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UP Board Class 10 Hindi Chapter 4 – भक्ति, नीति (काव्य-खण्ड)

UP Board Class 10 Hindi Chapter 4 – भक्ति, नीति (काव्य-खण्ड)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 भक्ति, नीति (काव्य-खण्ड)

जीवन-परिचय
कवि बिहारी जी का जन्म 1595 ई. में ग्वालियर के पास बसुआ (गोविन्दपुर गाँव) में माना जाता है। इनके पिता का नाम पं. केशवराय चौबे था। बचपन में ही ये अपने पिता के साथ ग्वालियर से ओरछा नगर आ गए थे। यहीं पर आचार्य केशवदास से इन्होंने काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और काव्यशास्त्र में पारंगत हो गए।
बिहारी जी ने हिन्दी साहित्य को काव्यरूपी अमूल्य रत्न प्रदान किया है। बिहारी, जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के आश्रित कवि माने जाते हैं। कहा जाता है कि जयसिंह नई रानी के प्रेमवश में होकर राज-काज के प्रति अपने दायित्व भूल गए थे, तब बिहारी ने उन्हें एक दोहा लिखकर भेजा, जो इस प्रकार है
नहि परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।
अली कली ही सौं बिंध्यौ, आगे कौन हवाल ।।
जिससे प्रभावित होकर उन्होंने राज-काज में फिर से रुचि लेना शुरू कर दिया और राजदरबार में आने के पश्चात् उन्होंने बिहारी को सम्मानित भी किया। आगरा आने पर बिहारी जी की भेंट रहीम से हुई। 1662 ई. में बिहारी जी ने ‘बिहारी सतसई’ की रचना की। इसके पश्चात् बिहारी जी का मन काव्य रचना से भर गया और ये भगवान की भक्ति में लग गए। 1663 ई. में ये रससिद्ध कवि पंचतत्त्व में विलीन हो गए।
साहित्यिक परिचय
बिहारी जी ने सात सौ से अधिक दोहों की रचना की, जोकि विभिन्न विषयों एवं भावों पर आधारित हैं। बिहारी जी ने श्रृंगार, भक्ति, नीति, ज्योतिष, गणित, इतिहास तथा आयुर्वेद आदि विषयों पर दोहों की रचना की है। बिहारी जी के दोहों में नायिका भेद, भाव, विभाव, अनुभाव, रस, अलंकार आदि सभी दृष्टियों से विस्मयजनक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। इनकी रचनाओं में श्रृंगार रस का अधिकाधिक प्रयोग देखने को मिलता है।
कृतियाँ (रचनाएँ)
‘बिहारी सतसई’ मुक्तक शैली में रचित बिहारी जी की एकमात्र कृति है, जिसमें 723 दोहे हैं। बिहारी सतसई को ‘गागर में सागर’ की संज्ञा दी जाती है।
भाषा-शैली
बिहारी जी ने साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली के अन्तर्गत ही इन्होंने ‘समास शैली’ का विलक्षण प्रयोग भी किया है।
हिन्दी साहित्य में स्थान
बिहारी जी रीतिकाल के अद्वितीय कवि हैं। ये हिन्दी साहित्य की महान् विभूति हैं, जिन्होंने अपनी एकमात्र रचना के आधार पर हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
पद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर
भक्ति
1. मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ ।
जा तन की झाँईं परै, स्यामु हरित – दुति होइ ।।
शब्दार्थ भव बाधा – सांसारिक बाधाएँ; हरौ – दूर करो; नागरि – चतुर; झाँईं-परछाईं; परै-पड़ने पर स्यामु- श्रीकृष्ण हरित – दुति – दुःखों को हरना ।
प्रश्न
(i) प्रस्तुत पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) प्रस्तुत पद्यांश का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
(iv) प्रस्तुत दोहे का मूल भाव बताइए ।
(v) ‘जा तन की झाँईं परै, स्यामु हरित दुति होइ’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
(i) सन्दर्भ प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘काव्यखण्ड’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से उद्धृत है। यह बिहारी लाल द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से लिया गया है। प्रसंग प्रस्तुत दोहे में बिहारी ने राधिका जी की स्तुति की है। वे उनकी कृपा पाना चाहते हैं और सांसारिक बाधाओं को दूर करना चाहते हैं।
(ii) व्याख्या कवि बिहारी राधिका जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि
हे चतुर राधिके! तुम मेरी इन संसाररूपी बाधाओं को दूर करो अर्थात् तुम भक्तों के कष्टों का निवारण करने में परम चतुर हो, इसलिए मुझे भी इस संसार के कष्टों से मुक्ति दिलाओ। जिसके तन की परछाईं पड़ने से श्रीकृष्ण के शरीर की नीलिमा हरे रंग में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हो जाते हैं, जिनके शरीर की परछाईं पड़ने से हृदय प्रकाशवान हो उठता है। उसके सारे अज्ञान का अन्धकार दूर हो जाता है। ऐसी चतुर राधा मुझे सांसारिक बाधाओं से दूर करें।
(iii) काव्य सौन्दर्य
‘बिहारी सतसई’ शृंगार रस प्रधान रचना है। अतः शृंगार की अधिष्ठात्री देवी राधिका जी की स्तुति की गई है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण माधुर्य, प्रसाद
रस शृंगार एवं भक्ति
छन्द दोहा
अलंकार अनुप्रास अलंकार ‘हरौ, राधा नागरि’ में ‘र’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
श्लेष अलंकार ‘हरित – दुति’ में कई अर्थों की पुष्टि हो रही है। इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है ।
(iv) प्रस्तुत दोहे का मूल भाव यह है कि हे चतुर राधा ! तुम भक्तों के कष्टों का निवारण करने में परम चतुर हो, इसलिए मुझे भी इस संसार के कंष्टों से मुक्ति दिलाओ।
(v) इस पंक्ति का आशय यह है कि जिसके तन की परछाईं पड़ने से श्रीकृष्ण के शरीर की नीलिमा हरे रंग में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसी चतुर राधा मुझे सांसारिक बाधाओं से दूर करें।
2. मोर मुकुट की चंद्रिकनु,
यौं राजत नँदनन्द।
मनु ससि सेखर की अकस,
किय सेखर सत चन्द ।।
शब्दार्थ चंद्रिकनु–चन्द्रमाओं से; राजत- सुशोभित; मनु-मानो; ससि सेखर-चन्द्रमा जिनके सिर पर है अर्थात् शंकर; अकस – प्रतिबिम्ब ।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) पद्यांश का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने श्रीकृष्ण के सिर पर विराजमान मोर- मुकुट का सुन्दर चित्रण किया है।
(ii) व्याख्या श्रीकृष्ण जी के मस्तक पर मोर पंखों का मुकुट अत्यन्त सुशोभित हो रहा है। उन मोर पंखों के बीच बनी सुनहरी चन्द्राकार चन्द्रिकाएँ देखकर ऐसा लगता है मानो शंकर जी से तुलना करने के लिए उन्होंने अपने मस्तक पर सैकड़ों चन्द्रमाओं को धारण कर लिया हो अर्थात् श्रीकृष्ण के मस्तक पर मोर के पंख का मुकुट सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान लग रहा है तथा शंकर जी की परछाईं-सा प्रतीत हो रहा है।
(iii) काव्य सौन्दर्य
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण माधुर्य
रस श्रृंगार
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘मोर मुकुट’ और ‘ससि सेखर’ में क्रमश: ‘म’ और ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। उत्प्रेक्षा अलंकार ‘मनु ससि सेखर की अकस’ अर्थात् मोर पंख के मुकुट की सैकड़ों चन्द्रमाओं से की गई है तथा यहाँ उपमान में उपमेय की तुलना सम्भावना व्यक्त की गई है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।
3. सोहत ओढ़ें पीतु पटु, स्याम सलौने गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात।।
शब्दार्थ सोहत-सुशोभित होना; पीतु पटु-पीले वस्त्र; सलौने–सुन्दर; सैल – पर्वत; आतपु-प्रकाश पर्यो -पड़ने पर प्रभात – सुबह ।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए |
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) पद्यांश का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में पीले वस्त्र पहने हुए श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का चित्रण किया गया है।
(ii) व्याख्या बिहारी जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के साँवले – सलोने शरीर पर पीले रंग के वस्त्र ऐसे लग रहे हैं मानो नीलमणि के पर्वत पर सुबह – सुबह सूर्य की पीली किरणें पड़ रही हों अर्थात् श्रीकृष्ण ने जो पीले रंग के वस्त्र अपने शरीर पर धारण किए हैं, वे नीलमणि के पर्वत पर पड़ रही सूर्य की पीली किरणों के समान लग रहे हैं। उनका यह सौन्दर्य अवर्णनीय है ।
(iii) काव्य सौन्दर्य
श्रीकृष्ण के शारीरिक रूप सौन्दर्य का सादृश्य चित्रण है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण माधुर्य
रस शृंगार और भक्ति
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘पीत पटु’, ‘स्याम सलौने’ और ‘परयौ प्रभात’ में क्रमश: ‘प’, ‘स’ और ‘प’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
उत्प्रेक्षा अलंकार ‘मनो नीलमनि सैल पर यहाँ नीलमणि पत्थर की तुलना सूर्य की पीली धूप से की गई है, जिस कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।
4. अधर धरत हरि कैं परत, ओठ-डीठि -पट- जोति ।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रंग होति ।
शब्दार्थ अधर-नीचे का होंठ; धरत – रखना; ओठ होंठ; डीठि -दृष्टि; पट – पीताम्बर; जोति – ज्योति; होति- होना |
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) पद्यांश का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण द्वारा बाँसुरी के होंठ पर रखने से वह हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुष के रंगों की हो जाती है। यहाँ इसी का चित्रण है।
(ii) व्याख्या एक सखी राधिका जी से कहती है कि श्रीकृष्ण जी ने अपने अधरों पर बाँसुरी धारण कर रखी है। मुरली को धारण करते ही उनके होंठों की लालिमा, नेत्रों की श्यामता तथा पीताम्बर के पीले रंग की झलक पड़ते ही श्रीकृष्ण के हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुष के रंगों में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् लाल, पीला और श्याम रंग मिलने से बाँसुरी सतरंगी शोभा को धारण कर लेती है।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहता है कि श्रीकृष्ण के प्रभाव में आने पर एक सामान्य बाँसुरी अनेक रंग धारण कर लेती है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस भक्ति
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘अधर धरत हरि कैं परत’ में ‘ध’, ‘र’, ‘त’, ‘ओठ-डीठि-पट जोति’ में ‘ठ’ और ‘त’, बाँस की बाँसुरी में ‘ब’ और ‘स’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
उपमा अलंकार पद्यांश की दूसरी पंक्ति में बाँसुरी के रंगों की तुलना इन्द्रधनुष के रंगों से की गई है, जिस कारण यहाँ उपमा अलंकार है।
यमक अलंकार ‘अधर धरत’ में ‘अधर’ शब्द के अनेक अर्थ हैं, इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।
5. या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोई।
ज्यों-ज्यों बड़े स्याम रँग, त्यों-त्यों उज्जलु होई ।।
शब्दार्थ अनुरागी – प्रेमी; चित्त – मन; गति – चाल; समुझे – समझना; बूड़े – डूबता है; स्याम रंग-कृष्ण भक्ति का रंग उज्जलु – प्रकाशित होना, पवित्र|
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) पद्यांश का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
(iv) श्याम रंग में डूबने पर कवि का चित्त उज्ज्वल कैसे हो जाता है?
(v) ‘ या अनुरागी चित्त की गति समुझे न कोई’ । पंक्ति से कवि का क्या आशय है? ‘
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबने से मन व चित्त प्रकाशित हो जाते हैं। इसी पवित्र प्रेम का चित्रण कवि ने यहाँ किया है।
(ii) व्याख्या कवि कहता है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले मेरे मन की दशा अत्यन्त विचित्र है। इसकी दशा को कोई और समझ नहीं सकता। वैसे तो श्रीकृष्ण का वर्ण भी श्याम है, परन्तु कृष्ण के प्रेम में मग्न मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग में मग्न होता है, वैसे-वैसे श्वेत अर्थात् पवित्र हो जाता है।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने स्पष्ट किया है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले श्याम वर्ण की अपेक्षा श्वेत वर्ण में परिवर्तित हो जाते हैं, जो पवित्रता का प्रतीक है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण माधुर्य
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार
पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ‘ज्यौं – ज्यौं’ और ‘त्यौं-त्यौं’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।
(iv) श्रीकृष्ण साँवले रंग के हैं। श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबने पर मन में व्याप्त बुराइयाँ व अज्ञान नष्ट जाते हैं और मन पवित्र हो जाता है। पवित्रता उज्ज्वलता की प्रतीक होती है। अतः श्याम रंग में डूबने पर कवि का मन (चित्त) उज्ज्वल हो जाता है।
(v) इस पंक्ति से कवि का आशय यह है कि प्रेम से परिपूर्ण मन की गति समझना अत्यन्त कठिन है। इसकी गति को कोई नहीं समझ सकता, क्योंकि श्याम वर्ण में डूबने पर कलुषता आनी चाहिए, लेकिन कवि का मन उज्ज्वल हो जाता है।
6. तौ लगु या मन सदन मैं, हरि आवैं किहिं बाट ।
विकट जटे जौ लगु निपट, खुटै न कपट- कपाट ।।
शब्दार्थ मन-सदन – मनरूपी घर बाट – रास्ता देखना; विकट जटे – दृढ़ता बन्द; जौ लगु–जब तक; निपट – अत्यन्त ; खुटैं- खुलेंगे; कपट- कपाट – कपटरूपी किवाड़ |
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए |
(iii) काव्यगत सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रंसग प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने कहा है कि जब तक मन का कपट नहीं समाप्त होगा, तब तक ईश्वर की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
(ii) व्याख्या कवि बिहारी जी कहते हैं कि जब तक दृढ़ निश्चय से मन के कपटरूपी दरवाजे हमेशा के लिए खुलेंगे नहीं, तब तक इस मनरूपी घर में भगवान श्रीकृष्ण किस मार्ग से आएँ अर्थात् कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक मनुष्य के मन का कपट समाप्त नहीं होगा, तब तक श्रीकृष्ण मन में वास नहीं करेंगे।
(iii) काव्य सौन्दर्य
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस भक्ति
छन्द दोहा
अनुप्रास अलंकार ‘मन सदन’, ‘जटे जौ’ और ‘कपट कपाट’ में क्रमश: ‘न’, ‘ज’, ‘क’ और ‘प’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
रूपक अलंकार ‘कपट- कपाट’ अर्थात् कपटरूपी किवाड़ का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है ।
7. जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि ।
ज्यौँ आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि ।। 
शब्दार्थ जगतु—संसार; जनायौ – ज्ञान कराया; जिहिं-जिसने, सकलु–सम्पूर्ण; जान्यौ नाँहिं-जाना नहीं |
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
(iv) जगत से हमारा परिचय किसने कराया है?
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी भक्त को समझा रहे हैं कि उस परम सत्य ईश्वर को जान ले, तभी तेरा कल्याण है।
(ii) व्याख्या कवि बिहारी जी कहते हैं कि तू उस ईश्वर को जान ले, जिसने तुझे इस सम्पूर्ण संसार से अवगत कराया है। अभी तक तूने उस हरि (राम) को नहीं जाना है। यह बात ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे आँखों से हम सब कुछ देख लेते हैं, परन्तु आँखें स्वयं अपने आप को नहीं देख पातीं।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने इस सत्य का उद्घाटन किया है कि सम्पूर्ण संसार का ज्ञान कराने वाले ईश्वर को हम नहीं जान पाते हैं।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘जगतु जनायौ जिहिं’ और ‘सकलु सो’ में ‘ज’ और ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
(iv) जगत से हमारा परिचय ईश्वर ने कराया है।
8. जप, माला, छापा तिलक, सरै न एकौ कामु ।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचे राँचै रामु ।।
शब्दार्थ जंप – जपना; छापा तिलक – टीका लगाना; सरै- सिद्ध होता है; एकौ कामु – एक भी काम; मन – काँचै – कच्चे मनवाला; नाचै-भटकना ।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) पद्यांश का काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
(iv) कवि के अनुसार, ईश्वर की प्राप्ति कैसे होती है?
(v) कवि के अनुसार, किन झूठे दिखावों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती ?
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी ने बताया है कि झूठे दिखावों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसके लिए तो सच्चे मन की आवश्यकता है।
(ii) व्याख्या कवि कहते हैं कि बाहरी दिखावा करने से अर्थात् जप करने से, दिखावे के लिए माला गले में धारण करने से, तरह-तरह के तिलक लगाने से, राम-नाम के छापे वाले वस्त्र पहनने से एक भी काम सिद्ध नहीं हो पाता। जब तक तुम्हारा मन कच्चा रहेगा, तब तक व्यर्थ ही नाचते रहोगे। ईश्वर तो तभी प्रसन्न होंगे, जब तुम सच्चे मन से उनकी उपासना करोगे। इन सबसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारा मन ईश्वर की सच्ची भक्ति नहीं करेगा तब तक उस ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने ईश्वर को पाने के लिए झूठे दिखावों व बाह्याडम्बरों को व्यर्थ बताया है।
भाषा साहित्यिक ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘राँचै राम’ में ‘र’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
(iv) जय भक्त सच्चे मन से ईश्वर की उपासना करता है, तभी उसे ईश्वर की प्राप्ति होती है। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए दिखावे की आवश्यकता नहीं होती है।
(v) कवि के अनुसार, जप करना, गले में माला धारण करना, मस्तक पर तिलक लगाना और राम नाम के छापे वाले वस्त्र पहनने से ईश्वर प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ये सभी झूठे दिखावे हैं और झूठे दिखावे से ईश्वर प्रसन्न नहीं होते हैं।
नीति
9. दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यों न बढ़े दुःख – दंदु ।
अधिक अँधेरौ जग करत, मिलि मावस रबि- चंदु । ।
शब्दार्थ दुसह-असहय; दुराज-दो राजाओं का राज्य, द्वैधशासन; प्रजानु – प्रजा; दंदु – द्वन्द्व, संघर्ष, मावस – अमावस्या ।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में बिहारी जी ने बताया है कि दो राजाओं के स्वामित्व से प्रजा का दुःख भी दोगुना होता है।
(ii) व्याख्या जिस राज्य में दो राजाओं का शासन होता है, उस राज्य की प्रजा का दुःख दोगुना क्यों न बढ़ेगा, क्योंकि दो राजाओं के भिन्न-भिन्न मन्तव्य, उनके आदेश, नियमों व नीतियों के बीच प्रजा पिसती है, जिस प्रकार अमावस्या की तिथि को सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि पर मिलकर संसार में और अधिक अँधेरा कर देते हैं।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने स्पष्ट किया है कि एक ही राजा के स्वामित्व में प्रजा का सुख निहित है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘दुसह दुराज’, ‘अधिक अँधेरौ’ और ‘मिलि मावस’ में क्रमश: ‘द’, ‘अ’, ‘ध’ और ‘म’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
श्लेष अलंकार ‘दुसह’ और ‘दंदु’ में अनेक अर्थ व्याप्त हैं, इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है ।
‘दृष्टान्त अलंकार ‘रबि चंदु’ में उपमेय और उपमान का बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव प्रकट हुआ है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है ।
10. बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु ।
भल कहि छोड़िये, खोर्टें ग्रह जपु दानु । ।
शब्दार्थ बसै – समाना; जासु – जिसके; सनमानु-सम्मान, आदर; खोटैं ग्रह – अनिष्ट ग्रह ( शनि आदि), जपु – जाप ; दानु – दान; भलौ – अच्छा।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने मनुष्य की स्वार्थपरक प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है। स्पष्ट कीजिए।
(v) ‘भलौ-भलौ कहि छोड़िये, खोर्टें ग्रह जपु दानु’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में बताया गया है कि संसार में दुष्ट व्यक्ति का बहुत आदर होता है, जिससे उसके अनिष्ट कार्यों से बचा जा सके।
(ii) व्याख्या कवि बिहारी कहते हैं कि जिस मनुष्य के शरीर में बुराई का वास होता है, उसी का सम्मान किया जाता है। जब अच्छा समय होता है तो भला-भला कहकर छोड़ दिया जाता है और जब बुरा समय आता है, तो मनुष्य उसके लिए अनिष्ट ग्रहों का जाप व उनके लिए दान करने लगता है अर्थात् अच्छे समय में मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है और बुरा समय आने पर वह ईश्वर की स्तुति करने लगता है।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने मनुष्य की स्वार्थपरक प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘बसै बुराई’ में ‘ब’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ‘भलौ – भलौ’ में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
श्लेष अलंकार ‘ग्रह’ में अनेक अर्थों का भाव प्रकट होने से यहाँ श्लेष अलंकार है।
विरोधाभास अलंकार इस पद्यांश में दुष्ट व्यक्ति के प्रति विरोध न होने पर भी विरोध का आभास है, इसलिए यहाँ विरोधाभास अलंकार है ।
(iv) प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहते हैं कि जगत में उसी का सम्मान किया जाता “है, जो बुरा होता है। अच्छे समय में मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है और बुरा समय आने पर वह ईश्वर की स्तुति करने लगता है। इस प्रकार मनुष्य की प्रवृत्ति स्वार्थी होती है।
(v) कवि के अनुसार, इस पंक्ति का आशय यह है कि भले को भला कहकर छोड़ दिया जाता है और बुरे व्यक्ति को आदर दिया जाता है। यह बात ग्रहों के बारे में भी सटीक उतरती है कि जो ग्रह बुरे होते हैं, मनुष्य उनके लिए दान व जप करने लगता है, जो ग्रह अच्छे होते हैं, उन्हें छोड़ दिया जाता है।
11. नर की अरु नल नीर की, गति एकै करि जोई।
जेतौ नीचे है चलै तेतौ ऊँचौ होई ।। 
शब्दार्थ नर-मनुष्य; अरु – इच्छाएँ; नल नीर – नल का पानी; गति – चाल, बढ़ना; जेतौ – जितना; तेतौ-उतना; ऊँचौ -ऊँचा ।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए |
(iii) काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
(iv) प्रस्तुत दोहे में कवि ने मनुष्य की स्थिति किसके समान बताई है?
(v) ‘जेतौ नीचे है चले ……. ऊँचा होई’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रस्तुत दोहे में मनुष्य की विनम्रता की महत्ता का वर्णन किया गया है।
(ii) व्याख्या कवि कहते हैं कि मनुष्य की स्थिति बिलकुल नल के पानी के समान है। जिस प्रकार नल का जल जितना नीचे की ओर चलता है, उसमें उतना ही ऊँचा पानी चढ़ता है, उसी प्रकार व्यक्ति जितना नम्रतापूर्वक आचरण करता है, उतनी ही उसकी श्रेष्ठता बढ़ती है अर्थात् उसका सम्मान संसार में दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने व्यक्ति को नम्र व धैर्यवान बनने की प्रेरणा दी है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘नल – नीर’ में ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है ।
उपमा अलंकार ‘नल-नीर’ की उपमा मनुष्य से की गई है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।
श्लेष अलंकार यहाँ ‘नीर’ शब्द के अनेक अर्थ हैं, इसलिए यहाँ श्लेष अलंकार है।
(iv) प्रस्तुत दोहे में कवि ने मनुष्य की स्थिति बिलकुल नल के पानी के समान बताई है।
(v) इस पंक्ति का आशय यह है कि जिस प्रकार नल का जल जितना नीचे की ओर चलता है, उसमें उतना ही ऊँचा पानी चढ़ता है, उसी प्रकार व्यक्ति जितना नम्रतापूर्वक आचरण करता है, उतनी ही उसकी श्रेष्ठता बढ़ती है अर्थात् उसका सम्मान संसार में दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है।
12. बढ़त बढ़त सम्पत्ति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ।
घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ ।
जौ चाहत चटकन घटै, मैलौ होइ न मित्त।
रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह-चीकने चित्त ।
शब्दार्थ संपत्ति-सलिलु -सम्पत्ति रूपी जल; मन – सरोजु – मनरूपी कमल; बरु – भले ही; समूल – जड़ सहित; कुम्हिलाइ – मुरझाना; चटक – चमक-दमक; मित्त-मित्र; रज-धूल; राजसु – रजोगुण; नेह-प्रेम, तेल।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए ।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रथम दोहे में कविवर बिहारी ने बताया है कि सम्पत्ति का मन पर क्या प्रभाव पड़ता है। कवि ने इसे अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। द्वितीय दोहे में कविवर बिहारी ने व्यक्ति को गर्व, क्रोध आदि रजोगुणी वृत्तियों से दूर रहने को कहा है।
(ii) व्याख्या कवि बिहारी कहते हैं कि जब मनुष्य का सम्पत्तिरूपी जल बढ़ता है, तो उसका मनरूपी कमल भी बढ़ जाता है, परन्तु जब सम्पत्तिरूपी जल घटने लगता है, तब मनुष्य का मनरूपी कमल नीचे नहीं आता, भले ही वह जड़ सहित नष्ट क्यों न हो जाए अर्थात् धन चले जाने पर भी उसकी इच्छाएँ कम नहीं होती, जैसे जल के बढ़ने पर कमल नाल बढ़ जाती है, लेकिन जल घटने पर वह नहीं घटती, चाहे जड़ सहित मुरझा ही क्यों न जाए।
कवि का कथन है कि हे मित्र! यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे मन की उज्ज्वलता और कान्ति कभी समाप्त न हो, तो प्रेमरूपी तेल से चिकने मन को क्रोध, गर्व, ईर्ष्या, द्वेष आदि रजोगुणी धूल से स्पर्श मत होने दो। जिस प्रकार तेल लगी हुई वस्तु पर यदि धूल के कण चिपक जाएँ, तो वह कान्तिहीन हो जाती है अर्थात् गन्दी हो जाती है।
उसी प्रकार यदि मनुष्य के मन में क्रोध आदि रजोगुणी वृत्तियाँ आ जाएँ, तो मन मलिन हो जाता है। यदि मनुष्य अपने चित्त को शुद्ध रखना चाहता है, तो उसे इन तामसिक और रजोगुणी वृत्तियों से दूर रहना होगा तथा उन्हें मन में आने से रोकना होगा।
(iii) काव्य सौन्दर्य
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मानव मन की इच्छाओं की अति होने का स्वाभाविक वर्णन किया है।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार
अनुप्रास अलंकार ‘सम्पत्ति – सलिलु’ तथा चाहत चटक में ‘स’ तथा ‘च’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है ।
पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार ‘बढ़त – बढ़त’ और ‘घटत-घटत’ में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है ।
रूपक अलंकार ‘सम्पत्ति – सलिलु’, ‘मन – सरोजु’ और ‘नेह- चीकने’ में उपमेय तथा उपमान में भेद रहित आरोप होने के कारण रूपक अलंकार है ।
श्लेष अलंकार ‘चटक’ शब्द के अनेक अर्थ होने के कारण ‘जो चाहत चटक न घटै’ में श्लेष अलंकार है ।
13. बुरौ बुराई जौ तजै, तौ चितु खरौ डरातु ।
ज्यों निकलंकु मयंकु लखि, गर्नै लोग उतपातु ।।
स्वारथु सुकृतु न श्रम- बृथा देखि बिहंग बिचारि ।
बाज पराएँ पानि परि, तूं पच्छीनु न मारि ।। 
शब्दार्थ बुरौ – बुरा व्यक्ति; तजै – त्याग दे; तौ – तब भी ; चितु – चित्त / हृदय; निकलंकु-निष्कलंक; मयंकु – चन्द्रमा को; लखि-देखकर ; गर्ने-गिनते हैं; उतपातु – अपशकुन; स्वास्थु – स्वार्थी व्यक्ति ।
प्रश्न
(i) पद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए ।
(iii) काव्य सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए ।
(iv) बिहारी जी ने दुष्ट व्यक्ति के प्रति क्या संदेह व्यक्त किया है?
(v) कवि ने अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को क्या समझाया ?
उत्तर
(i) सन्दर्भ पूर्ववत् ।
प्रसंग प्रथम दोहे में बिहारी जी ने बताया है कि भले ही दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता त्याग दें, परन्तु फिर भी लोगों में उसके प्रति सन्देह बना रहता है । द्वितीय दोहे में कवि बिहारी ने अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को औरंगजेब की बातों में आकर अन्य हिन्दू राजाओं पर आक्रमण न करने के लिए सचेत किया है।
(ii) व्याख्या बिहारी जी कहते हैं कि यदि दुष्ट व्यक्ति अपनी बुराइयों को त्याग देता है, तब भी लोगों के मन में उसके प्रति सन्देह व्याप्त रहता है जैसे निष्कलंक चन्द्रमा को देखकर किसी अपशकुन होने की सम्भावना का आभास होता है। लोगों का मानना है कि निष्कलंक चन्द्रमा हमेशा धरती पर भूचाल ही लाता है, इसलिए दुष्ट व्यक्ति के प्रति भी यही धारणा बनी रहती है। जिस प्रकार चन्द्रमा का निष्कलंक होना असम्भव है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति की दुष्टता छोड़ना असम्भव है।
कवि बिहारीलाल जी ने राजा जयसिंह को बाज की भाँति दुर्व्यवहार न करने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि हे (राजा जयसिंह रूपी ) बाज! इन छोटे पक्षियों (अपने साथी ) अर्थात् छोटे राजाओं को मारने से तेरा क्या स्वार्थ सिद्ध होता है अर्थात् क्या लाभ होगा? न तो ये सत्कर्म है और न ही तेरे द्वारा किया श्रम (काम) सार्थक है।
अतः हे बाज! तू भली-भाँति पहले विचार-विमर्श कर, उसके बाद कोई काम कर। इस तरह दूसरों के बहकावे में आकर अपने सह- साथियों (पक्षियों) का संहार न कर । तू औरंगजेब के कहने पर अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके उनका संहार मत कर, क्योंकि तेरे परिश्रम का फल तुझे न मिलकर औरंगजेब को प्राप्त होता है।
(iii) काव्य सौन्दर्य
यहाँ कवि ने बताया है कि कोई भी कार्य सोच-समझकर करना चाहिए ।
भाषा ब्रज
शैली मुक्तक
गुण प्रसाद एवं ओज
रस शान्त
छन्द दोहा
अलंकार ‘बुरौ बुराई’, ‘निकलंकु मयंकु’, बिहंग बिचारि’ और ‘पराएँ पानि परि’ में अनुप्रास अलंकार, प्रथम पद्यांश में दृष्टान्त अलंकार तथा ‘बिहंग’ शब्द अप्रस्तुत विधान होने के कारण यहाँ अन्योक्ति अलंकार है।
(iv) बिहारी जी ने दुष्ट व्यक्ति के प्रति यह सन्देह व्यक्त किया है कि भले ही दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता त्याग दे, परन्तु फिर भी लोगों में उसके प्रति सन्देह बना रहता है। निष्कलंक चन्द्रमा हमेशा धरती पर भूचाल ही लाता है, इसलिए दुष्ट व्यक्ति के प्रति भी यही धारणा बनी रहती है।
(v) कवि ने अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को समझाया कि हे राजा ! तुम्हें अपने साथी राजाओं को मारने से क्या लाभ होगा, क्योंकि यह कोई सत्कर्म नहीं है और न ही तेरे द्वारा किया गया श्रम (काम) सार्थक है। अतः तुम औरंगजेब के बहकावे में आकर अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण मत करो।

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