UK 10TH HINDI

UK Board Class 10 Hindi – निबन्ध लेखन

UK Board Class 10 Hindi – निबन्ध लेखन

UK Board Solutions for Class 10 Hindi – निबन्ध लेखन

1. कम्प्यूटर : आज की आवश्यकता
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना; (2) कम्प्यूटर का विकास; (3) कम्प्यूटर की उपयोगिता या लाभ; (4) उपसंहार ।
प्रस्तावना – नई सदी में कम्प्यूटर – क्षेत्र में आई क्रान्ति के कारण सूचनाओं की प्राप्ति और उनके विश्लेषण में तेजी आई है। आज के कम्प्यूटर कृत्रिम बुद्धिवाले कम्प्यूटर हैं। विज्ञान के क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी का आयाम जुड़ने से हुई प्रगति ने हमें अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं। इनमें मोबाइल फोन, कम्प्यूटर तथा इण्टरनेट का विशेष स्थान है। । कम्प्यूटर से जहाँ कार्य करने में समय कम लगता है, वहीं इसके प्रयोग से मानव-श्रम में भी कमी आई है। यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। पहले ये कुछ सरकारी संस्थानों तक ही सीमित थे, लेकिन आज इनका प्रसार घर-घर में हो रहा है।
कम्प्यूटर का विकास — प्रारम्भ में आदिमानव उँगलियों की सहायता से गणना करता था। विकास के अनुक्रम में फिर उसने कंकड़ों द्वारा, रस्सी में गाँठ बाँधकर तथा छड़ी पर निशान लगाकर गणना करना आरम्भ किया। लगभग दस हजार वर्ष पहले अबेकस नामक साधारण से गणना- उपकरण का आविष्कार हुआ। इसका प्रयोग गिनती करने तथा संक्रियाएँ हल करने के लिए किया जाता था।
आज गणना के लिए मुख्य रूप से आमजन द्वारा कैल्कुलेटर का प्रयोग किया जाता है। इस कैल्कुलेटर का उद्गम दो गणितज्ञों ब्लेज पास्कल और गॉट फ्राइड विलहेम के कार्यों में खोजा जा सकता है। चार्ल्स बेवेज ने जॉन नेपियर द्वारा खोजे गए लघु गणक अंकों को समाहित कर सकनेवाली ‘ऑल परपज कैल्कुलेटिंग मशीन’ बनाने का विचार किया था। आधुनिक कम्प्यूटर क्रान्ति 20वीं सदी के चौथे दशक में आरम्भ हुई। सन् 1904 ई० में खोजे गए थर्मीयोनिक को वैज्ञानिक विन विलयम्स ने सन् 1931 ई० में गणक – यन्त्र के रूप में उपयोगी पाया था। हावर्ड एकेन द्वारा निर्मित ‘हावर्ड मार्क’ नामक कम्प्यूटर, विश्व का पहला डिजिटल कम्प्यूटर था। इसमें इलेक्ट्रॉनिक मैकेनिकल यन्त्रों का प्रयोग किया गया था। इस कम्प्यूटर को सन् 1944 ई० में ‘इण्टरनेशनल बिजनेस मशीन’ (IBM) नामक फर्म और ‘हावर्ड विश्वविद्यालय’ ने मिलकर विकसित किया था। सन् 1946 ई० में विश्व का पहला पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कम्प्यूटर बना। इसमें दस अंकोंवाली बीस संख्याओं को संचित किया जा सकता था । इसकी कार्य करने की गति बहुत तेज थी । चार्ल्स बेवेज को कम्प्यूटर का आविष्कर्त्ता माना जाता है।
आज कम्प्यूटर में अनेक तरह के बदलाव आए हैं। कम्प्यूटर के कार्य करने की गति इतनी तीव्र हो गई है कि वह किसी भी गणना को करने में सेकण्ड का दस खरबवाँ भाग जितना समय लेता है। इसके अलावा इससे अन्य कई तरह के कार्य भी लिए जा सकते हैं।
कम्प्यूटर की उपयोगिता या लाभ – भारत में प्रारम्भ में कम्प्यूटरों का उपयोग काफी सीमित था । वर्तमान में बैंक, अस्पताल, प्रयोगशाला, अनुसन्धान केन्द्र, विद्यालयसहित ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहाँ कम्प्यूटर का प्रयोग न किया जाता हो । आज कम्प्यूटर संचार का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन गया है। कम्प्यूटर नेटवर्क के माध्यम से देश के प्रमुख स्थानों को एक-दूसरे के साथ जोड़ दिया गया है। भवनों, मोटर गाड़ियों, हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने में कम्प्यूटर का व्यापक प्रयोग हो रहा है। अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में तो कम्प्यूटर ने कमाल कर दिखाया है। इसके माध्यम से करोड़ों मील दूर अन्तरिक्ष में स्थित ग्रह-नक्षत्रों, उल्काओं, धूमकेतुओं और आकाशगंगाओं के चित्र लिए जा रहे हैं। इन चित्रों का विश्लेषण भी कम्प्यूटर द्वारा ही किया जा रहा है। इण्टरनेट ने तो संचार के क्षेत्र में क्रान्ति ही ला दी है। आज संसार के किसी भी क्षेत्र में हो रहे अनुसंधान, विकसित नवीन ज्ञान की जानकारी पलक झपकते ही इंटरनेट के माध्यम से अपने कक्ष में बैठे-बैठे ही अपनी कम्प्यूटर स्क्रीन पर प्राप्त कर सकते हैं। कम्प्यूटर रोबोट के द्वारा आज औद्योगिक क्षेत्रों आदि में अत्यधिक जान जोखिम वाले कार्यों को बिना कोई जोखिम उठाए सफलतापूर्वक किया जाने लगा है। सामरिक क्षेत्र में तो कम्प्यूटर का कोई विकल्प ही नहीं है। आज की मिसाइलें, मानवरहित विमान आदि सब कम्प्यूटर के ही तो परिणाम हैं। ।
उपसंहार — कम्प्यूटर चाहे कम समय में मानव से अधिक कार्य कर ले और वह भी बिना किसी त्रुटि के, लेकिन उसे मानव मस्तिष्क से तेज नहीं माना जा सकता; क्योंकि कम्प्यूटर का आविष्कार करनेवाला मानव ही है। इसलिए मानव कम्प्यूटर से श्रेष्ठ है। कम्प्यूटर उपयोगी होते हुए भी है तो मशीन ही। मशीन मानव के समान संवेदनशील नहीं हो सकती। मानव को कम्प्यूटर को एक सीमा तक ही प्रयोग में लाना चाहिए; क्योंकि इससे मनुष्य की आत्मनिर्भरता समाप्त हो रही है, वह आलसी और निकम्मा हो रहा है। अत्यधिक कम्प्यूटर के प्रयोग से मानव श्रम की अनदेखी हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी में वृद्धि हो रही है। बेरोजगारी में वृद्धि के कारण समाज में अशान्ति और अपराध जन्म लेते हैं, जो किसी भी देश और समाज के लिए घातक हैं। इसलिए कम्प्यूटर का प्रयोग सोच-समझकर ही किया जाना चाहिए। इसका प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि मनुष्य स्वयं निष्क्रिय न बने, बल्कि वह स्वयं को सक्रिय तथा अपनी कार्य एवं विचार – क्षमता को सुरक्षित रखे।
2. मानवाधिकार
संकेत-बिन्दु- (1) प्रस्तावना; (2) मानव अधिकार का इतिहास; (3) मानव अधिकार की आवश्यकता; (4) मानव अधिकार के : उद्देश्य; (5) उपसंहार ।
प्रस्तावना – भली प्रकार से जीवन जीने के लिए मानव को क्या अधिकार मिलने चाहिए, और किस सीमा तक उनकी पूर्ति शासन की ओर से हो; इस सम्बन्ध में मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही विवाद चला आ रहा है। सामान्यतः मानव के मौलिक अधिकारों में जीवन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीविका का अधिकार, वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, स्वतन्त्र रूप से धार्मिक विश्वास का अधिकार आदि पर चर्चा की जाती है। मानव अधिकार एक विशिष्ट अधिकार है।
मानव अधिकार का इतिहास – मानव अधिकार के प्रसंग में सर्वाधिक प्रसिद्ध अभिलेखों के रूप में हम सन् 1215 ई० के इंग्लैण्ड के मैग्नाकार्टा अभिलेख, 1628 ई० के अधिकार याचिका – पत्र, 1679 ई० के बन्दी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम, 1689 ई० के अधिकार-पत्र, 1779 ई० की अमेरिकी स्वतन्त्रता की घोषणा, 1789 ई० में फ्रांस की प्रसिद्ध मानव-अधिकार घोषणा को ले सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकार की बात 1945 ई० में संयुक्त राष्ट्र संघ में उठी । 1946 ई० में मानव-अधिकार आयोग का गठन किया गया। आयोग की सिफारिशों के आधार पर 10 दिसम्बर, 1948 ई० को संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक घोषणा-पत्र जारी किया। इसे अब मानव अधिकारों के घोषणा-पत्र के नाम से जाना जाता है। 1950 ई० को संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसम्बर को प्रतिवर्ष मानव अधिकार दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
मानव अधिकार की आवश्यकता – लोकतन्त्र की अवधारणा मानव अधिकारों को सुनिश्चित करने की बढ़ती हुई आवश्यकता के आधार पर टिकी है। इसके अभाव में न तो कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। मानव अधिकारों की सुरक्षा के अभाव में जनतन्त्र की कामना नहीं की जा सकती है; क्योंकि शासन के अन्य तन्त्रों के अन्तर्गत मानव के मूल अधिकारों तथा स्वतन्त्रता का लोप हो जाता है। सैनिक एवं प्रतिक्रियावादी शासकों द्वारा मानवीय अधिकारों के दुरुपयोग ने ही जनसाधारण में एक नवीन जागृति उत्पन्न की। जहाँ कहीं भी मानव अधिकारों को नकारा गया है, वहीं अन्याय, क्रूरता तथा अत्याचार का नग्न ताण्डव देखा गया है। मानवता बुरी तरह से अपमानित हुई है और जनमानस की दशा निरन्तर बिगड़ती गई है।
मानव अधिकार के उद्देश्य – संयुक्त राष्ट्र संघ के विधान के अनुच्छेद 3 में कहा गया है कि उसका एक उद्देश्य आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय रूप ही अन्तर्राष्ट्रीय समस्या के समाधान तथा जाति, लिंग, भाषा या धर्म के सब प्रकार के भेदभाव के बिना मानव अधिकारों, मौलिक अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं के संवर्द्धन व प्रोत्साहन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की प्राप्ति करना होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक सामाजिक परिषद् ने सन् 1946 ई० में मानव अधिकार आयोग की स्थापना की थी। आयोग की संस्तुति के आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने जो मानवाधिकार घोषणा-पत्र जारी किया और उसमें जिन मानवाधिकारों की चर्चा की गई, उन्हें मान्यता प्रदान करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 1965, 1976 ई० तथा 1985 ई० में तीन विभिन्न संविदा पत्र जारी किए। विश्व में सर्वत्र इस दृष्टि से सजगता दिखाई देती है कि सम्पूर्ण मानवता को अधिकार सुलभ होने चाहिए, लेकिन व्यवहार में स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। आज विश्व के कई देशों में मानव अधिकारों का खुला हनन किया जा रहा है।
भारत में मानवाधिकार – भारत में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया। इसका गठन संसद से पारित अधिनियम के अन्तर्गत हुआ था, जिसका नाम था— मानवाधिकार कानून 1993 | यह अधिनियम राज्य मानवाधिकार आयोग स्थापित करने तथा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में तुरन्त न्याय देने के लिए प्रत्येक जिले में मानवाधिकार न्यायालय स्थापित करने की व्यवस्था प्रदान करता है।
उपसंहार — भारत हमेशा से मानव अधिकारों के प्रति सजग रहा है। वह विश्व मंच पर मानव अधिकारों का समर्थन करता रहा है। मानव अधिकारों का हनन तथा उनका उल्लंघन विश्व के समक्ष एक गम्भीर समस्या बनी हुई है। यह आधुनिक सभ्यता पर लगा एक दाग है। यदि मानव अधिकारों के उल्लंघन को नहीं रोका गया तो निश्चित ही यह मानवता के विनाश का कारण बनेगा।
3. एड्स
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना; (2) भारत एड्स की स्थिति; (3) एड्स रोग : वास्तविकता और भ्रांतियाँ; (4) उपचार अथवा बचाव के उपाय।
प्रस्तावना – एड्स रोग आज सम्पूर्ण विश्व में महामारी का रूप धारण कर चुका है। आए दिन समाचार पत्रों में इस रोग से होनेवाली मृत्यु के समाचार छपते रहते हैं। तमाम रोकथाम के बाद भी इस रोग के रोगियों की संख्या में कमी नहीं आ रही है। लोगों में इस रोग को लेकर अनेक तरह की भ्रान्तियाँ और भय व्याप्त हैं।
भारत में एड्स की स्थिति – भारत में एड्स का रोगी सर्वप्रथम सन् 1986 ई० में प्रकाश में आया था। सन् 1987 ई० में सरकार द्वारा एड्स नियन्त्रण का कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेसहित विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर वर्ष 2006 में तैयार संशोधित अनुमानों के अनुसार देश में एच०आई० वी० से संक्रमित व्यक्तियों की संख्या 20 से 31 लाख थी।
एड्स रोग : वास्तविकता और भ्रान्तियाँ- एड्स (AIDS) का पूरा नाम ‘एक्वायर्ड इम्यून डेफिशिएन्सी सिण्ड्रोम’ है। यह एच० आई० वी० ( ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएन्सी वायरस) के संक्रमण से फैलता है। असुरक्षित यौन सम्बन्ध, एच०आई०वी० से संक्रमित रक्त चढ़वाने पर अथवा एच०आई०वी० से संक्रमित व्यक्ति पर प्रयोग किया गया इंजेक्शन दूसरे व्यक्ति पर भी प्रयोग करने से एड्स रोग फैलता है।
संक्रमित व्यक्ति के साथ रहने, काम करने, उसे छूने, हाथ मिलाने, गले मिलने, चूमने, साथ बैठकर खाना खाने, उसके बर्तन प्रयोग करने आदि से एड्स वायरस के संक्रमण का कोई खतरा नहीं होता है। एड्स वायरस खाँसी, छींक, थूक, मक्खी, मच्छर आदि कीटों के जरिए भी नहीं फैलता है।
एड्स वायरस संक्रमित व्यक्ति की भूख कम जाती है, उसके वजन में दस प्रतिशत तक की कमी आ जाती है, बार-बार दस्त लगने की शिकायत हो सकती है और रात को पसीना आता है। ये ऐसे लक्षण हैं, जो अन्य कई रोगों के लक्षणों से मिलते हैं इसलिए रोगी के एच०आई०वी० से संक्रमित होने की ओर ध्यान नहीं जाता है। यह वायरस अधिकतर शरीर के अन्दर चुपचाप बैठ जाता है। यह चुप्पी काफी लम्बी हो सकती है, लेकिन इसी बीच यदि उस व्यक्ति के खून की जाँच हो जाए तो उसके शरीर में इस वायरस की मौजूदगी का पता चल सकता है।
उपचार अथवा बचाव के उपाय – अब तक एड्स से बचाव का न तो कोई टीका उपलब्ध है और न ही कोई प्रभावी दवा ही; हालाँकि एण्टिरेट्रोवायरल दवाएँ बाजार में उपलब्ध हैं, जिनसे एड्स रोगी की आयु थोड़ी बढ़ जाती है। यह दवा रक्त में मौजूद एच०आई०वी० की संख्या को बढ़ने से रोकती है। यदि कोई महिला एच०आई० वी० से संक्रमित है तो उससे उत्पन्न होनेवाली सन्तान के एच० आई०वी० से संक्रमित होने की सम्भावना चालीस से पचास प्रतिशत तक रहती है।
एड्स के अधिकांश मामले असुरक्षित यौन सम्बन्धों के कारण फैलते हैं। एड्स पर नियन्त्रणं पाने के लिए सरकार को यौन शिक्षा लागू करनी चाहिए। सन् 1992 ई० से सरकार ने ‘राष्ट्रीय एड्स नियन्त्रण कार्यक्रम’ पूरे देश में लागू कर दिया है। इस कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) एच०आई०वी० या एड्स नियन्त्रण के लिए प्रबन्धन क्षमता को मजबूती देना ।
(2) जनता में जागरूकता और सामुदायिक सहयोग को बढ़ावा देना।
(3) रक्त सुरक्षा और सीमित प्रयुक्तता को बढ़ावा देना।
(4) यौन रोगों के संचरण पर नियन्त्रण।
एड्स की रोकथाम अथवा बचाव का जहाँ तक प्रश्न है तो अभी तक इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। बचाव के उपाय ही इसका सबसे बड़ा उपचार और इसको फैलने से रोकने का एकमात्र उपाय है।
4. पर्यावरण प्रदूषण
संकेत- बिन्दु – (1) पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ; (2) पर्यावरण (3) पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार; प्रदूषण के कारण; (4) पर्यावरण प्रदूषण का निवारण; (5) पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम की आवश्यकता।
पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ- ‘पर्यावरण’ का शाब्दिक अर्थ है— हमारे चारों ओर का जल- वायु आदि का आवरण अर्थात् घेरा। वैज्ञानिक दृष्टि से पर्यावरण का अभिप्राय उस प्राकृतिक वातावरण से है, जिसमें हम साँस लेते हैं और जीवन जीते हैं। इसके अन्तर्गत प्रकृति के पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, ध्वनि आदि सभी तत्त्वों से युक्त सम्पूर्ण परिवेश आता है। प्रदूषण का अभिप्राय है— दूषित अर्थात् गन्दा करना। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण का आशय प्राकृतिक वातावरण के स्वच्छ न होने से है। वातावरण तभी स्वच्छ नहीं रहता, जब प्राकृतिक सन्तुलन में दोष पैदा हो जाते हैं। इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण से तात्पर्य उस प्राकृतिक असन्तुलन से है, जो प्रकृति या वातावरण में पैदा हो गया है।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण – पर्यावरण प्रदूषण के कारण अनेक हैं, परन्तु सबसे बड़ा कारण तीव्र गति से हो रही वैज्ञानिक प्रगति है। भौतिक सुविधाओं को जुटाने के लिए कल-कारखानों से युक्त औद्योगिक नगर बस गए हैं। उनका रासायनिक कूड़ा-कचरा, गन्दा जल, मशीनों का शोर सब मिलकर हमारे पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं। ग्रीन हाऊस गैसों ने आकाश की ओजोन परत में छेद कर दिया है। परमाणु विस्फोटों से मैदान और पहाड़ सब काँप उठे हैं। परमाणु विस्फोटों से उत्पन्न ऊष्मा, कल-कारखानों से उत्पन्न ऊष्मा और धुएँ आदि से वातावरण में गरमी बढ़ गई है, जिससे सम्पूर्ण धरती मौसम बदल जाने के संकट से जूझ रही है । वातावरण में बढ़ती गर्मी के कारण ग्लेशियर पिघलकर सिकुड़ते जा रहे हैं, जिससे समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे जहाँ एक ओर समुद्रतटीय नगरों के समुद्र में समा जाने का खतरा मँडराने लगा है, वहीं ग्लेशियरों के सिकुड़ने से सदावाहिनी नदियों के सूख जाने का संकट भी आ खड़ा हुआ है।
जनसंख्या – विस्फोट भी पर्यावरण प्रदूषण का एक बड़ा कारण है। जनसंख्या की अधिकता के कारण पर्यावरण असन्तुलन बढ़ा है। अन्न, जल, आवास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों को काटा जा रहा है। शहरीकरण से गन्दगी बढ़ी है। धुएँ, शोर, तनाव और अनेक संक्रामक रोगों से लोग घिर रहे हैं।
पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार- पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य चार प्रकार हैं-
(1) जल-प्रदूषण, (2) वायु प्रदूषण, (3) ध्वनि-प्रदूषण, (4) रेडियोधर्मी प्रदूषण ।
कल-कारखानों का गन्दा जल नदी-नालों में मिलकर न केवल जल प्रदूषण फैला रहा है, वरन् अनेक रोग भी फैला रहा है। देखने में आ रहा है कि कल-कारखानाबहुल क्षेत्रों में भूगर्भीय जल भी अब प्रदूषित होने के कगार पर है। वायु प्रदूषण महानगरों की मुख्य समस्या है। तेल या डीजल से चलनेवाले काला धुआँ उड़ाते वाहन, बड़े-बड़े उद्योगों की चिमनियों से निकलती विषैली गैसें सब मिलकर बड़ी तेजी से हमारे वायुमण्डल को अधिकाधिक प्रदूषित करते जा रहे हैं। प्रदूषण का तीसरा रूप है- ध्वनि प्रदूषण। फैक्ट्रियों, मशीनों, वाहनों, ध्वनि विस्तारकों, आनन्द-उत्सवों आदि द्वारा इतना शोर होने लगा है कि आज लोगों के बहरे होने तक की स्थिति पैदा हो गई है। सभी प्रकार की कर्णकटु ध्वनि पर्यावरण में असन्तुलन फैलाती हैं। रेडियोधर्मी प्रदूषण परमाणु अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग से उत्पन्न होता है। हजारों-लाखों निरपराध लोगों को अपनी शक्ति के प्रभाव से मौत की नींद सुला देने के बाद भी रेडियोधर्मी प्रदूषण का प्रभाव अनेक वर्षों तक रहता है और यह आनेवाली पीढ़ियों तक के लिए संकट उत्पन्न कर देता है। परमाणु विस्फोटों से वायु प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण भी फैलता है।
पर्यावरण प्रदूषण का निवारण – पर्यावरण प्रदूषण का निवारण करना सरकार से अधिक जनता का उत्तरदायित्व है। इसे रोकने का सर्वप्रभावी उपाय है— जन-चेतना या जन-जागरण । जनता और सरकार दोनों को मिलकर इसकी रोकथाम पर गम्भीरता से कार्य करना चाहिए। इसके कुछ उपाय हैं – वनों और वृक्षों का संरक्षण, वृक्षारोपण, प्रदूषित जल और मल के निस्तारण की उचित व्यवस्था करना, ध्वनि-प्रदूषण पर रोक लगाना आदि । सामाजिक और जनहितकारी नियमों के उल्लंघन पर दोषी को दण्डित करना भी एक नियन्त्रणकारी उपाय है। |
पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम की आवश्यकता – यदि हम मानव की चहुँमुखी उन्नति चाहते हैं तो हमें पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम पर ध्यान देना होगा। प्रकृति ने हमें सुन्दर – स्वस्थ वातावरण प्रदान किया है। हम स्वयं प्रकृति के साथ खिलवाड़ का उसमें असन्तुलन उत्पन्न करके वैसा ही कार्य कर रहे हैं जैसे कि कोई उसी डाल को काटे जिस पर कि वह बैठा हो । केवल भौतिक उन्नति मानव-जीवन का ध्येय नहीं है। यदि इस वैज्ञानिक विकास से स्वयं मनुष्य के अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है तो इस वैज्ञानिक समृद्धि पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। हमें पर्यावरण के प्रत्येक प्रदूषण को रोकने के लिए गम्भीर और सक्रिय होना पड़ेगा। आज की यह सर्वप्रमुख आवश्यकता है।
[ समरूप निबन्ध – पर्यावरण प्रदूषण : एक गम्भीर समस्या; पर्यावरण-प्रदूषण : समस्या और समाधान ।]
5. भारत की बढ़ती जनसंख्या
संकेत – बिन्दु – (1) चिन्ताजनक जनसंख्या – वृद्धि और संसाधनों की कमी; (2) जनसंख्या वृद्धि के कारण; (3) जनसंख्या वृद्धि से होनेवाली हानियाँ (4) जनसंख्या – वृद्धि पर नियन्त्रण के उपाय ।
चिन्ताजनक जनसंख्या वृद्धि और संसाधनों की कमी – भारत की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 16 प्रतिशत है। आजादी के समय यह 33 करोड़ थी, किन्तु सन् 2011 में सम्पन्न जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 121 करोड़ है। भारत के लिए आबादी का इस तीव्र-गति से बढ़ना विशेष रूप से चिन्ता का कारण इसलिए है कि भारत की आबादी तो विश्व की कुल आबादी का 16 प्रतिशत है और इसके पास रहने के लिए विश्व की कुल भूमि का 2 प्रतिशत ही है। इस प्रकार यहाँ जनसंख्या का घनत्व बहुत बढ़ गया है। सारी जनसंख्या के लिए हमारे प्राकृतिक संसाधन पूरे पड़ जाएँ ऐसा सम्भव नहीं है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि संसाधन और सुविधाओं की तुलना में उपभोक्ताओं की संख्या कहीं तेज रफ्तार से बढ़ रही है। यदि यह कहा जाए कि यह एक अनार सौ बीमार की स्थिति है तो गलत नहीं होगा। प्रतिदिन बढ़ती यह भीड़ हमारी निरन्तर चिन्ता का कारण बन गई है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण – भारत में जनसंख्या वृद्धि का प्रमुख कारण है – मृत्यु दर में कमी। जन्म दर कम करने के सरकारी कार्यक्रमों का उतना उत्साहजनक परिणाम सामने नहीं आया; अतः जनसंख्या वृद्धि का दूसरा कारण जन्म-दर में कमी न आना भी है। अनपढ़, गरीब और अन्धविश्वासी जनता जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से लगभग अनजान-सी है। जनसंख्या घटाने का महत्त्व वह समझती ही नहीं है। समस्या का रूप यह है कि जिनके पास न रहने को घर है, न खिलाने को रोटी और जो शिक्षा के प्रति पूर्णतः उदासीन हैं जन्म-दर उनके तबके में सर्वाधिक है। भूख, बीमारी, गन्दगी, कुपोषण, बेरोजगारी तथा अन्य अनेक प्रकार की समस्याएँ इनके साथ चलती हैं। महानगरों का रूप इनके साथ और भी भयावह होता जा रहा है। पुत्र- प्राप्ति की कामना और बहु-विवाह की प्रथा से भी जनसंख्या में वृद्धि होती रही है। मध्यमवर्गीय समाज और कहीं-कहीं उच्चवर्गीय समाज में भी इस प्रथा का प्रचलन है। यह प्रथा भी जनसंख्या बढ़ाती है। सारांशतः सभी ओर से जनसंख्या बढ़ रही है। कहीं कोई अंकुश है ही नहीं। यही कारण है कि महानगर तो महानगर, छोटे नगरों में भी प्रदूषण की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। कितने दुःख की बात है कि भारत के कुछ महानगर विश्व के गन्दे महानगरों में गिने जाते हैं और हम हैं कि फिर भी चैन से बैठे हैं- किसी चमत्कार की आशा में ।
जनसंख्या वृद्धि से होनेवाली हानियाँ – जनसंख्या वृद्धि से सबसे बड़ी हानि तो यह है कि यहाँ बेरोजगारों की भीड़ बढ़ती जा रही हैं। बेरोजगारी से समाज में अपराध बढ़ रहे हैं। यद्यपि सरकारी और गैर-सरकारी तथा निजी स्तर पर स्कूल-कॉलेज, अस्पताल आदि खुल रहे हैं, फिर भी जनसंख्या के भारी दबाव के कारण ये सारे प्रयास ऊँट के मुँह में जीरा ही सिद्ध हो रहे हैं। जो भी व्यवस्था की जाती है, सब व्यर्थ ही लगती है। बाजारों मेलों में भयंकर भीड़ है। सड़कों पर भीड़ है। कॉलेजों स्कूलों में प्रवेश के लिए लम्बी कतारें हैं। चिकित्सकों के यहाँ बुकिंग के तीन-चार दिन बाद कहीं आपका नम्बर आता है। यह सब दुष्परिणाम जनसंख्या की अधिकता का है। हरित क्रान्ति तो हुई पर देश का किसान ही भूखों मर रहा है। बढ़ती जनसंख्या की सुविधा के लिए वाहनों की उत्पादकता बढ़ी तो सड़कों पर दुर्घटनाओं की संख्या भी बढ़ गई। रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं पर भी बढ़ती जनसंख्या का भारी दबाव है। लाखों लोगों के लिए आज न भरपेट भोजन है, न सिर छुपाने को छत और न तन ढकने को कपड़ा । उद्योग-धन्धे, व्यवसाय के क्षेत्र बढ़े हैं, फिर भी जनसंख्या के भारी बोझ को ये भी नहीं सँभाल पा रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इन हानियों को गम्भीरता से लें और इनके निवारण के उपाय सोचें।
जनसंख्या – वृद्धि पर नियन्त्रण के उपाय – जनसंख्या – वृद्धि पर नियन्त्रण के लिए जन-जागरूकता की गहरी आवश्यकता है। इसके लिए परिवार नियोजन, परिवार कल्याण कार्यक्रमों को सफल बनाना होगा तथा शिक्षा का प्रसार, सीमित परिवार के महत्त्व का ज्ञान, गर्भ निरोधक उपायों के प्रति जनता की रुचि को जाग्रत करना होगा । बाल-विवाह और बहु-विवाह रोकने होंगे। यह सभी कार्य सरकार और जनता दोनों के सम्मिलित प्रयास से ही सम्भव हो सकेंगे। आज समाज के प्रत्येक व्यक्ति की, विशेषकर युवाओं की, अधिक सक्रियता की आवश्यकता है, तभी हम सुख-समृद्धि की सम्भावनाओं को साकार कर सकेंगे।
6. आतंकवाद
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना : आतंकवाद का स्वरूप और परिभाषा; (2) भारत में आतंकवाद का उदय; (3) भारत में आतंकवाद : वर्तमान परिदृश्य; (4) विश्व में आतंकवाद का स्वरूप; (5) आतंकवाद के प्रसार के कारण; (6) समाधान।
प्रस्तावना : आतंकवाद का स्वरूप और परिभाषा – आतंकवाद का अभिप्राय है वह अतिवादी विचारधारा, जो भय फैलाकर अपनी बात मनवाने का प्रयास करती है। भौतिकवादी युग ने सत्ता की भूख बढ़ा दी है। सत्ता न मिलने पर असन्तोष फैलता है। इसी अभिव्यक्ति होती है भय या आतंक फैलाकर मनचाही बात मनवाने या वस्तु हड़पने में। उपेक्षित समुदाय भी आज अपना अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए संगठित होकर आतंक फैलाने का मार्ग अपना रहे हैं।
आतंक का अर्थ है ‘भय’। जब कोई व्यक्ति या समूह हिंसा करके अपने स्वार्थ सिद्ध करता है तो वह आतंकवादी कहलाता है। इस प्रकार की अतिवादी हिंसक विचारधारा ‘आतंकवाद’ कहलाती है। जब किसी व्यक्ति द्वारा फैलाया गया भय सीमित क्षेत्र में होता है तो वह प्रायः गुण्डागर्दी कहलाता है, परन्तु जब यही भय पूरे के पूरे समूह या देश अथवा क्षेत्र में होता है, तब वह आतंकवाद कहा जाता है। इसके प्रभाव में आया क्षेत्र आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्र कहलाता है।
भारत में आतंकवाद का उदय – भारत में इसका उदय सन् 1967 ई० में बंगाल में नक्सलवाद से हुआ। नक्सलवादी आन्दोलन ने सन् 1974 ई० तक न जाने कितनी जानें ले लीं। नक्सलवाद के कहर को तब पूरा देश महसूस करता था ।
भारत में आतंकवाद : वर्तमान परिदृश्य – सन् 1967 ई० में जिस आतंकवाद ने भारत में कदम रखे उसकी काली छाया आज भी मौजूद है। सन् 1981 से 1991 ई० तक पंजाब में भ्रष्ट राजनीति और पाकिस्तान की साजिश से सिख आतंकवाद ने हज़ारों निरपराधों की जानें ले ली थीं। भिंडरावाला ने खालिस्तान की माँग की। कई नवयुवक साजिश के शिकार बने और आतंकवादी बनकर विनाश के मार्ग पर चल पड़े। देश के शीर्षस्थ नेता मारे गए । इन्दिरा गांधी, सन्त लोंगोवाल, लाला जगतनारायण की हत्या की गई। परन्तु वहाँ की जनता जल्दी ही इसके प्रति सतर्क हो गई। पंजाब का आतंकवाद अब बीती बात हो गया है।
कश्मीर में आतंकवाद सीधे-सीधे पड़ोसी देश पाकिस्तान द्वारा प्रेरित है। इसके प्रमाण पकड़े गए घुसपैठियों आतंकवादियों से कई बार मिल चुके हैं। प्रशिक्षित आतंकवादी कश्मीर में लगातार आतंक फैलाकर वहाँ की जनता का मनोबल तोड़ने में आज भी लगे हुए हैं। अल्पसंख्यक हिन्दुओं के साथ घृणित अत्याचार करके उनको कश्मीर छोड़ने पर विवश किया जा रहा है, जिससे कि पाकिस्तान उस पर कब्ज़ा कर सके। अब तक लाखों कश्मीरी हिन्दू बेघर होकर भटक रहे हैं तथा हजारों आतंकवादी हमलों में मारे गए हैं। पाकिस्तानी आतंकवादी कश्मीर में सफलता न पाकर अब बड़े शहरों, यहाँ तक कि दिल्ली के संसद भवन, मुम्बई के ताज व ओबेराय होटल तक को निशाना बना चुके हैं। ये कभी कश्मीर की मसजिद में खून बहाते हैं। कभी कोलकाता में बम फटते हैं तो कभी मुम्बई में क्रमिक बम फूटते हैं और कभी गुजरात में भीषण नरसंहार होता है। असम, बिहार, नागालैण्ड, सिक्किम, मिजोरम पहले ही इससे जूझ रहे हैं। इस प्रकार लगभग पूरा भारत आतंकवाद की चपेट में है।
विश्व में आतंकवाद का स्वरूप- आतंकवादी गतिविधियाँ अब कुछ–एक व्यक्तियों या राष्ट्रों तक सीमित नहीं रह गई हैं, वरन् पूरे विश्व में यह पैर पसार चुकी है। बड़े-छोटे सभी देश आतंकवाद की चपेट में हैं। बाँग्लादेश, नेपाल, सीरिया, फिलिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका और अमेरिका तथा यूरोप सब पर यह अपना प्रभाव दिखा रहा है। ओसामा-बिन-लादेन ने अज्ञात स्थान में रहकर भी तालिबान विद्रोहियों की भारी फौज खड़ी कर ली है। अमेरिका के ट्विन टावरों को पलभर में ध्वस्त कर देने का उसका आतंकी हमला आज भी विश्व की निगाह में ताजा है।
आतंकवाद के प्रसार के कारण – आज सम्पूर्ण विश्व में फैल रहा आतंकवाद जहाँ धर्मान्धता से कुछ-कुछ सम्बद्ध है, वहीं राष्ट्रों के भीतर फैलाया जा रहा आतंकवाद सत्ता लोलुपता और राजनैतिक स्वार्थ का फल है। भारत में अलगाववादी प्रवृत्तियों के कारण भी आतंकवाद फैल रहा है। क्षेत्रवाद और व्यक्तिवाद का रक्त सत्ता में बैठे लोगों को ऐसा मुँह लग चुका है कि वे सत्ता के लिए आतंकवाद को जानबूझकर प्रश्रय देते हैं। उनका लगाया बबूल का पेड़ अपने काँटों से उनका दामन भी तार-तार कर सकता है, यह वे भूल जाते हैं।
समाधान – आतंकवाद का जन्म स्वार्थ में अन्धे हो जाने की परिणति है। स्वार्थ में डूबा हुआ व्यक्ति उग्र, घातक और अतिवादी बन जाता है। अपनी बात मनवाने के लिए वह हिंसा पर उतर आता है। मानवीय और नैतिक मूल्यों को भुला देता है। इस प्रकार आतंकवाद की समस्या मनुष्य की अपनी बनाई हुई है। जिस दिन मनुष्य अपनी पाशविक प्रवृत्तियों, तुच्छ स्वार्थों को छोड़ने का विचार कर लेगा उसी दिन से आतंकवाद कमजोर पड़ने लगेगा।
इसके लिए सभी देशों को एकजुट होकर चाहे शक्ति प्रदर्शन से ही मही, इसका नाश करना होगा। आतंकवाद के नासूर का यही इलाज है।
मानवमूल्य प्रेमी, अहिंसा – प्रिय देशों के साथ-साथ अन्य सभी राष्ट्रों को भी अपने निवासियों को नैतिक मूल्यों के विकास, सहनशीलता, धीरज, सह-अस्तित्व की भावना, समरसता आदि का पाठ पढ़ाना होगा | मैत्री और सौहार्द का पाठ पढ़ाना होगा और यदि आवश्यक हो तो बल-प्रयोग भी करना होगा।
7. विज्ञान : वरदान या अभिशाप
संकेत- बिन्दु – (1) प्रस्तावना : विज्ञान का अर्थ (2) विज्ञान के दो रूप; (3) विज्ञान का ‘वरदान’ रूप; (4) विज्ञान का ‘अभिशाप’ रूप; (5) निष्कर्ष ।
प्रस्तावना : विज्ञान का अर्थ- ‘विज्ञान’ शब्द, दो शब्दों ‘वि’ तथा ‘ज्ञान’ के योग से बना है। ‘वि’ का अर्थ है- विशेष या विशिष्ट या खास या प्रमाणसहित। ‘ज्ञान’ का अर्थ है – जानकारी, बुद्धि या अक्ल । प्रमाणसहित हो, विशेष हो। इस प्रकार विज्ञान का अर्थ है- ऐसी जानकारी या ज्ञान, जो
विज्ञान के दो रूप – विशेष ज्ञान से तात्पर्य केवल उस वैचारिक सामर्थ्य से है, जो किसी कारण से विशेष है: अर्थात् वह शक्ति, जो विशेष ज्ञान के आधार पर नए-नए आविष्कार करती है, हमें नई सोच प्रदान करती है। यह नई सोच या शक्ति या क्षमता रचनात्मक भी हो सकती है और विध्वंसात्मक भी । रचनात्मक शक्ति ‘वरदान’ है तो विध्वंसात्मक शक्ति ‘अभिशाप’।
विज्ञान का ‘वरदान’ रूप – विज्ञान का रचनात्मक स्वरूप ‘वरदान’ है। जिस प्रकार प्राचीनकाल में देवताओं से वरदान माँगने पर, उनके ‘तथास्तु’ कहने के साथ ही मनचाही इच्छा पूरी होने की बातें हमने कथा-कहानियों में पढ़ी-सुनी वैसे ही आज बटन दबाते ही (विज्ञान देवता के द्वारा) मानव की मनोकामनाएँ पूरी हो रही हैं। विज्ञान के बल पर नेत्रहीनों की दुनिया बदल गई है। बहरों को सुनने की शक्ति मिल गई है। अपंगों को अंग मिल रहे हैं। निःसन्तान को सन्तान मिल रही है। असाध्य समझे जानेवाले रोगों का इलाज सम्भव हुआ है। अकाल मृत्यु पर विजय पा ली गई है। बटन दबाते ही इन्द्र देवता वर्षा करने आ जाते हैं तो वायु देवता हवा करने लगते हैं। प्रकाश के को कम या ज्यादा करना हमारे वश में है। रेलगाड़ी दौड़ाना, हवाई जहाज उड़ाना, पानी को बाँधकर बिजली बनाना सब विज्ञान के वरदान हैं। समुद्र की गहराई और आकाश की ऊँचाई नाप लेने का वरदान ह विज्ञान ने ही दिया है। तार, बेतार के तार, टेलीफोन, इण्टरनेट आदि विज्ञान के ऐसे वरदान हैं, जिन्होंने संसार की हर वस्तु को हर समय हमारी मुट्ठी में ला दिया है।
विज्ञान का ‘अभिशाप’ रूप- मनुष्य ने विज्ञान के दम पर जहाँ अपने ज्ञान का विकास और जीवन – सुविधाओं में वृद्धि की है वहीं विज्ञान के दुरुपयोग से अपने लिए स्वयं अपनी कब्र भी खोदी है। परमाणु-शक्ति की खोज तो वैज्ञानिकों ने मानव के भले के लिए की थी, परन्तु मानव-मन में छिपी पाशविक वृत्तियों ने इसके दुरुपयोग की राहें भी ढूँढ निकाली। हमने परमाणु बम, हाइड्रोजन बम और न जाने कितने विध्वंसकारी, संहारक अस्त्र-शस्त्रों का जखीरा बना लिया है। जिस देश के पास जितनी मारक क्षमता है, वह उतना ही बड़ा दर्जा रखता है। इन भयानक अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग से पृथ्वी पर प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है। जन-जीवन पर अब संकट के बादल मँडराने लगे हैं। नित्य ही असाध्य रोगों के रोगियों की संख्या बढ़ रही है। अत्यधिक मशीनों पर आधारित जीवन ने मनुष्य को स्वयं एक मशीन में बदल दिया है। मानव की सहज संवेदनाएँ समाप्त हो रही हैं। किसी कार्य का सम्पादन अपना कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व या लगाव समझकर करने की अपेक्षा आज व्यक्ति उसे नौकरी या कार्यस्थल की विवशता समझकर कर रहा है। इससे मानव-जीवन में नीरसता भर गई है। सन्देह और भय के वातावरण को हवा देने में वैज्ञानिक उपकरणों के दुरुपयोग की ही मुख्य भूमिका रही है। विज्ञान का यह रूप मानव-जीवन के लिए अभिशाप है।
निष्कर्ष – आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मानव ने अपनी जीवन यात्रा को सुविधामय बनाने के लिए विकास के पथ पर विज्ञान का सहारा लिया, किन्तु आज यही विज्ञान हमारे जीवन को चला रहा है। हम इसके दास बन गए हैं। आज की परिस्थितियों का मूल्यांकन करें तो यह स्पष्ट हैं कि विज्ञान को वरदान या अभिशाप बनानेवाले हम . स्वयं ही हैं। अग्नि पर हमारा अधिकार है। अब हम उससे भोजन पकाकर सबका पेट भरें या फिर सबके घर में आग लगाकर उनको भस्म कर दें – यह हमारी मानसिकता पर निर्भर करता है।
विज्ञान के सहारे मानव ने जो भौतिक उन्नति की है उसमें सीधा-सरल, निष्कपट, निःस्वार्थ, सन्तोषी, आनन्द बाँटनेवाला मानव कहीं खो गया है। आज छलो कपटी, स्वार्थी, तनावग्रस्त, चालाक, भौतिकवादी, धन-लोलुप समाज; विज्ञान का अभिशाप बनकर हमें उस रहा है। जीवन का सुख समाप्त – सा हो गया है। हम अपने जीवन में सुख चाहते हैं या सुविधाएँ, यह हमें चुनना है। विज्ञान के वरदान और अभिशाप दोनों रूपों की वास्तविकता हमारे सामने है।
8. गणतंत्र दिवस
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना; (2) गणतन्त्र दिवस मनाए जाने का कारण (ऐतिहासिक पृष्ठभूमि); (3) गणतन्त्र दिवस का महत्त्व; (4) देशव्यापी आयोजन; (5) उपसंहार ।
प्रस्तावना – भारतवर्ष में सामाजिक एवं राष्ट्रीय दो प्रकार के पर्व मनाए जाते हैं। सामाजिक पर्वों के अन्तर्गत – होली, दीपावली, विजयदशमी, ईद, क्रिसमस, गुरुपर्व आदि का अपना विशिष्ट महत्त्व है। धार्मिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न दृष्टियों से ये पर्व, भारतीय जनमानस के लिए प्रेरणा का प्रमुख स्रोत रहे हैं। दूसरी ओर वे राष्ट्रीय पर्व हैं जो राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देश के सभी वर्गों, सम्प्रदायों अथवा जातियों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण रहे हैं। इन राष्ट्रीय पर्वों में गणतन्त्र दिवस भी एक राष्ट्रीय पर्व है। प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी के दिन सम्पूर्ण देशवासियों के द्वारा इस पर्व को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
गणतन्त्र दिवस मनाए जाने का कारण ( ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ) – 15 अगस्त, 1947 ई० को स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व के कई सौ वर्षों तक भारतीयों ने अंग्रेजों के अधीन नरकतुल्य दासतापूर्ण जीवन बिताया। देश को पराधीनता से मुक्त करने के लिए भारतीयों को दीर्घकाल तक संघर्ष करना पड़ा। भारत का सम्पूर्ण स्वाधीनता आन्दोलन; त्याग, बलिदान, वेदना, घुटन और अंग्रेजों के दिल दहला देनेवाले अत्याचारों की एक करुणगाथा है। स्वाधीनता – प्राप्ति के लिए किए गए अनेक ऐतिहासिक प्रयासों के अनन्तर 26 जनवरी, 1929 ई० के दिन का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की महासभा ने लाहौर में रावी नदी के पावन तट पर यह घोषणा की कि आज से पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करना ही भारतवासियों का लक्ष्य होगा। – लाहौर के इस अधिवेशन में देशभर से आए आजादी के दीवानों का सैलाब उमड़ पड़ा था। दूर-दूर से कई-कई दिन तक पैदल चलकर आए, लाहौर की भयंकर शीत में कँपकँपाते परन्तु देश को आजाद कराने के संकल्प की दहकती आग को अपने मन में लिए उस अपार जनसमूह ने पं० जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में देश को हर हालत में स्वाधीन कराने की सौगन्ध खाई। इसी दिन से सारा भारत ‘भारतमाता की जय’, ‘वन्दे मातरम्’, ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ के गगनभेदी नारों से गूँजने लगा। प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी के दिन पूर्ण स्वराज्य की प्रतिज्ञा दोहराई जाती रही। विदेशी आक्रान्ताओं की लाठी, गोली और तोपों का सामना करते हुए निहत्थी जनता वर्षों तक खून में नहाती रही। देश का चप्पा-चप्पा शहीदों की लाशों से पट गया । अन्ततः अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा। स्वाधीनता – यज्ञ में अपनी अनगिनत आहुतियाँ देने के बाद 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत आजाद घोषित कर दिया गया।
स्वतन्त्रता – प्राप्ति के उपरान्त देश के संविधान का निर्माण हुआ और उसे 26 जनवरी, 1950 ई० के दिन लागू किया गया। सही अर्थों में हम इसी दिन पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हुए क्योंकि इसी दिन से भारत को एक पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न गणराज्य घोषित किया गया।
इस प्रकार 26 जनवरी के दिन ही हमने पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया था और 26 जनवरी के दिन ही हम पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हुए। इन दो कारणों से ही हम प्रतिवर्ष अपना गणतन्त्र दिवस मनाते हैं।
गणतन्त्र दिवस का महत्त्व – गणतन्त्र दिवस का महत्त्व दो दृष्टियों से है। एक तो उन शहीदों की पावन स्मृति के लिए, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी बलि दे दी और दूसरे इसलिए कि इसी दिन भारत को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हुई । न मालूम कितनी बहनों ने अपने भाइयों के मस्तक पर तिलक लगाकर उन्हें अपने प्राणों की आहुति देने के लिए अन्तिम विदा दी, न मालूम कितनी भारतीय नारियों ने अपने अश्रुओं के सैलाब को थामकर, हँसते-हँसते अपने पतियों को आजादी के यज्ञ में होम कर दिया, तब कहीं जाकर मिली यह आजादी ।
इस आजादी के महत्त्व की स्मृति बनाए रखने और देश के लिए शहीद हो गए बलिदानियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए ही यह पर्व प्रतिवर्ष हमारे राष्ट्र में मनाया जाता है।
देशव्यापी आयोजन – इस दिन सारे देश में हर्षोल्लास का वातावरण रहता है। स्थान-स्थान पर प्रातः ही भारतीय तिरंगा फहराया सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। देश की राजधानी जाता है, सजावट की जाती है, मिष्टान्न वितरण होता है और से ही देश के कोने-कोने से लोगों का दिल्ली आना प्रारम्भ हो जाता दिल्ली में यह दिवस विशेष धूमधाम से मनाया जाता है। कई दिन पूर्व है। इस दिन सारी दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। प्रात: निर्धारित समय पर देश के राष्ट्रपति द्वारा इण्डिया गेट पर ध्वजारोहण के साथ ही गणतन्त्र – उत्सव प्रारम्भ हो जाता है। जल, थल और वायु सेना की टुकड़ियाँ राष्ट्रपति के सम्मान में 21 तोपों की सलामी देती हैं। इसके उपरान्त आकाश में लाखों गुब्बारे और कबूतर छोड़े जाते हैं। द्वारा आकाश से पुष्प वर्षा की जाती है। विभिन्न प्रदेशों से आई राजपथ पर तीनों सेनाओं की परेड होती है तथा वायुसेना के विमानों झाँकियाँ दर्शकों का मन मोह लेती हैं। इस अवसर पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा देश की रक्षा हेतु शौर्य-प्रदर्शन करनेवाले सैनिकों, बहादुरी का प्रदर्शन करनेवाले बालकों और देश की प्रगति में अपना उल्लेखनीय योगदान देनेवाले व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है। सायंकाल देशभर की सरकारी एवं राष्ट्रीय इमारतों पर भव्य रोशनी की जाती है। स्थान-स्थान पर विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
उपसंहार – गणतन्त्र दिवस हमारी राजनैतिक दृष्टि से प्राप्त पूर्ण स्वाधीनता और पूर्ण स्वराज्य के लिए किए गए बलिदानों का स्मृति – पर्व है । हर्ष, करुणा, उत्साह, वियोग, रौद्र आदि विभिन्न रसों का एकसाथ संचार करनेवाले इस पर्व का प्रत्येक भारतीय के लिए परम महत्त्व है। इस दिन हमें अपने बलिदानियों के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करनी चाहिए और अपनी समस्त क्षुद्रताओं का परित्याग करके देश की आजादी को बनाए रखने, परस्पर भेदभाव की खाई को पाट देने और निःस्वार्थ रूप से देश के लिए जीने-मरने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
9. मेरी अविस्मरणीय रेल यात्रा
अथवा
रेल की एक यात्रा
संकेत- बिन्दु – (1) प्रस्तावना : पहली यात्रा का उत्साह; (2) स्टेशन का दृश्य; (3) रेलगाड़ी के भीतर का दृश्य; (4) रेलगाड़ी के बाहर का दृश्य; (5) चहल-पहल ; (6) यात्रा का अन्त।
प्रस्तावना : पहली यात्रा का उत्साह — बात सन् 1988 ई० की है, फिर भी है मेरे स्मृति – पटल पर बिल्कुल स्पष्ट । कारण एक नहीं दो-दो थे । एक तो मुझे अपने विद्यालय की ओर से चण्डीगढ़ में आयोजित हो रही अन्तर विद्यालयी शरीर सौष्ठव प्रतियोगिता में प्रतिनिधित्व करना था और दूसरे मैं पहली बार अकेले यात्रा करने जा रहा था, वह भी रेलगाड़ी में पहली बार अकेले यात्रा करने के रोमांच और प्रतियोगिता में प्रथम आने के उत्साह के कारण वह रेल यात्रा मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय अनुभव बन गई है।
स्टेंशन का दृश्य – हमारे पी०टी० अध्यापक मुझे स्टेशन पर टिकट देने आए। वे टिकट पहले ही खरीद चुके थे। ट्रेन 12:30 पर थी, पर मैं स्टेशन पर 12:05 पर ही पहुँच गया था। आखिर रेलगाड़ी में यात्रा की उतावली जो थी। गाड़ी आने में अभी समय था। शिक्षक महोदय मुझे रेल – यात्रा में सुरक्षा सम्बन्धी और प्रतियोगिता सम्बन्धी आवश्यक हिदायतें लगातार दे रहे थे। वे किसी भी प्रकार से सन्तुष्ट नहीं हो पा रहे थे कि मैं अकेले यात्रा कर सकूँगा। मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि उनका आशीर्वाद मेरी रक्षा करेगा। तब वे मेरे लिए पानी की बोतल लेने चले गए। इस बीच मैंने स्टेशन का नजारा जीभरकर किया। साफ-सुथरा प्लेटफॉर्म और चारों ओर भीड़ – ही भीड़ । कुली के साथ कोई भागता – सा चल रहा था तो कोई अपना बैग लादे औरों को धक्के मारता, रास्ता बनाता भाग रहा था। कोई खाने का सामान लिए बोगी की ओर भाग रहा था। मैंने आरक्षण सूची से अपनी सीट की स्थिति पता कर ली। गाड़ी आ गई। मैंने शिक्षक महोदय को किसी बुजुर्ग से बातें करते देखा तो मालूम पड़ा कि वे मेरे ही डिब्बे में सहयात्री थे। शिक्षक महोदय ने मुझे गाड़ी में चढ़ाया और शुभकामनाएँ दीं। मेरी सीट खिड़की की ओर थी, मैं उस पर बैठ गया। गाड़ी ने सीटी दी और धीरे-धीरे सरकने लगी। मेरी आँखों में उल्लास था और मन में कहीं थोड़ा-सा भय भी ।
रेलगाड़ी के भीतर का दृश्य – अधिकांश सीटों पर लोग बैठ चुके थे। कुछ लोग अपनी सीट की स्थिति से सन्तुष्ट नहीं थे। उनकी आपस में सीट बदल लेने की बात चल रही थी। बैठे हुए कुछ लोग अपना सामान व्यवस्थित करने में लगे थे। कुछ युवक-युवतियाँ सामने की सीटों पर थे। उन्होंने डिब्बे के शोरगुल से बचने के लिए कानों में वाकमैन/मोबाइल में संगीत प्रवाहित कर रखा था। अधिकांश बुजुर्ग गरमी के प्रभाव और भीड़ के शोर से बेखबर आँखें बन्द किए बैठे थे। कुछ महिलाएँ परिवार के बच्चों की माँग पर खाने-पीने की चीजें निकालने – सजाने में लग गई थीं। कुछ ताश खेलने में व्यस्त थे और कुछ पत्र-पत्रिकाओं में तो कोई अपनी पिछली यात्रा में हुई ठगी का अनुभव सुना रहा था। मैं किसी तरह उसे सुनने का प्रयास कर रहा था, परन्तु ठीक से सुनाई नहीं रहा था।
रेलगाड़ी के बाहर का दृश्य – अब रेलगाड़ी ने गति पकड़ ली। मेरा ध्यान बाहरी दृश्यों की ओर खिंच गया। किसी चलचित्र की तरह विविध प्रकार के दृश्य लगातार एक के बाद एक आते जा रहे थे। समझ में यह नहीं आ रहा था कि गाड़ी भाग रही है या ये दृश्य। गाड़ी पटरी पर सरपट दौड़ रही थी। काँटे और पटरी बदलती ट्रेन कैसे आड़ी-तिरछी होकर भी रास्ता बनाती भाग रही थी, इस पर मैं अचम्भित – सा था। दूर तक फैले मैदान और बीच-बीच में दिख जानेवाले छोटे-छोटे मकान एक अजीब-सा सौन्दर्य रच रहे थे। मैं इसी में खोया रहता कि अचानक रेलगाड़ी रुक गई। पता चला कि किसी ने चेन पुलिंग की है। गार्ड ने उतरकर मौके का जायजा लिया। इस बीच डिब्बे में तरह-तरह की बातों में लोग अपना भय और शंका व्यक्त कर रहे थे। थोड़ी देर में गाड़ी बढ़ी और बीस मिनट बाद ही सब्जीमण्डी स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई। लोगों के चढ़ने-उतरने का सिलसिला फिर चला।
चहल-पहल – सब्जीमण्डी से गाड़ी चली कि फेरीवालों की आवाजें कानों को बेधने लगीं। जूता पॉलिश, खिलौने, नमकीन, कोल्ड ड्रिंक, चाय, पानी की बोतल, पुस्तकें और समोसे-पकौड़े-क्या नहीं था, जो गाड़ी में फेरीवालों की बदौलत उपलब्ध न हो। एक लड़के से मैंने एक फ्रूटी खरीदी तो वह खुले पैसे न होने का बहाना बनाकर पूरा नोट ही ले गया। मैंने सोचा कि मैं ठगा गया, परन्तु जब उसने आकर पैसे लौटाए तो मुझे पता लगा कि वह फ्रूटी बेचते हुए भीड़ में आगे निकल गया था और मुझे ढूँढ नहीं पा रहा था। ट्रेन अपनी गति से भागी जा रही थी।
यात्रा का अन्त – मैंने अम्बाला में माँ का दिया खाना निकाला। मैं खा ही रहा था कि वे बुजुर्ग मेरे करीब आकर बोले कि बेटा, बस बीसेक मिनट में चण्डीगढ़ आ जाएगा। तुम तैयार हो जाओ। मैंने जल्दी-जल्दी खाना निपटाया, जूते कसे और बैग बन्द करके पीठ पर लादा। स्टेशन आने से पूर्व ही मैं डिब्बे के गेट पर जा पहुँचा। वे बुजुर्ग मुझे देखकर मुसकराए और मुझे शुभकामनाएँ दीं — “प्रथम आओ।” प्रतियोगिता में मैं प्रथम आया भी। मैं आज भी न उन्हें भुला पाया हूँ और न उस रेल यात्रा को ।
10. आदर्श विद्यार्थी
संकेत – बिन्दु – ( 1 ) विद्यार्थी का अर्थ और आदर्श विद्यार्थी; (2) जिज्ञासा और श्रद्धा; (3) अनुशासित तपस्वी; (4) सादा जीवन और उच्च विचार; (5) पाठ्येतर गतिविधियों में सक्रियता और रुचि; (6) उपसंहार ।
विद्यार्थी का अर्थ और आदर्श विद्यार्थी – विद्यार्थी का अर्थ है— विद्या पानेवाला; अर्थात् सच्चा विद्यार्थी वही है, जो विद्या अर्थे (के लिए) जीवन जीता हो, जो सीखने की आकांक्षा से ओत-प्रोत हो, अर्थात् जिसमें ज्ञान-प्राप्ति की ललक हो । सच्चा विद्यार्थी अपने जीवन में सर्वाधिक महत्त्व ज्ञानार्जन को देता है। विद्या प्राप्ति का यह कदापि नहीं है कि विषय के प्रश्नों को परीक्षा में सफलता के लिए याद किया जाए। आदर्श विद्यार्थी तो जो कुछ भी पढ़ता है, वह उसमें गहराई से उतरता है और जीवन की लम्बी यात्रा में अपने अर्जित ज्ञान का लाभ उठाता है।
जिज्ञासा और श्रद्धा – यों तो सारा जीवन ही आदमी सीखता है, परन्तु विद्यार्थी जीवन मानव के विकास का स्वर्णिमकाल है। उसकी जिज्ञासा की प्रवृत्ति उसको नित नई जानकारी दिलाती है। आदर्श विद्यार्थी केवल कक्षा की पुस्तकों और अध्यापकों के अध्यापन पर ही निर्भर नहीं रहता, वह स्वयं भी जमकर विषय पर मेहनत करता है। आदर्श विद्यार्थी का एक गुण श्रद्धावान् होना भी है। सच्चा विद्यार्थी पुस्तकों और गुरुओं पर श्रद्धा रखता है, उनकी ओर शंका की दृष्टि नहीं रखता। जिज्ञासा प्रकट करने और शंका करने में जो अन्तर है वह उसे भली-भाँति जानता है। ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्’ संस्कृत – सूक्ति है। जो विद्यार्थी विद्या- अर्जन को खेल मानता है और अपने गुरुजनों का मजाक उड़ाता है, वह कभी सफल नहीं होता।
अनुशासित तपस्वी – आदर्श विद्यार्थी एक अनुशासित तपस्वी होता है। वह अपनी निश्चित दिनचर्या बनाता है और उसका कठोरता से पालन करता है। उसे सांसारिक सुख-सुविधाएँ आकर्षित नहीं करतीं। आराम उसके लिए हराम होता है। वह कठोर जीवन जीने में तपस्वी का-सा आनन्द उठाता है। आज का विद्यार्थी तो इस उक्ति का अक्षरश: पालन करता दिखता है-
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥
अर्थात् ‘आलसी को विद्या कहाँ, विद्याहीन को धन कहाँ, धनहीन को मित्र कहाँ और बिना मित्र के सुख कहाँ ?’ आदर्श विद्यार्थी इसीलिए परिश्रम, लगन और तपस्या का जीवन जीकर स्वयं को दृढ़ व्यक्तित्व का स्वामी बना लेता है। वह पढ़ाई, खेलकूद, व्यायाम, मनोरंजन, . अध्ययन के अतिरिक्त व्यक्तित्व के विकास तथा ज्ञानार्जन से सम्बन्धित गतिविधियों में सक्रिय रुचि रखता है। उसके अध्ययन और व्यायाम, ‘खेल और मनोरंजन सबके समय निर्धारित और अनुशासित होते हैं। वह बिना आराम किए, सबके बीच सन्तुलन बैठाते हुए जीवन की मजबूत आधारशिला तैयार कर लेता है।
सादा जीवन और उच्च विचार – आदर्श छात्र प्रदर्शन और ढोंग की दुनिया से कोसों दूर रहता है। वह सादा सरल जीवन जीता है और महान् विचारो से अपने व्यक्तित्व को तराशने में हर पल सतर्क रहता है। जो छात्र फैशनपरस्ती, बनावट – शृंगार, व्यसन, सैर-सपाटा, अड्डेबाजी आदि के भुलावे में आ जाते हैं, वे अन्ततः अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं और अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। आदर्श विद्यार्थी व्यर्थ की बातों में समय नष्ट नहीं करता। वह मितव्ययिता से काम लेता है अर्थात् कम बोलता है, कम सोता है तथा कम खाता है; साथ ही उसका ध्यान ज्ञानार्जन की ओर अधिक-से-अधिक रहता है। ज्ञान का एक-एक मोती वह उसी प्रकार चुनता रहता है जैसे कि मानसरोवर का राजहंस मोती चुगता है।
पाठ्येतर गतिविधियों में सक्रियता और रुचि – सच्चा विद्यार्थी विद्यालय में विद्यार्जन के साथ-साथ विद्यालय में होनेवाली सभी पाठ्येतर गतिविधियों में भी रुचि दिखाता है तथा उनमें सक्रिय भागीदारी भी निभाता है। सांस्कृतिक उत्सवों, नृत्य, गान, अभिनय, भाषण, काव्यपाठ, स्काउट, गाइड, एन०सी०सी० आदि में भी वह भाग लेता है। विद्यार्जन के गम्भीर पलों को कलात्मक अभिरुचियों से वह सरल बना लेता है।
उपसंहार — विद्यार्थी जीवन मानव-जीवन का स्वर्णिमकाल होता है। इस समय उसे सांसारिक और पारिवारिक चिन्ताएँ नहीं होती; अत: वह इस समय मधुमक्खी के समान बनकर ज्ञानरूपी पुष्पों से जितना ज्ञान-रस और सुगन्ध अपने मस्तिष्करूपी कोश में एकत्रित कर लेता है उतना ही वह सामर्थ्यवान् बन जाता है। आगामी जीवन में वही ज्ञान उसका मार्गदर्शक बन जाता है।
11. छात्र अनुशासन
संकेत-बिन्दु – (1) अनुशासन : अर्थ और महत्त्व; (2) अनुशासन : की प्रथम पाठशाला : परिवार; (3) अनुशासन एक महत्त्वपूर्ण : जीवन-मूल्य; (4) व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अनुशासन का महत्त्व।
अनुशासन “अर्थ और महत्त्व – ‘अनुशासन’ शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है – ‘अनु’ अर्थात् ‘पीछे’ या ‘पीछा करना’ तथा ‘शासन’ का अर्थ है’ व्यवस्था के साथ’ यानि व्यवस्था के अनुसार जीवनयापन करना। संक्षेप में निश्चित व्यवस्था को मानना ही अनुशासन में रहना है। अनुशासन से व्यक्ति का जीवन सुचारु रूप से, समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करते हुए, कार्यकुशलता की वृद्धि से प्राप्त अनेक सुख-सुविधाओं से भर जाता है। अनुशासन चाहे व्यक्ति द्वारा स्वयं पर लगाया गया अंकुश हो या फिर समाज की किसी परम्परा या व्यवस्था का हो, विस्तृत अर्थों में लाभदायक ही होता है।
अनुशासन की प्रथम पाठशाला : परिवार – अनुशासन का पहला पाठ व्यक्ति परिवार में रहकर ही सीखता है। यदि परिवार के सदस्य अपने सभी कार्य व्यवस्था से करते हैं तो बच्चा स्वयं ही इसको अपना स्वभाव बना लेता है। जिस घर में सब मनमौजी ढंग से रहते हैं, वहाँ बालक भी वैसा ही व्यक्तित्व अर्जित करता है। पर उपदेश कुशलं बहुतेरे । दूसरों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने से पूर्व इसीलिए अपने घर को व स्वयं को अनुशासित करना अपेक्षित है। अनुशासन की अच्छी आदत बचपन से ही परिवार में दिनचर्या का कड़ाई से पालन करके डाली जा सकती है।
अनुशासन एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य – अनुशासन का लक्ष्य है— जीवन को सुमधुर और सुविधापूर्ण बनाना। मानव अपने जीवन में भी कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति करना चाहता है। अनुशासन मानव को अपने जीवनोद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है। अनुशासनहीन, अव्यवस्थित मनुष्य अपने जीवन में असफल होता है और लोगों के उपहास का केन्द्र बनता है। उसे असभ्य, अनपढ़, गँवार कहा जाता है। अनुशासित व्यक्ति की समाज में प्रशंसा होती है। अनुशासित व्यक्ति जीवन के एक-एक पल को जीवन्तता के साथ जीने का सुख और आनन्द उठाता है। वह बाहरी साज-सज्जा के साथ चारित्रिक गुणों से स्वयं को सुसज्जित करने में लगा रहता है। व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ वह समाज और राष्ट्र के विकास की भी चिन्ता करता है। अपने प्रत्येक व्यवहार से वह अनुशासित होने की गरिमा को अप्रत्यक्षतः प्रकट करता चलता है। अपने आकर्षक एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व से वह सब पर अनुशासन की महत्ता प्रतिपादित करता है। अनुशासन सारांशतः ऐसा जीवन-मूल्य है, जो अन्य लोगों को भी सुव्यवस्थित रहने हेतु प्रेरित करता है।
व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अनुशासन का महत्त्व – अनुशासन व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में अनुकरणीय है। व्यक्ति से ही समाज है। व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन का अर्थ है-छात्र के रूप में व्यक्ति को अपने जीवन में प्रत्येक कार्य समय पर और व्यवस्थित ढंग से करना चाहिए। उसके समस्त कार्यों का समय नियत और विभाजित होना चाहिए। उसकी दिनचर्या निश्चित होनी चाहिए और छात्र को उसका पालन कड़ाई से स्वयं अपने हित में करना चाहिए। ऐसा करने से अनुशासन उसका आचरण बन जाएगा। कभी-कभी कई कार्य एक ही समय में निपटाने की नौबत आ जाती है। ऐसे कठिन समय में स्थिर चित्त से विचार करके महत्त्व के अनुसार कार्यों को एक-एक करके निपटाना चाहिए। एक कार्य को चुनकर सारी शक्ति उसी पर लगा देने से कार्य जल्दी निपट जाता है और समय का सदुपयोग भी होता है। दुविधा में झूलने अथवा अनिश्चय या अव्यवस्था के भय से आक्रान्त होकर इधर-उधर हंगामा मचाने से समय व्यर्थ जाता है और जगहँसाई भी होती है। मन में ग्लानि होती है सो अलग।
व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी अनुशासन का महत्त्व है। सामाजिक जीवन में तो यह लगभग अनिवार्य – सा ही होता है। समाज में एक के कार्य का असर दूसरे पर पड़ता ही है; जैसे रेल, बस, बैंक, विद्यालय, कार्यालय, पोस्ट ऑफिस, दूध की गाड़ी आदि ऐसे उदाहरण हैं कि यदि ये सही समय पर, सही स्थान पर, सही कार्य को अंजाम न दें तो पूरी व्यवस्था ही चरमरा जाए। अत: यह आवश्यक है कि प्रत्येक कर्मचारी अपने कार्य को गम्भीरता से ले। अनुशासन में समय की पाबन्दी सर्वप्रमुख है। स्वयं छात्रों को भी सामाजिक कार्यक्रमों में समय पर पहुँचने की आदत बनानी चाहिए। समय पर न पहुँचना, व्यवस्था में हस्तक्षेप करना, खाने-पीने की चीजें या कागज- कूड़ा आदि इधर-उधर फेंककर गन्दगी फैलाना, शोर-शराबा करना अनुशासित छात्र का परिचय नहीं है।
12. भारतीय संस्कृति : अनेकता में एकता
संकेत- बिन्दु – (1) भारतीय कौन ? ; (2) भारतीयता : एक संस्कृति; ( 3 ) महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सूत्र; (4) अनेकता में एकता ।
भारतीय कौन ? – भारत अतिप्राचीन सभ्यता और संस्कृतिवाला देश है। इसका भौगोलिक विस्तार भले ही आज काफी सिमट गया है, परन्तु एक समय था जब भारतीय सभ्यता और संस्कृति के उपनिवेश • विश्व के सुदूर क्षेत्रों में स्थापित थे । आज का भारतवर्ष भी एक विस्तृत भू-भाग में अपना ध्वज लहरा रहा है। इस भौगोलिक क्षेत्र के भीतर निवास करनेवाले सभी व्यक्ति, जिन्हें भारत की नागरिकता प्राप्त है, भारतीय कहलाते हैं।
भारतीयता : एक संस्कृति – भारत में रहनेवाले, सभी प्रान्तों के निवासी, वे चाहे जो भी भाषा बोलते हों, चाहे जिस भी धर्म का पालन करते हों, सब एक ही हैं। कोई हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन कुछ भी हो, परन्तु पहले वह भारतीय है। हमारे प्राचीनतम विचारकों का जीवन-सूत्र— ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (अर्थात् सारी धरती ही परिवार है) भारतीयों की उदारता का जीवन्त प्रमाण है। यहाँ विभिन्न आस्थाओं वाले लोग सदियों से साथ-साथ रहते चले आए हैं। अपनी विभिन्नताओं को रखते हुए भी ये सब मन और संस्कार में लगभग एकाकार हो गए हैं। भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था उन्हें भारतीय संस्कृति का प्रवक्ता बना देती है। भारत का एक ईसाई भारतीय जीवन शैली के ज्यादा करीब हैं, अंग्रेजी जीवन शैली के नहीं। इसका कारण यही है कि वर्षों के सहजीवन ने सबमें सारी विभिन्नताओं के बावजूद एकता का ऐसा वातावरण रचा है, जो संसार में अनोखा है।
महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सूत्र – भारतीय सांस्कृतिक एकता का महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सूत्र है- सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। ईश्वर हम सबका पिता है और सारी धरती एक परिवार है। भारत में रहनेवाले भारतीय तो इस विचारधारा को मानते ही हैं, आज संसार के विभिन्न देशों में रहनेवाले भारतीय मूल के लोग भी इसी सांस्कृतिक सूत्र से बँधे हुए हैं।
भारतीय संस्कृति की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं— समरसता, समान भाषा, समान रीति-रिवाज, वेशभूषा, नृत्य और संगीत, भोजन आदि के स्तर पर भी विभिन्नता के बावजूद ग्राह्य एकरसता आदि ।
अनेकता में एकता – सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति की ‘अनेकता में एकता’ चर्चा का और आश्चर्य का विषय रही है। पश्चिमी समाजशास्त्री आज भी अचम्भित हैं कि इतने विशाल भू-भाग के निवासी मिलजुल कर कैसे रहते हैं, इनमें असमानताओं के बावजूद समरसता कैसे है?
भारतीय संस्कृति में समरसता का महत्त्वपूर्ण और प्रथम स्थान है। भारत का विशाल भू-भाग अनेक प्रान्तों में विभक्त है। यहाँ हर प्रदेश में मन्दिर, मसजिद, गुरुद्वारा, चर्च, मठ, आर्य समाज मन्दिर, बौद्ध मन्दिर, जैन मन्दिर आदि मिल जाएँगे। सभी धर्मों के लोग सभी त्योहारों को सौहार्दपूर्ण ढंग से मिलजुल कर मनाते हैं। ईद, होली, दीपावली, क्रिसमस सब पर पूरा देश रौनक से भर जाता है। 15 अगस्त और 26 जनवरी पूरा राष्ट्र एक साथ उत्साह से मनाता है।
भाषायी एकता भी सांस्कृतिक एकता को दृढ़ करती है। पंजाबी मुसलमान पंजाबी बोलता है तो बंगाली मुसलमान बाँग्ला। एक प्रान्त के सभी निवासी प्राय: एक ही भाषा बोलते हैं। धर्म भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनकी बोलचाल और व्यवहार में एकात्मकता है। देश में 22 राष्ट्रीय भाषाएँ हैं, परन्तु सम्पर्क भाषा के रूप में सब राष्ट्रभाषा हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं।
प्रान्तवा अलग-अलग वेशभूषा के बावजूद भारतीय अपनी सुविधा, रुचि और मौसम के अनुरूप उसमें फेर-बदल करते रहते हैं। फिर भी मोटेतौर पर स्त्रियों में साड़ी या सलवार सूट तथा पुरुषों में धोती-कुर्ते का चलन अधिक है। मजे की बात यह है कि साड़ी एक ऐसा परिधान है, जिसे अनेक प्रान्तों में अलग-अलग ढंग से पहना जाता है।
भारत में भोजन की विविधता भी कम नहीं; जैसे- राजस्थान में दाल-बाटी, चूरमा, कोलकाता में मछली-भात, पंजाब में साग रोटी, दक्षिण में इडली-डोसा, उत्तर भारत में दाल-रोटी आदि । परन्तु विविधता में एकता का प्रमाण यह है कि आज उत्तर भारतीय जितने शौक से इडली-डोसा खाता है उतने ही चाव से दक्षिण भारतीय छोले-भटूरे और दाल-रोटी खाता है।
भारतीय नृत्य की अनेक शैलियाँ हैं। भरतनाट्यम, ‘ओडिसी, कुचिपुड़ी, कथकली, कत्थक आदि परम्परागत नृत्य शैलियाँ हैं। भाँगड़ा, गिद्दा, गड़बा, डाँडिया, घूमर, बिहू तथा नगा लोकनृत्य शैलियाँ भी हैं। दूरदर्शन के प्रभाव से आज पूरे देश के लोगों को इन्हें सीखने का अवसर मिला है, जिससे एकता बढ़ी है।
भारतीय संगीत की भी पारम्परिक शास्त्रीय शैलियाँ रही हैं। शास्त्रीय रागों के अतिरिक्त लोकगीतों का विस्तृत संसार भी है। ये लोकगीत और लोकनृत्य हमारी सांस्कृतिक एकता और दृढ़ता को बढ़ाते हैं।
सम्पूर्णता में देखा जाए तो भारतीय संस्कृति अनेक रंग-बिरंगे और सुगन्धित पुष्पों का ऐसा पुष्प गुच्छ है, जिसके सभी पुष्प अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए हुए भी समन्वित रूप से एक ही प्रतीत होते हैं।
13. स्वदेश प्रेम / देशप्रेम
संकेत – बिन्दु – (1) भूमिका : देशप्रेम का अर्थ; (2) स्वदेश का महत्त्व; (3) देशप्रेम : एक उच्च भावना; (4) देशप्रेम की भावना की आवश्यकता ।
भूमिका : देशप्रेम का अर्थ – जिस देश में हम जन्म लेते हैं, जहाँ की हवा में साँस लेकर हम जीवित रहते हैं, जिसका अन्न-जल हम खाते-पीते हैं, जिस धरती पर हम जीवन के कितने ही सुखमय पल व्यतीत करते हैं, उस भूमि के प्रति हृदय में जो स्वाभाविक प्रेम या लगाव उत्पन्न हो जाता है, उसे ही ‘देशप्रेम’ की संज्ञा दी जाती है। देशप्रेम का अर्थ है देश के कण-कण से प्रेम । देश के मैदान – पहाड़, नदी-तालाब, पेड़-पौधे, पत्थर और प्राणी सबसे प्रेम। देश के लिए मरना ही देशप्रेम नहीं है, वरन् देश के लिए उपयोगी बनकर बहुत समय तक देश की सेवा करना भी देशप्रेम ही है। सही अर्थों में वही देशप्रेमी है, जो देशहित में जीवन जीता है।
स्वदेश का महत्त्व – वाल्मीकि रामायण में लंका विजय के उपरान्त श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा था-
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।
अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् हैं। जिस प्रकार माता बच्चे जन्म से पूर्व और पश्चात् उसका भरण-पोषण और लालन-पालन करती है उसी प्रकार जन्मभूमि अपने कण-कण से व्यक्ति को स्नेह से पालती है। इसीलिए जन्मभूमि को माता की उपमा दी जाती है। जन्मदात्री माता के समान ही हमारे मातृभूमि के प्रति भी कर्तव्य होते हैं, जिनका पालन प्रत्येक देशप्रेमी सहर्ष करता है। स्वदेश बिना व्यक्ति के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है। व्यक्ति कहीं भी जाए, उसकी पहचान भारतीय ( भारत देश का ), अमेरिकी ( अमेरिका देश का ), रूसी (रूस देश का) आदि के रूप में ही होती है। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति के लिए स्वदेश का क्या महत्त्व है। स्वदेश के लिए प्राण तक न्योछावर करने को तैयार रहना यदि देशप्रेम है तो कोई भी ऐसा कार्य करना देशद्रोह या देश के प्रति गद्दारी है, जो देश का अहित करता हो या जिससे देश के सम्मान को ठेस पहुँचती हो । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने स्वदेश प्रेम पर बड़ी सटीक बात इन पंक्तियों में कही है-
जो भरा नहीं है जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥
देशप्रेम : एक उच्च भावना – देशप्रेम एक धरती के टुकड़े मात्र से प्रेम नहीं है, वरन् यह एक ऐसी उच्च भावना है, जो संसार के सभी लोगों के हृदयों को गौरवान्वित करती है। देशप्रेम की भावना से परिचालित होकर देशप्रेमी सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। वे प्राणों की तनिक भी परवाह नहीं करते। हमारे देश में ऐसे देशभक्तों की कमी नहीं है। महाराणा प्रताप, शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, भगतसिंह तथा और न जाने कितने उदाहरण देशभक्तों के हैं। राणा प्रताप को महान् देशप्रेमी यूँ ही नहीं कहा जाता। क्या नहीं था उनके पास – धन-वैभव, धरती, राज्य, सिंहासन सबकुछ था। अपने भाई शक्तिसिंह और मानसिंह की भाँति वे अकबर से समझौता कर लेते तो उन्हें बरसों जंगल की खाक न छाननी पड़ती, न घास की रोटियाँ खानी पड़तीं और न भूख व्याकुल उनकी बेटी के प्राण जाते। यह उनके हृदय में अपनी जन्मभूमि की रक्षा की तड़प और प्रेम ही था, जिसके बल पर अपने जीते-जी उन्होंने हार नहीं मानी और हल्दीघाटी में भीषण युद्ध किया। शिवाजी ने भी देशभूमि के प्रेम में मुगलशासकों को नाकों चने चबवा दिए। स्वतन्त्रता संग्राम में तो अंग्रेजों द्वारा दी गई भीषण यातनाओं के आगे भी मादरे वतन के दीवाने झुके नहीं। उन्होंने कोड़े खाए, लहूलुहान हुए, जेल में कई-कई दिन भूखे-प्यासे रहकर भी चक्की पीसी, कोल्हू में जुते, लाठियों और कोड़ों की मार खाई और हँसते-हँसते फाँसी का फन्दा अपने गले में डाल लिया, परन्तु ‘वन्दे मातरम्’ का उद्घोष करना बन्द नहीं किया। सुभाष ने आई०ए०एस० की नौकरी त्यागकर विदेशों में घूम-घूमकर भारत के समर्थन में आजाद हिन्द फौज का गठन किया। यह देशप्रेम ही था, जब प्रधानमन्त्री शास्त्रीजी के आह्वान पर देश की जनता ने अनाज की समस्या से निपटने के लिए एक समय उपवास करना सहर्ष स्वीकार कर लिया था, परन्तु अमेरिका के आगे घुटने नहीं टेके। इस प्रकार के हजारों उदाहरण भारत के इतिहास में तो हैं ही, दुनिया के और देशों में भी हैं। एक जापानी सैनिक ने डूबते जहाज से निकलकर अपने प्राण बचाने की इसलिए नहीं सोची कि इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय ध्वज उसके हाथ से छूट जाता और यह देश का अपमान होता।
देशप्रेम की भावना की आवश्यकता — भारत में विभिन्न भाषा-भाषी एवं धर्मावलम्बी निवास करते हैं। इसके साथ आज देश में जाति, वर्ग, वर्ण, प्रान्त, दल आदि के नाम पर विभाजनकारी शक्तियाँ बराबर सक्रिय हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक है कि हम इन भेदभावों को भुलाएँ; और यह कार्य देशप्रेम की भावना ही कर सकती है। अपनी सारी विविधताओं के साथ हम याद रखें कि देश हैं तो हम हैं। देश के बिना हमारा अस्तित्व नहीं। इसीलिए देशप्रेम की भावना की आवश्यकता सदा-सर्वदा बनी रहती है। देशप्रेम की भावना कुछ ऐसी होनी चाहिए जैसी कि निम्नलिखित पंक्तियों में कवि द्वारा व्यक्त की गई है—
ये देश मेरा ये धरा मेरी, गगन मेरा ।
इसके लिए बलिदान हो प्रत्येक कण मेरा ॥
14. राष्ट्रीय एकता
अथवा
हम सब भारतवासी एक हैं
संकेत- बिन्दु – (1) राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय और महत्त्व; : ( 2 ) भारत में विविधता; (3) अनेकता में एकता : हम सब : भारतवासी एक हैं; (4) राष्ट्रीय एकता कें बाधक तत्त्व; (5) परस्पर संघर्ष के दुष्परिणाम; (6) राष्ट्रीय एकता के उपाय।
राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय और महत्त्व – पराधीन देश राष्ट्र नहीं कहलाता। ‘राष्ट्र’ की गौरवपूर्ण संज्ञा स्वतन्त्र देश को ही प्राप्त होती है। राष्ट्रीय एकता का अभिप्राय है— राष्ट्र के सभी घटकों में विभिन्नताओं और अन्तर्विरोधों के बाद भी भिन्न विचारों और आस्थाओं के बाद भी आपसी समरसता, प्रेम, एकता, भाईचारा बना रहना। सारा भारत एक विशाल परिवार है। इस परिवार के सभी लोग रागात्मिका वृत्ति से जुड़े हुए हैं। यही राष्ट्रीय एकता की भावना है। ‘एकता’ का अभिप्राय है— किसी भी प्रकार का विरोध न होना । इस प्रकार विभिन्नता के बावजूद ‘अविरोध’ राष्ट्रीय एकता की भावना को बल प्रदान करता है। राष्ट्र के सभी नागरिक पहले ‘भारतीय’ हैं और पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, हिन्दू या मुसलमान बाद में हैं। संक्षेप में राष्ट्र की स्वतन्त्रता, समृद्धि, शक्ति और विकास सबकुछ उस राष्ट्र के लोगों की राष्ट्रीय एकता की भावना पर निर्भर करता है।
भारत में विविधता – भारत अनेकताओं का देश है। यहाँ अत्यन्त पुरानी सभ्यता और संस्कृति के अवशेष विद्यमान हैं तो आधुनिक विकास के नवीनतम प्रमाण भी हैं। यहाँ अनेक धर्मों, जातियों, सम्प्रदायों, वर्णों, वर्गों, भाषाओं के लोग एक साथ मिलजुल कर रहते हैं। लोगों के रहन-सहन तथा खान-पान, वेशभूषा भी भिन्न हैं। भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भी विभिन्नताएँ देखने में आती हैं।
अनेकता में एकता : हम सब भारतवासी एक हैं- इतनी विभिन्नताओं के बाद भी भारत की जनता में एकता या अविरोध की भावना है। सभी लोग प्राय: एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करते हैं; त्योहारों और उत्सवों में शरीक होते हैं। ईद, होली, दीवाली सब मिलकर मनाते हैं। भारत के निवासी अपने रक्त में इस संस्कार को लेकर बड़े होते हैं कि ईश्वर या सत्य एक है, उसकी प्राप्ति के मार्ग भले ही अनेक हैं। अतः यहाँ पर रहनेवाली सम्पूर्ण जनता हृदय से ही उदार है। इसी उदारवादिता के कारण देश की अनेकता में एकता बनी हुई है। कवि गिरिजाकुमार माथुर की निम्नलिखित पंक्तियाँ यहाँ द्रष्टव्य हैं-
हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं
रंग-रूप वेशभूषा चाहे अनेक हैं।
बेला गुलाब जूही चम्पा चमेली
प्यारे-प्यारे फूल मगर माला फिर एक है।
अर्थात् सभी भारतवासी एकतारूपी धागे से माला रंग-बिरंगे पुष्पों के समान हैं।
राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्त्व – भारत की राष्ट्रीय एकता में बाधक उसकी अनेकताएँ हैं, जिन्हें स्वार्थी तत्त्व अलगाववादी दृष्टि से परिभाषित करते रहते हैं। आज भारत की राष्ट्रीय एकता को सबसे बड़ा खतरा राजनेताओं की कुटिल राजनीति से है, जो ‘वोट बैंक’ बनाने के लिए अल्पसंख्यकों के बीच अलगाव का बीज बोते हैं; आरक्षण के नाम पर उन्हें देश की मुख्यधारा से अलग करते हैं। जाति, धर्म, भाषा, प्रान्त की समस्या कोई भी हो, उसे राजनैतिक मुद्दा बनाकर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के जोश में वे अपने होश खो बैठते हैं कि वे जिस डाल पर बैठे हैं उसे ही काट रहे हैं। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की बात हो या फिर खालिस्तान की माँग, असम में बोडोलैण्ड या गोरखालैण्ड की माँग हो अथवा यमुना के जल या कावेरी के जल का मामला हो, प्रत्येक राष्ट्रीय समस्या को विवाद का मुद्दा बनाकर ये सब विकास को बाधित करते हैं; राष्ट्र के लोगों के मन में असहिष्णुता और विरोध की भावना जगाते हैं; पृथकतावादी ताकतों को बढ़ावा देते हैं। देश की आम जनता धर्म, जाति, भाषा, प्रान्त आदि के स्तर पर भले ही भिन्न हो, परन्तु वह शान्ति से रहना चाहती है। भ्रष्ट राजनेता अंग्रेजों की इस नीति को अभी भी नहीं भुला पाए हैं कि फूट डालो और राज करो। स्वार्थ में अन्धे ये भूल जाते हैं कि अंग्रेज तो विदेशी थे, परन्तु वे तो जिस देश में जन्मे हैं, उसी को तोड़ रहे हैं। उनके लिए निश्चय ही यह डूब मरने की बात है । कट्टरवादिता, धार्मिक अलगाव, जातिगत आरक्षण, रिश्वत व भ्रष्टाचार ये सब राष्ट्रीय समरसता को दूषित करते हैं। आर्थिक असमानता भी एकता में बाधक बनती है। इन सब पर गम्भीर रुख अपनाने की आवश्यकता है।
परस्पर संघर्ष के दुष्परिणाम — देश को कभी-कभी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में झंझावातों का सामना भी करना पड़ता है। जब राष्ट्र के भीतर राष्ट्रीय घटक आपस में टकराते हैं तो भीतर की कमजोरी को जानकर बाहर से भी आक्रमण होते हैं। इस सबका परिणाम देश की जनता को ही भोगना पड़ता है। आरक्षण के मामले में मण्डल कमीशन के समय पूरा देश जैसे जल उठा था। अयोध्या के राम मन्दिर और बाबरी मसजिद प्रकरण पर हुआ रक्तपात राष्ट्रीय एकता पर काला धब्बा ही है। इसने न केवल भारत को, वरन् विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों को भी हिलाकर रख दिया था।
राष्ट्रीय एकता के उपाय – राष्ट्रीय एकता की उच्च भावना को बनाए रखने के लिए कुछ-न-कुछ करना होगा; परस्पर संघर्ष को समाप्त करना होगा। गांधीजी ने कहा था— हिंसा से प्रतिहिंसा जन्म लेती है, इसलिए अहिंसा अपनाओ। राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वप्रथम हिंसा या द्वेष उत्पन्न करनेवाले तथा असमानता और अलगाव को जन्म देनेवाले कानूनों को समाप्त करना चाहिए। जैसे हिन्दू कानून और मुस्लिम पर्सनल लॉ को समाप्त कर एक समान राष्ट्रीय कानून या आचार-संहिता लागू की जाए। सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों। विशेष सुविधा और विशेष दर्जा किसी को न दिया जाए। तुष्टीकरण की नीति समाप्त हो। वोट बैंक के नाम पर पक्षपात और शोषण बन्द हो ।
यदि जनता में यह विश्वास उत्पन्न किया जाए कि सब लोग एक राष्ट्र में रहते हैं और सबके साथ समानता का व्यवहार हो रहा है, तब फिर वे ऐसी स्थिति में अलग क्यों होना चाहेंगे। लोगों के हृदयों में परस्पर सम्मान और प्रेम-भाव जाग्रत किया जाए। यह कार्य राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का पवित्र कर्त्तव्य होना चाहिए। कलाकार, साहित्यकार, विचारक और पत्रकार जनता को राष्ट्रीय एकता के लिए प्रेरित करने में कारगर भूमिका निभा सकते हैं।
15. जीवन में खेलकूद का महत्त्व
संकेत – बिन्दु – (1) भूमिका; (2) जीवन में खेल का महत्त्व; (3) खेलों से लाभ।
भूमिका – एक जमाना था जब खेलकूद को हेय दृष्टि से देखा जाता था। बच्चों को समझाया जाता था-
पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब ।
खेलोगे कूदोगे तो होओगे खराब ।।
किन्तु यह बात इस कथन में भुला दी गई थी कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन-मस्तिष्क का निवास होता है। हमारे देश के मार्गदर्शक विचारक स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक भाषण में युवकों को सम्बोधित करते हुए कहा था- “सर्वप्रथम हमारे देश के नवयुवकों को बलवान् बनना चाहिए। धर्म स्वयं पीछे-पीछे आ जाएगा। मेरे नवयुवक मित्रो! बलवान् बनो। तुमको मेरी यही सलाह है। ‘गीता’ के अभ्यास की अपेक्षा फुटबॉल खेलने के द्वारा तुम स्वर्ग के अधिक निकट पहुँच जाओगे। तुम्हारी कलाई और भुजाएँ अधिक मजबूत होने पर तुम ‘गीता’ को अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे।” स्वामी विवेकानन्द के तेजोद्दीप्त और बलिष्ठ शरीर तथा गम्भीर विचार – वाणी से उनके कथन की सत्यता का प्रमाण स्पष्ट ही मिल जाता है। शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए खेल अनिवार्य हैं।
जीवन में खेल का महत्त्व – खेल चाहे कोई सा भी हो, वह मनुष्य में संघर्ष करने और जीतने की प्रबल आकांक्षा जाग्रत करता है। खेलप्रिय मनुष्य जुझारू प्रवृत्ति को जीवन का अंग बना लेता है; हार-जीत दोनों को जीवन की लम्बी यात्रा में स्वीकार करने की क्षमता विकसित कर लेता है; एकाग्रचित्त होना सीखता है। खेलने से व्यक्ति में पारस्परिक सहयोग, अनुशासन, संगठन, आज्ञाकारिता, साहस, विश्वास और समय पर उचित निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। गांधीजी ने अपने कमजोर शरीर पर बहुत खेद जताया था। इसका सारांश यही है कि खेल के बिना स्वस्थ शरीर और स्वस्थ शरीर के बिना स्वस्थ मस्तिष्क का विकास कठिन है। स्वस्थ शरीर और मन-मस्तिष्कवाला व्यक्ति अपने देश और समाज के लिए भी अधिक उपयोगी होता है।
खेलों से लाभ – खेलने से शरीर हृष्ट-पुष्ट बनता है, मांसपेशियाँ उभरती हैं, रक्त शुद्ध होता है, भूख बढ़ती है, आलस्य दूर होता है, पेट साफ होता है। न खेलनेवाला व्यक्ति शरीर से दुर्बल, रोगी, निस्तेज और निराश प्रवृत्ति का हो जाता है। शरीर की दुर्बलता उसमें उत्साहहीनता भरती है, जिससे कि वह लक्ष्य प्राप्ति में भी शंकित रहता है। लक्ष्यहीनता के बाद वह जीवन के उल्लास और सुख से भी वंचित हो जाता है। जीवन में मान-सम्मान, सुख-सम्पदा, उच्चपद आदि का आनन्द भी शारीरिक रूप से रोगी व्यक्ति नहीं उठा पाता। शारीरिक कमजोरी या दुर्बलता के कारण सामाजिक क्षेत्र में उसे अक्सर हीन दृष्टि से देखा जाता है। जब हीनभावना मन को घेर लेती है तो जीवन का सारा मजा किरकिरा हो जाता है। इस सबसे बचने का एकमात्र और सरल उपाय है खेलने की नियमित आदत बना लेना ।
खेलों का एक बड़ा लाभ है कि इनसे खेलनेवाले और देखनेवाले दोनों का मनोरंजन होता है। खिलाड़ी की जीत से उसके समर्थकों को भी आनन्द मिलता है। हारने से जीतने की पुन: प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार खेल मनुष्य को जीवन की समग्रता और खेल भावना से जीने की कला सिखाते हैं।
16. योगासन और स्वास्थ्य
संकेत- बिन्दु – (1) अर्थ; (2) योगासन और खेल; (3) योगासन से स्वास्थ्य लाभ : शारीरिक और मानसिक; (4) योगासन से अनुशासन और व्यक्तित्व का विकास।
अर्थ- ‘योगासन’ शब्द दो शब्दों ‘योग’ तथा ‘आसन’ से मिलकर बना है। ‘शक्ति और अवस्था’ को योगासन कहते हैं। महर्षि पतंजलि ने ‘योग’ की परिभाषा देते हुए लिखा है, ” अपने चित्त ( मन ) की वृत्तियों पर नियन्त्रण करना ही योग है।” ‘आसन’ का अर्थ है ‘किसी एक अवस्था में स्थिर होना।’ इस प्रकार योगासन शरीर तथा चित्त ( मन ) को स्फूर्ति प्रदान करने में विशेष योग देता है।
योगासन और खेल – योगासन के अर्थ से स्पष्ट है कि यह एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। शरीर सौष्ठव प्राप्त करने, नाड़ी – तन्त्र को सबल बनाने तथा भीतरी शक्तियों को गति प्रदान करने के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं वे शरीर को निश्चय ही लाभ पहुँचाती हैं। शरीर की विभिन्न आवश्यकताओं के लिए विशेष प्रकार के योगासन; योग – विशेषज्ञ बताते हैं।
यों तो योगासन, व्यायाम और खेल के लाभ लगभग एक समान हैं, फिर भी योगासन और खेल में लोग अन्तर मानते हैं। कुछ खेल तो योगासन के अन्तर्गत ही आते हैं; जैसे—सूर्य नमस्कार । कुछ विद्वान् मानते हैं कि योगासन की थका देनेवाली क्रियाओं को छोड़कर शेष शारीरिक क्रियाएँ खेलकूद के अन्तर्गत आती हैं।
योगासन से स्वास्थ्य लाभ : शारीरिक और मानसिक – योगासन करने से व्यक्ति के शरीर और मस्तिष्क दोनों को लाभ पहुँचता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो योगासन से व्यक्ति का शरीर सुगठित, सुडौल, स्वस्थ और सुन्दर बनता है। उसका शरीर-तन्त्र सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ बन जाता है। पाचन शक्ति तेज होती है। रक्त प्रवाह ठीक बना रहता है। शारीरिक मल उचित रूप से निकास पाते हैं। शरीर में शुद्धता आती है तो त्वचा पर उसकी चमक व तेज झलकता है। भोजन समय पर पचता है; अतः रक्त, मांस उचित मात्रा में वृद्धि पाते हैं। शरीर स्वस्थ, चुस्त-दुरुस्त बनता है। दिनभर स्फूर्ति और उत्साह बना रहता है। मांसपेशियाँ लचीली बनी रहती हैं जिससे क्रिया – शक्ति बढ़ती है और व्यक्ति काम से जी नहीं चुराता । पुट्ठों के विकास से शारीरिक गठन में एक अनोखा आकर्षण आ जाता है। योगासन से ही शरीर में वीर्यकोश भरता है, जिससे तन पर कान्ति और मस्तक पर तेज आ जाता है। इस प्रकार योगासन करनेवाला कसरती शरीर हजारों की भीड़ में अलग पहचान लिया जाता है।
विचारकों का कथन है— स्वस्थ तन तो स्वस्थ मन। यह कथन शत-प्रतिशत सत्य है। योगासन से शारीरिक लाभ तो होता ही है, मानसिक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। दुर्बल और कमजोर तन मन से भी निराश और बेचारा-सा हो जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा बसती है। योगासन करके तरोताजा हुआ शरीर अपने भीतर एक विशेष उल्लास और उमंग का अनुभव करता है। प्रसन्नचित्त व्यक्ति जो भी कार्य हाथ में लेता है, अपने सकारात्मक रवैये के कारण उल्लास और उमंग से उसे पूरा करने में स्वयं को झोंक देता है। वह जल्दी हारता नहीं। उसके शरीर की शक्ति उसके कार्य में प्रदर्शित होती है। योगासन से मन में जुझारूपन आता है, जो निराशा को दूर भगाता है। योगाभ्यास से जीवन में आशा और उत्साह का संचार होता है।
योगासन से अनुशासन और व्यक्तित्व का विकास – योगासन करने से व्यक्ति में संघर्ष करने तथा स्वयं पर अंकुश लगाने जैसे गुणों का विकास होता है। हृष्ट-पुष्ट शरीर; तन और मन दोनों पर अंकुश लगाकर जीवन में अनुशासित रहने की कला सीख लेता है। शरीर का संयम, मन पर नियन्त्रण और मानसिक दृढ़ता व्यक्ति को ऐसा व्यक्तित्व प्रदान करते हैं कि वह स्वयं ही सबका आकर्षण और प्रेरणा स्रोत बन जाता है। आज के प्रतियोगिता के युग में योगासन का महत्त्व निश्चय ही विवाद से परे है।
17. दिशाहीन युवा वर्ग
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना : राष्ट्र विकास और युवा वर्ग; (2) वर्तमान स्थिति : युवाओं में असन्तोष; (3) दिशाहीनता और निर्णय लेने में असमर्थता; (4) युवाओं के प्रति समाज का : गैर-जिम्मेदाराना रवैया; (5) समस्या का समाधान ।
प्रस्तावना : राष्ट्र-विकास और युवा वर्ग- किसी भी देश की उन्नति में युवा वर्ग की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। युवा किसी समाज की फुलवारी का खिला हुआ सुगन्धित पुष्प है। जिस प्रकार पुष्प की दशा वृक्ष की दशा का पता चल जाता है वैसे ही युवा की स्थिति से उस देश या समाज के अतीत, वर्तमान और यहाँ तक कि भविष्य को भी परखा जा सकता है। देश का सुलझा हुआ, ज्ञानवान्, स्वस्थ-बलिष्ठ युवा किसी देश की शान और गौरव बढ़ाता है तो दिशाहीन, बेरोजगार, निराश युवक भविष्य की आशाओं को मटियामेट कर देता है। एक स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ युवा वर्ग अपेक्षित है।
वर्तमान स्थिति : युवाओं में असन्तोष – हमारा देश आदर्शवादी देश रहा है। युवाओं के लिए आदर्श स्थिति क्या होगी, उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए और क्या नहीं; ऐसी चर्चाएँ प्रायः सुनाई देती हैं, परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। युवा वर्ग आज भारी असन्तोष और निराशा के दौर से गुजर रहा है। उसकी निराशा, उसके असन्तोष और बेकारी का फायदा दूसरे लोग उठा रहे हैं। वह अपने मन की भड़ास तोड़-फोड़, आगजनी, लूटमार, चोरी-डकैती, हड़ताल आदि में निकालकर अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है। अशिक्षित युवाओं को छोड़ दें तो शिक्षित युवा भी अपना दबदबा दिखाने, प्रभाव जमाने के लिए कॉलेज परिसर में भी कुछ-न-कुछ शरारतें किया करते हैं।. परिणामस्वरूप कॉलेज परिसर में कभी-कभी पुलिस व्यवस्था भी करनी पड़ जाती है। कुण्ठा, द्वेष, उद्दण्डता, अश्लील हरकतें युवा मन के असन्तोष को व्यक्त करते हैं।
दिशाहीनता और निर्णय लेने में असमर्थता – वर्तमान में युवा आक्रोश और असन्तोष का मुख्य कारण है युवाओं की दिशाहीनता की स्थिति । शिक्षित युवक शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद ‘क्या करें और कैसे जिएँ’ जैसे प्रश्नों के बीच फँसा दिखता है। उसे अपना भविष्य अन्धकारमय दिखता है। बचपन और किशोरावस्था में देखे सुन्दर सपने टूटते दिखाई देते हैं। दिशाएँ अनेक हैं, कार्यक्षेत्र भी अनेक हैं, परन्तु वह किधर जाए, उसके लिए क्या उचित और उपयोगी है इसका निर्णय लेने की सामर्थ्य का विकास उसमें नहीं हो पाता – या तो उसकी दिशाहीनता के कारण या फिर उसकी असमर्थता के कारण। कारण जो भी हो, परिणाम यही होता है कि वह दिशाहीन-सा दोराहे पर खड़ा होकर भविष्य का अनुमान लगाता रहता है। अपने सामने पहले से ही खड़ी बेरोजगारों की भीड़ उसे और दिशाहीन तथा कमजोर बनाती है। अर्थ केन्द्रित समाज में कम वेतन की नौकरी करके अपमानित होने को भी वह तैयार नहीं होता। दूसरी ओर यदि वह यह भी नहीं करता तो कल उसे बेकारी घेर लेगी, यही गम उसे खाए जाता है। आगे कुआँ पीछे खाई। आज का युवा वर्ग भीषण अनिश्चितता और अनिर्णय के दौर से गुजर रहा है।
युवाओं के प्रति समाज का गैर-जिम्मेदाराना रवैया – युवाओं की दिशाहीनता की सहानुभूतिपूर्वक समीक्षा करें तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इसके लिए समाज के कई घटक जिम्मेदार हैं। परिवार के स्तर पर व्यस्त माता-पिता अपनी सन्तान के विकासकाल में पूरा समय नहीं देते। बाल्यावस्था की यह रिक्तता युवावस्था में कुण्ठा और आक्रोश बनकर फूटती है। अध्यापन – काल में अध्यापक प्रायः कुशाग्रबुद्धि छात्रों पर ही ध्यान देते हैं। अच्छा रिजल्ट दिखाने के लिए कमजोर छात्रों की उपेक्षा की जाती है। ये ही कम अक्ल छात्र अपनी जवानी में गलत मार्ग पर भटक जाते हैं। इस प्रकार माता-पिता और अध्यापक अपने उत्तरदायित्वों का सम्यक् निर्वाह न करके राष्ट्र के साथ विश्वासघात ही करते हैं। माता-पिता और अध्यापकों के ऐसे व्यवहार का बालकों के कोमल मन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे बड़े होकर नैतिकता और अनुशासन जैसी बातों को व्यर्थ और बकवास मानते हैं। ‘नेता’ कहलानेवाले समाज के कर्णधार अनुशासनहीनता का प्रमाण संसद में हो-हल्ला करके और जीवन में भ्रष्टाचार, घोटाला, रिश्वत आदि के द्वारा देते रहते हैं। आज का युवा वर्ग उन्नति का यह शॉर्टकट अपनाना अधिक उपयोगी और सरल मानता है। युवा वर्ग का आदर्श यदि आज येन-केन-प्रकारेण धन और पद पाना है तो इसके लिए. हमारा पूरा सामाजिक ढाँचा जिम्मेदार है।
समस्या का समाधान – प्राचीन समय से हमारे देश में विद्यार्थी का मुख्य उद्देश्य सार्थक जीवन जीने के लिए ज्ञानार्जन करना रहा है, किन्तु वर्तमान शिक्षा-पद्धति न तो विद्यार्थी की जिज्ञासाओं का पूर्ण समाधान कर पा रही है और न उन्हें जीवन संघर्ष के लिए तैयार कर पा रही है। युवा वर्ग की इस दिशाहीनता को समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा और व्यवसाय के बीच की खाई को पाटना होगा। पढ़ाई समाप्त करते ही जीविका का साधन मिल जाने का विश्वास उनकी दिशाहीनता का समाधान करेगा। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय भी हैं, उन्हें भी अपनाना होगा; यथा— फिल्मों में शिक्षकों और विद्यालयों का मजाक उड़ाना बन्द होना चाहिए। इसी प्रकार कॉलेज परिसर में शिक्षकों और छात्र – छात्राओं के बीच खुले मजाक, युवाओं का नाचना गाना दिखाना भी छात्रों को भटकाने के लिए काफी होता है। यह भी बन्द होना चाहिए । विश्वविद्यालयों में छात्र संघों के चुनावों में राजनीति का हस्तक्षेप सहन नहीं किया जाना चाहिए। इसी कारण छात्र गन्दी राजनीति का हिस्सा बनकर अपना भविष्य चौपट कर लेते हैं।
संक्षेप में ऐसी शिक्षा-प्रणाली और परिवार समाज की समरसता का वातावरण बनाना अपेक्षित है, जिससे युवाओं में नैतिकता, चारित्रिक बल, विवेक तथा बुद्धि का विकास हो। सभी में स्व- अनुशासन हो । युवाओं में समाज व देश के लिए अपनी उपयोगिता सिद्ध करने की ललक हो।
18. मेरा भारत महान्
संकेत – बिन्दु – (1) प्राकृतिक सौन्दर्य एवं भौगोलिक स्थिति; (2) गौरवशाली इतिहास : श्रेष्ठ सभ्यता एवं संस्कृति; (3) : विविधता में एकता : वेशभूषा, खान-पान और भाषा; (4) विविध धर्मावलम्बी, परन्तु धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र; (5) विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश; (6) भारतीय संस्कृति : उच्चकोटि के : जीवन-मूल्य; (7) भारत की अन्तर्राष्ट्रीय नीति : शान्तिपूर्ण : सह-अस्तित्व ।
प्राकृतिक सौन्दर्य एवं भौगोलिक स्थिति — मेरा देश भारत अपने प्राकृतिक सौन्दर्य की विविधता के कारण विश्व के आकर्षण का केन्द्र रहा है। भारतवासी अपनी जन्मभूमि को माँ का सम्मान देते हैं। यही माँ गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों का जल हमें पिलाती है। इसके उत्तर में स्थित पर्वतराज हिमालय का मुकुट इसके मस्तक पर शोभायमान् है। नदियाँ कण्ठहार-सी हैं। पश्चिम से पूरब तक लहलहाती खेतियाँ इसका आँचल हैं। दक्षिण में इसके पैरों को हिन्द महासागर सदा धोता रहता है। यहाँ बर्फीली ऊँची-ऊँची पर्वतमालाएँ हैं तो घने वन भी हैं। वन्यजीवों की दुर्लभ प्रजातियाँ यहाँ निवास करती हैं। संसारभर में केवल यहाँ हो छह ऋतुएँ होती हैं; अतः यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य की विविधता भी अनुपम है। कहीं सागर की उत्ताल तरंगें हैं तो कहीं रेत का ढेर । कहीं संगमरमर की चट्टानें हैं तो कहीं खनिज के भण्डार | अपनी विपुल प्राकृतिक सम्पदा के कारण इस पर लोभी शासकों की कुदृष्टि सदा रही है। अपनी प्राकृतिक सम्पदा के कारण आज भी कश्मीर पर पड़ोसी देश की कुदृष्टि लगी है।
गौरवशाली इतिहास : श्रेष्ठ सभ्यता एवं संस्कृति — भारत का इतिहास गौरवशाली रहा है। हमारा देश विश्व – गुरु रहा है। संसार के इतिहास में ज्ञान और संस्कृति का आदिग्रन्थ- ‘ऋग्वेद’ यहीं लिखा गया है। अनेक सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ यहाँ जन्मीं और मिट गईं, परन्तु हमारी भारतीय संस्कृति जीवित है। इसका कारण है— हमारे उच्चकोटि के जीवन-मूल्य । आत्मा-परमात्मा के रहस्य को सुलझानेवाले मनीषी यहाँ उत्पन्न हुए हैं तो समाजशास्त्री और विज्ञानी भी यहाँ जन्मे हैं। यहाँ पुरुषों के समान ही स्त्रियों ने भी वैदुष्य प्राप्त किया है। जीवन के सत्य की खोज के साथ-साथ ललित कला, साहित्य, संगीत, नृत्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि में भी भारतीय अग्रणी थे। योग-साधना, आयुर्वेद, शल्य-चिकित्सा के क्षेत्र में उनका कोई सानी नहीं था। आज संसार फिर हमारी योगासन और आयुर्वेद पद्धति तथा आध्यात्मिकता की ओर देख रहा है। हमारे देश के दर्शन ने सारे संसार को प्रभावित किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ हमारी ही संस्कृति के गौरवशाली इतिहास के सूत्र हैं। वेदों की रचना ईसा से कई हजार वर्ष पूर्व हुई थी, इसी से हमारी श्रेष्ठ सभ्यता और संस्कृति का अनुमान लगाया जा सकता है।
विविधता में एकता : वेशभूषा, खान-पान और भाषा – मेरा देश विश्व में विविधता में एकता का अनूठा उदाहरण है। यहाँ लगभग 150 भाषाएँ बोली जाती हैं। हिन्दू (सनातनधर्मी), जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी, इस्लाम, सिख आदि धर्मों के माननेवालों की भाषाएँ भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप हैं। एक प्रान्त के निवासी एक सी भाषा बोलते हैं, चाहे वे कोई भी धर्म मानते हों। यहाँ की भौगोलिक विविधता के कारण उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय खान-पान और वेश-भूषा में भी पर्याप्त अन्तर है। स्थानीय मौसम का भी इस पर प्रभाव पड़ा है, परन्तु आज सारे भारत में स्त्रियों और पुरुषों के दैनिक व्यवहार के वस्त्रों में समानता देखी जाती है। सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयोजनों में लोक-संस्कृति की विविधता पुनः देखी जाती है।
विविध धर्मावलम्बी, परन्तु धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र – भारत में विभिन्न धर्मों को माननेवाले लोग रहते हैं, फिर भी भारत में धर्म के नाम पर किसी प्रकार का दबाव या शोषण नहीं है। हमारा देश धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। सभी धर्मावलम्बियों को अपने-अपने धर्मों का पालन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। धर्म के आधार पर हमारा देश राजनैतिक स्तर पर भी किसी गुटबाजी के विरुद्ध है।
विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश – भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। यहाँ की आबादी एक अरब से ऊपर हो गई है। इतनी बड़ी जनसंख्या और विशाल एवं विविध भौगोलिक क्षेत्र में चुनावों का सम्पन्न कराना वास्तव में चुनौतीपूर्ण है। फिर भी हमारे देश ने इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। प्राचीन समय में भी भारत में लोकतन्त्र था, शायद इसीलिए यह यहाँ सफल रहा है।
भारतीय संस्कृति : उच्चकोटि के जीवन-मूल्य- अपने उच्चकोटि के जीवन-मूल्यों के कारण ही आज हमारी संस्कृति की गौरवशाली परम्परा जीवित है। हमारा देश विश्व का ज्ञान-गुरु रहा है। उसने सारे संसार को सिखाया है – ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सारा संसार तुम्हारा परिवार है। हमारे ऋषियों की वाणी ने जन-जन के हित की चिन्ता की है। वेदों में कहा गया है—
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥
अर्थात् संसार में सब सुखी और नीरोगी हों। सब एक-दूसरे का गुणगान करें। किसी के भी हृदय में आंशिक दुःख न हो। इसी प्रकार स्त्रियों को आदर देते हुए कहा गया है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
आधुनिक विश्व में, जबकि दुनिया के विभिन्न देशों में महिलाएँ . केवल उपभोग की वस्तु हैं, यहाँ अब भी स्त्रियों की दशा कुछ बेहतर है। वे राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। अन्तरिक्ष की यात्रा कर रही हैं।
भारत में ईश्वर के सम्बन्ध में कहा गया है— ‘एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति’ अर्थात् सत्य / सत् एक ही है, उसे महानुभाव विविध रूपों में कहते हैं। भारत की इसी उदारता और सामासिकता की भावना से संसार प्रभावित है।
भारत की अन्तर्राष्ट्रीय नीति : शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व – भारत शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास करता है। उसका नीति- वाक्य है- जियो और जीने दो। यह सही है कि शक्तिशाली ही जीता है, परन्तु मनुष्यों के बीच यह सही नहीं है। सबको जीने और विकास करने का अधिकार है। भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुट निरपेक्ष नीति अपनाई है। अपने स्वार्थ के लिए वह किसी के साथ हाथ मिलाकर फिर उसे नुकसान नहीं पहुँचाएगा और यदि कोई देश ऐसा करता है तो वह उसका साथ नहीं देगा।
हमारा देश संसार के सभी देशों में शान्ति चाहता है। वह सबका हित एवं विकास चाहता है। हमारे देश का इतिहास गौरवशाली रहा है; अतः ‘मेरा भारत महान् कहना बड़ा अच्छा लगता है। यदि वर्तमान भारत अपनी कुछ कमियों को दूर कर ले तो निश्चय ही हम बड़े गर्व से कह सकेंगे – ‘मेरा भारत महान्।’
[समरूप निबन्ध – भारत प्यारा देश हमारा भारत प्यारा सबसे न्यारा; मेरा प्यारा भारतवर्ष; कितना निराला देश हमारा; मेरे सपनों का भारत; मेरा देश महान्।]
19. वृक्षारोपण / वन संरक्षण
अथवा
वन और पर्यावरण
अथवा
वन रहेंगे, हम रहेंगे
संकेत- बिन्दु – (1) वन मानव जीवन के संरक्षक; (2) वनसंरक्षण की आवश्यकता; (3) वृक्षारोपण और वन महोत्सव; (4) वायु प्रदूषण और जल – सन्तुलन में वनों की उपयोगिता; (5) प्राकृतिक स्वरूप के रक्षक; (6) वन रहेंगे तो हम रहेंगे।
वन : मानव-जीवन के संरक्षक – मानव जीवन का एक-एक पल वनों का ऋणी हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक वे हमारी सहायता करते हैं, रक्षा करते हैं। जन्म के समय यदि पालना – हिंडोला लकड़ी का होता है तो मृत्यु के समय शरीर को ढोनेवाला विमान भी लकड़ी का होता है। वृक्षों की लकड़ी जलावन से लेकर फैक्ट्रियों में विभिन्न रूपों में काम आती है। वनों से वर्षा का जल खेती योग्य भूमि में पड़कर हमारे पेट भरने को अनाज उपजाता है। हमारी — रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की ये तीनों मूलभूत आवश्यकताएँ वन ही पूरी करते हैं। मनुष्य यदि जीवित है तो वनों की कृपा पर ।
वन-संरक्षण की आवश्यकता – वन हमें दैनिक जीवन में प्रयोग में आनेवाली अनेकानेक वस्तुएँ उपलब्ध कराते हैं। रबड़, गोंद, फल-फूल, कागज, पत्ते, छाल आदि सब इन्हीं से प्राप्त होते हैं। वन प्राकृतिक सम्पदा के भण्डार हैं। वनों का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है — वातावरण को शुद्ध रखना, वर्षा लाना तथा बाढ़ रोकना। वैज्ञानिक परीक्षण बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में मौसमी अनियमितता आने का कारण केवल वनों का अन्धाधुन्ध काटा जाना ही है। देश में आज 23% भू-भाग पर वन हैं, जबकि 33% भू-भाग पर वनों की आवश्यकता है। सूखा और अकाल का कारण भी वनों की कटाई ही है। T
वृक्षारोपण और वन महोत्सव – जीवन में स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियों के बढ़ते जाने से आज फिर मानव को वृक्षों के होने का महत्त्व समझ में आया है। राज्य में एक विशेष तिथि पर पौधे को रोपना ‘वन महोत्सव’ के आयोजन का मुख्य अंग है। आज यह एक अभियान का रूप ले चुका है। राष्ट्रीय राजमार्गों पर सरकार की ओर से वृक्षारोपण का कार्य सम्पन्न कराया जाता है। स्कूल, कॉलेजों, आवासीय कालोनियों आदि में भी इस ओर बड़ा ध्यान दिया जा रहा है। हर्ष का विषय है कि लोग आज इसका महत्त्व समझने लगे हैं।
वायु-प्रदूषण और जल सन्तुलन में वनों की उपयोगिता – वन प्राणवायु और जल के स्रोत हैं। वृक्ष बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जो हमारे साँस लेने, जीवित रहने के काम आती है। आज शहरों में वाहनों, फैक्ट्रियों आदि से उत्पन्न धुआँ वायु प्रदूषण का कारण बना हुआ है। जितना प्रदूषण बढ़ रहा है, उतनी ही वृक्षारोपण की आवश्यकता बढ़ती जा रही है।
जल – सन्तुलन के लिए भी वनों की उपयोगिता कम नहीं है। एक ओर घने वृक्ष जहाँ वर्षा लाते हैं, वहीं दूसरी ओर मजबूत वृक्ष बाढ़ रोकते हैं। वृक्ष भूमि को मरुस्थल बनने से रोकते हैं। ये नमी सोखकर भूमि की भीतरी पर्त तक पहुँचाते हैं। इस तरह भू-गर्भ जल का स्तर भी बढ़ाते हैं। भूमि की नमी उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ाती है।
प्राकृतिक स्वरूप के रक्षक – वन हमारी सृष्टि के प्राकृतिक स्वरूप की रक्षा करते हैं। वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर अनेक वन काटकर मनुष्य ने आज चारों ओर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए हैं। वनों के कटते जाने से प्राकृतिक पदार्थों; जैसे लकड़ी, कोयला, गोंद आदि का अभाव होता जा रहा है। चारों ओर अधिक-से-अधिक इन वस्तुओं को जमा करके रख लेने की आपाधापी मची हुई है। पशु-पक्षियों के घर उजाड़ दिए गए हैं। अब यदि वे नगर की ओर भागते हैं तो उन्हें मार डाला जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो हम मानव अपनी ही गलतियों रहने योग्य प्रकृति के हरे-भरे सौन्दर्य और विविध प्रजातियों के पशु-पक्षियों को देखने को भी तरसेंगे। सृष्टि के स्वाभाविक स्वरूप की रक्षा वन ही करते हैं।
वन रहेंगे तो हम रहेंगे — यदि हमने जनसंख्या के अनुपात में वनों का रोपण न किया, उन्हें काटकर, जलाकर नष्ट करना बन्द न किया तो जिस प्रकार आज कुछ पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं, उसी प्रकार से ‘मानव’ नाम का यह प्राणी भी अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में पड़कर अपने अस्तित्व को मिटा लेगा। इस प्रकार वनों के महत्त्व और उपयोगिता को ध्यान में रखकर जीवन जीना होगा और यह गाँठ बाँधनी होगी कि ‘वन रहेंगे तो हम रहेंगे।
20. ‘जहाँ सुमति तहँ संपति नाना’
संकेत – बिन्दु – (1) प्रस्तावना : सुमति का भावार्थ; (2) सद्विचारों का जीवन में महत्त्व; (3) महापुरुषों के आदर्शों से प्रेरणा; (4) व्यक्तित्व का विकास।
प्रस्तावना : सुमति का भावार्थ – मानव के जीवन में सद्बुद्धि या सुमति का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है— सद्बुद्धि के होने से जीवन सुवासित एवं उद्देश्यपरक हो उठता है। जब मानव की बुद्धि विकास के सोपानों का संस्पर्श करती है तथा जीवन की उदात्तता से सराबोर हो जाती है तो यह बुद्धि आदर्शमूलक होते हुए भी अधिकतम लोगों के सुख की ओर उन्मुख हो जाती है। ऐसी अवस्था को ही सद्बुद्धि या सुमति कहा गया है। जीवन के अन्य तमाम ध्येयों की अभिप्राप्ति इसी के द्वारा सुगम हो पाती है, इसीलिए किसी कवि ने कहा है- ‘जहाँ सुमति तहँ संपति नाना’ अर्थात् सुमति की प्राप्ति के बाद अनेक प्रकार की सम्पत्तियों के वारिस या उत्तराधिकारी बन सकते हैं।
सद्विचारों का जीवन में महत्त्व – सद्बुद्धि और सद्विचारों का मानव-जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेरणादायी विचारों के सहारे ही हम आगे बढ़ते हैं। अच्छे विचारों को यदि कार्यरूप में परिणत कर दिया जाए तो जीवन का कायापलट हो जाता है। सद्विचारों के प्रकट होने पर जीवन में आशावाद का संचार होता है और तब पंगु व्य भी हिमालय के उत्तुंग शिखरों का स्पर्श करने के लिए उमंग से भर उठता है। वह एक सद्विचार का ही वास्तविक परिणाम था, जब एक व्यक्ति सद्विचार से आप्लावित हो महर्षि वाल्मीकि के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसने आगे चलकर विश्व के प्रथम महाकाव्य ‘रामायणम्’ की रचना की।
महापुरुषों के आदर्शों से प्रेरणा – सुमति की प्राप्ति के लिए यह परम सार्थक कार्य है कि हम महापुरुषों के आदर्शों को जानें- समझें और उनके कृत्कार्यों से प्रेरणा लें, शिवाजी को बचपन में उनकी माँ तथा बाद में समर्थगुरु रामदास ने महापुरुषों की कहानियाँ सुनाकर इतना धीर-वीर और ओजस्वी बना दिया था कि वे छत्रपति बन सके और मुगल साम्राज्य को ललकार सके। आधुनिक काल में सुभाषचन्द्र बोस भी इसी तथ्य को उजागर करते हैं, जिन्होंने महापुरुषों के आदर्शों को अपनाकर स्वयं भी महापुरुष होने का गौरव पाया; अतः महापुरुषों के क्रियाकलाप हमारे लिए आदर्श हैं, वरण करने योग्य हैं और प्रेरणा के अजस्र स्रोत हैं।
व्यक्तित्व का विकास – ‘जहाँ सुमति तहँ संपति नाना’ जैसी लोकोक्ति हमारे जीवन का आधार है, तमाम सुख-सम्पत्ति की बौछार सुमति के द्वारा ही होती है। हमारे व्यक्तित्व के विकास में सुमति या सद्बुद्धि का सर्वोच्च स्थान है। बुद्धिहीन व्यक्ति किसी कार्य को सम्पूर्णता से कदापि नहीं कर सकता है। इसी प्रकार दुर्बुद्धि विषाद् का निमित्त होती हैं। केवल सद्बुद्धि के सहारे ही हम व्यक्तित्व को नई ऊँचाई प्रदान कर सकते है और तब सत्यं शिवं सुन्दरम् की भोर में प्राची का नीलाकाश अरुण प्रकाश को आभा से प्रदीप्त हो उठता है।
21. जल ही जीवन है
संकेत- विन्दु – (1) प्रस्तावना : जल का जीवन में महत्त्व; (2) स्वच्छ पेयजल; (3) जल-संरक्षण, (4) प्रदूषण और उससे बचाव ।
प्रस्तावना : जल का जीवन में महत्व – जल अर्थात् पानी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि इस पृथ्वी पर जीवन का उन्मेष जल में ही हुआ था। जल अर्थात् सागर में ही प्रकृति ने जीवन का रोपण किया है और वहाँ से ही धरा मण्डल पर जीव-जन्तुओं का विस्तार हुआ। जिस प्रकार प्राणवायु के बिना हम जीवित नहीं रह सकते हैं, उसी प्रकार जल के अभाव में जीवन के समस्त लक्षणों का विलोपन होना सहज एवं स्वाभाविक है। सभी वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं के लिए जल एक परम आवश्यक तत्त्व है, लेकिन मानव समुदाय के लिए तो इसकी उपादेयता कई गुना अधिक हैं। दैनन्दिन के कार्यों से लेकर सामुदायिक कार्य, वैज्ञानिक कार्य तथा नामविध क्रियाकलापों का स्त्रोत जल ही है। इसीलिए कहा भी गया है- जल ही जीवन है।
स्वच्छ पेयजल- आदिकाल से प्रकृति मानव की सहचरी रही है। प्रकृति के पाँचों तत्त्वों, जिनसे मानव विकसित व पल्लवित हुआ, में जल अपना अलग हो स्थान रखता है। लेकिन द्रुतगति से हो रही वैज्ञानिक व तकनीकी उपलब्धियों ने जल की उपलब्धता व स्वच्छता पर ग्रहण लगा दिया है। बीसवीं शताब्दी में नए-नए आविष्कार हुए। भूगर्भ में छिपे हुए जल का भी दोहन प्रारम्भ हो गया, जिस कारण भूमि में जल के स्वर के समीकरण गड़बड़ाने लगे और भूमि से प्राप्त होनेवाले जल की मात्रा कम होती चली गई। विश्व-मंच पर भूमिगत जल के इस प्रकार अन्धाधुन्ध दोहन पर अनेक वार्चाएँ आयोजित की जा चुकी हैं। लेकिन इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में भी कोई हल नहीं खोजा जा सका है। पीने के स्वच्छ जल का सर्वत्र अकाल दिखाई दे रहा है। पुरातनकाल में जल का अपव्यय नहीं होता था। लोक- आवश्यकता के अनुरूप ही श्रमशक्ति द्वारा भूमि से कुओं, तालाबों, रहटों तथा अन्य विधियों से जल का दोहन करते थे। लेकिन अद्यतन मशीनी युग में विद्युत् शक्ति के उपयोग से जल को नष्ट किया जा रहा है और तमाम मीट्रिक टन जल ऐसे ही बहकर समुद्र के खारे जल में जा मिलता है। सागर का जल खारा होने के कारण हमारे पीने तथा अन्य कार्यों के लिए बेकार साबित होता है।
जल-संरक्षण- मानव के लिए उपयोगी जल बेकार न चला जाए, इसके लिए इस तथ्य की ओर ध्यान दिया गया कि मानव के लिए उपयोगी जल का संरक्षण किया जाए, इसके लिए वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार की विधियों को अपनाने पर बल दिया है। अनेक देशों में बारिश के जल का संरक्षण करने के उपायों को भी खोजा गया है। वहाँ पर मकानों की छत को इस प्रकार से बनाया गया है, ताकि वह वर्षा जल को एकत्रित कर सके। उसके पश्चात् नल के पाइपों द्वारा इस जल को इच्छित मन्तव्य तक पहुँचा दिया जाता है और इस प्रकार वर्षा जल का संरक्षण हो जाता है। इसी प्रकार भूमि पर अधिक पेड़-पौधे उगाने से भी पानी के अवांछित बहाव को रोका जा सकता है। भूमि से उतने जल का दोहन ही किया जाना चाहिए, जितना आवश्यक हो। नलों से भी अनावश्यक जल के बहाव पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। यदि प्राकृतिक जल की मात्रा कम हो गई या समाप्त हो गई तो इसे पुनः प्राप्त करना असम्भव हो जाएगा; अतः इसके संरक्षण पर ध्यान दिया जाना चाहिए तथा जल को बर्बाद होने बचाना चाहिए।
प्रदूषण और उससे बचाव – मानव ने एक ओर तो आशातीत वैज्ञानिक उपलब्धियों को प्राप्त कर स्वयं को गौरवान्वित किया है तो दूसरी ओर उसने प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर स्वयं को प्रकृति का कोपभाजन बनाया है। तकनीकी उपलब्धि के साथ ही प्रदूषण की समस्या ने भी विकराल रूप धारण कर लिया है। जिस प्रकार सुरसा का मुख हनुमान्जी को निगल जाने के लिए बढ़ता चला गया था, उसी प्रकार प्रदूषण भयंकर रूप धारण करता जा रहा है। वस्तुतः वायु, जल, मिट्टी, पौधे और पशु – जगत् सभी मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। जब मानव अपने विकास की धुन में इनका सीमा से अधिक उपयोग करता है तो प्रकृति के ये घटक प्रदूषित हो जाते हैं और प्रकृति नदियों का जल अनेक स्थलों पर आज पीने योग्य भी नहीं रहा है। का स्वाभाविक सन्तुलन गड़बड़ा जाता है। गंगा और क्षिप्रा जैसी पवित्र रोगों को जन्म देता है। प्रदूषित जल मानव के शरीर में पहुँचकर अस्थि कैंसर जैसे भयानक
इन सब प्रदूषणों से बचाव के उपायों को सुनिश्चित करने हेतु वर्ष 1972 ई० में स्टाकहोम में एक ‘विश्व पर्यावरण बचाव सम्मेलन’ का आयोजन किया गया। इसीलिए अब ‘विनाश के बिना विकास’ का नारा दिया जा रहा है। भारत में पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय का गठन केन्द्र सरकार के अन्तर्गत किया गया है। उत्तर प्रदेश में वी पर्यावरण सचिव की नियुक्ति शासन स्तर पर की गई है; अत: प्रदूषण से मानव को बचाना ही होगा और इसमें जल संरक्षण व उसकी स्वच्छता की महती भूमिका होगी।
22. सूचना प्रौद्योगिकी
संकेत – बिन्दु — (1) विज्ञान एवं सूचना प्रौद्योगिकी (प्रस्तावना); (2) कम्प्यूटर : एक वरदान; (3) सामाजिक आवश्यकता; (4) जन-जीवन पर इसका प्रभाव; (5) उपसंहार।
विज्ञान एवं सूचना प्रौद्योगिकी (प्रस्तावना ) – वर्तमान युग को सूचना प्रौद्योगिकी (तकनीकी) का युग’ के नाम से भी जाना जाता है। आज सूचना प्रौद्योगिकी का व्यावसायिक तथा सामाजिक आवश्यकता की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। इसकी सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर तथा कम-से-कम समय में सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा सकता है। विज्ञान ने इस आवश्यकता को पूरा करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विज्ञान की इस भूमिका के सन्दर्भ हम सार रूप में यह कह सकते हैं कि विज्ञान ने ही सूचना को प्रौद्योगिकी बनाया है। सूचना प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए पहले केवल टेलीफोन का प्रयोग किया गया। उसके बाद टेलेक्स, फैक्स, पेजर, कम्प्यूटर आदि सूचना संसाधनों का प्रयोग आरम्भ हुआ। इसके पश्चात् इण्टरनेट के प्रयोग ने तो सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रान्ति ही ला दी है। आजकल इण्टरनेट, ई-मेल, मोबाइल फोन, टेलनेट, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आदि सुविधाओं के प्रयोग ने मानव-जीवन को अति सुखमय एवं सरल बना दिया है।
सूचना प्रौद्योगिकी शब्द का आशय ऐसी स्वचालित पद्धतियों से है जो व्यावसायिक समंकों को प्रक्रियाबद्ध करती हैं। अन्य शब्दों में, सूचना प्रौद्योगिकी प्रत्यक्ष रूप से सरल एवं विशेष प्रक्रियाओं की सहायता से बहुत बड़ी संख्या में समान सूचनाओं का प्रसार करती है। उदाहरणार्थ – एक कम्पनी के स्कन्ध (Stock) में होने वाले परिवर्तन, रेलवे के टिकटों का आरक्षण (Reservation) आदि इसी प्रकार की प्रक्रियाएँ हैं।
कम्प्यूटर : एक वरदान – आज सूचना प्रौद्योगिकी की समस्त क्रियाएँ कम्प्यूटर के माध्यम से संचालित की जाती हैं; इसलिए कम्प्यूटर इसके लिए वरदान सिद्ध हुआ है। इस क्षेत्र में कम्प्यूटर की उपयोगिता का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है-
प्रारम्भ में कम्प्यूटर का प्रयोग वैज्ञानिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों आदि तक ही सीमित था । उस समय कम्प्यूटर किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयोग किया जाता था, परन्तु धीरे-धीरे जब कम्प्यूटर का व्यावसायिक प्रयोग बढ़ा • कम्प्यूटर सामान्य जन-जन के कार्यों में भी प्रयोग किया जाने लगा। वर्तमान में कम्प्यूटर एक ऐसा यन्त्र है जो जीवन के सभी क्षेत्रों में कार्य कर रहा है।
भारत में प्रारम्भ में कम्प्यूटरों का उपयोग काफी सीमित था । वर्तमान में बैंक, अस्पताल, प्रयोगशाला, अनुसन्धान केन्द्र, विद्यालयसहित ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहाँ कम्प्यूटर का प्रयोग न किया जाता हो। आज कम्प्यूटर संचार का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन गया है। कम्प्यूटर नेटवर्क के माध्यम से देश के प्रमुख स्थानों को एक-दूसरे के साथ जोड़ दिया गया है। भवनों, मोटर गाड़ियों, हवाई जहाजों आदि के डिजाइन तैयार करने में कम्प्यूटर का व्यापक प्रयोग हो रहा है। अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में तो कम्प्यूटर ने कमाल कर दिया है। इसके माध्यम से करोड़ों मील दूर अन्तरिक्ष में स्थित ग्रह-नक्षत्रों, उल्काओं, धूमकेतुओं और आकाशगंगाओं के चित्र लिए जा रहे हैं। इन चित्रों का विश्लेषण भी कम्प्यूटर द्वारा ही किया जा रहा है। इण्टरनेट ने तो संचार के क्षेत्र में क्रान्ति ही ला दी है। आज संसार के किसी भी क्षेत्र में हो रहे अनुसंधान, विकसित नवीन ज्ञान की जानकारी पलक झपकते ही इण्टरनेट के माध्यम से अपने कक्ष में बैठे-बैठे ही अपनी कम्प्यूटर स्क्रीन पर प्राप्त कर सकते हैं। कम्प्यूटर रोबोट के द्वारा आज औद्योगिक क्षेत्रों आदि में अत्यधिक जान जोखिम वाले कार्यों को बिना कोई जोखिम उठाए सफलतापूर्वक किया जाने लगा है। सामरिक क्षेत्र में तो कम्प्यूटर का कोई विकल्प ही नहीं है। आज की मिसाइलें, मानवरहित विमान आदि सब कम्प्यूटर के ही तो परिणाम हैं।
सामाजिक आवश्यकता – सूचना प्रौद्योगिकी की समाज के लिए क्या आवश्यकता है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आज जीवन का कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। जन्म से जीवनपर्यन्त सूचना प्रौद्योगिकी हमारी एक-एक साँस से जुड़ी है। हमारे सभी सामाजिक उत्सव, पर्व, त्योहार, मनोरंजन, परम्परा, संस्कृति से लेकर हमारे खान-पान, रहन-सहन, व्यापार-उद्योग आदि के सरोकार सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े हैं। इसके अभाव में किसी समाज की उन्नति और विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती । जिस समाज में सूचना प्रौद्योगिकी का प्रचार-प्रसार जितना अधिक होता है, उस समाज को उतना ही उन्नत और विकसित माना जाता है। इसी कारण तो आज अमेरिका, ब्रिटेन, प्रांस, जर्मनी आदि देश संसार का सिरमौर बने हैं।
जन-जीवन पर इसका प्रभाव – सूचना प्रौद्योगिकी के जन-जीवन पर पड़नेवाले प्रभाव को निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में समझा जा सकता है-
(क) सूचना प्रौद्योगिकी के सकारात्मक प्रभाव
(1) निर्णयन में सहायक— सूचना प्रौद्योगिकी की सहायता से व्यवसाय में प्रबन्धक एवं सम्बन्धित व्यक्तियों द्वारा आर्थिक एवं आनुपातिक निर्णय सही समय पर लिए जा सकते हैं, जिसका परिणाम यह है में होने वाली त्रुटियों तथा हानियों से सुरक्षा प्राप्त हो जाती है।
(2) लिपिकीय कार्य में कमी – सूचना प्रौद्योगिकी एवं कम्प्यूटर की सहायता से लिपिकीय कार्य में कमी आई है। संस्थान में पहले जिस कार्य को करने हेतु कई कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती थी, उसी कार्य को अब केवल एक ही व्यक्ति कम्प्यूटर की सहायता से कम समय में पूर्ण करने में सक्षम है। इससे व्यावसायिक संस्थान पहले की तुलना में ज्यादा प्रतियोगी एवं गुणवत्ता वाले उत्पाद एवं सेवाएँ कम लागत में प्रदान कर सकते हैं।
(3) कर्मचारियों को प्रशिक्षण – सूचना प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत किसी भी संस्थान के कर्मचारियों को कम्प्यूटर कार्य का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। प्रशिक्षित होने के बाद कर्मचारी कम्प्यूटर का उपयोग जितनी अधिक कुशलता से करने में सक्षम होगा, वह संस्थान के लिए उतना ही अधिक उपयोगी माना जाएगा।
(4) कर्मचारियों का रिकॉर्ड रखना- किसी संस्थान में कर्मचारियों का रिकॉर्ड बनाए रखने हेतु डाटाबेस को इस प्रकार बनाया जा सकता है कि वह विभिन्न कर्मचारियों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारियों का रिकॉर्ड रख सके, जिससे आवश्यकता पड़ने पर कार्यकुशल लोगों विशेष कार्य को सम्पन्न कराया जा सके।
(5) विश्व स्तर पर लाभ – वर्तमान युग सूचना तकनीक का युग कहा जाता है और विश्व स्तर पर सूचना तकनीक का लाभ व्यक्तियों, संघों, कम्पनियों एवं विभिन्न राष्ट्रों को प्राप्त हो रहा है। आज फोन, मोबाइल, इण्टरनेट, फैक्स आदि सुविधाओं का प्रयोग करके आवश्यक जानकारियों एवं सूचनाओं को कुछ ही पलों में संसार के एक कोने से दूसरे कोने में भेजा जा सकता है।
(ख) सूचना प्रौद्योगिकी के नकारात्मक प्रभाव
(1) बेरोजगारी में वृद्धि – वर्तमान युग में किसी भी कार्यालय, हैं। जिस कार्य को पूर्ण करने में पहले व्यक्ति को कई दिन लग जाते संस्था अथवा उपक्रम में अधिकांश कार्य कम्प्यूटर के द्वारा किए जा रहे थे, वही कार्य अब कम्प्यूटर द्वारा कुछ ही समय में कर लिया जाता है। इस प्रकार बेरोजगारी में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
(2) कम्प्यूटर एवं कैलकुलेटर की आदत – आजकल अधिकांश व्यक्ति कम्प्यूटर एवं कैलकुलेटर के आदी हो गए हैं अर्थात् वे कम्प्यूटर पर गेम, क्विज आदि में अपना अधिकतर समय व्यतीत कर देते हैं। कम्प्यूटर ऑपरेट करते समय वह प्रायः वातानुकूलित कमरे में बैठे रहते हैं, जिससे उन्हें इसकी आदत पड़ जाती है और उनके स्वास्थ्य के लिए यह आदत हानिकारक हो सकती है। इसी प्रकार, सामान्य गणितीय क्रियाओं (जोड़, घटाने, गुणा, भाग) आदि के लिए भी वे कैलकुलेटर का प्रयोग करने लगते हैं, जिसके कारण कुछ समय बाद वह अपने आपको कैलकुलेटर के अभाव में गणितीय क्रियाओं को सम्पन्न करने में अक्षम पाते हैं।
(3) गोपनीयता का अभाव – कम्प्यूटर के अन्तर्गत संस्थान में सभी प्रकार के डाटाबेस स्टोर रहते हैं; उदाहरणार्थ – आर्थिक स्थिति की जानकारी, बैंक बैलेन्स आदि। कोई भी व्यक्ति कम्प्यूटर में डाटाबेस के अन्तर्गत इसकी जानकारी प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार, कम्प्यूटर में संगृहीत किए गए आँकड़ों पर प्रायः गोपनीयता का अभाव पाया जाता है।
(4) डाटाबेस की सुरक्षा को खतरा – बैंक एकाउण्ट को इलेक्ट्रॉनिक डाटा के रूप में रखते हैं। धनराशि निकालने के लिए ग्राहकों द्वारा ए०टी०एम० (A.T.M.) कार्ड का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार आज रिकॉर्ड कागजों में न रखकर मैग्नेटिक माध्यम से कम्प्यूटर में रखा जाता है। यदि कम्प्यूटर सिस्टम में वायरस होगा तो पूरा का पूरा डाटाबेस कुछ ही सेकण्ड में नष्ट हो सकता है। यदि डाटाबेस का बैकअप नहीं रखा गया होगा तो पूरे-के-पूरे रिकॉर्डे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार डाटाबेस की सुरक्षा को सदैव खतरा बना रहता है।
उपसंहार — विश्व के लगभग सभी देशों तथा उनकी अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक प्रगति एवं मानव संसाधन के विकास के लिया गया है। वर्तमान में सूचना प्रौद्योगिकी का तीव्रतम गति लिए सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग को सर्वमान्य रूप में स्वीकार कर हो रहा है और यह विश्व का सबसे बड़ा उद्योग बनने के लिए तत्पर विकास है। इसे एक ऐन्द्रजालिक (जादुई) तकनीक माना जा रहा है, जिसमें विश्व में ऐसा कोई भी साधन उपलब्ध नहीं था। इसके लिए प्रत्येक देश अनेक कुशल हाथ और तर्कशील मस्तिष्क लगे हुए हैं। इसके पूर्व अपनी अर्थव्यवस्था बड़े स्तर पर योजनाएँ बना रहा है तथा विभिन्न निर्णायक कदम भी उठा रहा है।

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