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RBSE Class 9 Science Solutions Chapter 15 खाद्य संसाधनों में सुधार

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पाठ-सार

( 1 ) सामान्य परिचय – सभी जीवधारियों को भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन से प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन तथा खनिज लवण प्राप्त होते हैं। ये सभी हमारे विकास, वृद्धि व स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। अधिकांश भोज्य पदार्थों का स्रोत कृषि तथा पशुपालन है। हमारे देश में अधिक जनसंख्या होने के कारण हमारे कृषि के सीमित क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है। इसके लिए हरित क्रान्ति व श्वेत क्रान्ति जैसे प्रयास किए हैं। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा भी की जाये। भारत एक कृषि प्रधान देश है। कृषि कार्य के साथ अन्य कार्य जैसे पशुपालन, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन आदि कार्यों द्वारा आय को बढ़ाया जा सकता है ।
( 2 ) फसल उत्पादन में उन्नति – अनाजों से कार्बोहाइड्रेट, दालों से प्रोटीन, तेल वाले बीजों से वसा, फलों से खनिज लवण और अन्य पौष्टिक तत्व प्राप्त होते हैं । भिन्न फसलों के लिए भिन्न जलवायवीय परिस्थितियों, तापमान तथा दीप्तिकाल की आवश्यकता होती है। दीप्तिकाल सूर्य के प्रकाश से सम्बन्धित होता है । खरीफ फसलें जून से अक्टूबर तक और रबी फसलें नवंबर से अप्रैल तक होती हैं। भारत में 1960 से 2004 तक कृषि भूमि में 25% वृद्धि हुई है जबकि अन्न की पैदावार में चार गुनी वृद्धि हुई है। फसल सुधार में निम्न प्रक्रियाएँ अपनाई गई हैं, जिससे पैदावार में वृद्धि हुई है – (i) फसल की किस्मों में सुधार (ii) फसल – उत्पादन प्रबन्धन (iii) फसल सुरक्षा प्रबन्धन ।
(i) फसल की किस्मों में सुधार – इसके लिए यह देखा जाता है कि किस्में रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली हों, उत्पादन की गुणवत्ता व उत्पादन अधिक हो । फसल की किस्मों में ऐच्छिक गुणों को संकरण द्वारा डाला जा सकता है। संकरण अंतराकिस्मीय, अन्तरास्पीशीज तथा अंतरावंशीय हो सकता है। जीन परिवर्तन भी फसल सुधार की एक विधि है। कृषि प्रणाली तथा फसल उत्पादन मौसम, मिट्टी की गुणवत्ता तथा पानी की उपलब्धता पर निर्भर करती है। उच्च उत्पादन, उन्नत किस्में, जैविक और अजैविक प्रतिरोधिता, परिपक्वन काल में परिवर्तन, व्यापक अनुकूलता, ऐच्छिक सस्य विज्ञान किस्मों के सुधार के लिए कुछ कारक हैं।
(ii) फसल उत्पादन प्रबंधन – आर्थिक आधार पर उत्पादन प्रणालियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, जैसे- बिना • लागत उत्पादन, अल्प लागत उत्पादन, अधिक लागत उत्पादन आदि ।
(A) पोषक प्रबंधन – पौधों को वृद्धि के लिए पोषक तत्व आवश्यक हैं। ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व कार्बन के अतिरिक्त 13 पोषक तत्व पौधे मिट्टी से प्राप्त करते हैं। इसमें 6 वृहत् पोषक तत्व तथा 7 सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं।
खाद – खाद को जन्तु के अपशिष्ट तथा पौधे के कचरे के अपघटन से तैयार किया जाता है। कंपोस्ट, वर्मी – कंपोस्ट तथा हरी खाद मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं । –
उर्वरक – यह व्यावसायिक रूप से तैयार पादप पोषक है । उर्वरक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम प्रदान करते हैं । उर्वरकों के प्रयोग से जल प्रदूषण होता है और इनके सतत प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता कम होती है तथा सूक्ष्म जीवों का जीवन चक्र अवरुद्ध होता है ।
कार्बनिक खेती में रासायनिक उर्वरक, पीड़कनाशी, शाकनाशी आदि का उपयोग नहीं होता है। इसमें कार्बनिक खाद, कृषि अपशिष्ट का पुनर्चक्रण, जैविक उर्वरक का उपयोग होता है। साथ ही इसमें मिश्रित खेती, अंतरा फसलीकरण तथा फसल चक्र अपनाया जाता है।
(B) सिंचाई – भारत में अधिकांश खेती वर्षा पर आधारित है। अतः यदि वर्षा कम या नहीं हो तो उत्पादन प्रभावित होता है। भारत में पानी के अनेक स्रोत हैं, इनमें कुएं, नहरें, नदी, तालाब मुख्य हैं। पानी के स्रोतों के आधार पर विभिन्न सिंचाई विधियाँ अपनाई जाती हैं। पानी की उपलब्धता बढ़ाने के लिए आजकल वर्षा जल संग्रहण किया जा रहा है।
(C) फसल पैटर्न – अधिक लाभ प्राप्ति के लिए फसल उगाने की विभिन्न विधियाँ काम में ली जाती हैं। मिश्रित फसल में दो या दो से अधिक फसलों को एक साथ उगाते हैं। अंतरा फसलीकरण में दो से अधिक फसलों को एक साथ एक ही खेत में निर्दिष्ट पैटर्न पर उगाया जाता है। किसी खेत में क्रमवार पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न फसलों के उगाने को फसल चक्र कहते हैं ।
(iii) फसल सुरक्षा प्रबंधन – खेतों में फसल खरपतवार, कीट, पीड़क तथा रोग से प्रभावित होती है। कीटपीड़क पौधों पर तीन प्रकार से आक्रमण करते हैं
(a) ये मूल तने तथा पत्तियों को नष्ट कर देते हैं। (b) पौधों के विभिन्न भागों से कोशिकीय रस चूस लेते हैं । (c) ये तने तथा फलों में छिद्र कर देते हैं ।
पौधों के रोग बैक्टीरिया कवक तथा वायरस जैसे रोग कारकों से होते हैं । खरपतवार को रोकने के लिए पीड़कनाशी रसायन काम में लेते हैं । यांत्रिक विधि तथा निरोधक विधि का उपयोग भी खरपतवार हटाने में किया जाता है ।
अनाज का भंडारण — जैविक तथा अजैविक कारक कृषि उत्पाद के भण्डारण को हानि पहुँचाते हैं। भण्डारण के स्थान पर उपयुक्त नमी और ताप का अभाव गुणवत्ता को खराब कर देते हैं । भण्डारण से पहले निरोधक तथा नियंत्रण विधियों का उपयोग करना चाहिए ।
( 3 ) पशुपालन – पशुधन के प्रबन्धन को पशुपालन कहते हैं। इसके अन्तर्गत बहुत से कार्य, जैसे- भोजन देना, प्रजनन तथा रोगों पर नियंत्रण करना आता है।
(i) पशु कृषि – पशुपालन के दो उद्देश्य हैं – (a) दूध देने वाले पशु पालना (b) कृषि कार्य (हल चलाना, सिंचाई तथा बोझा ढोने) के लिए पशु पालना ।
(ii) कुक्कुट (मुर्गीपालन ) – अण्डे व कुक्कुट मांस के उत्पादन को बढ़ाने के लिए मुर्गीपालन किया जाता है। कुक्कुट पालन में मुर्गी की उन्नत नस्लें विकसित की जाती हैं । अण्डों के लिए अण्डे देने वाली (लेअर) मुर्गी तथा मांस के लिए ब्रोलर को पाला जाता है। मुर्गीपालन से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए अच्छी प्रबन्धन प्रणाली बहुत आवश्यक है । जीवाणु, विषाणु, कवक, परजीवी तथा पोषकहीनता के कारण मुर्गियों को अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं। अतः सफाई तथा स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए ।
(iii) मत्स्य उत्पादन (मछली उत्पादन ) – हमारे भोजन में मछली प्रोटीन का एक समृद्ध स्रोत है। मछली उत्पादन में पंखयुक्त मछलियाँ, कवचीय मछलियाँ जैसे प्रॉन तथा मोलस्क सम्मिलित हैं। मछली प्राप्त करने की दो विधियाँ हैं—(a) प्राकृतिक स्रोत (मछली पकड़ना) (b) मछली पालन (मछली संवर्धन) । मछलियों के जल स्रोत समुद्री जल तथा ताजा जल हैं ।
(a) समुद्री मत्स्यकी – समुद्री क्षेत्रों में किये जाने वाले मछली उत्पादन को समुद्री मत्स्यकी कहते हैं। सर्वाधिक प्रचलित मछलियाँ पॉमफ्रेट, मैकर्ल, टुना, सारडाइन तथा बांबेडक हैं। कुछ आर्थिक महत्त्व की मछलियों का संवर्धन भी समुद्र में किया जाता है।
(b) अंतःस्थली मत्स्यकी – इसमें अधिकतर मछलियों का संवर्धन किया जाता है तथा मिश्रित मछली संवर्धन के लिए भी यह माध्यम उत्तम है। मछली संवर्धन कभी-कभी धान की फसल के साथ भी किया जाता है। मछलियाँ साथ-साथ रहते हुए भी बिना स्पर्धा के अपना-अपना आहार लेती हैं ।
(iv) मधुमक्खी पालन – मधु या शहद का सर्वत्र उपयोग होता है । अतः इसके लिए मधुमक्खी पालन का उद्यम एक कृषि उद्यम बन गया है। इससे कृषक को धनार्जन भी अधिक होता है। शहद के अतिरिक्त मधुमक्खी के छत्ते से मोम भी प्राप्त करते हैं जो औषधि के लिए उपयोगी है। व्यावसायिक स्तर पर मधुमक्खी की देशी किस्म ऐपिस सेरना इंडिका, ऐपिस डोरसेटा, ऐपिस फ्लोरी का उपयोग करते हैं । इटली की मधुमक्खी ऐपिस मेलीफेरा का उपयोग भी इसमें करते हैं । इटेलियन मक्खी की मधु एकत्र करने की क्षमता बहुत अधिक होती है और वह डंक भी कम मारती है। मधु की गुणवत्ता मधुमक्खी को उपलब्ध फूलों पर निर्भर करती है।

RBSE Class 9 Science Chapter 15 खाद्य संसाधनों में सुधार InText Questions and Answers

पृष्ठ 229.

प्रश्न 1.
अनाज, दाल, फल तथा सब्जियों से हमें क्या प्राप्त होता है?
उत्तर:
अनाज, जैसे – गेहूँ, चावल, मक्का, बाजरा तथा ज्वार से कार्बोहाइड्रेट प्राप्त होता है जो शरीर को ऊर्जा देता है। दालें, जैसे – चना, मटर, उड़द, मूंग, अरहर, मसूर से प्रोटीन प्राप्त होता है। फल और सब्जियों से विटामिन, खनिज लवण तथा कुछ मात्रा में प्रोटीन, वसा तथा कार्बोहाइड्रेट भी प्राप्त होते हैं।

पृष्ठ 230.

प्रश्न 1.
जैविक तथा अजैविक कारक किस प्रकार फसल उत्पादन को प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
जैविक कारकों का प्रभाव:
विभिन्न प्रकार के जैविक कारक (रोग, कीट, निमेटोड आदि) फसल को प्रभावित करते हैं। इनके कारण उत्पादन में कमी, उत्पादन की गुणवत्ता में कमी, इनके रंग आदि में परिवर्तन आ जाता है। कई कीट ऐसे होते हैं जो फसल को पूरी तरह नष्ट कर देते हैं।

अजैविक कारक:
इसमें सूखा, क्षारता, जलाक्रान्ति, गरमी, ठण्ड तथा पाला आदि कारक सम्मिलित हैं। इनके प्रभाव से भी फसल उत्पादन कम हो जाता है। सूखे के प्रभाव से फसलें नष्ट हो जाती हैं। जल की अधिक मात्रा भी पौधों की जड़ों को गला देती है। अत्यधिक ठण्ड व पाला भी फसलों को पूरी तरह नष्ट कर देता है।

प्रश्न 2.
फसल सुधार के लिए ऐच्छिक सस्य विज्ञान गुण क्या हैं?
उत्तर:
ऐच्छिक सस्य विज्ञान गुण: इसमें पादपों में उन गुणों का समावेश किया जाता है जिनकी उपयोगिता अधिक है, जैसे – चारे वाली फसल में लंबी तथा सघन शाखाएँ ऐच्छिक गुण हैं। इसी प्रकार फसली पादपों के लिए बौने पौधे उपयुक्त हैं ताकि इन फसलों को उगाने के लिए कम पोषकों की आवश्यकता हो। इस प्रकार सस्य विज्ञान वाली किस्में अधिक उत्पादन प्राप्त करने में सहायक होती हैं।

पृष्ठ 231.

प्रश्न 1.
वृहत् पोषक क्या हैं और इन्हें वृहत् पोषक क्यों कहते हैं?
उत्तर:
पौधों को वृद्धि एवं विकास के लिए पोषक पदार्थों की आवश्यकता होती है। इनकी आवश्यकता के अनुसार इन्हें दो भागों में बाँटा गया है:

  1. वृहत् पोषक।
  2. सूक्ष्म पोषक।

वृहत् पोषक पदार्थ वे हैं, जिनकी पेड़ – पौधों को अधिक मात्रा चाहिए होती है, इसी कारण इन्हें वृहत् पोषक कहते हैं। पौधों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम एवं सल्फर वृहत् पोषक पदार्थ हैं। इन 6 पदार्थों को पादप मृदा से प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 2.
पौधे अपना पोषक कैसे प्राप्त करते हैं ?
उत्तर:
पौधे हवा, पानी तथा मिट्टी से पोषक तत्व प्राप्त करते हैं।

स्रोत पोषक तत्व
1. हवा 1. कार्बन, ऑक्सीजन
2. पानी 2. हाइड्रोजन, ऑक्सीजन
3. मृदा 3. (i) वृहत् पोषक – नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, सल्फर।

(ii) सूक्ष्म पोषक – आयरन, मैंगनीज, बोरॉन, जिंक, कॉपर, मॉलिब्डेनम, क्लोरीन।

पृष्ठ 232.

प्रश्न 1.
मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखने के लिए खाद तथा उर्वरक के उपयोग की तुलना कीजिए।
उत्तर:
खाद को जन्तुओं के अपशिष्ट तथा पौधों के कचरे के अपघटन से तैयार किया जाता है। इस कारण खाद मिट्टी को पोषकों तथा कार्बनिक पदार्थों से परिपूर्ण करती है और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है। खाद में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा मिट्टी की संरचना में सुधार करती है। इसके कारण रेतीली मिट्टी में पानी को रखने की क्षमता बढ़ जाती है। चिकनी मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा पानी को निकालने में सहायता करती है, जिससे पानी एकत्रित नहीं होता।
इसके विपरीत उर्वरक व्यावसायिक रूप से तैयार पादप पोषक है। इसका सतत प्रयोग मिट्टी की उर्वरता को घटाता है, क्योंकि कार्बनिक पदार्थ की पुनः पूर्ति नहीं हो पाती तथा इससे सूक्ष्मजीवों एवं भूमिगत जीवों का जीवन चक्र अवरुद्ध होता है। उर्वरकों के उपयोग द्वारा फसलों का अधिक उत्पादन कम समय में प्राप्त हो सकता है। परन्तु यह मृदा की उर्वरता को कुछ समय पश्चात् हानि पहुँचाते हैं। जबकि खाद के उपयोग के लाभ दीर्घावधि हैं।

पृष्ठ 235 I.

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन – सी परिस्थिति में सबसे अधिक लाभ होगा? क्यों?
(a) किसान उच्च कोटि के बीज का उपयोग करें, सिंचाई न करें अथवा उर्वरक का उपयोग न करें।
(b) किसान सामान्य बीजों का उपयोग करें, सिंचाई करें तथा उर्वरक का उपयोग करें।
(c) किसान अच्छी किस्म के बीज का प्रयोग करें, सिंचाई करें, उर्वरक का उपयोग करें तथा फसल सुरक्षा की विधियाँ अपनाएँ।
उत्तर:
उपर्युक्त शर्तों में से कृषक सर्वाधिक लाभ की स्थिति में रहेगा जब वह शर्त (c) अर्थात् अच्छे बीजों का, सिंचाई का, उर्वरकों का तथा सुरक्षा मानकों का उपयोग करता है क्योंकि अच्छे बीज अच्छी पैदावार वाले होते हैं तथा उचित सिंचाई व उर्वरक भी उत्पादन को बढ़ायेंगे। यदि सिंचाई का ध्यान नहीं रखते हैं तो यह उत्पादन को प्रभावित करेगी। फसल सुरक्षा विधियाँ अपनाना श्रेयस्कर होगा क्योंकि यदि उत्पादन की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखा जाता है तो कीट आदि फसल को नष्ट कर देंगे। इससे उत्पादन वृद्धि का कोई लाभ नहीं होगा।

पृष्ठ 235 II.

प्रश्न 1.
फसल की सुरक्षा के लिए निरोधक विधियाँ तथा जैव नियंत्रण क्यों अच्छा समझा जाता है?
उत्तर:
बीजों की सुरक्षा, भण्डारण तथा पौधों की सुरक्षा एवं देखभाल हेतु केवल निरोधक (बचाव) विधियाँ तथा जैव नियंत्रण उपयोगी हैं क्योंकि रासायनिक विधियों में हानिकारक विषैले रासायनिक पदार्थों का उपयोग होता है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं । इससे कई पादप जानवरों के लिए विषैले हो सकते हैं तथा पर्यावरण प्रदूषण के कारण बन सकते हैं। रासायनिक खाद एवं शाकनाशी, खरपतवार नाशक पदार्थ जल में विलेय होकर खाद्य श्रृंखला में पहुँचकर एकत्रित हो जाते हैं जो मानव तथा अन्य जीवों के लिए हानिकारक हैं। निरोधक तथा नियंत्रण विधियों का उपयोग भण्डारण करने से पहले करते हैं। इसमें उत्पाद की नियंत्रित सफाई, सुखाना (पहले सूर्य के प्रकाश में फिर छाया में) तथा धूमक का उपयोग करते हैं जो पीड़क मारने में सहयोग करता है।

प्रश्न 2.
भंडारण की प्रक्रिया में कौन-से कारक अनाज की हानि के लिए उत्तरदायी हैं ?
उत्तर:
भण्डारण के समय जैविक और अजैविक कारक अनाज की हानि के लिए उत्तरदायी हैं। जैविक कारकों में कीट, कुंतक, कवक, चिंचड़ी तथा जीवाणु हानि के लिए उत्तरदायी हैं तथा अजैविक कारकों में भण्डारण के स्थान पर उपयुक्त नमी व ताप का अभाव आदि उत्तरदायी हैं।

पृष्ठ 236.

प्रश्न 1.
पशुओं की नस्ल सुधार के लिए प्रायः कौन – सी विधि का उपयोग किया जाता है और क्यों?
उत्तर:
पशुओं की नस्ल सुधार हेतु प्रायः संकरण विधि का उपयोग किया जाता है क्योंकि इसमें दोनों नस्लों के गुण आ जाते हैं। जैसे जर्सी गाय जो विदेशी है, लम्बे समय तक दूध देती है तथा देशी नस्ल रेड सिंधी या साहीवाल जिसमें प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, इनका संकरण कराने से हमें ऐसी संतति प्राप्त होगी जो लम्बे समय तक दूध देगी तथा उसमें प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होगी।

पृष्ठ 237.

प्रश्न 1.

निम्नलिखित कथन की विवेचना कीजिए।
“यह रुचिकर है कि भारत में कुक्कुट, अल्प रेशे के खाद्य पदार्थों को उच्च पोषकता वाले पशु प्रोटीन आहार में परिवर्तन करने के लिए सबसे अधिक सक्षम हैं। अल्प रेशे के खाद्य पदार्थ मनुष्यों के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं।”
उत्तर:
कुक्कुट कृषि अपशिष्ट, धान की भूसी, टूटे खाद्यान्न तथा कंकड़ आदि पर पोषित होते हैं जो मनुष्य के लिए उपयुक्त नहीं है लेकिन बदले में वे प्रोटीन की प्रचुर मात्रा वाले अण्डे व मांस उत्पन्न करते हैं। अत: यह सत्य है कि भारत में कुक्कुट अल्प रेशे वाले खाद्य को पशु प्रोटीन में परिवर्तित करने में सबसे अधिक सक्षम हैं। अल्प रेशे के खाद्य पदार्थ मनुष्यों के लिए उपयुक्त नहीं होते, क्योंकि उनमें पौष्टिकता बहुत ही कम मात्रा में होती है।

पृष्ठ 238.

प्रश्न 1.
पशुपालन तथा कुक्कुट पालन के प्रबंधन प्रणाली में क्या समानता है?
उत्तर:
पशुपालन तथा कुक्कुट पालन के प्रबंधन प्रणाली में निम्न समानताएँ हैं।

  1. दोनों में ही संकरण से श्रेष्ठ जातियाँ प्राप्त की जाती हैं ताकि उनसे मानव के लिए उपयोगी खाद्य प्राप्त किए जा सकें जो मात्रा और गुणवत्ता में श्रेष्ठ हों।
  2. दोनों को ही अनेक कारणों से अनेक रोग हो जाते हैं, जिनसे बचाव के लिए उचित प्रबन्ध किए जाने आवश्यक हैं।
  3. दोनों के पालन में आहार की ओर ध्यान देना परम आवश्यक है। इससे उनकी मृत्यु दर कम हो जाती है तथा उत्पादों की गुणवत्ता बनी रहती है।
  4. उनके आवास में उचित ताप, स्वच्छता और प्रबंधन. की समान रूप से आवश्यकता होती है।
  5. संक्रामक रोगों से बचाने के लिए दोनों को टीका लगवाना आवश्यक है।

प्रश्न 2.
ब्रौलर तथा अंडे देने वाली लेयर में क्या अंतर है? इनके प्रबंधन के अंतर को भी स्पष्ट करें।
उत्तर:
कुकुक्ट पालन में ब्रौलर मांस के लिए तथा लेयर अण्डे देने वाली मुर्गी के रूप में पाला जाता है। ब्रौलर की आवास, पोषण तथा पर्यावरणीय आवश्यकताएँ अण्डे देने वाली मुर्गियों से भिन्न होती हैं। ब्रौलर चूजों को अच्छी वृद्धि दर तथा अच्छी आहार दक्षता के लिए विटामिन से प्रचुर आहार दिए जाते हैं। इनके आहार में प्रोटीन तथा वसा की मात्रा भी अधिक होती है जबकि लेयर के आहार में विटामिन A तथा विटामिन K की मात्रा अधिक रखी जाती है।

पृष्ठ 239.

प्रश्न 1.
मछलियाँ कैसे प्राप्त करते हैं ?
उत्तर:
मछली समुद्री जल और ताजे जल दोनों से प्राप्त की जाती है। ताजा जल नदियों और तालाबों में होता है। मछली पकड़ना और मछली संवर्धन समुद्र तथा ताजे पानी के पारिस्थितिक तंत्र में किया जाता है। मछली पकड़ने के लिए विभिन्न प्रकार के जालों का उपयोग मछली पकड़ने वाली नाव से किया जाता है। सैटेलाइट तथा प्रतिध्वनि ध्वनित्र से खुले समुद्र में मछलियों के बड़े समूहों का पता लगाकर उन्हें जालों से पकड़ लिया जाता है।

प्रश्न 2.
मिश्रित मछली संवर्धन से क्या लाभ हैं?
उत्तर:
मिश्रित मछली संवर्धन से देशी – विदेशी मछलियाँ पाई जा सकती हैं। ऐसे तंत्रों से अधिक मात्रा में मछली प्राप्त होती है। एक ही तालाब में 5 या 6 मछली की जातियों को बढ़ाया जा सकता है। मछलियाँ एक स्थान पर रहकर पानी की अलग – अलग सतहों से भोजन प्राप्त करती हैं। इस प्रकार मिश्रित मछली संवर्धन में तालाब के प्रत्येक भाग में उपलब्ध आहार का उपयोग हो जाता है, जैसे-कटला मछली जल की सतह से, रोहू मछली तालाब के मध्य क्षेत्र से तथा कॉमन कार्प तालाब की तली से भोजन प्राप्त करती हैं। ग्रास कार्प जाति की मछलियाँ तो खरपतवार तक खा लेती हैं। मछलियों में आहार के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होती। तालाब के हर भाग में स्थित आहार का उपयोग हो जाता है तथा उत्पादन भी बढ़ता है।

पृष्ठ 240.

प्रश्न 1.
मधु उत्पादन के लिए प्रयुक्त मधुमक्खी में कौन-से ऐच्छिक गुण होने चाहिए?
उत्तर:
मधु उत्पादन के लिए प्रयुक्त मधुमक्खी में निम्नलिखित ऐच्छिक गुण होने चाहिए।

  1. मधुमक्खी में मधु एकत्र करने की क्षमता अधिक होनी चाहिए।
  2. वे डंक कम मारने वाली हों।
  3. प्रजनन की क्षमता अधिक होनी चाहिए।
  4. छत्ते में अधिक समय तक रहनी चाहिए।

प्रश्न 2.
चरागाह क्या हैं और ये मधु उत्पादन से कैसे संबंधित हैं?
उत्तर:
चरागाह वह विस्तृत घास और अन्य वनस्पतियों से भरा स्थान है जहाँ मधुमक्खियाँ फूलों से मकरंद और पराग इकट्ठा करती हैं। जिस चरागाह में जितने अधिक और भिन्न प्रकार के फूल होंगे, वे उसी प्रकार मधु के स्वाद को निर्धारित करेंगे इसलिए मधु उत्पादन का चरागाह से सीधा सम्बन्ध है। मधु की कीमत व गुणवत्ता चरागाह से प्रभावित होती है।

RBSE Class 9 Science  Chapter 15 खाद्य संसाधनों में सुधार Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
फसल उत्पादन की एक विधि का वर्णन करो जिससे अधिक पैदावार प्राप्त हो सके।
उत्तर:
अंतराफसलीकरण: फसल उत्पादन की जिस ह विधि से अधिक पैदावार प्राप्त हो सकती है, वह अंतराफसलीकरण BOYS है। इस विधि में दो या दो से अधिक फसलों को एक साथ किसी खेत में निर्दिष्ट पैटर्न पर उगाया जाता है। कुछ पंक्तियों में एक प्रकार की फसल तथा उनके एकान्तर में स्थित दूसरी पंक्तियों में दूसरी प्रकार की फसल उगाते हैं।
उदाहरण: (i) सोयाबीन + मक्का (ii) बाजरा + लोबिया।
फसलों का चुनाव उनकी पोषक तत्वों की आवश्यकता के । अनुसार करते हैं। ये आवश्यकताएँ भिन्न – भिन्न होनी चाहिए, जिससे पोषकों का अधिकतम उपयोग हो सके। इस विधि द्वारा पीड़क व रोगों को एक प्रकार की फसल के सभी पौधों में फैलने से रोका जा सकता है। इस प्रकार दोनों फसलों से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

प्रश्न 2.
खेतों में खाद तथा उर्वरक का उपयोग क्यों करते हैं ?
उत्तर:
खाद का उपयोग:
खेतों में खाद का उपयोग मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ाकर पोषण हेतु किया जाता है। इससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता बढ़ जाती है। और उसकी रचना में सुधार होता है। इसके कारण रेतीली मिट्टी में पानी को रखने की क्षमता बढ़ जाती है तथा चिकनी मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा पानी को निकालने में सहायता करती है जिससे पानी एकत्रित नहीं हो।

उर्वरकों का उपयोग: उर्वरक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम प्रदान करते हैं। इनके उपयोग से अच्छी कायिक वृद्धि होती है और स्वस्थ पौधों की प्राप्ति होती है। उर्वरकों से उत्पादन की मात्रा बढ़ जाती है।

प्रश्न 3.
अंतराफसलीकरण तथा फसल चक्र के क्या लाभ हैं?
उत्तर:
अंतराफसलीकरण से लाभ:

  1. इसमें दो से अधिक फसलें एक साथ उगाते हैं।
  2. इसमें पोषक तत्व का अधिकतम उपयोग होता है।
  3. इसमें पीड़क व रोगों की रोकथाम होती है।
  4. इस विधि में दोनों फसलों से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

फसल चक्र के लाभ:

  1. इसमें एक वर्ष में दो अथवा तीन फसलों से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
  2. क्रमवार पूर्व नियोजित कार्यक्रम में फसलों को उगाते हैं एवं परिपक्वन काल के आधार पर उचित फसल चक्र को अपनाते हैं।
  3. इससे भूमि की उर्वरता बनी रहती है।

प्रश्न 4.
आनुवंशिक फेरबदल क्या है? कृषि प्रणालियों में यह कैसे उपयोगी है?
उत्तर:
आनुवंशिक फेरबदल : फसल की किस्मों में आनुवंशिक गुणों वाले पौधों में संकरण द्वारा ऐच्छिक गुणों, जैसे – रोगप्रतिरोधक क्षमता, उर्वरक के प्रति अनुरूपता, उत्पादन की गुणवत्ता, उच्च उत्पादन आदि को डालना आनुवंशिक फेरबदल कहलाता है। कृषि प्रणालियों में आनुवंशिक फेरबदल निम्न प्रकार उपयोगी है।

  1. आनुवंशिक फेरबदल में हम एक ही पादप में ऐच्छिक गुणों वाले जीनों का स्थानान्तरण कर देते हैं। इससे एक ही पादप में अच्छे गुणों का समावेश हो जाता है।
  2. इसके लिए ऐसे बीज तैयार किए जाते हैं, जो अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित हो सकें। इसके लिए उनमें रोगरोधी, कीटप्रतिरक्षी व विषाणुरोधी गुणों का समावेश कर देते हैं।
  3. साथ ही वातावरण के प्रति सहिष्णुता का गुण भी इन पादपों में विकसित किया जाता है। इसी से ऐसी किस्मों का भी आविष्कार किया गया है जो उच्च लवणीय मिट्टी में भी उग सकें।
  4. इस प्रकार आनुवंशिक फेरबदल से हम उच्च किस्म की अधिक मात्रा में लम्बे समय तक सुरक्षित रहने वाली फसलें प्राप्त कर सकते हैं।

प्रश्न 5.
भण्डार गृहों (गोदामों) में अनाज की हानि कैसे होती है?
उत्तर:
भण्डार गृहों में अनाज की हानि निम्न दो प्रकार से होती है।

  1. जैविक कारण
  2. अजैविक कारण।

(1) जैविक आधार पर कीट, कृंतक, कवक, चिंचड़ी तथा जीवाणु फसलों की गुणवत्ता को खराब करते हैं तथा उनके वजन को कम कर देते हैं। इससे उत्पाद बदरंग हो जाता है। उसमें अंकुरण की क्षमता कम हो जाती है।
(2) अजैविक आधार पर भण्डारण के स्थान पर उपयुक्त नमी और ताप का अभाव फसलों को खराब कर देते हैं। फसल में फफूंदी उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 6.
किसानों के लिए पशुपालन प्रणालियाँ कैसे लाभदायक हैं?
उत्तर:
किसानों के लिए पशुपालन प्रणालियाँ बहुत उपयोगी हैं।

  1. आर्थिक लाभ – इससे उन्हें खेती के साथ – साथ पशुओं से भी आर्थिक लाभ होता है।
  2. दुग्ध की प्राप्ति – गाय, भैंस आदि पशुओं से दूध मिलता है । दूध मनुष्य का पूर्ण भोजन है और शरीर की समुचित वृद्धि के लिए इसमें सभी आवश्यक तत्व विद्यमान होते हैं।
  3. खाद की प्राप्ति – सभी पालतू पशु, जैसे – बैल, भैंस, बकरी, ऊँट, घोड़ा, गाय आदि के अपशिष्ट से हमें खाद प्राप्त होती है।
  4. खेतों में कार्य एवं बोझा ढोना – बैल, घोड़े, खच्चर, ऊँट आदि पशु किसान की खेती का काम करते हैं तथा सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ढोते हैं।

प्रश्न 7.
पशुपालन के क्या लाभ हैं ?
उत्तर:
पशुपालन के विभिन्न लाभ हैं, जैसे – दुधारू पशुओं से हमें दूध की प्राप्ति होती है, जो हमारे भोजन का पौष्टिक आहार है। इसके अलावा कृषि कार्य, जैसे – हल चलाना, सिंचाई करना, बोझा ढोना आदि के लिए हम पशुओं का उपयोग करते हैं।

प्रश्न 8.
उत्पादन बढ़ाने के लिए कुक्कुट पालन, मत्स्य पालन तथा मधुमक्खी पालन में क्या समानताएँ हैं?
उत्तर:
उत्पादन बढ़ाने के लिए तीनों में अच्छी नस्ल, उचित पोषण एवं उचित रहन – सहन की सुविधाएँ आवश्यक हैं। साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उनमें उचित स्वास्थ्य का होना भी आवश्यक है। इनके संवर्धन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ तीनों में ही आवश्यक हैं। इन तीनों का उत्पादन बढ़ाने के लिए संकरण विधि का प्रयोग किया जाता है, जिससे हमें उत्तम किस्म प्राप्त होती है। इनसे हमें अधिक मात्रा में अण्डे, मांस तथा शहद प्राप्त होता है।

प्रश्न 9.
प्रग्रहण मत्स्यन, मेरीकल्चर तथा जल संवर्धन में क्या अंतर है?
उत्तर:
प्रग्रहण मत्स्यन, मेरीकल्चर तथा जल संवर्धन में अन्तरप्रग्रहण मत्स्यन।

प्रग्रहण मत्य्यन मेरीकल्चर जल संवर्धन
प्राकृतिक स्रोत से मछली पकड़ना प्रग्रहण मत्स्यन कहलाता है। जैसेनदी या समुद्र से मछली पकड़ना। समुद्री जल में मछली पालन को मेरीकल्चर कहते हैं। जैसे-मुलेट, भेटकी, पर्लस्पॉट, झींगा तथा समुद्री खरपतवार का समुद्री जल में संवर्धन। ताजे जल में मछली पालन को जल संवर्धन कहते हैं। यह ताजे पानी के स्रोत नाले, तालाब, नदियों आदि में किया जाता है।

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