UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 6 पारिस्थितिक तन्त्र के विनाश का प्रभाव : आवास-क्षति तथा संसाधनों पर दबाव
UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 6 पारिस्थितिक तन्त्र के विनाश का प्रभाव : आवास-क्षति तथा संसाधनों पर दबाव
UK Board Solutions for Class 9th Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 6 पारिस्थितिक तन्त्र के विनाश का प्रभाव : आवास-क्षति तथा संसाधनों पर दबाव
• विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1—पारिस्थितिक तन्त्र के विनाश का पर्यावरण के घटकों पर क्या प्रभाव पड़ा है? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
अथवा पारिस्थितिक सन्तुलन की महत्ता पर सारगर्भित निबन्ध लिखिए।
उत्तर – पारिस्थितिक सन्तुलन की महत्ता
पारिस्थितिक या पारितन्त्र की रचना में विविध प्रकार के पादप, जीव-जन्तु, सूक्ष्म कीटाणु, धरातल, जल, वायु, सौर ऊर्जा एवं मनुष्य मिलकर एक सन्तुलन स्थापित करते हैं। इसे पारिस्थितिक सन्तुलन कहा. जाता है। ये सभी घटक एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। जैविक घटक सौर ऊर्जा पर निर्भर करते हैं। इनकी सापेक्षिक संख्या जैवमण्डल में इस प्रकार व्यवस्थित रहती है कि किसी भी प्रकार के जैविक प्राणियों को आहार की कमी न हो। इसमें छोटे व कमजोर जीव अधिक संख्या में तथा बड़े व शक्तिशाली जीव कम संख्या में पाए जाते हैं।
पारिस्थितिक तन्त्र का मूल उद्देश्य मानव एवं प्रकृति के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना है, जनसंख्या में द्रुत गति से वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों का तीव्रगति से विदोहन हो रहा है। परिणामतः पर्यावरण की रिक्तता, प्रदूषण तथा अवनयन में गुणात्मक क्रम से वृद्धि हो रही है।
किसी पारिस्थितिक तन्त्र की गतिशीलता एवं विकास के लिए यह आवश्यक है कि पारिस्थितिक तन्त्र के जैविक एवं अजैविक घटकों का सन्तुलन बना रहे। सन्तुलन के बिगड़ जाने पर समस्त जीवधारियों को अपना जीवन- प्रक्रम चलाने में कठिनाई होने लगती है। जीवधारियों की संख्या एवं उनके समुदाय की जातियाँ समाप्त होने लगती हैं। पारिस्थितिकी तन्त्र के किसी भी घटक का वांछित एवं आवश्यक मात्रा से कम अथवा अधिक हो जाना ही पारिस्थितिक असन्तुलन कहलाता है। वास्तव में, प्रत्येक घटक का उसी अनुपात में रहना, जिससे पारिस्थितिक तन्त्र के अन्य घटकों पर कोई भी हानिकारक प्रभाव न पड़े, पारिस्थितिक सन्तुलन कहलाता है। पारिस्थितिक असन्तुलन को ही वातावरण प्रदूषण भी कहा जा सकता है।
समग्र रूप से पारिस्थितिक सन्तुलन की मात्रा की महत्ता को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया जा सकता है-
(1) पारिस्थितिकी ऐसा विज्ञान है जिसमें जीव-जगत की व्याख्या प्राकृतिक घातों- प्रतिघातों और क्रियाओं के माध्यम से की जा सकती है।
(2) पारिस्थितिकी ऐसा विज्ञान है जिसका उद्देश्य जीवों एवं उनके पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का पता लगाना है।
(3) यह एक ऐसा प्राविधिक विषय है जिसके आधार पर इस भूमण्डल पर मनुष्य के अस्तित्व एवं जीवन को आनन्दमय, निरापद एवं दीर्घायु बनाया जा सकता है।
(4) यह वह विज्ञान है जो मनुष्य का प्रकृति साथ सामंजस्य स्थापित करने और पृथ्वी पर जीवन की रक्षा करने में समर्थ बनाता है। इसका अध्ययन-क्षेत्र बड़ा व्यापक है। इसमें ज्ञान-विज्ञान और सामाजिक विज्ञानों की सभी शाखाएँ अन्तर्भूत हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक – तकनीकी क्रान्ति ने आज मानव-समाज तथा प्रकृति के बीच के सम्बन्धों को बहुत जटिल बना दिया है। इसका प्रमुख कारण प्राकृतिक संसाधनों का अधिक दोहन, औद्योगीकरण एवं नगरीयकरण की प्रक्रियाएँ हैं। इनके द्वारा प्रकृति पर मनुष्य के प्रभाव की सम्भावनाएँ बढ़ी हैं। इससे मनुष्य को भौतिक समृद्धि तो मिली है, परन्तु इसके साथ-साथ पर्यावरण में अव्यवस्था भी पैदा हो गई है, जिसके अनेक अवांछित दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। इन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए प्रकृति की सुरक्षा, पर्यावरण में सुधार, प्राकृतिक संसाधनों के अधिक अविवेकपूर्ण उपयोग तथा उनके नवीनीकरण के समर्थन में एक व्यापक सामाजिक आन्दोलन आरम्भ हो गया है। आज पारिस्थितिकी के विकास द्वारा मानव-जाति के हित में पर्यावरण का विवेकपूर्ण रूपान्तरण करने के प्रयास जारी हैं।
• लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – आवास क्षति का आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- आवास क्षति
पर्यावरण सन्तुलन की दृष्टि से जैवमण्डल के सभी प्राणियों के लिए उपयुक्त आवास का होना अत्यन्त आवश्यक है। वर्तमान समय में मानव ने जैवमण्डल के विभिन्न प्राणियों के लिए उपयुक्त आवास हेतु भूमि पर अपने भूमि उपयोग प्रतिरूप में इस प्रकार परिवर्तन किया है जिससे स्थान का अभाव उत्पन्न हो गया है। जीवधारियों के लिए उपयुक्त आवास का अभाव ही आवास क्षति कहलाता है। जनसंख्या दबाव के कारण वनों का तीव्र गति से विनाश हुआ है जिसके कारण वन्य प्राणियों के उपयुक्त आवास नहीं रहे और वे आए दिन मानव बस्तियों में प्रवेश करते रहते हैं। जल स्रोतों का उपयोग मानव आवास या अन्य किसी उपयोग हेतु किया जाने लगा है। इसलिए विभिन्न जलीय प्रजातियाँ संकटग्रस्त अवस्था में हैं। अथवा विलुप्त हो चुकी हैं। ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में प्रदूषण की विकराल समस्या बनी हुई है। यहाँ जनसंख्या वृद्धि के कारण फुटपाथों पर भी लोगों को रात गुजारने के लिए स्थान नहीं मिलता है। इस प्रकार वर्तमान सदी में आवास क्षति के कारण सभी प्राणियों के लिए उपयुक्त आवा अत्यन्त जटिल समस्या के रूप में विद्यमान है।
प्रश्न 2 – पर्यावरण अवक्रमण के कारण वन्य जन्तुओं को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है?
उत्तर – पर्यावरण अवक्रमण के कारण वन्य जन्तुओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है—
(1) पर्यावरण अवक्रमण से वन्य जीवों के लिए उपयुक्त आवास उपलब्ध नहीं है।
(2) उपयुक्त आवास उपलब्ध न होने से वन्य जीवों के लिए भोजन एवं पेयजल का अभाव उत्पन्न हो गया है।
(3) पर्यावरण अवक्रमण के कारण अब वन्य जीव स्वच्छन्द विचरण नहीं कर पाते हैं क्योंकि वनों का अभाव हो गया है।
(4) पर्यावरण अवक्रमण से जीवों की प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला अवरुद्ध हो गई है इसलिए जीवों को प्राकृतिक भोज्य पदार्थ का अभाव उत्पन्न हो गया है।
(5) पर्यावरण अवक्रमण के कारण अब अनेक वन्य जीव प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं या संकटग्रस्त स्थिति में हैं।
• अति लघु उतरीय प्रश्न
प्रश्न 1-पक्षियों के आवास के लिए क्या कठिनाई होने लगी है?
उत्तर- पर्यावरण अवक्रमण के कारण पक्षियों के उपयुक्त आवास उपलब्ध नहीं रहे हैं। इसलिए इनमें आवास, भोजन विचरण, प्रजनन आदि की समस्याएँ उत्पन्न होने लगी हैं। इसलिए पक्षिया की विभिन्न प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं।
प्रश्न 2 – जनसंख्या वृद्धि का भूमि पर क्या दबाव पड़ रहा है?
उत्तर— जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि उपयोग प्रतिरूप असन्तुलित हो गया है इसलिए जैवमण्डल के विभिन्न प्राणियों और वनस्पतियों के लिए भूमि का अभाव उत्पन्न हो गया है।
प्रश्न 3 – भू-क्षरण का मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर- भू-क्षरण के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। भू-क्षरण से उपजाऊ मिट्टी के तत्त्वों का अन्यत्र स्थानान्तरण होने लगता है या उनके उपजाऊ तत्त्व नष्ट हो जाते हैं इसलिए ऐसी भूमि बंजर भूमि में बदल जाती है।