1st Year

अवसरों की समानता का क्या अर्थ है? शिक्षा के अवसरों की समानता दर्शाने वाली विभिन्न संवैधानिक धाराओं का वर्णन करो ।

प्रश्न – अवसरों की समानता का क्या अर्थ है? शिक्षा के अवसरों की समानता दर्शाने वाली विभिन्न संवैधानिक धाराओं का वर्णन करो ।
What is the meaning of equality of opportunities? Explain the different articles of Indian Constitution showing equality of opportunities in education.
या
शिक्षा में अवसरों की समानता का अर्थ तथा आवश्यकता का वर्णन कीजिए । भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के संदर्भ में शिक्षा में अवसरों की. समानता का भी वर्णन कीजि  । 
Discuss the meaning and need of equality of opportunities in education. Also discuss equality of opportunities in education in the context of different articles of Indian Constitution. 
उत्तर- अवसरों की समानता
समानता के सम्बन्ध में शिक्षा आयोग ने लिखा है कि शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक उद्देश्य है, अवसर की समानता प्रदान करना जिससे पिछड़े तथा दलित वर्ग व व्यक्ति शिक्षा के द्वारा अपनी स्थिति सुधार सकें। समाज में आम आदमी की हालत सुधारने एवं उन्हें शिक्षा देने की व्यवस्था करनी होगी जिससे सभी वर्गों को अवसर की अधिकाधिक समानता प्राप्त हो जाए।
शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों की समानता का विचार फ्रांसीसी क्रान्ति के साथ आया और संयुक्त राज्य अमेरिका में स्वतंत्रता युद्ध के पश्चात् इसे बढ़ावा मिला । शिक्षा में अवसरों की समानता की आवश्यकता का सूत्रपात समान पहुंच की व्यवस्था से हुआ तत्पश्चात् समान पहुंच को शैक्षिक अवसरों की आवश्यक कसौटी माना गया। इसके लिए आवश्यक है कि समाज के लाभन्वित वर्गों के हित में संरक्षात्मक विभेद के उपाय किए जाएँ, अर्थात्, शिक्षा में समानता को स्वीकारा जाना आवश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में भी ऐसी समान सामाजिक व्यवस्था लाने हेतु प्रयासरत हुआ जहाँ समानता व अवसरों की समानता को सरकारी नीति का प्रमुख लक्ष्य माना गया । संविधान में एक समान समाजिक व्यवस्था हेतु प्रावधान किए गए।
शैक्षिक अवसरों की समानता की आवश्यकता (Need for Equality of Educational Opportunities)
वर्तमान समय में शैक्षिक अवसरों की समानता लोकतन्त्रीय देशों के लिए अति आवश्यक है। इसके बिना लोकतन्त्र अर्थहीन हो जाएगा। हमारे लोकतांत्रिक देश में इसकी आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है –
लोकतन्त्र की रक्षा के लिए – लोकतन्त्र की सफलता देश के -नागरिकों की योग्यता एवं क्षमता पर निर्भर होती है। हमारे देश में रेगिस्तान, पहाड़ एवं जंगलों में रहने वालों की संख्या बहुत अधिक है इसलिए शिक्षा सर्वसुलभ नहीं है। अतः यह आवश्यक है कि उपेक्षित, निर्धन एवं दूर-दराज में रहने वालों को शिक्षण सुविधाएँ प्रदान की जाएँ, उन्हें लोकतन्त्रीय मूल्यों का ज्ञान कराया जाए तथा उनमें सोचने समझने तथा निर्णय लेने की शक्ति का विकास किया जाए तभी देश में लोकतन्त्र सफल हो सकता है।
व्यक्तियों के वैयक्तिक विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तित्व के विकास का अवसर देकर उनके व्यक्तित्व का आदर करना चाहिए। हमारे देश की आधे से अधिक जनसंख्या पिछड़ी, निर्धन एवं अशिक्षित है। यदि वास्तविकता में प्रत्येक व्यक्ति को विकास के अवसर प्रदान करने हैं तो सभी को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर एवं सुविधाएँ प्रदान करनी होगी।
  1. वर्गभेद की समाप्ति के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले शिक्षा केवल उच्च वर्ग तक ही सीमित थी जिसके कारण प्रत्येक क्षेत्र में उच्च वर्ग का अधिकार बढ़ता गया तथा निम्न वर्ग के व्यक्ति पिछड़ते गए। इससे देश में वर्ग भेद का विस्तार हो गया। इस वर्ग भेद की समाप्ति के लिए सभी वर्ग के बच्चों एवं युवकों को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर एवं सुविधाएँ प्राप्त करना आवश्यक होता है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 29 में स्पष्ट रूप से घोषणा की गई है। कि राज्य द्वारा पोषित अथवा आर्थिक सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में किसी भी नागरिक को धर्म, जाति तथा वंश के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।
  2. समाज के उन्नयन के लिए – लोकतन्त्र पूरे राष्ट्र को एक समाज मानता है तथा उसे सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के रूप में विकसित करने में विश्वास करता है, जब तक देश के प्रत्येक नागरिक को शिक्षित नहीं किया जाता तब तक यह सम्भव नहीं है। इसलिए देश में शैक्षिक अवसरों की समानता की बहुत ही आवश्यकता है।
  3. राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए किसी भी राष्ट्र का आर्थिक विकास दो तत्त्वों प्राकृतिक संसाधन तथा मानव संसाधन पर निर्भर होता है। मानव संसाधन का विकास शिक्षा द्वारा होता है तथा प्राकृतिक संसाधन की देन है। जिस देश में जितनी ही अच्छी शिक्षा व्यवस्था होगी वह राष्ट्र उतना ही तेजी से आर्थिक विकास करेगा। अतः यह आवश्यक है कि शिक्षा के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को दूर करके सभी बालकों व व्यक्तियों तक शिक्षा की पहुँच बनाई जाए। यही शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है।
शिक्षा से सम्बन्धित संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provision Related to Education)
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सबसे महत्वपूर्ण कार्य हमारे सामने था एक ऐसे संविधान की रचना करना जिसके माध्यम से हम उन उद्देश्यों को प्राप्त कर सके जिसके लिए हमनें स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी थी । यह एक कठिन कार्य था, संविधान बनाने के लिए जब संविधान सभा की बैठक 9 दिसम्बर सन् 1946 को हुई तो उसके सामने कई चुनौतियाँ थीं। इन सबसे विचलित हुए बिना हमारे संविधान निर्माता अपने कर्तव्य पथ पर टिके रहे तथा 3 जून सन् 1947 के अधिनियम के पारित होने पर संविधान सभा एक सम्प्रभु निकाय बन गई।
अब यह भारत के लिए संविधान बना सकती थी। इस अनिश्चितता के बाद डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित प्रारूप समिति के संविधान सभा में संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया गया। इस प्रारूप पर 8 महीने बहस हुई तथा इस दौरान इसमें अनेक संशोधन किए गए।
संविधान सभा 11 अधिवेशन हुए इस प्रकार संविधान सभा ने कुल मिलाकर 2 वर्ष 11 महीने, 18 दिन के अथक व निरन्तर परिश्रम के पश्चात् 26 नवम्बर सन् 1949 तक संविधान के निर्माण का कार्य पूरा किया तथा संविधान के कुछ उपबन्ध तो उसी दिन, अर्थात, 26 नवम्बर 1949 को प्रवृत्त हो गए तथा शेष उपबन्ध 26 जनवरी 1950 को प्रवृत्त हुए जिसे संविधान के प्रवर्तन की तारीख माना जाता है।
कुछ संवैधानिक उपबन्ध का यहाँ हम वर्णन करेंगे जिनमें शिक्षा सम्बन्धी अधिकार दिए गए हैं, ये निम्नलिखित हैं
  1. राज्यपोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना का निषेध (अनुच्छेद-28) (Prohibit of Worship in [ Article 28]Religious Instruction or Religious Certain Education Institutions ) • अनुच्छेद 28 (1) यह उपबन्धित करता है कि राज्यनिधि से पूरी तरह पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। यह खण्ड अ शिक्षा संस्थाओं पर लागू नहीं करता है जिनका प्रशासन तो राज्य करता हो किन्तु जो किसी ऐसे धर्मस्व या न्यास के अधीन स्थापित हुई है जिनके अनुसार इस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है। खण्ड (3) के अनुसार राज्य से मान्यताप्राप्त या राज्यनिधि से पोषित होने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को धार्मिक शिक्षा या उपासना में भाग लेने के लिए बाध्य न किया जाएगा जब तक उस व्यक्ति ने उसके लिए सम्मति न दी हो।
    संक्षेप में अनुच्छेद 28 चार प्रकार की शैक्षिक संस्थाओं का उल्लेख करता है –
    (i) राज्य द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित संस्थाएँ ।
    (ii) राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थाएँ ।
    (iii) राज्यनिधि से सहायता प्राप्त करने वाली संस्थाएँ ।
    (iv) राज्य प्रशासित किन्तु किसी धर्मस्व या न्यास के अधीन स्थापित संस्थाएँ ।

    नं. 1 की श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में किसी प्रकार के धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है। नं. 2, 3 की श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में धार्मिक शिक्षाएँ दी जा सकती हैं, बशर्ते कि इसके लिए लोगों ने अपनी सम्मति दे दी हो, न, 4 की श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने के बारे में कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

  2. भाषा, लिपि और संस्कृति बनाए रखने का अधिकार [ ( अनुच्छेद-29 (1)] (Right to Preserve Language, Script or Culture [ ( Article 29 ( 1 ) ] – अनुच्छेद 29 (1) भारत क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग को जिनकी अपनी विशेष लिपि या संस्कृति है उसे बनाए रखने का अधिकार प्रदान करता है। इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करना है। अनुच्छेद-29 का शीर्षक “अल्पसंख्यको के हितो का संरक्षण है।” इससे यह पता चलता है कि इसका संरक्षण केवल अल्पसंख्यकों के लिए हैं परन्तु उच्च न्यायालय गुजरात ने एक कार्यवाही के दौरान निर्णय लिया कि नागरिकों के किसी भी विभाग में अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक दोनों ही आ जाते हैं। पहले संविधान में अल्पसंख्यक शब्द प्रयोग किया गया था, लेकिन बाद में अल्पसंख्यक की जगह “नागरिकों के किसी विभाग” शब्द प्रयोग किए गए।
    डॉ. अम्बेडकर के अनुसार, ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि अनुच्छेद केवल संकीर्ण अर्थ में ही अल्पसंख्यको को ही संरक्षण नहीं प्रदान करता बल्कि व्यापक अर्थ में इसका उद्देश्य “अल्पसंख्यकों” को संरक्षण देना है। उदाहरण के लिए – जब एक राज्य का व्यक्ति दूसरे राज्य में जाता है तो अल्पसंख्यक न होते हुए भी वह उस राज्य में अल्पसंख्यक होगा।
    डॉ. अम्बेडकर ने अल्पसंख्यक शब्द के बारे में निम्नलिखित स्पष्टीकरण दिया –
    “संस्कृति, भाषा और लिपि के मामले में इस अनुच्छेद का आशय केवल तकनीकी अर्थ में अल्पसंख्यकों को संरक्षण देना नहीं है, अपितु व्यापक अर्थ में अल्पसंख्यकों को भी। यही कारण है हम लोगों ने ‘अल्पसंख्यक’ शब्द नहीं रखा, क्योंकि हमनें महसूस किया कि इस शब्द का संकुचित अर्थ लगाया जा सकता है. जबकि सदन जिसने अनुच्छेद 18 (वर्तमान में 29) पास किया का आशय अल्पसंख्यक शब्द को बहुत व्यापक अर्थ में प्रयोग करना था, जिससे सांस्कृ तिक संरक्षण उन लोगों को दिया जा सके जो तकनीकी अर्थ में अल्पसंख्यक नहीं है फिर भी अल्पसंख्यक है।
    यह महसूस किया गया था कि यह संरक्षण इस कारण से आवश्यक है कि जो लोग एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जाते हैं और बस जाते हैं परन्तु स्थायी रूप से नहीं बस पाते वे उस जगह (प्रान्त) से सम्बन्ध बनाए रखते हैं।
    वे अपने प्रान्त में विवाह के लिए जाते हैं, वे अपने प्रान्त में दूसरे बहुत से प्रयोजनों के लिए जाते हैं और यदि यह संरक्षण नहीं दिया जाता जब वे स्थानीय विधान मण्डल के अधीन हैं और स्थानीय विधान मण्डल उनको अपनी संस्कृति को बचाने का अवसर नहीं देता तो इन सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के लिए अपने प्रान्त में वापस जाकर उस जनता से जिसका वे भाग हैं, घुलमिल जाना कठिन होगा।”
    संविधान के प्रारूप में “भाषा, लिपि और संस्कृति शब्द थे परन्तु बाद में संस्कृति और लिपि के बीच में और के स्थान पर या शब्द का प्रयोग किया गया। यह परिवर्तन इसलिए किया गया कि कुछ ऐसे लोग हो सकते हैं, जिनकी भाषा व लिपि भिन्न हो पर संस्कृति भिन्न न हो जैसे उड़ीसा में आंध्र” ।
  3. नागरिकों का शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश का अधिकार [अनुच्छेद 29(2)] [Right of Citizen for Admission in Educational Institutions [ Article 29 (2)] अनुच्छेद 29 के भाग (2) के अनुसार, राज्य द्वारा पोषित अथवा राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा अथवा इनमें से किसी आधार पर दण्डित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार किसी विशेष राज्यक्षेत्र में निवास के आधार पर प्रवेश के आरक्षण से 29 (2) का अतिक्रमण नहीं होता । अनुच्छेद 29 (2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य से सहायता प्राप्त करने वाली शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश का समान अधिकार सभी नागरिकों को देता है। इस अनुच्छेद द्वारा शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश पाने का अधिकार व्यक्ति को एक नागरिक के रुप में प्राप्त है न कि समुदाय के सदस्य के रूप में।
    इस अनुच्छेद की पदावली बड़े विशद् अर्थ वाली है तथा सभी नागरिकों पर लागू होती है चाहे वे अल्पसंख्यक वर्ग के हों या बहुसंख्यक वर्ग के उदाहरण के लिए कोई स्कूल यदि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित है तथा राज्यनिधि से सहायता प्राप्त करता है तो उसमें अन्य समुदाय के बच्चों को प्रवेश देने से इंकार नहीं किया जा सकता है। न राज्य ऐसे स्कूलों को अपने ही समुदाय के लोगों के लिए प्रवेश की सीमित रखने का निर्देश दे सकता है क्योंकि ऐसा अनुच्छेद 29 (2) के विरुद्ध होगा।
  4. अनुच्छेद 350 इसके तहत प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा।
    1. प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँप्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निदेश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है।
    2. भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए विशेष अधिकारी –
      1. भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए एक विशेष अधिकारी होगा जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा।
      2. विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषायी अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए उपबंधित रक्षोपायों से सम्बन्धित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के सम्बन्ध में ऐसे अन्तरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और सम्बन्धित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा। इस प्रकार अनुच्छेद 350 के प्रावधानों के अनुसार कोई भी व्यक्ति संघ अथवा राज्य की किसी भी भाषा में अपना अभ्यावेदन दे सकता है।
  5. हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार (Promotion of Hindi Language) – अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे, ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का साधन बन सके। इस प्रकार अनुच्छेद 351 का यह आशय है कि राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए धीरे-धीरे हिन्दी भाषा का प्रयोग बढ़ाया जाएगा। कोई बात जो इस एकता को आघात पहुँचाएगी अनुच्छेद 351 के विरुद्ध होगी। अनुच्छेद 351 में. यह उपबन्धित है कि हिन्दी भाषा के विकास के लिए उससे अन्य भाषाओं के शब्द शैली और पदों को आत्मसात् करना आवश्यक है।

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