता है बालाजी मंदिर तक जाने का। यह रास्ता रसूलनबाई और बतूलनबाई के यहाँ से होकर जाता है। इस रास्ते से अमीरुद्दीन को जाना अच्छा लगता है। इस रास्ते न जाने कितने तरह के बोल-बनाव कभी ठुमरी, कभी टप्पे, कभी दादरा के मार्फत ड्योढ़ी तक पहुँचते रहते हैं। रसूलन और बतूलन जब गाती हैं तब अमीरुद्दीन को खुशी मिलती है। अपने ढेरों साक्षात्कारों में बिस्मिल्ला खाँ साहब ने स्वीकार किया है कि उन्हें अपने जीवन के आरंभिक दिनों में संगीत के प्रति आसक्ति इन्हीं गायिका बहिनों को सुनकर मिली है।
कठिन शब्दार्थ :
- नौबतखाना = प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान।
- रियाज = अभ्यास।
- मार्फत = द्वारा।
- आसक्ति = आकर्षण, प्रेम, खिंचाव।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। बिस्मिल्ला खाँ के शहनाई वादन तथा संगीत पर कैसे और किनका प्रभाव पड़ा, लेखक ने इस गद्यांश में बताया है।
व्याख्या – लेखक ने बताया है कि बिस्मिल्ला ख़ाँ छोटी उम्र में ही काशी अपने नाना के घर रहने आ गए थे। यह वही काशी थी और वहीं बालाजी का मंदिर, जहाँ से गुजर कर बिस्मिल्ला खाँ को अभ्यास के लिए नौबतखाने जाना पड़ता था। मगर एक और रास्ता था बालाजी के मंदिर तक पहुंचने का, यह रास्ता दो गायिका बहनों रसूलनबाई और बतूलनबाई के घर के आगे से होकर जाता था। इसी रास्ते से अमीरुद्दीन (बिस्मिल्ला खाँ का नाम) को जाना अच्छा लगता था।
इस रास्ते पर अमीरुद्दीन को दोनों बहनों द्वारा गायी जाने वाली ठुमरी, दादरा, टप्पा अपनी बोली और बनाव के साथ उनके कानों को बहुत अच्छी लगती थी। रसूलन और बतूलन जब दोनों बहनें एक साथ गाती थीं तब अमीरुद्दीन को बहुत खुशी मिलती थी। नाम और शौहरत मिलने के पश्चात् अमीरूद्दीन (बिस्मिल्ला खाँ) ने अपने अनेक साक्षात्कारों में इस बात को स्वीकार किया है कि उन्हें अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में संगीत के प्रति आकर्षण या प्रेम इन्हीं दोनों बहनों के गीतों के बोल सुनकर हुआ था। इन दोनों की गायिकी ने ही इनका संगीत के क्षेत्र में आकर्षण जगाया था।
विशेष :
- लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ के आरम्भिक दिनों के आकर्षण यानि संगीत आसक्ति के कारण पर प्रकाश डाला है।
- भाषाशैली सरल-सहज व हिन्दी-उर्दू मिश्रित है। प्रवाहमयता इसका सहज गुण है।
3. शहनाई के इसी मंगलध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी बरस से सुर माँग रहे हैं। सच्चे सुर की नेमत। अस्सी बरस की पाँचों वक्त वाली नमाज इसी सुर को पाने की प्रार्थना में खर्च हो जाती है। लाखों सजदे, इसी एक सच्चे सुर की इबादत में खुदा के आगे झुकते हैं। वे नमाज के बाद सजदे में गिड़गिड़ाते हैं – ‘मेरे मालिक एक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह अनगढ़ आँसू निकल आएँ।’ उनको यकीन है, कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा और अपनी झोली से सुर का फल निकालकर उनकी ओर उछालेगा, फिर कहेगा, ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी मुराद पूरी।
कठिन शब्दार्थ :
- नेमत = ईश्वर की देन।
- सजदा = माथा टेकना।
- इबादत = प्रार्थना।
- तासीर = गुण, प्रभाव, असर।
- मुराद = इच्छा।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ द्वारा ईश्वर से सुर-संगीत देते रहने की प्रार्थना को बताया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ जो पिछले अस्सी सालों से अपने द्वारा बजाई जाने वाली मंगल ध्वनि के लिए सुर का वरदान परमात्मा से माँगते आ रहे हैं। ईश्वर द्वारा दिये जाने वाले सुर की भेंट के लिए वे सदैव प्रार्थना करते हैं। अस्सी बरस से पाँचों समय की नमाज उसके बाद की जो प्रार्थना वह इसी सच्चे सुर को माँगने में ही खर्च होती आई है। खुदा के आगे इसी सुर को माँगने के लिए वे सदैव माथा टेकते थे। वे नमाज के बाद हमेशा खुदा के आगे प्रार्थना करते थे कि मालिक मुझे एक सुर दें, उस सुर में वह प्रभाव, वह असर पैदा कर ताकि उसे सुनकर आँखों से मोती की तरह सच्चे आँसू निकलें।
कहने का भाव है कि सुर का प्रभाव, उसकी गहराई हृदय को भीतर तक खुशियों से भर दे जिससे आँखें मोती रूपी आँसू बरसाने लगे। यह सुर का ही जादू होता है। बिस्मिल्ला खाँ को विश्वास था कि एक दिन अवश्य खुदा उनसे प्रसन्न होकर अपनी झोली से उस सच्चे सुर रूपी फल को निकालकर अमीरुद्दीन को देंगे और कहेंगे कि जा खा ले इसे और अपनी मधर सर की इच्छा पूरी कर ले। मन की इच्छा परी कर ले।
विशेष :
- लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ की सुर प्राप्त करने की इच्छा बताई है जिसे प्राप्त कर वह अनन्त सुख की प्राप्ति महसूस करना चाहते हैं।
- भाषा शैली सरल-सहज व भावपूर्ण है। हिन्दी-उर्दू शब्दों का गुम्फन है।
4. अपने ऊहापोहों से बचने के लिए हम स्वयं किसी शरण, किसी गुफ़ा को खोजते हैं जहाँ अपनी दुश्चिताओं, दुर्बलताओं को छोड़ सकें और वहाँ से फिर अपने लिए एक नया तिलिस्म गढ़ सकें। हिरन अपनी ही महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है जिसकी गमक उसी में समाई है। अस्सी बरस से बिस्मिल्ला खाँ यही सोचते आए हैं कि सातों सुरों को बरतने की तमीज़ उन्हें सलीके से अभी तक क्यों नहीं आई।
कठिन शब्दार्थ :
- ऊहापोह = उलझन।
- दुश्चिताओं = बुरी चिंता।
- महक = खुशबू।
- गमक = खुशबू, सुगन्ध।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। लेखक ने इसमें बताया है कि बिस्मिल्ला खाँ अपनी शहनाई के सुर को अच्छे से अच्छा बनाने की कोशिश करते थे
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि हम सभी अपनी उलझनों, समस्याओं से बचने के लिए कोई आसरा, कोई गुफा खोजते हैं। जहाँ पहुँच कर हम अपनी चिंताएँ, अपनी कमजोरियाँ भूल सकें और फिर सब भूल कर सुखों के तिलस्म में खो जाएं। हिरण के माध्यम से लेखक बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई की तुलना करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार हिरण अपनी नाभि में कस्तूरी छिपे होने से अनजान तथा उसकी खुशबू से परेशान होकर पूरे जंगल में व्याकुल होकर उस कस्तूरी को ढूंढ़ता है जो उसके स्वयं के पास है, उसी प्रकार अस्सी वर्षों से बिस्मिल्ला खाँ यही सोचते आए हैं कि ईश्वर द्वारा प्रदत्त सातों सुरों का ज्ञान खर्च करने का तरीका और सलीका उन्हें अभी तक क्यों नहीं आया है। कहने का भाव यही है कि अच्छे-से-अच्छे सुर की नुमाइश करने के बाद भी बिस्मिल्ला खाँ हर बार और अच्छा करने का वरदान खुदा से माँगते हैं।
विशेष :
- हिरण की व्याकुलता की तुलना बिस्मिल्ला खाँ के हृदय की व्याकुलता से की गई है।
- भाषाशैली सरल-सहज व भावपूर्ण है। हिन्दी-उर्दू का प्रयोग स्पष्ट है।
5. इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए, नौहा बजाते जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। राग-रागिनियों की अदायगी का निषेध है इस दिन। उनकी आँखें इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की शहादत में नम रहती हैं। अजादारी होती है। हजारों आँखें नम। हजार बरस की परम्परा पुनर्जीवित। मुहर्रम संपन्न होता है। एक बड़े कलाकार का सहज मानवीय रूप ऐसे अवसर पर आसानी से दिख जाता है।
कठिन शब्दार्थ :
- नौहा = विलाप।
- अदायगी = पेश करना।
- निषेध = रोक।
- अजादारी = मातम, शोक।
- पुनर्जीवित = फिर से जीवित।
- शहादत = बलिदान।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। इस प्रसंग में लेखक ने बिस्मिल्ला खाँ के चरित्र पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि मोहर्रम के दिनों में उनके खानदान का कोई भी व्यक्ति शहनाई नहीं बजाता है। सभी हजरत इमाम हुसैन एवं उनके वंशजों के प्रति शोक मनाते हैं। पूरे दस दिनों का शोक चलता है। आठवीं तारीख इनके लिए खास होती है। इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं। वे दालमंडी में फातहान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए, विलाम करते हुए (नौहा) जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता है। राग रागिनी व संगीत के ‘रोक’ का दिन होता है।
खाँ साहब और उनके परिवार की आँखें हुसैन और उनके परिवार के बलिदान पर नम रहती हैं अर्थात् अश्रुपूर्ण रहती हैं। मातम मनाया जाता है। हजारों आँखें नम रहती हैं और इस तरह हजारों वर्ष पुरानी परम्परा को वह माहौल पुनः जीवित कर देता है। मुहर्रम पूरा होता है किन्तु ऐसे अवसर पर एक बड़े कलाकार का सहज मानवीय रूप आसानी से दिखाई देता है। उनका व्यक्तित्व साफ आईने की तरह चमकता है जिसमें कोई दुराव छिपाव नहीं होता है।
विशेष :
- लेखक ने मुहर्रम के दिनों का वर्णन एवं खाँ साहब के मानवीय रूप का सहज चित्रण किया है।
- भाषा शैली सरल-सहज एवं हिन्दी-उर्दू मिश्रित है।
6. मुहर्रम के गमजदा माहौल से अलग, कभी-कभी सुकून के क्षणों में वे अपनी जवानी के दिनों को याद करते हैं। वे अपने रियाज़ को कम, उन दिनों के अपने जुनून को अधिक याद करते हैं। अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम, पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते हैं। कैसे सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं, बड़ी रहस्यमय मुस्कराहट के साथ गालों पर चमक आ जाती है। खाँ साहब की अनुभवी आँखें और जल्दी ही खिस्स से हँस देने की ईश्वरीय कृपा आज भी बदस्तूर कायम
कठिन शब्दार्थ :
- सुकून = फुरसत।
- रियाज = अभ्यास।
- जुनून = पागलपन, सनक।
- बदस्तूर = कायदे, तरीके से।
- कायम = स्थित।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने खाँ साहब द्वारा पुरानी यादें ताजा करने का वर्णन किया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि मुहर्रम के दुःखी माहौल से दूर जब कभी खाँ साहब फरसत में होते हैं तो वे आराम से बैठकर अपने जवानी के दिनों को याद करते हैं। उस समय शहनाई अभ्यास को कम और अपने उस पागलपन को ज्यादा याद करते हैं। अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम, पक्का महाल चौक की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान, जहाँ वे कचौड़ी खाते थे, उसे ज्यादा याद करते हैं।
फिल्मों की बातें करे तो उन्हें गीताबाली और सुलोचना ज्यादा पसंद थीं। जब कोई उनसे पूछता है कि सुलोचना क्यों पसंद है तो उनके गालों पर रहस्यमयी मुस्कान खेलने लगती थी। खाँ साहब की अनुभवी आँखें और शरमा कर खिस्स से हँस देने वाली हँसी, ईश्वर की कृपा से आज भी उसी तरीके से स्थित है। कहने का आशय है कि खाँ साहब की मुस्कान आज भी उनकी अनुभवी आँखों के साथ मुस्कराती है। जो . ईश्वरीय देन है।
विशेष :
- लेखक ने खाँ साहब के जवानी के दिन तथा उनकी रुचि व पसंद के बारे में बताया है।
- भाषा शैली सहज तथा हिन्दी-उर्दू शब्दावली युक्त है।
7. इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं। वे जब उनका जिक्र करते हैं तब फिर उसी नैसर्गिक आनंद में आँखें चमक उठती हैं। अमीरुद्दीन तब सिर्फ चार साल का रहा होगा। छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनता था, रियाज़ के बाद जब अपनी जगह से उठकर चले जाएँ तब जाकर ढेरों छोटी-बड़ी शहनाइयों की भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ता और एक-एक शहनाई को फेंककर खारिज करता जाता, सोचता- लगता है मीठी वाली . शहनाई दादा कहीं और रखते हैं।’ जब मामू अलीबख्श खाँ (जो उस्ताद भी थे) शहनाई बजाते हुए सम पर आएँ, तब धड़ से एक पत्थर जमीन पर मारता था। सम पर आने की तमीज़ उन्हें बचपन में ही आ गई थी।
कठिन शब्दार्थ :
- नैसर्गिक = स्वाभाविक, प्राकृतिक।
- खारिज = रद्द करना।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। इस गद्यांश में लेखक ने खाँ साहब के बचपन की यादों को जीवंत किया है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि फुरसत के समय में खाँ साहब बाल सुलभ हँसी हँसते हुए अनेक यादों को फिर से जीते थे। जब वे उन यादों की चर्चा करते थे तो उनकी आँखें स्वाभाविक रूप से चमक उठती थीं। अमीरुद्दीन (खाँ साहब) जब चार साल के थे तब अपने नाना को छिप कर शहनाई बजाते हुए सुनते थे। अभ्यास के बाद जब नाना वहाँ से उठ कर चले जाते थे तब वहाँ जाकर शहनाइयों की भीड़ में से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ते थे।
एक-एक शहनाई को परख कर उन्हें रद्द कर फेंकते जाते थे और सोचते थे कि मीठी धुन निकालने वाली शहनाई नाना ने कहीं छिपा कर रख दी है। जब खाँ साहब के मामा अलीबख्श खाँ (जो उस्ताद थे) शहनाई बजाते हुए उच्च स्तर पर आते थे और फिर वापस नीचे की तरफ स्वर को लाते हुए सम पर आते तब बच्चा अमीरुद्दीन धड़ की आवाज से एक पत्थर जमीन पर मारता मझ खा साहब को बचपन में ही आ गई थी। आशय है कि शहनाई के उतार-चढ़ाव की बारीकियाँ वे बचपन से ही समझने लगे थे।
विशेष :
- लेखक ने खाँ साहब की तीव्र बुद्धि का प्रदर्शन किया है तथा उनकी मीठी शहनाई वाली जिज्ञासा का भी रूप प्रस्तुत किया है।
- भाषा शैली की सहजता व सरलता ग्रहणीय है। उर्दू शब्दों की बहुलता यथास्थितिनुसार है।
8. काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत परम्परा है। यह आयोजन पिछले कई बरसों से संकटमोचन मंदिर में होता आया है। यह मंदिर शहर के दक्षिण में लंका पर स्थित है व हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन की उत्कृष्ट सभा होती है। इसमें बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते हैं। अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथजी के प्रति भी अपार है।
कठिन शब्दार्थ :
- उत्कृष्ट = उच्च कोटि की।
- मजहब = धर्म।
- अपार = अत्यधिक।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। लेखक ने इसमें काशी की कुछ विशेषताओं का वर्णन यहाँ किया है।
व्याख्या – लेखक काशी के विषय में बताते हुए कहते हैं कि काशी में संगीत-आयोजन की अद्भुत और प्राचीन परम्परा है। कई वर्षों से इस परम्परा का पालन होते आया है। यह कार्यक्रम पिछले कई वर्षों से संकटमोचन मंदिर में होता आया है। यह मंदिर शहर के दक्षिण दिशा में लंका की तरफ स्थित है। हनुमान जयंती के पवित्र अवसर पर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय गायन और वादन की उच्च स्तर की सभाएँ होती हैं। इन कार्यक्रमों में बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते हैं।
खाँ साहब अपने धर्म के प्रति अत्यधिक समर्पित है। इसके पश्चात् भी उनकी श्रद्धा और सम्मान काशी विश्वनाथ के प्रति अत्यधिक है। दोनों धर्मों का समन्वित रूप खाँ साहब के निश्छल व्यक्तित्व में दिखाई पड़ता है। बताया जाता है कि जब वे शहनाई वादन कार्यक्रम के कारण काशी से बाहर रहते हैं तब भी वे विश्वनाथ और बालाजी की दिशा की तरफ मुँह करके बैठते हैं। ये तरीका उनका ईश्वर के प्रति श्रद्धा अर्पित करने का होता था।
विशेष :
- लेखक ने खाँ साहब के व्यक्तित्व में दोनों मजहबों का सम्मिलित रूप बताया है।
- भाषाशैली की सरलता एवं सहजता स्पष्ट है। हिन्दी-संस्कृत-उर्दू शब्दों का माणिकांचन योग है।
9. काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के नाम से प्रतिष्ठित। काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य-विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ हैं। काशी में हजारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज हैं, विद्याधरी हैं, बड़े रामदासजी हैं, मौजुद्दीन खाँ हैं व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार जन-समूह है। यह एक अलग काशी है जिसकी अलग तहजीब है, अपनी बोली और अपने विशिष्ट लोग हैं। इनके अपने उत्सव हैं, अपना गम। अपना सेहरा-बन्ना और अपना नौहा। आप यहाँ संगीत को भक्ति से, भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से, कजरी को चैती से, विश्वनाथ को विशालाक्षी से, बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते।
कठिन शब्दार्थ :
- प्रतिष्ठित = स्थापित।
- रसिक = प्रेमी-जन।
- उपकृत = जिन पर उपकार किया गया हो।
- तहजीब = सभ्यता, शिष्टता।
- गम = दुःख।
- नौहा = विलाप।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। लेखक ने काशी की विशेषता धर्मों के संगम की दृष्टि से बतायी है।
व्याख्या – लेखक काशी के विषय में बताते हैं कि काशी संस्कृति की पाठशाला है। मिली-जुली संस्कृति को सिखाने वाला पवित्र स्थान काशी नगरी है। शास्त्रों में इसका नाम आनंदकानन है अर्थात् आनन्द प्राप्त होने वाला या देने वाला कानन या वन। जिस वन में आनंद की प्राप्ति हो, वह जगह काशी है। काशी में कलाधर हनुमान तथा नृत्य में प्रवीण विश्वनाथ (शिव का) मंदिर है। काशी में बिस्मिल्ला खाँ है। काशी का हजारों साल पुराना इतिहास है। जिसमें कंठा (माला) धारी पंडित, महाराज हैं।
विद्याधारी विद्वान हैं, बड़े रामदासजी हैं, मौजुद्दीन खाँ हैं तथा इन प्रेमी-जनों से स्वयं को उपकारी मानने वाला बड़ा जन-समूह है, जो स्वयं को सौभाग्यशाली मानते हैं कि वे सब इन सबके सान्निध्य में काशी के वासी हैं। यह एक अलग तरह की काशी है। इसकी अपनी ही सभ्यता और शिष्टता है। अपनी अलग ही बोली और अपने अलग विशिष्ट लोग हैं। इनके अपने उत्सव, अपने दुःख, अपने गीत तथा अपने ही विलाप हैं। आप यहाँ पर संगीत को भक्ति से अलग नहीं कर सकते हैं।
हर संगीत में ईश्वर-प्रेम की झलक है। लेखक कहते हैं कि आप यहाँ पर भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से, कजरी राग को चैती राग से, विश्वनाथ को उनकी विशाल आँखों से तथा बिस्मिल्ला खाँ को काशी के गंगा द्वार से अलग करके नहीं देख सकते हैं। यहाँ सभी धर्म के लोग एक समान हैं और सबकी अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं।
विशेष :
- लेखक ने काशी की विभिन्न विशेषताओं को एकता में उभारा है।
- भाषा शैली सरल-सहज व परिनिष्ठित है। प्रवाहमयता का गुण प्रस्तुत है।
10. अक्सर समारोहों एवं उत्सवों में दुनिया कहती है ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ का मतलब बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई का तात्पर्य-बिस्मिल्ला खाँ का हाथ। हाथ बिस्मिल्ला खाँ की फूंक और शहनाई की जादुई आवाज़ का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। शहनाई में सरगम भरा है। खाँ साहब को ताल मालूम है, राग मालूम है। ऐसा नहीं कि बेताले जाएंगे। शहनाई में सात सुर लेकर निकल पड़े। शहनाई में परवरदिगार, गंगा मइया, उस्ताद की नसीहत लेकर उतर पड़े। दुनिया कहती-सुबहान अल्लाह, तिस पर बिस्मिल्ला खाँ कहते हैं-अलहमदुलिल्लाह।
कठिन शब्दार्थ :
- सरगम = सुर के सात स्वर।
- बेताल = बिना ताल के, राग के।
- नसीहत = सलाह।
- सुभानअल्लाह = क्या खूब।
- अलहमदुलिल्लाह = तारीफ ईश्वर के लिए।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। इसमें लेखक ने खाँ साहब के व्यवहार की विशेषता बताई है।
व्याख्या – लेखक बताते हैं कि समारोह और उत्सवों में जब भी बिस्मिल्ला खाँ साहब शहनाई वादन के लिए जाते हैं तो अक्सर उन्हें देख कर लोग कहते हैं ये हैं बिस्मिल्ला खाँ साहब। बिस्मिल्ला खाँ का अर्थ होता था उनकी शहनाई। शहनाई का अर्थ है बिस्मिल्ला खाँ के हाथ और हाथों का आशय है कि बिस्मिल्ला खाँ की समस्त कला में जान डालने वाली फंक, और वह फूंक शहनाई में से जो जादुई असर या प्रभाव लोगों पर डालती थी वह असर लोगों को अपना दु:ख भुला देता था।
खाँ साहब की शहनाई का जादुई असर नशा बन कर लोगों के दिलो-दिमाग पर चढ़ने लगता था। उनकी शहनाई में संगीत के सातों स्वर समाए हुए थे। उनकी शहनाई में परवरदिगार (खुदा) गंगा मैया और उस्ताद (गुरु) की सलाह भी शामिल है। उनकी शहनाई वादन पर मुग्ध होकर दुनिया कहती है सुभानअल्लाह। क्या खूब। जिस पर खाँ साहब कहते हैं-अलहमदुलिल्लाह। अर्थात् ईश्वर की तारीफ करे। आशय है कि उनसे जो कुछ भी करवाते हैं वह ईश्वर ही करवाते हैं और वह उनकी ही प्रशंसा है मेरा इसमें कुछ भी नहीं है। लेखक ने खाँ साहब के भक्त रूप की झलक दिखाई है जो कहते हैं जो कुछ है वह सब तेरा।
विशेष :
- लेखक ने खाँ साहब के व्यक्तित्व का सुन्दर पहलू प्रस्तुत किया है।
- भाषा शैली सरल-सहज व हिन्दी-उर्दू मिश्रित है।
- ‘सिर चढ़कर बोलना’ मुहावरे का प्रयोग हुआ है।
11. किसी दिन एक शिष्या ने डरते-डरते खाँ साहब को टोका,”बाबा ! आप यह क्या करते हैं, इतनी प्रतिष्ठा है आपकी। अब तो आपको भारतरत्न भी मिल चुका है, यह फटी तहमद न पहना करें। अच्छा नहीं लगता, जब भी कोई आता है आप इसी फटी तहमद में सबसे मिलते हैं।”खाँ साहब मुस्कराए। लाड़ से भरकर बोले, “धत् ! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं। तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते रहते, तो उमर ही बीत जाती। हो चुकती शहनाई।” तब क्या खाक रियाज़ हो पाता। ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है, “फटा सुर न बखों। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।”
कठिन शब्दार्थ :
- प्रतिष्ठा = मान-सम्मान।
- तहमद = लुंगी (वस्त्र)।
- लाड = प्यार से।
- बनाव-सिंगार = सजना सँवरना।
- बख्शना = देना।
- सी = सिलना।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। लेखक ने इसमें एक घटना का जिक्र किया है कि खाँ साहब के व्यवहार में दिखावा या बनावटीपन नहीं था।
व्याख्या – लेखक खाँ साहब के जीवन से जुड़ी एक घटना के विषय में बताते हैं कि एक दिन खाँ साहब की एक शिष्या ने डरते-डरते खाँ साहब को उनकी फटी लुंगी के लिए टोका। उसने कहा “बाबा आप प्रतिष्ठित, सम्मानित व्यक्ति हैं, देश की तरफ से आपको भारत-रत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ है। आप अब तो फटी हुई लुंगी मत पहना करें। अच्छा नहीं आपसे मिलने आता है, आप इसी फटी लुंगी में सबसे मिल लेते हैं। खाँ साहब, लड़की की बात को सुन कर मुस्कराए। फिर स्नेहपूर्वक लड़की को जवाब दिया “पगली भारत रत्न पुरस्कार हमको शहनाई वादन के लिए मिला है लुंगिया को देख कर नहीं मिला।” तुम लोगों की तरह अगर सजना-संवरना रखते तो मेरी उम्र उसी में बीत जाती।
फिर हो चुकी होती शहनाई। शृंगार ही करते रह जाते फिर अभ्यास कुछ नहीं हो पाता। खाँ साहब के व्यवहार की सरलता बताते हुए लेखक कहते हैं कि फिर भी सरल भाव से खाँ साहब ने कहा “ठीक है बिटिया, आगे से अब फटी लुंगी नहीं पहनेंगे” मगर हम तुम्हें बता देते हैं कि मालिक (ईश्वर) से हमारी सदैव यही प्रार्थना रहेगी कि “फटा सुर मुझे कभी नही दे, लुंगी का क्या है, आज फटी हुई है तो कल सिल जाएगी।” कहने का आशय है कि कपड़ा सिल सकता है किन्तु स्वर जो एक फट जाए तो संगीत बिगड़ जाता है। उम्रभर खाँ साहब ईश्वर से सच्चा सुर ही माँगते रहे।
विशेष :
- लेखक ने खाँ साहब के व्यवहार की सरलता व तरलता दोनों को व्यक्त किया है।
- हिन्दी-उर्दू तथा लोकभाषा का प्रयोग दिखाई देता है।
12. सचमुच हैरान करती है काशी-पक्का महाल से जैसे मलाई बरफ़ गया, संगीत, साहित्य और अदब की बहुत सारी परम्पराएँ लुप्त हो गईं। एक सच्चे सुर साधक और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सबकी कमी खलती है। काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ एक-दूसरे के पूरक रहे हैं, उसी तरह मुहर्रम-ताजिया और होली-अबीर, गुलाल की गंगा-जमुनी संस्कृति भी एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन जाएगा। फिर भी कुछ बचा है जो सिर्फ काशी में है। काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती और उसी की थापों पर सोती है। काशी में मरण भी मंगल माना गया है।
कठिन शब्दार्थ :
- हैरान = आश्चर्य-चकित।
- लुप्त = गायब।
- खलना = अनुचित, अप्रिय मालूम होना।
- अदब = कायदा।
- पूरक = एक-दूसरे के अभाव को पूरा करना।
- थाप = सगीत की लय।
- मरण = मृत्यु।
- मंगल = शुभ।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। लेखक ने समय के साथ परिवर्तित होती परम्पराओं पर चिंतन व्यक्त किया है। समय का बदलना तथा परम्पराओं का गायब होना खाँ साहब को भी बहुत दुःख देता था।
व्याख्या – लेखक काशी नगरी के विषय में बताते हैं कि संस्कतियों के संगम के नाम से जानी जाती काशी अब हैरान करने लगी है। काशी के पक्का महाल (स्थान का नाम) पर मिलने वाली मलाई बर्फ गयी, आशय अब नहीं मिलती। संगीत, साहित्य और कायदा, लिहाज सिखाने वाली सभी परम्पराएँ नष्ट हो गई थीं। एक सच्चे सुर की साधना करने वाले तथा सामाजिक रूप से सजग रहने वाले खाँ साहब को इन सारी बातों की कमी अप्रिय या अनुचित लगती थी।
काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ (शिव) और बिस्मिल्ला सदैव एक-दूसरे के साथ रहे हैं उसी तरह, जिस तरह मुहर्रम में ताजिया और होली में गुलाल साथ होते हैं। दो संस्कृति गंगा-जमुना की भाँति सदैव एक-दूसरे के साथ मनाई जाती रही थी। लेकिन बहत जल्दी ही ये सब परम्पराएँ इतिहास का रूप लेने लगी हैं। और अ इतिहास बन कर रहने वाला है। फिर भी काशी में कुछ बचा हुआ है, वह यह कि काशी के लोग आज भी संगीत के मधुर स्वरों से जगते हैं और संगीत की लय की थाप पर ही सोते हैं। काशी में मृत्यु भी मंगल (शुभ) मानी जाती है। मृत्यु पर आज भी काशी में उत्सव का माहौल होता है।
विशेष :
- लेखक ने काशी की कुछ महत्त्वपूर्ण परम्पराओं पर प्रकाश डाला है।
- भाषा सरल-सहज है। हिन्दी-उर्दू मिश्रित है।
13. काशी आनन्द कानन है। सबसे बड़ी बात है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला नायाब हीरा रहा है, जो हमेशा से दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा। ‘भारतरत्न’ से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियों से अलंकृत व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ एवं ‘पद्म-विभूषण’ जैसे सम्मानों से नहीं, बल्कि अपनी अजेय संगीत यात्रा के लिए बिस्मिल्ला खाँ साहब भविष्य में हमेशा संगीत के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की भरी-पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत रसिकों की हार्दिक सभा से विदा हुए खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को सम्पूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा को अपने भीतर जिन्दा रखा।
कठिन शब्दार्थ :
- आनंदकानन = आनंद रूपी वन, खुशी देने वाला।
- तमीज = संगीत की बारीकियाँ।
- नायाब = बेशकीमती, अद्भुत, अमूल्य।
- कौम = जाति।
- अजेय = जिसे हराया नहीं गया या जा सकता।
- जिजीविषा = जीने की इच्छा, आशा।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित व्यक्ति-चित्र ‘नौबतखाने में इबादत’ से लिया गया है। लेखक ने काशी की विशेषताओं के साथ खाँ साहब के जीवन के अंतिम दिनों पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या – लेखक काशी के विषय में बताते हुए कहते हैं कि काशी आनन्द प्रदान करने वाले सघन वन के समान है जिसमें कई संस्कृति मिल कर नया गुलदस्ता तैयार करती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा संगीत के लय और सुर की बारीकियाँ सिखाने वाला बेशकीमती हीरा रहा है। जिसने हमेशा दोनों जातियों (हिन्दू-मुसलमान) को एक होने व आपस में मिल-जुल कर भाई-चारे के साथ रहने का संदेश दिया है। उन्होंने स्वयं भी सदैव इस गंगा-जमुना संस्कृति को पूरे मन से निभाया था।
बिस्मिल्ला खाँ साहब को भारत-रत्न से लेकर देश के अनेक विश्वविद्यालयों ने मानद उपाधियों से पुरस्कृत किया। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा पद्मविभूषण जैसे सम्मानों के लिए नहीं, वरन् अजेय संगीत के लिए खाँ साहब भविष्य में हमेशा संगीत के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की यु जीने के पश्चात् 21 अगस्त, 2006 को संगीत प्रेमियों की हृदयपूरित सभा से खाँ साहब ने विदा ले ली।
खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमारे लिए यही है कि पूरे अस्सी वर्षों तक उन्होंने संगीत को सम्पूर्ण रूप से एकल अधिकार की भावना से सीखने की बहुत बड़ी इच्छा को सदैव अपने मन में जिंदा रखा। आशय है कि सीखने की इच्छा को उन्होंने सदैव आगे रखा। कभी भी यह सोचकर सीखने की इच्छा को खत्म नहीं किया कि उन्हें अब सब आता है। यह उनके मानवीय गुण की पराकाष्ठा ही कही जायेगी।
विशेष :
- लेखक ने खाँ साहब के अद्भुत गुणों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
- भाषा शैली सरल-सुगम है। गंगा-जमुना संस्कृति की भाँति हिन्दी-उर्दू शब्दों का अद्भुत मेल प्रस्तुत है।
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘नौबतखाने में इबादत’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
‘नौबतखाना’ प्रवेश द्वार पर मंगल ध्वनि, शहनाई द्वारा बजाये जाने वाले स्थान को कहते हैं। शहनाई वादन के साथ ईश्वर की प्रार्थना, अर्चना करना, इबादत कहलाती है।
प्रश्न 2.
बिस्मिल्ला खाँ साहब के बचपन का क्या नाम था?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ साहब के बचपन का नाम ‘अमीरुद्दीन’ था।
प्रश्न 3.
“डुमराँव’ गाँव किन कारणों से इतिहास में प्रसिद्ध है।
उत्तर:
अमीरुद्दीन (खाँ साहब) के जन्म के कारण तथा शहनाई में प्रयुक्त होने वाली रीड घास के उत्पन्न होने के कारण प्रसिद्ध है।
प्रश्न 4.
बिस्मिल्ला खाँ साहब और एक मुस्लिम पर्व का नाम साथ जुड़ा है, वह कौनसा है?
उत्तर:
खाँ साहब के साथ और उनकी शहनाई के साथ ‘मुहर्रम’ पर्व का नाम जुड़ा है।
प्रश्न 5.
खाँ साहब की मनपसंद फिल्म अभिनेत्रियों के क्या नाम थे?
उत्तर:
फिल्म अभिनेत्री सुलोचना और गीताबाली खाँ साहब की मनपसंद अभिनेत्रियाँ थीं।
प्रश्न 6.
काशी को एक और किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
काशी को ‘आनंद कानन’ के नाम से जाना जाता है। जिसका अर्थ आनंद या खुशियाँ देने वाला कानन (वन) होता है।
प्रश्न 7.
काशी की किस प्रवृत्ति को देख कर खाँ साहब को दुःख होता था।
उत्तर:
बदलते समयानुसार संगीत, साहित्य और अदब की बहुत सारी परम्पराएँ लुप्त होने की वजह से खाँ साहब को दुःख होता था।
प्रश्न 8.
‘अलहमदुलिल्लाह’ का क्या सांकेतिक अर्थ है?
उत्तर:
यह एक अरबी शब्द है। इस शब्द का अर्थ ‘भगवान की तारीफ या प्रशंसा करना है।
प्रश्न 9.
खाँ साहब की महत्त्वपूर्ण जिजीविषा क्या थी?
उत्तर:
संगीत को सम्पूर्णता के साथ सीखना तथा सच्चे सुर की साधना, उनकी महत्त्वपूर्ण जिजीविषा थी।
प्रश्न 10.
बिस्मिल्ला खाँ साहब को कौन-कौनसे पुरस्कारों से नवाजा गया था?
उत्तर:
भारत रत्न, पद्मविभूषण तथा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार के साथ अनेक विश्वविद्यालयों की ढेरों मानद उपाधियों से पुरस्कृत किया गया था।
प्रश्न 11.
लेखक यतीन्द्र मिश्र के काव्य-संग्रहों के नाम बताइये।
उत्तर:
‘यदा-कदा’, ‘अयोध्या तथा अन्य कविताएँ’ तथा ‘डयोढी पर आलाप’ आदि हैं।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की काशी को क्या देन है?
उत्तर:
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ ने काशी को हिन्दू-मुस्लिम एकता की मूल्यवान संस्कृति दी। उन्होंने मुसलमान होकर भी गंगा को मैया माना। बालाजी तथा बाबा विश्वनाथ के प्रति गहरी आस्था प्रकट कर काशी को जन्नत जैसा पवित्र माना। इस तरह की आस्था से उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाने में सहयोग किया।
प्रश्न 2.
मजहब के प्रति समर्पित बिस्मिल्ला खाँ काशी से बाहर होने पर बाबा विश्वनाथ के प्रति अपनी श्रद्धा किस प्रकार व्यक्त करते थे?
उत्तर:
मजहब के प्रति समर्पित बिस्मिल्ला खाँ काशी से बाहर होने पर बाबा विश्वनाथ और बालाजी के मन्दिरों की दिशा की ओर मुँह करके बैठते थे और कुछ क्षण के लिए वे उसी ओर शहनाई को घुमाकर बजाते थे। इस तरह वे शहनाई वादन के माध्यम से अपनी आस्था और श्रद्धा प्रकट करते थे।
प्रश्न 3.
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ शहनाई वादन के संबंध में क्या सोचते रहे?
उत्तर:
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ अपने जीवन भर शहनाई वादन के संबंध में यह सोचते रहे कि अभी उन्हें एक सच्चे स्वर की तलाश है। अभी परमात्मा उन्हें सुर का नया फल देगा जिसे खाकर वे बहुत ही प्रभावी शहनाई वादन कर सकेंगे।
प्रश्न 4.
बिस्मिल्ला खाँ को संगीत की आरम्भिक प्रेरणा किनसे मिली?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ को संगीत की आरम्भिक प्रेरणा रसूलनबाई और बतूलन बाई नामक दो गायिका बहनों के गीतों को सुनकर मिली। जब वे शहनाई का रियाज़ करने बालाजी के मन्दिर जाया करते थे, तभी उन्हें रास्ते में इन गायिकाओं के स्वर सुनने को मिलते थे।
प्रश्न 5.
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ खुदा से क्या माँगते थे और क्यों?
उत्तर:
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ खुदा से सच्चा सुर माँगते थे, क्योंकि वे अपनी शहनाई वादन की कला को और अधिक लयकारी बनाना चाहते थे जिससे वे शहनाई के सुरों से श्रोताओं की आँखों में आनन्द के आँसू ला दें।
प्रश्न 6.
कौनसा दिन खाँ साहब के लिए विशेष महत्त्व रखता था? उस दिन वे क्या करते थे?
उत्तर:
मुहर्रम के शोक मनाने का आठवाँ दिन खाँ साहब के लिए विशेष महत्त्व रखता था। उस दिन वे आठ किलोमीटर तक पैदल रोते हुए और शोक सूचक ध्वनि बजाते हुए जाते थे।
प्रश्न 7.
बालक अमीरुद्दीन अपने मामू की शहनाई पर किस प्रकार दाद देता था?
उत्तर:
बालक अमीरुद्दीन के मामू अलीबख्श खाँ जब शहनाई बजाते हुए सम पर आ जाते थे तब वह जमीन पर धड़ से एक पत्थर मारकर दाद देता था। तब वह सिर हिलाकर या वाह कहकर दाद देना नहीं जानता था। यह दाद उसकी प्रसन्नता की सूचक होती थी।
प्रश्न 8.
बिस्मिल्ला खाँ को क्या विश्वास था?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ को यह विश्वास था कि खुदा उन पर कभी मेहरबान अवश्य होगा और अपनी झोली से निकाल कर उन्हें सुर रूपी फल अवश्य प्रदान करेगा। इससे उसकी शहनाई वादन की सुरीली मुराद पूरी होगी।
प्रश्न 9.
अपनी शहनाई वादन की प्रशंसा सुनकर बिस्मिल्ला खाँ क्या कहते थे?
उत्तर:
अपनी शहनाई वादन की प्रशंसा सुनकर बिस्मिल्ला खाँ इसे ईश्वर की कृपा मानते थे और वे कहा करते थे ‘अलहमदुलिल्लाह’ अर्थात् तमाम तारीफ़ ईश्वर के लिए।
प्रश्न 10.
“शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए।” बिस्मिल्ला खाँ ऐसा क्यों कहा करते थे?
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ के लिए शहनाई और काशी से बढ़कर इस धरती पर स्वर्गिक सुख प्रदान करने वाली और दूसरी कोई चीजें नहीं थीं। इसलिए वे शहनाई और काशी को अपने लिए सबसे बड़ी जन्नत मानते थे। इसलिए वे ऐसा कहते थे।
प्रश्न 11.
“नियमित और सच्चे मन से की गयी प्रार्थना अवश्य फलदायी होती है।” कथन को बिस्मिल्ला खाँ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास के साथ पाँचों बार की नमाज अदा कर ईश्वर से सच्चे सुर की माँग करते थे। खुदा ने उनकी वह प्रार्थना अवश्य सुनी, जिससे वे शहनाई सम्राट ही नहीं बने, बल्कि ‘भारत रत्न’ जैसी उपाधि भी प्राप्त कर सके।
प्रश्न 12.
‘बिस्मिल्ला खाँ की धार्मिक दृष्टि उदार और समन्वयवादी थी।’ इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ की इस्लाम के प्रति गहरी आस्था थी। लेकिन वे काशी विश्वनाथ और बालाजी के प्रति भी गहरी श्रद्धा रखते थे। जब वे काशी से बाहर जाते थे तो विश्वनाथ और बालाजी के मन्दिर की ओर थोड़ी देर के लिए शहनाई का मुंह कर सुर-साधना किया करते थे। वे गंगा को मैया मानते थे। इन आधारों पर कहा जा सकता है कि बिस्मिल्ला खाँ धार्मिक दृष्टि उदार और समन्वयवादी थी।
प्रश्न 13.
‘नौबतखाने में इबादत’ नामक पाठ का सन्देश स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ से हमें यह सन्देश मिलता है कि हम चाहे किसी भी धर्म के अनुयायी हों, हमें बिना किसी भेदभाव के धार्मिक सहिष्णुता के साथ जीवन जीना चाहिए और सभी धर्मों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए। कला और कलाकार का सम्मान करना चाहिए और ईश्वर के प्रति आस्था रखकर सरलता और सादगीपूर्ण जीवन जीना चाहिए।
प्रश्न 14.
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की काशी को क्या देन है?।
उत्तर:
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ मुस्लिम धर्म के पक्के अनुयायी थे। उन्होंने काशी को हिन्दू-मुस्लिम एकता की मूल्यवान संस्कृति दी। उन्होंने मुसलमान होकर के भी गंगा को मैया के रूप में माना, पूजा की। बालाजी तथा बाबा विश्वनाथ के प्रति अगाध आस्था और श्रद्धा प्रकट की। उन्होंने काशी में हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाने में अपना भरपूर सहयोग दिया।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ का सारांश संक्षिप्त रूप में लिखिए।
अथवा
‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ में किसके जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला गया है? बताइये।
उत्तर:
लेखक यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखित ‘नौबतखाने में इबादत’ प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खाँ के जीवन पर आधारित व्यक्ति-चित्र है। खाँ साहब का जन्म बिहार के सोननदी के किनारे बसे डुमराँव गाँव में हुआ। बचपन का नाम अमीरुद्दीन था। छोटी उम्र में ही नाना के घर काशी आ गए और उन्होंने वहाँ शहनाई वादन की तालीम (शिक्षा) प्राप्त की। अभ्यास के लिए जाते वक्त दो गायिका बहनों-रसूलन बाई, बतूलन बाई के संगीत रियाज को सुन कर उन्हें संगीत सीखने की प्रेरणा मिली। ये जीवन भर खुदा से सच्चा सुर माँगने की प्रार्थना करते रहे।
उनके जीवन में मुहर्रम का विशेष महत्त्व था। आठवें दिन नौहा (विलाप धुन) बजाते हुए आठ किलोमीटर पैदल चलते हुए, रोते हुए, शोक मनाते थे। फिल्म अभिनेत्री सुलोचना और कुलसुम हलवाईन की कचौड़ियों से इन्हें बहुत लगाव था। मुस्लिम होते हु जमुना संस्कृति की तर्ज पर बाबा विश्वनाथ और संकटमोचन बालाजी के परम भक्त थे।
काशी से बाहर जब शहनाई वादन हेत जाते तो इनके मंदिर दिशा की तरफ मुँह करके बैठ कर इन्हें अपनी श्रद्धा अर्पित करते थे। इस प्रकार ये भारत की हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के महान प्रतीक बन गए थे। भारत रत्न, पद्मविभूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों के साथ अनेक विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियाँ भी इन्होंने ग्रहण की थीं। 80 वर्षों तक संगीत साधना करते हुए 21 अगस्त, 2006 को इनका इंतकाल हुआ। इस प्रकार बिस्मिल्ला का सम्पूर्ण जीवन हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति और संगीत साधना को समर्पित रहा।
रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न –
प्रश्न 1.
रचनाकार यतीन्द्र मिश्र के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
अथवा
लेखक यतीन्द्र मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
युवा रचनाकार यतीन्द्र मिश्र का जन्म सन् 1977 में अयोध्या (उ.प्र.) में हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी एम.ए. की डिग्री प्राप्त कर वे आजकल अर्द्धवार्षिक ‘सहित’ पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। इनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं – ‘यदा-कदा’, ‘अयोध्या तथा अन्य कविताएँ’, ‘ड्योढ़ी पर आलाप’। इसके अलावा गिरिजा देवी, शास्त्रीय गायिका के जीवन व संगीत साधना पर ‘गिरिजा’ पुस्तक लिखी।
कविता, संगीत और अन्य ललित कलाओं के साथ-साथ समाज और संस्कृति के विविध क्षेत्रों में भी इनकी गहरी रुचि है। इन्हें भारतभूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता सम्मान तथा ऋतुराज सम्मान सहित कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। साहित्य कलाओं के संवर्द्धन एवं अनुशीलन हेतु सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी फाउंडेशन’ का संचालन भी ये कर रहे हैं।
यतीन्द्र मिश्र का जन्म सन् 1977 में अयोध्या (उ.प्र.) में हुआ। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया। इसके पश्चात् वे स्वतन्त्र लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में जुट गये। आजकल वे अर्द्धवार्षिक पत्रिका ‘सहित’ का सम्पादन कर रहे हैं। इसके साथ ही वे ‘विमला देवी फाउंडेशन’ नामक सांस्कृतिक न्यास का भी संचालन कर रहे हैं। यह संस्था साहित्य और कलाओं के संवर्द्धन एवं अनुशीलन के क्षेत्र में कार्यरत है।
उनके अब तक तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-‘यदा-कदा’, ‘अयोध्या तथा अन्य कविताएँ’, ‘ड्योढ़ी पर आलाप’। इसके साथ ही मिश्रजी ने शास्त्रीय गायिका गिरजा देवी के जीवन और संगीत साधना पर एक पस्तक ‘गिरजा’ लिखी है। आपने रीतिकाल के अन्तिम कवि द्विजदेव की ग्रंथावली का भी सहसंपादन किया है। कुंवर नारायण पर केन्द्रित दो पुस्तकों के अलावा स्पिक मैके के लिए विरासत-2001 के कार्यक्रम के लिए सम्पन्न कलाओं पर केन्द्रित ‘थाती’ का भी संपादन किया है। यतीन्द्र मिश्र को ‘भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान’, ‘हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार’, ‘ऋतुराज सम्मान’ आदि कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
‘नौबतखाने में इबादत’ प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्ति-चित्र है। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के बचपन का नाम अमीरुद्दीन था। उनका जन्म डुमराँव (बिहार) के एक संगीत-प्रेमी परिवार में हुआ था। वे 5-6 वर्ष की उम्र में ननिहाल (काशी) में आ गये थे। उनके मामा सादिक हुसैन तथा अलीबख्श देश के जाने-माने शहनाई वादक थे।
अमीरुद्दीन को चौदह वर्ष की उम्र में बालाजी के मन्दिर के नौबतखाने में रियाज पर जाना पड़ता था। यहीं रियाज करते-करते वे शहनाई वादक बने। वे काशी के संकटमोचन मन्दिर में होने वाली हनुमान जयन्ती के अवसर पर शहनाई वादन अवश्य करते थे। वे काशी, गंगानदी और बालाजी मन्दिर को छोड़कर कहीं भी जाने को तैयार न थे। उनके लिए यही स्वर्ग था। बिस्मिल्ला खाँ को देश के अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधियों से अलंकृत किया गया, संगीत-नाटक अकादमी पुरस्कार मिले। पद्मविभूषण और भारतरत्न (सर्वोच्च सम्मान) मिला। वे संगीत की दुनिया के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की आयु में 21 अगस्त, 2006 को वे इस दुनिया से विदा हो गये।