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RBSE Class 10 Social Science Solutions History Chapter 4 औद्योगीकरण का युग

RBSE Class 10 Social Science Solutions History Chapter 4 औद्योगीकरण का युग

पाठ-सार

पर 1. औद्योगिक क्रान्ति से पहले—औद्योगीकरण को प्राय: कारखानों के विकास के साथ ही जोड़कर देखा जाता है। परन्तु इंग्लैण्ड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले भी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। अनेक इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को ‘आदि-औद्योगीकरण’ की संज्ञा देते हैं। 17वीं और 18वीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की तरफ रुख करने लगे थे। वे किसानों और कारीगरों को पैसा देते थे और उनसे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे। इस प्रकार आदि- औद्योगिक व्यवस्था व्यावसायिक आदान-प्रदान के नेटवर्क का हिस्सा थी। इस पर सौदागरों का नियन्त्रण था और चीजों का उत्पादन कारखानों के बजाय घरों में मजदूरों द्वारा किया जाता था।
1.1 कारखानों का उदय — इंग्लैण्ड में सबसे पहले 1730 के दशक में कारखाने खुले । कपास (कॉटन) नये युग का पहला प्रतीक थी। कारखानों की संख्या में तेजी से वृद्धि 18वीं सदी के अन्त में ही हुई। 18वीं सदी में कई आविष्कार हुए, जैसे—कार्डिंग, ऐंठना, कताई व लपेटना। इन्होंने उत्पादन प्रक्रिया की कुशलता बढ़ा दी ।
1.2 औद्योगिक परिवर्तन की गति—सूती वस्त्र उद्योग और कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे फलते-फूलते उद्योग थे। इसके बाद लोहा और स्टील उद्योग आगे निकल गए। परम्परागत उद्योग पूरी तरह ठहराव की स्थिति में भी नहीं थे। प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों की गति भी धीमी थी ।
2. हाथ का श्रम — विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी । गरीब किसान और बेकार लोग काम-काज की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों को जाते । अनेक उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसमी आधार पर घटती-बढ़ती रहती थी। जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था, वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय मजदूरों को ही काम पर रखना पसंद करते थे। बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। प्राय: बारीक डिजाइन और विशेष आकारों वाली वस्तुओं की बड़ी माँग थी । इन्हें बनाने के लिए मानवीय निपुणता की आवश्यकता थी। अमेरिका जैसे देशों में जहाँ मजदूरों की कमी थी वहाँ उद्योगपति मशीनों का इस्तेमाल करना ज्यादा पसन्द करते थे, लेकिन ब्रिटेन में मजदूरों की कोई कमी नहीं थी।
2.1 मजदूरों का जीवन – रोजगार चाहने वाले बहुत सारे लोगों को सप्ताहों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी । वे पुलों के नीचे या रैन-बसेरों में रातें काटते थे। अनेक उद्योगों में मौसमी काम के कारण कामगारों को बीच-बीच में बहुत समय तक खाली बैठना पड़ता था। 19वीं सदी के प्रारम्भ में मजदूरों के वेतन में कुछ सुधार आया, लेकिन इससे मजदूरों की हालत में बेहतरी का पता नहीं चलता। बेरोजगारी की आशंका के कारण मजदूर नयी प्रौद्योगिकी से चिढ़ते थे ।
3. उपनिवेश में औद्योगीकरण- उपनिवेश भारत में कपड़ा उद्योग में औद्योगीकरण निम्न प्रकार से हुआ
3.1 भारतीय कपड़े का युग – मशीन उद्योगों के युग से पहले अन्तर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का बोलबाला था। सूरत, हुगली आदि बन्दरगाहों से भारतीय वस्त्रों का निर्यात किया जाता था। परन्तु अंग्रेजी कम्पनियों ने धीरे-धीरे व्यापार पर नियन्त्रण कर लिया। फलस्वरूप सूरत और हुगली बन्दरगाहों का महत्त्व घट गया।
3.2 बुनकरों का क्या हुआ? – ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों तथा दलालों को समाप्त करने तथा बुनकरों पर अधिक प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित करने का भरसक प्रयास किया । कम्पनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्ता नामक वेतनभोगी कर्मचारी नियुक्त कर दिए । परन्तु, शीघ्र ही गाँवों में बुनकरों तथा गुमाश्तों के बीच टकराव शुरू हो गया । गुमाश्ते बुनकरों के साथ अपमानजनक एवं कठोर व्यवहार करते थे और उन्हें कोड़ों से पीटा जाता था। परिणामस्वरूप अनेक बुनकर गाँव छोड़ कर चले गए। बहुत सारे बुनकरों ने करघे बंद कर दिए और खेतों में मजदूरी करने लगे।
3.3 भारत में मैनचेस्टर का आना- उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट आने लगी। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करे जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्द्धा के बिना इंग्लैण्ड में आसानी से बिक सकें। दूसरी तरफ उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय बाजार में बेचे। ब्रिटेन के वस्त्र उत्पादों के निर्यात में भी बहुत वृद्धि हुई।
इस प्रकार भारत में कपड़ा बुनकरों के सामने कई समस्याएँ थीं
(i) उनका निर्यात बाजार ढह रहा था और (ii) स्थानीय बाजार सिकुड़ने लगा था। (iii) 1860 के दशक में बुनकरों को एक नई समस्या का सामना करना पड़ा। उन्हें अच्छी कपास नहीं मिल पा रही थी । (iv) 19वीं सदी के अन्त में बुनकरों को भारतीय कारखानों से उत्पादित माल से भी प्रतियोगिता करनी पड़ी। अत: बुनकर उद्योग ढह गया।
4. भारत में कारखानों का आना – मुम्बई में प्रथम कपड़ा मिल 1854 में लगी और दो वर्ष बाद उसमें उत्पादन होने लगा। 1862 तक मुम्बई में ऐसी चार मिलें काम कर रही थीं। बंगाल में पहली जूट मिल 1855 में और दूसरी जूट मिल 1862 में स्थापित हुई। 1860 के दशक में एल्गिन मिल कानपुर में खुली तथा 1874 में मद्रास में भी पहली कताई और बुनाई मिल खुली ।
 4.1. प्रारम्भिक उद्यमी – अनेक व्यवसायियों ने व्यापार से पैसा कमाने के बाद भारत में औद्योगिक उद्यम स्थापित किये। इसमें द्वारकानाथ टैगोर, डिनशॉ पेटिट जमशेदजी नुसरवानजी टाटा, सेठ हुकुमचंद, बिड़लाज आदि प्रमुख थे।
4.2 मजदूर कहाँ से आए?— फैक्ट्रियों में काम करने को अधिकतर मजदूर आसपास के जिलों से आते थे। जिन किसानों- कारीगरों को गांव में काम नहीं मिलता था वे औद्योगिक केन्द्रों की तरफ जाने लगते थे। नये कामों की खबर फैलने पर दूर-दूर से भी लोग औद्योगिक इलाकों में आने लगे थे। समय के साथ फैक्ट्री मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी । लेकिन श्रमशक्ति में उनका अनुपात बहुत छोटा था ।
5. औद्योगिक विकास का अनूठापन — 1900 से 1912 के बीच भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय कारखानों में सेना के लिए जूट की बोरियाँ, सैनिकों के लिए वर्दी के कपड़े आदि सामान बनने लगे। इसके लिए नए कारखाने लगाए गए । युद्ध के दौरान उत्पादन बढ़ गया । युद्ध के बाद ब्रिटेन से होने वाले सूती कपड़े के निर्यात में जबरदस्त गिरावट आई । उपनिवेशों में विदेशी उत्पादों को हटाकर स्थानीय उद्योगपतियों ने घरेलू बाजारों पर कब्जा कर लिया और धीरे-धीरे अपनी स्थिति मजबूत बना ली । 5.1 लघु उद्योगों की बहुलता – बीसवीं सदी में कुछ लघु उद्योगों में पर्याप्त वृद्धि हुई जैसे हथकरघा क्षेत्र में । बीसवीं सदी में हथकरघों पर बने कपड़े के उत्पादन में बहुत सुधार हुआ। 1900 से 1940 के बीच यह तीन गुना हो चुका था। अनेक बुनकर ‘फ्लाइंग शटल’ वाले करघों का प्रयोग करते थे। इससे कामगारों की उत्पादन क्षमता बढ़ गई और उत्पादन तेज हो गया ।
6. वस्तुओं के लिए बाजार – उद्योगपतियों ने नए उपभोक्ता पैदा करने तथा अपने औद्योगिक उत्पादनों की बिक्री के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया । औद्योगीकरण की शुरुआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में और एक नई उपभोक्ता संस्कृति रचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस हेतु मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने ‘लेबल’ का प्रयोग किया । 19वीं सदी के अन्त में कैलेंडरों का उपयोग किया गया। भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापनों में राष्ट्रवादी सन्देश दिए।

RBSE Class 10 Social Science औद्योगीकरण का युग InText Questions and Answers

गतिविधि-पृष्ठ 80

प्रश्न 1.
दो ऐसे उदाहरण दीजिए, जहाँ आधुनिक विकास से प्रगति की बजाय समस्याएँ पैदा हुई हैं। आप चाहें, तो पर्यावरण, आणविक हथियारों व बीमारियों से सम्बन्धित क्षेत्रों पर विचार कर सकते हैं।
उत्तर:
(1) पर्यावरण प्रदूषण- आधुनिक विकास ने प्रदूषण को बढ़ावा दिया। शहरों में कारखानों से निकलने वाले धुएँ से वायु-प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई। शहरों में कोलाहल बढ़ गया जिसने ध्वनि-प्रदूषण को जन्म दिया। कारखानों की स्थापना से जल-प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न हुई।

(2) बीमारियाँ बढ़ना- मजदूरों को गन्दे मकानों में पशुओं की भाँति जीवन व्यतीत करना पड़ता था। उन्हें गन्दे कारखानों में काम करना पड़ता था। कारखानों में शुद्ध वायु तथा प्रकाश का अभाव था। गन्दी बस्तियों में रहने तथा शुद्ध पेयजल की व्यवस्था न होने से मजदूर कई प्रकार की बीमारियों के शिकार बन जाते थे।

गतिविधि-पृष्ठ 85

प्रश्न 1.
कल्पना कीजिए कि आप सौदागर हैं और एक ऐसे सेल्समेन को चिट्ठी लिख रहे हैं जो आपको नई मशीन खरीदने के लिए राजी करने की कोशिश कर रहा है। अपने पत्र में बताइए कि मशीन के बारे में आपने क्या सुना है और आप नई प्रौद्योगिकी में पैसा क्यों नहीं लगाना चाहते?
उत्तर:
प्रिय सेल्समैन,
मैंने सुना है कि मशीनों की कार्यप्रणाली काफी जटिल है। मशीनें प्रायः खराब हो जाती हैं और उनकी मरम्मत पर काफी खर्च आता है। वे उतनी अच्छी भी नहीं हैं जितना उनके आविष्कारकों और निर्माताओं का दावा था। इसके अतिरिक्त अनेक उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते हैं। मशीनों से एक जैसे तय किस्म के उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा सकते थे। परन्तु बाजार में प्रायः बारीक डिजाइन और विशेष आकारों वाली वस्तुओं की काफी माँग रहती है।
अतः मैं इस नयी प्रौद्योगिकी में पैसा लगाना नहीं चाहता हूँ।

भवदीय
सौदागार

चर्चा करें-पृष्ठ 87

प्रश्न 1.
चित्र 3, 7 और 11 (पाठ्यपुस्तक में) को देखिए। इसके बाद स्रोत-ख को दोबारा पढ़िए। अब बताइए कि बहुत सारे मजदूर स्पिनिंग जेनी के इस्तेमाल का विरोध क्यों कर रहे थे?
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक के चित्र 3, 7 और 11 को देखने तथा स्रोत-ख को पढ़ने से पता चलता है कि जब कताई हाथ से की जाती थी तो उसमें बहुत अधिक लोगों को रोजगार प्राप्त होता था। अब जब स्पिनिंग जेनी का इस्तेमाल किया जाने लगा तो मजदूरों की मांग कम हो गई और उनके रोजगार छिन गये। अतः बेरोजगारी की आशंका से मजदूर स्पिनिंग जेनी के इस्तेमाल का विरोध कर रहे थे।

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संक्षेप में लिखें

प्रश्न 1.
निम्नलिखित की व्याख्या करें-
(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए।
(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।
(ग) सूरत बन्दरगाह अठारहवीं सदी के अन्त तक हाशिये पर पहुँच गया था।
(घ) ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था।
उत्तर:
(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों द्वारा स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमला करना- 1764 ई. में जेम्स हारग्रीव्ज ने स्पिनिंग जेनी नामक एक मशीन का आविष्कार किया था। इस मशीन ने कताई की प्रक्रिया तेज कर दी और मजदूरों की माँग घटा दी। इस मशीन द्वारा एक मजदूर एक पहिए की सहायता से बहुत सारी तकलियों को एक साथ घुमा देता था। इससे एक साथ कई धागे बनने लगते थे। जब ऊन उद्योग में स्पिनिंग जेनी मशीन का प्रयोग शुरू किया गया तो ब्रिटेन में हाथ से ऊन कातने वाली महिलाओं को बेरोजगार होने की चिन्ता सताने लगी। अतः इन महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमला करना शुरू कर दिया। स्पिनिंग जेनी के प्रचलन पर यह टकराव दीर्घ काल तक चलता रहा।

(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागरों द्वारा गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाना- सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में पहुँचने लगे। वे गाँवों के किसानों और मजदूरों को पैसा देते थे तथा उनसे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे। उस समय विश्व व्यापार के विस्तार तथा विश्व के विभिन्न भागों में उपनिवेशों की स्थापना के कारण वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी थी। इस माँग की पूर्ति के लिए केवल शहरों में रहते हुए उत्पादन बढ़ाना सम्भव नहीं था। इसका कारण यह था कि शहरों में शहरी दस्तकार तथा व्यापारिक गिल्ड्स बहुत शक्तिशाली थे। वे व्यवसाय में नए लोगों को आने से रोकते थे। परिणामस्वरूप नये व्यापारी शहरों में व्यवसाय नहीं कर सकते थे। अतः यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की ओर जाने लगे और वहाँ किसानों तथा कारीगरों से काम करवाने लगे।

(ग) सूरत बन्दरगाह का अठारहवीं सदी के अन्त तक हाशिये पर पहुँचना- सूरत बन्दरगाह गुजरात के तट पर स्थित था। इस बन्दरगाह के द्वारा भारत खाड़ी तथा लाल सागर के बन्दरगाहों से जुड़ा हुआ था। यह निर्यात व्यापार भारतीय सौदागरों के नियन्त्रण में था। 1750 के दशक के बाद भारत में यूरोपीय कम्पनियों की शक्ति बढ़ती जा रही थी। परिणामस्वरूप सूरत बन्दरगाह महत्त्वहीन हो गया। इससे होने वाले निर्यात में अत्यधिक कमी आ गई। पहले जिस धन से व्यापार चलता था, वह समाप्त हो गया। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए। सत्रहवीं सदी के अन्तिम वर्षों में सूरत बन्दरगाह से होने वाले व्यापार का कुल मूल्य 1.6 करोड़ रुपये था। परन्तु 1740 के दशक तक यह मूल्य गिरकर केवल 30 लाख रुपये रह गया। इस प्रकार सूरत बन्दरगाह अठारहवीं सदी के अन्त तक हाशिये पर पहुँच गया. था अर्थात् पतनोन्मुख हो गया था।

(घ) ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त करना- भारत के बुनकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ-साथ फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली कम्पनियों के लिए भी कपड़ा बुनते थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भारत में राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद यह कपड़ा उत्पादन संघ के व्यापार पर अपना एकाधिकार करना चाहती थी। फलस्वरूप कम्पनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी नियुक्त कर दिए। ये कर्मचारी ‘गुमाश्ता’ कहलाते थे, जो बुनकरों के साथ कठोर तथा अपमानजनक व्यवहार करते थे।

प्रश्न 2.
प्रत्येक वक्तव्य के आगे ‘सही’ या ‘गलत’ लिखें।
(क) उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की कुल श्रम-शक्ति का 80 प्रतिशत तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहा था।
(ख) अठारहवीं सदी तक महीन कपड़े के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार पर भारत का दबदबा था।
(ग) अमेरिकी गृहयुद्ध के फलस्वरूप भारत के कपास निर्यात में कमी आई।
(घ) फ्लाई शटल के आने से हथकरघा कामगारों की उत्पादकता में सुधार हुआ।
उत्तर:
(क) गलत,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही।

प्रश्न 3.
पूर्व-औद्योगीकरण का मतलब बताएँ।
उत्तर:
पूर्व अथवा आदि-औद्योगीकरण- इंग्लैण्ड तथा यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से पहले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। अनेक इतिहासकारों ने औद्योगीकरण के इस चरण को ‘पूर्व-औद्योगीकरण’ की संज्ञा दी है।

चर्चा करें

प्रश्न 1.
उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों देते थे?
उत्तर:
उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों के बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता देते थे। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे-
(1) यूरोप में मानव श्रम की कमी न होना-उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। निर्धन किसान और बेरोजगार लोग रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों को जाते थे। श्रमिकों की अधिकता के कारण उन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता था। इसलिए उद्योगपतियों को श्रमिकों की कमी जैसी कोई कठिनाई नहीं थी।

(2) मौसमी आधार पर श्रमिकों की माँग का घटना-बढ़ना अनेक उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसमी आधार पर घटती-बढ़ती रहती थी। गैस घरों तथा शराबखानों, बुक बाइण्डरों, प्रिन्टरों, बंदरगाहों आदि में सर्दियों में काम की अधिकता रहती थी। सर्दियों में उन्हें अधिक मजदूरों की आवश्यकता होती थी। जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था, वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय मजदूरों को ही काम पर रखना लाभदायक समझते थे।

(3) बहुत से उत्पादों का केवल हाथ के द्वारा ही तैयार किया जाना-बहुत सारे उत्पाद ऐसे थे जो केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीनों से एक जैसे तय किस्म के उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा सकते थे। परन्तु बाजार में प्रायः बारीक डिजाइन और विशेष आकारों वाली वस्तुओं की काफी माँग थी। इन्हें बनाने के लिए यान्त्रिक प्रौद्योगिकी की नहीं, बल्कि मानवीय निपुणता की आवश्यकता थी।

(4) हाथ से बनी वस्तुओं को अधिक पसन्द करना-विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग अर्थात् कुलीन और पूँजीपति हाथों से बनी वस्तुओं को अधिक पसन्द करते थे। हाथ से बनी चीजों को श्रेष्ठता तथा सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फिनिश अच्छी होती थी। उन्हें एक-एक करके बनाया जाता था तथा उनका डिजाइन अच्छा होता था।

प्रश्न 2.
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया?
उत्तर:
ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारतीय बुनकरों से कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करवाने हेतु निम्न उपाय किये गये-
(1) गुमाश्तों की नियुक्ति- ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी नियुक्त कर दिए, जिन्हें ‘गुमाश्ता’ कहा जाता था।

(2) बुनकरों पर पाबन्दियाँ- कम्पनी को माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीददारों के साथ कारोबार करने पर पाबन्दी लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगी रकम दी जाती थी। काम का आर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए ऋण दे दिया जाता था। ऋण लेने वाले बुनकरों को अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। वे उसे किसी अन्य व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।

(3) बुनकरों का शोषण- गुमाश्ते बुनकरों के साथ कठोर एवं अपमानजनक व्यवहार करते थे। बुनकरों का शोषण करना उनका प्रमुख उद्देश्य था। गुमाश्ते सिपाहियों व चपरासियों को लेकर आते थे तथा माल समय पर तैयार न होने की स्थिति में बुनकरों को सजा देते थे। उन्हें प्रायः पीटा जाता था तथा उन पर कौड़े बरसाए जाते थे। बुनकरों की दशा बड़ी दयनीय हो गई। अब वे न तो दाम पर मोल-भाव कर सकते थे और न ही किसी और को माल बेच सकते थे। उन्हें कम्पनी से जो कीमत मिलती थी, वह बहुत कम थी। परन्तु वे ऋण के कारण कम्पनी के लिए काम करने के लिए बाध्य थे।

प्रश्न 3.
कल्पना कीजिए कि आपको ब्रिटेन तथा कपास के इतिहास के बारे में विश्वकोश (Encyclopaedia) के लिए लेख लिखने को कहा गया है। इस अध्याय में दी गई जानकारियों के आधार पर अपना लेख लिखिए।
उत्तर:
ब्रिटेन तथा कपास का इतिहास
(1) ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात- ब्रिटेन में ही सर्वप्रथम औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। वहाँ सर्वप्रथम 1730 के दशक में कारखाने खुले । कपास नए युग का प्रथम प्रतीक थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में कपास के उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई। 1760 में ब्रिटेन अपने कपास उद्योग की आवश्यकता को पूरा करने के लिए 25 लाख पौंड कच्चे कपास का आयात करता था। 1787 में यह आयात बढ़कर 220 लाख पौंड तक पहुँच गया।

(2) कपास के उत्पादन में वृद्धि- अठारहवीं शताब्दी में कई ऐसे आविष्कार हुए जिन्होंने उत्पादन प्रक्रिया, जैसे—कार्डिंग, ऐंठना, कताई, लपेटने आदि के प्रत्येक चरण की कुशलता बढ़ा दी। प्रति मजदूर उत्पादन बढ़ गया और पहले से सुदृढ़ धागों व रेशों का उत्पादन होने लगा। रिचर्ड आर्कराइट ने सूती कपड़ा मिल की रूपरेखा प्रस्तुत की। अब लोग महँगी नयी मशीन खरीद कर उन्हें कारखाने में लगा सकते थे।

(3) कपास उद्योग का विकास- सूती वस्त्र उद्योग तथा कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे अधिक विकसित उद्योग थे। तीव्र गति से उन्नति करता हुआ कपास उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था। लंकाशायर में एक कॉटन मिल की स्थापना हुई। 1733 में जान के ने फ्लाइंग शटल का आविष्कार किया तथा 1764 में जेम्स हारग्रीव्ज ने कताई की प्रक्रिया को तेज करने वाली एक मशीन ‘स्पिनिंग जैनी’ बनाई।

प्रश्न 4.
पहले विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा?
उत्तर:
प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत के औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने के लिए निम्नलिखित परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं-
(1) भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम होना- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन के कारखाने सेना की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए युद्ध सामग्री का उत्पादन कर रहे थे। इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया। परिणामस्वरूप भारतीय बाजारों को अकस्मात् एक विशाल देशी बाजार उपलब्ध हो गया।

(2) भारतीय कारखानों द्वारा सैनिकों के लिए सामान का उत्पादन करना- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय कारखानों में भी सेना के लिए जूट की बोरियों तथा सैनिकों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट, चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चरों की जीन तथा अन्य बहुत-सी वस्तुओं का उत्पादन होने लगा। इसके लिए भारत में नए कारखाने स्थापित किये गये। पुराने कारखाने कई पारियों में चलने लगे। मजदूरों को बड़ी संख्या में कारखानों में भर्ती किया गया। इस प्रकार युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन तेजी से बढ़ा।

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