द्वितीय विश्व युद्ध क्यों हुआ था, इसके कारण व परिणाम | World war 2
द्वितीय विश्व युद्ध क्यों हुआ था, इसके कारण व परिणाम | World war 2
दूसरे विश्व युद्ध की भूमिका पहले विश्व युद्ध के समापन के साथ ही बन गयी थी,इसकी वास्तविक शुरुआत 1931 में हुई थी, जब जापान ने मंचुरिया छीन लिया था। उधर इटली ने 1935 में एबीसनिया में घुसकर उसे हरा दिया। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज वर्साय की संधि मे ही बो दिए गए थे। मित्र राष्ट्रों ने जिस प्रकार का अपमानजनक व्यवहार जर्मनी के साथ किया उसे जर्मन जनमानस कभी भी भूल नहीं सका। जर्मनी को इस संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश कर दिया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध 1939 से 1945 तक चलने वाला विश्व-स्तरीय युद्ध था। लगभग 70 देशों की थल-जल-वायु सेनाएँ इस युद्ध में सम्मलित थीं। इस युद्ध में विश्व दो भागों मे बँटा हुआ था – मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र। इस युद्ध के दौरान पूर्ण युद्ध का मनोभाव प्रचलन में आया क्योंकि इस युद्ध में लिप्त सारी महाशक्तियों ने अपनी आर्थिक, औद्योगिक तथा वैज्ञानिक क्षमता इस युद्ध में झोंक दी थी। इस युद्ध में विभिन्न राष्ट्रों के लगभग 10 करोड़ सैनिकों ने हिस्सा लिया, तथा यह मानव इतिहास का सबसे ज़्यादा घातक युद्ध साबित हुआ। इस महायुद्ध में 5 से 7 करोड़ व्यक्तियों की जानें गईं क्योंकि इसके महत्वपूर्ण घटनाक्रम में असैनिक नागरिकों का नरसंहार- जिसमें होलोकॉस्ट भी शामिल है- तथा परमाणु हथियारों का एकमात्र इस्तेमाल शामिल है (जिसकी वजह से युद्ध के अंत मे मित्र राष्ट्रों की जीत हुई)। इसी कारण यह मानव इतिहास का सबसे भयंकर युद्ध था।
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण (Causes of the Second World War):-
1. वर्साय की संधि (Treaty of Versailles) :
पेरिस के शांति सम्मेलन (1919) में एक ऐसी आदर्श विश्व व्यवस्था की स्थापना का प्रयास किया गया था जो कि न्याय, शांति और निस्त्रीकरण पर आधारित होनी थी; परंतु सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी प्रतिनिधि इन उद्देश्यों के प्रति समान रूप से वचनबद्ध नहीं थे। सम्मेलन की मुख्य उपलब्धि अर्थात् वर्साय की संधि, जर्मनी पर आरोपित शांति संधि थी। लगभग आधी शताब्दी पूर्व प्रशा ने फ्रांस को पराजित करके, 1871 मे जर्मन साम्राज्य की नींव रखी थी। तब से फ्रांस निरंतर भय और अपमान का जीवन व्यतीत कर रहा था। अब, प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय हो गई तो फ्रांस ने अपने अपमान का बदला लेने का निर्णय किया। पेरिस सम्मेलन में भाग लेने के लिए जर्मन शिष्टमंडल को नगर के बाहरी भाग में स्थित एक ऐसे होटल में ठहराया गया जिसके चारों ओर काँटेदार तार लगे हुए थे और होटल मे पुलिस का उस प्रकार का पहरा था जैसा कि जेल के बाहर होता है। जर्मन प्रतिनिधियों से, संधि का प्रारूप तैयार करते समय किसी भी स्तर पर, परामर्श नहीं किया गया। संधि दोनों पक्षों की वार्ता पर आधारित नहीं थी। संधि का प्रारूप विजयी मित्र राष्ट्रों ने तैयार किया और जर्मनी से कहा गया कि वह उस प्रारूप पर हस्ताक्षर कर दे, अन्यथा उसके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही पुन: आरम्भ कर दी जाएगी। जर्मन शिष्टमंडल को सभा कक्ष में केवल दो बार बुलाया गया। उन्हें बंदियों की भाँति भारी सुरक्षा के बीच लाया गया। किसी भी प्रभुसत्ता–सम्पन्न देश के प्रतिनिधियों को जो सम्मान मिलना चाहिए, उससे उन्हें वंचित रखा गया। जब उन्हें प्रथम अवसर पर बुलाया गया तो उन्हें संधि का प्रारूप सौंपकर 7 मई, 1919 को कहा गया कि वे प्रारूप को जर्मन सरकार के विचार के लिए ले जाएं और उस देश की सरकार की आपत्तियां या उसके सुझाव सब लिखित रूप से तीन सप्ताह के अंदर सम्मेलन के समक्ष प्रस्तुत कर दिए जाएं। जब जर्मन जनता और सरकार को प्रस्तावित संधि के उपबंधों की जानकारी प्राप्त हुई, तो उसके विरुद्ध भीषण आक्रोश व्यक्त किया गया। जर्मनी ने यह स्वीकार करने से इनकार किया कि वह अकेले विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी था। “हमको अपना ही जल्लाद बनने को मत कहो।” जर्मनी ने अनेक आपत्तियां तथा सधारों के सुझाव दिए परंतु जर्मन सरकार की लगभग सभी आपत्तियों को अस्वीकार कर दिया गया। उसका केवल एक ही सुझाव स्वीकार किया गया, जो जर्मनी और डेनमार्क के मध्य स्थित श्लेजविग के सम्बंध में था। जर्मनी से स्पष्ट तौर पर कह दिया गया था कि संधि पर हस्ताक्षर न करने का अर्थ मित्र राष्ट्रों द्वारा आक्रमण को आमंत्रित करना होगा। जर्मनी के पास कोई विकल्प ही नहीं था। उसकी 28 जून, 1919 को वर्साय के भवन में संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया गया। नया जर्मन विदेश मंत्री हर्मन मुलर इस ‘अनुचित एवं औचित्यविहीन‘ संधि पर हस्ताक्षर करते समय पीला पड़ गया था और वह बुरी तरह घबराया हुआ (pale and nervous) था। जर्मन लोगों ने इस संधि को आरोपित शांति (diktat) कहा। वे अपने अपमान को सहन नहीं कर पा रहे थे। हस्ताक्षर तो कर दिए, परंतु उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया कि वे बदला अवश्य लेंगे। – फ्रांस ने तो अपना (50 वर्ष पूर्व के अपमान का) बदला ले लिया था। जर्मनी को उसके सभी छोटे–बड़े उपनिवेशों से वंचित कर दिया गया तथा यूरोप में भी उसका क्षेत्रफल काफी कम कर दिया गया। उससे भूमि छीनकर पोलैंड, फ्रांस तथा बेल्जियम इत्यादि का प्रादेशिक विस्तार किया गया था। उसकी थल और नौसेना को अत्याधिक छोटा और सीमित कर दिया गया, तथा उसको वायु सेना स्थापित करने से पूर्णरूप से प्रतिबंधित कर दिया गया था। जर्मनी को युद्ध के लिए अपराधी घोषित किया गया तथा उस पर मित्र राष्ट्रों को देने के लिए क्षतिपूर्ति की भारी रकम का जुर्माना थोप दिया गया। वर्साय की संधि ने जर्मनी का अंग भंग करके, उसको अपमानित किया था। अब, बीस वर्ष के बाद प्रतिघात की जर्मनी की बारी थी। हिटलर के सत्ता में आते ही जर्मनवासियों के हृदय में बदले की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी थी। जर्मनी का अपमान द्वितीय विश्व युद्ध का प्रमुख कारण सिद्ध हुआ। इसलिए वर्साय की संधि को द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी माना गया।
2. सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की विफलता (Failure of Collective Security System) : सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की कल्पना, पहली बार विश्व के नेताओं ने 1919 में की थी। इस अवधारणा का लक्ष्य उन देशों को पर्याप्त सहायता उपलब्य करवाना था जिनके विरुद्ध आक्रमण किया गया हो। इस प्रकार की सहायता तथा सुरक्षा की गारंटी राष्ट्रसंघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन के निरीक्षण में सामूहिक रूप से उपलब्ध करवाई जा सकती थी। इस व्यवस्था में लक्ष्य होता है सुरक्षा, साधन और सामूहिक सहायता। इसीलिए राष्ट्रसंघ की प्रसविदा में यह व्यवस्था की गई थी कि किसी भी सदस्य देश पर आक्रमण को स्थिति में, राष्ट्रसंघ के सदस्य सामूहिक कार्यवाही करके आक्रामक को दंडित कर सकते थे। सामूहिक कार्यवाही के दो रूप हो सकते हैं : आक्रामक के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाना तथा आक्रमण से पीड़ित देश को सैनिक सहायता देना या दोनों में से कोई एक कार्यवाही करना।
राष्ट्रसंघ के जीवनकाल में यह अनुभव किया गया कि जब भी किसी बड़े देश के द्वारा छोटे तथा कम शक्तिशाली देश पर आक्रमण किया गया, उस पर कब्जा कर लिया गया, तब राष्ट्रसंघ अप्रभावी सिद्ध हुआ। छोटे अथवा कम शक्तिशाली देशों के विवादों को अवश्य राष्ट्रसंघ ने सुलझाया, परंतु सामूहिक सुरक्षा के संदर्भ में वह विफल रहा। जापान ने 1931 में चीन के मंचूरिया प्रांत पर आक्रमण किया और जनवरी 1932 तक समूचे प्रांत को अपने अधिकार में ले लिया। जापान स्वयं एक मान्य बड़ी शक्ति के रूप में राष्ट्रसंघ की परिषद का स्थायी सदस्य था। वह मंचूरिया के प्रश्न पर परिषद में विचार के समय बार–बार यह आश्वासन देता रहा कि मंचूरिया पर उसने आक्रमण नहीं किया था, उसका उस प्रदेश पर कब्जा करने का कोई इरादा नहीं था, वह केवल पुलिस कार्यवाही कर रहा था तथा इस कार्यवाही का उद्देश्य केवल आत्मरक्षा था। उसने यह भी आश्वासन दिए कि जैसे ही जापानी संपत्ति और जापानी लोगों के जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाएगी, उसकी सेनाएं वापस रेलवे जोन में चली जाएंगी। राष्ट्रसंघ ने अपने विभिन्न प्रस्तावों में इन आश्वासनों को सिर्फ दर्ज (Record) किया, जबकि जापान अपनी आक्रामक सेनाओं को आगे बढ़ता गया। चीन की शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया गया, और जापान को आक्रामक घोषित करने का प्रस्ताव तक नहीं किया गया। इस प्रकार जापान ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। उसने विश्व जनमत की चिंता नहीं की तथा राष्ट्रसंघ को कमजोर कर दिया। जापान ने नैतिकता और कानून की अवहेलना करके जीते हुए मंचूरिया प्रांत में एक कठपुतली सरकार की स्थापना कर दी और उसे मांचुकाओ गणराज्य घोषित कर दिया। जब लिटन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर, राष्ट्रसंघ ने सदस्य राष्ट्रों से आग्रह किया कि वे मांचुकाओ को मान्यता प्रदान न करें तो इसी बात से असंतुष्ट होकर जापान ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता का परित्याग कर दिया, परंतु विजित मंचूरिया का त्याग नहीं किया।
__सामूहिक सुरक्षा का एक महत्त्वपूर्ण मामला 1935–36 में राष्ट्रसंघ के समक्ष आया। इटली (जो जापान की भांति परिषद का स्थायी सदस्य था) ने अक्टूबर 1935 में पूर्वी अफ्रीका के स्वतंत्र देश अबीसीनिया पर आक्रमण कर दिया। उसको इटली ने पराजित किया और मई 1936 में अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। अध्याय 7 में, इस मामले, राष्ट्रसंघ की भूमिका की विस्तार से समीक्षा की है। राष्ट्रसंघ ने अपने जीवनकाल में पहली बार, सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था के अधीन इटली को आक्रामक घोषित किया तथा उसके विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाने की सिफारिश को; परंतु इसका कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि इटली के विरुद्ध न तो तेल प्रतिबंध लगाए गए और न ही कोई सैनिक कार्यवाही करने का निर्णय किया गया। एक छोटे राष्ट्र की संप्रभुता का विनाश हो गया तथा राष्ट्रसंघ की सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह असफल रही। राष्ट्रसंघ जर्मनी के विरुद्ध भी कोई कार्यवाही करने में असफल रहा। जर्मनी ने 1935 में वर्साय की संधि के सैनिक प्रावधानों का खंडन (repudiation) किया, 1936 में उसने लोकानों संधि का खंडन करके राईनलैंड का पुनः सैन्यकरण किया, मार्च 1938 में उसने ऑस्ट्रिया पर अधिकार करके (संधि प्रावधानों के विरुद्ध) उसका जर्मन रीख में विलय कर लिया, तथा 1938–39 में
चैकोस्लावाकिया का विघटन करवाकर उसके कई प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इनमें से किसी भी अवसर पर सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था के अंतर्गत कोई कार्यवाही नहीं की गई। युद्ध की पूर्वसंध्या को अल्बेनिया पर इटली ने कब्जा कर लिया तब भी राष्ट्रसंघ मौन रहा। इस प्रकार सामूहिक सुरक्षा प्रावधानों को लागू न करके उसकी असफलता के कारण युद्ध का मार्ग प्रशस्त हुआ। अत: सामूहिक सुरक्षा की विफलता भी द्वितीय विश्व युद्ध का एक कारण बनी।
- निरस्त्रीकरण की विफलता (Failure of Disarmament) : पेरिस के शांति सम्मेलन में यह निश्चय किया गया था कि विश्व शांति तभी संभव होगी जब विभिन्न देश अपने शस्त्रास्त्रों में उस न्यूनतम सीमा तक कटौती कर देंगे जितनी उनकी सुरक्षा के लिए आवश्यक होगी। इसका आशय यह था कि आक्रामक प्रकृति के सभी अस्त्रों का विनाश कर दिया जाएगा। अस्त्रों में कटौती करने की वृहत योजना बनाने का उत्तरदायित्व राष्ट्रसंघ को सौंपा गया था। ऐसी योजना को सदस्य–राष्ट्रों की स्वीकृति के लिए उनके पास भेजे जाने का प्रस्ताव था। दुर्भाग्यवश, निरस्त्रीकरण (अस्त्रों में कटौती) की दिशा में कोई भी प्रगति नहीं हुई। राष्ट्रसंघ द्वारा नियुक्त स्थायी सैनिक आयोग ने तो यह कह दिया कि तत्कालीन परिस्थितियों में निस्त्रीकरण संभव ही नहीं था। उसके बाद नियुक्त, अस्थायी मिश्रित आयोग कोई कार्य नहीं कर सका क्योंकि फ्रांस ने कहा कि जब तक उसकी सुरक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं हो जाती, वह निस्त्रीकरण कार्य में कोई सहयोग नहीं कर सकता था। राष्ट्रसंघ ने 1925 में एक तैयारी आयोग (Preparatory Commission) नियुक्त किया। इसका कार्य भविष्य में आयोजित किए जाने वाले निस्त्रीकरण सम्मेलन के लिए कार्य–सूची तैयार करना था। इस आयोग में विभिन्न महत्त्वपूर्ण देशों ने ऐसे परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए कि यह भी तय नहीं हो सका कि किन अस्त्रों को आक्रामक (offensive) श्रेणी में रखा जाए और किन को रक्षात्मक (defensive ) कहा जाए। अंतत: बिना किसी कार्य–सूची के, फरवरी 1932 में जिनेवा में निरस्त्रीकरण सम्मेलन आरम्भ हुआ। परस्परिक अविश्वास और संदेह के वातावरण में यह सम्मेलन भी असफल हो गया। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ (जो राष्ट्रसंघ के सदस्य नहीं थे) ने भी निरस्त्रीकरण सम्मेलन में भाग लिया, फिर भी यह सम्मेलन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका। जर्मनी को वर्साय की संधि ने निरस्त्र कर दिया था, परंतु वह व्यवस्था थी कि अन्य (विजयी) देश बाद में स्वयं को निरस्त्र करेंगे। वास्तव में यह बहाना था। वे अपना निरस्त्रीकरण चाहते ही नहीं थे। उनके इसी दृष्टिकोण से परेशान होकर जर्मनी ने अक्टूबर 1933 में घोषणा कर दी कि वह तुरंत निरस्त्रीकरण सम्मेलन तथा राष्ट्रसंघ दोनों से अलग हो रहा था। जैसा ऊपर उल्लेख किया गया है, 1935 में हिटलर ने वर्साय संधि के सैनिक प्रावधानों का उल्लंघन भी कर दिया। अन्य देशों के पास शस्त्रास्त्रों के भंडार तथा बड़े सैन्य बल पहले ही थे। जर्मनी के पुनर्शस्त्रीकरण के निर्णय ने अन्य देशों को भी अपने शस्त्रास्त्रों में वृद्धि करने का बहाना उपलब्ध करवा दिया। शस्त्रास्त्रों की होड़ आरम्भ हो गई जिसने सशस्त्र संघर्ष की संभावना बढ़ा दी। निरस्त्रीकरण की विफलता भी द्वितीय विश्व युद्ध का एक कारण सिद्ध हुई।
4. विश्व आर्थिक संकट (World Economic Crisis) : अमेरिका के वित्तीय संस्थानों के द्वारा 1929 में अचानक, यूरोपीय देशों को दिए जाने वाले ऋणों तथा पूंजी निवेश को बंद क देने के साथ ही विश्व आर्थिक संकट आरम्भ हो गया। यूरोप के अनेक देश विशेषकर जर्मनी, अमरीकी धनराशि की सहायता से तेजी से औद्योगिक प्रगति कर रहे थे। अचानक वह प्रगति रुक गई। आर्थिक संकट का सबसे गंभीर परिणाम 1930–32 में देखने को मिला। आर्थिक संकट ने अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। आर्थिक संकट आरम्भ होते ही निरस्त्रीकरण के सभी प्रयास बंद हो गए और शस्त्रास्त्रों की होड़ तेज हो गई। आर्थिक संकट का सबसे गंभीर प्रभाव जर्मनी पर पड़ा जहाँ लगभग सात लाख (7,00,000) व्यक्ति बेरोजगार हो गए। जर्मनी ने विवश होकर यह घोषणा की कि वह क्षतिपूर्ति का भविष्य में कोई भी भुगतान नहीं करेगा। जर्मनी के आर्थिक संकट ने हिटलर की नात्सी तानाशाही की स्थापना में प्रत्यक्ष सहायता की। इस बीच, ब्रिटेन को भी कुछ कठोर उपाय करने पड़े। इनमें ब्रिटेन द्वारा स्वर्णमान का परित्याग (abandoning the gold standard) शामिल था। जापान ने आर्थिक संकट का लाभ उठाकर चीन के मंचूरिया प्रांत को आक्रमण के द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया। उसने 1932 में मंचूरिया में तथाकथित मांचुकाओ गणराज्य की स्थापना करवा दी। उससे प्रोत्साहित होकर इटली ने 1935 में अबीसीनिया पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार विश्व आर्थिक संकट ने प्रत्यक्ष रूप से जर्मनी, इटली और जापान की आक्रामक फासिस्ट गुटबंदी को प्रोत्साहित किया। यह गुट निश्चित रूप से विश्व युद्ध का एक प्रमुख कारण सिद्ध हुआ।
- रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी (Rome-Berlin-Tokyo Axis) : प्रथम विश्व युद्ध की पूर्वसंध्या को यूरोप दो विरोधी गुटों में विभाजित था। लगभग वही प्रक्रिया द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्वपीठिका के रूप में भी आरम्भ हो गई थी। जर्मनी, जापान और इटली ने 1936–37 में अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद के विरुद्ध समझौता (Anti–Comintem Pact) संपन्न किया। यह साम्यवाद के विरोधी फासिस्ट देशों का गठबंधन था। उनके गठबंधन को प्राय: रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी के नाम से जाना गया। इसका स्पष्ट लक्ष्य साम्राज्यवादी विस्तार करना था। इन्होंने युद्ध के गौरव पर बल दिया तथा खुलकर विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की निंदा की। उन्होंने पश्चिमी देशों को अपनी साम्राज्यवादी हवस का शिकार बनाया। उनकी सैनिक कार्यवाही तथा उनके द्वारा किए गए आक्रमणों के लिए उन्हें कोई दंड नहीं दिया गया। धुरी राष्ट्रों के व्यवहार से भयभीत ब्रिटेन और फ्रांस एक-दूसरे के निकट आ गए और उन्होंने सोवियत संघ के साथ सैनिक गठबंधन करने का असफल प्रयास भी किया। यद्यपि फ्रांस और सोवियत संघ के मध्य मैत्री संधि विद्यमान थी, फिर भी हिटलर की तुष्टि करने के लिए ब्रिटेन और फ्रांस दोनों ने सोवियत संघ की अवहेलना की। जब स्टालिन ने इस बात पर बल दिया कि फासिस्ट देशों के विरुद्ध उनको एक सैनिक समझौता करना चाहिए तो पश्चिमी लोकतंत्रों ने विलम्ब करना आरम्भ कर दिया। सोवियत संघ को फ्रांस और ब्रिटेन की मित्रता एवं ईमानदारी पर संदेह हो गया। इस पृष्ठभूमि में उसने जर्मनी के साथ अनाक्रमक समझौता करके, पोलैंड पर आक्रमण सम्भव बना दिया। इस आक्रमण के द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो गया, क्योंकि अपनी बचनबद्धता के अनुसार ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अतः रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी भी युद्ध का एक प्रमुख कारण सिद्ध हुई।
- राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की समस्या (The Problem of National Minorities): प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् जो नए (राष्ट्रीयताओं के आधार पर) राज्य स्थापित हुए थे, उनमें बड़ी संख्या में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक भी थे। अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन ने आत्मनिर्णय की अवधारणा पर बल दिया था, परंतु विभिन्न रणनीतिक कारणों से इस सिद्धांत को पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका था उदाहरण के लिए पोलैंड तथा चैकोस्लोवाकिया में बड़ी संख्या में जर्मन लोग अल्पसंख्यकों के रूप में रह गए थे। पोलैंड तथा रुमानिया में रूसी अल्पसंख्यक, रूमानिया तथा यूगोस्लाविया में हंगरीवासी अल्पसंख्यक तथा इटली में जर्मन एवं स्लाव अल्पसंख्यक प्रमुख थे। इसके परिणामस्वरूप, अल्पसंख्यकों में असंतोष के साथ–साथ भय भी व्याप्त था। विभिन्न देशों में लगभग एक करोड़ सतहर लाख अल्पसंख्यक निवासी थे, जिनमें से अकेले जर्मन अल्पसंख्यकों की संख्या लगभग 75 लाख थी। पेरिस सम्मेलन के पश्चात् विभिन्न देशों ने अल्पसंख्यकों के हितों और अधिकारों की सुरक्षा के लिए अल्पसंख्यक संधियां (Minority Treaties) सम्पन्न की थी। फिर भी, अधिकांश अल्पसंख्यक संतुष्ट नहीं थे। हिटलर ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया और अल्पसंख्यकों की राष्ट्रीय भावनाओं को उत्तेजित करने का प्रयास किया। उन अल्पसंख्यकों ने अपने–अपने मूल देशों के साथ विलय अथवा अधिकतम स्वायत्तता के लिए आंदोलन आरम्भ कर दिए। हिटलर ने इन उत्तेजित भावनाओं के आधार पर पोलैंड तथा चैकोस्लोवाकिया में जर्मन अल्पसंख्यकों के प्रश्न को लेकर पड़ोसी देशों के विरुद्ध आक्रमण की तैयारी आरम्भ कर दी। उसने ऑस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया, चेकोस्लोवाकिया का अंग–भंग कर दिया, मैमेल को अपने कब्जे में ले लिया और अंततः पोलैंड पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार, राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों का मुद्दा युद्ध का एक प्रमुख कारण बन गया।
- तुष्टीकरण की नीति (The Policy of Appeasement) : नात्सी–फासिस्ट शक्तियों के तुष्टीकरण की ब्रिटिश विदेश नीति द्वितीय विश्व युद्ध का एक प्रमुख कारण सिद्ध हुई। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात कुछ समय के लिए ब्रिटेन और फ्रांस के मध्य कई मुद्दों पर मतभेद हो गए थे। ब्रिटिश विदेश नीति का परंपरागत आधार तो शक्ति संतुलन रहा था। ब्रिटेन को यह चिंता हो गई थी कि यदि फ्रांस अत्याधिक शक्तिशाली हो गया तो पश्चिमी यूरोप का शक्ति संतुलन भंग हो सकता था। इसलिए वर्साय संधि पर हस्ताक्षर के बाद कुछ वर्ष तक ब्रिटेन ने जर्मनी का पक्ष लेने की चेष्टा की, परंतु जैसे ही हिटलर सत्ता में आया और मुसोलिनी के साथ उसका लोकतंत्र–विरोधी गठबंधन मजबूत होने लगा, ब्रिटेन और फ्रांस तेजी से एक–दूसरे के निकट आ गए। उस समय फ्रांस को नात्सी जर्मनी के विरुद्ध ब्रिटेन की मित्रता की बहुत आवश्यकता थी। 1933 के पश्चात तो फ्रांस ने अपने सभी विदेश नीति सम्बंधी निर्णय मानो ब्रिटेन पर छोड़ दिए। ब्रिटिश सरकार साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव से भी चिंतित थी। ब्रिटेन के लिए न केवल सोवियत संघ की शक्ति को सीमित करना आवश्यक था, वरन् फ्रांस तथा स्पेन में गठित वामपंथी जन मोर्चों (Popular Fronts) को तोड़ना भी आवश्यक था। इस उद्देश्य से ब्रिटेन ने हिटलर तथा मुसोलिनी को प्रसन्न करने के लिए तुष्टीकरण की नीति अपनाई। फ्रांस ने भी शीघ्र ही उसी नीति को अपना लिया। तुष्टीकरण का आरम्भ तो बाल्डविन ने किया था, परंतु चेम्बरलेन ने उसे गति प्रदान की। अबोसोनिया युद्ध में, राष्ट्रसंघ के प्रयासों को समर्थन देते हुए भी, ब्रिटेन और फ्रांस मुसोलिनी की भरसक सहायता करते रहे। इटली के विरुद्ध कोई प्रभावी कार्यवाही न करके उन्होंने अबीसीनिया की स्वतंत्रता का बलिदान कर दिया। तुष्टीकरण के माध्यम से ब्रिटेन तथा फ्रांस ने म्यूनिख में चैकोस्लोवाकिया के विरुद्ध हिटलर का साथ दिया।
ऑस्ट्रिया तथा अल्बेनिया जैसे देशों की सुरक्षा के लिए कोई भी उपाय नहीं किए गए। ब्रिटेन और फ्रांस की, तुष्टीकरण पर आधारित दुर्बल विदेश नीति ने द्वितीय विश्व युद्ध को सम्भव बना दिया।
- राष्ट्रसंघ की विफलता (Failure of League of Nations): 1919 में विश्व शांति की स्थायी सुरक्षा के हेतु राष्ट्रसंघ की स्थापना की गई थी। यह इस प्रयास में विफल रहा। विशेषकर बड़े शक्तिशाली राष्ट्रों के विरुद्ध छोटे देशों को राष्ट्रसंघ कोई सुरक्षा प्रदान नहीं कर सका। यह विफलता भी द्वितीय विश्व युद्ध का एक प्रमुख कारण सिद्ध हुई। राष्ट्रसंघ कभी भी सार्वभौमिक संगठन नहीं बन सका। अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन राष्ट्रसंघ के संस्थापक तथा निरस्त्रीकरण एवं सामूहिक सुरक्षा की अवधारणाओं के प्रधान प्रवर्तक थे। दुर्भाग्यवश स्वयं उन्हीं का देश कभी भी राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं बना। जर्मनी और साम्यवादी रूस को तो राष्ट्रसंघ की सदस्यता के लिए आमंत्रित ही नहीं किया गया था। लोकानों संधि के पश्चात् जर्मनी 1926 में राष्ट्रसंघ का सदस्य बना था, परंतु हिटलर के सत्ता में आने के कुछ ही महीने पश्चात 1933 में जर्मनी ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता का त्याग कर दिया। सोवियत संघ ने 1934 में राष्ट्रसंघ की सदस्यता प्राप्त की, परंतु फिनलैंड पर उसके द्वारा किए गए आक्रमण के कारण, 1940 में उसे निष्कासित कर दिया गया। जो भी देश राष्ट्रसंघ के किसी भी निर्णय से अप्रसन्न हुआ, उसी ने सदस्यता को त्याग दिया। अत: 1933 में जापान तथा 1937 में इटली ने भी राष्ट्रसंघ छोड़ दिया, यद्यपि यह दोनों ही संस्थापक सदस्य थे।
राष्ट्रसंघ में अनेक दोष थे। प्रथम, उसकी संरचना ही दोषपूर्ण थी। सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर (जो प्रक्रिया–सम्बंधी नहीं होते थे) केवल सर्वसम्मति से ही निर्णय किए जा सकते थे। यह प्रायः संभव नहीं हो पाता था। दूसरे, राष्ट्रसंघ के पास अपना कोई सुरक्षा बल भी नहीं था। वह किसी सदस्य देश के विरुद्ध स्वयं कोई सैनिक कार्यवाही नहीं कर सकता था। राष्ट्रीय संप्रभुता के रहते किसी अंतर्राष्ट्रीय सशस्त्र बल की स्थापना कर सकना असंभव था। तीसरे, राष्ट्रसंघ की ओर विभिन्न देशों के दृष्टिकोण में मौलिक भेद थे। सभी प्रमुख एवं शक्तिशाली देश किसी भी एक समय पर राष्ट्रसंघ के सदस्य नहीं थे, अधिकांश देश केवल दिखावे के लिए राष्ट्रसंघ के सिद्धांतों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते थे। उसके आदर्शों में उनकी श्रद्धा नहीं थी। कोई भी देश निरस्त्रीकरण का ईमानदारी से समर्थन नहीं करता था। परिणाम यह हुआ कि न केवल निरस्त्रीकरण प्रयास विफल हुए, बल्कि राष्ट्रसंघ कभी भी प्रभावी संरक्षक नहीं बन सका, जिसके परिणामस्वरूप तानाशाहों ने विश्व पर युद्ध का आरोपण कर दिया।
- पोलैंड पर जर्मन आक्रमण (German Attack on Poland) : द्वितीय विश्व युद्ध का तात्कालिक कारण पोलैंड के विरुद्ध पहली सितंबर, 1939 को किया गया आक्रमण था। इससे पूर्व सोवियत संघ द्वारा ब्रिटेन और फ्रांस के साथ सैनिक संधि के समस्त प्रयासों के विफल हो जाने पर, हिटलर ने 23 अगस्त 1939 को स्टालिन के साथ दस वर्षीय अनाक्रमण संधि संपन्न करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया था। यह अप्रत्याशित घटना थी, क्योंकि कई वर्ष से नात्सी जर्मनी और सोवियत संघ के बीच केवल शत्रुतापूर्ण सम्बंध ही पाए गए थे। अचानक, पोलैंड को आपस में विभाजित करने के उद्देश्य से दोनों देशों ने अनाक्रमण संधि कर ली। सोवियत संघ और जर्मनी ने एक–दूसरे के विरुद्ध आक्रमण न करने की वचनबद्धता व्यक्त की। परंतु जैसा जॉनसन ने कहा, “व्यवहार में तो यह सीधा–सादा पोलैंड के विरुद्ध आक्रमण करने का समझौता था।” एक गुप्त समझौते के द्वारा जर्मनी और सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के देशों को अपने–अपने प्रभाव क्षेत्र के रूप में विभाजित करने का निर्णय भी किया था। इस गुप्त समझौते की जानकारी संसार को 1945 में जाकर हुई। हिटलर की सेना ने पहली सितंबर 1939 को पोलैंड पर धावा बोल दिया। हिटलर का वास्तविक इरादा पोलैंड को पराजित करके स्वयं सोवियत संघ पर आक्रमण करने का था, परंतु स्टालिन उसकी इस चाल को नहीं समझ सका। हिटलर, बाहरी तौर पर, पोलैंड निवासी अल्पसंख्यकों को न्याय दिलवाना चाहता था। ब्रिटेन और फ्रांस ने पोलैंड को आश्वासन दिया था कि उस पर आक्रमण की स्थिति में वे उसे हर संभव सहायता उपलब्ध करवाएंगे। उन्होंने आश्वासन के अनुसार जर्मनी को चेतावनी दी और फिर 3 सितंबर, 1939 को पोलैंड के पक्ष में जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की औपचारिक घोषणा कर दी। जर्मनी ने पोलैंड पर पश्चिम की ओर से आक्रमण किया और 17–18 सितम्बर 1939 को पूर्व की ओर से सोवियत संघ ने पोलैंड पर धावा बोल दिया। जर्मनी और सोवियत संघ ने 28 सितंबर, 1939 की एक द्विपक्षीय संधि से पोलैंड की संप्रभुता का विनाश करके उसे आपस में विभाजित कर लिया। इस बीच अन्य अनेक देशों ने भी जर्मनी के विरुद्ध आक्रमण की घोषणा कर दी। इस प्रकार पोलैंड पर जर्मन आक्रमण ने द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ कर दिया।
युद्ध का आरम्भ
(The War Begins) पोलैंड पर जर्मन आक्रमण ने युद्ध का बिगुल बजा दिया था। मैमेल नामक जर्मन नगर को वर्साय को संघि ने जर्मनी से पृथक कर दिया था। वह लिथुएनिया के अधिकार में था। जर्मन सेना ने 23 मार्च, 1939 को अचानक मैमेल पर कब्जा कर लिया। इससे पूर्व हिटलर ने लिथुएनिया से मांग की थी कि वह मैमेल को तुरंत वापस लौटा दे। उसी दिन 23 मार्च, 1939 को जर्मन विदेश मंत्री रिबनट्राप ने बर्लिन–स्थित पोलिश राजदूत को बुलाया और जो शत जर्मनी पालैंड पर थोपना चाहता था, वह राजदूत को स्पष्ट शब्दों में बता दी गई। विदेश मंत्री ने मांग की कि डेंजिग के स्वतंत्र नगर को (जिसका नात्सीकरण कर दिया गया था।) तुरंत जर्मनी की संप्रभुता के अधीन किया जाए; तथा पोलैंड के गलियारे में पूर्वी प्रशा को जर्मनी से जोड़ने के लिए एक राजमार्ग तथा रेल मार्ग की सुविधा प्रदान की जाए। इसका व्यवहार में अर्थ होगा–गलियारे को मध्य से काटता हुआ एक पूर्व–पश्चिम गलियारा। जिस समय पोलैंड के समक्ष यह मांगें पेश की गईं, उस समय शायद हिटलर ने युद्ध की कल्पना नहीं की थी। उसको आशा थी कि इस बार भी, प्रधानमंत्री चेम्बरलेन मयूनिख समझौते की तरह, किसी समझौते के द्वारा जर्मनी की सभी शर्ते पूरी करवा देंगे; परंतु इस बार ब्रिटिश सरकार ने हिटलर की चाल के सामने न झुकने का निर्णय कर लिया था। ब्रिटेन ने अपनी तथाकथित ‘शांति मोर्चा‘ की नीति आरम्भ कर दी थी। अत: 31 मार्च, 1939 को प्रधानमंत्री चेम्बरलेन ने किसी भी आक्रमण के विरुद्ध पोलैंड की रक्षा की गारंटी की घोषणा कर दी। प्रधानमंत्री चेम्बरलेन ने कहा कि, “पोलौंड की स्वतंत्रता के लिए संकट उत्पन्न करने वाली किसी भी कार्यवाही की स्थिति में, जिसके विरुद्ध पोलिश सरकार अपने राष्ट्रीय बलों का प्रयोग करना आवश्यक समझेगी” ब्रिटेन अपनी सामर्थ्य के अनुसार पोलैंड को हर संभव सहायता देगा। इसी प्रकार जब 7 अप्रैल को इटली ने अल्बेनिया पर आक्रमण करके उसको अधीन कर लिया, तब ब्रिटेन ने यही गारंटी ग्रीस तथा रूमानिया को भी दी। फ्रांस ने भी ब्रिटेन के पदचिह्नों पर चलते हुए इन तीनों देशों को इसी प्रकार की गारंटी दी। अंतत: 27 अप्रैल को ब्रिटेन ने सेना में अनिवार्य भरती (conscription) की घोषणा कर दी। हिटलर ने अगले ही दिन प्रतिशोध की कार्यवाही की घोषणा करते हुए 193.4 के जर्मन पोलिश अनाक्रमण समझौते तथा 1935 के आँगल–जर्मन नौसैनिक समझौते के खंडन करने की घोषणा कर दी।
नवम्बर 1936 में जर्मनी और जापान ने साम्यवाद–विरोधी (Anti–Comintern Pact) समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और उसके एक वर्ष पश्चात इटली भी इस समझौते के साथ संबद्ध हो गया था। इस प्रकार जो रोम–बर्लिन–टोकियो धुरी स्थापित हुई उसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद को नष्ट करना था। व्यवहार में यह गठबंधन साम्यवादी विचारधारा के ही नहीं, सोवियत संघ के विरुद्ध भी त्रिकोण समझौता था। जब 1939 में ब्रिटेन ने ‘शांति मोर्चा‘ की स्थापना की बात कही; तब 7 मई, 1939 को जर्मनी और इटली ने घोषणा की कि वे धुरी को औपचारिक सैनिक संधि में परिवर्तित कर देंगे। इसको इस्पात का समझौता (Pact of Steel) कहा गया। दोनों यूरोपीय तानाशाहों ने वचन दिया कि यदि युद्ध हुआ तो वे अंत तक लड़ेंगे, परंतु मुसोलिनी तुरंत किसी युद्ध के लिए तैयार नहीं था। अबीसीनिया के युद्ध और स्पेन के गृह युद्ध में वह इतना थक चुका था कि तैयारी के लिए तीन वर्ष कहा गया। दोनों यूरोपीय तानाशाहों ने वचन दिया कि यदि युद्ध हुआ तो वे अंत तक लड़ेंगे, परंतु मुसोलिनी तुरंत किसी युद्ध के लिए तैयार नहीं था अबीसीनिया के युद्ध और स्पेन का गह युद्ध में वह इतना थक चुका था कि तैयारी के लिए तीन वर्ष का समय चाहता था। हिटलर ने उसे वचन दिया कि तीन वर्ष तक कोई युद्ध नहीं होगा। .
अगस्त 1939 तक हिटलर यह निश्चय कर चुका था कि वह पोलैंड के प्रश्न का अपनी इच्छा अनुसार समाधान करेगा। पोलैंड और डैज़िग के मध्य एक गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई थी। इसकी पृष्ठिभूमि में हिटलर–समर्थित डेंजिग का नात्सी प्रशासन था। जर्मन हस्तक्षेप के कारण ही विवाद ने गंभीर रूप धारण कर लिया था। पोलैंड ने जर्मनी को भविष्य में इस प्रकार के किसी हस्तक्षेप के विरुद्ध चेतावनी दी। उधर, ब्रिटेन ने 22 अगस्त को जर्मनी से कहा कि वह तनाव को कम करवाए। प्रधानमंत्री चेम्बरलेन अब तक तुष्टीकरण का भली–भांति परित्याग कर चुके थे। उन्होंने हिटलर को चेतावनी देते हुए कहा कि. “यह आरोप लगाया जाता है कि यदि ब्रिटिश सरकार (His Majesty‘sGovernment) ने 1914 में अपनी स्थिति अधिक स्पष्ट कर दी होती तो महान विपदा से बचा जा सकता था...… महामहिम की सरकार का यह संकल्प है कि इस अवसर पर ऐसी कोई शोकजनक गलतफहमी नहीं होगी!” चेम्बरेलन ने कहा कि यदि एक बार युद्ध आरम्भ हो गया तो इसे समाप्त करना कठिन हो जाएगा। हिटलर ने करारा उत्तर देते हुए कहा कि यदि जर्मनी पर इंगलैंड ने आक्रमण किया तो वह उसे भली–भाँति तैयार और दृढ़ संकल्प पाएगा। 25 अगस्त को हिटलर ने समझौते की भाषा बोलते हुए कहा कि यदि एक बार पोलिश गलियारे और डैज़िग की समस्याओं का समाधान हो गया, तो वह स्वयं ब्रिटेन तथा फ्रांस के साथ नए समझौते का प्रयास करेगा। इसके उत्तर में ब्रिटेन ने सुझाव दिया कि पोलैंड और जर्मनी के मध्य प्रत्यक्ष बातचीत से इन समस्याओं का समाधान किया जाए। इस बोच सोवियत–जर्मन अनाक्रमण समझौता सम्पन्न हो चुका था। अत: अपनी निश्चित योजना के अनुसार हिटलर युद्ध के लिए तत्पर था। फिर भी, उसने यह दिखाने की चेष्टा की कि वह बातचीत के लिए तैयार था, यद्यपि वह इस विषय में निष्कपट नहीं था। जर्मनी ने 29 अगस्त, 1939 को बर्लिन स्थित ब्रिटिश राजदूत से कहा कि ब्रिटेन यह सुनिश्चित करे कि अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध का परिचय अगले दिन पोलैंड का उच्च–स्तरीय शिष्टमंडल बर्लिन पहुँचे। उसको पोलिश–जर्मन समस्या पर न केवल जर्मनी के साथ विचार विर्मश करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो, बल्कि उसे जर्मनी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने का अधिकार भी प्राप्त हो। यह बड़ी अद्भुत माँग थी। सामान्यतया अंतर्राष्ट्रीय बातचीत आरम्भ करने में बहुत समय लगता है। प्राय: किसी भी प्रश्न पर बातचीत के लिए दूसरे देश की सरकार को नियंत्रण देने से पूर्व राजनयिक माध्यम से औपचारिक प्रस्ताव भेजे जाते हैं। जर्मनी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। स्पष्ट है कि जर्मनी का शांतिपूर्ण समाधान तलाश करने का कोई विचार नहीं था। एक ही दिन में अर्थात् 30 अगस्त को पोलैंड का शिष्टमंडल जर्मनी नहीं पहुंच सकता था। अत: जर्मनी ने बातचीत के सभी द्वार बंद कर दिए। हिटलर यह निश्चय कर हो चुका था कि जर्मन सेना पहली सितम्बर को पोलैंड पर आक्रमण करेगी। अत: जर्मन सरकार ने बर्लिन और पोलिश राजधानी वार्सा के बीच संचार के सभी माध्यम बंद कर दिए। इसलिए 31 अगस्त को बर्लिन–स्थित पोलिश राजदूत अपनी सरकार से सम्पर्क कर ही नहीं सका। अंतिम घड़ी आ पहुंची थी। सोवियत संघ अब जर्मनी का मित्र था। पहली सितम्बर 1939 को प्रात:काल जर्मन सेना ने पोलैंड पर आक्रमण कर दिया। उसी रात ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि उसने तुरंत अपनी सेना को पोलैंड से वापस लौटने का आदेश नहीं दिया तो वे दोनों देश, पोलैंड के प्रति अपनी वचनबद्धता निभाएंगे। मुसोलिनी ने युद्ध टालने का एक अंतिम–क्षण प्रयास किया। उसने सुझाव दिया कि म्यूनिख जैसा एक सम्मेलन बुलाया जाए जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, इटली तथा जर्मनी के प्रतिनिधि शामिल हों। हिटलर ने सम्मेलन का प्रस्ताव तो स्वीकार किया, परंतु वह पोलैंड से अपने सैनिक वापस बुलाने के लिए तैयार नहीं था। ब्रिटेन ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह प्रस्तावित सम्मेलन में इस शर्त पर भाग लेगा कि जर्मनी पोलैंड से अपनी सेना वापस बुला ले। जर्मनी ने यह शर्त नहीं मानी। इसलिए ब्रिटेन और फ्रांस ने 3 सितंबर, 1939 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। हमने ऊपर उल्लेख किया है कि 17–18 सितम्बर को सोवियत संघ ने भी पूर्वी पोलैंड पर धावा बोल दिया। किंतु कुछ समय तक न तो इटली युद्ध में शामिल हुआ और न संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी तटस्थता छोड़ी। इस बीच ब्रिटेन तथा अन्य मित्र राष्ट्र जर्मनी के विरुद्ध संघर्षरत तो थे, साथ ही समस्या के समाधान के प्रयास भी चल रहे थे। जर्मनी तो एक महायुद्ध के लिए तड़प रहा था। हिटलर ने 23 नवम्बर को अपने वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों से कहा, “समझौते की सभी आशाएं बचकाना (childish) हैं। विजय होगी या पराजय। यद्यपि संसार हमसे घृणा करता है, मैंने तो जर्मन लोगों को महान ऊँचाई पर पहुंचा दिया है। मैंने युद्ध का खतरा मोल लिया है। मुझे विजय अथवा विनाश में से एक का चयन करना है।”
संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ मित्र राष्ट्रों के साथ (U.S.A. and.U.S.S.R. become Allies) : जिस समय द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हुआ जर्मनी तथा सोवियत संघ एक–दूसरे के मित्र थे, परंतु सोवियत–जर्मन समझौते से मुसोलिनी प्रसन्न नहीं था। इटली जून 1940 तक युद्ध में शामिल नहीं हुआ। जून 1940 में फ्रांस पराजित होकर आत्मसमर्पण की स्थिति में पहुंच गया था। उस समय इटली ने जर्मनी के पक्ष में, फ्रांस तथा अन्य मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सोवियत संघ औपचारिक रूप से युद्ध में शामिल नहीं हुआ था, परंतु पोलैंड पर आक्रमण करके उसने जर्मनी का साथ अवश्य दिया था। उसके पश्चात सोवियत संघ ने फिनलैंड पर आक्रमण किया। उसके लिए उसे राष्ट्रसंघ से निष्कासित कर दिया गया। स्टालिन बराबर हिटलर की ईमानदारी में विश्वास करता रहा। जब हिटलर ने यूरोप के पड़ोसी देशों को पराजित कर दिया, तब उसने 22 जून, 1941 को सोवियत संघ पर आक्रमण करके स्टालिन को चकित कर दिया। इस बीच स्टालिन ने तीनों पड़ोसी बाल्टिक राज्यों लैटविया, लिथुएनिया तथा एस्टोनिया को आतांकित करके सोवियत संघ में विलय के लिए सहमत करवा लिया था। वे अपनी संप्रभता खोकर, सोवियत संघ के संघीय गणराज्य (Union Republics) बन गए थे। टालिन ने उन्हें आतंकित और भयभीत करने के लिए कहा था कि यदि वे सोवियत संघ में शामिल नहीं हुए तो जर्मनी उनका विनाश कर देगा। सोवियत संघ ने रूमानिया को भयभीत करके उससे बैसेरेबिया तथा बुकोविना के प्रदेश प्राप्त कर लिए। इस प्रकार 1941 के मध्य तक सोवियत संघ युद्ध में शामिल हुए बिना अपने प्रदेश का विस्तार करता रहा था।
हिटलर के समक्ष फ्रांस ने जून 1940 में आत्मसमर्पण कर दिया था। उस समय तक 27.000 जर्मनों की मृत्यु हो चुकी थी। हिटलर को फ्रांस के एक सैनिक अधिकारी मार्शल पेताँ (Marshal Petain) का समर्थन प्राप्त हो गया। उसके नेतृत्व में फ्रांस के विशी (Vichy) नामक नगर में एक तथाकथित (जर्मन–समर्थक) फ्रांसीसी सरकार की स्थापना कर दी गई थी, परंतु फ्रांस के एक महान योद्धा जनरल चार्ल्स दि गॉल (General Charles de Gaulle), किसी प्रकार कई हज़ार फ्रांसीसी सैनिकों के साथ इंगलैंड पहुंच गए थे। वहाँ पहँचकर दि गॅल ने लंदन में फ्रांस की निर्वासित सरकार (Government–in–Exile) की स्थापना कर ली थी। इटली ने ब्रिटेन के साथ अपने राजनयिक सम्बंध तोड़ लिए और वह जर्मनी के निकट आ गया, परंतु स्पेन के मामले में हिटलर को सफलता नहीं मिली। स्पेन के नए फासिस्ट शासक जनरल फ्रांको ने निश्चय कर लिया था कि उसका देश तटस्थ रहेगा। अत: स्पेन युद्ध में शामिल नहीं हुआ। फ्रांको ने इस युद्ध को सर्वोच्च बुराई (supreme evil) की संज्ञा दी, क्योंकि हिटलर ने स्टालिन के सहयोग से युद्ध आरम्भ किया था। स्पेन युद्ध की पूरी अवधि में तटस्थ बना रहा।
__संयुक्त राज्य अमेरिका का जनमत युद्ध में शामिल होने के पूरी तरह विरुद्ध था। अमेरिका की कांग्रेस ने 1937 में ही तटस्थता अधिनियम (Neutrality Act) पास करके भविष्य के किसी भी युद्ध में तटस्थ बने रहने के साथ–साथ, उन सभी देशों के हाथ अमरीकी शस्त्रास्त्र बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया था जो युद्ध में भाग ले रहे हों। जब सितम्बर 1939 में युद्ध आरम्भ हो ही गया तथा जर्मनी ने पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों पर वमवर्षा करके, उनको नष्ट करना आरम्भ कर दिया, तब अमेरिका ने तटस्थता कानून में अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध का परिचय ढील देनी शुरू की। हिटलर जिस तेजी से विजय की ओर बढ़ रहा था, उससे अमरीकी जनता भयभीत हो उठी थी। परिणामस्वरूप, अमेरिका की कांग्रेस ने नवम्बर 1939 में नकद भुगतान करो और ले जाओ कानून (Cash and Carry Act) पारित किया। इसके अनुसार, युद्धरत कोई भी देश अमेरिका से नकद भुगतान करके युद्ध सामग्री खरीद सकता था, यदि वह उस सामग्री को अपने हो जहाजों में अपने देश को ले जाए। स्वाभाविक था कि सुविधा का लाभ ब्रिटेन इत्यादि लोकतांत्रिक देश ही उठाने वाले थे। कुछ समय पश्चात कांग्रेस ने एक कानून (Selective Service Act) बनाकर यह प्रावधान किया कि शांति काल में भी लोगों को सेना में शामिल होने के लिए विवश किया जा सकता था। अंत में जब युद्ध अत्यंत गंभीर स्थिति में पहुँच गया, तब मार्च 1941 में उधार पट्टा कानून (Lend–Lease Act) पारित करके, राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया कि वह रक्षा सम्बंधी किसी भी सामग्री को बेच सकता था, विनियम कर सकता था, उधार दे सकता था, या पट्ट (किराए) पर दे सकता था, या फिर किसी अन्य प्रकार से उनका दे सकता था। इस प्रकार अमेरिका ने ब्रिटेन तथा चीन जैसे अपने मित्रों को उधार–पट्टे के अधीन युद्ध सामग्री की आपूर्ति करवानी आरम्भ करवा दी। तीन माह पश्चात जब सोवियत संध पर जर्मनी ने आक्रमण कर दिया तब उसे भी उधार पट्टा कानून के अंतर्गत सहायता उपलब्ध कराई गई। चीन तथा अन्य प्रशांत महासागर के क्षेत्रों के सम्बंध में जापान के साथ अमेरिका के सम्बंध तेजी से बिगड़ रहे थे।
हिटलर द्वारा सोवियत–जर्मन अनाक्रमण समझौते की योजना सोवियत संघ को अपनी वास्तविक आकांक्षा से अनभिज्ञ, अंधकार में रखने के उद्देश्य से बनाई गई थी। जैसे ही जर्मनी ने (ब्रिटेन के अतिरिक्त) अपने शत्रुओं को पराजित कर दिया, वैसे ही हिटलर ने सोवियत संघ पर चढ़ाई करने की योजना बनानी आरम्भ कर दी। परंतु स्टालिन इस बात को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं था कि जर्मनी सोवियत संघ पर आक्रमण करने वाला था। स्टालिन को अनेक स्रोतों ने सम्भावित जर्मन आक्रमण के विषय में चेतावनी दी थी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने स्टालिन को सम्भावित आक्रमण की निश्चित सूचना दी थी। इस सूचना की पुष्टि अमरीकी दूतावास ने भी कर दी थी। स्वयं स्टालिन के अपने टोकियो–स्थित राजनयिकों ने सम्भावित जर्मन अक्रमण को पूरा योजना से स्टालिन को अवगत करा दिया था। उन्होंने तो आक्रमण की तिथि तक बता दी थी। स्टालिन ने किसी पर भी विश्वास नहीं किया। अतंत: जर्मन तानाशाह ने स्टालिन को मर्ख बना दिया। 22 जून, 1941 को प्रातः सूर्योदय से पूर्व जर्मनी ने सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। सोवियत सेना के प्रधान ने, प्रात: लगभग 3 बजकर 40 मिनट पर, स्टालिन को टेलीफोन करके बताया कि जर्मनी ने आक्रमण कर दिया था। स्टालिन आश्चर्यचकित रह गया। उसके विदेश मंत्री मोलोतोव ने जर्मन राजदूत से नम्रता से पूछा कि “क्या हमने सचमुच ऐसा कुछ किया था कि हम पर आक्रमण किया जाए?” उसी दिन मध्याह्न तक लगभग 1200 सोवियत विमान नष्ट कर दिए गए थे। सोवियत संघ ने तुरंत मित्र राष्ट्रों (Allies) से सहायता की प्रार्थना की। ब्रिटेन ने सोवियत संघ को मित्र राष्ट्रों के खेमे में शामिल कर लिया। जुलाई 1941 में ब्रिटेन तथा सोवियत संघ ने एक सैनिक समझौते पर हस्ताक्षर किए। जर्मन आक्रामकों ने 1941 में ही लगभग पांच लाख (5,00,000) सोवियत यहदियों को हत्या कर दी। जुलाई 1941 में ही सोवियत जनता को यह अनुभव होने लगा कि इस युद्ध में उनका सर्वनाश हो जाने वाला था। लगभग छह मास के भीषण युद्ध के पश्चात दिसम्बर 1941 तक जर्मनी ने सोवियत संघ की लगभग पांच लाख वर्ग मील भूमि पर कब्जा कर लिया था
जहाँ युरोप में सोवियत संघ एक भयानक युद्ध का सामना कर रहा था, वहीं दिसम्बर 1941 में अमेरिका को भी युद्ध में धकेल दिया गया। जापान के साथ अमेरिका के सम्बंध कभी भी सौहार्दपूर्ण नहीं थे। जुलाई 1941 में जापान ने माल पेताँ की तथाकथित फ्रांसीसी सरकार से हिंद–चीन (Indo–China) में जापानी नौसेना तथा वायु सेना के अई स्थापित करने की अनुमति ले ली थी। ऐसा होते ही, अमेरिका में जापान की संभी संपत्ति (assets) को जब्त कर लिया गया। अगस्त 1941 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने घोषणा की कि यदि जापान ने थाईलैंड के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही की तो अमेरिका इसको गंभीरता से देखेगा।
सितम्बर में राष्ट्रपति रूजवेल्ट तथा जापानी प्रधानमंत्री कोनोए (Konoye) को बैठक में समझौते के असफल प्रयत्न किए गए। अक्टूबर में कोनोए के त्यागपत्र देने पर जनरल तोजो (General Tojo) जापान के नए प्रधानमंत्री बने। उसने संघर्ष को प्रोत्साहन दिया। नवम्बर 1941 में ब्रिटेन ने घोषणा कर दी कि यदि जापान के साथ अमेरिका का युद्ध छिड़ गया तो वह भी जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देगा। तनाव में तेजी से वृद्धि हो रही थी। राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने 6 दिसम्बर, 1941 को जापान के सम्राट से व्यक्तिगत प्रार्थना की कि वे शांति बनाए रखने में सहयोग करें। शांति के स्थान पर, अमेरिका को अगले दिन ही भीषण बमवर्षा का सामना करना पड़ा। 7 दिसम्बर, 1941 को प्रात:काल पर्ल हार्बर (हवाई द्वीपसमूह) स्थिति अमरीकी नौसैनिक बेड़े पर जापानी वायु सेना ने भारी बमवर्षा कर दी। कुछ ही घंटे पश्चात, जापान ने ‘संयुक्त राज्य अमेरिका तथा ब्रिटिश साम्राज्य‘ के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। जर्मनी तथा इटली ने जापान के पक्ष में 11 दिसम्बर को संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध सचमुच विश्वव्यापी हो गया था।
धुरी राष्ट्रों का पतन
(Downfall of Axis Powers) युद्ध का विस्तृत अध्ययन तो इस रचना के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है, परंतु इस अध्याय में हमने द्वितीय विश्व युद्ध के प्रमुख चरणों की समीक्षा की है, इसलिए यह उचित अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध का परिचय होगा कि यहाँ संक्षेप में तीनों धुरी राष्ट्रों–इटली, जर्मनी तथा जापान के पतन और उनकी पराजय का उल्लेख कर दिया जाए। तीनों धुरी राष्ट्र किस प्रकार पराजित हुए तथा मित्र राष्ट्रों की विजय कैसे हुई, इसका अति संक्षिप्त वर्णन किया जा सकता है।
इटली तथा जर्मनी की पराजय (Defeat of Italy and Germany) : दोनों फासिस्ट देशों ने यूरोपीय महाद्वीप के अनेक देशों को लगभग दो वर्ष में ही पराजित कर दिया था। ब्रिटेन पर जर्मनी द्वारा हवाई हमले होते रहे थे तथा सोवियत संघ के तीनों बाल्टिक गणराज्यों सहित, काफी बड़े प्रदेश पर जर्मनी ने कब्जा कर लिया था। मित्र राष्ट्रों ने धुरी राज्यों को पराजित करने के उद्देश्य से, 1943 में इटली के अफ्रीकी साम्राज्य को, सबसे पहले नष्ट करने का निर्णय किया। यह उद्देश्य मई 1943 तक पूरा हो गया था। इटली को चिंता हो गई और फासिस्ट संरचना डगमगाने लगी। मित्र राष्ट्रों ने सिसिली (Sicily) पर आक्रमण करने के लिए “ऑपरेशन होकी” (Operation Huoky) नामक योजना तैयार की। कार्यक्रम के अनुसार, सिसिली विजय करके इटली के मुख्य भूमि पर आक्रमण किया जाना था। इस अभियान का उद्देश्य एक साथ इटली और जर्मनी के विरुद्ध मोर्चा खोलना नहीं था। लक्ष्य यह था कि इटली को पराजित करके, उसके प्रदेश का प्रयोग जर्मनी पर आक्रमण करने के लिए किया जाए। बाल्कन प्रदेश पर भी इटली की भूमि से बमवर्षा करने की योजना थी। जुलाई 1943 में भारी हवाई आक्रमण के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में इटली के सैनिकों ने सिसिली में मित्र राष्ट्रों के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया। जर्मनी इस द्वीप की रक्षा नहीं कर सका। इस बीच मुसोलिनी का पतन हो गया। सिसिली पर प्रथम हमले के कुछ ही दिन पश्चात मुसोलिनी जर्मनी गया और हिटलर से सहायता की प्रार्थना की। हिटलर ने उसको सहायता देने से इनकार कर दिया। मुसोलिनी स्तब्ध रह गया। मुसोलिनी ने वापस आकर फासिस्ट महापरिषद (Fascist Grand Council) की बैठक बुलाई। बैठक के अंत में परिषद ने इटली के राजा से प्रार्थना की कि वह स्वयं कमान संभाल लें। 25 जुलाई, 1943 को इटली नरेश विक्टर इमैनुअल तृतीय ने मुसोलिनी को बर्खास्त कर दिया। मुसोलिनी को तुरंत गिरफ्तार भी कर लिया गया। इस प्रकार 20 वर्ष 9 महीने तक मुसोलिनी ने इटली पर अधिनायकवादी शासन किया। मार्शल बोदोग्लियो (Marsha Bodoglio) को नई सरकार का प्रधान नियुक्त किया गया। अंततः, इटली ने 3 सितम्बर, 1943 को मित्र राष्ट्रों के सम्मुख बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया, परंतु उसी दिन जर्मन सेना ने रोम में प्रवेश करके युद्ध जारी रखा। इटली पर विजय कई महीने के लिए टल गई। अंततः मित्र राष्ट्र रोम पर 4 जून, 1944 को, जर्मनी की सेना को वहाँ से खदेड़कर, कब्जा कर सकने में सफल हुए। इस बीच जर्मनी के छापामार मुसोलिनी को जेल से भगाने में सफल हो गए और वे उसे किसी सुरक्षित स्थान पर ले गए। मुसोलिनी ने एक नई कठपुतली फासिस्ट सरकार की स्थापना कर ली। कुछ समय पश्चात, रहस्यमय परिस्थितियों में मुसोलिनी की हत्या कर दी गई और उसका शव जंगल में पड़ा पाया गया। इटली द्वारा आत्मसमर्पण के पश्चात, बोदोग्लिये सरकार ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार इटली मित्र राष्ट्रों द्वारा पराजित होकर, उन्हीं के साथ हो गया।
65 इटली के पराजित होते ही, मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी के विरुद्ध दूसरा मोर्चा खोल दिया। पूर्व में तो सोवियत सेनओं ने अपने काफी प्रदेश खाली करवाकर जर्मन सेना को पीछे धकेलना आरम्भ कर दिया था। पश्चिम में इंग्लैंड, अमेरिका तथा उनके मित्रों ने फ्रांस को जर्मन कब्जे से मुक्त करवाने के लिए नॉरमैन्डी (Normandy) पर धावा बोलकर दूसरा मोर्चा खोल दिया। मार्च 1944 तक धुरी सेनाओं से यूक्रेन तथा सोवियत संघ के अन्य प्रदेशों को मुक्त करवा लिया गया था। वर्ष 1944 समाप्त होने से पूर्व ही समस्त सोवियत संघ मुक्त हो चुका था। जर्मनी के विरुद्ध नॉरमैन्डी में दूसरा मोर्चा 6 जून, 1944 को आरम्भ हुआ। मित्र राष्ट्रों की सेना ने इंग्लिश चैनल की ओर से धावा बोला। इस मोर्चे की सफलता के लिए, अमेरिका से प्रति मास 1,50,000 सैनिक यूरोप लाए गए। मित्र राष्ट्रों की सेना को तेजी से सफलता मिली। जनरल दि गॉल के सैनिक अन्य मित्र राष्ट्रों के सैनिकों के साथ, फ्रांस को स्वतंत्र करवाकर 11 सितम्बर, 1944 को जर्मनी में प्रवेश कर गए। दूसरा मोर्चा खोलने के बाद, फ्रांस को जर्मनी से मुक्त करवाने में कुल 97 दिन का समय लगा था। तुरंत ही जर्मन वायु सेना ने लंदन पर भारी बमवर्षा का अभियान शुरू कर दिया, जो कि 1945 के आरम्भ तक चलता रहा। जैसे–जैसे जर्मन सेना पराजित होती गई वैसे–वैसे हिटलर की हत्या के षड्यंत्र भी रचे जाने लगे। जर्मनी के विरुद्ध अंतिम अभियान का निर्णय फरवरी 1945 के याल्टा सम्मेलन में किया गया। अंग्रेज, अमरीकी, फ्रांसीसी तथा केनेडियन सैनिकों द्वारा जर्मनी के विरुद्ध भारी आक्रमण किया गया। इस बीच, सोवियत संघ की ओर से शत्रु के विरुद्ध तीव्र गति से अभियान चल रहा था। हिटलर ने बर्लिन में प्रधानमंत्री कार्यालय के तहखाने (underground) में अपना अंतिम मुख्यालय बना लिया था, क्योंकि वह और कहीं भी सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहा था। हिटलर 1933 में, सत्ता में आने के पश्चात विश्व विजय के स्वप्न देख रहा था। जब उसके द्वारा जीते हुए सारे प्रदेश उसके हाथ से निकल गए और स्वयं जर्मन भूमि पर मित्र राष्ट्रों का लगभग पूर्ण अधिकार हो गया तब नात्सी तानाशाह के पास आत्महत्या के अतिरिक्त और कई मार्ग बचा ही नहीं था। हिटलर आजीवन अविवाहित रहा था। किंतु अपनी आत्महत्या से केवल तीन दिन पूर्व उसने अपनी प्रेमिका ईवा ब्रॉन (Eva Braun) के साथ विवाह कर लिया था। उन दोनों ने 30 अप्रैल, 1945 को अपने भूमिगत मुख्यालय में आत्महत्या कर ली। हिटलर ने डोक्नित्स (Docnitz) को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था, परंतु वह देश को पराजय से बचाने के लिए कुछ नहीं कर सका। अंतत: 5 मई, 1945 को उत्तर–पूर्व जर्मनी, नीदरलैंड्स और डेनामार्क में जर्मन कमांडरों ने आत्मसमर्पण कर दिया। अगले दिन ऑस्ट्रिया स्थित नात्सी सेना ने भी आत्मसमर्पण किया। अंत में, जर्मनी की डोक्नित्स सरकार ने 7 मई को ‘रीख की समस्त थल सेना, नौसेना और वायुसेना का‘ बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया। यूरोप में 8 मई, 1945 को युद्ध समाप्त हो गया।
जापान की पराजय (Defeat of Japan) : सुदूर पूर्व में जापान को पराजित करने के लिए मित्र राष्ट्रों को गंभीर संघर्ष करना पड़ रहा था। इस क्षेत्र में शत्रु को पराजित करने का मुख्य उत्तरदायित्व संयुक्त राज्य अमेरिका पर था। ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध का परिचय चीन इस संघर्ष में अमेरिका की सहायता कर रहे थे। चीन तो युद्ध के आरम्भ से काफी पहले से ही जापानी आक्रामक गतिविधियों का शिकार था। भारत के मार्ग से चीन को युद्ध सामग्री पहुँचाने के प्रयास किए गए थे। जापान के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों का युद्ध अभियान चीन को भूमि से चलाया जा रहा था। इस बीच अभियान की कमान अमेरिका के जनरल मैक्आर्थर के हाथ में थी। सन् 1944 के उत्तरार्द्ध में जापान के विरुद्ध दो प्रमुख अभियान चलाए गए। प्रथम अभियान लॉर्ड माउन्टबेटन के नेतृत्व में बर्मा को स्वतंत्र करवाने तथा चीन के साथ संचार व्यवस्था स्थापित करने के लिए चलाया गया था। जनरल मैक्आर्थर के नेतृत्व में दूसरे अभियान का उद्देश्य फिलीपीन्स द्वीप समूह को स्वतंत्र करवाना था। जून 1945 में दोनों अभियान सफलतापूर्वक समाप्त हो गए थे। इन अभियानों का विस्तृत विवरण यहां पर दिया जाना आवश्यक नहीं है। हमने ऊपर कहा है कि यूरोप में मई 1945 में ही युद्ध समाप्त हो गया। था। बर्लिन के निकट पोट्सडम में केन्द्रीय यूरोप के भविष्य का निर्णय करने के लिए शांति सम्मेलन हुआ। जुलाई 1945 में इस सम्मेलन ने जापान को चेतावनी देते हुए कहा कि, “अब जापान की सभी सशस्त्र सेनाओं (बलों) के बिना शर्त आत्मसमर्पण की घोषणा कर दो...... यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसका एकमात्र विकल्प होगा जापान का तुरंत और भयानक विध्वंस“। सोवियत संघ ने उस समय तक जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा नहीं की थी। अतः उसने इस चेतावनी पर हस्ताक्षर नहीं किए। जापान ने इस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने युद्ध जारी रखा। इस स्थिति में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रमन ने जापान पर अणु बम गिराने का निर्णय किया ताकि उसको आत्मसमर्पण के लिए विवश किया जा सके।
6 अगस्त, 1945 को मानव इतिहास में पहली बार अमरीकी वायु सेना ने जापान के महत्त्वपूर्ण नगर हिरोशीमा पर अणु बम गिराकर भीषण और व्यापक विध्वंस कर दिया। दो दिन पश्चात (8 अगस्त को) सोवियत संघ ने जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी तथा मंचूरिया तथा दक्षिणी साखालीन में जापान के विरुद्ध कार्यवाही आरम्भ कर दी। सोवियत सैनिक तेजी से आगे बढ़ते गए। अमेरिका ने 9 अगस्त को जापान के एक अन्य नगर नागासाकी पर अणु बम गिराकर अभूतपूर्व विनाश किया। जापान का साहस टूट गया। उसने 10 अगस्त, 1945 को शांति के लिए प्रार्थना की। युद्ध रुक गया, परंतु जापानी आत्मसमर्पण के दस्तावेजों पर अमरीकी युद्धपोत मिसूरी (Missouri) पर 2 सितम्बर, 1945 को हस्ताक्षर किए गए। जापान पर अमेरिका का कब्जा होने के साथ ही, द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया।
जापान द्वारा अमेरिका सहित 49 देशों के साथ जिस शांति संधि पर हस्ताक्षर किए गए उसमें 27 अनुच्छेद थे। इसमें कोरिया की स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान की गई, यद्यपि अगस्त 1945 से ही कोरिया दो भागों में विभाजित हो गया था। जापान ने फार्मोसा के द्वीप, साखालीन तथा कुरील पर अपने सभी अधिकार त्याग दिए। बोनिन (Bonin) तथा रुको 1. अप्रैल 1945 में राष्ट्रपति रूजवलेल्ट को मृत्यु के पश्चात ट्रमन राष्ट्रपति बन गए थे।
(Rukuo) नामक दो छोटे द्वीप अमेरिका के संरक्षित प्रदेश (Trust Territories) घोषित किए गए। जापान की प्रभुसत्ता चार मुख्य तथा कुछ छोटे द्वीपों तक सीमित कर दी गई। उसका कुल क्षेत्रफल अब 2,40,000 वर्ग किलोमीटर रह गया। द्वितीय, जापान ने चीन में अपने समस्त अधिकार त्याग कर दिए। तृतीय, जापान ने युद्ध के लिए अपना उत्तरदायित्व स्वीकार किया तथा, क्षतिपूर्ति का भुगतान करना भी स्वीकार किया, परंतु उसकी आर्थिक दशा को देखते हुए क्षतिपूर्ति के भुगतान से उसको मुक्त कर दिया गया। अर्थात् उसकी क्षतिपूर्ति माफ कर दी गई। यह इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि युद्ध समाप्त हुए कई वर्ष हो गए थे, शत्रुता का वातावरण समाप्त हो गया था तथा जापान अब अमेरिका का एक निकट का मित्र होकर उभरा था। अंतिम, सिद्धांत रूप में यह स्वीकार कर लिया गया था कि जापान से सभी विदेशी सैनिकों को हटा लिया जाएगा फिर भी, स्वेच्छा से सम्पन्न एक नए समझौते के अधीन जापान में अमरीकी सैनिकों के द्वारा ही हो सकता था। जापान के शस्त्रास्त्रों को किसी प्रकार से सीमित करने का प्रयास नहीं किया गया।
जर्मनी (Germany) : यूरोप में मई 1945 में युद्ध समाप्त होते ही जर्मनी को चार क्षेत्रों (Zones) में विभाजित कर दिया गया था। पश्चिमी देशों ने आरोप लगाया कि अपनी बचनबद्धता के विरुद्ध, सोवियत संघ अपने कब्जे वाले प्रदेश को एक साम्यवादी राज्य में परिवर्तित कर रहा था। इससे जर्मनी के एकीकरण में तो भीषण बाधा उत्पन्न हुई ही, जर्मनी के साथ किसी शांति संधि पर हस्ताक्षर भी नहीं हो सके। परंतु पश्चिमी देशों तथा सोवियत संघ ने कई एकपक्षीय निर्णय किए। इनमें से पहला निर्णय ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ने लिया। उन्होंने 1 जनवरी, 1947 को अपने दोनों क्षेत्रों को मिलाकर एक क्षेत्र कर लिया। कुछ समय पश्चात फ्रांस ने भी अपने क्षेत्र को आँगल–अमरीकी क्षेत्र में विलय करके एक पश्चिमी क्षेत्र की रचना कर दी। इसके पश्चात, इन तीनों पश्चिमी देशों ने एकीकृत पश्चिमी क्षेत्रों को एक स्वतंत्र संप्रभु देश के रूप में गठित कर दिया। उस पश्चिमी जर्मनी में एक स्वतंत्र, जनता द्वारा निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना कर दी गई। यह नया स्वतंत्र देश, जर्मनी का संघीय गणराज्य (Federal Republic of Germany) 21 सितम्बर, 1949 को अस्तित्व में आ गया। पश्चिमी देशों ने 1951 में औपचारिक रूप से पश्चिमी जर्मनी के साथ ‘युद्ध की स्थिति‘ (State of War) समाप्त कर दी। पश्चिमी जर्मनी को 1954 के लंदन–पेरिस समझौते के द्वारा प्रभुसत्ता–सम्पन्न राज्य का दर्जा प्राप्त हो गया।
पश्चिमी भाग में जर्मनी के संघीय गणराज्य की स्थापना के शीघ्र बाद सोवियत संघ ने पूर्वी जर्मनी में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की प्रक्रिया आरम्भ कर दी। इसको जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य (German Democartic Republic) कहा गया, और इसकी सरकार सोवियत साम्यवादी नमूने पर स्थापित की गई। सितम्बर 1955 की एक द्विपक्षीय संधि के द्वारा सोवियत संघ ने पूर्वी जर्मनी को पूर्ण संप्रभुता की गारंटी प्रदान कर दी। ऐसा पश्चिमी देशों द्वारा पश्चिमी जर्मनी को मान्यता प्रदान करने के एक वर्ष पश्चात किया गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दुष्परिणाम
इस युद्ध की जो सबसे बड़ी हानि सामने आई वो थी जन-हानि. अमेरिका का नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराने को मानव सभ्यता के इतिहास सबसे क्रूर, विनाशकारी और दर्दनाक घटना माना गया हैं. जिसका परिणाम कई पीढ़िया भुगत चुकी हैं और कई भुगतने वाली हैं, इस कारण इसके बाद इस पर पूरी तरह रोक लगाई गयी. लेकिन फिर भी युद्ध के दौरान कुल 12 मिलियन जवानों को मार गिराया गया, जबकि 25 मिलियन नागरिक भूख, बिमारी इत्यादि कारणों से मारे गये. 24 ,मिलियन लोग इस युद्ध में घायल और विकलांग हुए. यूएस द्वारा जापान में बम गिराने के कारण 160,000 जन-हानि हुयी. इस तरह दूसरा विश्व युद्ध हर दृष्टि से मानव जाति के लिए भयंकर विनाशकारी युद्ध सिद्ध हुआ.
हालांकि दूसरे विश्व युद्ध के समय हताहत आम-जनों की वास्तविक संख्या कभी नहीं जानी जा सकती. इनमें बहुत सी मौतें तो बम ब्लास्ट, नर-संहार, भूख और युद्ध से जुडी अन्य गतिविधियों के कारण हुयी थी. हिटलर के दैविक “अंतिम समाधान” के हिस्से के रूप में नाजी एकाग्रता शिविरों में अनुमानित 45-60 मिलियन लोगों की हत्या में 6 मिलियन यहूदी मारे गए थे, जिन्हें अब होलोकॉस्ट के नाम से जाना जाता है. जबकि सोवियत यूनियन के 7 मिलियन सैनिक घायल हुए थे.
ये माना जाता हैं कि युद्ध के दौरान लगभग 6 मिलीयन यहूदी तो नाज़ी कंसंट्रेशन कैंप में ही मारे गये थे. और रोम के हजारों लोगों की हत्या कर दी गयी थी, जिनमें मानसिक और शारीरिक रूप से असक्षम लोग भी शामिल थे.
केवल 1939 से लेकर 1945 तक हुआ विनाश और जनहानि.
देश का नाम | मृतकों की संख्या | घायलों की संख्या |
ऑस्ट्रेलिया | 23,365 | 39803 |
ऑस्ट्रिया | 380,000 | 350,117 |
बेल्जियम | 7760 | 14500 |
बुल्गेरिया | 10,000 | 21878 |
कनाडा | 37476 | 53174 |
चाइना | 2,200000 | 1,762000 |
फ्रांस | 210,671 | 390,000 |
जर्मनी | 3500000 | 7,250,000 |
ग्रेट ब्रिटेन | 329,208 | 348,403 |
हंगरी | 140,000 | 89,313 |
इटली | 77,494 | 120,000 |
जापान | 1219000 | 295247 |
पोलैंड | 320,000 | 530000 |
रोमानिया | 300,000 | – |
सोवियत यूनियन | 75,00000 | 5,000000 |
यूनाइटेड स्टेट्स | 405,399 | 670,846 |
इस युद्ध में बहुत भारी मात्रा में जमीन की हानि हुई थी, एक अनुमान के अनुसार लगभग 1000 बिलियन डॉलर इस युद्ध में खर्च हुए थे, जिसमें केवल अमेरिका ने 350 बिलियन डॉलर खर्च किये थे. इस युद्ध में बहुत सी बिल्डिंगस, रोडस, इन्फ्रास्ट्रक्चर, युद्धपोत और फाइटर प्लेन ध्वस्त हुए थे.
दुसरे विश्व युद्ध के परीणामस्वरूप दुनिया के समस्त देश पूँजीपति और साम्यावादी दो भागों में बंट गये, जिसमे यूएसए पूंजीपतियों का नेतृत्व कर रहा था, जबकि रशिया साम्यवादी का नेतृत्व कर रहा था. उन्होंने विश्व पटल पर एक दूसरे की आलोचना करना शुरू कर दिया, जिसका परिणाम शीत युद्ध हैं. और इस शीत युद्ध के दौरान दोनों पक्षों ने अपने-अपने परमाणु हथियार तैयार कर लिए जिसका घातक परिणाम जल्द ही दुनिया को भुगतने होंगे.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद का परिदृश्य
दूसरे विश्व युद्ध के बाद डेमोक्रेटिक लहर भी चली और बहुत से देशों के लोग अपनी स्वतंत्रता और डेमोक्रेसी के लिए जागरूक हो गये, जिसके अंतर्गत बहुत से उपनिवेशों को स्वतंत्रता मिली, जिनमें भारत का नाम भी शामिल हैं. इसके कारण उपनिवेशवाद का समापन हुआ उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत एशिया और अफ्रीका में हुयी, जिसके कारण भारत,पाकिस्तान ,श्रीलंका और इजिप्ट जैसे देशों को ब्रिटिश एमपायर से मुक्ति मिली. वियतनाम,कम्बोडिया और लाओस को फ्रेंच एम्पायर से मुक्ति मिली.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूएसए के प्रेसिडेंट हैरी ट्रूमैन ने युद्ध के विक्टिम देशों को आर्थिक सहायता देने की घोषणा की और कम्युनिज्म के प्रभाव को रोका. इस घोषणा को ट्रूमैन की घोषणा कहा जाता हैं.
मार्शल प्लान (The Marshall Plan)
इस घोषणा के बाद यूएस के विदेश मंत्री जॉर्ज मार्शल ने विक्टिम देशों को सपोर्ट करने के लिए प्लान बनाया. जिसे मार्शल प्लान कहां जाता हैं, इस योजना के अंतर्गत यूएस ने यूरोपियन देशों को क्षति-पूर्ति के लिए 12.5 बिलियन डॉलर दिए थे. 17 से ज्यादा देशों में खाद्य सामग्री,कृषि और ट्रांसपोर्ट इत्यादि के लिए पुनर्निर्माण किया गया. इस योजना से 18 देशों को खाद्य, मशीनरी और अन्य सामानों में 13 अरब डॉलर की राशि मिली.
दुसरे विश्व युद्ध के बाद 1949 में यूएसएसआर ने काउंसिल ऑफ़ म्यूच्यूअल असिस्टेंस की स्थापना की, जिससे यूरोपियन देशों को आर्थिक सहायता मिल सके. इस प्लान का यूएसएसआर (USSR) के विदेश मंत्री मोलोटोव ने प्रस्ताव दिया था, जिससे उनका व्यापार और आर्थिक स्थिति का स्तर सुधर सके.
द्वितीय विश्व युद्ध के एक महीने के बाद 24 अक्टूबर 1945 के दिन यूनाइटेड नेशन की स्थापना की गयी थी. नेशन के इस लीग की स्थापना वर्ल्ड वॉर को रोकने के लिए की गयी थी, लेकिन ये असफल रही. इसलिए 4 साल बाद फ्रेंक्लिन रूजवेल्ट और विन्सन चर्चिल ने अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर किये, और यूएन की स्थापना की इस संस्था का मुख्य उद्देश्य विश्व शान्ति कायम करना था और तबाही से बचाना था.