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RBSE Class 10 Social Science Solutions History Chapter 2 भारत में राष्ट्रवाद

RBSE Class 10 Social Science Solutions History Chapter 2 भारत में राष्ट्रवाद

पाठ-सार

1. प्रथम विश्व युद्ध, खिलाफत और असहयोग — 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ। युद्ध के दौरान कीमतें दोगुनी हो गईं। गाँवों में सिपाहियों को जबरदस्ती भर्ती किया गया। 1918 से 1921 के काल में पड़े दुर्भिक्ष और महामारी के कारण 120-130 लाख लोग मारे गए थें। लोगों को उम्मीद थी कि युद्ध खत्म होने के बाद उनकी मुसीबतें कम हो जाएँगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस कारण भारतीयों में आक्रोश व्याप्त था ।
1.1 सत्याग्रह का विचार – महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह के विचार को प्रस्तुत किया तथा 1917-18 में चम्पारन खेड़ा तथा अहमदाबाद में सत्याग्रह आन्दोलन चलाए।
1.2 रॉलेट एक्ट – ब्रिटिश सरकार ने 1919 में रॉलेट एक्ट पारित किया, जिसके अनुसार सरकार के राजनीतिक गतिविधियों को कुचलने तथा राजनीतिक बन्दियों को दो वर्ष तक बिना मुकदमा चलाए जेल में बन्द का अधिकार मिल गया था। महात्मा गाँधी ने इसके विरुद्ध एक राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह अहिंसक आन्दोलन शुरू किया। इस दौरान 13 अप्रेल को जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ।
1.3 खिलाफत आन्दोलन – महात्मा गांधी ने हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने के लिए खिलाफत आन्दोलन का समर्थन किया।
1.4 असहयोग ही क्यों ? — गाँधीजी का कहना था कि भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों के सहयोग से ह स्थापित हुआ था, इसी सहयोग के कारण अंग्रेजों का शासन चल पा रहा है। अगर भारत के लोग अपना सहयोग वापस ले लें तो सालभर के भीतर ब्रिटिश शासन ढह जायेगा और स्वशासन की स्थापना हो जायेगी।
2. आन्दोलन के भीतर अलग-अलग धाराएँ-1921 में गांधीजी ने असहयोग-खिलाफत आन्दोलन शुरु किया।
2.1 शहरों में आन्दोलन – इस आन्दोलन के दौरान विदेशी माल का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों पर धरना दिया गया तथा विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। हजारों विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए तथा शिक्षकों ने त्याग पत्र सौंप दिये । मद्रास के अतिरिक्त अधिकतर प्रान्तों में परिषद चुनावों का बहिष्कार किया गया।
2.2 ग्रामीण इलाकों में विद्रोह – शहरों से बढ़कर असहयोग आन्दोलन देहात में भी फैल गया था। युद्ध के बाद देश के विभिन्न भागों में चले किसानों व आदिवासियों के संघर्ष भी इस आन्दोलन में समा गए। लेकिन किसानों के आन्दोलन में ऐसे स्वरूप जैसे तालुकदारों और व्यापारियों के मकानों पर हमला करना, बाजारों में लूट-पाट करना तथा अनाज के गोदामों पर कब्जा करना आदि विकसित हो चुके थे जिनसे कांग्रेस का नेतृत्व खुश नहीं था।
महात्मा गाँधी का नाम लेकर स्थानीय किसान नेता अपनी सारी कार्यवाहियों और आकांक्षाओं को सही ठहरा रहे थे । आदिवासी किसानों; उदाहरण के लिए आन्ध्र प्रदेश की गुडेम पहाड़ियों के आदिवासी विद्रोहियों ने 1920 में स्वराज प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध चलाए ।
2.3 बागानों में स्वराज- महात्मा गाँधी के विचारों और स्वराज की अवधारणा के बारे में मजदूरों की अपनी समझ थी। असम के बागानी मजदूरों के लिए आजादी का मतलब यह था कि वे उन चारदीवारियों से जब चाहे आजा सकते हैं जिनमें उनको बंद करके रखा गया था अर्थात् वे अपने गाँवों से सम्पर्क रख पायेंगे। असहयोग आन्दोलन के दौरान ऐसे हजारों मजदूर अपने अधिकारियों की अवहेलना करने लगे; उन्होंने बागान छोड़ दिए और अपने घर चले गए।
इन स्थानीय आन्दोलनों की अपेक्षाओं और दृष्टियों को कांग्रेस के कार्यक्रम में परिभाषित नहीं किया गया था फिर भी जब इन आदिवासियों व मजदूरों ने गाँधीजी के नाम पर नारा लगाया और स्वतन्त्र भारत की हुँकार भरी तो वे अखिल भारतीय असहयोग आन्दोलन से भावात्मक रूप से जुड़े हुए थे।
असहयोग आन्दोलन को वापस लेना- चौरी-चौरा में 1922 में एक शान्तिपूर्ण जुलूस पुलिस के साथ हिंसक टकराव में बदल गया। इस घटना के बाद गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन को रोकने का आह्वान किया।
3. सविनय अवज्ञा की ओर – असहयोग आन्दोलन को वापस लेने के बाद सी. आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने परिषद् राजनीति में वापस लौटने के लिए कांग्रेस के भीतर ही स्वराज पार्टी का गठन कर डाला। दूसरी तरफ, सुभाष चन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे युवा नेता उग्र जन आन्दोलन का दबाव बनाए हुए थे। आन्तरिक बहस और असहमति के इस माहौल में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी तथा कृषि उत्पादों की गिरती कीमतों ने भारतीय राजनीति की रूपरेखा में बदलाव ला दिया। इसी पृष्ठभूमि में 1927 में ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया। इसमें सात सदस्य थे जो सभी अंग्रेज थे । अतः कांग्रेस ने साइमन कमीशन का बहिष्कार करने का निश्चय किया । 1928 में जब साइमन कमीशन भारत पहुँचा, तो उसका स्वागत ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारों से किया गया। दिसम्बर 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज’ की माँग को औपचारिक रूप से मान लिया गया। तय किया गया कि 26 जनवरी, 1930 को स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा।
3.1 नमक यात्रा और सविनय अवज्ञा आन्दोलन – 12 मार्च, 1930 को गांधीजी ने अपने 78 कार्यकर्ताओं के साथ नमक यात्रा शुरू कर दी । यह यात्रा साबरमती में गांधीजी के आश्रम से 240 किलोमीटर दूर दांडी नामक स्थान पर जाकर समाप्त होनी थी | 6 अप्रेल को गांधीजी दांडी पहुँचे और वहाँ नमक बनाकर सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया । हजारों लोगों ने नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा । यहीं से सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू होता है। इस बार लोगों को न केवल अंग्रेजों का सहयोग न करने के लिए बल्कि, औपनिवेशिक कानूनों का उल्लंघन करने के लिए आह्वान किया गया । आन्दोलन फैला तो अनेक स्थानों पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई और शराब की दुकानों पर धरना दिया गया। किसानों ने लगान नहीं दिया, वन कानूनों का उल्लंघन किया गया। सरकार ने दमन चक्र चलाया।
महात्मा गाँधी ने एक बार फिर 5 मार्च, 1931 को आन्दोलन वापस ले लिया और इरविन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए जिसमें गाँधीजी ने लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी । गोलमेज सम्मेलन विफल होने पर गाँधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन पुनः शुरू किया। लेकिन 1934 तक आते-आते इसकी गति मंद पड़ने लगी थी ।
3.2 लोगों ने आन्दोलन को कैसे लिया? – (i) सम्पन्न किसानों ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन का बढ़-चढ़कर समर्थन किया। उनके लिए स्वराज की लड़ाई भारी लगान के खिलाफ लड़ाई थी । जब 1931 में लगानों के घंटे बिना आन्दोलन वापस ले लिया तो उन्हें बड़ी निराशा हुई । फलस्वरूप 1932 में आन्दोलन पुनः शुरू हुआ तो उनमें से बहुतों ने हिस्सा नहीं लिया ।
(ii) गरीब किसान भाड़ा विरोधी आन्दोलन कर रहे थे । कांग्रेस अमीर किसानों और जमींदारों की नाराजगी के कारण इन आन्दोलनों को समर्थन नहीं दे रही थी। इसी कारण गरीब किसान और कांग्रेस के बीच सम्बन्ध अनिश्चित बने रहे।
(iii) भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक नियन्त्रण का विरोध किया तथा पहले सविनय अवज्ञा आन्दोलन का समर्थन किया। उनका मानना था कि औपनिवेशिक पाबंदियों के हटने से व्यापार व उद्योग निर्बाध ढंग से फल-फूल सकेंगे। लेकिन गोलमेज सम्मेलन की विफलता, प्रशासन के दमन चक्र और कांग्रेस में बढ़ते समाजवादी प्रभाव के कारण दूसरे सविनय आन्दोलन में उनका उत्साह मंद पड़ गया था।
(iv) औद्योगिक श्रमिक वर्ग ने इस आन्दोलन में नागपुर के अलावा और कहीं भी बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा नहीं लिया। फिर भी 1930 में रेलवे कामगारों की तथा 1932 में गोदी कामगारों की हड़ताल हुई। 1930 में छोटा नागपुर में हजारों मजदूरों ने रैलियों और बहिष्कार अभियानों में भाग लिया ।
(v) सविनय अवज्ञा आन्दोलन में औरतों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया । शहरी क्षेत्रों में ऊँची जातियों की महिलाएँ तथा ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पन्न परिवारों की महिलाएँ आन्दोलन में सक्रिय रहीं ।
अलग 3.3 सविनय अवज्ञा की सीमाएँ – (i) गाँधीजी ने अस्पृश्यता (छुआछूत) को समाप्त करने पर बल दिया। अनेक दलित नेताओं ने अछूतों को शिक्षा संस्थानों में आरक्षण दिए जाने की माँग की और अलग निर्वाचन क्षेत्रों की बात कही । डॉ. अम्बेडकर ने 1930 में ‘दलित वर्ग एसोसिएशन’ की स्थापना की । जब ब्रिटिश सरकार ने दलितों के निर्वाचन क्षेत्र की माँग मान ली, तो गांधीजी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। अन्त में 1932 में गांधीजी तथा डॉ. अम्बेडकर के बीच ‘पूना पैक्ट’ हो गया। (ii) सविनय अवज्ञा आन्दोलन में कुछ मुस्लिम राजनीतिक संगठनों ने भी विशेष उत्साह नहीं दिखाया । उनको भय था कि हिन्दू बहुसंख्या के वर्चस्व की स्थिति में अल्पसंख्यकों की संस्कृति और पहचान खो जाएगी।
4. सामूहिक अपनेपन का भाव तथा भारतमाता की छवि – (i) भारत में सामूहिक अपनेपन की भावना आंशिक रूप से संयुक्त संघर्षों के चलते उत्पन्न हुई थी । (ii) बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद के विकास के साथ भारत की पहचान भी भारतमाता की छवि का रूप लेने लगी। 1870 के दशक में बंकिमचन्द्र चटर्जी ने मातृभूमि की स्तुति के रूप में ‘वन्दे मातरम्’ गीत लिखा था। इसके बाद अबनीन्द्रनाथ टैगोर ने भारतमाता की विख्यात छवि को चित्रित किया । (iii) आगे चलकर राष्ट्रवादी नेताओं ने लोगों को एकजुट करने तथा राष्ट्रवाद की भावना भरने के लिए विभिन्न प्रकार के चिह्नों व प्रतीकों का प्रयोग किया; अतीत का गौरवगान किया गया, लेकिन यह गौरवगान हिन्दुओं के अतीत का गौरवगान था; छवियाँ हिन्दू प्रतीक थीं; इसलिए अन्य समुदायों के लोग अलग-अलग महसूस करने लगे ।
निष्कर्ष – अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बढ़ता गुस्सा भारतीय समूहों तथा वर्गों के लिए स्वतन्त्रता का साझा संघर्ष बनता जा रहा था।

RBSE Class 10 Social Science भारत में राष्ट्रवाद InText Questions and Answers

गतिविधि-पृष्ठ 31

प्रश्न 1.
स्रोत-क को ध्यान से पढ़ें। जब महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह को सक्रिय प्रतिरोध कहा, तो इससे उनका क्या आशय था?
उत्तर:
महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह को सक्रिय प्रतिरोध कहा है। इससे उनका आशय था कि सत्याग्रह शुद्ध आत्मबल है। यह शारीरिक बल नहीं है। इसके लिए सघन सक्रियता चाहिए। सत्याग्रही अपने शत्रु को कष्ट नहीं पहुंचाता है। इसके द्वारा वह शत्रु के मस्तिष्क को प्रेम, करुणा एवं सत्य के द्वारा विध्वंसक विचारों से हटाकर उसमें रचनात्मक विचारों को आरोपित करता है।

गतिविधि-पृष्ठ 35

प्रश्न 1.
अगर आप 1920 में उत्तर प्रदेश में किसान होते तो स्वराज के लिए गांधीजी के आह्वान पर क्या प्रतिक्रिया देते? उत्तर के साथ कारण भी बताइए।
उत्तर:
अगर मैं 1920 में उत्तर प्रदेश में एक किसान होता तो गाँधीजी के आह्वान पर सकारात्मक अहिंसात्मक आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेता क्योंकि उस समय उत्तर प्रदेश के जमींदार तथा तालुकेदार किसानों से भारी लगान तथा अनेक प्रकार के कर वसूल कर रहे थे तथा बेगार लेकर उनका शोषण कर रहे थे। गाँधीजी ने अत्यधिक करों तथा बेगार का विरोध किया था। स्थानीय नेता किसानों को आश्वासन दे रहे थे कि गाँधीजी ने घोषणा कर दी है कि अब कोई लगान नहीं भरेगा और जमीन गरीबों में बाँट दी जाएगी।

गतिविधि-पृष्ठ 36

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल ऐसे अन्य लोगों के बारे में पता लगाइये जिन्हें अंग्रेजों ने पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया था। क्या ऐसा ही उदाहरण आप इंडो-चाइना के राष्ट्रीय आन्दोलन में भी बता सकते हैं?
उत्तर:
पंजाब में क्रान्तिकारियों ने 1915 में सैनिक छावनियों में विद्रोह भड़काने की योजना बनाई जो असफल हो गई। 46 देशभक्तों को अंग्रेजों ने पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया। 8 मई, 1915 को मास्टर अमीरचन्द, अवध बिहारी, बाल मुकुन्द बिस्सा तथा बसन्त कुमार को फांसी की सजा दी गई। इनके अलावा राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल लोगों में दामोदर हरि चापेकर, अनन्त कान्हेर, विनायक राव देशपाण्डे, खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, सरदार भगतसिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह, राजेन्द्र लाहिड़ी, राजगुरु, सुखदेव, सरदार ऊधमसिंह आदि को फांसी की सजा दी गई। 1930 में अब्दुल गफ्फार खाँ को गिरफ्तार करने पर सत्याग्रही सड़कों पर उतर आए। पुलिस की गोलियों का शिकार बनते हुए सैकड़ों देशभक्त मारे गए।

इण्डो-चाइना के राष्ट्रीय आन्दोलन में लाखों वियतनामियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने साम्राज्यवादियों के चंगुल से अपने देश को स्वतन्त्र कराने के लिए दीर्घकाल तक संघर्ष किया जिसमें हजारों वियतनामी देशभक्त मारे गए। ट्रंग बहनों तथा त्रियू अयू नामक महिलाओं ने चीनी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।

चर्चा करें-पृष्ठ 43

प्रश्न 1.
सविनय अवज्ञा आन्दोलन में विभिन्न वर्गों और समूहों ने क्यों हिस्सा लिया?
उत्तर:
सविनय अवज्ञा आन्दोलन में विभिन्न वर्गों और समूहों द्वारा हिस्सा लेना- सविनय अवज्ञा आन्दोलन में विभिन्न वर्गों और समूहों ने हिस्सा लिया। उनके सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के निम्नलिखित कारण थे

  • सम्पन्न किसानों के भाग लेने के कारण- धनी किसानों के लिए स्वराज का अर्थ था–भारी लगान के विरुद्ध लड़ाई।
  • गरीब किसान और सविनय अवज्ञा आन्दोलन- गरीब किसानों के लिए स्वराज का अर्थ था, उनके पास जमीनें होंगी, उन्हें जमीन का किराया नहीं देना पड़ेगा व बेगार भी नहीं करनी पड़ेगी।
  • व्यवसायी वर्ग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन- अधिकांश व्यवसायी स्वराज को एक ऐसे युग के रूप में देखते थे जहाँ व्यापार पर औपनिवेशिक पाबंदियाँ नहीं होंगी तथा व्यापार व उद्योग बिना किसी रुकावट के प्रगति कर सकेंगे।
  • औद्योगिक श्रमिक वर्ग- औद्योगिक श्रमिक सविनय अवज्ञा आन्दोलन को उच्च वेतन एवं अच्छी कार्यस्थितियों के रूप में देखते थे, क्योंकि उनमें कम वेतन दिये जाने तथा असंतोषजनक कार्य स्थितियों के कारण असंतोष व्याप्त था।
  • महिलाएँ और सविनय अवज्ञा आन्दोलन- महिलाएँ सविनय अवज्ञा आन्दोलन में इसलिए शामिल हुईं क्योंकि उनके लिए स्वराज का अर्थ था-भारतीय समाज में पुरुषों के साथ बराबरी एवं स्तरीय जीवन की प्राप्ति होना।

चर्चा करें-पृष्ठ 45

प्रश्न 1.
स्रोत-घ (पाठ्यपुस्तक में) को ध्यान से पढ़ें। क्या आप सांप्रदायिकता के बारे में इकबाल के विचारों से सहमत हैं? क्या आप सांप्रदायिकता को अलग प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं?
उत्तर:
नहीं, मैं सांप्रदायिकता के बारे में इकबाल के विचारों से सहमत नही हूँ क्योंकि इकबाल की विचारधारा सम्प्रदाय हित को राष्ट्र से भी ऊपर रखती है। वह सम्प्रदाय के आधार पर पृथक निर्वाचिका की मांग करते हैं जो कि आगे चलकर देश के लिए विनाशकारी साबित होती। इनके विचारों से प्रेरित होकर ही आगे पाकिस्तान की मांग उठी।

जी हाँ, मैं सांप्रदायिकता को अलग प्रकार से परिभाषित कर सकता हूँ। मेरे विचार में साम्प्रदायिकता से आशय दो भिन्न सम्प्रदायों की दार्शनिक अवधारणाओं के बीच वैचारिक अन्तर से होता है। इसके आधार पर राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जा सकता है। एक ही राष्ट्र में विभिन्न सम्प्रदायों को फलने-फूलने का अवसर मिलना चाहिए। सम्प्रदाय राष्ट्रहित के ऊपर नहीं हो सकता।

RBSE Class 10 Social Science भारत में राष्ट्रवाद Textbook Questions and Answers

संक्षेप में लिखें

प्रश्न 1.
व्याख्या करें-
(क) उपनिवेशों में राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन से जुड़ी हुई क्यों थी?
(ख) पहले विश्व युद्ध ने भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में किस प्रकार योगदान दिया?
(ग) भारत के लोग रॉलेट एक्ट के विरोध में क्यों थे?
(घ) गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन को वापस लेने का फैसला क्यों लिया?
उत्तर:
(क) उपनिवेशों में राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन से जुड़ी हुई थी। औपनिवेशिक शासकों के विरुद्ध संघर्ष के दौरान लोग आपसी एकता को समझने लगे थे। उन्होंने उत्पीड़न और दमन का मिल-जुलकर मुकाबला किया था। इसने विभिन्न समूहों के लोगों को एकता के सूत्र में बाँध दिया था। उन्होंने महसूस किया कि औपनिवेशिक शासन को समाप्त किये बिना उनके कष्टों का अन्त नहीं होगा। इस विचार ने भी राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा दिया।

(ख) भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में प्रथम विश्व युद्ध के योगदान का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दिया जा सकता है-

  • करों में वृद्धि-प्रथम विश्व युद्ध के कारण रक्षा-व्यय में अत्यधिक वृद्धि हुई। इस खर्चे की पूर्ति के लिए सरकार ने करों में वृद्धि कर दी। सीमा-शुल्क भी बढ़ा दिया गया तथा आय कर नामक एक नया कर भी लगा दिया गया। इससे भारतीयों में घोर असन्तोष उत्पन्न हुआ जिसने राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
  • मूल्यों में वृद्धि-प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कीमतें लगभग दोगुना हो चुकी थीं। बढ़ते हुए मूल्य के कारण जनसाधारण की कठिनाइयाँ बढ़ गईं और उन्हें जीवन-निर्वाह करना भी कठिन हो रहा था।
  • सैनिकों की जबरन भर्ती-प्रथम विश्व युद्ध में गाँवों में भारतीय नवयुवकों को सेना में जबरदस्ती भर्ती किया गया। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में आक्रोश व्याप्त था।
  • दुर्भिक्ष और महामारी का प्रकोप-1918-19 तथा 1920-21 में देश में खाद्य पदार्थों की भारी कमी हो गई। उसी समय फ्लू की महामारी फैल गई। दुर्भिक्ष तथा महामारी के कारण 120-130 लाख भारतीय मौत के मुँह में चले गए। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने संकटग्रस्त भारतीयों की कोई सहायता नहीं की।
  • जनता की आकांक्षाएँ पूरी न होना-भारतीयों को आशा थी कि प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् उनके कष्टों और कठिनाइयों का अन्त हो जाएगा। परन्तु उनकी आकांक्षाएँ पूरी नहीं हुईं। इस कारण भी भारतीयों में घोर असन्तोष व्याप्त था। इसने भी राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया।

(ग) (1) रॉलेट एक्ट के द्वारा ब्रिटिश सरकार को राजनीतिक गतिविधियों का दमन करने तथा राजनीतिक कैदियों को दो वर्ष तक बिना मुकदमा चलाए जेल में बन्द रखने का अधिकार मिल गया।
(2) भारतीयों ने महसूस किया कि ब्रिटिश सरकार राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के लिए कटिबद्ध है।
(3) वे इसलिए भी नाराज थे कि प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को सैनिक और आर्थिक सहायता देने के बावजूद उसने रॉलेट एक्ट जैसा काला कानून बनाया था।
अतः भारतीयों ने रॉलट एक्ट का विरोध करने का निश्चय किया।

(घ) जब असहयोग आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर था, उस समय 5 फरवरी, 1922 को गोरखपुर स्थित चौरी-चौरा नामक स्थान पर सत्याग्रहियों और पुलिस के बीच हिंसक टकराव हो गया। भीड़ ने एक पुलिस थाने में आग लगा दी जिससे एक थानेदार तथा 21 सिपाही जीवित जलकर मर गए। गांधीजी ने इस हिंसात्मक घटना से दु:खी होकर असहयोग आन्दोलन वापिस लेने का फैसला ले लिया।

प्रश्न 2.
सत्याग्रह के विचार का क्या मतलब है?
अथवा
सत्याग्रह पर महात्मा गाँधी के विचार बतलाइये।
उत्तर:
सत्याग्रह के विचार में सत्य की शक्ति पर आग्रह तथा सत्य की खोज पर बल दिया जाता है।

सत्याग्रह पर महात्मा गांधी के विचार-

  • सत्याग्रह सक्रिय प्रतिरोध है-सत्याग्रह निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं बल्कि सक्रिय प्रतिरोध है।
  • सत्याग्रह शारीरिक बल नहीं है-गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह शारीरिक बल नहीं है। सत्याग्रही अपने शत्रु को कष्ट नहीं पहुँचाता। वह अपने शत्रु का विनाश नहीं चाहता। सत्याग्रह के प्रयोग में प्रतिशोध या दुर्भावना की भावना नहीं होती है। यदि आपका संघर्ष अन्याय के विरुद्ध है तो उत्पीड़कों से मुकाबला करने के लिए आपको किसी शारीरिक बल की आवश्यकता नहीं है।
  • सत्याग्रह शुद्ध आत्मबल है-सत्याग्रह शुद्ध आत्मबल है। सत्य ही आत्मा का आधार होता है। इसलिए इस बल को सत्याग्रह की संज्ञा दी गई है। आत्मा ज्ञानयुक्त होती है। यह प्रेम से ओत-प्रोत है। अहिंसा सर्वोच्च धर्म है।
  • प्रतिशोध की भावना का अभाव-सत्याग्रही प्रतिशोध की भावना अथवा आक्रामकता का सहारा लिए बिना ही अहिंसा के सहारे ही अपने संघर्ष में सफल हो सकता है, इसके लिए दमनकारी शत्रु की चेतना को झिंझोड़ना चाहिए।
  • सत्य की विजय-इस संघर्ष में अन्ततः सत्य की ही विजय होती है। गाँधीजी के अनुसार अहिंसा का यह धर्म सभी भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँध सकता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित पर अखबार के लिए रिपोर्ट लिखें-
(क) जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड
(ख) साइमन कमीशन।
उत्तर:
(क) जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड-
13 अप्रेल, 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में हत्याकाण्ड हुआ। सैकड़ों लोग मारे गये। 13 अप्रेल को वैसाखी मेले में शामिल होने हेतु बहुत सारे ग्रामीण जलियाँवाला बाग में एकत्रित हुए। बहुत सारे लोग रॉलेट एक्ट तथा अपने प्रिय नेताओं की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए भी एकत्रित हुए। लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि शहर में मार्शल लॉ लागू किया जा चुका है। जनरल डायर सशस्त्र सैनिकों को लेकर वहाँ पहुँचा और उसने मैदान से बाहर निकलने के समस्त मार्ग बन्द करवा दिए। इसके बाद उसके आदेश पर सैनिकों ने शान्तिपूर्ण भीड़ पर अन्धाधुन्ध गोलियां चला दीं। इसके फलस्वरूप सैकड़ों लोग मारे गए तथा अनेक घायल हो गए। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की सम्पूर्ण देश में कटु आलोचना की गई।

(ख) साइमन कमीशन-
1927 में ब्रिटिश सरकार ने एक वैधानिक आयोग का गठन किया जिसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे। इस आयोग को भारत में संवैधानिक व्यवस्था की कार्यशैली का अध्ययन करना था और उसके बारे में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करनी थीं। इस आयोग में सात सदस्य थे और सभी अंग्रेज थे। इसलिए भारतवासियों ने साइमन कमीशन का बहिष्कार करने का निश्चय किया।

1928 में जब साइमन कमीशन भारत पहुँचा, तो उसका स्वागत साइमन कमीशन वापस जाओ (साइमन कमीशन गो बैक) के नारों और काले झण्डों से किया गया। कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य सभी दलों ने साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शनों में भाग लिया।

प्रश्न 4.
इस अध्याय में दी गई भारतमाता की छवि और अध्याय 1 में दी गई जर्मेनिया की छवि की तुलना कीजिए।
उत्तर:
(1) 1905 में प्रसिद्ध चित्रकार अबनीन्द्रनाथ टैगोर ने भारतमाता की छवि बनाई थी जबकि 1848 में चित्रकार फिलिप वेट ने जर्मेनिया की छवि बनाई थी।

(2) भारतमाता भारत राष्ट्र की तथा जर्मेनिया जर्मन राष्ट्र की प्रतीक है।

(3) अबनीन्द्रनाथ के चित्र में भारतमाता को एक संन्यासिनी के रूप में दर्शाया गया है। वह शान्त, गम्भीर, दैवी और आध्यात्मिक गुणों से युक्त दिखाई देती है। भारतमाता की छवि शिक्षा, भोजन और कपड़े दे रही है। एक हाथ में माला उसके संन्यासिनी गुण को प्रकट करती है। दूसरी ओर जर्मेनिया को बलूत वृक्ष के पत्तों का मुकुट पहने दिखाया गया है क्योंकि जर्मनी का बलूत वीरता का प्रतीक है। जर्मेनिया को एक वीर, साहसी तथा देश की रक्षा करने वाली महिला के रूप में दर्शाया गया है। .

(4) भारत माता की दूसरी छवि में भारत माता के हाथों में त्रिशूल है और वह हाथी व शेर के बीच खड़ी है। ये दोनों ही शक्ति और सत्ता के प्रतीक हैं । जर्मेनिया का दूसरा चित्र जर्मन नदी पर पहरा देते हुए बनाया गया है। जर्मेनिया के हाथ में तलवार है और उस तलवार पर उत्कीर्ण है-“जर्मन तलवार जर्मन राइन की रक्षा करती है।”

(5) भारत माता की छवि इस प्रकार चित्रित की गई जिसे सच्चे अर्थों में भारतीय माना जा सके जबकि जर्मेनिया की छवि जर्मन इतिहास एवं संस्कृति से प्रेरित थी।

चर्चा करें

प्रश्न 1.
1921 में असहयोग आन्दोलन में शामिल होने वाले सभी सामाजिक समूहों की सूची बनाइए। इसके बाद उनमें से किन्हीं तीन को चुनकर उनकी आशाओं और संघर्षों के बारे में लिखते हुए यह दर्शाइये कि वे आन्दोलन में शामिल क्यों हुए?
उत्तर:
1921 में असहयोग आन्दोलन में शामिल होने वाले सामाजिक समूह-1921 में असहयोग आन्दोलन में शामिल होने वाले सामाजिक समूह थे- (1) शहरी मध्यवर्गीय समूह (विद्यार्थी, शिक्षक, अध्यापक और वकील आदि), (2) व्यापारी, (3) कारखाना श्रमिक, (4) किसान, (5) आदिवासी, (6) बागानी मजदूर, (7) महिलाएँ।

विभिन्न सामाजिक समूहों की आकांक्षाएँ तथा संघर्ष- असहयोग आन्दोलन में भाग लेने वाले सभी सामाजिक समूहों की अपनी-अपनी आकांक्षाएँ थीं। सभी ने गांधीजी के स्वराज के आह्वान को स्वीकार किया, परन्तु उनके संघर्ष उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप थे।

(1) शहरी मध्यवर्गीय समूह- भारत के शहरी मध्यवर्ग ने महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन को स्वीकार कर लिया। हजारों की संख्या में विद्यार्थियों ने विद्यालय-महाविद्यालय छोड़ दिए; प्रधानाध्यापकों और अध्यापकों ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिए तथा वकीलों ने मुकदमा लड़ना बन्द कर दिया। मद्रास के अतिरिक्त अधिकांश प्रान्तों में परिषद चुनावों का बहिष्कार किया गया।

(2) आदिवासी किसान- आन्ध्रप्रदेश की गूडेम पहाड़ियों में रहने वाले आदिवासी किसानों में ब्रिटिश सरकार की नीतियों के विरुद्ध आक्रोश व्याप्त था। अंग्रेजी सरकार ने बड़े-बड़े जंगलों में लोगों के प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी थी। लोग इन जंगलों में न तो पशुओं को चरा सकते थे और न ही जलावन के लिए लकड़ी तथा फल बीन सकते थे। इससे उनका जीवन-निर्वाह करना कठिन हो रहा था। इसके अतिरिक्त उन्हें सड़कें बनाने के लिए बेगार भी करनी पड़ती थी।

राज द्वारा आदिवासियों का नेतृत्व- इन समस्याओं और कठिनाइयों के कारण आदिवासियों ने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। अल्लूरी सीताराम राजू नामक व्यक्ति ने इन आदिवासियों का नेतृत्व किया। राजू ने लोगों को खादी पहनने तथा शराब छोड़ने के लिए प्रेरित किया। उनकी मान्यता थी कि भारत अहिंसा के बल पर नहीं, बल्कि केवल बल-प्रयोग के द्वारा ही स्वतन्त्र हो सकता है। इसलिए गूडेम विद्रोहियों ने पुलिस थानों पर हमले किए, ब्रिटिश अधिकारियों को मारने का प्रयास किया तथा गुरिल्ला युद्ध चलाते रहे।

(3) बागानी मजदूर- असम के बागानी मजदूरों के लिए स्वतन्त्रता का अर्थ यह था कि वे स्वतन्त्र रूप से बागानों से आ-जा सकते हैं जिनमें उनको बन्द करके रखा गया था तथा वे अपने गाँवों से सम्पर्क रख पायेंगे। 1859 के ‘इनलैंड इमिग्रेशन एक्ट’ के अन्तर्गत बागानों में काम करने वाले मजदूरों को बिना अनुमति के बाहर जाने का निषेध था। अत: बागानी मजदूर असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गए। वे अपने अधिकारियों की अवहेलना करने लगे। उन्होंने बागान छोड़ दिए और अपने-अपने गाँव की ओर चल दिए। उन्होंने महसूस किया कि अब गांधी-राज आ रहा है और अब सभी को गाँव में जमीन मिल जाएगी। अतः वे असहयोग आन्दोलन में शामिल हुए।

प्रश्न 2.
नमक यात्रा की चर्चा करते हुए स्पष्ट करें कि यह उपनिवेशवाद के खिलाफ प्रतिरोध का एक असरदार प्रतीक था।
अथवा
“महात्मा गाँधी की दांडी यात्रा ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध का असरदार प्रतीक थी।” समझाइए।
अथवा
महात्मा गाँधी की नमक यात्रा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नमक यात्रा (दांडी मार्च)- 31 जनवरी, 1930 को गाँधीजी ने वायसराय इरविन को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने 11 माँगों का उल्लेख किया। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण माँग नमक-कर को समाप्त करने के बारे में थी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को यह चेतावनी दी कि यदि 11 मार्च तक उनकी माँगें नहीं मानी गईं, तो कांग्रेस सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर देगी।

माँगें नहीं माने जाने पर गांधीजी ने अपने 78 विश्वस्त कार्यकर्ताओं के साथ साबरमती आश्रम में दांडी नामक कस्बे की ओर प्रस्थान किया। गांधीजी ने 240 किलोमीटर की यात्रा पैदल चल कर 24 दिन में तय की। गांधीजी जहाँ भी ठहरते थे, हजारों लोग उनके भाषण सुनने के लिए आते थे। इन सभाओं में गांधीजी ने स्वराज का अर्थ स्पष्ट किया और आह्वान किया कि लोग अंग्रेजों की शान्तिपूर्वक अवज्ञा करें। 6 अप्रेल को गांधीजी दांडी पहुँचे और उन्होंने समुद्र का पानी उबाल कर नमक बनाना शुरू कर दिया। इस प्रकार उन्होंने नमक कानून भंग किया।

शीघ्र ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन सम्पूर्ण देश में फैल गया। अनेक स्थानों पर लोगों ने नमक कानून तोड़ा और सरकारी नमक कारखानों के सामने प्रदर्शन किये। ब्रिटिश सरकार ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए दमनात्मक नीति अपनाई। अब्दुल गफ्फार खान, महात्मा गांधी आदि को गिरफ्तार कर लिया गया। लगभग एक लाख लोगों को जेलों में बन्द कर दिया गया।

नमक यात्रा उपनिवेशवाद के विरुद्ध प्रतिरोध का एक प्रभावशाली प्रतीक था। इस यात्रा ने राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापक बनाया। लाखों भारतीयों ने निडरतापूर्वक ब्रिटिश सरकार के दमनात्मक कानूनों का उल्लंघन किया और उन्होंने अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए हँसते-हँसते जेलों को भरना शुरू कर दिया। इस आन्दोलन में महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया और औपनिवेशिक कानूनों को तोड़ने के लिए सत्याग्रह किया।

प्रश्न 3.
कल्पना कीजिए कि आप सिविल नाफरमानी आन्दोलन (सिविल अवज्ञा आन्दोलन ) में हिस्सा लेने वाली महिला हैं । बताइए कि इस अनुभव का आपके जीवन में क्या अर्थ होता?
उत्तर:
सिविल नाफरमानी आन्दोलन में महिलाओं के रूप में भाग लेने पर मेरे अनुभव-
(1) महिलाओं द्वारा आन्दोलन में भाग लेना- गांधीजी के इस सत्याग्रह आन्दोलन के समय बड़ी संख्या में स्त्रियां उनकी बातें सुनने के लिए अपने घरों से बाहर आ जाती थीं।
(2) औपनिवेशिक कानूनों का विरोध करना और जेल जाना- उस समय हम महिलाओं में बड़ा जोश था। मैंने अन्य महिलाओं के साथ अनेक जुलूसों में भाग लिया, नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा, विदेशी कपड़ों तथा शराब की दुकानों पर धरना दिया। सरकार ने दमनकारी नीति अपनाते हुए अनेक महिलाओं को गिरफ्तार कर जेलों में भेज दिया। हमें जेल जाते समय तनिक भी डर नहीं लगा और हमने हँसते-हँसते अपने आपको गिरफ्तारी के लिए प्रस्तुत किया।
(3) शहरी क्षेत्रों में उच्च जाति की महिलाओं तथा ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पन्न किसान परिवारों की महिलाओं का सक्रिय होना- इस आन्दोलन में मैंने यह भी अनुभव किया कि शहरी क्षेत्रों में अधिकतर उच्च जातियों की महिलाएँ आन्दोलन में सक्रिय थीं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पन्न किसान परिवारों की महिलाएँ सक्रिय रूप से आन्दोलन में भाग ले रही थीं।
(4) राष्ट्र की सेवा करने की प्रेरणा- गांधीजी के आह्वान पर हम महिलाओं को राष्ट्र की सेवा करने की प्रेरणा मिली। मैंने अनुभव किया कि मेरा कार्य केवल घर चलाना, चूल्हा-चौका सम्भालना, अच्छी माँ एवं अच्छी पत्नी की भूमिका निभाना ही नहीं है, बल्कि राष्ट्र की सेवा करना भी है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक नेता पृथक् निर्वाचिका के सवाल पर क्यों बँटे हुए थे?
उत्तर:
पृथक् निर्वाचिका के प्रश्न पर राजनीतिक नेताओं का बँटा हुआ होना- भावी विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर राजनीतिक नेताओं में तीव्र मतभेद थे। मुस्लिम नेता तथा पिछड़े हुए वर्गों के नेता पृथक् निर्वाचिका के समर्थक थे। परन्तु हिन्दू महासभा, कांग्रेस के नेता पृथक् निर्वाचिका के विरुद्ध थे।

(1) मस्लिम लीग के नेताओं द्वारा पृथक निर्वाचिका का समर्थन-मुस्लिम लीग के नेताओं की मान्यता थी कि भारतीय मुसलमान सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक क्षेत्रों में पिछड़े हुए हैं। अतः उनके राजनीतिक हितों की रक्षा के उद्देश्य से पृथक् निर्वाचिका की व्यवस्था बनाए रखी जाए। अनेक मुस्लिम नेता भारत में अल्पसंख्यकों के रूप में मुसलमानों की स्थिति को लेकर चिन्तित थे। उनको भय था कि बहुसंख्यक हिन्दुओं का वर्चस्व स्थापित होने पर उनकी संस्कृति और पहचान नष्ट हो जायेगी। मोहम्मद अली जिन्ना, मोहम्मद इकबाल आदि मुसलमानों की माँग का नेतृत्व कर रहे थे।

(2) दलित नेताओं द्वारा पृथक् निर्वाचिका का समर्थन- अनेक दलित नेता पिछड़े हुए वर्गों की समस्याओं का अलग राजनीतिक समाधान ढूँढ़ना चाहते थे। कांग्रेस ने लम्बे समय तक दलितों की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया था। इसलिए उन्होंने दलित वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचिका की माँग की। दलितों के प्रसिद्ध नेता डॉ. अम्बेडकर ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था पर बल दिया।

(3) कांग्रेस के नेताओं द्वारा पृथक निर्वाचिका का विरोध- कांग्रेस के नेता राष्ट्रीय एकता के प्रबल समर्थक थे। वे सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बाँधे रखना चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि पृथक् निर्वाचिका की व्यवस्था को बनाए रखने से विभिन्न सम्प्रदायों एवं समुदायों में ईर्ष्या एवं द्वेष की भावना बढ़ेगी तथा राष्ट्रीय एकता को आघात पहुँचेगा।

(4) हिन्दू महासभा के नेताओं द्वारा पृथक् निर्वाचिका का विरोध- 1928 में आयोजित किए गए एक सर्वदलीय सम्मेलन में हिन्दू महासभा के नेता एम.आर. जयकर ने पृथक् निर्वाचिका का विरोध किया।

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