UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 12 पारिस्थितिक संरक्षण की विधियाँ : स्थानीय विकल्पों का चयन तथा सुनियोजित भूमि का उपयोग
UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 12 पारिस्थितिक संरक्षण की विधियाँ : स्थानीय विकल्पों का चयन तथा सुनियोजित भूमि का उपयोग
UK Board Solutions for Class 9th Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 12 पारिस्थितिक संरक्षण की विधियाँ : स्थानीय विकल्पों का चयन तथा सुनियोजित भूमि का उपयोग
• विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – पर्यावरण संरक्षण की विधियों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालिए।
अथवा निम्नलिखित में से किसी एक के लिए संरक्षण विधियों का वर्णन कीजिए—
(क) ऊर्जा संरक्षण,
(ख) जल संरक्षण,
(ग) भूमि मृदा संरक्षण
(घ) वन संरक्षण ।
उत्तर- पर्यावरण संरक्षण की विधियाँ
प्रत्येक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक तत्त्व या घटक की विशिष्ट संरक्षण विधि की आवश्यकता होती है। पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित सामान्य संरक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(क) ऊर्जा संरक्षण
ऊर्जा पर्यावरण का नियामक घटक है। पर्यावरण के विभिन्न जैवं एवं अजैव घटक ऊर्जा द्वारा ही संचालित होते हैं। ऊर्जा के अभाव में जीवन की कल्पना भी कठिन है। ऊर्जा प्रवाहमान तत्त्व है। यह एक घटक से दूसरे घटक में गमन करते हुए पर्यावरण को जीवन्त बनाए रखता है । प्राविधिकी के बल पर मनुष्य प्राकृतिक वातावरण से ऊर्जा के विभिन्न साधनों को प्राप्त करता है। इस प्रक्रिया में मनुष्य स्वाभाविक रूप से सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और जल ऊर्जा के अतिरिक्त करोड़ों वर्षों से संचित पुरा – जैव ऊर्जा का सर्वाधिक उपभोग कर रहा है। इसी के परिणामस्वरूप वर्तमान समय में वायु प्रदूषण, पृथ्वी के तापमान में वृद्धि, ओजोन परत का क्षरण तथा ग्रीन हाउस प्रभाव जैसी समस्याओं का जन्म हुआ है जिसने पर्यावरण अवक्रमण में वृद्धि की है और ऊर्जा संरक्षण की आवश्यकता को बढ़ाया है। ऊर्जा संरक्षण की कुछ महत्त्वपूर्ण विधियाँ इस प्रकार हैं-
(1) वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का विकास – वैकल्पिक ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि की जाए। वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों से उत्पन्न – ऊर्जा, पवन ऊर्जा बायोमास ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा आदि ऐसी ऊर्जा है जिनकी पूर्ति संतत रूप से बनी रहेगी। ऊर्जा के यह साधन प्रदूषणरहित है। अतः जिन क्षेत्रों में इन साधनों को ऊर्जा प्राप्त हो सकती है वहाँ इन ऊर्जा स्रोतों का उपयोग किया जाना चाहिए। जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में सौर एवं पवन ऊर्जा तथा समुद्रतटीय क्षेत्रों में ज्वारीय एवं पवन ऊर्जा और मैदानी क्षेत्रों में सौर्य ऊर्जा का उपयोग सरलता से किया जा सकता है।
(2) अपशिष्ट पदार्थों में कमी लाकर ऊर्जा की एवं उपयोग से अपशिट पदार्थों की मात्रा में वृद्धि होती है। इन अपशिष्ट बचत — परम्परागत ऊर्जा; जैसे—कोयला, खनिज तेल आदि के उत्पादन पदार्थों के निस्तारण में ऊर्जा का भी उपयोग होता है तथा मृदा एवं जल प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न होती है। ऊर्जा संरक्षण हेतु इन वर्ज्य पदार्थों के निस्तारण में व्यय होने वाली ऊर्जा की बचत करने के लिए निस्तारण में कमी करनी आवश्यक है।
(3) गुणात्मक समुन्नति का विकास — परम्परागत ऊर्जा-कोयला, खनिज तेल आदि के उत्खनन के समय गुणात्मक रूप से विशुद्ध या क्षमता के अनुसार निम्न ऊर्जा पदार्थ भी निकलते हैं। इनको अनुपयोगी मानकर बेकार छोड़ दिया जाता है। अतः गुणात्मक समुन्नति का विकास करके इन विशुद्ध एवं अनुपयोगी पदार्थों का ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए।
(4) विवेकपूर्ण उपयोग ऊर्जा पर्यावरण का मूल्यवान पदार्थ है इसका अपव्यय मनुष्य जीवन एवं पर्यावरण विकास दोनों के लिए घातक है। अतः उपलब्ध ऊर्जा साधन; जैसे – कोयला, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस आदि का उपयोग आवश्यक कार्यों में ही किया जाना चाहिए। जहाँ अन्य वैकल्पिक ऊर्जा के साधन उपलब्ध हैं और उनका विकास किया जा सकता है वहाँ पर वैकल्पिक ऊर्जा साधनों का उपयोग आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए । विवेकपूर्ण ऊर्जा उपयोग को बढ़ावा देने के लिए एक और जनसामान्य को जागरूक करने की आवश्यकता है तो दूसरी और समुन्नत तकनीकी विकास भी आवश्यक है।
(ख) जल संरक्षण
ऊर्जा के समान ही जल भी पर्यावरण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक है। जल शुद्धता और उपलब्धता दोनों ही जीवन के लिए आवश्यक है। जल से अनेक पोषक तत्त्वों की आपूर्ति होती है जो जीवन की क्रियाशीलता को बनाए रखते हैं। जल संरक्षण के लिए निम्नलिखित सिद्धान्तों को स्मरण रखना आवश्यक है— (i) जल उपलब्धता, (ii) जल की शुद्धता ।
जल उपलब्धता के लिए जल के प्राकृतिक चक्र का संचरण आवश्यक है जो पृथ्वी पर उपलब्ध जल स्रोतों के प्रबन्धन और वनस्पति विकास से नियमित रखा जा सकता है; अतः पृथ्वी पर उपलब्ध जल स्रोत, नदी, तालाब, झील, सागर, हिमनद आदि के संरक्षण और प्रबन्धन पर ध्यान देना चाहिए। जल की शुद्धता को बनाए रखने के लिए प्रदूषण तत्त्वों का जल स्रोतों में हो रहे सम्मिश्रण को नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, जल का विवेक पूर्ण उपयोग एवं समुन्नत तकनीक पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
(ग) भूमि मृदा संरक्षण
इसके अध्ययन के लिए विभिन्न विधियों को दो भागों में विभक्त किया गया है—
(1) जैविक विधियाँ – ये विधियाँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं-
(i) संस्यावर्तन – यह एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। प्रत्येक वर्ष यदि भूमि में एक ही प्रकार की फसल उगाई जाए तो भूमि की उर्वरा शक्ति समाप्त होने लगती है। अतः आवश्यक है कि एक बार गेहूँ, कपास, मक्का, आलू आदि के बाद दूसरी फसल फली कुल या लेग्यूमिनोसी कुल के पौधों की होनी चाहिए।
(ii) समोच्च कृषि – खेतों में या ढलान वाले क्षेत्रों में खाँचें (furrows) तथा कटक (ridges) बनाए जाते हैं जिससे जल इनमें रुक जाता है तथा मृदा का अपरदन नहीं होता है। समोच्च कृषि पहाड़ी ढलानों पर भी उपयोगी होती है।
(iii) मल्च बनाना—फसल काटने के पश्चात् पौधों के ठूंठ मिट्टी के अन्दर रह जाते हैं तथा एक संरक्षक परत की भाँति कार्य करते हैं। इसमें मक्का, कपास, आलू, तम्बाकू आदि पौधों के वृन्त खेतों में एक परत की तरह फैला दिए जाते हैं।
(iv) पट्टीदार खेती- यह कई प्रकार की होती है। इसे खेत को पट्टियों में विभक्त कर दिया जाता है। प्रत्येक पट्टी पर बड़े पौधे वाली फसल; जैसे- बाजरा, ज्वार आदि; बोई जाती हैं। दो पट्टियों के बीच के स्थान में छोटे पौधों वाली फसल अरहर, उड़द आदि बोयी जाती है। इस प्रकार की फसलें बोने से मिट्टी दृढ़ता से बँधी रहती है।
(v) ले खेती – इसमें घास को फसलों के साथ बोया जाता है या उसको विभिन्न ऋतुओं में फसलों के साथ एकान्तरित किया जाता है।
(vi) घास उगाना – जिन स्थानों पर मृदा अपरदन के कारण शीर्ष मृदा हट गई है, वहाँ पर विभिन्न प्रकार की घास उगाई जानी चाहिए। यह मृदा कणों को बाँधती (binding) तथा उनको दृढ़ता प्रदान करती है।
(vii) शुष्क खेती – जिन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है, वहाँ बहुत कम फसलें ही उग पाती हैं। अतः इन स्थानों पर पशुओं को चराने के लिए घास उगाई जाती है जिससे मृदा का अपरदन नहीं हो पाता है।
(viii) अत्यधिक पशुचारण पर नियन्त्रण – अत्यधिक पशुचारण से मृदा अपरदन की प्रबल सम्भावना बनी रहती है। इसलिए नियन्त्रित पशुचारण ही भूमि पर कराना चाहिए जिससे मृदा का अपरदन रोका जा सके।
(ix) वनारोपण – जंगली वृक्षों का रोपण, वनारोपण कहलाता आरम्भ में वृक्षों की वृद्धि धीमी रहती है, परन्तु कुछ समय बाद इनकी वृद्धि तथा विकास में तेजी आने पर, ये मृदा अपरदन को रोकने में सहायक होते हैं। इन वृक्षों की पत्तियाँ भूमि पर गिरती हैं जिससे ह्यूमस बनता है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है।
(x) वातीय अपरदन का नियन्त्रण — इसके निम्नलिखित उपाय हैं—
(अ) भूमि पर अधिक विकसित मूल तन्त्र वाले पौधे उगाए जाएँ। (ब) जिन स्थानों पर वायु की गति तेज हो, वहाँ वृक्ष वायु दिशा (wind direction) के विपरीत पास-पास पंक्तियों में लगाए जाने चाहिए जिससे हवा की गति धीमी हो जाएगी तथा वायु द्वारा उड़ाए गए मिट्टी के कण वृक्षों के नीचे ही गिर जाएँगे। इस विधि द्वारा मृदा अपरदन रोका जा सकता है।
(2) यान्त्रिक विधियाँ – जैविक तथा यान्त्रिक विधियाँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। मुख्य यान्त्रिक विधियाँ निम्न प्रकार हैं-
(i) वेदिका लगाना — पहाड़ों पर ढलान वाले क्षेत्रों में छोटे-छोटे समतल बाँध बना दिए जाते हैं तथा खेतों को बेंचनुमा (bench-like) क्षेत्रों में विभक्त कर दिया जाता है। इनको वेदिका (terraces) कहते हैं। कभी-कभी वेदिका 40-70 सेमी तक ऊँची बना दी जाती है जिससे खेत सीढ़ीनुमा प्रतीत होते हैं। इससे जल प्रवाह की गति कम हो जाती है तथा मृदा अपरदन रुक जाता है। भूमि संरक्षित रहती है।
(ii) बाँध बनाना – नदियों पर बाढ़ आदि से रक्षा के लिए बाँध (dams) बनाए जाते हैं जिससे वर्षा का जल एकत्रित किया जाता है जिसका सिंचाई आदि में उपयोग किया जा सकता है। मैदानी भागों में नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में मिट्टी के बहाव को रोकने के लिए बहुवर्षी घास, झाड़ियाँ लगाई जाती हैं।
(3) अवनालिकाओं पर नियन्त्रण – अवनालिकाओं के चारों ओर मृदा के अपरदन को रोकने वाली वनस्पतियाँ लगाई जानी चाहिए। जल के तीव्र वेग को कम करने के लिए बन्ध आदि बनाने चाहिए जिससे मृदा का अपरदन रुक सके।
(घ) वन संरक्षण
वन संरक्षण प्रमुख विधियाँ निम्नवत् हैं-
(1) भारतवर्ष में कुल वन क्षेत्रफल के एक-तिहाई भाग में ऊँचे तथा विशालकाय वृक्ष नहीं हैं। इन क्षेत्रों में इनका अधिक संख्या में रोपण कर वन आवरण की सघनता बढ़ाई जा सकती है।
(2) कृषि अयोग्य भूमि में वृक्ष लगाकर वन आवरण में वृद्धि की जा सकती है। अम्लीय क्षारीय जलाक्रान्त मृदा में सुधार करके वृक्षारोपण किया जा सकता है।
(3) मृदा के वनस्पति आवरण में वृद्धि करने के लिए उपयुक्त वृक्षों व पादपों को उगाना चाहिए।
(4) जिस स्थान पर लकड़ी का उपयोग ईंधन के रूप में होता है, वहाँ ईंधन का मितव्ययिता के साथ प्रयोग करना चाहिए। वहाँ इस प्रकार के वृक्ष लगाए जाएँ जिनकी लकड़ी का ईंधन के रूप में ही उपयोग किया जा सके ।
(5) सड़क तथा रेलमार्गों के दोनों ओर, कृषि फार्मों के चारों ओर, पार्क आदि के चारों ओर छायादार वृक्ष लगाने चाहिए। इसके अतिरिक्त कॉलेज प्रांगण, प्रशासकीय इमारतों के खाली स्थानों में सौन्दर्यवर्द्धक व छायादार वृक्ष लगाने चाहिए।
(6) ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग करना; जैसे— सौर ऊर्जा, बायोगैस आदि ।
(7) जल संभरण वाले क्षेत्रों में लगे वृक्षों के काटने पर प्रतिबन्ध लगाना ।
(8) वृक्षों की कटाई में कमी तथा नए पौधों की रोपण-दर बढ़ाने से वृक्षों की संख्या में वृद्धि होगी।
(9) वनों में आधुनिक विधियों के उपयोग से वृक्षों के रोग आदि पर नियन्त्रण सम्भव है। वृक्षों की उन्नत किस्मों, ऊतक संवर्द्धन आदि से वृक्षों को अधिक स्वस्थ व उपयोगी बनाया जा सकता है।
(10) आधुनिक वन प्रबन्धन की विभिन्न विधियों; जैसे— उचित जल व्यवस्था, जैव उर्वरकों का उपयोग, कवकमूलों का प्रयोग करके उनकी वृद्धि, विकास तथा उत्पादन क्षमता बढ़ाई जा सकती है।
(11) वृक्षों की कटाई रोकना। उद्योग में काम आने वाले काष्ठ वृक्षों का अधिक-से-अधिक संख्या में रोपण करना ।
• लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – समुचित भूमि उपयोग योजना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर- भूमि एक सीमित एवं आधारी संसाधन है। इसका अनुचित उपयोग जैव जगत के लिए ही नहीं अजैव जगत लिए भी खतरा उत्पन्न कर सकता है। इसलिए भूमि उपयोग की एक समुचित योजना तथा उसके अनुसार भूमि उपयोग प्रतिरूप अपनाना अत्यन्त आवश्यक है।
समुचित भूमि उपयोग योजना के अन्तर्गत पर्यावरणीय दशाओं के अनुसार ही भूमि उपयोग श्रेणियों का क्षेत्र निर्धारित किया जाता है। पारितन्त्र के संरक्षण के लिए इनका समुचित व आदर्श क्षेत्र प्रत्येक पारितन्त्र को प्रदान करना आवश्यक है। यदि किसी क्षेत्र में वन क्षेत्र 33 प्रतिशत होना अनिवार्य है, तो इसका न होना पर्यावरण असन्तुलन का कारण बन सकता है।
अतः भूमि उपयोग के सन्दर्भ में यह अत्यन्त आवश्यक है कि भूमि | उपयोग की सभी श्रेणियाँ – वन क्षेत्र, चरागाह, कृषि क्षेत्र, परती भूमि, आवास क्षेत्र, व्यापारिक एवं परिवहन क्षेत्र तथा औद्योगिक क्षेत्रों का अनुपातिक विभाजन निर्धारित हो तथा किसी भी दशा में प्रत्येक श्रेणी के लिए निर्धारित क्षेत्र एवं मात्रा में अतिक्रमण या परिवर्तन न किया जाए, तभी पर्यावरण सन्तुलन एवं संरक्षण जैसे उपाय कारगर हो सकते हैं।
प्रश्न 2 – पर्यावरण के प्रति चेतना विकास क्यों आवश्यक है ?
अथवा पर्यावरण बोध की क्या आवश्यक है?
उत्तर- पर्यावरण चेतना/बोध का विकास
पर्यावरणीय अध्ययन आज के युग की महती आवश्यकता है, क्योंकि पर्यावरण के जैव व अजैव घटक मानव की अनेक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। यदि पर्यावरण सन्तुलित है, तो जैव मण्डल की क्रियाशीलता भी व्यवस्थित रहती है। पर्यावरण को असन्तुलित करने के लिए बहुत हद तक मानव उत्तरदायी है। पर्यावरण की अवमानना आधुनिक युग में इतनी प्रबल है कि आज मानव सहित अन्य जीवों के समक्ष अस्तित्व के संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस संकट का सबसे बड़ा कारण मनुष्य स्वयं है। पराबैंगनी किरणों के धरातल पर बेरोक-टोक पहुँचने पर अनेक जीव झुलस सकते हैं, कृषि फसलें उगाना कठिन हो सकता है, मानव स्वास्थ्य को गम्भीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसी तरह वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन का प्रतिशत खतरनाक बिन्दु तक पहुँच चुका है। इसके कारण मौसम और जलवायु में अनेक दैवी आपदाओं के आने का खतरा बढ़ गया है। हमारा पर्यावरणीय ज्ञान अधूरा तथा अपूर्ण है, क्योंकि यदि सही ज्ञान होता तो मानव वे त्रुटियाँ नहीं करता, जो उसके अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गई हैं। पर्यावरणीय बोध या पर्यावरणीय चेतना से तात्पर्य यही है कि मानव को अपने पर्यावरण का कितना ज्ञान है ? अतः पर्यावरणीय समस्याओं से बचने एवं उत्पन्न समस्याओं को नियन्त्रित करने के लिए जन सामान्य में पर्यावरण चेतना का विकास करना अत्यन्त आवश्यक है।
• अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – मनुष्य बसने के लिए किस प्रकार के पर्यावरण की खोज करता है?
उत्तर – मनुष्य बसने के लिए ऐसे पर्यावरण की खोज करता है जहाँ उसे सभी आधारभूत प्राकृतिक संसाधन – जल, मृदा, खनिज, वनस्पति, ऊर्जा आदि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकें।
प्रश्न 2 – पर्यावरण दिवस कब मनाया जाता है?
उत्तर – पर्यावरण दिवस प्रतिवर्ष 5 जून को मनाया जाता है।
प्रश्न 3 – मृदा अपरदन से भूमि की उर्वरता पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर— उपजाऊ या उर्वरक तत्त्व मृदा की ऊपरी परत में विद्यमान रहते हैं। मृदा अपरदन के द्वारा सबसे पहले यही तत्त्व नष्ट होते हैं; अत: ऐसी मृदा अपरदन के कारण अपने स्थान से हट जाती है और भूमि बंजर हो जाती है।
प्रश्न 4 – कृषि उत्पादन को कैसे बढ़ाया जा सकता है?
उत्तर – पर्यावरण के अनुकूल, कृषि तकनीकी साधनों का उपयोग करके स्थायी रूप से कृषि उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।