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UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 4 ऊर्जा प्रवाह एवं पोषक तत्त्वों का चक्र

UK Board 9th Class Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 4 ऊर्जा प्रवाह एवं पोषक तत्त्वों का चक्र

UK Board Solutions for Class 9th Science – हम और हमारा पर्यावरण – Chapter 4 ऊर्जा प्रवाह एवं पोषक तत्त्वों का चक्र

• विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – ऊर्जा प्रवाह का क्या तात्पर्य है? वर्णन कीजिए।
उत्तर- पारितन्त्र में ऊर्जा और
       खनिज पदार्थों का प्रवाह
सम्पूर्ण पारितन्त्र ऊर्जा के लिए सूर्यातप पर निर्भर करता है। अतः सभी प्रकार के पोषकों में ऊर्जा का प्रवाह सतत रूप में प्रतिपल होता रहता है । उत्पादकों को अपना भोजन बनाने के लिए सौर विकिरण से ऊर्जा प्राप्त होती है। ऊर्जा का स्थानान्तरण उत्पादकों से शाकाहारियों में और शाकाहारियों से मांसाहारियों में होता रहता है। इस प्रकार उत्पादकों, . शाकाहारियों तथा मांसाहारियों के निर्जीव या विघटित अवशेष, अपघटकों को ऊर्जा प्रदान करते हैं। अत: सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का प्रवाह एक ही दिशा में होता रहता है तथा यह प्रवाह तब तक जारी रहता है जब तक कि यह ऊर्जा विलीन नहीं हो जाती है। जीव-जन्तु भोजन से प्राप्त ऊर्जा का कुछ भाग तो पचा लेते हैं तथा शेष भाग श्वसन द्वारा ऊष्मा के रूप में बाहर निकाल देते हैं।
मिट्टी से खनिज पोषकों का पेड़-पौधों में प्रवाह उनकी वृद्धि और विकास में सहायक होता है। उपभोक्ता अपनी वृद्धि एवं विकास के लिए इन पोषकों का भरपूर उपभोग करते हैं। जब पेड़-पौधे और जीव-जन्तु नष्ट हो जाते हैं तब जीवाणु और कवक जैसे अपघटक उन्हें अपना भोजन बना लेते हैं तथा उन्हें विघटित कर अजैव पोषकों में परिणत कर देते हैं। ये अजैव पोषक मिट्टी में विलीन होते रहते हैं, जिससे उसकी उर्वरता में वृद्धि हो जाती है तथा पेड़-पौधे पुनः उनका उपभोग करते हैं। इस प्रकार पारितन्त्र में खनिज पोषकों की यह चक्रीय प्रक्रिया अबाध गति से चलती रहती है।
पारितन्त्र में सौर ऊर्जा और खनिज पदार्थों का महत्त्व
पारितन्त्र को सौर ऊर्जा अबाध गति से उपलब्ध होती रहती है और पोषकों का चक्रीय प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। इस चक्रीय प्रवाह के फलस्वरूप ही पारितन्त्र में स्थिरता बनी रहती है। अपघटक; पौधों में खनिज पदार्थों की पूर्ति करने में निरन्तर संलग्न रहते हैं।
(सड़ा-गला अंश) पौधों तथा प्राणियों के ऊतकों के अपघटन से उत्पन्न होते हैं, विघटक कहलाते हैं। जीवाणु, कीटाणु, फफूँदी, दीमक, केंचुए आदि प्रमुख अपघटक हैं। विघटक जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में परिणत कर देते हैं। पुन: इन अजैव पदार्थों को पौधे ग्रहण कर लेते हैं तथा इनकी चक्रीय प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। इस प्रकार पेड़-पौधों की वृद्धि एवं उनके विकास में ऊर्जा और खनिज पदार्थों का प्रवाह अति आवश्यक है क्योंकि इन्हीं के द्वारा उन्हें पोषक तत्त्वों की प्राप्ति होती है।
प्रश्न 2 – ऊर्जा प्रवाह तथा भोजन श्रृंखला के मध्य सम्बन्धों को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए ।
अथवा पारितन्त्र में खाद्य श्रृंखला तथा आहार-जाल पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर – पेड़-पौधे, जीव-जन्तु तथा अन्य सूक्ष्म जीवाणु सब एक साथ मिलकर पारितन्त्र की रचना करते हैं। हमारी पृथ्वी स्वयं में एक बहुत बड़ा पारिस्थितिक तन्त्र है, जिसमें समस्त जैव समुदाय सूर्य द्वारा प्राप्त ऊर्जा पर निर्भर करते हैं तथा वे स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल से जीवनोपयोगी सभी तत्त्वों को प्राप्त करते हैं। जलवायु प्राणियों और पौधों की क्रियाओं को नियन्त्रित करती है। ये दोनों ही एक-दूसरे को तथा साथ-साथ अपने पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। इस प्रकार पर्यावरण और उसमें निवास करने वाले जीवधारी परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित ‘पारिस्थितिक तन्त्र’ कहा जाता है। पर्यावरण के दो प्रमुख घटक करते हुए एक तन्त्र की रचना कर लेते हैं, जिसे ‘पारितन्त्र’ अथवा हैं— (i) अजैव घटक तथा (ii) जैव घटक। प्राकृतिक पर्यावरण के अजैव घटक किसी प्रदेश के जैव घटकों को प्रभावित करते हैं, जिस कारण स्थलमण्डल के भिन्न-भिन्न भागों में जैव घटकों में भिन्नता पाई जाती है। इस भिन्नता के आधार पर ही पारितन्त्र में खाद्य – शृंखला तथा खाद्य जाल में अन्तर पाया जाता है।
एक पारितन्त्र में अनेक जीव-जन्तु निवास करते हैं तथा उनमें भोजन के लिए कड़ी प्रतिस्पर्द्धा रहती है। मानवसहित सभी जीव भोजन सम्बन्धी अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं; उदाहरण के लिए – हिरन, खरगोश, भेड़, बकरी आदि जीव पेड़-पौधों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं; परन्तु लोमड़ी, खरगोश का और शेर, लोमड़ी का शिकार कर भोजन प्राप्त करता है। इस प्रकार घास (पौधों) से खरगोश में, खरगोश से लोमड़ी में तथा लोमड़ी से शेर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। इस प्रकार पारिस्थितिक तन्त्र मे एक जीव से दूसरे जीव में ऊर्जा का प्रवाह समान्य रूप से खाद्य ‘श्रृंखला’ कहलाती है।
परन्तु अपघटक; पौधों एवं मृत शरीरों के ऊतकों से ऊर्जा और पोषक तत्त्वों को ग्रहण करते हैं। अपने भोजन की प्रक्रिया में अपघटक जीव, जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार प्रकृति में खाद्य श्रृंखलाएँ जटिल बन जाती हैं तथा इन खाद्य श्रृंखलाओं का एक जाल – सा बन जाता है। जीवों द्वारा पारस्परिक रूप से सम्बन्धित खाद्य श्रृंखलाओं के इस जटिल समूह को ‘आहार – जाल’ कहते हैं।
प्रश्न 3 – ऊर्जा संचालन तथा उसके विविध स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: ऊर्जा संचालन—पर्यावरण की व्यवस्था एवं सन्तुलन में ऊर्जा का विशिष्ट महत्त्व है। ऊर्जा के द्वारा ही अजैविक तथा जैविक वस्तुओं में प्रतिक्रिया होती है। ऊर्जा अपने गुणधर्म के अनुसार किसी भी दिशा में गमन कर सकती है। किन्तु वापस उसी क्रम में नहीं लौटती, इसीलिए ऊर्जा का पथ चक्रीय नहीं होता बल्कि ऊर्जा एक रेखीय पथ पर गति करती है। अतः ऊर्जा संचालन में ऊर्जा चक्र के स्थान पर ऊर्जा प्रवाह का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार ऊर्जा का रेखीय प्रवाह ही ऊर्जा संचालन कहलाता है।
ऊर्जा संचालन के स्वरूप – पर्यावरण में ऊर्जा का सर्वप्रमुख स्त्रोत सूर्य है। सूर्य के प्रकाश के रूप में ही विकिरण के माध्यम से ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इस ऊर्जा का वितरण एवं संचालन ( प्रवाह – Flow) विभिन्न तत्त्वों में विभिन्न रूप से गतिशील रहता है। हरे पेड़-पौधों में ऊर्जा अवशोषित होती है। कुछ ऊर्जा ताप के रूप में बदलकर पौधों से विलुप्त हो जाती हैं। ऐसी ऊर्जा की मात्रा अत्यन्त अल्प होती है जो विकिरण के द्वारा प्रसारित होकर भोजन के रूप में निर्मित होकर पेड़-पौधों की जड़ों में संचित होती हैं।
ऊर्जा प्राप्ति हेतु प्रत्येक पारिस्थितिकी में दो नियम काम करते हैं-
प्रथम नियम के अनुसार, ऊर्जा का न निर्माण किया जा सकता, न विनाश बल्कि ऊर्जा का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। सूर्य से विकिरण द्वारा प्राप्त ऊर्जा जब किसी छत को गर्म करती है तब वह ताप बदल जाती है। यह ताप ठण्डक प्राप्त करने में भी बदला जा सकता है। इस प्रकार पारिस्थितिकी में ऊर्जा एक तत्त्व से दूसरे तत्त्व में परिवर्तित होती हुई गमन करती है तथा पुनः वायुमण्डल में विलीन हो जाती है। इस प्रकार ऊर्जा का प्रथम नियम या स्वरूप पारिस्थितिकी में एक सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करता है।
द्वितीय नियम के अनुसार, ऊर्जा वितरित स्वरूप में कार्य करती है। वायुमण्डल में ताप के रूप में विद्यमान ऊर्जा वितरित रूप में ही कार्यरत रहती है। इसका उपयोग प्रत्यक्ष रूप में नहीं किया जा सकता। यह प्रक्रिया. श्वास क्रिया के रूप में सम्पन्न होती है जिसमें कुछ ऊर्जा का ह्रास होता है तथा कुछ ऊर्जा का निर्माण होता है। जीवित रहने के लिए प्रत्येक प्राणी को इसी ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा ताप के रूप में गमन करती हुई शारीरिक प्रक्रियाओं को संचालित रखती है। मनुष्य भोजन के रूप में ऊर्जा ग्रहण करता है जो ताप में परिवर्तित होकर शरीर को क्रियाशील रखती है। इस प्रकार प्रत्येक पारिस्थितिकी में ऊर्जा के इन विविध स्वरूपों द्वारा जीवन का संचालन होता रहता है।-
• लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – खाद्य शृंखला या आहार – जाल किसे कहते हैं?
उत्तर- खाद्य श्रृंखला या आहार – जाल
मानव सहित सभी जीव अपनी भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं तथा उनमें भोजन के लिए . कड़ी प्रतिस्पर्द्धा रहती है। इस प्रकार पारिस्थितिक तन्त्र में एक जीव से दुसरे जीव में ऊर्जा का स्थानान्तरण ‘खाद्य श्रृंखला’ कहलाता है; उदाहरण के लिए— खरगोश, हिरन, भेड़, बकरी आदि जीव घास (पौधों) से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, परन्तु लोमड़ी खरगोश को खा जाती है और शेर लोमड़ी को खा जाता है। विघटकों द्वारा पौधों और जीवों के सड़े-गले अंश से ऊर्जा और पोषक तत्त्व प्राप्त किया जाता है। ये विघटक विभिन्न जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में बदल देते हैं जिन्हें हरे पौधे ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार खाद्य श्रृंखला का चक्र पूर्ण हो जाता है।
परन्तु अपघटक पौधों एवं मृत शरीरों के ऊतकों से ऊर्जा और पोषक तत्त्वों को ग्रहण करते हैं। अपने भोजन की प्रक्रिया में अपघटक जीव, जैव पदार्थों को अजैव पदार्थों में परिणत कर देते हैं। इस प्रकार प्रकृति में खाद्य श्रृंखलाएँ जटिल बन जाती हैं तथा इनका एक जाल-सा बन जाता है। जीवों द्वारा पारस्परिक रूप से सम्बन्धित खाद्य श्रृंखलाओं के जटिल समूह को आहार – जाल कहते हैं।
प्रश्न 2 – पारिस्थितिक पिरामिड को समझाइए ।
उत्तर- पारिस्थितिक पिरामिड 
जीव-जन्तुओं के प्रत्येक समूह का एक पोषण स्तर होता है । हरी घास एवं अन्य वनस्पति प्रथम स्तर के पोषण के अन्तर्गत सम्मिलित की जाती हैं, जिन्हें प्राथमिक उत्पादक भी कहा जाता है। शाकाहारी जीव-जन्तु, जो इनका भक्षण करते हैं, द्वितीय स्तर के पोषण में सम्मिलित किए जाते हैं। वे मांसाहारी जीव-जन्तु, जो शाकाहारी जीव-जन्तुओं का शिकार करते हैं, तृतीय स्तर के पोषण में सम्मिलित होते हैं, जिन्हें द्वितीयक उपभोक्ता भी कहते हैं। चतुर्थ स्तर के पोषण में ऐसे मांसाहारी जीव सम्मिलित किए जाते हैं, जो अपने से छोटे मांसाहारी जीवों का भक्षण करते हैं। इन्हें तृतीयक उपभोक्ता कहते हैं। मनुष्य तृतीयक उपभोक्ता है, जो तीनों ही पोषण स्तरों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में उपभोग करता है, क्योंकि मनुष्य सर्वाहारी उपभोक्ता है। ऊर्जा की उपलब्धता के अनुसार सभी पोषण स्तर समान नहीं होते हैं, क्योंकि निम्न स्तर से उच्च स्तर पर ऊर्जा का एक अंश ही स्थानान्तरित होता है। इन पोषण स्तरों का प्रदर्शन एक पिरामिड की सहायता से किया जा सकता है, जिसे पारिस्थितिक पिरामिड कहा जाता है।
प्रश्न 3 – पारिस्थितिक क्षमता का वर्णन कीजिए।
उत्तर- पारिस्थितिक क्षमता
एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में स्थानान्तरित ऊर्जा के प्रतिशत को पारिस्थितिक क्षमता कहा जाता है। जीवों के एक समूह का एक पोषी |स्तर होता है।
एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में ऊर्जा स्थानान्तरण की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है। जीवों की जाति और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार यह क्षमता 5% से लेकर 20% के मध्य हो सकती है। स्थलीय पारिस्थितिक तन्त्र में शाकाहारी जीवों द्वारा पादप पदार्थ के केवल 10% भाग का ही उपभोग किया जाता है। औसत रूप से केवल 10% ऊर्जा का स्थानान्तरण एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जीवों को 10 किग्रा मांस के उत्पादन के लिए 100 किग्रा खाद्यान्नों की आवश्यकता होती है। इस कम क्षमता का कारण यह है कि उच्च स्तर के उपभोक्ताओं को एक स्तर पर विद्यमान सभी जीव सुगमता से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। परभक्षी जीव उपलब्ध प्रत्येक शिकार को पकड़ नहीं पाते हैं।
प्रश्न 4 – खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल में अन्तर बताइए ।
उत्तर- खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल में अन्तर
क्र०सं० खाद्य श्रृंखला खाद्य जाल
1. खोद्य श्रृंखला जीवों की वह शृंखला है जिसमें एक समुदाय के एक जीव से दूसरे जीव में खाद्य ऊर्जा का स्थानान्तरण होता है। यह बहुत सी खाद्य श्रृंखलाओं का एक जाल है जो एक प्रकार के पारितन्त्र में पाया जाता है।
2. खाद्य श्रृंखला में जीवों की संख्या सीमित होती है। खाद्य जाल में जीवों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक तथा असीमित हो सकती है।
3. एक खाद्य स्तर (trophic level) का जीव दूसरे खाद्य स्तर के जीव से जुड़ता है। एक जीव का उपयोग खाद्य पदार्थ के रूप में एक से अधिक खाद्य श्रृंखलाओं के जीवों द्वारा किया जा सकता है।
4. इसमें उत्पादक, विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ता तथा अपघटक सम्मिलित होते हैं। इसमें विभिन्न जीव समुदाय के उपभोक्ता तथा अपघटक सम्मिलित होते हैं।
5. यह एक सरल प्रक्रिया है। यह एक जटिल प्रक्रिया है।
प्रश्न 5 – स्वतः पोषक तत्त्वों की प्रमुख विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर – स्वतः पोषक तत्त्वों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) स्वतः पोषक तत्त्व सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा प्राप्त कर अपने लिए भोजन का निर्माण करते हैं।
(2) ये तत्त्व मिट्टी से सामान्य अजैविक सामग्री को प्राप्त करते हैं।
(3) स्वत: पोषक तत्त्व वायुमण्डल से प्रत्यक्ष रूप से भी कुछ अजैविक तत्त्वों को प्राप्त करके अपनी प्रक्रियाएँ पूर्ण करते हैं।
(4) स्वतः पोषक तत्त्वों को वायुमण्डल में उपलब्ध अजैविक तत्त्व वर्षा जल में घुलनशीलता के द्वारा प्राप्त होते हैं।
• अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1 – भक्षक या उपभोक्ता तत्त्व किस प्रकार स्वतः पोषक तत्त्वों से पृथक् होते हैं?
उत्तर- स्वतः पोषक तत्त्व सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा प्राप्त कर अपने लिए भोजन का निर्माण करने में समर्थ होते हैं जबकि भक्षक या उपभोक्ता तत्त्व दूसरों के द्वारा तैयार भोजन प्रक्रिया से अपने जीवन का संचार करते हैं। इस प्रकार भक्षक या उपभोक्ता तत्व एवं स्वत: पोषक तत्त्व भोजन प्रक्रिया में परस्पर पृथक् होते हैं।
प्रश्न 2 – अपघटक तत्त्वों की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – सूक्ष्म जीव जो जीवाणु के रूप में होते हैं अपघटन के समय तैयार होते हैं; जैसे दूध से दही का बनना । अपघटक तत्व विभिन्न रूपों में पारिस्थितिक तन्त्र के अभिन्न अंग हैं। ये अलग-अलग वातावरण का निर्माण कर ऊर्जा संचालन के रूप में सहयोग प्रदान करते हैं।
प्रश्न 3- बन्द ऊर्जा का आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – वह ऊर्जा जो विकिरण द्वारा प्रसारित होकर भोजन के रूप में निर्मित होकर पेड़-पौधों की जड़ों में संचित होती है बन्द ऊर्जा कहलाती है।
प्रश्न 4- पौधे नाइट्रोजन कहाँ से प्राप्त करते हैं?
उत्तर- पौधे वायुमण्डल में संचालित नाइट्रोजन चक्र द्वारा संचित नाइट्रोजन भण्डार से नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं।
प्रश्न 5 – शाकाहारी पशुओं को खाने वाले जन्तुओं को क्या कहते हैं?
उत्तर- शाकाहारी पशुओं को खाने वाले जन्तुओं को मांसाहारी कहते हैं।
प्रश्न 6- पारिस्थितिक क्षमता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर – एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में स्थानान्तरित ऊर्जा की प्रतिशत मात्रा को पारिस्थितिक क्षमता कहते हैं। परन्तु एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में ऊर्जा के स्थानान्तरण में भिन्नता पाई जाती है। यह क्षमता 5 से 20 प्रतिशत के मध्य पाई जाती है।
प्रश्न 7 – जैवमण्डल में असन्तुलन की स्थिति क्यों उत्पन्न होती है? 
उत्तर – जैवमण्डल की रचना जैविक (पादप, मानव, जन्तु एवं सूक्ष्म जीव ) तथा अजैविक घटक (स्थल, जल एवं वायु) तथा ऊर्जा से होती है। इन सभी तत्त्वों के घट-बढ़ जाने से जैवमण्डल में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
प्रश्न 8 – सर्वाहारी (सर्वभक्षी) जीव भोजन के लिए किस पर निर्भर करते हैं?
उत्तर – सर्वाहारी (सर्वभक्षी) जीव भोजन के लिए पेड़-पौधों तथा जीव-जन्तुओं दोनों पर निर्भर करते हैं।

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