RBSE Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति
RBSE Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति
उपभोक्तावाद की संस्कृति Summary in Hindi
लेखक-परिचय – श्यामाचरण दुबे का जन्म सन् 1922 में मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में हुआ। ये आधुनिक मानव विज्ञान के अध्येता एवं प्रमुख समाज-वैज्ञानिक थे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन कराते हुए उन्होंने जीवन, समाज और संस्कृति के ज्वलन्त विषयों पर चिन्तन-विश्लेषण किया तथा इन्हीं विषयों पर पर्याप्त लेखन-कार्य भी किया। इनका देहान्त सन् 1996 में हुआ।
पाठ-सार – ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ में लेखक ने उपभोक्तावाद का अर्थ बताते हुए वर्तमान काल में बाजार की गिरफ्त में आ रहे समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत किया है। आज सुख की व्याख्या बदल गई है। विलासिता की सामग्रियों से बाजार भरा पड़ा है। तरह-तरह के आकर्षक विज्ञापनों के कारण उपभोग की वस्तुओं की लिस्ट बढ़ती जा रही है। प्रत्येक चीज का कीमती ब्राण्ड लोगों को लुभा रहा है। उपभोक्तावाद के कारण दिखावे की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। विशिष्ट लोग जिन चीजों को खरीदते हैं, सामान्य लोग भी उन्हें खरीदने की लालसा रखते हैं।
लेखक बताता है कि भारत के सामन्ती समाज से ही उपभोक्तावादी समाज पैदा हुआ है। उपभोक्तावाद अनुकरण की संस्कृति है, पश्चिम की नकल है, जिसके हम गुलाम बनते जा रहे हैं। वास्तव में यह बौद्धिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का नया स्वरूप है। इससे हम अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को त्याग रहे हैं। इससे समाज में आक्रोश, अशान्ति एवं सामाजिकता की कमी आ रही है और हम अपनी जड़ों से कट रहे हैं।
कठिन-शब्दार्थ :
- वर्चस्व = दबदबा।
- जीवन-दर्शन = जीवन को देखने की दृष्टि।
- उत्पाद = तैयार माल विलासिता = सुख का उपभोग।
- मैजिक = जादई।
- सिने स्टार्स = सिनेमा के शीर्ष अभिनेता।
- परिधान = सिले-सिलाए वस्त्र।
- सांस्कृतिक अस्मिता = सांस्कृतिक पहचान।
- प्रतिमान = आदर्श, कसौटी।
- वशीकरण = वश में करना।
- व्यक्ति केन्द्रिकता = व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहना।
RBSE Class 9 Hindi उपभोक्तावाद की संस्कृति Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ का अभिप्राय केवल उपभोग सुख नहीं है बल्कि अन्य प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा छोटे आराम भी सुख कहलाते हैं। लेकिन आजकल लोग केवल उपभोग-सुख को ही ‘सुख’ कहने लगे हैं।
प्रश्न 2.
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित कर रही है –
- हम उत्पादों के निरन्तर दास बन रहे हैं।
- पिज्जा-बर्गर आदि कूड़ा खाद्य वस्तुओं को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है।
- पाँचसितारा संस्कृति से सामान्य व्यक्ति में प्रतिष्ठा के नाम पर लालच भर गया है।
- समाज के वर्गों में परस्पर दूरियाँ बढ़ रही हैं।
- दिखावे की संस्कृति या अनुकरण की संस्कृति फल-फूल रही है।
- हम अपनी सांस्कृतिक को खोते जा रहे हैं।
- हमारे संसाधनों का अपव्यय हो रहा है और
- मानवीय गुणों एवं मूल्यों का पतन हो रहा है।
प्रश्न 3.
लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
उत्तर :
उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे सामाजिक जीवन की नींव कमजोर कर, मानवीय एकता तथा प्रेम-भाव का परिणामस्वरूप यह प्रवत्ति हमारी संस्कृति के लिए खतरा बन सकती है। आज इसी प्रवत्ति के कारण हम पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं, क्योंकि यह भोग को बढ़ावा दे रही है। इसलिए उपभोक्ता संस्कृति हमारे समाज के लिए चुनौती बन गई है।
प्रश्न 4.
आशय स्पष्ट कीजिए
(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
उत्तर :
आशय-आज उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव इतनी धीमी गति से पड़ रहा है। इसके प्रभाव में आकर हमारा चरित्र ही बदलता जा रहा है। क्योंकि हम वस्तुओं का उपभोग ही सुख मानने लगे हैं और हम उत्पादों का उपभोग करते-करते उनके गुलाम होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हम उत्पादों का उपभोग नहीं कर रहे हैं बल्कि उत्पाद हमारे जीवन का भोग कर रहे हैं।
(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों।
उत्तर :
आशय-सामाजिक प्रतिष्ठा अनेक तरह की होती है। प्रतिष्ठा के कई रूप तो बिल्कुल विचित्र होते हैं। उनके कारण हम हँसी के पात्र बन जाते हैं। जैसे अमेरिका में लोग मरने से पहले अपनी समाधि का प्रबन्ध करने लगे हैं। वे धन देकर यह सुनिश्चित करने लगे हैं कि उनकी समाधि के आसपास हमेशा हरियाली रहेगी और मनमोहक संगीत बजता रहेगा।
रचना और अभिव्यक्ति –
प्रश्न 5.
कोई वस्तु हमारे लिये उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं, क्यों?
उत्तर :
टी.वी. पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन इतने आकर्षक और प्रभावशाली होते हैं कि वे हमारे मन में वस्तुओं के प्रति इतना भ्रामक आकर्षण पैदा कर देते हैं कि उन्हें खरीदने की लालसा हमारे मन में जाग जाती है और हम उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए बिना खरीदे नहीं रह पाते हैं। इस स्थिति में अनुपयोगी वस्तुएँ भी हमें लालायित कर देती हैं।
प्रश्न 6.
आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन? तर्क देकर स्पष्ट करें।
उत्तर :
वस्तुओं को खरीदने का आधार उसकी गुणवत्ता होनी चाहिए, न कि विज्ञापन। उत्पादक विज्ञापनों में वस्तुओं का बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार करते हैं और उपभोक्ता को भ्रम में डालते हैं। विज्ञापनों के प्रभाव से व्यक्ति ऐसा सम्मोहित हो जाता है कि वह वस्तु की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दे पाता है। वह भूल जाता है कि गुणवत्ता वाली वस्तुएँ विज्ञापन के बिना भी खरीदी जा सकती हैं। अतएव विज्ञापन की अपेक्षा वस्तु की गुणवत्ता पर ही ध्यान रखना चाहिए।
प्रश्न 7.
पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति’ पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर :
आज दिखावे की संस्कृति पनप रही है। यह बात अपने आप में बिल्कुल सत्य है। इसलिए लोग अपनी झूठी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए उन्हीं चीजों को अपना रहे हैं, जो दुनिया की नजरों में अच्छी हैं, चाहे उनमें गुणवत्ता न हो। आज संभ्रान्त व्यक्ति से लेकर सामान्य व्यक्ति तक दिखावे की प्रवृत्ति का शिकार हो रहा है। इसलिए वह अपनी आर्थिक स्थिति पर ध्यान न देकर अपनी हैसियत दिखाने के लिए आज पाँच सितारा संस्कृति को अपना रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि समाज के वर्गों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। मनुष्य, मनुष्य से कट रहा है। इससे सांस्कृतिक अस्मिता का, श्रेष्ठ मूल्यों एवं आस्थाओं का निरन्तर क्षरण हो रहा है।
प्रश्न 8.
आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर :
वर्तमान में उपभोक्तावादी संस्कृति का उत्तरोत्तर प्रसार हो रहा है। इससे हमारी अस्मिता एवं प्राचीन परम्पराओं का अवमूल्यन हो रहा है, हमारी आस्थाओं का क्षरण हो रहा है और हम बौद्धिक दासता अपना रहे हैं। इस उपभोक्तावादी संस्कृति से हमारे रीति-रिवाजों एवं त्योहारों पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। भारत में तीज-त्योहारों का अपना सांस्कृतिक महत्त्व है। यहाँ प्रत्येक त्योहारों पर स्त्रियों की वेशभूषा को परम्परा रूप में अपनाया जाता है, परन्तु अब उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण बाजार में नये-नये परिधान आ गये हैं, जगह-जगह बुटीक खुल गये हैं। नये परिधान ट्रेण्डी हैं तो महँगे भी हैं।
फिर लोगों का सोचना कि पिछले वर्ष की फैशन इस वर्ष क्यों रहे? फलस्वरूप परम्परागत परिधान बदल रहे हैं, इसी प्रकार विवाह के अवसर पर मेहँदी लगवाने की, महिला संगीत और भोजन आदि की परम्परा बदल गई है। शुभकामना एवं आमन्त्रण के निमित्त जो कार्ड मिलते हैं, वे महँगे भी हैं और एकदम नये-से-नये डिजायन के। कुछ सम्पन्न लोग तो चाँदी के पतरों से कार्ड बनवाकर अपनी प्रतिष्ठा का खुला प्रदर्शन भी करते हैं। सगाई पर या विवाह में बारातियों को भेंट में कीमती वस्तुएँ देने की परम्परा चल पड़ी है।
इस तरह रीति-रिवाज बदलने, लगे हैं। रक्षा-बन्धन, वेलेंटाइन डे आदि पर नयी परम्पराओं का प्रचलन बढ़ रहा है। होली-दीवाली पर गिफ्ट देने-लेने की परम्परा चल रही है। अब खील-बताशों का समय नहीं रहा, सखे मेवे चल रहे हैं। पहले धार्मिक कार्यों में पुरुष भी धोती पहनते थे और पवित्रता का पूरा ध्यान रखते थे, परन्तु अब सब कुछ बदल गया है तथा इसे रूढ़-परम्परा माना जाता है। इस तरह के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि उपभोक्ता संस्कृति से हमारे रीति-रिवाजों एवं त्योहारों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
भाषा-अध्ययन :
प्रश्न 9.
“धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है।” इस वाक्य में बदल रहा है’ क्रिया है। यह क्रिया कैसे हो रही है-धीरे-धीरे। अतः यहाँ धीरे-धीरे क्रिया विशेषण है। जो शब्द क्रिया की विशेषता बताते हैं, क्रिया विशेषण कहलाते हैं। जहाँ वाक्य में हमें पता चलता है कि क्रिया कैसे, कब, कितनी और कहाँ हो रही है, वहाँ वह शब्द क्रिया-विशेषण कहलाता है।
(क) ऊपर दिए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया-विशेषण से युक्त पाँच वाक्य पाठ में से छाँटकर लिखिए।
उत्तर :
- उत्पादन बढ़ाने पर जोर है चारों ओर।
- कल भारत में भी यह सम्भव हो सकता है।
- अमेरिका में आज जो हो रहा है।
- जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी।
- आज सामन्त बदल गए हैं।
(ख) धीरे-धीरे, जोर से, लगातार, हमेशा, आजकल, कम, ज्यादा, यहाँ, उधर, बाहर-इन क्रिया-विशेषण शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्य बनाइए।
उत्तर :
- धीरे-धीरे – समाज में धीरे-धीरे बदलाव आने लगा।
- जोर से – नेताजी जोर से चिल्लाए।
- लगातार – राजस्थान में लगातार अकाल पड़ रहा है।
- हमेशा – हमेशा सत्य बोलना चाहिए।
- आजकल – आजकल विज्ञापनों का बोलबाला है।
- कम – चाय में चीनी कम डालो।
- ज्यादा – ज्यादा सोना ठीक नहीं है।
- यहाँ – यहाँ क्या हो रहा है?
- उधर – उधर कौन रहता है?
- बाहर – वह जयपुर से बाहर जायेगा।
(ग) नीचे दिये गये वाक्यों में से क्रिया-विशेषण और विशेषण शब्द छाँटकर अलग लिखिये।
उत्तर :
पाठेतर सक्रियता :
‘दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों का बच्चों पर बढ़ता प्रभाव’ विषय पर अध्यापक और विद्यार्थी के बीच हुए वार्तालाप को संवाद-शैली में लिखिए।
उत्तर :
- विद्यार्थी – गुरुजी, आप कौन-सा साबुन प्रयोग में लाते हो?
- शिक्षक – क्यों, तुम क्यों ऐसा पूछ रहे हो?
- विद्यार्थी – क्या आप गोरा होने वाला साबुन इस्तेमाल करते हैं?
- शिक्षक – नहीं तो?
- विद्यार्थी – क्या आप दिनभर शरीर को तरोताजा रखने वाला साबुन लगाते हैं?
- शिक्षक – नहीं तो?
- विद्यार्थी – गुरुजी ! एक साबुन ऐसा भी आता है, जिससे पसीना भी नहीं आता है और जर्स भी मिट जाते
- शिक्षक – ऐसा साबुन तो मैं भी एक बार लाया था।
- विद्यार्थी – क्या अब शुद्ध गंगाजल से निर्मित साबुन आता है?
- शिक्षक – ऐसा तो कम ही सम्भव है।।
- विद्यार्थी – गुरुजी, कल टी.वी. पर ऐसा ही एक विज्ञापन आया था।
- शिक्षक – यह तो उत्पादक कम्पनी का कोरा प्रचार है। ऐसे विज्ञापनों पर तुम्हें विश्वास नहीं करना चाहिए। नहाने के साबुन कमोबेश सब एक-से ही होते हैं।
इस पाठ के माध्यम से आपने उपभोक्ता संस्कृति के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की। अब आप अपने अध्यापक की सहायता से सामन्ती संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त करें और नीचे दिये गये विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में कक्षा में अपने विचार व्यक्त करें।
क्या उपभोक्ता संस्कृति सामन्ती संस्कृति का ही विकसित रूप है?
उत्तर :
पक्ष में विचार-वर्तमान में उपभोक्तावादी संस्कृति पनप रही है, वस्तुतः यह सामन्ती संस्कृति का ही विकसित रूप है। भारत में सामन्ती संस्कृति के तत्त्व काफी पहले से रहे हैं। पुराने जमाने में यहाँ के राजा, सामन्त, जागीरदार एवं जमींदार आदि प्रजा के साथ कठोरता का व्यवहार करते थे। परन्तु वे स्वयं विलासी जीवन जीते थे और अपने भवनों में विलासिता की वस्तुओं का संग्रह करते थे। कीमती वस्त्र आभूषण, बहुमूल्य सौन्दर्य-प्रसाधन एवं परिधान आदि के प्रति उनका विशेष लगाव रहता था।
अंग्रेजों के शासन काल में अनेक पूँजीपति एवं उद्योगपति भी सामन्ती संस्कृति के पोषक बन गये थे। उस समय यद्यपि आज की तरह विज्ञापनों का उपयोग नहीं होता था, परन्तु विभिन्न अवसरों पर वे स्वयं उपभोक्ता संस्कृति का प्रचार करते थे। राजा-महाराजा, सामन्त एवं राय बहादुर लोग ऐसे रीति-रिवाजों चार करते थे, जिनसे सामान्य व्यक्ति भी लालायित हो जाते थे।
विज्ञापन-कला के प्रसार से जब उत्पादों का प्रचार किया जाने लगा, तो तब सामन्ती संस्कृति से उसे काफी सहारा मिला। राजा-महाराजा आदि अमुक तेल की मालिश कराते थे, च्यवनप्राश आदि खाते थे, अंगूरी आसव पीते थे इत्यादि परम्पराओं को विज्ञापनों के द्वारा अब नया रूप दिया जा रहा है। इस तरह कहा जा सकता है कि उपभोक्ता संस्कृति सामन्ती संस्कृति का ही विकसित रूप है।
विपक्ष में विचार-अभी जो हमारे साथियों ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि उपभोक्ता संस्कृति सामन्ती संस्कृति का ही विकसित रूप है, के विचारों से सहमत नहीं हूँ बल्कि यह वक्त के बदलाव के साथ उपभोग के उपलब्ध साधनों की प्रचुरता का प्रमाण है। पहले जिन साधनों का उपभोग बड़े-बड़े आदमी अपनी समृद्धि के आधार पर करते थे वे आज आर्थिक प्रगति के आधार पर मध्यम वर्गीय व्यक्ति क्या सामान्य जन भी उनका उपभोग करने लगे हैं। उदाहरण के लिए पहले मोटरकार का उपयोग राजा-महाराजा और बड़े-बड़े पूँजीपति करते थे। आज मध्यम वर्गीय व्यक्ति भी आर्थिक प्रगति के आधार पर इनका सुख ले रहा है।
आप प्रतिदिन टी.वी. पर ढेरों विज्ञापन देखते-सुनते हैं और इनमें से कुछ आपकी जबान पर चढ़ जाते हैं। आप अपनी पसन्द की किन्हीं दो वस्तुओं पर विज्ञापन तैयार कीजिए।
उत्तर :
विज्ञापन एक –
आपकी दाँतों में चमक है?
आपके पेस्ट में नमक है?
तो आज ही अपनाइये,
नमकयुक्त असरकारी डाबर पेस्ट।
विज्ञापन दो –
भूख जगाए, तन्दुरुस्त बनाए,
कमजोरी हटाए, शक्ति बढ़ाए,
गोल्डी च्यवनप्राश सदा खाएँ!
RBSE Class 9 Hindi उपभोक्तावाद की संस्कृति Important Questions and Answers
वस्तुनिष्ठ प्रश्न –
प्रश्न 1.
आज बाजार भरा पड़ा है
(क) आकर्षक वस्तुओं से
(ख) विलासिता की सामग्रियों से
(ग) टूथ-पेस्ट की किस्मों से
(घ) विज्ञापित वस्तुओं से।
उत्तर :
(ख) विलासिता की सामग्रियों से
प्रश्न 2.
जीवन स्तर का बढ़ता अन्तर जन्म दे रहा है
(क) संकीर्णता और स्वार्थ को
(ख) वैमनस्य और अलगाववाद को
(ग) आक्रोश और अशान्ति की
(घ) अनैतिकता और अत्याचार को।
उत्तर :
(ग) आक्रोश और अशान्ति की
प्रश्न 3.
भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है
(क) बढ़ती हुई विलासिता
(ख) बढ़ती हुई बौद्धिकता
(ग) बढ़ती हुई अशान्ति
(घ) बढ़ती हुई उपभोक्ता संस्कृति।
उत्तर :
(घ) बढ़ती हुई उपभोक्ता संस्कृति।
प्रश्न 4.
भारतीय संस्कृति की नियंत्रण शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम हो रहे हैं
(क) दिग्भ्रमित
(ख) बौद्धिक
(ग) अकर्मण्य
(घ) हतोत्साहित।
उत्तर :
(क) दिग्भ्रमित
अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्न –
निर्देश-निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर दिये प्रश्नों के सही उत्तर लिखिए –
1. धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन-उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर जोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए है, आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है। ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। उपभोग-भोग ही सुख है। एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में। उत्पाद तो आपके लिए है, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
प्रश्न 1. सामाजिक जीवन में बदलाव लाने के लिए जिम्मेदार कौन है?
प्रश्न 2. उपभोक्तावाद से समाज में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं? स्पष्ट लिखिए।
प्रश्न 3. अब सुख की व्याख्या कैसे बदल गई है?
प्रश्न 4. मनुष्य के बदले हुए चरित्र का क्या लक्षण है?
उत्तर :
1. सामाजिक जीवन में उत्पादकता एवं उपभोग पर अधिक जोर दिया जा रहा है। इन सबमें बदलाव लाने के लिए उपभोक्तावाद का दर्शन जिम्मेदार है।
2. उपभोक्तावाद से समाज में अनेक बदलाव आ रहे हैं, उनमें प्रमुख ये हैं – (1) उपभोक्तावाद जाने-अनजाने हमारे समाज का चरित्र बदल रहा है। (2) इससे हम उत्पाद के प्रति दिन-प्रतिदिन समर्पित होते जा रहे हैं।
3. भारतीय संस्कृति में सुख का अर्थ मानसिक-आध्यात्मिक शान्ति के साथ लोकहित की भावना है। परन्तु उपभोक्तावाद के प्रचलन से अब सुख की व्याख्या उपभोग का भोग करना अर्थात् अपनी सुख-सुविधाओं का एकाकी ही अधिकाधिक भोग करना हो गया है।
4. मनुष्य के बदले हुए चरित्र का लक्षण यह है कि अब वह उत्पादों का भोग नहीं करता बल्कि उत्पाद ही उसके जीवन का भोग करते हैं।
2. विलासिता की सामग्रियों से बाजार भरा पड़ा है, जो आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरन्तर लगी रहती हैं। दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को ही लीजिए। टूथ-पेस्ट चाहिए? यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है, यह मुँह की दुर्गंध हटाता है। यह मसूड़ों को मजबूत करता है और यह पूर्ण सुरक्षा’ देता है। यह सब करके जो तीन-चार पेस्ट अलग-अलग करते हैं, किसी पेस्ट का ‘मैजिक’ फार्मूला है। कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है, कोई ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य वनस्पति और खनिज तत्वों के मिश्रण से बना है। जो चाहे चुन लीजिए।
प्रश्न 1. आज बाजार किन चीजों से भरा पड़ा है और क्यों?
प्रश्न 2. बाजारों में बिकने वाले टूथ पेस्टों में विज्ञापनों के माध्यम से क्या-क्या विशेषताएँ बताई जाती हैं?
प्रश्न 3. ‘ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य’ का क्या आशय है? प्रश्न 4. गद्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
1. आज बाजार नई-नई सुख-सुविधा प्रदान करने, विलासिता को उकसाने वाली और मन को लुभाने वाली वस्तुओं से भरा पड़ा है, क्योंकि आज का आदमी उपभोक्तावाद की संस्कृति के पीछे डोल रहा है।
2. बाजारों में बिकने वाले टूथ-पेस्टों में प्रचार-प्रसार की दृष्टि से नई-नई विशेषताएँ बताई जाती हैं—कोई पेस्ट मोती जैसा दाँतों को चमकीला बनाता है, कोई मुँह की दुर्गन्ध हटाता है, कोई मसूड़ों को मजबूत बनाता है और कोई दाँतों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करता है। कोई नीम और बबूल के गुणों से भरपूर है तो कोई पेस्ट ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य वनस्पति और खनिज तत्वों के मिश्रण से निर्मित है।
3. हमारी संस्कृति में ऋषि-मुनि हमेशा से ही सम्मान और श्रद्धा के पात्र रहे हैं। इस कारण कुशल टूथ-पेस्ट निर्माता अपने विज्ञापनों के माध्यम से इनका सहारा लेकर हमारी भावनाओं को भुना रहे हैं। वे इस बात का दावा करते हैं कि हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा बताई गयी सामग्री का उपयोग हमारे द्वारा निर्मित टूथ-पेस्ट में ही किया जाता है।
4. आज विलासिता की सामग्रियों से भरा बाजार हमें लुभावने विज्ञापनों के माध्यम से आकर्षित कर रहा है। जिससे ग्राहक उनके जाल में फंसकर उनके द्वारा निर्मित की जा रही वस्तुओं को खरीद ले।
3. सुख-सुविधाओं और अच्छे इलाज के अतिरिक्त यह अनुभव काफी समय तक चर्चा का विषय भी रहेगा, पढ़ाई के लिए पाँचसितारा पब्लिक स्कूल है, शीघ्र ही शायद कालेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाए। भारत में तो यह स्थिति अभी नहीं आयी पर अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में आप मरने के पहले ही अपने अन्तिम संस्कार और अनन्त विश्राम का प्रबन्ध भी कर सकते हैं-एक कीमत पर। आपकी कब्र के आसपास सदा हरी घास होगी, मनचाहे फूल होंगे। चाहे तो वहाँ फब्बारे होंगे और मन्द ध्वनि में निरन्तर संगीत भी। कल भारत में भी यह संभव हो सकता है। अमेरिका में आज जो हो रहा है, वह कल भारत में भी आ सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों।
प्रश्न 1. उपभोक्तावाद के कारण अब कौन-सी संस्कृति विकसित हो रही है ?
प्रश्न 2. उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सुख-सुविधाओं और अच्छे इलाज के लिए क्या किया जा रहा
प्रश्न 3. अमेरिका में आज ऐसा क्या हो रहा है जिसके अनुकरण की चर्चा भारत में भी हो रही है?
प्रश्न 4. प्रतिष्ठा के हास्यप्रद रूप से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
1. उपभोक्तावाद के कारण अब अन्धानुकरण की प्रवृत्ति, सुख-भोग की लालसा एवं पाँचसितारा संस्कृति विकसित हो रही है।
2. उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सुख-सुविधाओं और अच्छे इलाज के लिए पाँचसितारा होटलों और पाँचसितारा अस्पतालों का निर्माण एवं उपयोग किया जा रहा है।
3. अमेरिका में लोग सुख-साधनों के पीछे दीवाने हो रहे हैं। वे अपने अन्तिम संस्कार और अनंत विश्राम की व्यवस्था भी करने लगे हैं। इस आधार पर लेखक को लगता है कि आने वाले समय में भारत में भी यह सब होने लगेगा।
4. अपने अन्तिम संस्कार और अनंत विश्राम के लिए अच्छा प्रबन्ध करना ऐसी झूठी प्रतिष्ठा है जिसे सुनकर हँसी आती है।
4. हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें, परम्पराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नयी संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियन्त्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा समाज ही अन्य-निर्देशित होता जा रहा है। विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तन्त्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। उनमें सम्मोहन की शक्ति है, वशीकरण की भी।
प्रश्न 1. ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ का आशय क्या है? स्पष्ट कीजिए।
प्रश्न 2. आज हमारी मान्य परम्पराओं का अवमूल्यन और आस्थाओं का क्षरण किन कारणों से हो रहा है?
प्रश्न 3. छद्म आधुनिकता का आशय क्या है? स्पष्ट कीजिए।
प्रश्न 4. हम किसके सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं? बताइए।
उत्तर :
1. किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी संस्कृति होती है। यह पहचान ही ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ कहलाती है। इसकी रक्षा किये बिना हम अपने राष्ट्र की एक विशिष्ट पहचान नहीं दे सकते। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता भारत की विभिन्न संस्कृतियों के मेल-जोल से बनी है।
2. आज हमारी मान्य परम्पराओं का अवमूल्यन और आस्थाओं का क्षरण समाज में प्रसारित हो रही उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हो रहा है।
3. छद्म आधुनिकता का आशय-आधुनिक होने का दिखावा। हम सभ्य भारतीय पश्चिमी जीवन शैली को अपना रहे हैं। हम उन्हीं की तरह आधुनिक दीखना चाहते हैं। इसलिए हम उनकी गिरफ्त में आ रहे हैं।
4. हम आज पश्चिमी देशों अर्थात् अमेरिका और यूरोप के सांस्कृतिक उपनिवेश (गुलाम) बन रहे हैं।
5. समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन-स्तर का यह बढ़ता अन्तर आक्रोश और अशान्ति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशान्ति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट् उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं।
मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदण्ड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केन्द्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। किस बिन्दु पर रुकेगी यह दौड़?
प्रश्न 1. आज हम लक्ष्य-भ्रम से किस कारण पीड़ित हैं?
प्रश्न 2. व्यक्ति-केन्द्रिकता का क्या अर्थ है? प्रश्न 3. किन कारणों से समाज में आक्रोश और अशान्ति फैल रही है?
प्रश्न 4. उपभोक्तावादी संस्कृति का क्या दुष्प्रभाव दिखाई दे रहा है? बताइए।
उत्तर :
1. उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास कर रहे हैं। इसी कारण अपने विराट् उद्देश्य से पीछे हटकर लक्ष्य-भ्रम से पीड़ित हो रहे हैं।
2. व्यक्ति-केन्द्रिकता का अर्थ है-मनुष्य का अपने स्वार्थ तक ही सीमित रह जाना। उसका अन्य समाज से या प्रकृति से बिल्कुल अलग हो जाना। .
3. आपसी संबंधों में आई दूरियाँ और आर्थिक स्तर पर बढ़ता अन्तर के कारण मानव-मन में आक्रोश और अशान्ति पैदा हो रही है।
4. उपभोक्तावादी संस्कृति का दुष्प्रभाव अनेक रूपों में दिखाई दे रहा है। इससे हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है, मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदण्ड कमजोर पड़ रहे हैं, व्यक्तिवाद का बोलबाला दिखाई दे रहा है।
बोधात्मक प्रश्न –
प्रश्न 1.
उपभोक्तावाद का दर्शन किस तरह का दर्शन है? संक्षेप में बताइए।
उत्तर :
उपभोक्तावाद का दर्शन एक ऐसा जीवन-दर्शन है, जिसका मुख्य उद्देश्य उपभोग-भोग ही सुख है। इस सुख भोग के लिए व्यक्ति दिखावे की संस्कृति की ओर अधिक लालायित हो रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि व्यक्ति स्वयं को विशिष्ट एवं समाज को गौण मानकर भोग की आकांक्षाओं की पूर्ति ही जीवन का लक्ष्य मानने लगा है।
प्रश्न 2.
उपभोक्तावाद के कारण समाज में नया बदलाव क्या आ रहा है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
उपभोक्तावाद के कारण समाज में यह नया बदलाव आ रहा है कि व्यक्ति स्वयं को उत्पाद के लिए समर्पित कर रहा है। आज प्रत्येक व्यक्ति उत्पाद का उपभोग करने के लिए इतना लालायित रहता है कि वह अपनी आर्थिक सीमा की अनदेखी करने लगता है, उपभोग को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लेता है। इस तरह उपभोक्तावाद के कारण अब समाज का चरित्र बदल रहा है, उसमें सामाजिकता का ह्रास एवं वैयक्तिकता का प्रसार हो रहा है।
प्रश्न 3.
भारत में उपभोक्ता संस्कृति का विकास किस तरह हो रहा है?
उत्तर :
लेखक ने बतलाया है कि पहले हमारे देश में सामन्ती संस्कृति के पोषक राजा, सामन्त, जागीरदार थे, जो विलासी जीवन जीते थे लेकिन अब सम्पन्न लोग, उद्योगपति, राजनेता तथा उच्च अधिकारी वर्ग आदि नये सामन्त हो गये हैं। ये लोग तथाकथित सभ्य होने से पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं।
प्रश्न 4.
लेखक ने भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास करने में किन्हें उत्तरदायी ठहराया है?
उत्तर :
लेखक ने भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास करने में आज के सामन्ती, उद्योगपति, राजनेता तथा उच्च अधिकारियों को ठहराया है जो भौतिकता की आड़ में पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण कर भोगवादी आधुनिकता की अन्धी दौड़ में दौड़ रहे हैं।
प्रश्न 5.
उपभोक्ता संस्कृति से सबसे बड़ा खतरा क्या है? लिखिए।
उत्तर :
उपभोक्ता संस्कृति पश्चिम की देन है, यह ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ की विचारधारा की वाहक है। इससे मर्यादाएँ एवं नैतिक मूल्य टूट रहे हैं, परमार्थ एवं लोकहित की भावना दब रही है तथा मानवता के विकास का लक्ष्य छूट रहा है। उपभोक्ता संस्कृति केवल भोगवादी है; इससे सामाजिक, पारिवारिक एवं मानवीय संबंध आदि सब कुछ टूट रहे हैं।
प्रश्न 6.
उपभोक्ता संस्कृति के सम्बन्ध में गाँधीजी ने क्या कहा था?।
उत्तर :
उपभोक्ता संस्कृति के दोषों एवं बुराइयों को लक्ष्यकर गांधीजी ने कहा था कि हमें पश्चिम की संस्कृति से वही बात अपनानी चाहिए जो हमारी संस्कृति के लिए हानिकारक न हो। हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाजे-खिड़की खुले रखें, पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहने से हम उपभोक्ता संस्कृति का मुकाबला कर सकते हैं।
प्रश्न 7.
भारत की सांस्कृतिक अस्मिता किस कारण से नष्ट हो रही है?
उत्तर :
किसी राष्ट्र की पहचान उसकी अपनी संस्कृति होती है जिसका पालन और अनुकरण उस देश के वासी करते हैं। यह पहचान ही सांस्कृतिक अस्मिता कहलाती है। आज हमारी सांस्कृतिक अस्मिता उपभोक्ता संस्कृति के प्रसार के कारण नष्ट हो रही है। भोगवाद की प्रवृत्ति को अपनाने के कारण हम भारतीय अपना धर्म, अपनी आदर्श परम्परायें, अपनी मर्यादाओं की सीमा और नैतिकता को खो रहे हैं।