RBSE Solutions for Class 11 Political Science Chapter 22 भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख व्यक्तित्व एवं राजनैतिक चिन्तन में उनका योगदान
RBSE Solutions for Class 11 Political Science Chapter 22 भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख व्यक्तित्व एवं राजनैतिक चिन्तन में उनका योगदान
Rajasthan Board RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख व्यक्तित्व एवं राजनैतिक चिन्तन में उनका योगदान
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मिलान कीजिएलेखक
उत्तर:
1. (य) सत्य के प्रयोग।
2. (अ) एन ऑटोबायोग्राफी
3. (ब) सत्यार्थ प्रकाश
4. (स) हिन्दुत्व
5.(द) कर्मयोग
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
नेहरू जी का राष्ट्रवाद का सिद्धान्त समझाइये।
उत्तरे:
जवाहर लाल नेहरू का राष्ट्रवाद को सिद्धान्त:
जवाहर लाल नेहरू उदारवादी राष्ट्रवाद के समर्थक थे। उन्होंने देश को सन्तुलित, संयमशील तथा राष्ट्रवादी मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान की। नेहरूजी के अनुसार, मातृभूमि के प्रति भावनात्मक सम्बन्ध ही राष्ट्रीयता है। राष्ट्रवाद विविधता में एकता एवं अतीत की परम्पराओं, उपविधियों एवं अनुभवों की सामूहिक स्मृति है। नेहरू के राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- राष्ट्र के उदार एवं सन्तुलित स्वरूप का समर्थन
- राष्ट्रवाद के भावनात्मक पक्ष को समर्थन
- राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का समर्थन
- संकीर्ण राष्ट्रीयता एवं साम्राज्यवाद का विरोध
- भूत, वर्तमान तथा भविष्य के प्रति समन्वय
- लोकशक्ति पर आधारित राष्ट्रवाद
- धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद
- सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से प्रगतिशील राष्ट्रवाद का समर्थन
प्रश्न 2.
स्वामी विवेकानन्द की युवाओं से क्या अपेक्षा है?
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं में आत्मगौरव एवं देशभक्ति की भावना को जगाने का कार्य किया। उन्होंने युवाओं से आह्वान करते हुए कहा कि, “गर्व से बोलो मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरे भाई बहन हैं, मेरे प्राण हैं। भारत की देव-देवियाँ मेरे ईश्वर हैं। भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, मेरी जवानी की फुलवारी और मेरे बुढ़ापे की। काशी है।” उन्होंने मातृभूमि की सेवा को ही सच्चा कर्मयोग माना।
उन्होंने युवाओं को प्रेरित करते हुए कहा कि राष्ट्रदेव की उद्घोषणा है कि मैं सशरीर भारत हूँ, सम्पूर्ण भारत मेरा शरीर है, हिमालय मेरा सिर है, पूर्व और पश्चिम मेरी बाहें हैं, जिन्हें फैलाकर मैं अपने स्वदेश बन्धुओं के गले लगती हैं। स्वामी विवेकानन्द ने अपने विचारों से युवाओं में आत्मगौरव की भावना का विकास किया तथा देशभक्ति की भावना जगायी। युवाओं के प्रति इनके योगदान के कारण सम्पूर्ण भारत स्वामी विवेकानन्द का जन्मदिन ‘युवा दिवस’ के रूप में मनाता है।
प्रश्न 3.
सरदार पटेल के कार्यों का उल्लेख करो।
उत्तर:
सरदार पटेल के कार्य-सरदार बल्लभ भाई पटेल भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के एक प्रमुख नेता थे। वे महात्मा गाँधी के अनुयायी काँग्रेसी नेता थे। ये स्वतन्त्र भारत के प्रथम उपप्रधानमन्त्री एवं प्रथम गृह मन्त्री रहे। ये मौलिक अधिकार, एवं अल्पसंख्यकों सम्बन्धी परामर्श समिति, प्रान्तीय संविधान समिति आदि संविधान सभा की महत्वपूर्ण समितियों के अध्यक्ष रहे। इन्होंने देशी रियासतों के एकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन्होंने अंग्रेजों की भारत बाँटों योजना के तहत् देशी रियासतों को स्वतन्त्र करने की योजना का पूर्वाभास हो जाने पर सभी रियासतों के प्रमुखों से वार्ता कर उन्हें भारत में विलय के लिए तैयार किया।
जूनागढ़, हैदराबाद एवं जम्मू-कश्मीर रियासत ने पटेल के प्रस्ताव के प्रमुख व्यक्तित्व एवं राजनैतिक चिन्तन में उनका योगदान को स्वीकार नहीं किया जो उन्होंने बल प्रयोग से इन्हें भारत में सम्मिलित करवाया। उन्होंने 562 रियासतों का एकीकरण किया। फलस्वरूप उनके इस महान् कार्य के कारण ही उन्हें लौह पुरुष के रूप में जाना जाता है। उनकी तुलना जर्मनी के बिस्मार्क से की जाती है। जर्मनी को एकीकृत करने में जो कार्य बिस्मार्क ने लोहे और रक्त की नीति से किया, बल्लभ भाई पटेल ने यह अपनी सूझबूझ व कूटनीति से किया।
प्रश्न 4.
महर्षि अरविन्द के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की व्याख्या करो।
उत्तर:
महर्षि अरविन्द का आध्यात्मिक राष्ट्रवाद-महर्षि अरविन्द के चिन्तन पर भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थों के आध्यात्मिक विश्वासों का गहरा प्रभाव पड़ा। इन्होंने आध्यात्म पर आधारित राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार राष्ट्रीय एवं राजनीति संघर्ष का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्ति है। भारत के प्राचीन धर्मग्रन्थों यथा वेद, उपनिषद् एवं गीता आदि में आध्यात्मिकता का स्रोत मौजूद है। इसलिए भारत ही वास्तविक सजीव एवं आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न देश है।
यह सम्पूर्ण मानव जाति को आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करने में सक्षम है। उनके अनुसार देश की स्वतन्त्रता के लिए किया गया संघर्ष गीता के क्षत्रिय धर्म की तरह पवित्र है। राष्ट्रीय शत्रुओं को नष्ट करना धर्मयुद्ध है। इसके लिए सशस्त्र विद्रोह तथा असहयोग सर्वाधिक उपयुक्त नीति है। इन्होंने अपने आध्यात्मिक विचारों से सम्पूर्ण विश्व को एक नई दिशा प्रदान की और राष्ट्रवाद को मानवीय एकता के शाश्वत मूल्यों से जोड़कर मानवीय स्वतन्त्रता का उद्घोष कर साम्राज्यवाद, फासीवाद, तानाशाही एवं सर्वाधिकारवाद को चुनौती दी।
प्रश्न 5.
नेहरूजी ने विश्वशान्ति हेतु क्या प्रयास किये?
उत्तर:
नेहरूजी के विश्वशान्ति हेतु प्रयास-पं. जवाहर लाल नेहरू हमारे देश के प्रथम प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने विश्व में शान्ति, सद्भाव, सहयोग एवं सहअस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। नेहरूजी ने विश्व शान्ति एवं निशस्त्रीकरण के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन किया तथा एशिया व अफ्रीकी देशों की स्वतन्त्रता के लिए प्रयास किए। इन्होंने गुट-निरपेक्षता की नीति को अपनाया। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् सम्पूर्ण विश्व दो गुटों –
- संयुक्त राज्य अमेरिका
- सोवियत संघ में विभाजित हो गया।
ऐसी स्थिति में नेहरूजी ने दोनों गुटों से पृथक् रहकर युद्ध व तनाव की समस्त स्थितियों का विरोध किया। नेहरूजी को गुटनिरपेक्षता का मूल एवं सर्वप्रथम प्रेरकतत्व था, “शान्ति अपने देश के लिए ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व के लिए।” नेहरूजी ने चीन के साथ मिलकर पंचशील के सिद्धान्तों का निरूपण किया। पंचशील गौतम बुद्ध का शब्द है, जिसमें शान्ति, दया और परोपकारी की भावनी सम्मिलित है। पंचशील के सिद्धान्त ने राष्ट्रों के सन्दर्भ में नेहरूजी की आदर्श मानवतावादी सम्भावनाओं का परिचय मिलता है।
प्रश्न 6.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का मूल्यांकन:
स्वामी दयानन्द सरस्वती के समस्त चिन्तन का मूल स्रोत और आधार वेद है। अपने चिन्तन और कार्यों से उन्होंने स्वतन्त्रता की नैतिक एवं बौद्धिक आधारशिला रखने का कार्य किया। उन्होंने सर्वप्रथम यह सन्देश दिया कि सुशासन कभी स्वशासन का स्थान नहीं ले सकता। इन्होंने अपनी बौद्धिक संस्कृति तथा वेदों की श्रेष्ठता को सिद्ध करते हुए आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र एवं स्वाधीन भारत का लक्ष्य लेकर शंखनाद किया। स्वदेशी वस्तु और विचार ही व्यक्ति का धार्मिक कर्तव्य है तथा विदेशी राज्य कितना ही सुविधापूर्ण हो लेकिन स्वराज्य का स्थान नहीं ले सकता। इस प्रकार स्वामीजी ने युवकों में आत्मगौरव की भावना जाग्रत की।
इनके द्वारा स्थापित आर्य समाज, धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आन्दोलन था। इन्होंने सामाजिक कुप्रथाओं का विरोध किया तथा अनमेल विवाह, बाल विवाह एवं सती का विरोध किया। इन्होंने सामाजिक कुप्रथाओं का विरोध किया तथा अनमेल विवाह, बाल विवाह एवं सती प्रथा का विरोध किया। इन्होंने धार्मिक पाखण्डवाद का विरोध किया तथा स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया। स्वदेशी, स्वधर्म, स्वराज्य एवं स्वभाषा के चार स्तम्भों पर उन्होंने जो चेतना जगाई वह आज भी प्रासंगिक है।।
प्रश्न 7.
स्वामी विवेकानन्द का राजनैतिक चिन्तन के क्षेत्र में क्या योगदान है?
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द का राजनैतिक चिन्तन के क्षेत्र में योगदान:
स्वामी विवेकानन्द ने राजनैतिक आन्दोलन में कभी सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। वे मानवतावादी एवं अद्वैत वेदान्त के सन्देश वाहक थे। वे संन्यासी और धर्म से जुड़े हुए थे। उन्होंने स्वयं कहा था, “मैं न तो राजनीतिज्ञ और न राजनीतिक आन्दोलन करने में से हूँ। परन्तु भारतीयों को जिस शक्ति, निर्भयता और कर्म की प्रेरणा उन्होंने ही वह अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय राष्ट्रवाद के लिए अमूल्य सिद्ध होती है।
स्वामी जी ने आध्यात्मिक विचारों को ही राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की प्रेरक शक्ति बना दिया। उन्होंने भारतीय संस्कृति को वर्चस्व स्थापित कर विदेशी शासन को निरर्थक सिद्ध कर दिया तथा भारतीय युवकों में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव के भाव भर दिये। स्वामी विवेकानन्द अन्तर्राष्ट्रीयवादी थे, शिकागों के विश्व धर्म सम्मेलन में पूरे दुनिया के लोगों को ‘मेरे भाइयों और बहनों”……….का सम्बोधन उनकी विश्व बधुत्व की भावना का प्रतीक है। ये सभी को समान अवसर प्रदान करने के हिमायती थे, इन्होंने आदर्श राज्य की कल्पना की। इनके मतानुसार सभी के उत्थान से ही राजनैतिक मुक्ति सम्भव है। इन्होंने राष्ट्रवाद के अध्यात्मिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। ये विश्वव्यापी मानवीय अवधारणा में विश्वास रखते थे। इन्होंने राष्ट्रीय एकता का आधार नैतिकता माना।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को विस्तार से लिखो।
उत्तर:
पं. दीनदयाल उपाध्याय का जीवन परिचय एवं विचार-पं. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान में हुआ था। इनके जन्म के कुछ ही वर्ष पश्चात् इनके माता-पिता का निधन हो जाने के कारण इनका पालन पोषण, ननिहाल में हुआ। इन्होंने राष्ट्र सेवा में अपने घर का त्याग कर दिया और राष्ट्र स्वयं सेवक संघ के प्रचारक बन गए। इनका भारत की सनातन संस्कृति में गहरा विश्वास था। इनके विचारों का वर्णन निम्नानुसार प्रस्तुत है –
(1) एकात्म मानववाद:
एकात्म मानववाद पं. दीनदयाल उपाध्याय के चिन्तन की प्रमुख और मौलिक अवधारणा है। उनकी इस अवधारणा के आयाम मानव जीवन के सभी पक्षों को सम्मिलित करते हैं –
भारतीय परम्परा मानव को एकात्म मानती हैं अर्थात् मानव को बाँटा नहीं जा सकता वह व्यक्ति के रूप में समाज का अंग होता है। पं. दीनदयाल के एकात्मवाद के अनुसार मानव के लिए स्वतन्त्रता तथा समता दोनों ही आवश्यक है। इन्हें परस्पर विरोधी न मानकर पूरक बनाना चाहिये। जहाँ दोनों विचारधाराओं ने प्रकृति पर जीत की कामना कर उसका अनियन्त्रित उपभोग किया है। फलस्वरूप मानव सभ्यता पर संकट खड़ा हो गया है।
भौतिक उपकरण मानव के सुख के साधन हैं, साध्य नहीं। समाज में फैली हुई कुरीतियाँ यथा छूआछूत, जातिभेद, मृत्युभोज, दहेज एवं नारी अवमानना आदि भारतीय संस्कृति एवं समाज की बुराईयाँ हैं। कई महापुरुषों ने इनके खिलाफ संघर्ष भी किया है। सम्पूर्ण विश्व में आज प्रत्येक व्यक्ति पूँजीवाद, साम्यवाद एवं समाजवादी विचारों में विश्वास करता है, जबकि हमारी संस्कृति इन दोनों का ही विरोध करती है। दुनिया में सबल ही नहीं दुर्बल भी जीवित रहता है, संघर्ष नहीं बल्कि सहयोग जीवन व समाज का आधार है। प्रकृति का भी एक चक्र है वनस्पति व प्राणीमात्र एक-दूसरे के लिए बने हैं। हमें ऑक्सीजन की आवश्यकता है, तो वृक्षों को कार्बन डाइऑक्साइड की। इस कारण दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
(2) पश्चिमी द्वैत एवं भारतीय अद्वैत-सृष्टि में संघर्ष उचित नहीं है, संघर्ष हो, वहाँ भी एकता का निर्माण हमारी गौरवशाली परम्परा रही है। विवाह से पूर्व पति ने पत्नी दोनों अलग-अलग हैं, लेकिन विवाह के पश्चात् दोनों एक हो जाते है। पाश्चात्य संस्कृति में इसे समझौता मानते हैं, वहीं हम जन्म जन्मांतर तक इसे निभाने का संकल्प लेते हैं। हमने एकात्मकता को अपनाया है। सन्त रामानन्द के अनुसार, जाति-पांति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।
(3) स्वार्थ तथा परमार्थ-हम पूँजीवाद व समाजवाद को नहीं बल्कि एकात्मवाद को मानते हैं। एकता, संघता को मानते हैं। हम सभी में एक आत्मा है, इस दैवीय भाव को प्रमुख आधार मानकर प्रगति करते हैं। पश्चिम ने स्वार्थ को प्रमुख माना, वहीं हमने परमार्थ को प्रधानता दी क्योंकि यह भाव प्रमुख है। दैवीय कल्पना है। पश्चिम ने परमार्थ में भी स्वार्थ है। राज्यशास्त्र, समाजशास्त्र अर्थशास्त्र सभी का आधार स्वार्थ है, क्योंकि वे अकेले के असहाय रहने के कारण अपना हित या स्वार्थ देखते हुए संगठित होते हैं। हमारा परमार्थ सेवाभाव एवं परोपकार पर आधारित है।
हम जीवन में एकात्मक और पूर्णतावादी दृष्टिकोण लेकर चलें । कर्तव्य ही जीवन रचना का आधार है। यदि सुखी नहीं तो शरीर भी सुखी नहीं। मन के साथ बुद्धि का सुख भी आवश्यक है उसी प्रकार आत्मा का सुख भी आवश्यक है। शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा का समुच्चय ही व्यक्ति है तो यह सुख शरीर, मन, बुद्धि आत्मा का सुख है।
प्रश्न 2.
वीर सावरकर के राष्ट्रवाद की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
वीर सावरकर का जीवन परिचय:
विनायक दामोदर (वीर-सावरकर) का जन्म 28 मई, 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले में स्थित एक छोटे से ग्राम भगूर में चितपावन वंशीय ब्राह्मण श्री दामोदर पन्त सावरकर के परिवार में हुआ था। उनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम गणेश सावरकर और कनिष्ठ भ्राता का नाम नारायण सावरकर था। सावरकर परिवार के इन तीन भाइयों ने भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के अग्रदूत के रूप में ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत की।
वीर सावरकर की जन उपाधि में विभूषित विनायक दामोदर (1883-1966) ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अपराजेय क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई। उन्होंने भारत में सन् 1904 में गुप्त क्रान्तिकारी संस्था अभिनव भारत की स्थापना की। वे इंग्लैण्ड में सन् 1906-10 तक रहे। इंग्लैण्ड में रहते हुए, उन्होंने सन् 1857 को भारतीय स्वातन्त्र्य समर शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखा, जिसे प्रकाशन से पूर्व ही जब्त कर लिया गया। लन्दन में उन्हें मार्च 1910 में गिरफ्तार बना लिया।
- धार्मिक दृष्टिकोण – ईश्वरीय राज्य है।
- आर्थिक दृष्टिकोण – मानव की सीमित आवश्यकताओं के आधार पर सादगी एवं सरलतापूर्ण जीवन की विकेन्द्रीकृत व्यवस्थाएँ हैं। लाभ के स्थान पर मानवीय आवश्यकताओं का आधार प्रमुख है।
- सामाजिक दृष्टिकोण-बिना भेदभाव के पारिवारिक स्वरूप को समाज।
- राजनैतिक दृष्टिकोण-इस विकेन्द्रीकृत सत्ता में सभी प्रतिबन्ध नैतिक एवं स्वनियन्त्रित है किसी में भी जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, रंग, धन इत्यादि की असमानताएँ नहीं हैं। न्याय सहज सुलभ है। सभी व्यक्ति स्वतन्त्रताओं का उपयोग शुद्ध तरीके से करते हैं।
प्रश्न 4.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता की व्याख्या करो।
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जीवन परिचय:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महु छावनी स्थान पर हुआ था। इनके जीवन पर गौतमबुद्ध, सन्त कबीर एवं ज्योतिबा फुले आदि महापुरुषों के विचारों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। इन्होंने 1907 ई. में एलिफिंस्टन हाईस्कूल बम्बई से हाईस्कूल की परीक्षा तथा 1912 ई. में एलफिंस्टन कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। कॉलेज में अध्ययन करने के दौरान उन्हें बड़ौदा के महाराजा समाजीराव गायकवाड़ की ओर से रै 25 प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलती थी।
बड़ौदा के महाराजा ने ही इन्हें अमेरिका में उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की। परिश्रमी एवं प्रतिभा सम्पन्न युवक अम्बेडकर ने कोलम्बिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क से एम.ए. (1915), पी.एच.डी. (1917) एवं लन्दन से एम.एस.-सी. (1922) विधि स्नातक एवं डी.एस.सी. (1923) की उपाधियाँ प्राप्त की। इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन के कालखण्ड में डॉ. भीमराव अम्बेडकर सर्वाधिक शिक्षित राष्ट्रीय नेता थे।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता-डॉ. भीमराव अम्बेडकर के प्रमुख विचार एवं उनकी वर्तमान समय में प्रासंगिकता का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत है –
(1) अश्पृश्यता को विरोध:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म अस्पृश्य समझी जाने वाली जाति ‘महार’ में हुआ था। इन्होंने अपनी जाति के कारण उच्च वर्ग से तिरस्कोर व भेदभाव सहन किए। बड़े होकर इन्होंने देखा कि अस्पृश्यता एवं असमानता, जैसी अमानवीय प्रथाओं पर रीति-रिवाज, लोक विश्वास एवं धार्मिक मान्यताओं की छाप लगातार शताब्दियों तक समाज के एक बड़े हिस्सों को शिक्षा एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण के अवसरों से दूर रखे हुए है। इन सबसे व्यथित ‘होकर इन्होंने दलितोद्धार का कार्य अपने हाथ में लिया। उनके इस विचार की वर्तमान से भी प्रासंगिकता है क्योंकि देश के विकास के लिए, अश्पृश्यता असमानता का अन्त होना जरूरी है। सरकार इस दिशा में प्रयासरत है। आज समाज समानता की ओर अग्रसर है।
(2) शिक्षा पर बल:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने शिक्षा के प्रसार पर बल दिया। उन्होंने सबसे पहले समाज को ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ का नारा दिया तथा कहा कि जो संघर्ष करता है, सफलता व यश उसी को मिलता है। शिक्षा का उनका विचार आज भी प्रासंगिक है। शिक्षा ही उन्नति के द्वार खोलती है। वर्तमान में सरकार द्वारा समाज के सभी वर्गों विशेषकर निम्न वर्ग की ओर शिक्षा की ध्यान दिया जा रहा है।
(3) अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन:
डॉ. अम्बेडकर ने अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह को खून से मिलने का माध्यम बताया। सरकार आज अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन प्रदान कर रही है। उसके लिए वह प्रोत्साहन राशि भी प्रदान करती है।
(4) साम्प्रदायिकता एवं धर्मान्तरण का विरोध:
डॉ. अम्बेडकर ने साम्प्रदायिकता एवं धर्मान्तरण का सदैव विरोध किया। उन्होंने 1928 ई. में साइमन कमीशन के समक्ष मुस्लिम लीग की, सिन्ध को बम्बई से पृथक् करने की माँग का विरोध किया। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान और दी पार्टीशन ऑफ इण्डिया’ में विभाजित भारत की एकता, साम्प्रदायिक शान्ति, आर्थिक विकास तथा सीमाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच जनसंख्या की अदला-बदली का व्यावहारिक सुझाव दिया। वे पाकिस्तान में अनुसूचित जातियों के जबरन धर्मान्तरण से दु:खी थे।
(5) भारतीय संस्कृति के प्रेमी:
डॉ. अम्बेडकर को भारत एवं भारतीय संस्कृति से अगाध प्रेम था। उन्होंने संस्कृत भाषा को भारत के ज्ञान, दर्शन और संस्कृति का मूल स्रोत माना। उन्होंने भारत की एकता व अखण्डता के लिए हिन्दी भाषा का राष्ट्रीय भाषा होना अनिवार्य माना। उन्होंने वैदिक साहित्य के आधार पर यह बताया कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं तथा वैदिक भारत में शूद्र वेदों के दृष्टा थे, उपनयन संस्कार करते थे तथा शासक भी होते थे। उन्होंने कहा कि यदि हम लोग अपनी संस्कृति एवं देश से प्रेम करते हैं तो हम सबका कर्तव्य है कि हिन्दी को अपने देश की एक राष्ट्रभाषा मानें।
(6) राज्य एवं लोकतन्त्र की महत्ता पर बल:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर लोकतन्त्र को आम व्यक्ति के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन का माध्यम मानते थे। उन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता की महत्ता को स्वीकारा लेकिन स्वेच्छाचारिता का विरोध किया। राज्य को लोक कल्याणकारी एवं उदारवादी होना चाहिए। राज्य का आधार सभी को सामाजिक न्याय दिलाने एवं आर्थिक सम्पन्न बनाने का होना चाहिए। वर्तमान में भी राज्य एवं लोकतन्त्र इसी राह पर चल रहे हैं।
(7) संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन:
अम्बेडकर ने संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन किया तथा इसे भारत के लिए उपयुक्त माना। देश की एकता व अखण्डता के लिए एकात्मक शासन प्रणाली अधिक उपयुक्त है। कार्यपालिका पर व्यवस्थापिका का नियन्त्रण हो ताकि वह निर्देशों एवं निर्णयों की अवहेलना न कर सके। शासन के समस्त विभागों में इस प्रकार का सन्तुलन एवं समन्वय हो जिससे एक-दूसरे से स्वतन्त्र रहते हुए भी एक-दूसरे पर नियन्त्रण रख सके। सभी अल्पसंख्यकों के हितों एवं अधिकारों पर कोई अतिक्रमण न कर सके। संसदीय लोकतन्त्र में किसी व्यक्ति विशेष को महत्ता न दी जाकर दलीय लोकतन्त्र ही वरीयता दी जानी चाहिए।
(8) वयस्क मताधिकार:
देश में उत्तरदायी सरकार के लिए बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को मत देने का अधिकार होना चाहिए। सरकार ने इस व्यवस्था को अपनाया, फलस्वरूप राजनीति में समाज के पिछड़े वर्गों को भी मत (वोट) देने का अधिकार प्राप्त हुआ है। राजनीति में उनकी भी महत्ता प्राप्त हुई है।
(9) साम्यवाद एवं इस्लामिक देशों के गठबन्धन का विरोध:
डॉ. अम्बेडकर ने साम्यवाद को भारत जैसे प्रजातान्त्रिक देशों के लिए खतरा माना। इन्होंने कहा कि चीन जैसे साम्यवादी देश आक्रमणकारी होने के कारण कभी भी हमारे देश पर हमला कर सकते हैं। उनकी यह भविष्यवाणी 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमले से सत्य सिद्ध हुई। वहीं अम्बेडकर ने मुस्लिम देशों के गठबन्धन से भी सतर्क रहने को कहा। यह भी वर्तमान में बढ़ते हुए आतंकवाद की दिशा में उनकी दूरगामी सोच को व्यक्त करता है।
(10) संविधान के बारे में विचार:
डॉ. अम्बेडकर संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। संविधान सभा के दिए गए उनके भाषण राजनीति, कानून, इतिहास, अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र का अद्भुत संगम प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने संविधान में प्रयुक्त शब्दों, मुहावरों और विचारों के विषय में जो कुछ कहा, वह विधि विशेषज्ञों के लिए एक समृद्ध निधि के समान है। उन्होंने संविधान के निर्माण के समय कहा कि यह संविधान व्यवहारिक एवं लचीला होने के साथ-साथ युद्ध व शान्तिकाल दोनों में ही देश की एकता बनाए रखने में सक्षम है। वह पवित्र दस्तावेज है तथा बहुमत के आधार पर जल्दबाजी में इसमें कोई संशोधन नहीं किए जाने चाहिए।
(11) भाषायी राज्यों के गठन का विरोध:
डॉ. अम्बेडकर ने भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का विरोध किया। इन्होंने कहा कि इससे भाषायी राष्ट्रवाद उत्पन्न हो सकता है। यह भी साम्प्रदायिकता का दूसरा रूप है।
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि डॉ. अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे। इन्होंने दलित समाज को शिक्षा एवं संस्कार के माध्यम से सुदृढ़ बनाने का कार्य किया। तात्कालिक समय में इन्होंने दलित समाज में प्रचलित कुरीतियों को दूर करने के साथ कहा कि दुर्गुणों से दूर रहिए, बेटियों को पढ़ाइए-लिखाइए उनके मन में महत्वांकाक्षा पैदा होने दीजिए।
इन्होंने शराब व गोमांस सेवन आदि का त्याग करने का आह्वान किया। शासन की संस्थाओं में दलित वर्ग के लिए उचित व सम्मानजनक प्रतिनिधित्व के प्रयास सफल रहे। हमारे संविधान में आरक्षण सम्बन्धी उपबन्धों के पीछे डॉ. अम्बेडकर का ही योगदान था। इन्होंने अस्पृश्य एवं दलित समाज को सामाजिक न्याय की राह प्रशस्त की। इनके ये विचार वर्तमान में भी प्रासंगिक हैं।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
वेदों की ओर लौटो का नारा दिया –
(अ) दयानन्द सरस्वती
(ब) महात्मा गाँधी
(स) विवेकानन्द
(द) वीर सावरकर।
उत्तर:
(अ) दयानन्द सरस्वती
प्रश्न 2.
शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया –
(अ) दयानन्द सरस्वती
(ब) स्वामी विवेकानन्द
(स) स्वामी रामतीर्थ
(द) अरविन्द घोष।
उत्तर:
(ब) स्वामी विवेकानन्द
प्रश्न 3.
पांडिचेरी में आश्रम बनाया –
(अ) महर्षि अरविन्द
(ब) विवेकानन्द
(स) महात्मा गाँधी
(द) स्वामी विरजानन्द।
उत्तर:
(अ) महर्षि अरविन्द
प्रश्न 4.
बारदोली आन्दोलन के नेता थे –
(अ) सरदार पटेल
(ब) नेहरू जी
(स) गाँधी जी
(द) विवेकानन्द।
उत्तर:
(अ) सरदार पटेल
प्रश्न 5.
एकात्म मानववाद का सिद्धान्त दिया –
(अ) दयानन्द सरस्वती
(ब) सरदार पटेल
(स) पं. दीनदयाल उपाध्याय
(द) विवेकानन्द।
उत्तर:
(स) पं. दीनदयाल उपाध्याय
प्रश्न 6.
भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया –
(अ) महात्मा गाँधी
(ब) स्वामी विवेकानन्द
(स) अरविन्द घोष
(द) वीर सावरकर।
उत्तर:
(अ) महात्मा गाँधी
प्रश्न 7.
संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे –
(अ) सरदार पटेल
(ब) नेहरू जी।
(स) डॉ. अम्बेडकर
(द) गाँधी जी।
उत्तर:
(स) डॉ. अम्बेडकर
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्न में से आर्य समाज के संस्थापक थे –
(अ) स्वामी विवेकानन्द
(ब) स्वामी दयानन्द सरस्वती
(स) रामकृष्ण परमहंस
(द) अरविन्द घोष
उत्तर:
(ब) स्वामी दयानन्द सरस्वती
प्रश्न 2.
निम्न में से किस विद्वान् ने वेद, उपनिषद् एवं दर्शनशास्त्रों का गहन अध्ययन कर त्रेतवाद का प्रतिपादन किया था?
(अ) पं. जवाहर लाल नेहरू
(ब) स्वामी विवेकानन्द
(स) स्वामी दयानन्द सरस्वती
(द) राजा राममोहन राये।
उत्तर:
(स) स्वामी दयानन्द सरस्वती
प्रश्न 3.
सत्यार्थ प्रकाश के लेखक हैं –
(अ) स्वामी दयानन्द सरस्वती
(ब) स्वामी विवेकानन्द
(स) रामकृष्ण परमहंस
(द) राजा राममोहन राय।
उत्तर:
(अ) स्वामी दयानन्द सरस्वती
प्रश्न 4.
निम्न में से किसने सर्वप्रथम राष्ट्रवाद को स्वेदशी एवं भारतीय अभिमुखीकरण प्रदान किया?
(अ) स्वामी विवेकानन्द
(ब) वीर सावरकर
(स) स्वामी दयानन्द सरस्वती
(द) महात्मा गाँधी।
उत्तर:
(स) स्वामी दयानन्द सरस्वती
प्रश्न 5.
निम्न में से किस विद्वान् के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था?
(अ) स्वामी दयानन्द
(ब) स्वामी विवेकानन्द
(स) रामकृष्ण परमहंस
(द) राजा राममोहन राय।
उत्तर:
(ब) स्वामी विवेकानन्द
प्रश्न 6.
स्वामी रामकृष्ण परमहंस गुरु थे –
(अ) स्वामी विवेकानन्द के
(ब) महात्मा गाँधी के
(स) अरविन्द घोष के
(द) नेहरूजी के।
उत्तर:
(अ) स्वामी विवेकानन्द के
प्रश्न 7.
आध्यात्म पर आधारित राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया?
(अ) स्वामी दयानन्द सरस्वती ने
(ब) भीमराव अम्बेडकर ने
(स) वीर सावरकर ने
(द) अरविन्द घोष ने।
उत्तर:
(द) अरविन्द घोष ने।
प्रश्न 8.
“राष्ट्र स्वतन्त्रता के लिए किया गया, संघर्ष गीता के क्षत्रिय धर्म की तरह पवित्र है” यह कथन किसका था?
(अ) अरविन्द घोष का
(ब) विनायक सावरकर का
(स) भीमराव अम्बेडकर का
(द) महात्मा गाँधी का।
उत्तर:
(अ) अरविन्द घोष का
प्रश्न 9.
‘अभिनव भारत’ नामक क्रान्तिकारी संगठन के संस्थापक थे –
(अ) स्वामी विवेकानन्द
(ब) भीमराव अम्बेडकर
(स) विनायक दामोदर सावरकर
(द) महात्मा गाँधी।
उत्तर:
(स) विनायक दामोदर सावरकर
प्रश्न 10.
‘1857 का स्वतन्त्रता संग्राम’ पुस्तक के लेखक हैं –
(अ) नारायण सावरकर
(ब) स्वामी विवेकानन्द
(स) राजा राममोहन राय
(द) विनायक दामोदर सावरकर।
उत्तर:
(द) विनायक दामोदर सावरकर।
प्रश्न 11.
अण्डमान की जेल में किस स्वतन्त्रता सेनानी को कोल्हू की बैल की तरह जोता गया?
(अ) नारायण सावरकर को
(ब) गणेश सावरकर को
(स) विनायक दामोदर सावरकर को
(द) महात्मा गाँधी को।
उत्तर:
(स) विनायक दामोदर सावरकर को
प्रश्न 12.
“जो व्यक्ति सिन्धु नदी से समुद्र तट तक की भारत भूमि को अपनी पुण्य भूमि एवं पितृभूमि मानता है। वही हिन्दू है।” यह कथन किसका है?
(अ) स्वामी विवेकानन्द का
(ब) स्वामी दयानन्द सरस्वती का
(स) भगत सिंह का
(द) विनायक दामोदर सावरकर का।
उत्तर:
(द) विनायक दामोदर सावरकर का।
प्रश्न 13.
लौह पुरुष की संज्ञा किस महापुरुष को दी गई?
(अ) सरदार बल्लभ भाई पटेल
(ब) महात्मा गाँधी
(स) जवाहर लाल नेहरू
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) सरदार बल्लभ भाई पटेल
प्रश्न 14.
सरदार बल्लभ भाई पटेल को गाँधीजी ने सरदार की उपाधि से विभूषित किया –
(अ) बारदोली सत्याग्रह के कुशल संचालन पर
(ब) भारत छोड़ो आन्दोलन के कुशल संचालन पर
(स) सविनय अवज्ञा आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका पर
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(अ) बारदोली सत्याग्रह के कुशल संचालन पर
प्रश्न 15.
निम्न में से किस महापुरुष की याद में गुजरात में नर्मदा नदी के टापू साधुवेंट पर स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ का निर्माण किया जा रहा है?
(अ) डॉ. भीमराव अम्बेडकर
(ब) पं. जवाहर लाल नेहरू
(स) वल्लभ भाई पटेल
(द) महात्मा गाँधी।
उत्तर:
(स) वल्लभ भाई पटेल
प्रश्न 16.
शिक्षित बनों, संगठित रहो, संघर्ष करो’ का नारा किसने दिया?
(अ) डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने
(ब) महात्मा गाँधी ने
(स) पं. नेहरू ने
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने
प्रश्न 17.
‘हू वर दी शूद्राज’ पुस्तक के लेखक कौन थे?
(अ) महात्मा गाँधी
(ब) पं. नेहरू
(स) भीमराव अम्बेडकर
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(स) भीमराव अम्बेडकर
प्रश्न 18.
भारत के वीर पूजा की भावना को लोकतन्त्र के लिए सबसे बड़ा खतरा किसने माना?
(अ) अम्बेडकर ने
(ब) सावरकर ने
(स) नेहरू ने
(द) गाँधी ने।
उत्तर:
(अ) अम्बेडकर ने
प्रश्न 19.
किसने कहा कि, “भारत की एकता और अखण्डता के लिए हिन्दी भाषा का राष्ट्रीय भाषा होना अनिवार्य है।”
(अ) पं. दीनदयाल उपाध्याय ने
(ब) सावरकर ने
(स) महर्षि अरविन्द घोष ने
(द) डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने।
उत्तर:
(द) डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने।
प्रश्न 20.
गोपालकृष्ण गोखले राजनीतिक गुरु थे –
(अ) महात्मा गाँधी के
(ब) पं. जवाहर लाल नेहरू के
(स) भगत सिंह के
(द) पं. दीनदयाल उपाध्याय के।
उत्तर:
(अ) महात्मा गाँधी के
प्रश्न 21.
“राज्य एक अनैतिक संस्था है।” यह कथन है –
(अ) नेहरू का
(ब) महात्मा गाँधी का
(स) सरदार पटेल का
(द) तिलक का।
उत्तर:
(ब) महात्मा गाँधी का
प्रश्न 22.
न्यासिता के सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं –
(अ) महात्मा गाँधी
(ब) पं. नेहरू
(स) सरदार पटेल
(द) बाल गंगाधर तिलक।
उत्तर:
(अ) महात्मा गाँधी
प्रश्न 23.
आजाद भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री के रूप में देश को नेतृत्व प्रदान किया –
(अ) पं. जवाहर लाल नेहरू ने।
(ब) महात्मा गाँधी ने
(स) मोरारजी देसाई ने
(द) लाल बहादुर शास्त्री ने।
उत्तर:
(अ) पं. जवाहर लाल नेहरू ने।
प्रश्न 24.
निम्न में से किसके अन्तर्राष्ट्रवाद का आधार भारत की गौरवशाली परम्परा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ है –
(अ) महात्मा गाँधी
(ब) पं. जवाहर लाल नेहरू
(स) डॉ. भीमराव अम्बेडकर
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(ब) पं. जवाहर लाल नेहरू
प्रश्न 25.
निम्न में से किस विद्वान् का एकात्म मानववाद का दर्शन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अध्यात्म, कर्म एवं राजनीति का अनूठा समन्वय है –
(अ) पं. दीनदयाल उपाध्याय
(ब) पं. जवाहर लाल नेहरू
(स) महर्षि अरविन्द घोष
(द) महात्मा गाँधी।
उत्तर:
(ब) पं. जवाहर लाल नेहरू
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
“सुशासन कभी भी स्वशासन का स्थान नहीं ले सकता, चाहे वह कितना ही अच्छा हो।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती का।
प्रश्न 2.
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म कब कहाँ हुआ?
उत्तर:
12 फरवरी, 1824 ई. को गुजरात राज्य के कठियावाड़ की मोरनी रियासत के टंकारा नगर में।
प्रश्न 3.
स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्यसमाज की स्थापना कब व कहाँ की?
उत्तर:
10 अप्रैल, 1875 को बम्बई में।
प्रश्न 4.
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किसकी खोज में गृह-त्याग कर संन्यास धारण कर लिया?
उत्तर:
ज्ञान, सत्य एवं मोक्ष की खोज में।
प्रश्न 5.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के चिंतन का सर्वाधिक प्रमुख स्रोत कौन-सा है?
उत्तर:
वेद।
प्रश्न 6.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार आर्यत्व का क्या अर्थ है?
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार, आर्यत्व का अर्थ स्वतन्त्रता, समानता, राष्ट्रीयता, भाईचारा, धार्मिक एवं सामाजिक जागरण।।
प्रश्न 7.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के किन्हीं दो राजनीतिक विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
- राज्य एक लोकहितकारी संस्था है,
- शासन के विकेन्द्रीकरण का समर्थन।
प्रश्न 8.
किस महान् विद्वान् ने सर्वप्रथम राष्ट्रवाद को स्वदेशी एवं भारतीय अभिमुखीकरण प्रदान किया?
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने।
प्रश्न 9.
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भारतीय समाज में फैली किन कुरीतियों का विरोध किया?
उत्तर:
स्वामी दयान्द सरस्वती ने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरीतियों जैसे-छुआछूत, बाल विवाह, अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, नशा, अन्धविश्वास, धार्मिक आडम्बरों, स्त्रियों की अशिक्षा एवं सती प्रथा आदि का विरोध किया।
प्रश्न 10.
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित किन्हीं दो ग्रन्थों का नाम लिखिए।
उत्तर:
- सत्यार्थ प्रकाश,
- ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका।
प्रश्न 11.
बेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना किसने की?
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द ने।
प्रश्न 12.
स्वामी विवेकानन्द के गुरु कौन थे?
उत्तर:
रामकृष्ण परमहंस।
प्रश्न 13.
स्वामी विवेकानन्द द्वारा लिखित किन्हीं दो पुस्तकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
- कर्मयोग
- पतंजलि के योग सूत्र की टीका।
प्रश्न 14.
स्वामी विवेकानन्द का मूर्ति पूजा के बारे में क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द मूर्ति पूजा को एक साधक के रूप में ध्यान की एकाग्रता देने का उपकरण मानते थे। साध्य नहीं।
प्रश्न 15.
स्वामी विवेकानन्द के कोई दो राजनीतिक विचार लिखिए।
उत्तर:
- सभी के उत्थान से ही राजनीतिक मुक्ति सम्भव,
- व्यक्ति की गरिमा का विश्वास।
प्रश्न 16.
वेदान्त पर आधारित शक्ति एवं निर्भीकता का सिद्धान्त किसने किया?
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द ने।
प्रश्न 17.
विपिनचन्द्र पाल, बाल गंगाधर तिलक एवं अरविन्द घोष ने किनके विचारों से प्रभावित होकर अभिनव राष्ट्रवाद का मार्ग प्रशस्त किया था?
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द के।
प्रश्न 18.
स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में कब भाग लिया?
उत्तर:
1893 ई. में।
प्रश्न 19.
महर्षि अरविन्द घोष का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
महर्षि अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता में हुआ था।
प्रश्न 20.
महर्षि अरविन्द घोष के अनुसार राष्ट्रीय एवं राजनैतिक संघर्ष को मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति।
प्रश्न 21.
किस स्वतन्त्रता सेनानी ने स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा और अपरिहार्य परिस्थितियों में हिंसा का भी समर्थन किया?
उत्तर:
महर्षि अरविन्द घोष ने।
प्रश्न 22.
‘अभिनव भारत’ नामक संगठन की स्थापना कब व किसने की?
उत्तर:
1905 ई. में विनायक दामोदर सावरकर ने।
प्रश्न 23.
विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित किन्हीं दो पुस्तकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
- हिन्दुत्व
- 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम।
प्रश्न 24.
ब्रिटिश सरकार ने किस स्वतन्त्रता सेनानी को 50 वर्ष का कठोर कारावास दिया था?
उत्तर:
वीर विनायक सावरकर को।
प्रश्न 25.
वीर विनायक सावरकर के किन दो भाइयों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया था?
उत्तर:
- गणेश सावरकर,
- नारायण सावरकर।
प्रश्न 26.
किस क्रान्तिकारी ने 8 मई, 1908 को लन्दन के इण्डिया हाउस में 1857 को स्वतन्त्रता दिवस’ धूमधाम से मनाया था?
उत्तर:
वीर विनायक सावरकर ने।
प्रश्न 27.
बल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि किसने प्रदान की?
उत्तर:
महात्मा गाँधी ने।
प्रश्न 28.
देशी राज्यों का एकीकरण किसने किया?
उत्तर:
सरदार बल्लभ भाई पटेल ने।
प्रश्न 29.
सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात राज्य के करमसद गाँव में हुआ था।
प्रश्न 30.
सरदार पटेल के किन्हीं दो विचारों को लिखिए।
उत्तर:
- राष्ट्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं आत्मीयता का भाव।
- स्वदेशी वस्तुओं के पक्षधर।
प्रश्न 31.
सरदार बल्लभ भाई पटेल का अविस्मरणीय कार्य कौन-सा है?
उत्तर:
भारत की 562 देशी रियासतों का भारत संघ में एकीकरण कराना।
प्रश्न 32.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश में महु छावनी में हुआ था।
प्रश्न 33.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित किन्हीं दो पुस्तकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
- कास्ट इन इण्डिया
- हू वर दी शूद्राज।
प्रश्न 34.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के कोई दो राजनीतिक विचार लिखिए।
उत्तर:
- संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन
- व्यक्ति की स्वतन्त्रता की महत्ता।
प्रश्न 35.
भारत में जाति प्रथा को लोकतन्त्र का सबसे बड़ा शत्रु किसने माना?
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने।
प्रश्न 36.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कौन-सा नारा दिया?
उत्तर:
शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।
प्रश्न 37.
राष्ट्रमण्डल से सम्बन्ध के विषय में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के क्या विचार थे?
उत्तर:
राष्ट्रमण्डल से सम्बन्ध के विषय में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का विचार था कि भारत में औद्योगिक उन्नति एवं रक्षात्मक मामलों में हमारी आवश्यकता को देखते हुए राष्ट्रमण्डल से सम्बन्ध बनाए रखना हमारे लिए उपयोगी रहेगा।
प्रश्न 38.
महात्मा गाँधी का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के कठियावाड़ के पोरबन्दर नामक स्थान पर।
प्रश्न 39.
गाँधी जी के विचारों पर किन-किन धार्मिक ग्रन्थों का प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
गाँधीजी के विचारों पर वेद, उपनिषद्, रामायण एवं श्रीमद्भगवद गीता का प्रभाव पड़ा।
प्रश्न 40.
गाँधीजी के जीवन एवं कर्म के मूल मन्त्र कौन-कौन से थे?
उत्तर:
सत्य और अहिंसा।
प्रश्न 41.
गाँधीजी के अनुसार अहिंसा का क्या अर्थ था?
उत्तर:
गाँधीजी के अनुसार, अहिंसा का अर्थ मनसा, वाचा, कर्मणा था अर्थात् वे विचारों, वाणी एवं कर्म तीनों प्रकार से अहिंसा का प्रतिकार करते थे।
प्रश्न 42.
गाँधीजी द्वारा लिखित किन्हीं दो पुस्तकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
- सत्य के साथ मेरे प्रयोग
- हिन्द स्वराज।
प्रश्न 43.
राजनैतिक चिन्तन में गाँधीजी के योगदान के कोई दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
- सत्याग्रह,
- सर्वोदय की अवधारणा।
प्रश्न 44.
गाँधीजी ने राजनीति को किससे सम्बन्धित किया?
उत्तर:
गाँधीजी ने राजनीति को धर्म और नैतिकता से सम्बन्धित किया।
प्रश्न 45.
समय काल परिस्थिति के अनुसार विभिन्न मुद्दों पर महात्मा गाँधी के विचारों को क्या नाम दिया गया?
उत्तर:
गाँधीवाद।
प्रश्न 46.
पं. जवाहर लाल नेहरू का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
पं. जवाहर लाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर, 1889 ई. को इलाहाबाद में हुआ था।
प्रश्न 47.
पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखित किन्हीं दो पुस्तकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- डिस्कवरी ऑफ इण्डिया,
- एन ऑटोबायोग्राफी।
प्रश्न 48.
पं. जवाहर लाल नेहरू के राष्ट्रवाद के कोई दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
- राष्ट्र के उदार एवं सन्तुलित स्वरूप का समर्थन।
- राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का समर्थन।
प्रश्न 49.
पं. नेहरू ने किन-किन नेताओं के साथ मिलकर गुट-निरपेक्ष मार्ग का नेतृत्व किया?
उत्तर:
- मार्शल टोटो (यूगोस्लाविया),
- कर्नल नासिर (मिस्र)।
प्रश्न 50.
पंचशील के सिद्धान्तों का निरूपण किसने किया?
उत्तर:
पं. जवाहरलाल नेहरू ने।
प्रश्न 51.
पं. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
पं. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान में हुआ था।
प्रश्न 52.
पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित विचारधारा को क्या नाम दिया जाता है?
उत्तर:
एकात्म मानववाद।
प्रश्न 53.
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने किस राजनीतिक दल की स्थापना में योगदान दिया?
उत्तर:
अखिल भारतीय जनसंघ पार्टी।
प्रश्न 54
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने किन-किन पक्षों का सम्पादन किया? .
उत्तर:
- पाँचजन्य
- राष्ट्रधर्म
- स्वदेश पत्रिका।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शासन के विकेन्द्रीकरण का समर्थन किस प्रकार किया?
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती शासन के विकेन्द्रीकरण के समर्थक थे। उन्होंने मनुस्मति का समर्थन करते हुए कहा कि राजा एवं राजसभा अपने प्रशासन को संचालित करने के लिए दो, तीन, पाँच तथा सौ ग्रामों के मध्य एक राज्याधिकारी नियुक्त करे। कार्य संचालन के लिए एक गाँव का अधिकारी गोपनीय रूप से दस गाँवों के अधिकारी को, दस गाँवों का अधिकारी बीस गाँव के अधिकारी को, बीस गाँव का अधिकारी सौ गाँवों के अधिकारी को, सौ गाँवों का अधिकारी हजार गाँव के अधिकारी को प्रतिदिन संकट, अपराध, उपद्रव आदि की सूचना प्रदान करेगा और इस प्रकार अन्त में सूचना राजा तक पहुँचेगी। इनके सहयोग के लिए गुप्तचरों की व्यवस्था होगी। गुप्तचरों के कार्यों की भी जाँच होती रहेगी। इस प्रकार स्वामी दयानन्द गणतन्त्रीय शासन व्यवस्था के समर्थक थे तथा कार्यपालिका व न्यायपालिका के मध्य सामंजस्य के साथ न्यायाधीशों पर भी शासन के नियन्त्रण के पक्षधर थे।
प्रश्न 2.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के गणतन्त्र की महत्ता सम्बन्धी विचार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती गणतन्त्रीय शासन व्यवस्था के समर्थक थे। इन्होंने राजतन्त्र के स्थान पर गणतन्त्र की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास किया। जनता के कल्याण के लिए उन्होंने तीन सभाओं का विचार प्रस्तुत किया
- विद्या-सभा
- धर्म सभा
- राज सभा।
उनके अनुसार राजा स्वयं सभापति होगा, परन्तु वह सभा के अधीन रहेगा। राजा इन त्रिसभाओं के सहयोग से शासन कार्य का संचालन करेगा तथा अन्तिम शक्ति जनता के पास रहेगी। यदि शासन तन्त्र जनहित के विरुद्ध व्यवहार करे तो जनता द्वारा उनकी अवहेलना न्यायसंगत है। इससे राजनीतिक क्रान्ति का बोध होता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के इन्हीं विचारों को महात्मा गाँधी द्वारा संचालित सविनय अवज्ञा आन्दोलन तथा असहयोग अन्दोलन का मार्गदर्शक माना जाता है।
प्रश्न 3.
स्वामी विवेकानन्द ने समाज सुधार हेतु कौन-कौन से कार्य किए? लिखिए।
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के ऐसे दार्शनिक और संन्यासी थे, जो यद्यपि सक्रिय राजनीति में नहीं थे, परन्तु अपनी प्रतिभा से उन्होंने देश में राष्ट्रप्रेम की ज्योति प्रज्जवलित की। इन्होंने जाति प्रथा, सम्प्रदायवाद, छुआछूत एवं समस्त प्रकार की विषमताओं का विरोध किया। उन्होंने कहा कि सभी प्राणियों में एक जैसी आत्मा है। अतः समाज में सब समान हैं और ऊँच-नीच के भेदभाव को समाप्त करके सभी को समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।
इन्होंने बाल-विवाह का विरोध किया। स्वामी विवेकानन्द का मानव सेवा में महत्वपूर्ण स्थान है। वे रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, निर्धनता एवं अशिक्षा के कटु आलोचक थे। छुआछूत व वर्गभेद को नहीं मानते थे। जनकल्याण की भावना को उन्होंने प्रोत्साहित किया। विवेकानन्द दलितोत्थान के लिए उच्च शिक्षित युवाओं के योगदान को महत्वपूर्ण मानते थे। वहीं रूढ़िवादिता के अन्त के लिए संघर्ष या हिंसा के स्थान पर तार्किक दृष्टिकोण को अधिक महत्व देते थे।
प्रश्न 4.
स्वामी विवेकानन्द के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द मानवतावादी एवं अद्वैत वेदान्त के सन्देशवाहक थे। न तो उनका राजनीति में कोई विश्वास था और न ही उन्होंने राजनैतिक गतिविधियों में सहभागिता की। स्वामीजी ने आध्यात्मिक विचारों को ही राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की प्रेरक शक्ति बना दिया। उन्होंने भारतीय संकृति, धर्म एवं समाज की अच्छाइयों से विश्व को परिचित कराया। उन्होंने देश में शक्ति और निर्भयता का संचार किया तथा भारतीयों को हीनता के बोध से मुक्त किया।
उन्होंने विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। उन्होंने मातृभूमि की सेवा को ही सच्ची कर्मयोग माना। इन्होंने अपने भाषणों एवं लेखों से सम्पूर्ण देश में राष्ट्रवाद की नैतिक नींव को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने सामाजिकता को समाप्त करने के लिए, वैसा ही कार्य किया, जैसा सड़े तालाब के पानी को साफ करने के लिए किया जाता है। उन्होंने केवल भारतीयों के हृदय पर ही नहीं वरन्। विदेशियों पर भी अमिट छाप छोड़ी। स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्रीय विचारधारा को जो स्वरूप देने का कार्य किया उससे अरविन्द, विपिनचन्द्र पाल, बाल गंगाधर तिलक एवं महात्मा गाँधी जैसे सभी नेता प्रभावित हुए।
प्रश्न 5.
महर्षि अरविन्द घोष के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
महर्षि अरविन्द घोष उग्र राष्ट्रवाद के प्रणेता थे। उन्होंने स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा और अपरिहार्य परिस्थितियों में हिंसा का भी समर्थन किया। उनके अनुसार राष्ट्र स्वतन्त्रता के लिए किया गया संघर्ष गीता के क्षत्रिय धर्म की तरह पवित्र है। देश के दुश्मनों को समाप्त करना धर्मयुद्ध है। इसके लिए सशस्त्र विद्रोह एवं असहयोग सर्वाधिक उपर्युक्त नीति है। भारतीय राष्ट्रवाद में अरविन्द घोष का महत्वपूर्ण एवं उच्च स्थान है। इन्होंने राष्ट्रवाद की व्यापक अवधारणा देते हुए भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के गौरव को महिमामंडित किया।
उन्होंने राष्ट्र को एक भू – भाग न मानकर राष्ट्रदेव का स्वरूप प्रदान किया, जो स्वतन्त्रता के पश्चात् भी मानव में निरन्तर अच्छी भूमि के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान का भाव भरता रहे। उनके कार्यों, विचारों एवं लेखों के द्वारा विषय परिस्थितियों में भारतीयों में उदासीनता व हीन भावना दूर हुई और बस उत्साह का संचार हुआ। उन्होंने अपने आध्यात्मिक विचारों से सम्पूर्ण विश्व को नए, रोशनी दिखाई और राष्ट्रवाद को मानवीय एकता के शाश्वत मूल्यों से जोड़कर मानवीय स्वतन्त्रता का उद्घोष कर साम्राज्यवाद, फासीवाद, सर्वाधिकवाद तथा तानाशाही को चुनौती दी।
प्रश्न 6.
वीर सावरकर के विचारों का समग्र मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर) न केवल प्रख्यात क्रान्तिकारी थे अपितु सामाजिक:
राजनीतिक विचारक एवं सामाजिक क्रान्तिकारी भी थे। वे प्रथम श्रेणी को राष्ट्रवादी थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से कभी भी क्षमायाचना नहीं की। विद्वान् एवं धनिक वर्ग के युवकों को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य वीर सावरकर ने ही किया।
इन्होंने विद्यार्थी काल में ही क्रान्तिकारी भावनाओं का प्रचार करने के लिए ‘अभिनव भारत’ नामक संगठन का निर्माण किया। इनकी अभिनव भारत संस्था ने लाला हरदयाल, श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदन लाल ढींगरा आदि के साथ इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी एवं रूंस में भारतीय स्वतन्त्रता की माँगों का प्रचार प्रसार किया।
इनके राष्ट्रत्व का विचार राजनीतिक दर्शन का केन्द्र:
बिन्दु है। इनके अनुसार भौतिक राष्ट्रवाद की भौगोलिक अभिव्यक्ति उसकी हिन्दू राष्ट्रवादी संस्कृति का प्रतिबिम्ब है। इन्होंने तत्कालीन समाज में हो रहे धर्मान्तरण को रोकने के लिए हिन्दुओं की एकता को सुदृढ़ करने के लिए जाति प्रथा जैसी विघटनकारी प्रवृत्ति के समापन पर बल दिया और अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन किया।
इनका त्याग और बलिदान आज के युवाओं के लिए एक मिसाल है। क्रान्तिकारी के रूप में यह एक अग्रणी नेता रहे लेकिन इनके राजनीतिक विचार हमेशा विवादों से घिरे रहे। इन्होंने विरोधियों को पराजित करने के लिए शिवाजी का अनुकरण करने की प्रेरणा दी तथा हिन्दू मुस्लिम एकता की आवश्यकता पर भी बल दिया।
प्रश्न 7.
सरदार बल्लभ भाई पटेल के स्वदेशी एवं संस्कृति के बारे में क्या विचार थे?
उत्तर:
बल्लभ भाई पटेल गाँधीवादी विचारधारा के अग्रदूत थे। वे भारत को शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। उनकी आँखों में राष्ट्र का गौरवमयी चित्र अंकित था तथा इसी कार्य में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। सरदार पटेल भारतीय संस्कृति के महान् पोषक एवं स्वदेशी वस्तुओं के पक्षधर थे। वे स्वयं भी सादा वेशभूषा पहनते थे। इनके घर का वातावरण भी सामान्य था।
उनका आग्रह था कि कोई भी व्यक्ति यदि वह बड़ा नेता हो, अधिकारी हो या सामान्य अथवा असामान्य जन हो, उसे स्वदेशी भाषा का प्रयोग करना चाहिए। यहाँ के कृषक सम्पन्न हों, दस्तकार समृद्ध हों तथा प्रत्येक व्यक्ति रोजगार से जुड़ा हो, इस देश में कोई भूखा ना हो, क्षेत्र के लिए आँसू न बहाए यहाँ का अनाज निर्यात नहीं किया जाए।
प्रश्न 8.
सरदार पटेल के अहिंसा सम्बन्धी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सरदार बल्लभ भाई पटेल महात्मा गाँधी के परम अनुयायी थे। इन्होंने गाँधीजी के शिष्य होने के नाते उनकी नीतियों का समर्थन किया। लेकिन अहिंसा के बारे में उनके विचार भिन्न थे। उनका मत था कि आपकी अच्छाई, आपके मार्ग में, बाधक नहीं बने। इसके लिए समय पर क्रोध दिखाए, अन्याय का दृढ़ता से मुकाबला कीजिए। अपने आपको शक्तिशाली बनाइये। शक्ति के अभाव में विश्वास किसी काम का नहीं है। विश्वास एवं शक्ति’ दोनों ही किसी बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं। शक्ति के लिए एकता आवश्यक है।
प्रश्न 9.
देशी रियासतों के एकीकरण में पटेल की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
देशी रियासतों के एकीकरण में सरदार बल्लभ भाई पटेल ने अविस्मणीय कार्य किया। उनकी राजनीतिक सूझबूझ, व्यवहार कुशलता तथा राजनयिक योग्यता से 562 छोटे-बड़े देशी नरेशों का भारत संघ में विलय सम्भव हो सका। देशी रियासतों का एकीकरण कर उन्होंने राष्ट्र की अखण्डता की रक्षा की। उनकी तुलना जर्मनी के लॉर्ड चान्सलर (प्रधानमन्त्री) बिस्मार्क से की जाती है। जो कार्य बिस्मार्क ने ‘लौह और रक्त’ की नीति से किया, बल्लभ भाई पटेल ने वह कार्य अपनी सूझबूझ तथा कूटनीति से किया। इस कारण उन्हें लौह पुरुष की संज्ञा दी जाती है।
प्रश्न 10.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों का समग्र मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का भारत के सामाजिक:
राजनीतिक जीवन में उदय, विकास एवं उत्कर्ष इस तथ्य का प्रमाण है कि निर्धनता तथा अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए व्यक्ति उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। डॉ. अम्बेडकर ने सुविधाहीन एवं दलित परिवार के होने के बावजूद अपनी योग्यता के बल पर विदेशों से उच्च शिक्षा प्राप्त की तथा दलित समाज को शिक्षा एवं संस्कार के माध्यम से सुदृढ़ बनाने का कार्य किया। तात्कालिक समय में इन समाजों की प्रचलित कुरीतियों को दूर करने के साथ कहा कि दुर्गुणों से दूर रहिए, बेटियों को पढ़ाइये-लिखाइये उनके मन में महत्वाकांक्षा पैदा होने दीजिए। मदिरापान तथा गोमांस सेवन आदि का त्याग करने का आह्वान किया।
शासन की संस्थाओं में दलित वर्गों के उचित तथा पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए उनके प्रयास सफल भी रहे। हमारे संविधान में आरक्षण सम्बन्धी उपबन्धों के पीछे श्री अम्बेडकर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। आजीवन तिरस्कार एवं अपमान की पीड़ा सहन कर उन्होंने अपने अन्दर की अग्नि को मशाल बनाकर रूढ़िवादी समाज एवं धर्म के ठेकेदारों से संघर्ष किया। वहीं दूसरी ओर उसके प्रकाश से सदियों से उपेक्षित अस्पृश्य तथा दलित समाज को सामाजिक न्याय की राह प्रशस्त की। संघर्ष तथा न्याय की यह मशाल आने वाली पीढ़ी के लिए एक मिसाल बन गई है। जो युगों-युगों तक अविस्मरणीय रहेगी।
प्रश्न 11.
डॉ. अम्बेडकर के राष्ट्रभाषा एवं भाषायी राज्य सम्बन्धी विचार लिखिए।
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे न केवल महान् बौद्धिक प्रतिमा के धनी थे, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक कर्मण्यवादी भी थे। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार भारत की एकता तथा अखण्डता के लिए हिन्दी भाषा का राष्ट्रीय भाषा होना अनिवार्य है। हिन्दी भाषा ही सम्पूर्ण देश को एकता के सूत्र में पिरोने में सक्षम है।
स्वयं मराठी भाषा होने तथा अंग्रेजी भाषा पर पूर्ण अधिकार होने के बावजूद उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं को सरकारी भाषा के रूप में मानने का विरोध किया है। इन्होंने भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का विरोध किया। इनका मानना था कि भाषा के आधार पर गठित राज्य भाषायी राष्ट्रवाद उत्पन्न कर सकते हैं। यह भी साम्प्रदायिकता का ही दूसरा रूप में। यदि हम लोग अपनी संस्कृति एवं देश से प्रेम करते हैं तो हम सबका कर्तव्य है, हिन्दी को अपने देश की एक राष्ट्रभाषा मानें।
प्रश्न 12.
संविधान के बारे में डॉ. अम्बेडकर के विचार लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्र भारत के संविधान में महत्वपूर्ण योगदान के कारण डॉ. भीमराव अम्बेडकर को आधुनिक भारत का मनु कहा जाता है। उनकी प्रखर प्रतिभा का चरम उत्कर्ष तथा उनकी सबसे स्मरणीय उपलब्धि हमारे देश के संविधान में प्रतिबिम्बित है तथा उसके लिए भारत सदैव उनका ऋणी एवं कृतज्ञ रहेगा। वे संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। संविधान सभा ने इन्हें 29 अगस्त, 1947 को संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए इनकी अध्यक्षता में 7 सदस्यों की प्रारूप समिति का गठन किया।
इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका डॉ. अम्बेडकर ने उठायी। इन्होंने इसके निर्माण के समय कहा कि यह संविधान व्यवहारिक तथा लचीला होने के साथ युद्धकाल एवं शान्तिकाल दोनों में ही देश एकता बनाए रखने में सक्षम है। यह पवित्र दस्तावेज है बहुमत के आधार पर जल्दबाजी में इसमें कोई संशोधन नहीं किए जाने चाहिए।
प्रश्न 13.
गाँधीजी के चिन्तन को प्रभावित करने वाले तत्व कौन-कौन से थे? बताइए।
उत्तर:
महात्मा गाँधी के चिन्तन को अनेक तत्वों ने प्रभावित किया। जिनमें परिवार प्रमुख है। गाँधीजी को नैतिकतापूर्ण जीवन की प्रेरणा तथा सर्वधर्म समभाव के संस्कार अपने परिवार से प्राप्त हुए। वे महाभारत के असत्य पर सत्य की विजय, गीता के निष्काम कर्मयोग, जैन व बौद्ध धर्म की सत्य तथा अहिंसा, ईसा के पर्वत प्रवचन, हजरत मोहम्मद के चरित्र की सादगी एवं इस्लाम के भाईचारे से अत्यधिक प्रभावित हुए।
गाँधीजी पाश्चात्य चिन्तक रस्किन, लियो टालस्टाय, सुकरात, हेनरी डेविड थोरो एवं भारत के समाज व धर्म सुधार आन्दोलनों एवं चिन्तकों, जैसे-स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित हुए। उन पर तत्कालीन राष्ट्रीय आन्दोलन के दो प्रमुख नेताओं गोखले तथा तिलक को स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। तिलक से उन्होंने जन-आन्दोलन का महत्व सीखा तो गोखले से उन्हें राजनीति के आध्यात्मीकरण की प्रेरणा प्राप्त हुई।
प्रश्न 14.
गाँधीजी की राज्य सम्बन्धी अवधारणा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गाँधीजी की राज्य सम्बन्धी अवधारणा:
गाँधीजी ने राज्य की प्रकृति पर सैद्धान्तिक व व्यवहारिक दोनों दृष्टिकोण से विचार किया है। सैद्धान्तिक दृष्टि से राज्य एक हिंसक व अनैतिक संस्था है तथा इसी आधार पर गाँधीजी नेराज्यविहीन समाज व्यवस्था का समर्थन किया है। गाँधीजी के अनुसार राज्य की उत्पत्ति हिंसा से हुई है तथा उसका अस्तित्व भी हिंसा पर आधारित है। यह व्यक्ति के नैतिक विकास का मार्ग भी अवरुद्ध करता है। व्यक्ति का नैतिक विकास उसकी आन्तरिक इच्छाओं एवं कामनाओं पर निर्भर है और राज्य दण्ड एवं भय के कानून की शक्ति से उसे सीमित करता है।
राज्य समाज में न्यायालय, जेल, पुलिस एवं सेना की सहायता से कार्य करता है। व्यवहारिक दृष्टि से समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना के लिए राज्य की उपस्थिति आवश्यक है परन्तु हिंसा पर आधारित होने के कारण इसे एक आवश्यक बुराई के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। गाँधीजी ने सत्ता के केन्द्रीकरण, सम्प्रभुता का विरोध एवं राज्य का न्यूनतम कार्यक्षेत्र के समर्थन के साथ शोषण रहित, समता युक्त एवं अहिंसक समाज के आधार पर रामराज्य की अवधारणा को प्रतिपादन किया।
प्रश्न 15.
गाँधीजी की सत्याग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गाँधीजी की सत्याग्रह की अवधारणा:
महात्मा गाँधीजी के अनुसार सत्याग्रह ही सामाजिक क्रान्ति का तरीका है। सत्य एवं आग्रह, दो शब्दों से मिलकर, सत्याग्रह शब्द बना है, जिसका अर्थ है-‘सत्य पर डटे रहेना’, सत्याग्रही कभी पराजित नहीं होता। सत्याग्रही विरोधी को नहीं, वरन् स्वयं को पीड़ा देकर, विरोधी के मन को परिवर्तित करने का प्रयास करता है। गाँधीजी के अनुसार, असहयोग, सविनय अवज्ञा, हिजरत तथा उपवास एवं अनशन सत्याग्रह के विभिन्न प्रकार हैं।
गाँधीजी ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान समय:
समय पर सत्याग्रह के इन प्रकारों का प्रयोग किया था। यदि अन्याय के विरोध के रूप हिंसा तथा आतंक को त्यागकर सत्याग्रह का प्रयोग किया जाये, तो सम्पूर्ण विश्व की समस्याएँ स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी। गाँधीजी के अनुसार, सत्याग्रही को विरोधी पक्ष के साथ संवाद स्थापित करके उसके दृष्टिकोण को समझकर सत्याग्रह करना चाहिए।
प्रश्न 16.
गाँधीजी के न्यासिता के सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गाँधीजी के न्यासिता का सिद्धान्त:
पूँजीवाद व साम्यवाद के दोषों से बचने के लिए महात्मा गाँधी ने न्यासिता (प्रन्यास या ट्रस्टीशिप) का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। गाँधीजी के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को मात्र उतनी ही सम्पत्ति रखनी चाहिए। जो उसकी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हो, शेष सम्पत्ति उसे अन्य व्यक्तियों के उपयोग के लिए छोड़ देनी चाहिए। इस प्रकार व्यक्ति को त्यागपूर्वक उपयोग करना चाहिए।
यदि किसी के पास अपनी आवश्यकता से अधिक धन है, तो वह व्यक्ति जनता की ओर से उस धन का ट्रस्टी है, स्वामी नहीं। पूँजीपतियों को अपनी सम्पत्ति को अपना न समझकर समाज की धरोहर समझे। वे स्वयं को इस सम्पत्ति का न्यासधारी समझें तथा इसको प्रयोग सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिए करें। यदि हम सिद्धान्त का पालन किया जाए, तो साम्यवादी हिंसा के बिना ही आर्थिक समानता के आदर्श को प्राप्त किया जा सकता है।
प्रश्न 17.
पं. नेहरू के राष्ट्रवाद के कोई तीन बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
पं. नेहरू के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार:
पं. जवाहर लाल नेहरू के राष्ट्रवाद सम्बन्धी प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं –
1. राष्ट्र के उदार एवं सन्तुलित स्वरूप का समर्थन:
राष्ट्रवाद देश के इतिहास को जीवन शक्ति व विकास का मार्ग प्रदान करती है लेकिन जब व्यक्ति अपने देश को विश्व के अन्य देशों से अलग समझता है तो उग्रता पनपने लगती है। यह अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से अनुचित है।
2. संकीर्ण राष्ट्रीयता एवं साम्राज्यवाद का विरोध:
संकीर्णता, राष्ट्र तथा अन्तर्राष्ट्रीयता दोनों के लिए बुराई है। साम्राज्यवादी राष्ट्र राजनैतिक एवं आर्थिक स्वार्थ के लिए किसी दूसरे राष्ट्र को हानि पहुँचाए तो यह जघन्य अपराध है।
3. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का समर्थन:
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता राष्ट्रवाद की अनिवार्य शर्त है। प्रत्येक देश की अपनी आन्तरिक एवं बाहरी नीतियों पर स्वयं का नियन्त्रण होना चाहिए।
प्रश्न 18.
अन्तर्राष्ट्रवाद पर पं. नेहरू के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पं. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रवाद का आधार भारत की गौरवशाली परम्परा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ है। राष्ट्रवाद एवं अन्तर्राष्ट्रवाद एक – दूसरे के पूरक व सहायक हैं। कोई राष्ट्र वास्तव में स्वावलम्बी नहीं है। सभी परस्पर निर्भर हैं। अन्तर्राष्ट्रवाद के लिए विश्व के सभी राष्ट्रों की स्वतन्त्रता प्राप्त होना आवश्यक है। पं. नेहरू ने भारत के प्रधानमन्त्री के रूप में व्यवहार में भी विश्व में शान्ति, सद्भाव, सहयोग तथा सह-अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस क्षेत्र में उनके योगदान को उनकी गुट-निरपेक्ष की नीति तथा पंचशील के सिद्धान्त के रूप में देखा जा सकता है।
नेहरूजी के अनुसार, विश्व के सभी देश स्वतन्त्र हों तथा उन्हें समान समझा जाए तथा एक-दूसरे का शोषण नहीं करें। उपनिवेशवाद का अन्त होना चाहिए। विश्व का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हो चुका है। उत्पादन अन्तर्राष्ट्रीय है। बाजार अन्तर्राष्ट्रीय है। कोई राष्ट्र आत्मनिर्भर नहीं है। सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। नेहरू ने विश्व शान्ति एवं निशस्त्रीकरण के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ का पूर्ण समर्थन किया। वे एशिया तथा अफ्रीकी देशों की स्वतन्त्रता के लिए प्रयास करते रहें।
प्रश्न 19.
पं. जवाहर लाल नेहरू के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
पं. जवाहर लाल नेहरू स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री थे। ये एक महान् राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने उदारवादी राष्ट्रवाद का समर्थन किया। उन्होंने देश को सन्तुलित, संयमशील एवं आदर्शवादी राष्ट्र मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार मातृभूमि के प्रति भावनात्मक सम्बन्ध ही राष्ट्रीयता है। नेहरू जी एक महान् मानवतावादी थे।
उनके राष्ट्रवाद, समाजवाद और अन्तर्राष्ट्रीय विचारों का आधार मानवतावाद ही है। नेहरू जी की लोकतन्त्र में अटूट आस्था थी। नेहरू के अन्तर्राष्ट्रवाद का आधार भारत की गौरवशाली परम्परा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ है। संविधान के निर्माण से लेकर भारत की तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुरूप पंचवर्षीय योजनाओं का प्रारूप उन्हीं की उपज थी।
उन्होंने शीतयुद्ध और विश्वयुद्ध के विरुद्ध शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व का मार्ग दिखाकर शान्तिरूप में कार्य किया। उन्होंने विश्व को गुट-निरपेक्षता का मार्ग दिखाया। आज यहाँ सम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं भाषावाद की संकीर्ण मानसिकता से भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व संकट में हैं। नेहरूजी की नीतियों से इसका समाधान सम्भव है। मानव कल्याण का मार्ग आज भी उनके द्वारा सुझाए गए मार्ग में समाहित है।
प्रश्न 20.
पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद का क्या अर्थ है?
उत्तर:
एकात्म मानववाद का आशय यह है कि व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षों को खण्डित दृष्टि से नहीं समझा जा सकता। ये सभी पक्ष विरोधी न होकर पूरक हैं। अतः व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व से परस्पर जुड़ी हुई एक ही श्रृंखला की कड़ियाँ हैं। भारतीय परम्परा मानव को एकात्म मानती है। अर्थात् न बाँटी जा सकने वाली इकाई मानव, व्यक्ति के रूप में समाज का अभिन्न अंग होता है। व्यक्ति परिवार की परिवार ग्राम या शहर का ग्राम एवं शहर देश का व देश दुनिया की इकाई है। व्यक्ति इस सामूहिकता का हिस्सा है।
वह स्वतन्त्र नहीं है। पं. दीनदयाल के एकात्मवाद के अनुसार मानव के लिए स्वतन्त्रता तथा समता दोनों की आवश्यक है। इन्हें परस्पर विरोधी न मानकर, इन्हें पूरक बनाना चाहिए। जहाँ दोनों विचारधारा ने प्रकृति पर विजय की कामना कर उसके अनियन्त्रित उपभोग कर, मानव सभ्यता पर संकट खड़े कर दिए हैं। वहीं इनके विचार सम्पूर्ण मानव जगत् के लिए कल्याणकारी सिद्ध होंगे।
RBSE Class 11 Political Science Chapter 22 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
स्वामी दयानन्द सरस्वती के राजनैतिक चिन्तन में योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती का राजनैतिक चिन्तन में योगदान:
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आधुनिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया। उन्होंने हिन्दू समाज को कुप्रथाओं तथा अन्धविश्वासों के बन्धन से मुक्त कराने तथा प्राचीन गौरव को स्थापित करने का कार्य किया। स्वामीजी ने अनेक पंथ एवं सम्प्रदायों में बँटे समाज को सुधार के मार्ग पर एकजुट करने के लिए ‘आर्य समाज’ की स्थापना की।
उन्होंने ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ का लेखन किया तथा ‘वेदों की ओर लौट चलो’ का सन्देश दिया। उन्होंने हीन ग्रन्थि से ग्रस्त भारतीय जनता को अतीत के गौरव के आधार पर आत्म – विश्वास युक्त बनाया। वे प्रारम्भ से ही साहसी, निर्भीक तथा महान् विचारक थे। एक राजनीतिक चिन्तक के रूप में इन्होंने विशिष्ट सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया बल्कि वेद प्रदत्त शास्त्र के रूप में ही इसकी व्याख्या की। स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रमुख राजनैतिक विचार निम्नलिखित हैं
(1) राज्य एक लोकहितकारी संस्था:
राज्य विकसित एवं लोकहितकारी संस्था है। मानव जीवन के चार पुरुषार्थ यथा- धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्त का साधन है। यहाँ धर्म, धर्मतन्त्र नहीं अपितु मानव के लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण से सम्बद्ध है।
(2) राज्य समुदायों का समुदाय:
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार, राज्य केवल सामाजिक संस्था नहीं अपितु राजनीतिक समुदाय, कला एवं विज्ञान सम्बन्धी समुदाय तथा धर्म एवं नैतिकता सम्बन्धी समुदाय आदि का सम्मिश्रण है। ऋग्वेद के अनुसार इन्हें क्रमशः राजार्थ सभा, विद्यार्थ सभा तथा धर्मार्थ सभा कहा गया है। इनके लिए प्रतिभाशाली, विद्वान् एवं पवित्र व्यक्ति अलग-अलग नियुक्त न होकर निर्वाचित होंगे। इस प्रकार यह गणतन्त्र तथा लोकतन्त्र का मिश्रित रूप होगा। राज्य के सभी कार्यों के लिए इन सभाओं का समर्थन अनिवार्य होगा।
(3) शासन के दैवीय स्वरूप का खण्डन:
स्वामी दयानन्द राजा के दैवीय अधिकारों के विरोधी थे। उन्होंने शासन की सभी शक्तियाँ किसी एक व्यक्ति को प्रदान करने का विरोध करते हुए, इसके संस्थागत स्वरूप का समर्थन किया है। उनके अनुसार ‘दण्ड’ राजशक्ति का प्रतीक है। प्रजा एवं धर्म की रक्षा करने की सामर्थ्य उसे दण्ड से प्राप्त होती है। जब दण्ड सविचार से धारण किया जाता है। तब वह जन-कल्याण करता है तथा जब बिना विचारे राज-कार्य किया जाता है। तो दुष्चरित्र राजा स्वयं दण्ड से मारा जाता है।
(4) गणतन्त्र की महत्ता:
स्वामी दयानन्द ने राजतन्त्र के स्थान पर गणतन्त्र की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास किया। राजा द्वारा त्रिसभाओं के सहयोग से शासन कार्य संचालन में अन्तिम शक्ति जनता को दी गयी। शासनतन्त्र वेद विरुद्ध आचरण करें तो जनता द्वारा उनकी अवहेलना धर्मसंगत है। इससे राजनीतिक क्रान्ति का बोध होता है। स्वामी दयानन्द के इन्हीं विचारों को महात्मा गाँधी द्वारा संचालित सविनय अवज्ञा आन्दोलन तथा असहयोग आन्दोलन का मार्गदर्शक माना जाती है।
(5) शासन के विकेन्द्रीकरण का समर्थन:
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शासन के विकेन्द्रीकरण का समर्थन किया। उन्होंने मनुस्मृति का समर्थन करते हुए कहा कि राजा एवं राज्य सभा अपने राजकार्य सिद्ध करने के लिए दो, तीन, पाँच एवं सौ ग्रामों के बीच एक राज्याधिकारी नियुक्त हो। कार्य संचालन के लिए एक गाँव का अधिकारी गोपनीय रूप से दस गाँवों के अधिकारी को, दस गाँवों का अधिकारी बीस गाँव के अधिकारी को, बीस गाँव का अधिकारी सौ गाँवों के अधिकारी को, वह हजार गाँव के अधिकारी को नित्य दोष, अपराध, संकट, उपद्रव आदि की सूचना देगा।
सूचना पद सोपान स्तर से उच्च स्तर तक पहुँचेगी। इनके सहयोग के लिए गुप्तचरों की व्यवस्था रहेगी। इनके कार्यों की भी जाँच होती रहेगी। इस प्रकार स्वामी दयानन्द गणतन्त्रीय शासन व्यवस्था के पक्षधर थे तथा कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के मध्य सामंजस्य के साथ न्यायाधीशों पर भी शासन के नियन्त्रण के पक्षधर थे।
(6) सुसंगठित सैन्यबल की आवश्यकता पर बल:
स्वामी जी के अनुसार देश की सुरक्षा एवं राष्ट्रीय सम्पदा की वृद्धि दोनों ही कार्यों को सर्वोच्च वरीयता दी गयी। इसके लिए सुनियोजित तथा संगठित थल सेना, जल सेना एवं वायु सेना के साथ समस्त नागरिकों को भी आवश्यक सैन्य शिक्षण देने का उल्लेख किया है।
(7) कूटनीति को समर्थन:
स्वामी जी के अनुसार, जहाँ नैतिकता तथा सत्य राजनीति एवं शासन व्यवस्था का मापदण्ड है। वहीं दुष्टों, आतताईयों अथवा विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा के लिए कूटनीति भी आवश्यक है। इनके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर दुश्मन की खाद्य सामग्री, जलाशय आदि को नष्ट करा देना चाहिए तथा दुश्मन को हमेशा के लिए समाप्त करना उचित रहेगा। संन्यासी होकर सभी राष्ट्र की रक्षा के लिए यथार्थवादी व्यवहार, इनकी राष्ट्रीय विचारधारा तथा देशभक्ति का ज्वलन्त उदाहरण है।
प्रश्न 2.
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय देते हुए इनका समग्र मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय:
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 ई. को गुजरात राज्य के कठियावाड़ की मोरनी रियासत के टंकारा नगर में एक शिव भक्त परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। एक दिन उन्होंने मन्दिर में एक चूहे को शिवलिंग पर बढ़कर प्रसाद खाते हुए देखा तो इनका मूर्तिपूजा में से विश्वास उठ गया। वहीं उनकी प्रिय बहन एवं चाचाजी की मृत्यु से उनके मन में बैराग्य उत्पन्न हो गया।
21 वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया और मथुरा में स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया। उनसे स्वामी दयानन्द ने वेदों की शिक्षा प्राप्त की और गुरु आदेश से रूढ़ियों, पाखण्ड एवं अन्धविश्वासों के उन्मूलन एवं वेदों के प्रचार-प्रसार के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया।
10 अप्रैल, 1875 को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। स्वामी जी का उद्देश्य हिन्दू समाज व धर्म की बुराइयों को दूर करना था। उनकी प्राचीन वैदिक सभ्यता, संस्कृति व धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा थी। इनके अन्तिम दिन राजस्थान में ही व्यतीत हुए। 30 अक्टूबर, 1883 को अजमेर में स्वामी दयानन्द सरस्वती का निधन हो गया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती का समग्र मूल्यांकन:
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आधुनिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया। स्वामी दयानन्द के समय सम्पूर्ण हिन्दू समाज बौद्धिक पतन की स्थिति में था। ब्रिटिश राज्य के शिकंजे में भारतीय सभ्यता पर ईसाई सभ्यता हावी हो रही थी तब उन्होंने अपनी वैदिक संस्कृति एवं वेदों की श्रेष्ठता को सिद्ध करते हुए आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र एवं स्वाधीन भारत का लक्ष्य लेकर शंखनाद किया।
इन्होंने सर्वप्रथम राष्ट्रवाद को स्वदेशी एवं भारतीय अभिमुखीकता प्रदान किया। स्वदेशी वस्तु व विचार ही व्यक्ति का धार्मिक कर्तव्य है एवं विदेशी राज्य कितना ही सुविधापूर्ण हो, लेकिन स्वराज्य का स्थान नहीं ले सकता। यह कहकर स्वामीजी ने युवकों में आत्मगौरव की भावना जागृत की।
इनके द्वारा स्थापित आर्य समाज धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आन्दोलन था। राष्ट्रीय भाषा में शिक्षण परम्परा, गुरुकुल शिक्षण प्रणाली, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन, समाज सुधार कार्यक्रम, दलितों का उद्धार, अस्पृश्यता निवारण, वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा निषेध आदि के रचनात्मक कार्यों से भारत में नए साहस का संचार हुआ।
वैदिक धर्म के समर्थक होने के नाते वे वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे किन्तु इसे वैज्ञानिक स्वरूप देते हुए इन्होंने इस व्यवस्था का आधार जन्म नहीं बल्कि कर्म का माना। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता दी जिससे कि सामाजिक गतिशीलता बनी रहे। स्वामी जी ने स्वदेशी, स्वधर्म, स्वराज्य एवं स्वभाषा के इन चार स्तम्भों पर उन्होंने जो चेतना जगाई वह आज भी प्रासंगिक है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने देशी रियासतों के नरेशों को भी प्रजा हित के साथ देश के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान कराया। उन्होंने जनहित पर आधारित ‘मर्यादित शासन’ का समर्थन किया, जिसे आज ‘संविधानवाद’ कहा जाता है। राजनीतिक संगठन के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों की व्यावहारिकता विवादास्पद हो सकती है, परन्तु उनके विचारों में न्याय की भावना, सत्य पर आधारित राजनीति एवं लोककल्याण के प्रति जो गहरा लगाव है, वह वर्तमान युग में उनके चिन्तने को भारत के लिए प्रासंगिकता तथा सार्थकता प्रदान करता है।
प्रश्न 3.
स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय देते हुए उनके राजनीतिक क्षेत्र में योगदान का विवरण दीजिए।
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द को जीवन परिचय:
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 ई. को कलकत्ता में विश्वनाथ दत्त के परिवार में हुआ। इनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। स्वामी जी पर अपनी माता भुवनेश्वरी देवी का विशेष प्रभाव था। भारतीय दर्शन के अध्ययन के साथ ही उन्होंने पश्चिमी विचारों को भी अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही अध्यात्म के प्रति उनमें बहुत रुचि थी। सन् 1881 में विवेकानन्द की दक्षिणेश्वर में उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस से भेंट हुई । जिन्होंने उनको ईश्वर की अनूभूति करायी तभी से स्वामी जी रामकृष्ण परमहंस के भक्त हो गए।
इन्होंने 1893 ई. में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया। इन्होंने अपने गुरु रामकृष्ण की शिक्षाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए कोलकाता में बेलूर के पास 1897 ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। स्वामीजी का मानव सेवा में महत्वपूर्ण स्थान है। वे रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, निर्धनता व अशिक्षा के कटु आलोचक थे। छुआछूत व वर्गभेद को नहीं मानते थे। जब कल्याण की भावना को उन्होंने प्रोत्साहित किया।
स्वामी विवेकानन्द का राजनीतिक चिन्तन में योगदान-स्वामी विवेकानन्द ने राजनीतिक आन्दोलन में कभी सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। वे संन्यासी थे तथा धर्म से जुड़े हुए थे। उन्होंने स्वयं कहा था, “मैं न राजनीतिज्ञ हूँ तथा ने राजनीतिक आन्दोलन करने वाले में से हूँ।” परन्तु भारतीयों को जिस शक्ति, निर्भयता तथा कर्म की प्रेरणा उन्होंने दी, वह अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय राष्ट्रवाद के लिए अमूल्य सिद्ध हुई । उनका राजनीतिक क्षेत्र में योगदान निम्नलिखित हैं –
(1) अन्तर्राष्ट्रवादी:
स्वामी विवेकानन्द अन्तर्राष्ट्रवादी थे। उन्होंने वेदान्त के इस विचार को प्रस्तुत किया कि सब मनुष्यों में समान आत्मा है। शिकागो धर्म सम्मेलन में, जहाँ अन्य प्रतिनिधि अपने-अपने धर्म के ईश्वर की चर्चा करते रहे. वहाँ केवल विवेकानन्द ने सबके ईश्वर की बात की। यद्यपि उन्हें भारत से असीम प्यार था, परन्तु दुनिया के अन्य किसी भी व्यक्ति एवं राष्ट्र से उन्हें घृणा नहीं थी। वे मानव मात्र के कल्याण के समर्थक तथा विश्व-बन्धुत्ववादी थे। इसीलिए उन्होंने कहा कि हमें पश्चिम से बहुत कुछ सीखना है। वे मानते थे कि जो व्यक्ति एवं समाज, दूसरों से कुछ नहीं सीखता, वह मृत्यु के मुँह में पहुँच जाता है।
(2) समाजवादी:
स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं को समाजवादी घोषित किया था उनके मन में गरीबों के प्रति अपार संवेदना थी। वे पूँजीवादी शोषण के विरोधी थे। वे शोषक निष्ठुर अमीरों का उपहास करते थे। भारत की निर्धनता एवं अशिक्षा को वे कलंक मानते थे तथा भूखे व्यक्ति को धर्म की शिक्षा देना अर्थहीन समझते थे। उन्हें जन साधारण की शक्ति में असीम विश्वास था। उन्होंने पूँजीपतियों को चेतावनी देते हुए कहा था, “जब जन-साधारण जाग जाएगा तो वह तुम्हारे द्वारा किए गए दमन को समझ जाएगा तथा उसके मुख की एक फैंक तुमको पूरा उड़ा देगी।”
(3) आदर्श राज्य सम्बन्धी मान्यता:
स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक शिष्य को पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने लिखा था कि पहले ब्राह्मणों का राज आता है, फिर, क्षत्रियों का और तब वैश्य राज आता है। अन्त में मजदूरों का राज आएगा। इससे लाभ होगा तथा भौतिक सुखों का समान वितरण स्वयं हो जाएगा। इस प्रकार आदर्श राज्य की कल्पना के माध्यम से उन्होंने पिछड़े वर्ग के उदय में विश्वास व्यक्त किया है।
वे कहते हैं, “यदि ऐसा राज्य स्थापित करना सम्भव हो जिसमें ब्राह्मण काल का ज्ञान, क्षत्रिय काल की सभ्यता, वैश्य-काल का प्रचार-भाव एवं शूद्र काल की समानता रखी जा सके तथा उनके दोषों का त्याग किया जा सके-तो वह आदर्श राज्य होगा।”
(4) स्वतन्त्रता विषयक सिद्धान्त:
स्वामी विवेकानन्द ने बताया कि सम्पूर्ण विश्व अपनी अनवरत गति से स्वतन्त्रता की खोज कर रहा है। उनमें शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वतन्त्रता के अतिरिक्त सामाजिक तथा आर्थिक स्वतन्त्रता भी होनी चाहिए। जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर सके। इस प्रकार उनकी मनुष्य बारे में स्वतन्त्रता विषयक अवधारणा पाश्चात्य विचारकों से भी अधिक व्यापक है।।
(5) व्यक्ति की गरिमा का विश्वास:
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार राष्ट्र का निर्माण व्यक्तियों से मिलकर होता है। स्वामी विश्वव्यापी मानवीय अवधारणा में विचार रखते थे तथा मानव को सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानते थे। जब तक व्यक्तित्व स्वस्थ, नैतिक तथा दयालु नहीं होगा जब तक राष्ट्र की समृद्धि की आशा करना व्यर्थ है। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का आधार नैतिकता है।
(6) राष्ट्रवाद का आध्यात्मिक सिद्धान्त:
प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में एक प्रधान तत्व होता है तथा सभी तत्व उसी । में समाहित होते हैं। भारत का प्रमुख तत्व धर्म है। उन्होंने राष्ट्रवाद के आध्यात्मिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। राष्ट्र की भावी महानता के निर्माण उसके अतीत की महत्ता की नींव पर किया जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय धर्म तथा संस्कृति की शिक्षा देकर, देश में नैतिक एकता एवं भ्रातृत्व का संचार किया। विपिनचन्द्र पाल, बाल गंगाधर तिलक एवं अरविन्द घोष ने इन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर अभिनव राष्ट्रवाद का मार्ग प्रशस्त किया था।
(7) सभी के उत्थान से ही राजनैतिक मुक्ति सम्भव:
स्वामी विवेकानन्द का मत था कि समाज में सभी की देशा सुधारे बिनी राजनीतिक मुक्ति सम्भव नहीं है। इनका वेदान्त पर आधारित शक्ति एवं निर्भीकता का सिद्धान्त राजनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है। बिना शक्ति के हम न तो अधिकारों की रक्षा में समर्थ हैं और न ही व्यक्तिगत अस्तित्व को सभापति रख सकते हैं।
प्रश्न 4.
महर्षि अरविन्द घोष का जीवन परिचय देते हुए उनकी राष्ट्रवाद की संकल्पना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
महर्षि अरविन्द घोष का जीवन परिचय:
महर्षि अरविन्द उग्र राष्ट्रवाद के प्रणेता थे। इनका जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इन्होंने ब्रिटेन में उच्च शिक्षा प्राप्त की तत्पश्चात् 1893 ई. में भारत वापस आए तथा बड़ौदा राज्य में नौकरी की। बाद में इन्होंने एक महाविद्यालय में शिक्षक के पद पर भी कार्य किया। 1905 ई. से 1910 ई. तक महर्षि अरविन्द ने सक्रिय राजनीति में भाग लिया। इस बीच उन्हें एक वर्ष का कारावास भी झेला।
जेल में रहते हुए उनका आध्यात्म की ओर झुकाव हुआ। जेल में छूटने के पश्चात् महर्षि अरविन्द पांडिचेरी चले गए, जहाँ इन्होंने राजनीति का तो परित्याग कर दिया। लेकिन इनके राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार अपरिवर्तनीय रहे। महर्षि अरविन्द के चिन्तन पर भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थों के आध्यात्मिक विश्वासों का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने आध्यात्म पर आधारित राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार राष्ट्रीय एवं राजनैतिक संघर्ष का मुख्य उद्देश्य पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्ति है।
भारत के प्राचीन धर्मग्रन्थ यथा वेद, उपनिषद् एवं गीता आदि में आधात्मिकता का स्रोत विद्यमान है। इसलिए भारत ही वास्तविक सजीव एवं आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न होने के कारण सम्पूर्ण मानव जाति का आध्यात्मिक नेतृत्व करने में सक्षम है। 9 दिसम्बर, 1950 को महर्षि अरविन्द घोष की मृत्य हो गयी।
महर्षि अरविन्द घोष की राष्ट्रवाद की संकल्पना:
अरविन्द घोष का भारतीय राष्ट्रवाद में महत्वपूर्ण एवं उच्च स्थान है। अरविन्द घोष प्रारम्भ में उग्र राष्ट्रवाद के समर्थक थे लेकिन बाद में पांडिचेरी चले जाने के पश्चात् उनका राष्ट्रवाद पूर्णत: आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिस्थापित हो गया। जब भारत में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के नेता औपनिवेशिक स्वराज्य के लिए याचिका एवं प्रार्थना-पत्र भेजते थे वहीं अरविन्द ने पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति के लिए निष्क्रिय या शान्तिपूर्ण प्रतिरोध के रूप में राजनीतिक कार्यवाही की योजना बनायी। वन्दे मातरम् नामक पत्र के सम्पादकीय लेखों में इस नीति की विस्तृत व्याख्या की गयी। आगे चलकर महात्मा गाँधी ने इस नीति को सत्याग्रह के सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया।
महर्षि अरविन्द ने स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा और अपरिहार्य परिस्थितियों में हिंसा को भी समर्थन किया। उनके अनुसार राष्ट्र स्वतन्त्रता के लिए किया गया संघर्ष गीता के क्षत्रिय धर्म के समान पवित्र है। राष्ट्रीय शत्रुओं का संहार धर्मयुद्ध है। इसके लिए सशस्त्र विद्रोह तथा असहयोग सर्वाधिक उपयुक्त नीति है।
महर्षि अरविन्द घोष ने अपने भाषणों में कहा कि राष्ट्रवाद केवल आन्दोलनों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह मनुष्य की आस्था वे धर्म है। यह एक ऐसा धर्म है जो ईश्वर की देन है। राष्ट्रवाद तुम्हारी आत्मा का संबल है। यदि तुम राष्ट्रवाद के समर्थक हो तो धार्मिक आस्था के साथ राष्ट्र की आराधना भी करनी होगी। तुम ईश्वर की योजना के अंशमात्र हो।
भारत केवल भौगोलिक सत्ता या भू – भाग नहीं है, यह बौद्धिक संकल्पना भी नहीं है। भारतमाता स्वयं साक्षात भगवती है, जो सदियों से बड़े प्यार दुलार से अपनी सन्तान का पालन पोषण करती आयी है। लेकिन आज वह विदेशी शासन से पदाक्रांत होकर कराह रही है। उसका स्वाभिमान चूर-चूर हो गया, उसका गौरव धूल-धूसरित हो गया। भारतमाता के पैरों में पड़ी बेड़ियों को काटना अर्थात् विदेशी शासन से मुक्तं कराना प्रत्येक सन्तान का परम कर्तव्य है।”
महर्षि अरविन्द ने कहा कि विदेशी संस्कृति भोगवादी है, वहीं हमारी भारतीय संस्कृति आध्यात्मवादी है। कोई भी देश परतन्त्रता में रहकर अपने विलक्षण व्यक्तित्व एवं स्वतन्त्र अस्तित्व को स्थापित नहीं रख सकता। एक अधीन राष्ट्र स्वतन्त्रता के द्वारा ही उन्नति के द्वार खोल सकता है तथा इसके लिए बलिदान की आवश्यकता है। भारत अपने पराक्रम एवं शक्ति के द्वारा ही विदेशी शासन का विरोध कर सकता है। राष्ट्रवाद मानवीय प्रगति का एक सोपान है। उसका लाभ मानवीय एकता पर आधारित विश्व संघ की स्थापना करना है।
राष्ट्रवाद का धर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है लेकिन यह केवल हिन्दू राष्ट्रवाद नहीं बल्कि समस्त धर्मों का सामूहिक स्वरूप है। भारतीय राष्ट्रवाद की उन्नति में हिन्दू एवं इस्लाम धर्म दोनों का ही सक्रिय सहयोग आवश्यक है। इस प्रकार महर्षि अरविन्द ने भारतीय राष्ट्रवाद की व्यापक अवधारणा देकर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के गौरव को महिमामंडित किया। उन्होंने राष्ट्र को एक भू-भाग न मानकर राष्ट्रदेव का स्वरूप दिया जो स्वतन्त्रता के पश्चात् भी मानव में निरन्तर, अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान का भाव उत्पन्न करता रहे।
महर्षि अरविन्द के कार्यों, विचारों एवं लेखों के द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय लोगों में उदासीनता एवं हीन भावना को दूर किया तथा नए उत्साह का संचार किया। उन्होंने अपने आध्यात्मिक विचारों से सम्पूर्ण संसार को एक नवीन रोशनी दिखाई तथा राष्ट्रवाद को मानवीय एकता के शाश्वत मूल्यों से जोड़कर मानवीय स्वतन्त्रता का उद्घोष कर फासीवाद, साम्राज्यवाद, सर्वाधिकारवाद तथा तानाशाही को चुनौती प्रदान की।
प्रश्न 5.
सरदार बल्लभ भाई पटेल का जीवन परिचय देते हुए उनके विचारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सरदार बल्लभ भाई पटेल का जीवन परिचय:
सरदार बल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के करमचन्द गाँव में हुआ था। इनके पिता ने 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया था। इन्होंने कानून की पढ़ाई इंग्लैण्ड से पूर्ण की। इन्होंने सन् 1928 में बारदोली (गुजरात) सत्याग्रह का कुशल नेतृत्व कर किसानों के मध्य अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। पटेल द्वारा बारदोली सत्याग्रह के सफल नेतृत्व ने गुजराती राजनीति पर एकछत्र प्रभाव स्थापित किया तथा महात्मा गाँधी ने आन्दोलन को कुशल नेतृत्व प्रदान करने के लिए उन्हें सरदार की उपाधि प्रदान की। वर्ष 1931 में वे अखिल भारतीय काँग्रेस के अध्यक्ष बने।
इस अधिवेशन में मौलिक अधिकार विषयक प्रस्ताव पारित हुआ। भारत के संवैधानिक विकास क्रम में यह प्रस्ताव अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। 1941 ई. के व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में एवं सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय बल्लभ भाई पटेल जेल गए। स्वतन्त्रता के पश्चात् देश के उप-प्रधान मन्त्री एवं गृहमन्त्री बनाए गए। इन्होंने अपनी राजनीतिक सूझबूझ, व्यवहार कुशलता एवं राजनयिक योग्यता से 562 रियासतों का भारत में विलय किया और राष्ट्र की अखण्डता की रक्षा की।
भारत के संविधान और संवैधानिक परम्पराओं में भी पटेल का योगदान है। वे संविधान सभा में प्रान्तीय संविधान समिति के साथ-साथ मौलिक अधिकारों एवं अल्पसंख्यकों सम्बन्धी परामर्श समिति के अध्यक्ष रहे। सरदार पटेल राष्ट्रभक्त, स्वतन्त्रता संग्राम के अमर सेनानी, दृढ़ प्रतिज्ञ, दूरदर्शी और बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। 15 दिसम्बर, 1950 को इनका निधन हो गया।
सरदार बल्लभ भाई पटेल के विचार:
सरदार बल्लभ भाई पटेल के विचार निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत प्रस्तुत हैं –
1. राष्ट्र के प्रति भावनात्मकता:
सरदार बल्लभभाई पटेल का राष्ट्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं आत्मीयता का भाव था। सरदार पटेल का मत था कि प्रत्येक नागरिक यह अनुभव करे कि उसका देश स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा करना उसका परम कर्तव्य है। उसे जाति-पाँति में न फंसकर केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि वह भारतीय है।
2. अहिंसा के बारे में विचार:
सरदार पटेल गाँधीजी के अनुयायी थे। उन्होंने सदैव गाँधीजी की नीतियों का समर्थन किया लेकिन अहिंसा के बारे में उनके विचार अलग थे। उनका मत था कि आपकी अच्छाई, आपके मार्ग में बाधक नहीं बने। इसके लिए समय पर क्रोध दिखाइए, अन्याय को दृढ़ता से मुकाबला कीजिए। अपने आपको शक्तिशाली बनाइए। शक्ति के अभाव में विश्वास किसी काम का नहीं है। विश्वास और शक्ति दोनों ही किसी बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। शक्ति के लिए एकता आवश्यक है।
3. स्वदेशी एवं संस्कृति के बारे में विचार:
सरदार बल्लभ भाई पटेल स्वदेशी वस्तुओं के पक्षधर एवं भारतीय संस्कृति के महान् पोषक थे। वे स्वयं साधारण कपड़े पहनते थे। उनके घर का वातावरण भी साधारण था। उनका मत था कि कोई भी व्यक्ति यदि वह बड़ा नेता हो, अधिकारी हो अथवा सामान्य या असामान्य जन हो, उसे स्वेदशी भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए।
4. जीवन शैली के बारे में विचार:
सरदार बल्लभ भाई पटेल बहुत सहज व सरल थे। उनका मत था कि कर्म पूजा है। हम सुख-दु:ख का समानता से स्वागत करें । वही सबसे अच्छा जीवन है, जो अपने अन्दर के बालपन को जगाए रखे। हास्य मनोविनोद भी जीवन में आवश्यक है। हमें मुस्कराते रहना चाहिए। ईश्वर एवं सत्य में विश्वास रखकर प्रसन्न रहना चाहिए।
5. विश्व की प्रमुख विचारधारा:
गाँधी जी द्वारा समय काल, परिस्थिति के अनुसार विभिन्न मुद्दों पर दिए गए विचारों को गाँधीवाद का नाम दिया गया। वर्तमान विश्व के कई देशों में उनकी विचारधारा पर शोध केन्द्र बने हुए हैं।
6. साधन और साध्य सम्बन्धी विचार:
गाँधीजी ने साधन और साध्य दोनों ही पवित्रता पर बल दिया और कहा कि अनुचित साधनों से प्राप्त किया गया लक्ष्य (साध्य) कभी भी पवित्र नहीं हो सकता। इसलिए गाँधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह जैसे पवित्र साधनों से ही स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया।
7. आदर्श समाज के निर्माण की कल्पना:
गाँधीजी के अनुसार, आदर्श समाज के निर्माण की कल्पना का आधार मैत्री, प्रेम, सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं विश्वबन्धुत्व आदि है।
8. दलितोद्धारक;
गाँधीजी ने समस्त प्रकार के ऊँच-नीच, भेदभाव, तथा छुआछूत का घोर विरोध किया तथा दलितों के उद्धार के लिए कार्य किया। उन्होंने हिन्दू दलित वर्ग को शेष हिन्दू समाज से अलग करने की अंग्रेजों की चाल का विरोध किया और उसके विरोध में आमरण अनशन किया।
9. मानवता के पक्षधर:
गाँधीजी के सत्य, अहिंसा एवं धर्म की नवीन मीमांसा करने के कारण मानवतावादी चिंतक के रूप में पहचाना जाता है।
10. जननायक के रूप में:
गाँधीजी देश को स्वतन्त्रता दिलाने में आम भारतीयों को साथ लेकर चले और विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से लक्ष्य को प्राप्त किया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि महात्मा गाँधी के विचार आज के परिप्रेक्ष्य में भी उपयोगी हैं। गाँधी जी आधुनिक भारत के जननायक राष्ट्रीय आन्दोलन के महान् नेता, समाज सुधारक, राजनीतिक चिंतक, लेखक एवं पत्रकार थे। वस्तुतः गाँधीजी केवल राजनीतिक विचारक ही नहीं थे वरन् सच्चे कर्मयोगी थे।
प्रश्न 7.
गाँधीजी के विचारों की वर्तमान में प्रासंगिकता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गाँधीजी के विचारों की वर्तमान में प्रासंगिकता:
गाँधीजी ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व करके देश में अभूतपूर्व राजनीतिक चेतना उत्पन्न की। संसार की पीड़ित मानवता को विरोध करने के लिए अहिंसा का एक महत्वपूर्ण अस्त्र प्रदान किया। युद्ध और आतंक की आग से झुलसते विश्व की समस्या के निराकरण के लिए उनके द्वारा सुझाया गया शान्ति का मार्ग अनुकरणीय है।
गाँधीजी एक ऐसे चिंतक हैं जिन्होंने विश्व के सम्मुख माक्र्सवाद और पूँजीवाद का विकल्प प्रस्तुत किया है। उनके अहिंसक राजनीतिक विचारों ने आतंकवाद और हिंसा से पीड़ित विश्व को मार्ग दिखाया। गाँधी जी का दर्शन राजनीतिक चिन्तन का एक विलक्षण प्रयोग है। आध्यात्मिक प्रेरणाओं और सांसारिक तत्वों के विलक्षण समन्वय के द्वारा गाँधी ने राजनीतिक दर्शन को एक नवीन आयाम प्रदान किया है।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों पर गाँधीजी के विचारों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। सामाजिक समानता, अस्पृश्यता का अन्त, धार्मिक अधिकार, मद्य निषेध, सत्ता का विकेन्द्रीकरण आदि गाँधीजी के विचारों से प्रभावित है। हमारे देश में बढ़ती हुई साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों को प्रभावहीन करने में गाँधीजी की धर्म की उदार व्याख्या और सर्वधर्म सद्भाव की अवधारणा उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
महात्मा गाँधी के सिद्धान्त आज के परिप्रेक्ष्य में न केवल प्रासंगिक हैं बल्कि वर्तमान समय की आवश्यकता भी है। हमारे प्रधानमन्त्री की पहल पर सम्पूर्ण देश में संचालित हो रहा स्वच्छता अभियान उन्हीं के विचारों का अनुकरण है। अब आम व्यक्ति में भी स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ी है। इससे न केवल जीवन स्तर में सुधार आया है बल्कि स्वास्थ्य में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। आज सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद की समस्या से पीड़ित है। उसका मूल कारण व्यक्तियों या समूहों को अपनी माँगें मनवाने के लिए अनैतिक और हिंसा का सहारा लेना है।
यदि वे लोग मानवता तरीके से अहिंसा का मार्ग अपनाए और गाँधी जी के सत्याग्रह का अनुकरण करे, तो न केवल उनकी माँगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार होगा बल्कि सम्पूर्ण विश्व में शान्ति व भाईचारा स्थापित होगा। आज का नवयुवक बिना मेहनत के उच्च जीवन व्यतीत करना चाहता है। यदि गाँधी जी के कुटीर उद्योग की नीति के अनुरूप आजीविका के लिए अपने केवल सरकारी या अन्य नौकरियों के पीछे न भागकर अपने ग्राम या शहर में तकनीकी ज्ञान का उपयोग कर स्वरोजगार के माध्यम से नए उद्योग-धन्धे आदि का संचालन करे, तो देश में कोई बेरोजगार न रहेगा।
वही उसके माध्यम से अन्य लोगों को भी रोजगार प्राप्त होगा और वह अपने गाँव के विकास का माध्यम भी बनेगा। जिसमें उसमें आत्मविश्वास और आत्म गौरव का भाव विकसित होगी। आधुनिक मानव सभ्यता के नकारात्मक पहलू-उपभोक्तावादी जीवन, आर्थिक शोषण, शस्त्रीकरण, आतंकवाद, धार्मिक कट्टरता, युद्ध आदि का समाधान हमें गाँधीजी के विचारों में दिखाई देता है। उनके विचार सार्वभौम मानव मूल्यों पर आधारित हैं जिनमें वैचारिक क्रान्ति का सन्देश है।
प्रश्न 8.
पं. जवाहरलाल नेहरू के राष्ट्रवाद का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पं. जवाहरलाल नेहरू का राष्ट्रवाद:
पं. जवाहरलाल नेहरू एक महान् राजनीतिज्ञ थे। इन्हें आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है। यह 17 वर्ष तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे और उन्होंने भारत की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को शक्तिशाली बनाया। यह उदारवादी राष्ट्रवाद के समर्थक थे। उन्होंने देश को सन्तुलित, संयमशील और आदर्शवादी राष्ट्र मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके अनुसार मातृभूमि के प्रति भावनात्मक सम्बन्ध ही राष्ट्रीयता है। पं. नेहरू के राष्ट्रवाद को निम्न प्रकार समझा जा सकता है।
1. राष्ट्र के उदार और सन्तुलित स्वरूप का समर्थन:
नेहरू जी के अनुसार राष्ट्रवाद देश के इतिहास को जीवन शक्ति एवं विकास का मार्ग प्रदान करता है। लेकिन जब व्यक्ति अपने देश को विश्व के अन्य देशों से अलग समझने लगता है तो उग्रता पनपने लगती है। यह अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से अनुचित है।
2. राष्ट्रवाद के भावनात्मक पक्ष का समर्थन:
नेहरू जी ने राष्ट्रवाद के भावनात्मक पक्ष को समर्थन किया। उनके अनुसार राष्ट्रवाद भूतकाल की उपलब्धियों, परम्पराओं और अनुभवों की सामूहिक स्मृति है। राष्ट्रवाद जितना आज शक्तिशाली है, उतना पूर्व में कभी नहीं रहा। जब भी देश पर कोई संकट आया राष्ट्रवादी भावनाएँ उतनी ही प्रबल हुईं। लोगों ने अपनी परम्पराओं से शक्ति और संकल्प प्राप्त करने का प्रयत्न किया है।
3. राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का सर्मथन:
नेहरू जी के अनुसार, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता राष्ट्रवाद की एक आवश्यक शर्त है। प्रत्येक देश की अपनी आन्तरिक तथा बाहरी नीतियों पर स्वयं का नियन्त्रण होना चाहिए।
4. संकीर्ण राष्ट्रीयता एवं साम्राज्यवाद का विरोध:
नेहरू जी ने संकीर्ण राष्ट्रीयता एवं साम्राज्यवाद का घोर विरोध किया। उनके अनुसार संकीर्णता, राष्ट्रीयता एवं अन्तर्राष्ट्रीयता होने के लिए बुराई है। साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने आर्थिक या राजनीतिक स्वार्थ के लिए किसी अन्य राष्ट्र को हानि पहुँचाता है तो यह एक घृणित अपराध होगा।
5. भूत, वर्तमान एवं भविष्य के प्रति समन्वय:
नेहरू जी ने कहा कि हम भूतकाल की बुराइयों का त्याग करें, अच्छाइयों पर गर्व कर, सुनहरे भविष्य के निर्माण के लिए वर्तमान में इसे प्रेरक शक्ति के रूप में ग्रहण करें तथा समर्थ ज्ञान बनकर भविष्य की सम्भावनाओं के साथ समन्वय करें।
6. लोकशक्ति पर आधारित राष्ट्रवाद:
नेहरू जी का मत था कि हमारे देश की घटती, पहाड़, जंगल, नदी आदि हम लोगों के लिए प्रिय हो सकती है लेकिन जिस तत्व की पहचान होनी चाहिए, वे हैं यहाँ के करोड़ों लोग।
भारतमाता की जय का आशय है लोगों की जय तुम ही भारतमाता का अंश हो एक तरह से “तुम सबका संगठित स्वरूप ही भारतमाता है।
7. धर्म निरपेक्ष राष्ट्रवाद:
नेहरू जी धर्म निरपेक्ष राष्ट्रवाद में विश्वास करते थे। वे स्वामी दयानन्द सरस्वती, महर्षि अरविन्द, बाल गंगाधर तिलक आदि के धार्मिक राष्ट्रवाद से असहमत थे। नेहरू जी पक्के धर्म निरपेक्षवादी थे। उन्हें किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता स्वीकार्य नहीं थी। उनका राष्ट्रवाद सही अर्थों में रचनात्मक राष्ट्रवाद था।