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RBSE Class 10 Social Science Solutions History Chapter 3 भूमंडलीकृत विश्व का बनना

RBSE Class 10 Social Science Solutions History Chapter 3 भूमंडलीकृत विश्व का बनना

पाठ सार

1. आधुनिक युग से पहले भूमण्डलीकृत विश्व बनने की प्रक्रिया व्यापार का काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते लोगों का पूँजी तथा बहुत सारी चीजों की वैश्विक आवाजाही का एक लम्बा इतिहास रहा है। इतिहास के प्रत्येक दौर में विश्व के मानव समाज एक दूसरे के ज्यादा नजदीक आते गये हैं। प्राचीन काल से ही यात्री, व्यापारी, पुजारी और तीर्थयात्री ज्ञान, अवसरों और आध्यात्मिक शांति के लिए या उत्पीड़न से बचने के लिए दूर-दूर की यात्राओं पर जाते रहे हैं। सिंधु घाटी सभ्यता (3000 ईसा पूर्व), मालदीव के समुद्र में पाई जाने वाली हजार साल पहले की कौड़ियाँ इसके उदाहरण हैं।
1.1 रेशम मार्ग से जुड़ती दुनिया आधुनिक काल से पूर्व के युग में विश्व के भिन्न-भिन्न देशों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्पर्क स्थापित करने का श्रेष्ठ उदाहरण रेशम मार्ग के रूप में दिखाई देता है। ये सिल्क मार्ग एशिया के विशाल क्षेत्रों को एक-दूसरे से जोड़ते थे । ये एशिया को उत्तरी अफ्रीका तथा यूरोप से भी जोड़ते थे। ऐसे मार्ग ईसा पूर्व के समय से लेकर लगभग 15वीं शताब्दी तक अस्तित्व में रहे। इस मार्ग से चीनी पॉटरी, कपड़े, मसाले का व्यापार होता था। ईसाई मिशनरी, मुस्लिम धर्मोपदेशक, इसी रास्ते से दुनिया में फैले तथा बौद्ध धर्म कई दिशाओं में फैला ।
1.2 भोजन की मात्रा — स्पैघेत्ती और आलू- जब भी व्यापारी और मुसाफिर किसी नये देश में जाते थे तो जानेअनजाने में वहाँ नयी फसलों के बीज बो आते थे । इसी प्रकार स्पैघेत्ती और आलू यूरोप तथा अन्य देशों में पहुँचे।
1.3 विजय, बीमारी और व्यापार – सोलहवीं शताब्दी के मध्य में पुर्तगाली और स्पेन की सेनाओं ने अमेरिका को उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया। स्पेन के सैनिकों के साथ चेचक के कीटाणु अमेरिका जा पहुँचे। चेचक के प्रकोप के कारण वहाँ बड़ी संख्या में लोग मारे गए। इससे उपनिवेशकारों को अमेरिका पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का अवसर मिला। अठारहवीं शताब्दी तथा उसके बाद विश्व व्यापार का केन्द्र पश्चिम की ओर खिसकने लगा। अब यूरोप विश्व व्यापार का बड़ा केन्द्र बन गया ।
2. उन्नीसवीं शताब्दी (1815 – 1914 ) – 19वीं सदी में दुनिया तेजी से बदलने लगी। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी कारकों ने पूरे समाजों की कायापलट कर दी और विदेश सम्बन्धों के नये ढर्रे में ढाल दिया। अर्थशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन प्रकार के प्रवाहों का उल्लेख किया है- (1) व्यापार का प्रवाह (2) श्रम का प्रवाह तथा (3) पूँजी का प्रवाह ।
2.1 विश्व अर्थव्यवस्था का उदय– कॉर्न लॉ के निरस्त होने के बाद ब्रिटेन में आयातित खाद्य पदार्थों की लागत ब्रिटेन में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों से भी कम थी । उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटेन की औद्योगिक प्रगति काफी तेज हो गई। अब वहाँ खाद्य पदार्थों का और भी अधिक मात्रा में आयात होने लगा। इससे पूर्वी यूरोप, रूस, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में कृषि क्षेत्र में वृद्धि हुई। इसके लिए लंदन से पूँजी का प्रवाह हुआ तथा अमेरिका और आस्ट्रेलिया में लोगों को ले जाकर बसाया जाने लगा। इससे श्रम प्रवाह होने लगा। 19वीं शताब्दी में यूरोप के लगभग 5 करोड़ लोग अमेरिका और आस्ट्रेलिया में जाकर बस गए। वे वहाँ उत्तम भविष्य की चाह में गए थे।
2.2 तकनीक की भूमिका – 1890 तक एक वैश्विक कृषि अर्थव्यवस्था सामने आ चुकी थी। अब श्रम विस्थापन रुझानों, पूँजीप्रवाह, पारिस्थितिकी और तकनीक में गम्भीर परिवर्तन आ चुके थे ।
2.3 उन्नीसवीं सदी के अन्त में उपनिवेशवाद – उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप के शक्तिशाली देशों ने अपने-अपने उपनिवेश स्थापित कर लिए। 1885 में यूरोप के शक्तिशाली देशों की बर्लिन में एक बैठक हुई जिसमें उन्होंने अफ्रीका को आपस में बाँट लिया ।
2.4 रिंडरपेस्ट या मवेशी प्लेग – अफ्रीका में 1890 के दशक में रिंडरपेस्ट नामक बीमारी बहुत तेजी से फैल गई। इससे लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा । 19वीं सदी में यूरोपीय लोग अफ्रीका में बागानी खेती करने और खदानों का दोहन करना चाहते थे। लेकिन वहाँ के लोग वेतन पर काम नहीं करना। चाहते थे। मजदूरों की भर्ती और उन्हें अपने पास रोके रखने के लिए मालिकों ने उन पर भारी-भरकम कर उत्तराधिकारी कानून में बदलाव, खानकर्मियों की बड़ेवादी आदि अनेक हथकण्डे अपनाए लेकिन बात नहीं बनी। तभी वहां रिंडरपेस्ट नामक बीमारी फैली जिसने 90 प्रतिशत मवेशियों को मौत की नींद सुला दिया। पशुओं के खत्म हो जाने से अफ्रीकियों के रोजी-रोटी के साधन खत्म हो गए और बागान मालिकों, खान मालिकों को उन्हें गुलाम बनाने का मौका मिल गया।
2.5 भारत से अनुबन्धित श्रमिकों का जाना—उन्नीसवीं सदी में भारत और चीन के लाखों मजदूरों को बागानों, खदानों, सड़कों, रेलों की निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए दूर-दूर के देशों में ले जाया गया। भारतीय अनुबन्धित श्रमिकों को मुख्य रूप से कैरीबियाई द्वीप समूह, मॉरिशस व फिजी में ले जाया जाता था।
2.6 विदेश में भारतीय उद्यमी–अफ्रीका में यूरोपीय उपनिवेशकारों के पीछे-पीछे भारतीय व्यापारी और महाजन भी जा पहुँचे।
2.7 भारतीय व्यापार, उपनिवेशवाद और वैश्विक व्यवस्था – भारतीय सूती कपड़े के निर्यात में निरन्तर गिरावट आती गई । सन् 1800 के आसपास निर्यात में सूती कपड़े का प्रतिशत 30 था जो 1870 में घटकर केवल 3 प्रतिशत रह गया।
भारत के साथ ब्रिटेन हमेशा ‘व्यापार अधिशेष’ की अवस्था में रहता था। इसका मतलब है कि आपसी व्यापार में हमेशा ब्रिटेन को ही लाभ रहता था ।
ब्रिटेन के व्यापार से जो अधिशेष प्राप्त होता था, उससे तथाकथित होम चार्जेज (देसी खर्चे) का निबटारा होता था। होम चार्जेज के अन्तर्गत ब्रिटिश अधिकारियों तथा व्यापारियों द्वारा अपने घर में भेजी गई रकम, भारतीय बाहरी कर्जे पर ब्याज और भारत के नौकरी कर चुके ब्रिटिश अधिकारियों की पेंशन सम्मिलित थी ।
3. महायुद्धों के बीच अर्थव्यवस्था – पहला महायुद्ध यद्यपि मुख्यतः यूरोप में ही लड़ा गया लेकिन उसके प्रभाव पूरे विश्व में महसूस किए गए। इस युद्ध ने विश्व अर्थव्यवस्था को एक गहरे संकट में डाल दिया। इस दौरान पूरी दुनिया में चौतरफा आर्थिक एवं राजनैतिक अस्थिरता बनी रही । यथा—
3.1 युद्धकालीन रूपान्तरण – पहला विश्व युद्ध दो खेमों के बीच लड़ा गया था – (i) मित्र राष्ट्र और (ii) केन्द्रीय शक्तियाँ | यह विश्व युद्ध पहला आधुनिक औद्योगिक युद्ध था । इस युद्ध में 90 लाख से अधिक लोग मारे गए तथा 2 करोड़ घायल हुए । कामकाज के योग्य लोगों की संख्या बहुत कम रह गई । परिवारों की आय गिर गई । युद्ध के कारण दुनिया के कुछ सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों के बीच आर्थिक सम्बन्ध टूट गए। इस युद्ध ने अमेरिका को एक साहूकार एवं ऋणदाता देश बना दिया ।
3.2 युद्धोत्तर सुधार – युद्ध खत्म होने तक ब्रिटेन भारी विदेशी कर्जों में दब चुका था । युद्ध के कारण पैदा हुआ आर्थिक उछाह शान्त होने लगा तो उत्पादन गिरने लगा और बेरोजगारी बढ़ने लगी । 1921 में हर पाँच में से एक ब्रिटिश मजदूर के पास काम नहीं था । रोजगार के बारे में बेचैनी और अनिश्चितता युद्धोत्तर वातावरण का अंग बन गई थी । दूसरे, युद्ध के बाद विश्व बाजारों में गेहूँ की अति के हालातों के चलते अनाज की कीमतें गिर गईं और किसान गहरे कर्ज में फँस गए।
3.3 बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग- अमेरिकी अर्थव्यवस्था की एक बड़ी विशेषता थी— वृहत् उत्पादन का चलना। कार निर्माता हेनरी फोर्ड वृहत् उत्पादन के प्रणेता थे । हेनरी फोर्ड ने कारों के उत्पादन के लिए असेम्बली लाइन की पद्धति अपनाई जिससे हर तीन मिनट में एक कार तैयार होकर निकलने लगी । अमेरिका में कारों का उत्पादन बहुत बढ़ गया । फोर्ड उत्पादन पद्धति को जल्दी ही पूरे अमेरिका में अपनाया जाने लगा । वृहत् उत्पादन पद्धति ने इंजीनियर आधारित चीजों की लागत और कीमत में कमी ला दी। अब लोग कार, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि वस्तुएँ हायर – परचेज पद्धति पर खरीदने लगे। घरों का निर्माण या खरीददारी भी कर्जे पर ही की जा रही थी । इससे रोजगार, माँग और उपभोग बढ़ता गया और 1923 में अमेरिका शेष विश्व को पूँजी का निर्यात पुनः करने लगा। इससे यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं में भी सुधार आया और विश्व व्यापार में सुधार आया।
3.4 महामन्दी – 1929 में विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी शुरू हुई और यह संकट तीस के दशक तक बना रहा। कृषि क्षेत्रों तथा समुदायों पर इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ा । इस महान मन्दी के कारण यूरोप के अनेक बड़े बैंक धराशायी हो गए, मुद्रा की कीमत बुरी तरह बिगड़ गई। इस मन्दी का सबसे बुरा असर अमेरिका पर पड़ा। वहाँ हजारों बैंक दिवालिया हो गए और बन्द कर दिए गए।
3.5 भारत और महामन्दी औपनिवेशिक भारत कृषि वस्तुओं का निर्यातक और तैयार मालों का आयातक बन चुका था। 1928 से 1934 के बीच भारत के आयात निर्यात घटकर लगभग आधे रह गये थे। इसी अवधि में भारत में गेहूँ की कीमत 50 प्रतिशत गिर गई। किसानों और काश्तकारों को सर्वाधिक हानि पहुँची। काश्तकार पहले से भी अधिक कर्ज में डूब गए। शहरी भारत के लिए यह मंदी अधिक दुखदायी नहीं थी।
4. विश्व अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण युद्धोत्तर काल-पहला विश्व युद्ध खत्म होने के केवल दो दशक बाद दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। यह युद्ध धुरी राष्ट्रों और मित्र राष्ट्रों के बीच लड़ा गया। इस युद्ध में ऐसे लोग ज्यादा मरे जो किसी मोर्चे पर नहीं लड़ रहे थे। इस युद्ध ने बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक तबाही को जन्म दिया। ऐसे हालात में पुनर्निर्माण का काम कठिन था।
युद्धोत्तर काल में अमेरिका और सोवियत संघ के प्रभावों के साये में आगे बढ़ा। दोनों वर्चस्वशाली ताकत के रूप में दुनिया के सामने आ गए थे ।
4.1 युद्धोत्तर बन्दोबस्त और ब्रेटन वुड्स संस्थान- युद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य यह था कि औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता तथा पूर्ण रोजगार बनाए रखा जाए।
जुलाई, 1944 में अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशायर के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) की स्थापना की गई। इसके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (विश्व बैंक) का भी गठन किया गया। इसी वजह से विश्व बैंक और आई. एम. एफ. को ब्रेटन वुड्स संस्था भी कहा जाता है।
4.2 प्रारंभिक युद्धोत्तर वर्ष – युद्ध के बाद 1950 से 1970 के प्रारंभिक वर्षों के बीच विश्व व्यापार की विकास दर सालाना 8 प्रतिशत से भी ज्यादा रही। इस दौरान वैश्विक आय में लगभग 5 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही थी। विकास दर स्थिर थी तथा औद्योगिक देशों में बेरोजगारी औसतन 5 प्रतिशत से भी कम रही।
4.3 अनौपनिवेशीकरण और स्वतन्त्रता- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अगले दो दशकों में एशिया और अफ्रीका के अधिकांश उपनिवेश स्वतन्त्र राष्ट्र बन गए थे । परन्तु उनकी अर्थव्यवस्थाएँ अस्त-व्यस्त हो गई थीं । अनौपनिवेशीकरण के अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी अनेक नवस्वाधीन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं पर भूतपूर्व औपनिवेशिक शक्तियों का ही नियन्त्रण बना हुआ था । कई बार शक्तिशाली देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत कम कीमत पर दोहन करने लगती थीं ।
ऐसी स्थिति में विकासशील देशों ने एक नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली के लिए आवाज उठाई और ये राष्ट्र समूह 77 (जी-77) के रूप में संगठित हो गए ।
4.4 ब्रेटन वुड्स की समाप्ति तथा ‘वैश्वीकरण’ की शुरुआत – 60 के दशक में स्थिर विनिमय दर की व्यवस्था विफल हो गई और अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई । 70 के दशक के मध्य से अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में भी भारी बदलाव आ चुके थे। अब विकासशील देशों को पश्चिम के व्यावसायिक बैंकों और निजी ऋणदाता संस्थानों से कर्ज न लेने के लिए बाध्य किया जाने लगा। विकासशील देशों में कर्ज संकट उत्पन्न हो गया । इसके कारण आय में गिरावट आयी, गरीबी बढ़ी। औद्योगिक देशों में भी बेरोजगारी की समस्या ने उग्र रूप धारण कर लिया। पिछले दो दशकों में भारत, चीन और ब्राजील की अर्थव्यवस्थाओं में आए भारी परिवर्तनों के कारण विश्व का आर्थिक भूगोल पूरी तरह बदल चुका है।

RBSE Class 10 Social Science भूमंडलीकृत विश्व का बनना InText Questions and Answers

चर्चा करें-पृष्ठ 56

प्रश्न 1.
जब हम कहते हैं कि सोलहवीं सदी में दुनिया ‘सिकुड़ने’ लगी थी, तो इसका क्या मतलब है?
उत्तर:
आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण सोलहवीं सदी में विश्व के देश एक-दूसरे के निकट आने लगे थे। व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण उनके बीच घनिष्ठता बढ़ने लगी। सोलहवीं सदी में यूरोपीय जहाजों ने एशिया तक का समुद्री मार्ग ढूंढ़ लिया था और वे अमेरिका तक जा पहुँचे थे। अपनी खोज से पूर्व सदियों से अमेरिका का विश्व से कोई सम्पर्क नहीं था। परन्तु सोलहवीं सदी से उसका विभिन्न देशों से सम्पर्क स्थापित हुआ और उनके बीच आर्थिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान शुरू हो गया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सोलहवीं सदी में दुनिया सिकुड़ने लगी थी और विश्व के देश एक-दूसरे के निकट आने लगे थे।

गतिविधि-पृष्ठ 59

प्रश्न 2.
फ्लो चार्ट के माध्यम से दर्शाइये कि जब ब्रिटेन ने खाद्य पदार्थों के आयात का निर्णय लिया तो उसके कारण अमेरिका और आस्ट्रेलिया की ओर पलायन करने वालों की संख्या क्यों बढ़ने लगी?
उत्तर:
ब्रिटेन द्वारा खाद्य पदार्थों के आयात का निर्णय लेने पर अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की ओर पलायन करने वालों की संख्या बढ़ने के कारणों को फ्लो चार्ट में निम्न प्रकार दर्शाया गया है-

गतिविधि-पृष्ठ 59

प्रश्न 3.
कल्पना कीजिए कि आप आयरलैंड से अमेरिका में आए एक खेत मजदूर हैं। इस बारे में एक पैराग्राफ लिखिए कि आपने यहां आने का फैसला क्यों किया और अब आप अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए क्या करते हैं?
उत्तर:
मैं, राबर्ट, आयरलैंड से अमेरिका आया एक खेत मजदूर हूँ।
आयरलैंड में बहुतायत से खाद्य पदार्थ आयात किये जाने लगे थे। वहां आयातित खाद्य पदार्थों की लागत आयरलैण्ड में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों से काफी कम थी। वहां के किसान आयातित माल की कीमत का मुकाबला नहीं कर पाये। वहाँ विशाल भू-भागों पर खेती बंद हो गई। हजारों लोगों के साथ मैं भी बेरोजगार हो गया। इसलिए मैंने बेहतर भविष्य की चाह में अमेरिका आने का फैसला किया।

मैंने अमेरिका आकर अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए खेती का कार्य किया। मैंने खेती के लिए जमीन साफ की और उसमें खेती का कार्य शुरू किया।

चर्चा करें-पृष्ठ 64

प्रश्न 4.
राष्ट्रीय पहचान के निर्माण में भाषा और लोक परम्पराओं के महत्त्व पर चर्चा करें।
उत्तर:
राष्ट्रीय पहचान के निर्माण में भाषा और लोक परम्पराओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। प्रत्येक राष्ट्र की एक राष्ट्र भाषा होती है जो वहाँ प्रमुखता से बोली जाती है। इसके अलावा प्रत्येक राष्ट्र की कुछ विशिष्ट लोक परम्पराएँ होती हैं जो वहाँ की संस्कृति का अभिन्न अंग होती हैं। लोक परम्पराएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं और लोग उन्हें अपनाते रहते हैं। अतः भाषा एवं लोक परम्पराओं से किसी भी व्यक्ति की राष्ट्रीय पहचान की जा सकती है।

चर्चा करें-पृष्ठ 73

प्रश्न 5.
पटसन (जूट) उगाने वालों के विलाप में पटसन की खेती से किसके मुनाफे का जिक्र आया है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
पटसन उगाने वालों के विलाप में पटसन की खेती से व्यापारी के मुनाफे का जिक्र आया है क्योंकि वे फसल का बहुत कम भाव देते थे। कवि काश्तकारों से कहता है कि तुम कर्जा लेकर खूब पटसन उगाओ। अपनी समस्त पूँजी लगाने के बाद भी तुम्हें निराशा मिलेगी। जब फसल पकेगी तो इसकी कुछ भी कीमत नहीं रहेगी। व्यापारी अपने घर पर बैठे तुम्हें इसका पाँच रुपया मन देंगे और इसका समस्त मुनाफा स्वयं हड़प लेंगे।

चर्चा करें-पृष्ठ 75

प्रश्न 6.
संक्षेप में बताएँ कि दो महायुद्धों के बीच जो आर्थिक परिस्थितियाँ पैदा हुईं, उनसे अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं ने क्या सबक सीखे?
उत्तर:
दो महायुद्धों के बीच जो आर्थिक परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं, उनसे अर्थशास्त्रियों तथा राजनेताओं ने निम्नलिखित दो पाठ सीखे-
(1) पहला पाठ, वृहत् उत्पादन पर आधारित किसी औद्योगिक समाज को व्यापक उपभोग के बिना कायम नहीं रखा जा सकता। परन्तु व्यापक उपभोग को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि आय काफी अधिक और स्थिर हो। यदि रोजगार अस्थिर होंगे, तो आय स्थिर नहीं हो सकती थी। स्थिर आय के लिए पूर्ण रोजगार भी आवश्यक था। मूल्य, उपज और रोजगार में आने वाले उतार-चढ़ावों को नियन्त्रित करने के लिए सरकार का हस्तक्षेप आवश्यक था। सरकार के हस्तक्षेप के द्वारा ही आर्थिक स्थिरता कायम रह सकती थी।

(2) दूसरा पाठ, बाह्य विश्व के साथ आर्थिक सम्बन्धों के बारे में था। पूर्ण रोजगार का लक्ष्य केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब सरकार के पास वस्तुओं, पूँजी और श्रम के आवागमन को नियन्त्रित करने की शक्ति प्राप्त हो।

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प्रश्न 1.
सत्रहवीं सदी से पहले होने वाले आदान-प्रदान के दो उदाहरण दीजिए। एक उदाहरण एशिया से और एक उदाहरण अमेरिका महाद्वीपों के बारे में चनें।
उत्तर:
(1) एशिया महाद्वीप-रेशम मार्ग से चीनी रेशम तथा पोटरी एवं भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के कपड़े व मसाले विश्व के विभिन्न देशों में जाते थे। वापसी में सोना-चाँदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ यूरोप से एशिया में पहुँचती थीं।
(2) अमेरिका महाद्वीप-आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व हमारे पास आलू, सोया, मूंगफली, मक्का, टमाटर, मिर्च, शकरकन्द आदि खाद्य-पदार्थ नहीं थे, परन्तु कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज के पश्चात् ये खाद्य पदार्थ अमेरिका से यूरोप एवं एशिया के देशों में पहुंच गए।

प्रश्न 2.
बताएँ कि पूर्व-आधुनिक विश्व में बीमारियों के वैश्विक प्रसार ने अमेरिकी भू-भागों के उपनिवेशीकरण में किस प्रकार मदद दी?
उत्तर:
16वीं सदी में अमेरिकी भू-भागों के उपनिवेशीकरण में चेचक के कीटाणुओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ये चेचक के कीटाण स्पेन के सैनिकों एवं सैनिक अधिकारियों के साथ अमेरिका पहँचे। अमेरिकियों के शरीर में यूरोप से आने वाली इन बीमारियों से बचने की रोग-प्रतिरोधी क्षमता नहीं थी। परिणामस्वरूप चेचक की महामारी अमेरिकी लोगों के लिए अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हुई। यह सम्पूर्ण अमेरिकी महाद्वीप में फैल गई जिसके परिणामस्वरूप हजारों लोग मौत के मुंह में चले गए।

स्पनिश सैनिकों के पास चेचक से बचाव के पूरे साधन थे और उनके शरीर में रोग-प्रतिरोध की क्षमता भी विकसित हो चुकी थी परन्तु अमेरिकी लोगों में इनका अभाव था। इस कारण स्पेनिश सेनाओं द्वारा अमेरिका को अपना उपनिवेश बनाना आसान हो गया।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित के प्रभावों की व्याख्या करते हुए संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखें(क) कॉर्न लॉ के समाप्त करने के बारे में ब्रिटिश सरकार का फैसला।
अथवा
कॉर्न लॉ को समाप्त करने के बारे में ब्रिटिश सरकार के फैसले पर टिप्पणी लिखिए। इस कानून के एक प्रभाव की चर्चा भी कीजिए।
(ख) अफ्रीका में रिडरपेस्ट का आना।
(ग) विश्वयुद्ध के कारण यूरोप में कामकाजी उम्र के पुरुषों की मौत।
(घ) भारतीय अर्थव्यवस्था पर महामन्दी का प्रभाव।
(ङ) बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अपने उत्पादन को एशियाई देशों में स्थानान्तरित करने का फैसला।
उत्तर:
(क) कॉर्न लॉ के समाप्त करने के बारे में ब्रिटिश सरकार का फैसला- अठारहवीं सदी के आखिरी दशकों में ब्रिटेन की सरकार ने बड़े भू-स्वामियों के दबाव में मक्का के आयात पर पाबंदी लगा दी थी। जिन कानूनों के सहार यह पाबन्दी लगाई गई थी, उन्हें ‘कॉर्न लॉ’ कहा जाता था। खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों से परेशान उद्योगपतियों और शहरी लोगों ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वह ‘कॉर्न लॉ’ को तुरन्त समाप्त करें और सरकार को इसे समाप्त करने का फैसला करना पड़ा। ब्रिटेन की सरकार द्वारा कॉर्न लॉ की समाप्ति के बाद बहुत कम कीमत पर खाद्य पदार्थों का आयात किया जाने लगा। आयातित खाद्य पदार्थों की लागत ब्रिटेन में उत्पादित खाद्य पदार्थों से भी कम थी। परिणामस्वरूप ब्रिटेन के किसानों की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई; क्योंकि वे आयातित माल के मूल्यों का मुकाबला नहीं कर सकते थे। कृषि कार्य बन्द हो गया। परिणामस्वरूप हजारों किसान बेरोजगार हो गए। गाँवों से उजड़कर वे या तो शहरों या अन्य देशों की ओर पलायन करने लगे।

(ख) अफ्रीका में रिंडरपेस्ट का आना- 1880 के दशक के अन्तिम वर्षों में अफ्रीका में रिंडरपेस्ट नामक बीमारी एशियाई मवेशियों से अफ्रीकी मवेशियों में फैल गई। उस समय पूर्वी अफ्रीका में एरिट्रिया पर हमला कर रहे इतालवी सैनिकों का पेट भरने के लिए एशियाई देशों से जानवर लाए जाते थे। एशियाई देशों से आए उन्हीं जानवरों के द्वारा रिंडरपेस्ट या मवेशी प्लेग बीमारी अफ्रीका में आई। यह बीमारी ‘जंगल में आग’ की भाँति अफ्रीकी महाद्वीप में फैलने लगी।

रिंडरपेस्ट के प्रभाव-

  • इसने अफ्रीकी महाद्वीप के 90 प्रतिशत पशुओं को मार डाला।
  • बड़ी संख्या में पशुओं के मारे जाने से अफ्रीकी लोगों के जीवन-निर्वाह के साधन समाप्त हो गए।
  • इस बीमारी से अफ्रीकी लोगों की आजीविका तथा स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा।
  • अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने तथा अफ्रीकी लोगों को श्रम बाजार में ढकेलने के लिए वहाँ के वागान मालिकों, खान मालिकों और औपनिवेशिक सरकारों ने उनके शेष बचे हुए पशुओं पर भी अधिकार कर लिया।
  • इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों को सम्पूर्ण अफ्रीका पर विजय प्राप्त करने एवं उसे अपना दास बना लेने का स्वर्णिम अवसर मिल गया था।

(ग) विश्वयुद्ध के कारण यूरोप में कामकाजी उम्र के पुरुषों की मौत-प्रथम विश्वयुद्ध में 90 लाख से अधिक लोग मारे गए तथा 2 करोड़ लोग घायल हुए थे। मृतकों तथा घायलों में से अधिकतर कामकाजी आयु के पुरुष थे। इसके परिणामस्वरूप यूरोप में कामकाज के योग्य लोगों की संख्या बहुत कम हो गई जिससे परिवारों की आय भी कम हो गई।

(घ) भारतीय अर्थव्यवस्था पर महामन्दी का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर महामंदी का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। यथा-

  • औपनिवेशिक भारत कृषि वस्तुओं का निर्यातक तथा तैयार मालों का आयातक बन चुका था।
  • महामंदी के दौरान देश का आयात घटकर आधा रह गया।
  • भारत में कृषि उत्पादनों की कीमतों में गिरावट आई।
  • इस महामंदी से किसानों और काश्तकारों का बहुत अधिक नुकसान हुआ। परन्तु इस महामन्दी का शहरी लोगों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

(ङ) बहराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अपने उत्पादन को एशियाई देशों में स्थानान्तरित करने का फैसला 1970 ई. के दशक के मध्य से विश्व में बेरोजगारी बढ़ने लगी। अतः सत्तर के दशक के अन्तिम वर्षों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी एशिया के ऐसे देशों में उत्पादन केन्द्रित करने लगीं जहाँ वेतन कम थे। एशियाई देशों में श्रम बहुत ही सस्ता था। चीन में वेतन तुलनात्मक रूप से कम थे। अतः विश्व बाजारों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने वहाँ जमकर निवेश करना शुरू कर दिया। इसके परिणामस्वरूप इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारी मुनाफा होने लगा और वे विश्व-बाजार पर अपना प्रभरप 98ठावएसचख्अइअ5612 लुत्व स्थापित करने लगीं।

प्रश्न 4.
खाद्य उपलब्धता पर तकनीक के प्रभाव को दर्शाने के लिए इतिहास से दो उदाहरण दें।
उत्तर:
खाद्य उपलब्धता पर तकनीक का प्रभाव-
(1) यातायात और परिवहन साधनों में सुधार तीव्र गति से चलने वाली रेलगाड़ियों का निर्माण किया गया तथा बोगियों का भार कम किया गया। बड़े आकार के जलपोतों का निर्माण किया गया जिससे किसी भी उत्पाद को खेतों से दूर-दूर के बाजारों में कम लागत पर तथा अधिक आसानी से पहुँचाया जा सके।

(2) मांस का निर्यात-नई तकनीक के आने पर पानी के जहाजों में रेफ्रिजरेशन की तकनीक स्थापित कर दी गई जिसके फलस्वरूप जीवित जानवरों को भेजने के स्थान पर अब उनका मांस ही यूरोपीय देशों में भेजा जाने लगा। इससे समुद्री यात्रा में आने वाला खर्च कम हो गया तथा यूरोप में मांस सस्ता मिलने लगा। अब यूरोप के गरीब लोगों के भोजन में मांसाहार (और मक्खन व अंडे) भी शामिल हो गया।

प्रश्न 5.
ब्रेटन वुड्स समझौते का क्या अर्थ है?
अथवा
ब्रेटन वुड्स से आप क्या समझते हैं? इसकी दो जुड़वाँ सन्तानें किसे कहा गया है?
उत्तर:
ब्रेटन वुड्स समझौता- दोनों विश्व युद्धों के मध्य अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को सुनिश्चित करने, औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोजगार को बनाये रखने हेतु जुलाई 1944 में अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशायर के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन में सहमति बनी थी। इसे ही ब्रेटन वुड्स समझौता कहा जाता है।

ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में ही अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) की स्थापना की गई। युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए धन की व्यवस्था करने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक का गठन किया गया। इसलिए विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को ‘ब्रेटन वुड्स ट्विन’ (इसकी जुड़वां सन्तानें) भी कहा जाता है। इसी आधार पर युद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को प्रायः ब्रेटन वुड्स व्यवस्था भी कहा जाता है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था निश्चित विनिमय दरों पर आधारित थी। इसमें राष्ट्रीय मुद्राएँ एक निश्चित विनिमय दर में बंधी हुई थीं। उदाहरणार्थ, एक डालर के बदले में रुपयों की संख्या निश्चित थी।

चर्चा करें

प्रश्न 6.
कल्पना कीजिए कि आप कैरीबियाई क्षेत्र में काम करने वाले गिरमिटिया मजदूर हैं। इस अध्याय में दिए गए विवरणों के आधार पर अपने हालात और अपनी भावनाओं का वर्णन करते हुए अपने परिवार के नाम एक पत्र लिखें।
उत्तर:
आदरणीय पिताजी,
सादर प्रणाम।
मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि यहाँ वैसी परिस्थितियाँ नहीं हैं जैसा कि एजेंट ने बताया था। यहाँ का जीवन और कार्य स्थितियाँ बहुत कठोर हैं। भरसक प्रयासों के बावजूद मैं उन कामों को सन्तोषजनक तरीके से नहीं कर पाया जो संजीव पास बुक्स मुझे सौंपे गए थे। यहाँ पर हमें दिन-रात कठोर परिश्रम करना पड़ता है। हमें काम बहुत भारी पड़ता है और हम दिनभर में अपना काम पूरा नहीं कर पाते हैं। काम सन्तोषजनक ढंग से पूरा न होने पर हमारा वेतन काट लिया जाता है। इसलिए हमें कई बार हमारा पूरा वेतन नहीं मिल पाता है और हमें विभिन्न प्रकार के दण्ड दिए जाते हैं। हम मजदूरों के पास कानूनी अधिकार नहीं हैं। यदि कोई मजदूर कठोर परिश्रम से बचने के लिए जंगलों में भाग जाता है, तो उसे पकड़कर कठोर दण्ड दिया जाता है। मजदूरों को अपने अनुबन्ध की अवधि में भारी कठिनाइयों एवं कष्टों का सामना करना पड़ता है। अत: एजेन्ट के आश्वासन पर मैं जो एक सुखद जीवन की आशाएँ लेकर यहाँ आया था, वे समस्त आशाएँ मिट्टी में मिल गई हैं। मैं अपने मालिक के बागान में पांच वर्ष काम करके स्वदेश लौटने का भरसक प्रयास करूँगा।
सबको मेरा प्रणाम।

आपका पुत्र
क.ख.ग.

प्रश्न 7.
अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमयों में तीन तरह की गतियों या प्रवाहों की व्याख्या करें। तीनों प्रकार की गतियों के भारत और भारतीयों से सम्बन्धित एक-एक उदाहरण दें और उनके बारे में संक्षेप में लिखें।।
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमयों के प्रवाह अर्थशास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमयों में तीन प्रकार की गतियों या प्रवाहों का उल्लेख किया है, ये प्रवाह निम्नलिखित हैं-
(1) व्यापार का प्रवाह-पहला प्रवाह व्यापार का होता है। उन्नीसवीं शताब्दी में व्यापार का प्रवाह मुख्य रूप से वस्तुओं के व्यापार तक ही सीमित था। इन वस्तुओं में कपड़ा, गेहूँ, कपास आदि सम्मिलित थे।
भारत से गेहूँ, समस्त प्रकार के कपड़े आदि ब्रिटेन भेजे जाते थे। नील का व्यापार भी बड़े पैमाने पर होता था।

(2) श्रम का प्रवाह-दूसरा, श्रम का प्रवाह होता है। इसमें लोग काम या रोजगार की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
उदाहरणार्थ, उन्नीसवीं सदी में भारत के लाखों अनुबंधित मजदूरों को बागानों, खदानों और सड़क एवं रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए त्रिनिदाद, गुयाना, सूरीनाम, मॉरीशस, फिजी, श्रीलंका आदि देशों में ले जाया गया।

(3) पूँजी का प्रवाह तीसरा, प्रवाह पूँजी का होता है। इसमें पूँजीपति लोग अल्प अवधि अथवा दीर्घ अवधि के लिए दूर-दराज के प्रदेशों में पूँजी का निवेश करते हैं। ब्रिटेन के अनेक पूँजीपतियों ने बागानों, खानों, रेल परियोजनाओं आदि में पूँजी का निवेश किया और इसके माध्यम से अत्यधिक धन कमाया।

शिकारीपुरी श्रॉफ तथा नटूकोट्टई चेट्टियार भारत के प्रसिद्ध बैंकर तथा व्यापारी थे जो मध्य एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में निर्यातोन्मुखी खेती के लिए ऋण देते थे।

प्रश्न 8.
महामन्दी के कारणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
महामन्दी के कारण- 1929-30 की विश्वव्यापी आर्थिक महामन्दी के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1) कृषि में अति उत्पादन कृषि के क्षेत्र में अति उत्पादन की समस्या बनी हुई थी। कृषि उत्पादों के गिरते मूल्यों के कारण आर्थिक स्थिति और भी शोचनीय हो गई थी। कृषि उत्पादों के गिरते मूल्यों के कारण किसानों की आय कम हो गई। अतः अपनी आय बढ़ाने के लिए वे किसान उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करने लगे। अतः बाजार कृषि उत्पादों से भर गए। इसके परिणामस्वरूप मूल्य और गिर गए। क्रेताओं के अभाव में कृषि उपज पड़ी-पड़ी सड़ने लगी।

(2) अमेरिकी ऋणों में कमी- 1920 के दशक के मध्य में बहुत सारे देशों ने अमेरिका से कर्जे लेकर अपनी निवेश संबंधी जरूरतों को पूरा किया था। जब हालात अच्छे थे तो अमेरिका से कर्जा जुटाना बहुत आसान था लेकिन संकट का संकेत मिलते ही अमेरिकी उद्यमियों के होश उड़ गए। वे अपनी पूंजी वापस निकालने लगे। 1928 के पहले छह माह तक विदेशों में अमेरिका का कर्जा एक अरब डॉलर था। साल भर के भीतर यह कर्जा घटकर केवल चौथाई रह गया था। जो देश अमेरिकी कर्जे पर सबसे ज्यादा निर्भर थे उनके सामने गहरा संकट आ खड़ा हुआ।

प्रश्न 9.
जी-77 देशों से आप क्या समझते हैं? जी-77 को किस आधार पर ब्रेटन वुड्स की जुड़वाँ सन्तानों की प्रतिक्रिया कहा जा सकता है? व्याख्या करें।
उत्तर:
जी-77–जी-77 विकासशील देशों का संगठन है, जिसने एक नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली की स्थापना पर बल दिया।

ब्रेटन वुड्स की जुड़वाँ सन्तानों की प्रतिक्रिया-1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (विश्व बैंक) की स्थापना की गई थी। इन्हें ब्रेटन वुड्स संस्थान अथवा ब्रेटन वुड्स की जुड़वां सन्तान कहा जाता है। इनका उद्देश्य सदस्य-देशों के विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने तथा युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए धन की व्यवस्था करना था।

जी-77 के देश भी इसी प्रकार संगठन बनाकर ऐसी आर्थिक प्रगति लागू करना चाहते थे जिसमें उन्हें अपने संस्थानों पर सही नियंत्रण मिल सके, विकास के लिए अधिक सहायता मिले, कच्चे माल की उचित कीमत मिले तथा तैयार माल को विकसित देशों में बेचने का मौका मिले।
इस प्रकार जी-77 को ब्रेटन वुड्स की जुड़वां सन्तानों की प्रतिक्रिया कहा जा सकता है।

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