सातवाहन काल | Satavahana period
सातवाहन काल | Satavahana period
सातवाहन काल
राजनीतिक इतिहास
उत्तरी क्षेत्र में मौर्य साम्राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण उत्तराधिकारी शुंग थे और उसके बाद कण्व। दक्कन और मध्य भारत में, मौर्यों के बाद सातवाहन का शासन लगभग 100 वर्षों के अन्तराल के बाद आया। सातवाहन को पुराणों में उल्लिखित आन्ध्रवासी
सातवाहन ही माना जाता है। पुराणों में केवल आन्ध्र शासन का ही उल्लेख है, सातवाहन शासन का नहीं और सातवाहन अभिलेखों में आन्ध्र नाम नहीं है। दक्कन में कई जगहों पर पाए जाने वाले लाल, काले एवं लाल और गेरू रंग से रंगे हुए बर्तनों से सातवाहन से पूर्व बसी हुई बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं। इनमें से अधिकांश का सम्बन्ध लोहे का उपयोग करने वाले उन महापाषाण कालीन निर्माताओं से है, जो उत्तर की संस्कृतियों के सम्पर्क में आने से नए आविष्कारों एवं कलाओं को सीख रहे थे। लोहे का हल, धान की रोपाई, नगरों का विकास, लिखने की कला आदि ने सातवाहनों के लिए राज्य के गठन हेतु अनुकूल स्थितियाँ बनाईं। पुराणों के अनुसार, आन्ध्रवासियों ने 300 वर्षों तक शासन किया था, हालाँकि यही अवधि सातवाहन वंश के शासन की भी मानी जाती है। सातवाहन के प्राचीन अभिलेख ई.पू. पहली शताब्दी से सम्बन्धित हैं, जब उन्होंने कण्वों को हराकर मध्य भारत के कुछ हिस्सों में सत्ताएँ स्थापित कीं। इन सातवाहन राजाओं ने न सिर्फ आन्ध्र में बल्कि उत्तरी महाराष्ट्र तक अपना राज्य स्थापित किया। वहाँ पाए गए सिक्कों एवं अभिलेखों से ऊपरी गोदावरी घाटी में उनकी सत्ता के प्रमाण मिलते हैं। वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के इस क्षेत्र में विविध फसलों का प्रचुर उत्पादन होता है। धीरे-धीरे सातवाहनों ने कर्नाटक और आन्ध्र तक अपनी शक्ति का विस्तार किया।
उस समय ऊपरी दक्कन और पश्चिमी भारत में शासन कर रहे शक उनके सबसे बड़े प्रतिद्वन्द्वी थे। एक समय ऐसा भी आया जब शकों ने सातवाहन को महाराष्ट्र और पश्चिमी भारत में पड़ने वाले उनके राज्य क्षेत्रों से भी वंचित कर दिया। बाद में गौतमीपुत्र सतकर्णी (सन् 106-30) ने उन क्षेत्रों में विजय हासिल कर इस गौरव को पुनः वापस लाया। वे स्वयं को एक ब्राह्मण कहते थे। उन्होंने शकों को हराया और कई क्षत्रिय शासकों का भी विनाश किया। उन्होने अपने प्रतिद्वंदी नहपान, जो कि क्षहरत वंश के थे, का भी विनाश का दावा किया। नासिक के पास पाए गए नहपान के 8000 चाँदी के सिक्कों को सातवाहन राजा द्वारा फिर से जारी किए जाने के प्रमाण नहपान के दावों की पुष्टि करते हैं। इसके अलावा उन्होंने मालवा और काठियावाड़ पर भी कब्जा कर जो कि शकों के नियंत्रण में था। प्रतीत होता है कि गौतमीपुत्र सतकर्णी का साम्राज्य उत्तर में मालवा और दक्षिण में कर्नाटक तक फैला था। सम्भवतः आन्ध्र पर भी उनका अधिकार था।
गौतमीपुत्र के उत्तराधिकारियों ने सन् 220 तक शासन किया। वशिष्ठिपुत्र पुलुमयी (सन् 130-54) के शासनकाल के सिक्के और अभिलेख आन्ध्र में पाए गए हैं। इससे पता चलता है कि दूसरी शताब्दी के मध्य तक यह क्षेत्र सातवाहन साम्राज्य का हिस्सा
बन गया था। पुलुमयी ने औरंगाबाद जिले में गोदावरी तट पर पैठान या प्रतिष्ठान में अपनी राजधानी बनाई। शकों ने कोंकण तट और मालवा पर कब्जे के लिए सातवाहनों के साथ फिर से संघर्ष शुरू किया। परिणामस्वरूप सौराष्ट्र (काठियावाड़) के शक शासक, रुद्रदमन प्रथम (सन् 130-50), ने सातवाहनों को दो बार हराया, लेकिन वैवाहिक सम्बन्धों के कारण उन्हें पूर्णत: नष्ट नहीं किया। बाद में सातवाहन राजवंश के अन्तिम महान राजा यज्ञ श्री सतकर्णी (सन् 165-94) ने शक शासकों से उत्तर कोंकण और मालवा को पुन: जीत लिया। उन्हें व्यापार और यात्राएँ पसंद थीं। उनके सिक्के न केवल आन्ध्र में बल्कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में भी मिलते हैं। नई-नई यात्राओं और विदेशी व्यापार के प्रति उनके लगाव को उनके सिक्कों पर अंकित जहाज के चित्रों द्वारा आसानी से समझा जा सकता है।
अन्तत: यज्ञ श्री सतकर्णी के उत्तराधिकारी सातवाहन साम्राज्य को आगे बनाए रखने में असमर्थ साबित हुए जिससे सन् 220 तक इस साम्राज्य का अन्त हो गया।
भौतिक संस्कृति के आयाम
सातवाहन काल में दक्कन के संस्कृतिक जीवन में स्थानीय तत्त्वों के साथ ही उत्तर में प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं का भी मिश्रण मिलता है। दक्कन के महापाषाण निर्माता लोहे और कृषि के उपयोग से भली-भाँति परिचित हो चुके थे। यद्यपि ई.पू. 200 पूर्व से ही हमें कुछ लोहे के कुदाल मिलते हैं और ईसा के प्रारम्भिक दो या तीन शताब्दियों में इस तरह के औजारों की संख्या काफी बढ़ गई। हमें महापाषाण से सातवाहन काल तक कुदाल के रूपों में बहुत बदलाव नहीं मिलता, सिवाय इसके कि उत्तरार्द्ध में कुदाल पर पूरी तरह से मूठ का प्रयोग होने लगा था। मूठ वाले कुदाल के अतिरिक्त हँसिया, फावड़ा, हल, कुल्हाड़ी, बसूले, उस्तरा इत्यादि भी सातवाहन परतों के उत्खनन स्थल से मिले हैं। जिसमें नुकीले और मूठ वाले तीर और खंजर भी पाए गए हैं।
यहाँ तक कि करीमनगर जिले में एक जगह पर लोहे की दुकान के भी साक्ष्य मिलते हैं। सम्भवतः सातवाहनों ने करीमनगर और वारंगल के लौह अयस्कों का भरपूर उपयोग किया होगा, क्योंकि ई.पू. पहली शताब्दी के महापाषाण काल में इन क्षेत्रों में लोहे के काम के संकेत मिलते हैं। जबकि ईसा पूर्व एवं उत्तरकालीन शताब्दियों में कोलार क्षेत्र में प्राचीन सोने के काम के प्रमाण मिले हैं। सातवाहनों ने सोने का इस्तेमाल बहुमूल्य धातु के रूप में ही किया होगा, उन्होंने कुषाण की तरह सोने के सिक्के जारी करने के बजाय सामान्यत: सीसे के सिक्के जारी किए, जो दक्कन से प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा उन्होंने पोटिन, ताम्बे और काँसे के पैसे भी जारी किए। पूर्वी दक्कन में तीसरी शताब्दी के प्रारम्भ में सातवाहन के बाद आए इक्ष्वाकुओं ने भी सिक्के जारी किए। प्रतीत होता है कि सातवाहन और इक्ष्वाकु दोनों ने ही दक्कन के खनिज संसाधनों का दोहन किया।
दक्कन के लोग धान की रोपाई की कला से अवगत थे। ईसा की पहली दो शताब्दियों में, कृष्णा और गोदावरी के बीच का डेल्टाई क्षेत्र, चावल का विशाल भण्डार बन गया था। यहाँ के लोग कपास का भी उत्पादन करते थे। विदेशी दस्तावेजों में आन्ध्र को कपास उत्पादन के लिए प्रसिद्ध बताया गया है। इस प्रकार, दक्कन के इस महत्त्वपूर्ण हिस्से में बहुत उन्नत ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित हुई। प्लिनी के अनुसार, आन्ध्र राज्य के पास 1,00,000 पैदल सेना, 2000 घुड़सवार और 1000 हाथी थे। इससे वहाँ पर एक बड़ी ग्रामीण आबादी का अनुमान लगाया जा सकता है और जाहिर है कि इतनी बड़ी सैन्य शक्ति को बनाए रखने के लिए वहाँ के किसान पर्याप्त उत्पादन करते रहे होंगे।
उत्तर के संपर्क में आने से, दक्कन के लोगों ने सिक्कों, पकी ईंटों, गोल कुओं, लेखन कला इत्यादि का उपयोग भी सीखा लिया। और सामान्य जीवन में भी इनका महत्त्व काफी बढ़ गया। करीमनगर जिले के पेद्दबाँकुर में (ई.पू. 200–सन् 200), आग में पकी हुई ईंटों एवं चपटे, छेद वाले खपड़ों का नियमित उपयोग दिखता है। हालाँकि छत के खपड़े कुषाण निर्माण काल से ही पाए जाने के प्रमाण मिलते हैं, किन्तु दक्कन और पश्चिमी भारत में इनका व्यापक प्रयोग सातवाहन काल में ही हुआ। इनके प्रयोग से निर्मित विभिन्न संरचनाएँ निश्चित ही अधिक टिकाऊ साबित हुई होंगी। उल्लेखनीय है कि पेद्दबाँकुर में दूसरी शताब्दी में निर्मित ईंटों की दीवार वाले बाईस कुएँ मिले हैं जिससे सम्भवत: घनी बस्तियों के विकास में सुविधा हुई होगी। इसके अतिरिक्त इन जगहों पर भूमिगत नालियाँ भी मिली हैं, जो गन्दे पानी को गड्ढे तक पहुंचाती थीं। इसी प्रकार ई.पू. पहली शताब्दी में कई शिल्प मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि इसी समय महाराष्ट्र में नगर विकसित हुए होंगे; जबकि पूर्वी दक्कन में ऐसा विकास शताब्दी भर बाद हुआ। अभिलेखों एवं उत्खननों के आधार पर प्लीनी लिखते हैं कि पूर्वी दक्कन एवं आन्ध्र में कई गाँवों के अलावा दूसरी और तीसरी शताब्दी के, दीवारों से घिरे तीस शहर भी मिले हैं। बहुतायत में मिले रोमन और सातवाहन सिक्के बढ़ते व्यापार के संकेत देते हैं, जो पूर्वी दक्कन में गोदावरी-कृष्णा क्षेत्र में एक शताब्दी बाद आया।
सामाजिक संस्था
प्रतीत होता है कि सातवाहन मूल रूप से दक्कनी कबीलाई लोग थे। हालाँकि वे ब्राह्मण होने का दावा करते थे। उनके सबसे प्रसिद्ध राजा गौतमीपुत्र सतकर्णी ने भी खट को ब्राह्मण ही बताया था उसने दावा किया कि उसने अव्यवस्थित हो गई चातुर्वर्ण (चार वर्णों वाली) व्यवस्था को पुनः स्थापित कर विभिन्न सामाजिक वर्गों के सम्मिश्रण को भी रोका है। सामाजिक श्रेणियों या वर्गों के मिश्रण का भ्रम सम्भवत: ब्राह्मण समाज के अंदर क्षत्रिय रूप में शकों का समावेश, शकों एवं सातवाहनों के अन्तर्विवाह और दक्कन में रहने वाले कबीलों के ब्राह्मणीकरण द्वारा पैदा हुआ होगा। इसी प्रकार, बौद्ध भिक्षुओं ने भी स्थानीय कबीलाई लोगों का तेजी से बौद्धीकरण किया, जो भूमि के लालच में पश्चिमी दक्कन में बस गए। माना जाता है कि व्यापारियों ने भी बौद्ध भिक्षुओं का समर्थन किया, क्योंकि प्राचीनतम बौद्ध गुफाएँ व्यापार मार्ग पर स्थित दिखी हैं। सातवाहन, ब्राह्मणों को
भूमि अनुदान देने वाले पहले शासक थे, हालाँकि बौद्ध भिक्षुओं के लिए भी ऐसे अनुदानों के उदाहरण मिलते हैं।
शासन करना, धर्मशास्त्रों के अनुसार क्षत्रिय का काम है, लेकिन सातवाहन, शासक होते हुए भी खुद को ब्राह्मण कहते थे। गौतमीपुत्र तो गर्व से कहता था कि वही असली ब्राह्मण है। चूँकि आन्ध्रों को ही प्राचीन सातवाहन के रूप में माना गया है इसलिए सम्भव है कि वे स्थानीय लोग थे जिन्हें ब्राह्मण बना लिया गया था। इसीलिए उत्तर के रूढ़िवादी ब्राह्मण, आन्ध्र ब्राह्मणों को मिश्रित जाति का मानकर अपने से निम्न समझते थे, जिसका अर्थ था कि आन्ध्र, कबीलाई लोग थे, जिन्हें एक मिश्रित जाति के रूप में ब्राह्मण समाज के अन्दर लाया गया था।
इस काल में शिल्प और वाणिज्य के बढ़ने से कई व्यापारी और कारीगर सामने आए। व्यापारी जिस कस्बे के होते थे, उसके नाम पर आधारित अपना नाम रखने में गौरवान्वित होते थे। कारीगर और व्यापारी-दोनों बौद्ध धर्म के लिए उदारतापूर्वक दान देते थे। उन्होंने छोटे-छोटे स्मारक भी बनवाए। कारीगरों के बीच, गन्धिकाओं या इत्र निर्माताओं का दाताओं के रूप में बार-बार उल्लेख मिलता है। बाद में, गन्धिका शब्द इतना सामान्य हो गया कि उसका तात्पर्य कोई भी दुकानदार करने लगे। आधुनिक कुलनाम गाँधी इसी प्राचीन शब्द से लिया गया है। सातवाहनों का सबसे दिलचस्प वर्णन उनकी पारिवारिक ढांचे के बारे में है। उत्तर भारत के आर्य समाज में, पिता माँ से अधिक महत्त्वपूर्ण था और उत्तर भारतीय राजा समान्यतः पितृसत्तात्मक समाज से सम्बन्धित थे। जबकि सातवाहनों में मातृवंशीय सामाजिक संरचना के संकेत मिलते हैं। माँ के नाम पर राजा के नामकरण की प्रथा थी। गौतमीपुत्र और वशिष्ठिपुत्र जैसे नामों से स्पष्ट है कि उनके समाज में माँ की अधिक महत्ता थी। कभी-कभी राजा और उसकी माँ दोनों के नाम पर अभिलेख जारी किए जाते थे। वर्तमान में, प्रायद्वीपीय भारत में, पुत्र के नाम में पिता के नाम का अंश होता है और इसमें माँ का आंशिक नाम नहीं होता था, जो पितृसत्तात्मक प्रभाव का सूचक है। जबकि यहाँ रानियों ने स्वयं ही अधिकार पूर्वक बड़े-बड़े धार्मिक उपहार दिए। उनमें से कुछ ने तो राजा के प्रतिनिधि के रूप में भी राज्य किया। बावजूद इसके, सातवाहन राजकुल मूल रूप से पितृसत्तात्मक था, क्योंकि सिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही माना जाता था।
प्रशासन का स्वरूप
सातवाहन शासकों ने धर्मशास्त्रों में बताए गए शाही आदर्शों को लागू करने का प्रयास किया। राजा को धर्म का संरक्षक और अलौकिक शक्तियों से दक्ष माना जाता था। सातवाहन राजाओं को राम, भीम, केशव और अर्जुन जैसे पौराणिक नायकों के गुणों से युक्त प्राचीन देवताओं का प्रतीक कहा गया जिसका स्पष्ट उद्देश्य सातवाहन राजाओं को दैवीय सिद्ध करना रहा होगा।
सातवाहनों ने अशोक के काल में पाई जाने वाली कई प्रशासनिक इकाइयों को यथावत बनाए रखा। उनके जिलों को भी आहार कहा जाता था, जैसा कि अशोक के समय में था; और मौर्य काल की,तरह ही उनके अधिकारी अमात्य और महामात्य कहलाते थे। हालाँकि उनके प्रशासनिक विभागों को राष्ट्र और उनके उच्च अधिकारियों को महाराष्ट्रिक कहा जाता था।
सातवाहनों के प्रशासन में कुछ खास सैनिक और सामन्ती लक्षण पाए गए हैं। यह उल्लेखनीय है कि सेनापति की नियुक्ति प्रान्त के राज्यपाल या शासनाध्यक्ष के रूप में होती थी। चूँकि दक्कन में कबीलाई लोगों का भली-भाँति ब्राह्मणीकरण नहीं हुआ था और वे नए नियमों के अनुकूल बर्ताव भी नहीं करते थे, इसलिए उन्हें मजबूत सैन्य नियन्त्रण में रखना जरूरी हो गया था। ग्रामीण इलाकों में प्रशासन का काम-काज, गौल्मिका को सौंपा जाता था, गौल्मिका सेना की एक टुकड़ी का प्रधान होता था, जिसमें नौ रथ, नौ हाथी, पच्चीस घोडे और पैंतालिस पैदल सैनिक होते थे। इस टुकड़ी की तैनाती ग्रामीण इलाकों में शान्ति
और व्यवस्था बनाए रखने के लिए की जाती थी।
सातवाहनों के अभिलेखों में कटक और स्कन्दवर जैसे पदों के सामान्य प्रयोग शासन के सैनिक चरित्र को उजागर करते हैं। ये सैन्य शिविर एवं बस्तियाँ, राजा के आने पर प्रशासनिक केन्द्रों के रूप में कार्य करती थीं। सातवाहन प्रशासन में दमन की नीति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर-मुक्त गाँव प्रदान करने की प्रथा सातवाहनों ने शुरू
की के हस्तक्षेपों से मुक्त घोषित कर दिए गए। फलस्वरूप, सातवाहन साम्राज्य में ऐसे क्षेत्र इन्हें दिए गए खेत एवं गाँव, पुलिसकर्मियों, सैनिकों और अन्य राजकीय अधिकारियों छोटे-छोटे स्वतन्त्र द्वीप जैसे बन गए। बौद्ध भिक्षु जहाँ रहते थे, वहाँ के लोगों के बीच उन्होंने शान्ति और अच्छे आचरण के अनुसरण का उपदेश दिया तथा राजकीय अधिकारियों एवं सामाजिक व्यवस्था का सम्मान करना भी सिखाया। निश्चित रूप से, ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था लागू करने में मदद की, जिससे सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा मिला। सातवाहन साम्राज्य में सामन्तों को तीन अलग-अलग श्रेणियों में कार्य क्षेत्र का बंटवारा होता था। सबसे श्रेष्ठ सामन्त राजा होते थे, जिन्हें सिक्कों के नियन्त्रण का अधिकार था। द्वितीय श्रेणी में महाभोज और तृतीय श्रेणी में सेनापति थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इन सामन्तों को अपने-अपने इलाकों में कुछ विशेषाधिकार हासिल थे।
धर्म
सातवाहन शासक ब्राह्मण थे और विजयी ब्राह्मणवाद के प्रतीक भी। प्रारम्भ से ही, राजा और रानियाँ अश्वमेध और वाजपेय जैसे वैदिक बलि का आयोजन ब्राह्मणों को दान देकर करते थे। वे बड़ी संख्या में कृष्ण और वासुदेव जैसे वैष्णव देवताओं की पूजा भी करते थे। फिर भी सातवाहन शासकों ने भिक्षुओं को भूमिदान कर बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया। उनके राज्य में, बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय को बहुत लोग मानने वाले थे, खासकर कारीगर वर्ग। सातवाहन शासन में, विशेषकर उनके उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के समय, आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनकोण्डा और अमरावती बौद्ध संस्कृति के मुख्य केन्द्र बन गए। इसी प्रकार, बौद्ध धर्म महाराष्ट्र में पश्चिमी दक्कन के नासिक और जूनार क्षेत्रों में भी फैला, जहाँ पर इसे व्यापारियों का समर्थन था।
वास्तुकला
सातवाहन काल में, पश्चिमोत्तर दक्कन या महाराष्ट्र में बड़े कौशल और धैर्य के साथ ठोस चट्टानों को काट-काट कर कई चैत्यों (पवित्र स्थलों) और मठों (विहार) का निर्माण हुआ। वास्तव में, यह प्रक्रिया एक सदी के पहले ई.पू. 200 के आस-पास ही शुरू हो चुकी थी। उस दौर की बौद्ध धर्म की मुख्य संरचनाएँ चैत्य और मठ या विहार थे; चैत्य कई स्तम्भों पर बना एक बड़ा हॉल होता था; जिसमें बरामदे के सामने से एक बड़ा प्रवेश द्वार होता था। यह बौद्ध धर्म के मंदिर की तरह काम करता था। विहार में एक केन्द्रीय हॉल होता था, जहाँ भिक्षु निवास करते थे। सबसे प्रसिद्ध चैत्य पश्चिमी दक्कन में कार्ले का है। लगभग 40 मीटर लंबाई, 15 मीटर चौड़ाई और 15 मीटर ऊंचाई वाला, यह चैत्य विशाल चट्टान वास्तुकला का सबसे प्रभावशाली नमूना है।
बरसात के मौसम में भिक्षुओं के निवास हेतु, चैत्यों के निकट ही खुदाई कर मन बनाए जाते थे। नासिक में तीन विहार पाए गए हैं। यहाँ नहपन और गौतमीपुत्र के अभिलेख मिलते हैं, जो पहली-दूसरी शताब्दी के हैं। आन्ध्र के कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र में चट्टान काटकर बनाई गई (शिलाखण्डीय) वास्तुकलाएँ भी पाई गई हैं, किन्तु यह क्षेत्र वस्तुत: स्वतन्त्र बौद्ध संरचनाओं, ज्यादातर स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है। स्तूप, बुद्ध के किसी अवशेष पर निर्मित बड़े आकार की एक गोलाकार संरचना है। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध अमरावती और नागार्जुनकोण्डा के स्तूप हैं। अमरावती स्तूप की शुरुआत ई.पू. 200 के आस-पास हुई, लेकिन दूसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में इसका निर्माण पूर्ण हुआ। इसके गुम्बद के आधार की आर-पार माप 53 मीटर और ऊँचाई 33 मीटर थी। अमरावती स्तूप मूर्तियों से भरा है, जो बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध विभिन्न दृश्यों को दर्शाती हैं। सातवाहनों के उत्तराधिकारियों, अर्थात् ईक्ष्वाकुओं के संरक्षण में दूसरी-तीसरी शताब्दी में नागार्जुनकोण्डा सबसे अधिक समृद्ध हुआ। यहाँ बौद्ध स्मारक और ईंटों से बने प्राचीनतम हिन्दू मन्दिर, दोनो हैं। यहाँ लगभग दो दर्जन मठ गिने जा सकते हैं। स्तूपों और महाचैत्यों को मिलाकर, ईसा की शुरुआती शताब्दियों में संरचनाओं के मामले में नागार्जुनकोण्डा सबसे समृद्ध क्षेत्र प्रतीत होता है।
भाषा
सातवाहनों की राजभाषा प्राकृत थी। उनके सारे अभिलेख इसी भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए, जैसा कि अशोक के युग में था। कुछ सातवाहन राजाओं ने प्राकृत में किताबें भी लिखीं। प्राकृत ग्रन्थ गाथासत्तसई या गाथासप्तसती हल नामक सातवाहन राजा द्वारा लिखा गया। इसमें 700 छन्द शामिल थे, सभी प्राकृत में लिखे गए, लेकिन प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी के बाद सम्भवत: इसे फिर से तैयार किया गया।