RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 22 मानव का पाचन तंत्र
RBSE Solutions for Class 12 Biology Chapter 22 मानव का पाचन तंत्र
Rajasthan Board RBSE Class 12 Biology Chapter 22 मानव का पाचन तंत्र
RBSE Class 12 Biology Chapter 22 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 12 Biology Chapter 22 बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
रेनिन का स्राव कहाँ से होता है –
(अ) यकृत
(ब) वृहद्रान्त्र
(स) आमाशय
(द) मलाशय
उत्तर:
(स) आमाशय
प्रश्न 2.
अग्न्याशयी रस होता है –
(अ) अम्लीय
(ब) क्षारीय
(स) उदासीन
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(ब) क्षारीय
प्रश्न 3.
कुप्फर कोशिकाएँ मिलती हैं –
(अ) अग्न्याशय में
(ब) छोटी आँत में
(स) बड़ी आँत में
(द) यकृत में।
उत्तर:
(ब) छोटी आँत में
प्रश्न 4.
एमाइलेस विकर किस पर कार्य करता है –
(अ) प्रोटीन
(ब) कार्बोहाइड्रेट
(स) वसा अम्ल
(द) वसा
उत्तर:
(ब) कार्बोहाइड्रेट
प्रश्न 5.
निष्क्रिय पेप्सिनोजन सक्रिय पेप्सिन में बदल जाता है –
(अ) टाइलिन से
(ब) HCI से
(ब) पित्त रस से
(द) रेनिन से
उत्तर:
(ब) HCI से
प्रश्न 6.
मनुष्य में कितनी लार ग्रन्थियाँ मिलती हैं –
(अ) 5 जोड़ी
(ब) 2 जोड़ी
(स) 4 जोड़ी
(द) 3 जोड़ी
उत्तर:
(द) 3 जोड़ी
प्रश्न 7.
यकृत कोशिकाएँ बनाती हैं –
(अ) पित्त
(ब) ट्रिप्सिन
(स) एमाईलोप्सिन
(द) लाइपेज
उत्तर:
(अ) पित्त
प्रश्न 8.
लैंगरहैंस की द्वीपिकाएँ कहाँ मिलती हैं –
(अ) अग्नाशय में
(ब) छोटी आँत में
(स) बड़ी आँत में
(द) यकृत में
उत्तर:
(अ) अग्नाशय में
प्रश्न 9.
लाल रुधिर कणिकाओं के परिपक्वन को प्रेरित करने वाला विटामिन है –
(अ) D
(ब) A
(स) B
(द) B12
उत्तर:
(द) B12
प्रश्न 10.
आहारनाल का वह भाग जिसमें रसांकुर पाये जाते हैं –
(अ) आमाशय
(ब) आत्र
(स) ग्रसिका
(द) मलाशय
उत्तर:
(ब) आत्र
RBSE Class 12 Biology Chapter 22 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कुप्फर कोशिकाएँ कहाँ पाई जाती हैं ?
उत्तर:
कुफ्फर कोशिकाएँ यकृत की भित्ति में पायी जाती हैं।
प्रश्न 2.
विटामिन K का क्या कार्य होता है ?
उत्तर:
रुधिर का थक्का बनने में सहायता करता है।
प्रश्न 3.
ग्लाइकोजन का संश्लेषण एवं संग्रहण किस अंग में होता है ?
उत्तर:
यकृत (Liver) में।
प्रश्न 4.
विटामिन D की कमी से शरीर में कौन-से खनिज की कमी हो जाती है ?
उत्तर:
कैल्शियम की कमी हो जाती है।
प्रश्न 5.
प्रोटीन ऊर्जा आहारीय अपूर्णता के कारण होने वाले रोग का नाम लिखिए।
उत्तर:
क्वाशियोरकर तथा मेरास्मस।
प्रश्न 6.
पाचित वसा का अवशोषण कहाँ होता है ?
उत्तर:
पाचित वसा का अवशोषण लसिका में विसरण द्वारा होता है।
प्रश्न 7.
मानव द्वारा संश्लेषित किये जा सकने वाले विटामिन कौन-से हैं?
उत्तर:
विटामिन A तथा K
प्रश्न 8.
मानव का दन्तसूत्र लिखिए।
प्रश्न 9.
बोलस किसे कहते हैं ?
उत्तर:
मुख गुहिका में लार मिश्रित भोजन अर्द्धठोस रूप ले लेता है जिसे वोलस या निवाला कहते हैं।
प्रश्न 10.
ब्रूनर ग्रन्थियाँ किसे कहते हैं ?
उत्तर:
ग्रहणी भाग में श्लेष्मा का स्राव करने के लिए अतिरिक्त छोटी कुण्डलित श्लेष्मा ग्रन्थियाँ ग्रहणी अध:श्लेष्मा में पायी जाती हैं। इन्हें ब्रूनर ग्रन्थियाँ (Brunner’s gland) कहते हैं।
प्रश्न 11.
पेयर के समूह से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
छोटी आँत के श्लेष्मिका स्तर में एकल या समूहों में लसिका ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। जिन्हें पेयर के समूह (Peyer’s patches) कहते हैं।
प्रश्न 12.
ओडाई का अवरोधिनी किसे कहते हैं?
उत्तर:
अग्नाशय वाहिनी तथा सामान्य यकृत वाहिनी के रन्ध्र पर पायी जाने वाली अवरोधिनी ओड़ाई की अवरोधिनी (Sphincter ofoddi) कहलाती
RBSE Class 12 Biology Chapter 22 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
यकृत के कार्य लिखिए।
उत्तर:
कृपया अनुच्छेद पाचक ग्रन्थियाँ (Digestive Glands):
मानव में आहारनाल से सम्बन्धित तीन पाचक ग्रन्थियाँ पायी जाती है।
- लार ग्रन्थियाँ (Salivary Glands)
- यकृत (Liver)
- अग्नाशय (Pancreas)
1. लार ग्रन्थियाँ (Salivary Glands)- मनुष्य में तीन जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। इन्हें अधोजिह्वा (Sublingual), अधोजंभ (Submaxillary) एवं कर्णमूल (Saliva) कहते हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा स्रावित लार मुख गुहिका में आती है। लार क्षारीय तरल (Alkaline fluid) होती है। इसमें जल, टायलिन, g-एमाइलेज, लाइसोजाइम, श्लेष्मा, सोडियम क्लोराइड, पोटैशियम बाइकार्बोनेट के आयन उपस्थित होते हैं। टायलिन कार्बोहाइड्रेट पाचक एन्जाइम है तथा लासोजाइम जीवाणुओं को नष्ट करने का कार्य करता है।
2. यकृत (Liver)-यह मनुष्य के शरीर की सबसे बड़ी पाचक ग्रन्थि है जिसका निर्माण भ्रूण की एण्डोडर्म (Endroderm) से होता है। स्वस्थ व्यक्ति में यकृत का द्रव्यमान 1.2 से 1.5 kg होता है। इसकी चौड़ाई लगभग 15 से 22 cm होती है। यकृत तनुपट (Diophragm) के नीचे दांय ओर पाया जाता है। यकृत में दो प्रमुख पालियाँ होती हैं-दांय पालि तथा बांय पालि। दांय पालि बांय पालि से बड़ी होती है। इसके अतिरिक्त इसमें दो पालियाँ और पायी जाती हैं जिन्हें क्वाड्रेट तथा कॉडेट पालियाँ (Quadrate and Caudatlobes) कहते हैं। दांय पालि की निचली सतह पर एक पतली दीवार का थैलेनुमा हरे रंग का पित्ताशय (Gall Bladder) पाया जाता है। पित्ताशय में यकृत कोशिकाओं द्वारा स्रावित पित्त (Bile) संचित रहता है। पित्त पीले, हरे रंग का होता है। इसमें पित्तवर्णक (Bile pigments) तथा पित्तलवण (Bile salts) पाए जाते हैं। पित्तरस की प्रकृति क्षारीय (Alkaline) होती है। दोनों यकृत पालियों से निकली यकृत वाहिनियाँ मिलकर सामान्य यकृत वाहिनी (Common hepatic duct) बनाती हैं।
सामान्य यकृत वाहिनी (Common hepatic duct) तथा पित्ताशय की वाहिनी (Cystic duct) का निर्माण होता है। इसे डक्टस कोलोडोकस (Ductus Colodochus) भी कहते हैं। यह पित्त रस को ग्रहणी में पहुँचाती है। सामान्य पित्तवाहिनी मनुष्य की ग्रहणी की समीपस्थ भुजा में खुलती है। इसके खुलने के स्थान पर एक कपाट पाया जाता है जिसे ओडाई की अवरोधिनी (Sphincter of oddi) कहते हैं। ओड़ाई की अवरोधिनी इस छिद्र को नियंत्रित करती है।
यकृत का निर्माण अनेक यकृत की क्रियात्मक इकाइयों (Functional Units) होता है। यकृत पालियों का निर्माण यकृत कोशिकाओं (Heptocytes) द्वारा होता है। यकृत कोशिकाओं की पंक्तियों के मध्य संकरे अवकाश होते हैं। इन अवकाशों में असतत अन्त:स्तर (Endothelium) वाली कोशिकाएँ स्थित होती हैं। ये अवकाश यकृत कोटरियाँ (Sinusoids) कहलाते हैं। इनकी भित्ति में कुफ्फुर कोशिकाएँ (Kupffer cells) पायी जाती हैं, जिन्हें महा भक्षकाणु (Magaphagocytes) कहते हैं। ये जीवाणुओं तथा जीर्ण-क्षीर्ण रक्ताणुओं का विघटन करती हैं। पालिकाओं के बीच में इनके बाहरी कोनों पर यकृत धमनी (Hepatic artery); यकृत निवाहिका शिरा (Hepatic partalvein) तथा पित्त वाहिनी की शाखाएँ स्थित होती हैं। ये तीनों मिलकर निवाहिका त्रिक (Portal Triad) का निर्माण करती हैं।
यकृत के प्रमुख कार्य (Main functions of liver):
- पित्त का निर्माण (Formation of Bile)-यकृत का प्रमुख कार्य पित्त रस का निर्माण करना है। पित्त (Bile) हरे रंग का क्षारीय तरल होता है। इसमें पित्तलवण, पित्त वर्णक, कोलेस्टेरेरॉल तथा लेसीथिन आदि पदार्थ उपस्थित होते हैं। पित्त लवणों में प्रमुखत: सोडियम बाइकार्बोनेट, ग्लाइकोलेट, टॉरोकोलेट पाए जाते हैं। पित्त वर्णकों में विलिवर्डिन तथा विलरुविन होते हैं। पित्त वर्णकों का निर्माण हीमोग्लोबिन के विखण्डन द्वारा होता है। पित्त रस वसाओं के पाचन में प्रमुखत: भाग लेता है तथा इनका पायसीकरण (Emulsification) करता है। यह भोजन को सड़ने से बचाता है तथा भोजन के अम्लीय मायम को क्षारीय माध्यम में परिवर्तित कर देता है ताकि भोजन पर अग्नाशयी रस के एन्जाइम प्रभावी रूप से कार्य कर सकें।
- यकृत कोशिकाएँ आवश्यकता से अधिक ग्लूकोज की मात्रा को ग्लाइकोजन में परिवर्तित करके संग्रहित कर लेती है। यह क्रिया ग्लाइकोजिनेसिस (Glycogenesis) कहलाती हैं।
- जब रक्त में ग्लूकोस की कमी होने लगती है तो यकृत की कोशिकाएँ संग्रहीत ग्लाइकोजन को पुनः ग्लूकोज में परिवर्तित कर देती हैं। यह क्रिया ग्लाइकोजिनोलाइसिस (Glycogenolysis) कहलाती है।
- यकृत कोशिकाएँ आवश्यकतानुसार वसीय अम्ल, अमीनो अम्ल आदि से भी ग्लूकोज का संश्लेषण कर लेती हैं। यह क्रिया ग्लूकोनिओजिनेसिस (Gluconeogenesis) कहलाती है।
- यकृत कोशिकाएँ विटामिन A का संश्लेषण व संचय करती हैं तथा विटामिन D व विटामिन B12 का संचय करती हैं।
- यकृत कोशिकाएँ आर्निथीन चक्र द्वारा यूरिया (Urea) का संश्लेषण करती हैं।
- यकृत कोशिकाएँ हिपैरिन (Heparin) नामक पदार्थ का संश्लेषण करती हैं जो रुधिर वाहिनियों में रक्त का स्कंदन रोकता है।
- यकृत कोशिकाएँ प्रोथोम्बिन तथा फाइब्रिनोजन नामक रुधिर प्रोटीन्स का संश्लेषण करती हैं, जिनकी चोट लगने पर रक्त का थक्का जमाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
- यकृत भ्रूणावस्था में रुधिर उत्पादक अंग का कार्य करता है। वयस्क अवस्था में इसके विपरीत यकृत की कुफ्फुर कोशिकाएँ मृत व क्षतिग्रस्त लाल रुधिराणुओं (RBCs) को नष्ट करने का कार्य करती हैं।
3. अग्न्याशय (Pancreas)- यह मानव शरीर की दूसरी सबसे बड़ी पाचक ग्रन्थि है। यह ग्रहणी की दोनों भुजाओं के मध्य पायी जाती है। यह अनियमित आकार की मिश्रित ग्रन्थि (Mixed gland) होती है क्योंकि यह बहि:स्रावी (Exocrine) तथा अन्त:स्रावी (Endocrine) दोनों प्रकार की ग्रन्थियों का कार्य करती है। इसका उद्भव भ्रूण की एण्डोडर्म (Endoerm) से होता है। इसमें दो प्रकार के कोशिका समूह पाये जाते हैं
- एसिनाई (Acini)-यह अग्नाशय के संयोजी ऊतक (Connective tissue) के बीच-बीच में पाया जाने वाला बहिस्रावी (Exocrine) कोशिकाओं का समूह है। इन कोशिकाओं द्वारा अग्नाशयी रस (Pancreatic juice) का निर्माण तथा स्रावण किया जाता है।
- लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ (Islets of Langerhans)-यह अन्त:स्रावी (Endocrine) कोशिकाओं का समूह होता है जो एसिनाई कोशिका समूह के मध्य कहीं-कहीं पर पाये जाते हैं। इसमें तीन प्रकार के अन्त:स्रावी कोशिका समूह होते हैं जो अलग-अलग प्रकार के हार्मोन का स्राव करते हैं।
- एल्फा कोशिकाएँ (α cells)-ये ग्लूकोगॉन (Glucagon) हॉर्मोन का स्राव करती हैं।
- बीटा कोशिकाएँ (β-cells)-ये इन्सुलिन (Insulin) हार्मोन का स्राव करती हैं।
- गामा या डेल्टा कोशिकाएँ-(γ or δ-cells)-ये सोमेटोस्टेटिन, गैस्ट्रीन तथा सीरेटोनिन हार्मोन का स्राव करती हैं। का अध्ययन करें।
प्रश्न 2.
पायसीकरण किसे कहते हैं ? इसका क्या महत्व है ?
उत्तर:
पायसीकरण (Emulsification) वह प्रक्रम है जिसमें परिक्षिप्त प्रावस्था छोटी-छोटी बूंदों (Droplets) में टूट जाती है। इन बूंदों पर एन्जाइम पेन्क्रिऐटिक लाइपेज आसानी से क्रिया करके वसीय अम्ल तथा ग्लिसरॉल का निर्माण करते हैं। पायसीकरण की क्रिया में पित्त लवण सहायता प्रदान करते हैं।
पायसीकरण की क्रिया आहारनाल में वसा के पाचन तथा अवशोषण में सहायक होता है।
प्रश्न 3.
काइलोमाइक्रॉन क्या है ?
उत्तर:
कोशिका में वसीय अम्ल एवं मोनोग्लिसराइड चिकनी अन्त:प्रद्रव्यो। जालिका में प्रवेश होकर नयी ट्राइग्लिसराइड संश्लेषित करते हैं। इन ट्राइग्लिसराइड को प्रोटीन घेर लेती है। इस प्रकार लिपोप्रोटीन से निर्मित गोलिकाएँ काइलोमाइक्रॉन (व्यास 0.1 से 3.5 NM) कहलाती है। काइलोमाइक्रॉन वहिकोशिका लयन (Exocytosis) द्वारा बाहर निकलकर लसिका केशिका में चली जाती है। ये लसिका तन्त्र से होते हुए शिरा के रुधिर प्लाज्मा में पहुँच जाती है। प्लाज्मा में लिपोप्रोटीन लाइपेज की सहायता से इन्हें वसा अम्लों तथा मोनोग्लिसराइड में बदल दिया जाता है।
प्रश्न 4.
क्वाशिओरकॉर रोग क्या है ? इसके लक्षण बताइये।
उत्तर:
अनुच्छेद कुपोषण एवं सम्बन्धित रोग (Malnutrition and Nutritional Disorders):
कुपोषण से तात्पर्य दोषपूर्ण या अपूर्ण पोषण से है। कुपोषण को व्यक्ति की ऐसी शारीरिक अवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो या तो ऐसे आहार के कारण होती है जो समस्त पोषक तत्वों की उचित मात्रा में आपूर्ति नहीं करता है या किसी रोग की वजह से अवशोषण, उपापचय करने की अक्षमता के कारण हो जाती है।
कुपोषण चार प्रकार का होता है —
- अल्पपोषण (Undernutrition)-जब लम्बे समय तक भोजन की उपलब्धता अपर्याप्त मात्रा में हो तो यह अल्पपोषण कहलाता है।
- अतिपोषण (Overnutrition)-जब लम्बे समय तक अत्यधिक मात्रा में भोजन का उपभोग किया जाता है, तब इसे अतिपोषण कहते हैं।
- असंतुलित पोषण (Imbalanced nutrition)-ऐसे आहार का उपयोग जिसमें कुछ पोषक अधिक अनुपात में तथा अन्य पोषक बहुत कम अनुपात में हों तो इसे असंतुलित पोषण कहते हैं।
- विशिष्ट न्यूनता (Spcific deficiency)-जब आहार में कोई विशिष्ट पोषक कम या पूरी तरह अनुपस्थित हो तो उस विशिष्ट पोषक की शरीर में कमी हो जाती है।
- कुपोषण के कारण व्यक्ति कमजोर तथा रोगी हो जाता है। विश्व में लगभग 30 करोड़ व्यक्ति कुपोषणं से पीड़ित हैं। कुपोषण के कारण बच्चों की वृद्धि तथा मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने पोषण सम्बन्धी पाँच प्रमुख रोग चिन्हित किए हैं
- क्वाशीओरकर-यह रोग भोजन में प्रोटीन की कमी से होता है।
- मैरास्मस या सूखा रोग-यह रोग भी भोजन में प्रोटीन व कैलोरी की कमी से होता है।
- जीरोप्थेलमिया-यह रोग भोजन में विटामिन ए की कमी से होता है।
- रक्ताल्पता-यह रोग भोजन लोहे की कमी से होता है।
- गलगण्ड-यह रोग भोजन या जल आयोडीन की कमी से होता है।
कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज या विटामिन की कमी, अल्पता या न्यूनता के कारण होने वाले रोग निम्नवत हैं- प्रोटीन (Protein)-ऊर्जा न्यूनता या प्रोटीन आहारीय अपूर्णता (Protein-energy malnutition, PEM)
- खनिज न्यूनता रोग (Minerals defficiency diseases)—- जैसे-अस्थिछिद्रता (Osteoporosis) कैल्शियम की कमी से होता है।
- विटामिन न्यूनता रोग (Vitalmin defficiency disease) में प्रदर्शित हैं —
तालिका 22.2 प्रमुख विटामिन, उनके स्रोत, कार्य एवं न्यूनता रोग
प्रोटीन ऊर्जा आहारीय अपूर्णता (PEM) आहार में प्रोटीन, वसा एवं कार्बोहाइड्रेट की कमी से उत्पन्न होती है। यह एक से पाँच वर्ष के बालकों को प्रभावित करती है। क्वाशीओरकर एवं मेरेस्मस PEM द्वारा जनित रोग है। ये रोग कुछ अफ्रीकी देशों में देखने के लिए मिलते हैं। जब माताएँ जल्द ही शिशुओं को स्तनपान कराना बन्द कर देती हैं तथा शिशुओं को प्रोटीन न्यूनता वाला आहार दिया जाता है तब ये रोग उत्पन्न होते हैं। इन देशों के लोग प्रमुखतः भोजन में मक्का का प्रयोग करते हैं। मक्का में अत्यावश्यक ऐमीनो अम्ल ट्रिप्टोफेन का अभाव होता है इसलिए शरीर में प्रोटीन का संश्लेषण नहीं हो पाता है। इसीलिए प्रोटीन न्यूनता के संलक्षण दिखाई नहीं देते हैं।
क्वाशीओरकर प्रोटीन की अत्यधिक कमी से उत्पन्न होने वाला रोग है। एक से तीन वर्ष तक के आयु के बच्चे जो 1 ग्राम प्रोटीन प्रतिकिग्रा भार प्रतिदिन से कम ग्रहण कर पाते हैं, वे इस रोग से ग्रसित हो जाते हैं। इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नवत हैं —
- वजन कम हो जाना, चिड़चिड़ापन एवं अरुचि होना।
- त्वचा काली वे खुरदरी होकर फटने लगती है।
- शरीर में सूजन तथा पेट आगे निकल आता है।
- बाल पतले, कम तथा लाल या सफेद हो जाते हैं।
मैरास्मस या सूखा रोग एक वर्ष से कम आयु के बच्चों में प्रोटीन की कमी से उत्पन्न होता है। इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नवत हैं- वजन अत्यधिक कम (शिशु की आयु के सामान्य वजन की तुलना में 60 प्रतिशत कम वजन)
- मुरझाया हुआ, सूखा एवं झुर्रा पड़ा चेहरा तथा फँसी हुई आँखें हो जाती
- पतली पेशियाँ, पतली टाँगें एवं भुजाएँ, पसलियाँ बाहर से दिखाई देती
- शरीर में कोई सूजन नहीं तथा बाल अप्रभावित रहते हैं।
प्रोटीन युक्त आहार देने से इन रोगों का उपचार हो सकता है अन्यथा यह रोग घातक हो सकते हैं।
अधिक पोषण के कारण होने वाले रोग अनेक विकसित देशों (यूरोप, अमेरिका) में सामान्य हैं। मोटापा (Obsity) ऐसा ही एक रोग है। उपयोग में आने वाली आवश्यक ऊर्जा की मात्रा की तुलना में अधिक ऊर्जा ग्रहण करने से जब व्यक्ति का वजन सामान्य से 20 प्रतिशत अधिक हो जाता है तब इसे मोटापा कहते हैं। मोटापे के कारण हृदय सम्बन्धी रोग, उच्च रक्त चाप, मधुमेह आदि रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है का अध्ययन करें।
प्रश्न 5.
मैरास्मस रोग क्या है ? इसके लक्षण बताइये।
उत्तर:
अनुच्छेद कुपोषण एवं सम्बन्धित रोग (Malnutrition and Nutritional Disorders):
कुपोषण से तात्पर्य दोषपूर्ण या अपूर्ण पोषण से है। कुपोषण को व्यक्ति की ऐसी शारीरिक अवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो या तो ऐसे आहार के कारण होती है जो समस्त पोषक तत्वों की उचित मात्रा में आपूर्ति नहीं करता है या किसी रोग की वजह से अवशोषण, उपापचय करने की अक्षमता के कारण हो जाती है।
कुपोषण चार प्रकार का होता है —
- अल्पपोषण (Undernutrition)-जब लम्बे समय तक भोजन की उपलब्धता अपर्याप्त मात्रा में हो तो यह अल्पपोषण कहलाता है।
- अतिपोषण (Overnutrition)-जब लम्बे समय तक अत्यधिक मात्रा में भोजन का उपभोग किया जाता है, तब इसे अतिपोषण कहते हैं।
- असंतुलित पोषण (Imbalanced nutrition)-ऐसे आहार का उपयोग जिसमें कुछ पोषक अधिक अनुपात में तथा अन्य पोषक बहुत कम अनुपात में हों तो इसे असंतुलित पोषण कहते हैं।
- विशिष्ट न्यूनता (Spcific deficiency)-जब आहार में कोई विशिष्ट पोषक कम या पूरी तरह अनुपस्थित हो तो उस विशिष्ट पोषक की शरीर में कमी हो जाती है।
- कुपोषण के कारण व्यक्ति कमजोर तथा रोगी हो जाता है। विश्व में लगभग 30 करोड़ व्यक्ति कुपोषणं से पीड़ित हैं। कुपोषण के कारण बच्चों की वृद्धि तथा मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने पोषण सम्बन्धी पाँच प्रमुख रोग चिन्हित किए हैं
- क्वाशीओरकर-यह रोग भोजन में प्रोटीन की कमी से होता है।
- मैरास्मस या सूखा रोग-यह रोग भी भोजन में प्रोटीन व कैलोरी की कमी से होता है।
- जीरोप्थेलमिया-यह रोग भोजन में विटामिन ए की कमी से होता है।
- रक्ताल्पता-यह रोग भोजन लोहे की कमी से होता है।
- गलगण्ड-यह रोग भोजन या जल आयोडीन की कमी से होता है।
कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज या विटामिन की कमी, अल्पता या न्यूनता के कारण होने वाले रोग निम्नवत हैं- प्रोटीन (Protein)-ऊर्जा न्यूनता या प्रोटीन आहारीय अपूर्णता (Protein-energy malnutition, PEM)
- खनिज न्यूनता रोग (Minerals defficiency diseases)—- जैसे-अस्थिछिद्रता (Osteoporosis) कैल्शियम की कमी से होता है।
- विटामिन न्यूनता रोग (Vitalmin defficiency disease) में प्रदर्शित हैं —
तालिका 22.2 प्रमुख विटामिन, उनके स्रोत, कार्य एवं न्यूनता रोग
प्रोटीन ऊर्जा आहारीय अपूर्णता (PEM) आहार में प्रोटीन, वसा एवं कार्बोहाइड्रेट की कमी से उत्पन्न होती है। यह एक से पाँच वर्ष के बालकों को प्रभावित करती है। क्वाशीओरकर एवं मेरेस्मस PEM द्वारा जनित रोग है। ये रोग कुछ अफ्रीकी देशों में देखने के लिए मिलते हैं। जब माताएँ जल्द ही शिशुओं को स्तनपान कराना बन्द कर देती हैं तथा शिशुओं को प्रोटीन न्यूनता वाला आहार दिया जाता है तब ये रोग उत्पन्न होते हैं। इन देशों के लोग प्रमुखतः भोजन में मक्का का प्रयोग करते हैं। मक्का में अत्यावश्यक ऐमीनो अम्ल ट्रिप्टोफेन का अभाव होता है इसलिए शरीर में प्रोटीन का संश्लेषण नहीं हो पाता है। इसीलिए प्रोटीन न्यूनता के संलक्षण दिखाई नहीं देते हैं।
क्वाशीओरकर प्रोटीन की अत्यधिक कमी से उत्पन्न होने वाला रोग है। एक से तीन वर्ष तक के आयु के बच्चे जो 1 ग्राम प्रोटीन प्रतिकिग्रा भार प्रतिदिन से कम ग्रहण कर पाते हैं, वे इस रोग से ग्रसित हो जाते हैं। इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नवत हैं —
- वजन कम हो जाना, चिड़चिड़ापन एवं अरुचि होना।
- त्वचा काली वे खुरदरी होकर फटने लगती है।
- शरीर में सूजन तथा पेट आगे निकल आता है।
- बाल पतले, कम तथा लाल या सफेद हो जाते हैं।
मैरास्मस या सूखा रोग एक वर्ष से कम आयु के बच्चों में प्रोटीन की कमी से उत्पन्न होता है। इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नवत हैं
- वजन अत्यधिक कम (शिशु की आयु के सामान्य वजन की तुलना में 60 प्रतिशत कम वजन)
- मुरझाया हुआ, सूखा एवं झुर्रा पड़ा चेहरा तथा फँसी हुई आँखें हो जाती
- पतली पेशियाँ, पतली टाँगें एवं भुजाएँ, पसलियाँ बाहर से दिखाई देती
- शरीर में कोई सूजन नहीं तथा बाल अप्रभावित रहते हैं।
प्रोटीन युक्त आहार देने से इन रोगों का उपचार हो सकता है अन्यथा यह रोग घातक हो सकते हैं। अधिक पोषण के कारण होने वाले रोग अनेक विकसित देशों (यूरोप, अमेरिका) में सामान्य हैं। मोटापा (Obsity) ऐसा ही एक रोग है। उपयोग में आने वाली आवश्यक ऊर्जा की मात्रा की तुलना में अधिक ऊर्जा ग्रहण करने से जब व्यक्ति का वजन सामान्य से 20 प्रतिशत अधिक हो जाता है तब इसे मोटापा कहते हैं। मोटापे के कारण हृदय सम्बन्धी रोग, उच्च रक्त चाप, मधुमेह आदि रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है का अध्ययन करें।
RBSE Class 12 Biology Chapter 22 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
मनुष्य की आहारनाल का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनुच्छेद आहारनाल की संरचना (Structure of Alimentary canal):
आहारनाल अग्रभाग में मुख (Mouth) से प्रारम्भ होकर पश्च भाग में स्थित गुदा (Anus) द्वारा बाहर खुलती है अर्थात् मुख से गुदा तक फैली रहती है। यह लम्बी तथा कुण्डलित पेशीय नली होती है तथा जीवित अवस्था में इसकी लम्बाई 4:5 मीटर होती है तथा मृत्यु के पश्चात शिथिलित होने से इसकी लम्बाई 7-8 मीटर हो जाती है।
आहारनाल के प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं —
- मुख,
- मुख गुहिका,
- ग्रसनी,
- ग्रसिका,
- आमाशय,
- क्षुद्रांत (छोटी आँत),
- वृहदांत्र (बड़ी आँत),
- मलाशय तथा
- गुदा होते हैं।
(i) मुख तथा मुख गुहिका (Mouth and Buccal cavity):
मुख ऊपरी तथा निचले ओष्ठों से घिरा रहता है तथा मुख गुहिका (Buccal cavity) में खुलता है। मुख गुहिका का ऊपरी भाग कठोर तथा कोमल तालू (Palate) द्वारा बना होता है। इसके पार्श्व में भित्तियाँ तथा अधरतल पर पेशीय जीभ पायी जाती हैं। जीभ की सतह पर स्वाद कलिकाएँ (Test buds) पायी जाती हैं जो खट्टे-मीठे, नमकीन तथा
कड़वे स्वाद का ज्ञान कराती हैं। मुखद्वार एक अचल ऊपरी तथा चल निचले जबड़े द्वारा घिरा रहता है। दोनों जबड़ों में दन्त पाए जाते हैं जो भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने तथा चबाने का कार्य करते हैं। मानव में विषमदन्ती (Heterodont) प्रकार के दन्त पाए जाते हैं क्योंकि दाँत विभिन्न आकार-प्रकार के होते हैं। प्रत्येक जबड़े में भोजन को काटने के लिए चार क्रन्तक (Incisors), भोजन को पीसने के लिए दो रदनक (Canines), भोजन को चबाने के लिए चार अग्र चवर्णक (Premolars) तथा भोजन को तोड़ने के लिए छः चर्वणक (Molars) होते हैं। इस प्रकार वयस्क मनुष्य में दाँतों की कुल संख्या 32 होती है। दाँतों का विन्यास दन्त सूत्र (Dental formula) द्वारा व्यक्त किया जाता है।
मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में दन्त दो बार उगते हैं, पहले दन्त समुच्चय को दूध के दाँत (Milk teath) कहते हैं तथा दूसरे समुच्चय को स्थायी दाँत (Permanent teath) कहते हैं। दूध के दाँत 20 होते हैं। दो बार दन्त उत्पन्न होने की अवस्था द्विवारदन्ती (Dilphyodont) कहलाती है। दूध के दाँतों में अग्रचर्वणक (Premolars) अनुपस्थित होते हैं।
दन्त की संरचना (Structure of Tooth)- दन्त अत्यधिक कठोर संरचना होती है। प्रत्येक दन्त के तीन भाग होते हैं
- मूल (Root)-यह दाँत का निचला भाग है, जो जबड़े की अस्थि के गर्त में स्थित रहता है।
- शिखर (Crown)-यह दाँत का ऊपरी भाग होता है।
- ग्रीवा (Neck)-यह दाँत के मूल तथा शिखर के मध्य का भाग होता है।
दन्त का निर्माण अस्थि के समान डेन्टीन (Dentine) से होता है। दन्त के केन्द्रीय भाग में मज्जा गुहा (Pulp cavity) पायी जाती है। इसमें दन्त कोशिकाएँ (Odontoblasts), रुधिर वाहिनियाँ (Blood Vessels) तथा तन्त्रिका तन्तु (Nerve fibres) होते हैं। इसके आधारभाग में एक छिद्र पाया जाता है जिसे शीर्ष छिद्र (Apical pore) कहते हैं। इस छिद्र द्वारा दन्त को रक्त तथा तन्त्रिकीय संवहन दिया जाता है। दन्त कोशिकाओं की सक्रियता से दन्त के आकार में वृद्धि होती है। प्रायः एक निश्चित आयु के पश्चात यह निष्क्रिय हो जाता है तथा दाँत का विकास रुक जाता है। दन्तक कोशिकाएँ डेण्टीन का स्रावण करती हैं। दाँत का शिखर दन्तवल्क (Enamel) द्वारा बँका रहता है, जो शरीर का सबसे कठोर भाग होता है। दन्त मूल (Root) गर्त में अस्थि समान सीमेण्ट द्वारा स्थिर बना रहता है।
2. ग्रसनी (Pharyre)-मुख गुहिका (Buccal cavity) तथा ग्रसिका (Oesophagous) पाचन तन्त्र का सम्मिलित भाग होता है। इसकी भित्ति ऐच्छिक पेशियों (Voluntary muscles) से निर्मित होती है। ग्रसनी में यूस्टेकियन नलिकाओं (Eustachion hubules) तथा छिद्र पाए जाते हैं। इसके पश्च भाग में दो छिद्र-(i) घाटी (Glottis) तथा निगलद्वार (Gullet) होते हैं। ग्रसनी निगल द्वारा के माध्यम से नली सदृश्य ग्रसिका में खुलती
3. ग्रसिका (0esophagous)-यह लगभग 25 cm लम्बी नली होती है। इसकी भित्ति में ऊतकों के सामान्य स्तर सिरोसा (Serosa), बाह्य पेशी स्तर (Outer muscle layer), अध:श्लेष्मिका (Sub-mucosa) तथा श्लेष्मिका (Mucosa) पाये जाते हैं। सिरोसा वास्तव में आंतरांग पेरिटोनियम (Visceral peritonium) होता है। यह केवल प्रत्यास्थ तन्तुमय संयोजी ऊतक का बना स्तर होता है। पेशी स्तर में बाह्य अनुदैर्घ्य (Longitudinal) तथा आंतरिक वर्तुल (Circular) अरेखित पेशियों के स्तर होते हैं।
अध-श्लेष्मिका (Sub-mucosa) संयोजी ऊतक से निर्मित स्तर होता है, जिसमें तंत्रिकाएँ, रुधिर एवं लसिका वाहिनियाँ, कोलेजन तथा लचीले तन्तु तथा श्लेष्मा ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। श्लेष्मिका (Mucosa) सबसे भीतरी स्तर होता है। इसमें उपकला, आधार पटल (Lamina propria) तथा श्लेष्मिका पेशी पायी जाती है। ग्रसिका की आन्तरिक उपकला, स्तरित शल्की उपकला (Stratified squamous epithelium) के रूप में पायी जाती है। ग्रसिका के आरम्भिक भाग में रेखित पेशियाँ (Striated muscles) पायी जाती हैं। ग्रसिका भोजन को क्रमाकुंचन गति द्वारा ग्रसनी से आमाशय में भेजती है। श्वास नली में भोजन के प्रवेश | को घांटी ढक्कन (Epiglottis) द्वारा भेजा जाता है।
4. आमाशय (Stomach)-आमाशय उदर गुहा (Abdominal cavity) में बायीं ओर तनुपट (Diaphragm) के नीचे स्थित होता है। ग्रासिका तनुपट को छेदकर उदरगुहा में प्रवेश करती है तथा आमाशय में खुलती है। आमाशय पेशीय थैले के समान संरचना होती है। आमाशय के तीन भाग होते हैं –
- जठरागम भाग (Cardiac Part)
- फडस क्षेत्र (Fundus Part)
- जठरनिर्गमी भाग (Pyloric Part)
1. जठरागम भाग (Cardiac Part)- यह ग्रासनली से जुड़ा छोटा भाग होता है। ग्रास नाल तथा कार्डियक भाग (जठरागम भाग) के मध्य पाये जाने वाले मार्ग को कार्डिया (Cardia) कहते हैं। यह भाग जिस स्थान पर ग्रास नाल से जुड़ता है वहाँ पर एकतरफा कार्डियक संकोचन
(Cardiac sphincter) पाया जाता है जो भोजन को आमाशय से आहारनाल में आने से रोकता है। इसे कार्डियक कपाट (Cardiac valve) या जठरागम अवरोधिनी
(Gastroesopharyngeal Sphincter) कहते हैं।
2. फंडस भाग (Fundus Part)- यह आमाशये का अधिकांश भाग ((80%) बनाता है। यहीं पर पाचक रसों का स्रावण होता है। यह आमाशय के मध्य भाग का निर्माण करता है।
3. जठरनिर्गमी भाग (Pyloric Part)- यह आमाशय को अन्तिम भाग है जो ग्रहणी से जुड़ा रहता है। पाइलोरिक भाग तथा ग्रहणी के बीच का छिद्र पाइलोरस कहलाता है। यह जिस स्थान पर ग्रहणी से जुड़ता है। वहाँ पर जठरनिर्गम अवरोधनी (Pyloric sphincter),पायी जाती है। यह भोजन को विपरीत दिशा में जाने से रोकती है। इसे पाइलेरिक कपाट (Pyloric valve) कहते हैं।
जठरीय ग्रन्थियाँ (Gastric glands) अम्लीय जठर रस (Gastric juice) तथा जठर निर्गम ग्रन्थियाँ मुख्यतः श्लेष्मा (Mucosa) का स्रावण करती हैं। इन ग्रन्थियों की मुख्य कोशिकाएँ (Cheif cells) या जाइमोजन कोशिकाएँ (Zymogen cells), पेप्सिनोजन स्रावित करती हैं। ये ग्रन्थियाँ फण्डस तथा मध्यकाय भाग में पायी जाती हैं तथा आमाशय का लगभग 80% भाग बनातीहैं।
जठर निर्गम ग्रन्थियाँ जठर निर्गम भाग (Pyloric part) में पायी जाती हैं तथा पेशीय स्तर में बाह्य अनुदैर्घ्य, मध्य वर्तुल तथा आंतरिक तिर्यक पेशी नामक तीन स्तर पाए जाते हैं।
5. छोटी आँत (Small Intestine)-आमाशय जठर निर्गम छिद्र (Pylorus) द्वारा छोटी आंत (Small Intestine) में खुलता है। यह जीवित मनुष्य में लगभग 3 मीटर लम्बी होती है। इसका प्रथम खण्ड 25 cm लम्बा ‘U’ आकार का होता है यह ग्रहणी (Duodenum) कहलाता है। अग्नाशय वाहिनी एवं सामान्य पित्त वाहिनी (Common bile duct) इसी भाग में खुलती हैं। इनके रन्ध्र पर ऑड्डी की अवरोधिनी (Sphincter of oddi) पायी जाती है। छोटी आँत का द्वितीय अर्थात् मध्य खण्ड लगभग एक मीटर लम्बा तथा कुछ कुण्डलित होता है। इसे अग्र क्षुद्रांत (Jejunum) कहते हैं। छोटी आंत का अन्तिम खण्ड लगभग 1-75 मीटर लम्बा तथा अत्यधिक कुण्डलित होता है, जिसे क्षुद्रान्त (Ileum) कहते हैं।
आंत्र भित्ति में सामान्यतः चार ऊतकीय स्तर पाए जाते हैं। श्लेष्मिका (Mucosa) तथा अधश्लेष्मिका (Sub-mucosa) दोनों वलित (Folded) हो जाते हैं। वलन लगभग 8mm के होते हैं तथा ये केर्करिंग के वलन – (Folds of kerckring) कहलाते हैं। श्लेष्मिका के वलनों पर लगभग 1mm के अँगुली रसांकुर में स्तन्य केशिकाएँ (Lacteal vessels) अथवा
लसिका कोशिकाएँ, रक्तकेशिकाएँ तथा चिकनी पेशियाँ पाई जाती हैं। रसांकुरों की प्रत्येक उपकला कोशिका पर 1μm लम्बे लगभग एक हजार सूक्ष्मांकुर (Microvilli) उपस्थित होते हैं। ये सूक्ष्मांकुर ब्रुश वॉर्डर (Brush border) का निर्माण करते हैं। वलन रसांकुरों एवे सूक्ष्माकुंरों की उपस्थिति से पाचन एवं अवशोषणकारी सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाता है। क्षुद्रान्त श्लेष्मिका स्तर के एकल या समूहों में लसिका ग्रन्थियाँ (Lymph nodes) पायी जाती हैं। जिन्हें पेयर के समूह (Peyes’s patches) कहते हैं।
इन ग्रन्थियों को लीवरकुहन की कीगर्तिकाएँ (Crtypts of Liebaerkuhn) कहते हैं। इन गार्तिकाओं में कलश कोशिकाएँ (Goblet cells), आंत्रीय कोशिकाएँ एवं पेनेथ कोशिकाएँ पायी जाती हैं। कलश कोशिकाएँ श्लेष्मा (Mucus) का स्रावण करती है। आंत्रीय कोशिकाओं से जल तथा जल अपघट्यों (Electrolytes) का स्रावण होता है। इनमें पाचक एन्जाइम भरे रहते हैं। पेनेथ कोशिकाएँ जीवाणुओं को मारने वाले एन्जाइम लासोजाइम (Lysozyme) का स्रावण करती हैं।
ग्रहणी भाग में श्लेष्मा का स्राव करने के लिए अतिरिक्त छोटी कुण्डलित श्लेष्मा ग्रंथियाँ ग्रहणी की अधः श्लेष्मिका में पाई जाती हैं, इन्हें ब्रूनर ग्रंथियाँ (Brunner’s glands) कहते हैं।
6. बड़ी आंत (Large Intestion)-बड़ी आंत आहारनाल का अन्तिम भाग होता है। इसका व्यास अधिक होता है। इसकी लम्बाई लगभग 1:5 मीटर होती है। बड़ी आंत तीन भागों-(i) उण्डुक (Caecum), (ii) वृहदान्त्र (Colon) तथा (iii) मलाशय (Rectum) से मिलकर बनी होती है। उण्डुक (Caecum) छोटी आंत तथा बड़ी आंत की संधि | (Joint) पर पाया जाता है। यह अवशेषी अंग (Vestigial organ) माना जाता है। उण्डुक के सिरे पर अंगुली समान बन्द प्रवर्ध, जो लगभग 1 सेमी. व्यास व 8 सेमी. लम्बे होते हैं। कृमिरूपी परिशेषिका (Vermiform appendix) कहलाते हैं। परिशेषिका का कोई कार्य नहीं होता है। क्षुद्रान्त (Ileum) एवं वृहदान्त्र (Colon) के मध्य एक त्रिकांत्र कपाट (Ileo-caecal valve) होता है जो पदार्थों को क्षुद्रान्त्र से वृहद्रान्त्र में आसानी से जाने देता है, लेकिन क्षुदान्त्र में वापस नहीं आने देता है। वृहद्रान्त्र के तीन भाग होते हैं-आरोही, अनुप्रस्थ एवं अवरोही वृहद्रांत्र।
मलाशय व गुदा (Rectum and Anus)-बड़ी आंत का अन्तिम भाग मलाशय होता है जो गुदा द्वारा बाहर खुलता है। गुदा के चारों ओर दो अवरोधनियाँ होती हैं- आन्तरिक अवरोधिनी चिकनी पेशी तथा बाह्य अवरोधनी रेखित पेशी से बनी हुई होती हैं।
बड़ी आंत की भित्ति में चार ऊतकीय स्तर उपस्थित होते हैं। श्लेष्मिका की कोशिकाएँ केवल श्लेष्मा स्रावित करती हैं जिसमें बाइकार्बोनेट भी होते हैं। बड़ी आंत में रसांकुरों का अभाव होता है। इसकी उपकला कोशिकाओं में कोई पाचक एन्जाइम नहीं होता है। वृहद्रांत्र की अनुदैर्घ्य पेशी परत की तीन पट्टिकाएँ टीनी कोलाई (Taeniae coli) के रूप में व्यवस्थित होती हैं। आंत की भित्ति इन पट्टिकाओं के बीच-बीच में चूषकांगों (Haustoria) के रूप में उभरी रहती है। वृहद्रांत्र में अनेक सहजीवी जीवाणु (Symbiotic bacteria) पाए जाते का अध्ययन करें।
प्रश्न 2.
मनुष्य के दन्त का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनुच्छेद आहारनाल की संरचना (Structure of Alimentary canal):
आहारनाल अग्रभाग में मुख (Mouth) से प्रारम्भ होकर पश्च भाग में स्थित गुदा (Anus) द्वारा बाहर खुलती है अर्थात् मुख से गुदा तक फैली रहती है। यह लम्बी तथा कुण्डलित पेशीय नली होती है तथा जीवित अवस्था में इसकी लम्बाई 4:5 मीटर होती है तथा मृत्यु के पश्चात शिथिलित होने से इसकी लम्बाई 7-8 मीटर हो जाती है।
आहारनाल के प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं —
- मुख,
- मुख गुहिका,
- ग्रसनी,
- ग्रसिका,
- आमाशय,
- क्षुद्रांत (छोटी आँत),
- वृहदांत्र (बड़ी आँत),
- मलाशय तथा
- गुदा होते हैं।
चित्र 22.1 मनुष्य का पाचन तन्त्र
(i) मुख तथा मुख गुहिका (Mouth and Buccal cavity):
मुख ऊपरी तथा निचले ओष्ठों से घिरा रहता है तथा मुख गुहिका (Buccal cavity) में खुलता है। मुख गुहिका का ऊपरी भाग कठोर तथा कोमल तालू (Palate) द्वारा बना होता है। इसके पार्श्व में भित्तियाँ तथा अधरतल पर पेशीय जीभ पायी जाती हैं। जीभ की सतह पर स्वाद कलिकाएँ (Test buds) पायी जाती हैं जो खट्टे-मीठे, नमकीन तथा
कड़वे स्वाद का ज्ञान कराती हैं। मुखद्वार एक अचल ऊपरी तथा चल निचले जबड़े द्वारा घिरा रहता है। दोनों जबड़ों में दन्त पाए जाते हैं जो भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने तथा चबाने का कार्य करते हैं। मानव में विषमदन्ती (Heterodont) प्रकार के दन्त पाए जाते हैं क्योंकि दाँत विभिन्न आकार-प्रकार के होते हैं। प्रत्येक जबड़े में भोजन को काटने के लिए चार क्रन्तक (Incisors), भोजन को पीसने के लिए दो रदनक (Canines), भोजन को चबाने के लिए चार अग्र चवर्णक (Premolars) तथा भोजन को तोड़ने के लिए छः चर्वणक (Molars) होते हैं। इस प्रकार वयस्क मनुष्य में दाँतों की कुल संख्या 32 होती है। दाँतों का विन्यास दन्त सूत्र (Dental formula) द्वारा व्यक्त किया जाता है।
मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में दन्त दो बार उगते हैं, पहले दन्त समुच्चय को दूध के दाँत (Milk teath) कहते हैं तथा दूसरे समुच्चय को स्थायी दाँत (Permanent teath) कहते हैं। दूध के दाँत 20 होते हैं। दो बार दन्त उत्पन्न होने की अवस्था द्विवारदन्ती (Dilphyodont) कहलाती है। दूध के दाँतों में अग्रचर्वणक (Premolars) अनुपस्थित होते हैं।
दन्त की संरचना (Structure of Tooth)- दन्त अत्यधिक कठोर संरचना होती है। प्रत्येक दन्त के तीन भाग होते हैं
- मूल (Root)-यह दाँत का निचला भाग है, जो जबड़े की अस्थि के गर्त में स्थित रहता है।
- शिखर (Crown)-यह दाँत का ऊपरी भाग होता है।
- ग्रीवा (Neck)-यह दाँत के मूल तथा शिखर के मध्य का भाग होता है।
दन्त का निर्माण अस्थि के समान डेन्टीन (Dentine) से होता है। दन्त के केन्द्रीय भाग में मज्जा गुहा (Pulp cavity) पायी जाती है। इसमें दन्त कोशिकाएँ (Odontoblasts), रुधिर वाहिनियाँ (Blood Vessels) तथा तन्त्रिका तन्तु (Nerve fibres) होते हैं। इसके आधारभाग में एक छिद्र पाया जाता है जिसे शीर्ष छिद्र (Apical pore) कहते हैं। इस छिद्र द्वारा दन्त को रक्त तथा तन्त्रिकीय संवहन दिया जाता है। दन्त कोशिकाओं की सक्रियता से दन्त के आकार में वृद्धि होती है। प्रायः एक निश्चित आयु के पश्चात यह निष्क्रिय हो जाता है तथा दाँत का विकास रुक जाता है। दन्तक कोशिकाएँ डेण्टीन का स्रावण करती हैं। दाँत का शिखर दन्तवल्क (Enamel) द्वारा बँका रहता है, जो शरीर का सबसे कठोर भाग होता है। दन्त मूल (Root) गर्त में अस्थि समान सीमेण्ट द्वारा स्थिर बना रहता है।
2. ग्रसनी (Pharyre)-मुख गुहिका (Buccal cavity) तथा ग्रसिका (Oesophagous) पाचन तन्त्र का सम्मिलित भाग होता है। इसकी भित्ति ऐच्छिक पेशियों (Voluntary muscles) से निर्मित होती है। ग्रसनी में यूस्टेकियन नलिकाओं (Eustachion hubules) तथा छिद्र पाए जाते हैं। इसके पश्च भाग में दो छिद्र-(i) घाटी (Glottis) तथा निगलद्वार (Gullet) होते हैं। ग्रसनी निगल द्वारा के माध्यम से नली सदृश्य ग्रसिका में खुलती
3. ग्रसिका (0esophagous)-यह लगभग 25 cm लम्बी नली होती है। इसकी भित्ति में ऊतकों के सामान्य स्तर सिरोसा (Serosa), बाह्य पेशी स्तर (Outer muscle layer), अध:श्लेष्मिका (Sub-mucosa) तथा श्लेष्मिका (Mucosa) पाये जाते हैं। सिरोसा वास्तव में आंतरांग पेरिटोनियम (Visceral peritonium) होता है। यह केवल प्रत्यास्थ तन्तुमय संयोजी ऊतक का बना स्तर होता है। पेशी स्तर में बाह्य अनुदैर्घ्य (Longitudinal) तथा आंतरिक वर्तुल (Circular) अरेखित पेशियों के स्तर होते हैं।
अध-श्लेष्मिका (Sub-mucosa) संयोजी ऊतक से निर्मित स्तर होता है, जिसमें तंत्रिकाएँ, रुधिर एवं लसिका वाहिनियाँ, कोलेजन तथा लचीले तन्तु तथा श्लेष्मा ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं। श्लेष्मिका (Mucosa) सबसे भीतरी स्तर होता है। इसमें उपकला, आधार पटल (Lamina propria) तथा श्लेष्मिका पेशी पायी जाती है। ग्रसिका की आन्तरिक उपकला, स्तरित शल्की उपकला (Stratified squamous epithelium) के रूप में पायी जाती है। ग्रसिका के आरम्भिक भाग में रेखित पेशियाँ (Striated muscles) पायी जाती हैं। ग्रसिका भोजन को क्रमाकुंचन गति द्वारा ग्रसनी से आमाशय में भेजती है। श्वास नली में भोजन के प्रवेश | को घांटी ढक्कन (Epiglottis) द्वारा भेजा जाता है।
4. आमाशय (Stomach)-आमाशय उदर गुहा (Abdominal cavity) में बायीं ओर तनुपट (Diaphragm) के नीचे स्थित होता है। ग्रासिका तनुपट को छेदकर उदरगुहा में प्रवेश करती है तथा आमाशय में खुलती है। आमाशय पेशीय थैले के समान संरचना होती है। आमाशय के तीन भाग होते हैं –
- जठरागम भाग (Cardiac Part)
- फडस क्षेत्र (Fundus Part)
- जठरनिर्गमी भाग (Pyloric Part)
1. जठरागम भाग (Cardiac Part)- यह ग्रासनली से जुड़ा छोटा भाग होता है। ग्रास नाल तथा कार्डियक भाग (जठरागम भाग) के मध्य पाये जाने वाले मार्ग को कार्डिया (Cardia) कहते हैं। यह भाग जिस स्थान पर ग्रास नाल से जुड़ता है वहाँ पर एकतरफा कार्डियक संकोचन
(Cardiac sphincter) पाया जाता है जो भोजन को आमाशय से आहारनाल में आने से रोकता है। इसे कार्डियक कपाट (Cardiac valve) या जठरागम अवरोधिनी
(Gastroesopharyngeal Sphincter) कहते हैं।
2. फंडस भाग (Fundus Part)- यह आमाशये का अधिकांश भाग ((80%) बनाता है। यहीं पर पाचक रसों का स्रावण होता है। यह आमाशय के मध्य भाग का निर्माण करता है।
3. जठरनिर्गमी भाग (Pyloric Part)- यह आमाशय को अन्तिम भाग है जो ग्रहणी से जुड़ा रहता है। पाइलोरिक भाग तथा ग्रहणी के बीच का छिद्र पाइलोरस कहलाता है। यह जिस स्थान पर ग्रहणी से जुड़ता है। वहाँ पर जठरनिर्गम अवरोधनी (Pyloric sphincter),पायी जाती है। यह भोजन को विपरीत दिशा में जाने से रोकती है। इसे पाइलेरिक कपाट (Pyloric valve) कहते हैं।
जठरीय ग्रन्थियाँ (Gastric glands) अम्लीय जठर रस (Gastric juice) तथा जठर निर्गम ग्रन्थियाँ मुख्यतः श्लेष्मा (Mucosa) का स्रावण करती हैं। इन ग्रन्थियों की मुख्य कोशिकाएँ (Cheif cells) या जाइमोजन कोशिकाएँ (Zymogen cells), पेप्सिनोजन स्रावित करती हैं। ये ग्रन्थियाँ फण्डस तथा मध्यकाय भाग में पायी जाती हैं तथा आमाशय का लगभग 80% भाग बनातीहैं।
जठर निर्गम ग्रन्थियाँ जठर निर्गम भाग (Pyloric part) में पायी जाती हैं तथा पेशीय स्तर में बाह्य अनुदैर्घ्य, मध्य वर्तुल तथा आंतरिक तिर्यक पेशी नामक तीन स्तर पाए जाते हैं।
5. छोटी आँत (Small Intestine)-आमाशय जठर निर्गम छिद्र (Pylorus) द्वारा छोटी आंत (Small Intestine) में खुलता है। यह जीवित मनुष्य में लगभग 3 मीटर लम्बी होती है। इसका प्रथम खण्ड 25 cm लम्बा ‘U’ आकार का होता है यह ग्रहणी (Duodenum) कहलाता है। अग्नाशय वाहिनी एवं सामान्य पित्त वाहिनी (Common bile duct) इसी भाग में खुलती हैं। इनके रन्ध्र पर ऑड्डी की अवरोधिनी (Sphincter of oddi) पायी जाती है। छोटी आँत का द्वितीय अर्थात् मध्य खण्ड लगभग एक मीटर लम्बा तथा कुछ कुण्डलित होता है। इसे अग्र क्षुद्रांत (Jejunum) कहते हैं। छोटी आंत का अन्तिम खण्ड लगभग 1-75 मीटर लम्बा तथा अत्यधिक कुण्डलित होता है, जिसे क्षुद्रान्त (Ileum) कहते हैं।
आंत्र भित्ति में सामान्यतः चार ऊतकीय स्तर पाए जाते हैं। श्लेष्मिका (Mucosa) तथा अधश्लेष्मिका (Sub-mucosa) दोनों वलित (Folded) हो जाते हैं। वलन लगभग 8mm के होते हैं तथा ये केर्करिंग के वलन – (Folds of kerckring) कहलाते हैं। श्लेष्मिका के वलनों पर लगभग 1mm के अँगुली रसांकुर में स्तन्य केशिकाएँ (Lacteal vessels) अथवा
लसिका कोशिकाएँ, रक्तकेशिकाएँ तथा चिकनी पेशियाँ पाई जाती हैं। रसांकुरों की प्रत्येक उपकला कोशिका पर 1μm लम्बे लगभग एक हजार सूक्ष्मांकुर (Microvilli) उपस्थित होते हैं। ये सूक्ष्मांकुर ब्रुश वॉर्डर (Brush border) का निर्माण करते हैं। वलन रसांकुरों एवे सूक्ष्माकुंरों की उपस्थिति से पाचन एवं अवशोषणकारी सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाता है। क्षुद्रान्त श्लेष्मिका स्तर के एकल या समूहों में लसिका ग्रन्थियाँ (Lymph nodes) पायी जाती हैं। जिन्हें पेयर के समूह (Peyes’s patches) कहते हैं।
इन ग्रन्थियों को लीवरकुहन की कीगर्तिकाएँ (Crtypts of Liebaerkuhn) कहते हैं। इन गार्तिकाओं में कलश कोशिकाएँ (Goblet cells), आंत्रीय कोशिकाएँ एवं पेनेथ कोशिकाएँ पायी जाती हैं। कलश कोशिकाएँ श्लेष्मा (Mucus) का स्रावण करती है। आंत्रीय कोशिकाओं से जल तथा जल अपघट्यों (Electrolytes) का स्रावण होता है। इनमें पाचक एन्जाइम भरे रहते हैं। पेनेथ कोशिकाएँ जीवाणुओं को मारने वाले एन्जाइम लासोजाइम (Lysozyme) का स्रावण करती हैं।
ग्रहणी भाग में श्लेष्मा का स्राव करने के लिए अतिरिक्त छोटी कुण्डलित श्लेष्मा ग्रंथियाँ ग्रहणी की अधः श्लेष्मिका में पाई जाती हैं, इन्हें ब्रूनर ग्रंथियाँ (Brunner’s glands) कहते हैं।
6. बड़ी आंत (Large Intestion)-बड़ी आंत आहारनाल का अन्तिम भाग होता है। इसका व्यास अधिक होता है। इसकी लम्बाई लगभग 1:5 मीटर होती है। बड़ी आंत तीन भागों-(i) उण्डुक (Caecum), (ii) वृहदान्त्र (Colon) तथा (iii) मलाशय (Rectum) से मिलकर बनी होती है। उण्डुक (Caecum) छोटी आंत तथा बड़ी आंत की संधि | (Joint) पर पाया जाता है। यह अवशेषी अंग (Vestigial organ) माना जाता है। उण्डुक के सिरे पर अंगुली समान बन्द प्रवर्ध, जो लगभग 1 सेमी. व्यास व 8 सेमी. लम्बे होते हैं। कृमिरूपी परिशेषिका (Vermiform appendix) कहलाते हैं। परिशेषिका का कोई कार्य नहीं होता है। क्षुद्रान्त (Ileum) एवं वृहदान्त्र (Colon) के मध्य एक त्रिकांत्र कपाट (Ileo-caecal valve) होता है जो पदार्थों को क्षुद्रान्त्र से वृहद्रान्त्र में आसानी से जाने देता है, लेकिन क्षुदान्त्र में वापस नहीं आने देता है। वृहद्रान्त्र के तीन भाग होते हैं-आरोही, अनुप्रस्थ एवं अवरोही वृहद्रांत्र।
मलाशय व गुदा (Rectum and Anus)-बड़ी आंत का अन्तिम भाग मलाशय होता है जो गुदा द्वारा बाहर खुलता है। गुदा के चारों ओर दो अवरोधनियाँ होती हैं- आन्तरिक अवरोधिनी चिकनी पेशी तथा बाह्य अवरोधनी रेखित पेशी से बनी हुई होती हैं।
बड़ी आंत की भित्ति में चार ऊतकीय स्तर उपस्थित होते हैं। श्लेष्मिका की कोशिकाएँ केवल श्लेष्मा स्रावित करती हैं जिसमें बाइकार्बोनेट भी होते हैं। बड़ी आंत में रसांकुरों का अभाव होता है। इसकी उपकला कोशिकाओं में कोई पाचक एन्जाइम नहीं होता है। वृहद्रांत्र की अनुदैर्घ्य पेशी परत की तीन पट्टिकाएँ टीनी कोलाई (Taeniae coli) के रूप में व्यवस्थित होती हैं। आंत की भित्ति इन पट्टिकाओं के बीच-बीच में चूषकांगों (Haustoria) के रूप में उभरी रहती है। वृहद्रांत्र में अनेक सहजीवी जीवाणु (Symbiotic bacteria) पाए जाते का अध्ययन करें।
प्रश्न 3.
मनुष्य में पचे हुए भोजन का अवशोषण कहाँ और कैसे। होता है ?
उत्तर-
अनुच्छेद मानव के पाचन तंत्र की क्रियाविधि (Mechanism of digestive system of human):
मानव की पाचन तन्त्र की क्रिया का अध्ययन निम्न चरणों में किया जाता
- अन्तर्ग्रहण (Ingestion),
- पाचन (Digestion),
- अवशोषण (Absorption),
- स्वांगीकरण (Assimilation) तथा
- बहिःक्षेपण (Egestion)
1. अन्तर्ग्रहण (Ingestion)–किसी भी जीवधारी तथा मानव द्वारा भोजन को शरीर के अन्दर ग्रहण करने की क्रिया अन्तर्ग्रहण (Ingestion) कहलाती है। मनुष्य एक सर्वाहारी (Omnivorous) प्राणी है। मानव में अन्तर्ग्रहण की क्रिया दो चरणों में पूर्ण होती है। प्रथम चरण में भोजन को चबाया जाता है तथा द्वितीय चरण में भोजन को निगलने की क्रिया होती है। कृन्तक (Incisors) दन्तों से भोजन को काटकर ग्रहण किया जाता है। मुखगुहा में अन्तर्ग्रहण के पश्चात अग्रचर्वणक (Premolars) तथा चवर्णक (Molars) दन्तों द्वारा भोजन को चबाया जाता है। दन्त, जीभ तथा पेशियों की सम्मिलित क्रिया द्वारा भोजन को मुँह में चबाया जाता है। जीभ भोजन को मुखगुहा में pH6-7 घुमाने की क्रिया में सहायता करती है। इस क्रिया में भोजन में लार मिलकर उसे अर्द्धठोस गोले में परिवर्तित कर देती है ज़िस वोलस या निवाला (Bolus) कहते हैं। मुखगुहिका में भोजन की उपस्थिति से उत्पन्न प्रतिवर्ती क्रिया (Reffax action) द्वारा चर्वणन क्रिया होती है।
2. पाचन (Digestion)-आहारनाल के विभिन्न भागों में पाचन की क्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है —
(a) मुखगुहिका में पाचन (Digestion in Buccal Cavity)-मुख गुहिका में लार (Saliva) मिश्रित होती है। लार का स्रावण लार ग्रन्थियों (Salivary glands) द्वारा होता है। लार का pH (6.8) (हल्का अम्लीय) होता है। लार में उपस्थित ऐमाइलेज एन्जाइम कार्बोहाइड्रेट का पाचन प्रारम्भ कर देता है। भोजन में उपस्थित स्टार्च अणुओं का जल अपघटन माल्टोस एवं α-सीमित डैक्सट्रिन में होता है। भोजन में उपस्थित अम्ल को उदासीन करने का कार्य लार में उपस्थित बाइकार्बोनेट आयन करते हैं। मुख गुहिका में भोजन अल्प समय तक रहता है, इसलिए मुख गुहिका में स्टॉर्च के आंशिक भाग का ही पाचन हो पाता है।
(b) आमाशय में पाचन (Digestion in stomach)-आमाशय में भोजन को क्रमाकुंचन तरंगों द्वारा मथा (Churning) जाता है तथा इसमें जठर रस (Gastric juice) मिलाया जाता है। आमाशय में भोजन लगभग 3-4 घण्टे रहता है। यहाँ प्रोटीन का आंशिक पाचन होता है। जठर रस में HC1, श्लेष्मा, पेप्सिनोजन तथा अल्प मात्रा में जठरीय लाइपेस (Gastric lipase) पाया जाता है। HC1 की उपस्थिति के कारण जठर रस अत्यधिक अम्लीय (pH 1-2) होता है। इससे भोजन का pH मान कम हो जाता है। कम pH पर लार के ऐमाइलेज एन्जाइम की क्रिया रुक जाती है। HC1 भोजन में उपस्थित जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। यह भोजन के कठोर अवयवों को गलाने का भी कार्य करता है। जठर रस में पेप्सिनोजन निष्क्रिय रूप में पाया जाता है। अर्थात् इसमें एन्जाइम सक्रियता उपस्थित नहीं होती है। HC1 निष्क्रिय पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन (Pepsin) में बदल देता है।
सक्रिय पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटियोस (Proteose), पेप्टोन एवं कुछ पोलिपेप्टाइडों में जल अपघटन कर देता है।
आमाशय में पेप्सिन प्रमुख प्रोटीन पाचक एन्जाइम है। मनुष्य में दूध को स्कन्दित करने वाला एन्जाइम रेनिन (Rennin) अनुपस्थित होता है। जठर लाइपेज वसा पाचन के लिए दुर्बल एन्जाइम होता है तथा यह वसा का अल्प पाचन कर पाता है। यह मक्खन में उपस्थित वसा (ट्राइव्यूटाइरीन) को वसीय अम्लों (Fatty acids) में पचा देता है। आमाशय में पाचन के पश्चात भोजन पतली लेई के समान पदार्थ काइम (Chyme) में परिवर्तित हो जाता है।
HC1 एक तीव्र अम्ल होने के बावजूद आमाशय भित्ति को अपघटित करके क्षति नहीं पहुँचाता है. क्योंकि आमाशय की भित्ति पर श्लेष्मा (Mucosa) का मोटा आवरण पाया जाता है। जिसे भेदकर HC1 आमाशय भित्ति की कोशिकाओं तक नहीं पहुँच पाता है तथा भित्ति को कोई क्षति नहीं पहुँचती है।
(c) छोटी आँत में पाचन (Digestion in small Intestinal)- आंशिक रूप से पची हुई प्रोटीन तथा कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन अम्लीय काइम (अर्द्धतरल) के रूप में थोड़ा-थोड़ा करके ग्रहणी में आता है। ग्रहणी में चूनर की ग्रन्थियाँ (Bruner’s glands) एन्जाइमरहित क्षारीय तरल (बाइकार्बोनेट युक्त) एवं अत्यधिक मात्रा में श्लेष्मा स्रावित करती हैं। यह . क्षारीय तरल (pH = 8-9) ग्रहणी की भित्ति की अम्लीय जठर रस से सुरक्षा करता है। ग्रहणी के अन्तर अग्नाशयी रस तथा पित्तरस भी आते हैं। अग्नाशयी रस और पित्त रस में उपस्थित बाइकार्बोनेट काइम को उदासीन करके इसकी अम्लीयता कम कर देते हैं।
आंत्र रस में अत्यधिक मात्रा में जल एवं विद्युत अपघट्य उपस्थित होते हैं। इसमें पाचक एन्जाइम लगभग अनुपस्थित होते हैं। यह हल्का क्षारीय (pH = 7:5 – 8) तरल होता है। आन्त्र ग्रन्थियों की ऐण्टेरोसाइट कोशिकाएँ (Enterocyte cells) द्वारा उत्पन्न पाचक एन्जाइम पाचन क्रिया को पूर्ण करते हैं। पाचन का अधिकांश कार्य ग्रहणी में ही पूर्ण हो जाता है जबकि आन्त्र के शेष भाग में अवशोषण क्रिया पूर्ण होती है। इसके लिए आन्त्र में लगभग 4-5 घण्टे तक भोजन बना रहता है।
पित्त लवण (पित्त अम्ल व सोडियम, पोटैशियम के लवण) तथा लेसीथिन वसा के पायसीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। ये प्राकृतिक अपमार्जक (Natural detergent) के रूप में कार्य करते है।
पित्त लवण एवं लेसीथिन अणुओं का एक भाग ध्रुवीय तथा दूसरा भाग अध्रुवीय होता है। अध्रुवीय भाग वसा गोलिकाओं की सतह में घुल
जाता है तथा ध्रुवीय भाग भोजन में उपस्थित जल में विलेय रहता है। इस क्रिया के कारण वसा गोलिकाओं का पृष्ठ तनाव (Surface tensiorn) कम हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप बड़ी वसा गोलिकाएँ छोटे आकार की (1 μm) वसा बूंदों में टूट जाती है। यह क्रिया वसा का पायसीकरण (Emulsification) कहलाती है। पायसीकृत वसा पर एन्जाइम तीव्रता से क्रिया करते हैं।
अग्नाशयी रस में प्रोटीन पाचक एन्जाइम ट्रिप्सिन, काइमोट्रिप्सिन, कार्बोक्सीपेप्टीडेस तथा इलैस्टेस उपस्थित होते हैं। इनका स्रावण निष्क्रिय रूप में होता है। सर्वप्रथम आन्त्र में उत्पन्न एन्जाइम ऐन्टेरोकाइनेज की सहायता से निष्कृय ट्रिप्सिनोजन का सक्रियण होता है। सक्रियण के पश्चात विभिन्न एन्जाइम निम्नवत पाचन क्रिया में भाग लेते हैं –
इलैस्टेस की सहातया से भोजन में उपस्थित इलास्टिन तंतुओं का पाचन किया जाता है।
अग्नाशयी एमाइलेज द्वारा स्टॉर्च, ग्लाइकोजन तथा अन्य कार्बोहाइड्रेट अणु जल अपघटित होकर माल्टोस तथा ऑलिगोसैकेराइड में परिवर्तित हो जाते हैं। यह अन्यन्त शक्तिशाली एन्जाइम है जो ग्रहणी में उपस्थित समस्त स्टॉर्च को लगभग आधा घण्टे में पचा देता है।
अग्नाशयी रस में लाइपेज एन्जाइम अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह एन्जाइम भोजन में उपस्थित समस्त ट्राइग्लिसराइड को कुछ मिनट में ही पचा देता है।
कोलेस्टेरॉल एस्टर एवं फॉस्फोलिपिड को जल अपघटित करके इनमें से वसीय अम्लों को पृथक कर देते हैं। राइबोन्यूक्लिऐज तथा डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिऐज क्रमशः RNA तथा DNA को जल अपघटित कर न्यूक्लिओटाइड्स में परिवर्तित कर देते हैं।
तालिका 22.1. मुख्य पाचक एन्जाइम व उनके क्रियाए:
3. पचित भोजन का अवशोषण (Absorption of digested food)-पचित भोजन (जैसे-खाद्य पदार्थों, विटामिनों, लवणों एवं जल) का आंत्र की उपला कोशिकाओं के माध्यम से रुधिर या लसिका में स्थानान्तरण की प्रक्रिया अवशोषण (Absorption) कहलाती है। अधिकांश पदार्थ छोटी आंत में अवशोषित होते हैं। वसा में घुलनशील कुछ पदार्थ, ऐल्कोहॉल तथा औषधि आदि का अवशोषण आमाशय में हो जाता है। जल का अवशोषण मुख्यत: वृहदांत्र में होता है।
अनेक वलनों, लाखों रसांकुरों एवं सूक्षमांकुरों की उपस्थिति से क्षुद्रांत्र श्लेष्मिका की अवशोषणकारी सतह का क्षेत्रफल लगभग 100 गुना बढ़ जाता है। श्लेष्मिका की उपकला कोशिकाओं में पाये जाने वाले सूक्ष्मांकुर मिलकर बुश बोर्डर (Brush Border) का निर्माण करते हैं। प्रत्येक रसांकुर में एक केन्द्रीय लसिका केशिका एवं रुधिर केशिकाएँ होती हैं। पाचन के अन्तिम उत्पाद
जो मुख्यत: अवशोषित होते हैं, वे मोनोसैकेराइड (ग्लूकोज, गैलेक्टोस, फ्रक्टोस), ऐमीनो अम्ल, मोनोग्लिसराइड एवं वसीय अम्ल हैं।
अवशोषण की मुख्य क्रियाविधियाँ सक्रिय अभिगमन (Active transport) तथा विसरण (Diffusion) हैं। ऐमीनो अम्लों तथा ग्लूकोज का अवशोषण सक्रिय अभिगमन द्वारा रुधिर में होता है।
वसा का अवशोषण वसीय अम्लों, मोनोग्लिसराइड एवं कोलेस्टेरॉल के रूप में विसरण द्वारा लसिका (Lymph) में होता है। पित्त अवशोषण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। वसाओं के साथ पित्त सूक्ष्म जटिल संरचनाएँ बनाता है। जिन्हें मिसेल (Micelles) कहते हैं। मिसेल काइम में विलेय होती हैं। प्रत्येक मिसेल वसा तथा पित्त लवणों की छोटी गोलाकार या बेलनाकार गोलियाँ होती हैं। जिनका व्यास 3 से 6 μm होता है। इन गोलिकाओं के केन्द्रीय भाग में वसीय अम्ल तथा मोनोग्लिसराइड होते हैं, जिसके चारों ओर पित्त लवण एकत्र हो जाते हैं। जब मिसेल सूक्ष्मांकुर (Microvilli) के समीप आती है तो इसमें वसा कोशिका झिल्ली में घुलनशील होने के कारण मिसेल से पृथक होकर कोशिका में विसरित हो जाती है। पित्त लवण काइम में रह जाते हैं तथा पुनः मिसेल का निर्माण करते हैं।
कोशिका में वसा अम्ल एवं मोनोग्लिसराइड चिकनी अन्त:प्रर्रव्यी जालिका में प्रवेश कर नयी ट्राइग्लिसराइड संश्लेषित करते हैं। इन ट्राइग्लिसराइड्स अणुओं को चारों ओर से प्रोटीन घेर लेती है। इस प्रकार लिपोप्रोटीन से बनी गोलिकाएँ काइलोमाइक्रॉन (व्यास 0.1 से 3.5 μm) कहलाती है। काइलोमाइक्रॉन बहिकोशिका लयन (Exocytosis) द्वारा बाहर निकलकर लसिका कोशिका में चली जाती हैं। ये लसिका तंत्र से होते हुए शिरा के रुधिर प्लाज्मा में पहुँच जाती हैं। प्लैज्मा में लिपोप्रोटीन लाइपेज की सहायता से इन्हें वसा अम्लों (Fatty acids) एवं मोनोग्लिसराइड (Monoglyceroid) में बदल दिया जाता है।
विटामिन व लवण सक्रिय या निष्क्रिय विधि से अवशोषित होते हैं। जल का अवशोषण केवल विसरण (Osmosis) द्वारा होता है। वृहद्रांत्र में जल व कुछ विटामिन (जैसे विटामिन k) अवशोषित होते हैं।
4. स्वांगीकरण (Assimilation)-अवशोषित खाद्य पदार्थ रुधिर द्वारा कोशिकाओं में पहुँच जाते हैं। कोशिकाओं में ऊर्जा हेतु इन पदार्थों का विघटन किया जाता है तथा विघटन से प्राप्त ऊर्जा का ATP के रूप में संचय कर लिया जाता है। खाद्य पदार्थों की अतिरिक्त मात्रा का ग्लाइकोजन या वसा के रूप में संचयय कर लिया जाता है। इन पदार्थों से शरीर के लिए आवश्यक नवीन पदार्थों-प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा आदि का संश्लेषण कर लिया जाता है। यकृत इन क्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।
5. बहिःक्षेपण (Egestion)-पाचन क्रिया के पश्चात् भोजन का अपचयित शेष भाग वृहदांत्र (Large intestine) में आता है। इसमें अनेक जीवाणु पाए जाते हैं जो उपचयित अवशेष में उपस्थित सेलुलोस का विघटन करते हैं। वृहदान्त्र का मुख्य कार्य जल अवशोषित करना तथा मल बनाना होता है कोलन (Colon) में अधिकांश जल अवशोषित हो जाता है तथा खनिज लवण अवशोषित हो जाते हैं। शेष बचा हुआ अपचयित भाग, श्लेष्मा मृत उपकला कोशिकाएँ, मृत जीवाणु, पित्तवर्णक (बिलरूविन) आदि मिलकर मल का निर्माण करते हैं।
लगभग 24 घण्टे में एक या दो बार मल विसर्जित किया जाता है। जब मल को मलाशय में इँकेला जाता है, तब मलाशय की भित्ति संकुचित होने पर मल पर दबाव पड़ता है। दबाव पड़ने पर अवरोधिनी (Sphincter) खुलती है तथा गुदा द्वारा मल बाहर त्याग दिया जाता है। मल विसर्जन की क्रिया तंत्रिका तन्त्र (Nervous System) द्वारा नियंत्रित होती है। तथा यह मल से परिपूर्ण वृहदान्त्र के निचले भाग के उद्दीपन से उत्पन्न प्रतिवर्ती अनुक्रिया (Reflex response) है। यह तभी होता है जब मलाशय की भित्ति पर मल को दोब एक निश्चित सीमा तक (लगभग 20 mm Hg) पहुँच जाता हैं का अध्ययन करें।
प्रश्न 4. मनुष्य में आंत्रीय पाचन का सविस्तार वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनुच्छेद मानव के पाचन तंत्र की क्रियाविधि (Mechanism of digestive system of human):
मानव की पाचन तन्त्र की क्रिया का अध्ययन निम्न चरणों में किया जाता
- अन्तर्ग्रहण (Ingestion),
- पाचन (Digestion),
- अवशोषण (Absorption),
- स्वांगीकरण (Assimilation) तथा
- बहिःक्षेपण (Egestion)
1. अन्तर्ग्रहण (Ingestion)–किसी भी जीवधारी तथा मानव द्वारा भोजन को शरीर के अन्दर ग्रहण करने की क्रिया अन्तर्ग्रहण (Ingestion) कहलाती है। मनुष्य एक सर्वाहारी (Omnivorous) प्राणी है। मानव में अन्तर्ग्रहण की क्रिया दो चरणों में पूर्ण होती है। प्रथम चरण में भोजन को चबाया जाता है तथा द्वितीय चरण में भोजन को निगलने की क्रिया होती है। कृन्तक (Incisors) दन्तों से भोजन को काटकर ग्रहण किया जाता है। मुखगुहा में अन्तर्ग्रहण के पश्चात अग्रचर्वणक (Premolars) तथा चवर्णक (Molars) दन्तों द्वारा भोजन को चबाया जाता है। दन्त, जीभ तथा पेशियों की सम्मिलित क्रिया द्वारा भोजन को मुँह में चबाया जाता है। जीभ भोजन को मुखगुहा में pH6-7 घुमाने की क्रिया में सहायता करती है। इस क्रिया में भोजन में लार मिलकर उसे अर्द्धठोस गोले में परिवर्तित कर देती है ज़िस वोलस या निवाला (Bolus) कहते हैं। मुखगुहिका में भोजन की उपस्थिति से उत्पन्न प्रतिवर्ती क्रिया (Reffax action) द्वारा चर्वणन क्रिया होती है।
2. पाचन (Digestion)-आहारनाल के विभिन्न भागों में पाचन की क्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है —
(a) मुखगुहिका में पाचन (Digestion in Buccal Cavity)-मुख गुहिका में लार (Saliva) मिश्रित होती है। लार का स्रावण लार ग्रन्थियों (Salivary glands) द्वारा होता है। लार का pH (6.8) (हल्का अम्लीय) होता है। लार में उपस्थित ऐमाइलेज एन्जाइम कार्बोहाइड्रेट का पाचन प्रारम्भ कर देता है। भोजन में उपस्थित स्टार्च अणुओं का जल अपघटन माल्टोस एवं 0-सीमित डैक्सट्रिन में होता है। भोजन में उपस्थित अम्ल को उदासीन करने का कार्य लार में उपस्थित बाइकार्बोनेट आयन करते हैं। मुख गुहिका में भोजन अल्प समय तक रहता है, इसलिए मुख गुहिका में स्टॉर्च के आंशिक भाग का ही पाचन हो पाता है।
(b) आमाशय में पाचन (Digestion in stomach)-आमाशय में भोजन को क्रमाकुंचन तरंगों द्वारा मथा (Churning) जाता है तथा इसमें जठर रस (Gastric juice) मिलाया जाता है। आमाशय में भोजन लगभग 3-4 घण्टे रहता है। यहाँ प्रोटीन का आंशिक पाचन होता है। जठर रस में HC1, श्लेष्मा, पेप्सिनोजन तथा अल्प मात्रा में जठरीय लाइपेस (Gastric lipase) पाया जाता है। HC1 की उपस्थिति के कारण जठर रस अत्यधिक अम्लीय (pH 1-2) होता है। इससे भोजन का pH मान कम हो जाता है। कम pH पर लार के ऐमाइलेज एन्जाइम की क्रिया रुक जाती है। HC1 भोजन में उपस्थित जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। यह भोजन के कठोर अवयवों को गलाने का भी कार्य करता है। जठर रस में पेप्सिनोजन निष्क्रिय रूप में पाया जाता है। अर्थात् इसमें एन्जाइम सक्रियता उपस्थित नहीं होती है। HC1 निष्क्रिय पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन (Pepsin) में बदल देता है।
सक्रिय पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटियोस (Proteose), पेप्टोन एवं कुछ पोलिपेप्टाइडों में जल अपघटन कर देता है।
आमाशय में पेप्सिन प्रमुख प्रोटीन पाचक एन्जाइम है। मनुष्य में दूध को स्कन्दित करने वाला एन्जाइम रेनिन (Rennin) अनुपस्थित होता है। जठर लाइपेज वसा पाचन के लिए दुर्बल एन्जाइम होता है तथा यह वसा का अल्प पाचन कर पाता है। यह मक्खन में उपस्थित वसा (ट्राइव्यूटाइरीन) को वसीय अम्लों (Fatty acids) में पचा देता है। आमाशय में पाचन के पश्चात भोजन पतली लेई के समान पदार्थ काइम (Chyme) में परिवर्तित हो जाता है।
HC1 एक तीव्र अम्ल होने के बावजूद आमाशय भित्ति को अपघटित करके क्षति नहीं पहुँचाता है. क्योंकि आमाशय की भित्ति पर श्लेष्मा (Mucosa) का मोटा आवरण पाया जाता है। जिसे भेदकर HC1 आमाशय भित्ति की कोशिकाओं तक नहीं पहुँच पाता है तथा भित्ति को कोई क्षति नहीं पहुँचती है।
(c) छोटी आँत में पाचन (Digestion in small Intestinal)- आंशिक रूप से पची हुई प्रोटीन तथा कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन अम्लीय काइम (अर्द्धतरल) के रूप में थोड़ा-थोड़ा करके ग्रहणी में आता है। ग्रहणी में चूनर की ग्रन्थियाँ (Bruner’s glands) एन्जाइमरहित क्षारीय तरल (बाइकार्बोनेट युक्त) एवं अत्यधिक मात्रा में श्लेष्मा स्रावित करती हैं। यह . क्षारीय तरल (pH = 8-9) ग्रहणी की भित्ति की अम्लीय जठर रस से सुरक्षा करता है। ग्रहणी के अन्तर अग्नाशयी रस तथा पित्तरस भी आते हैं। अग्नाशयी रस और पित्त रस में उपस्थित बाइकार्बोनेट काइम को उदासीन करके इसकी अम्लीयता कम कर देते हैं।
आंत्र रस में अत्यधिक मात्रा में जल एवं विद्युत अपघट्य उपस्थित होते हैं। इसमें पाचक एन्जाइम लगभग अनुपस्थित होते हैं। यह हल्का क्षारीय (pH = 7:5 – 8) तरल होता है। आन्त्र ग्रन्थियों की ऐण्टेरोसाइट कोशिकाएँ (Enterocyte cells) द्वारा उत्पन्न पाचक एन्जाइम पाचन क्रिया को पूर्ण करते हैं। पाचन का अधिकांश कार्य ग्रहणी में ही पूर्ण हो जाता है जबकि आन्त्र के शेष भाग में अवशोषण क्रिया पूर्ण होती है। इसके लिए आन्त्र में लगभग 4-5 घण्टे तक भोजन बना रहता है।
पित्त लवण (पित्त अम्ल व सोडियम, पोटैशियम के लवण) तथा लेसीथिन वसा के पायसीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। ये प्राकृतिक अपमार्जक (Natural detergent) के रूप में कार्य करते है।
पित्त लवण एवं लेसीथिन अणुओं का एक भाग ध्रुवीय तथा दूसरा | भाग अध्रुवीय होता है। अध्रुवीय भाग वसा गोलिकाओं की सतह में घुल
जाता है तथा ध्रुवीय भाग भोजन में उपस्थित जल में विलेय रहता है। इस क्रिया के कारण वसा गोलिकाओं का पृष्ठ तनाव (Surface tensiorn) कम हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप बड़ी वसा गोलिकाएँ छोटे आकार की (1 μm) वसा बूंदों में टूट जाती है। यह क्रिया वसा का पायसीकरण (Emulsification) कहलाती है। पायसीकृत वसा पर एन्जाइम तीव्रता से क्रिया करते हैं।
अग्नाशयी रस में प्रोटीन पाचक एन्जाइम ट्रिप्सिन, काइमोट्रिप्सिन, कार्बोक्सीपेप्टीडेस तथा इलैस्टेस उपस्थित होते हैं। इनका स्रावण निष्क्रिय रूप में होता है। सर्वप्रथम आन्त्र में उत्पन्न एन्जाइम ऐन्टेरोकाइनेज की सहायता से निष्कृय ट्रिप्सिनोजन का सक्रियण होता है। सक्रियण के पश्चात विभिन्न एन्जाइम निम्नवत पाचन क्रिया में भाग लेते हैं –
इलैस्टेस की सहातया से भोजन में उपस्थित इलास्टिन तंतुओं का पाचन किया जाता है।
अग्नाशयी एमाइलेज द्वारा स्टॉर्च, ग्लाइकोजन तथा अन्य कार्बोहाइड्रेट अणु जल अपघटित होकर माल्टोस तथा ऑलिगोसैकेराइड में परिवर्तित हो जाते हैं। यह अन्यन्त शक्तिशाली एन्जाइम है जो ग्रहणी में उपस्थित समस्त स्टॉर्च को लगभग आधा घण्टे में पचा देता है।
अग्नाशयी रस में लाइपेज एन्जाइम अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह एन्जाइम भोजन में उपस्थित समस्त ट्राइग्लिसराइड को कुछ मिनट में ही पचा देता है।
कोलेस्टेरॉल एस्टर एवं फॉस्फोलिपिड को जल अपघटित करके इनमें से वसीय अम्लों को पृथक कर देते हैं। राइबोन्यूक्लिऐज तथा डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिऐज क्रमशः RNA तथा DNA को जल अपघटित कर न्यूक्लिओटाइड्स में परिवर्तित कर देते हैं।
तालिका 22.1. मुख्य पाचक एन्जाइम व उनके क्रियाए:
3. पचित भोजन का अवशोषण (Absorption of digested food)-पचित भोजन (जैसे-खाद्य पदार्थों, विटामिनों, लवणों एवं जल) का आंत्र की उपला कोशिकाओं के माध्यम से रुधिर या लसिका में स्थानान्तरण की प्रक्रिया अवशोषण (Absorption) कहलाती है। अधिकांश पदार्थ छोटी आंत में अवशोषित होते हैं। वसा में घुलनशील कुछ पदार्थ, ऐल्कोहॉल तथा औषधि आदि का अवशोषण आमाशय में हो जाता है। जल का अवशोषण मुख्यत: वृहदांत्र में होता है।
अनेक वलनों, लाखों रसांकुरों एवं सूक्षमांकुरों की उपस्थिति से क्षुद्रांत्र श्लेष्मिका की अवशोषणकारी सतह का क्षेत्रफल लगभग 100 गुना बढ़ जाता है। श्लेष्मिका की उपकला कोशिकाओं में पाये जाने वाले सूक्ष्मांकुर मिलकर बुश बोर्डर (Brush Border) का निर्माण करते हैं। प्रत्येक रसांकुर में एक केन्द्रीय लसिका केशिका एवं रुधिर केशिकाएँ होती हैं। पाचन के अन्तिम उत्पाद
जो मुख्यत: अवशोषित होते हैं, वे मोनोसैकेराइड (ग्लूकोज, गैलेक्टोस, फ्रक्टोस), ऐमीनो अम्ल, मोनोग्लिसराइड एवं वसीय अम्ल हैं।
अवशोषण की मुख्य क्रियाविधियाँ सक्रिय अभिगमन (Active transport) तथा विसरण (Diffusion) हैं। ऐमीनो अम्लों तथा ग्लूकोज का अवशोषण सक्रिय अभिगमन द्वारा रुधिर में होता है।
वसा का अवशोषण वसीय अम्लों, मोनोग्लिसराइड एवं कोलेस्टेरॉल के रूप में विसरण द्वारा लसिका (Lymph) में होता है। पित्त अवशोषण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। वसाओं के साथ पित्त सूक्ष्म जटिल संरचनाएँ बनाता है। जिन्हें मिसेल (Micelles) कहते हैं। मिसेल काइम में विलेय होती हैं। प्रत्येक मिसेल वसा तथा पित्त लवणों की छोटी गोलाकार या बेलनाकार गोलियाँ होती हैं। जिनका व्यास 3 से 6 μm होता है। इन गोलिकाओं के केन्द्रीय भाग में वसीय अम्ल तथा मोनोग्लिसराइड होते हैं, जिसके चारों ओर पित्त लवण एकत्र हो जाते हैं। जब मिसेल सूक्ष्मांकुर (Microvilli) के समीप आती है तो इसमें वसा कोशिका झिल्ली में घुलनशील होने के कारण मिसेल से पृथक होकर कोशिका में विसरित हो जाती है। पित्त लवण काइम में रह जाते हैं तथा पुनः मिसेल का निर्माण करते हैं।
कोशिका में वसा अम्ल एवं मोनोग्लिसराइड चिकनी अन्त:प्रर्रव्यी जालिका में प्रवेश कर नयी ट्राइग्लिसराइड संश्लेषित करते हैं। इन ट्राइग्लिसराइड्स अणुओं को चारों ओर से प्रोटीन घेर लेती है। इस प्रकार लिपोप्रोटीन से बनी गोलिकाएँ काइलोमाइक्रॉन (व्यास 0.1 से 3.5 μm) कहलाती है। काइलोमाइक्रॉन बहिकोशिका लयन (Exocytosis) द्वारा बाहर निकलकर लसिका कोशिका में चली जाती हैं। ये लसिका तंत्र से होते हुए शिरा के रुधिर प्लाज्मा में पहुँच जाती हैं। प्लैज्मा में लिपोप्रोटीन लाइपेज की सहायता से इन्हें वसा अम्लों (Fatty acids) एवं मोनोग्लिसराइड (Monoglyceroid) में बदल दिया जाता है।
विटामिन व लवण सक्रिय या निष्क्रिय विधि से अवशोषित होते हैं। जल का अवशोषण केवल विसरण (Osmosis) द्वारा होता है। वृहद्रांत्र में जल व कुछ विटामिन (जैसे विटामिन k) अवशोषित होते हैं।
4. स्वांगीकरण (Assimilation)-अवशोषित खाद्य पदार्थ रुधिर द्वारा कोशिकाओं में पहुँच जाते हैं। कोशिकाओं में ऊर्जा हेतु इन पदार्थों का विघटन किया जाता है तथा विघटन से प्राप्त ऊर्जा का ATP के रूप में संचय कर लिया जाता है। खाद्य पदार्थों की अतिरिक्त मात्रा का ग्लाइकोजन या वसा के रूप में संचयय कर लिया जाता है। इन पदार्थों से शरीर के लिए आवश्यक नवीन पदार्थों-प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा आदि का संश्लेषण कर लिया जाता है। यकृत इन क्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।
5. बहिःक्षेपण (Egestion)-पाचन क्रिया के पश्चात् भोजन का अपचयित शेष भाग वृहदांत्र (Large intestine) में आता है। इसमें अनेक जीवाणु पाए जाते हैं जो उपचयित अवशेष में उपस्थित सेलुलोस का विघटन करते हैं। वृहदान्त्र का मुख्य कार्य जल अवशोषित करना तथा मल बनाना होता है कोलन (Colon) में अधिकांश जल अवशोषित हो जाता है तथा खनिज लवण अवशोषित हो जाते हैं। शेष बचा हुआ अपचयित भाग, श्लेष्मा मृत उपकला कोशिकाएँ, मृत जीवाणु, पित्तवर्णक (बिलरूविन) आदि मिलकर मल का निर्माण करते हैं।
लगभग 24 घण्टे में एक या दो बार मल विसर्जित किया जाता है। जब मल को मलाशय में इँकेला जाता है, तब मलाशय की भित्ति संकुचित होने पर मल पर दबाव पड़ता है। दबाव पड़ने पर अवरोधिनी (Sphincter) खुलती है तथा गुदा द्वारा मल बाहर त्याग दिया जाता है। मल विसर्जन की क्रिया तंत्रिका तन्त्र (Nervous System) द्वारा नियंत्रित होती है। तथा यह मल से परिपूर्ण वृहदान्त्र के निचले भाग के उद्दीपन से उत्पन्न प्रतिवर्ती अनुक्रिया (Reflex response) है। यह तभी होता है जब मलाशय की भित्ति पर मल को दोब एक निश्चित सीमा तक (लगभग 20 mm Hg) पहुँच जाता हैं का अध्ययन करें का अध्ययन करें।